सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3) भाग दो

सुशिक्षित और समझदार बनना मनुष्य की एक परंपरागत धारणा है। यह पूरी तरह से सत्य के विपरीत है। यह देखते हुए कि यह सत्य के विपरीत है, अगर मनुष्य को सत्य को अभ्यास में लाना हो तो उसके पास वास्तव में क्या होना चाहिए? वह कौन-सी वास्तविकता है, जिसे जब जीया जाता है, तो वह सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप होती है? क्या तुम जानते हो? इस तरह की संगति के साथ, कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम कहते हो कि सुशिक्षित और समझदार बनना सत्य के अनुरूप नहीं है, कि यह सिर्फ एक बाहरी अच्छा व्यवहार है। तो, अब हम सुशिक्षित, समझदार लोग नहीं रहेंगे। जीवन ज्यादा बेफिक्र होगा, यह किसी भी नियम से बेबस या नियंत्रित नहीं होगा। हम जो चाहते हैं वह कर सकेंगे, जैसे चाहें वैसे जी सकेंगे। तब हम कितने बेफिक्र होंगे! यह देखते हुए कि मनुष्य का अच्छा व्यवहार उसके परिणाम से संबंधित नहीं है, हम अब ज्यादा स्वतंत्र हैं। हमें विकसित होने, नियमों या उस जैसी किसी भी चीज के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है।” क्या इसका यह निष्कर्ष निकालना सही है? (नहीं।) यह एक विकृत समझ है; वे अतियों पर जाने की गलती करते हैं। तो क्या कोई है, जो ऐसी गलती करेगा? कुछ लोग हो सकते हैं, जो कहते हैं, “चूँकि सुसंस्कृत लोग अभी भी परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात कर सकते हैं, इसलिए मैं सुसंस्कृत व्यक्ति नहीं बनूँगा। मैं सुसंस्कृत लोगों के प्रति तिरस्कार महसूस करने लगा हूँ। मैं उन लोगों से घृणा करता हूँ, जो सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, विनम्र हैं, जो बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करते हैं, जो मिलनसार हैं। जो कोई ये चीजें प्रदर्शित करता है, मैं उसे देखकर अपनी नाक-भौं सिकोड़ लेता हूँ और उसे सरे-आम डाँटता हूँ : ‘तुम्हारा व्यवहार फरीसियों जैसा है। इसका उद्देश्य दूसरों को गुमराह करना है। यह सत्य का अनुसरण करना नहीं है, इसका अभ्यास करना तो बिल्कुल भी नहीं है। हमें बरगलाने की कोशिश बंद करो—हम तुम्हारे धोखे में नहीं आएँगे, न तुम्हारी चाल में फँसेंगे!’” क्या तुम लोग इस तरह पेश आओगे? (नहीं।) तुम्हारा ऐसा न करना सही है। अगर तुम इतना मूर्खतापूर्ण कुछ करोगे तो इसका मतलब होगा कि तुम्हारे विकृतियों से प्रभावित होने की बहुत ज्यादा संभावना है। विकृत समझ वाले कुछ लोगों में सत्य की शुद्ध समझ-बूझ का अभाव होता है—उनमें समझने-बूझने की क्षमता नहीं होती। वे बस नियमों का पालन ही कर सकते हैं, इसलिए वे इसी तरह पेश आते हैं। तो, हम इस समस्या के बारे में संगति और गहन-विश्लेषण क्यों करते हैं? मुख्य रूप से, लोगों को यह समझाने के लिए कि सत्य का अनुसरण करना बाहरी अच्छे व्यवहार का अनुसरण करना नहीं है, न ही इसका उद्देश्य तुम्हें एक शिष्ट, सुनियंत्रित, सुसंस्कृत व्यक्ति बनाना है। बल्कि, इसका उद्देश्य यह है कि तुम सत्य समझो, उसका अभ्यास करो, और सत्य के आधार पर कार्य करने में सक्षम रहो, जिसका अर्थ है कि तुम जो कुछ भी करते हो उसका आधार परमेश्वर के वचनों में है, कि यह सब सत्य के अनुरूप है। जो व्यवहार सत्य के अनुरूप होते हैं और जिनका आधार परमेश्वर के वचन होते हैं, वे सुशिक्षित और समझदार बनने के समान नहीं होते, न ही वे परंपरागत संस्कृति और परंपरागत नैतिकता द्वारा मनुष्य से अपेक्षित मानकों के समान होते हैं। ये दो अलग चीजें हैं। परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और सिर्फ वे ही एकमात्र मानदंड हैं जिसके द्वारा मनुष्य की अच्छाई-बुराई, उसका सही-गलत मापा जाता है। दूसरी ओर, परंपरागत संस्कृति का सुशिक्षित और समझदार बनने का मानक सत्य-सिद्धांतों के मानक से बहुत पीछे रह जाता है। परमेश्वर ने कब, कार्य के किस चरण के दौरान तुमसे कहा था कि तुम्हें एक सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति, एक सुसंस्कृत, नेक, अधम रुचियों से रहित व्यक्ति बनना चाहिए? क्या परमेश्वर ने ऐसा कुछ कहा है? (नहीं।) उसने नहीं कहा। तो, मनुष्य के व्यवहार के संबंध में परमेश्वर क्या कहता और अपेक्षा रखता है? पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपनी कसौटी मानकर आचरण और कार्य करो। तो फिर परमेश्वर के वचनों का वह आधार क्या है? अर्थात्, तुम्हें कौन-सा सत्य अपनी कसौटी के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए और किस तरह का जीवन जीना चाहिए, ताकि तुम सत्य का अनुसरण और अभ्यास कर पाओ? क्या यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे समझा जाना चाहिए? (हाँ, है।) तो, मनुष्य से परमेश्वर के वचनों की व्यवहारगत अपेक्षाओं के मानक क्या हैं? क्या तुम लोग उसके ऐसे वचन ढूँढ़ सकते हो, जो इस बारे में स्पष्ट हों? (परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मुझे बहुत उम्मीदें हैं। मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग उपयुक्त और अच्छी तरह से व्यवहार करो, अपना कर्तव्य निष्ठा से निभाओ, सत्य और मानवता को अपनाओ, ऐसे व्यक्ति बनो जो अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि अपना जीवन भी परमेश्वर के लिए न्योछावर कर सके, वगैरह-वगैरह। ये सारी आशाएँ तुम लोगों की कमियों, भ्रष्टता और विद्रोहीपन से उत्पन्न होती हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे)।) ये सभी वचन मनुष्य के आचरण के लिए सिद्धांत और अपेक्षाएँ हैं। तो, परमेश्वर के और कौन-से वचन हैं, जो विशिष्ट अभ्यास से संबंधित हैं? (एक और अंश है, जो कहता है, “तुम्हारा चित्त निरंतर शांत स्थिति में रहना चाहिए, और जब तुम्हारे साथ कुछ बीते तो तुम्हें उतावला, पूर्वाग्रही, जिद्दी, कट्टर, कृत्रिम या नकली नहीं होना चाहिए, ताकि तुम बुद्धि के साथ कार्य करने में सक्षम हो सको। यही सामान्य मानवता की उचित अभिव्यक्ति है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने का मार्ग)।) यह थोड़ा विशिष्ट अभ्यास है। ये मनुष्य के बाहरी व्यवहार और तरीकों के लिए विशिष्ट नुस्खे और अपेक्षाएँ हैं। क्या इन्हें परमेश्वर के वचनों का आधार माना जा सकता है? क्या ये पर्याप्त विशिष्ट हैं? (हाँ।) इन्हें दोबारा पढ़ो। (“तुम्हारा चित्त निरंतर शांत स्थिति में रहना चाहिए, और जब तुम्हारे साथ कुछ बीते तो तुम्हें उतावला, पूर्वाग्रही, जिद्दी, कट्टर, कृत्रिम या नकली नहीं होना चाहिए, ताकि तुम बुद्धि के साथ कार्य करने में सक्षम हो सको। यही सामान्य मानवता की उचित अभिव्यक्ति है।”) इन विषयों पर ध्यान दो; ये वे सिद्धांत हैं, जिनका पालन तुम्हें भविष्य में कार्य करते समय करना चाहिए। ये लोगों से कहते हैं कि उन्हें अपने आचरण और कार्यों में तर्कसंगत रूप से चीजों का सामना करना सीखना चाहिए, और इसके अलावा उन्हें जमीर और विवेक के साथ कार्य करने की नींव से सत्य-सिद्धांत खोजने में सक्षम होना चाहिए। इस तरह आचरण और कार्य करो, तो वहाँ सिद्धांत होंगे और साथ ही अभ्यास का एक मार्ग भी होगा।

वे कुछ चीजें, जिनके बारे में हमने अभी बात की थी : “जब तुम्हारे साथ कुछ बीते तो तुम्हें उतावला, पूर्वाग्रही, जिद्दी, कट्टर, कृत्रिम या नकली नहीं होना चाहिए, ताकि तुम बुद्धि के साथ कार्य करने में सक्षम हो सको”—क्या ये चीजें आसानी से की जा सकती हैं? बिल्कुल, कुछ समय के प्रशिक्षण के साथ ये सभी चीजें हासिल की जा सकती हैं। अगर कोई व्यक्ति वास्तव में ऐसा नहीं कर सकता, तो फिर क्या किया जाना चाहिए? अगर तुम सिर्फ एक काम भी करते हो तो ठीक रहेगा, यानी किसी समस्या का सामना या दूसरों के साथ बातचीत करते हुए कम-से-कम एक चीज ऐसी है जिसका पालन करना ही चाहिए : तुम्हें इस तरह आचरण और कार्य करना है, जो दूसरों को शिक्षा दे। यह सबसे बुनियादी बिंदु है। अगर तुम इसके अनुसार और इसे अपनी कसौटी मानकर इसका अभ्यास और पालन करते हो, तो तुम, मुख्य रूप से, दूसरों को कोई बड़ा नुकसान नहीं पहुँचाओगे, न ही तुम खुद कोई बड़ा नुकसान उठाओगे। इस तरह आचरण और कार्य करो, जो दूसरों को शिक्षा दे—क्या इसमें कोई विवरण है? (हाँ, है।) अपनी आत्म-संतुष्टि दूसरों के हितों को नुकसान पहुँचाने पर आधारित न करो; अपनी खुशी और सुख दूसरों के कष्ट के ऊपर निर्मित न करो। शिक्षा देने का यही अर्थ है। ऐसी शिक्षा को समझने का सबसे बुनियादी तरीका क्या है? इसका मतलब यह है कि तुम्हारा व्यवहार दूसरों के लिए सहनीय होना चाहिए, जैसा कि मानवता के जमीर और विवेक से मापा जाता है; वह मानवता के जमीर और विवेक के अनुरूप होना चाहिए। क्या ऐसा नहीं है कि कोई सामान्य मानवता वाला व्यक्ति इस पर खरा उतर सके? (ऐसा है।) मान लो, कोई व्यक्ति कमरे में आराम कर रहा है, और तुम अपने आस-पड़ोस की परवाह किए बिना अंदर जाते हो, और गाना-बजाना शुरू कर देते हो। क्या यह उचित होगा? (नहीं।) क्या यह अपनी मौज-मस्ती और खुशी दूसरे की पीड़ा पर निर्मित करना नहीं होगा? (होगा।) अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन पढ़ रहा है या सत्य के बारे में संगति कर रहा है, और तुम्हें उसके साथ बस अपनी समस्याओं के बारे में बात करनी है, तो क्या यह उसके लिए सम्मानजनक है? क्या यह उसके लिए अशिक्षाप्रद नहीं है? (है।) अशिक्षाप्रद होने का क्या मतलब है? कम-से-कम इसका यह मतलब तो है ही कि तुम दूसरों का सम्मान नहीं करते। तुम्हें दूसरों के भाषण या कार्यों में बाधा नहीं डालनी चाहिए। क्या यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे सामान्य मानवता हासिल कर सकती हो? अगर तुम इसे भी हासिल नहीं कर सकते, तो वाकई तुममें जमीर और विवेक नहीं है। क्या जमीर या विवेक से रहित लोग सत्य में पैठ बना सकते हैं? नहीं बना सकते। सत्य का अभ्यास करना ऐसी चीज है, जिसे कम-से-कम जमीर और विवेक वाले लोग ही प्राप्त कर सकते हैं, और अगर तुम सत्य का अनुसरण करोगे, तो कम-से-कम तुम्हारी कथनी-करनी जमीर और विवेक के मानकों के अनुरूप होनी चाहिए; तुम्हारे आस-पास के लोगों को तुम्हें सहनीय और स्वीकार्य समझना चाहिए। हमने अभी यही कहा है : अपने कार्य कम-से-कम दूसरों को शालीन और शिक्षाप्रद लगने दो। क्या शिक्षाप्रद होना दूसरों के लिए लाभकारी होने के समान है? नहीं, वास्तव में—शिक्षाप्रद होने का अर्थ दूसरों के स्थान का पारस्परिक रूप से सम्मान करना है, न कि उसे बाधित करना, अवरुद्ध करना या उसमें हस्तक्षेप करना; यह अपने व्यवहार के कारण दूसरों को नुकसान या पीड़ा न होने देना है। शिक्षाप्रद होने का यही अर्थ है। तुम लोग इसे कैसे समझते हो? शिक्षाप्रद होने का मतलब यह नहीं है कि तुम दूसरों को कितना लाभ पहुँचाते हो; इसका यह मतलब है कि वे अपने वाजिब हितों और अधिकारों का लाभ उठाने में सक्षम हो सकें, और तुम अपनी मनमानी और अनुचित व्यवहार से उन्हें इनका इस्तेमाल करने से न रोको या वंचित न करो। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) अब तुम लोग परमेश्वर के कुछ ऐसे वचन जानते हो, जो मनुष्य के आचरण और कार्यों के लिए उसकी अपेक्षाओं से संबंधित हैं, फिर भी मैं तुम लोगों को बताता हूँ, सबसे बुनियादी चीज यह है कि तुम्हें अपने आचरण और कार्यों में दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होना चाहिए। कार्य का यही सिद्धांत है। क्या तुम समझ गए हो कि शिक्षाप्रद होना क्या होता है? (हाँ।) कुछ लोग हैं, जो इस बात पर कोई विचार नहीं करते कि उनकी कथनी-करनी से दूसरों को शिक्षा मिलती है या नहीं, फिर भी वे सुशिक्षित, समझदार होने का दावा करते हैं। क्या यह धोखाधड़ी नहीं है? आचरण और कार्य में दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होना—क्या इससे कोई सबक नहीं सीखा जा सकता? यह एक व्यवहारगत प्रदर्शन हो सकता है, फिर भी क्या इसे करना आसान है? अगर कोई व्यक्ति थोड़ा भी सत्य समझता है, तो वह जान जाएगा कि सिद्धांतों के अनुरूप कैसे कार्य करना है, किस तरह कार्य करें जिससे दूसरों को शिक्षा मिले और दूसरों को लाभ हो। अगर व्यक्ति सत्य को नहीं समझता, तो वह नहीं जानेगा कि क्या करना है; वह सिर्फ अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करके ही कार्य कर सकता है। कुछ लोग अपने दैनिक जीवन में कभी सत्य नहीं खोजते, चाहे उन पर कुछ भी संकट आ पड़े। वे बस अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हैं, बिना इसकी परवाह किए कि इससे दूसरों को कैसा महसूस होता है। क्या ऐसे कार्य में सिद्धांत हैं? तुम लोगों को यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि उसमें सिद्धांत हैं या नहीं, है न? तुम सभी लोग अक्सर सभाओं में एकत्र होकर परमेश्वर के वचन पढ़ते हो; अगर तुम वाकई थोड़ा सत्य समझने में सक्षम हो, तो तुम कुछ मामलों का सत्य-सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर उनमें संलग्न होने में सक्षम होगे। ऐसे अभ्यास से तुम्हें कैसा महसूस होता है? इससे दूसरों को कैसा महसूस होता है? अगर तुम इसे महसूस करने के लिए कड़ी मेहनत करो, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि किस तरह का अभ्यास दूसरों के लिए शिक्षाप्रद है। आम तौर पर जब तुम लोगों पर कुछ संकट आ पड़ता है, चाहे वह कुछ भी हो, तो तुम ऐसे वास्तविक मुद्दों पर कोई विचार नहीं करते कि उस तरह से कैसे कार्य किया जाए, जो सामान्य मानवता या सत्य के अभ्यास को छूता हो। इसलिए, जब तुम पर कुछ संकट आ पड़ता है, तब अगर कोई तुमसे पूछे कि किस तरह का अभ्यास या कार्य दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होगा, तो तुम लोगों को जवाब देना मुश्किल हो जाएगा, मानो कोई स्पष्ट मार्ग ही न हो। सभाओं में मैं वास्तविक जीवन की इन तमाम समस्याओं के बारे में ही बात करता हूँ, फिर भी जब तुम लोग इनका सामना करते हो, तो तुम कभी दृढ़ नहीं रह पाते और तुम्हें कुछ नहीं सूझता। क्या इसमें कोई विसंगति नहीं है? (है।) तो फिर तुम लोगों ने परमेश्वर में अपने विश्वास से क्या हासिल किया है? कुछ सिद्धांत, कुछ नारे। तुम कितने दरिद्र और दयनीय हो!

जिन ऐसी चीजों पर हमने चर्चा की है जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है, उनमें से एक—सुशिक्षित और समझदार बनना—में मनुष्य की कुछ विशिष्ट धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, साथ ही कुछ परंपरागत तरीके भी हैं जिनसे मनुष्य इस व्यवहार को समझता है। संक्षेप में, अब इस व्यवहारगत प्रदर्शन पर नजर डालने पर हम देखते हैं कि इसका सत्य या सच्ची मानवता से कोई संबंध नहीं है। इसका कारण यह है कि यह सत्य से बहुत पीछे है और इसकी उससे तुलना नहीं की जा सकती, और इसके अलावा, ऐसा व्यवहार मूलभूत रूप से लोगों और चीजों पर मनुष्य के विचारों के साथ-साथ उसके आचरण और कार्य के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानकों के अनुरूप नहीं है, जिसके साथ यह पूरी तरह से असंगत है और जिसके साथ इसका कोई संबंध नहीं है। यह सिर्फ मनुष्य का व्यवहार है। मनुष्य ऐसा व्यवहार चाहे कितनी भी अच्छी तरह प्रदर्शित करे, और वह चाहे कितने भी पर्याप्त रूप से इसका अभ्यास करे, यह सिर्फ व्यवहार का एक रूप है। यह सच्ची सामान्य मानवता कहलाने योग्य भी नहीं है। यह कथन कि व्यक्ति को सुशिक्षित और समझदार होना चाहिए, मनुष्य के बाहरी व्यवहार को पूर्ण बनाने का एक तरीका मात्र है। खुद को आकर्षक और सुंदर बनाने के लिए मनुष्य सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति बनने के लिए कड़ी मेहनत करता है, जिससे वह दूसरों का सम्मान और आदर जीतता है, और अपने समूह में अपना स्थान और मूल्य बढ़ाता है। लेकिन तथ्य यह है कि ऐसा व्यवहार उस नैतिकता, निष्ठा और गरिमा के स्तर तक भी नहीं पहुँच पाता, जो एक सच्चे व्यक्ति में होनी चाहिए। सुशिक्षित और समझदार बनना एक ऐसा कथन है जो परंपरागत संस्कृति से आता है, और यह व्यावहारिक प्रदर्शनों का वह समुच्चय है जिसे भ्रष्ट मनुष्य ने अपने लिए ऐसी चीज के रूप में निर्धारित किया है जिसे वह मानता है कि बरकरार रखा जाना चाहिए। ये व्यवहारगत प्रदर्शन व्यक्ति की अपने समूह में प्रतिष्ठा और मूल्य बढ़ाने के लिए हैं, ताकि वह दूसरों का सम्मान जीत सके और सबसे मजबूत बन सके, अपने समूह में तिरस्कृत न किया जाए या धमकाया न जाए। इस बाहरी व्यवहार का मानवता की नैतिकता या गुणवत्ता से कोई लेना-देना नहीं है, फिर भी मनुष्य इसे इतना ऊपर रखता है और इसे इतना महत्व देता है। तुम खुद देखो कि इसमें कितना फर्जीवाड़ा होगा! इसलिए, अगर तुम्हारा वर्तमान लक्ष्य एक सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति बनना है, और तुम अपने व्यवहार को नियंत्रित कर रहे हो, सुशिक्षित और समझदार बनने के लक्ष्य की दिशा में कड़ी मेहनत और अभ्यास कर रहे हो, तो मैं तुमसे आग्रह करता हूँ कि इस पर तुरंत रोक लगा दो। ऐसे व्यवहार और तरीके तुम्हें सिर्फ खुद को ज्यादा से ज्यादा छिपाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं और तुम्हें ज्यादा से ज्यादा पाखंडी बना सकते हैं, और ऐसा होते ही तुम एक ईमानदार व्यक्ति, एक सरल, साफदिल व्यक्ति बनने से और ज्यादा दूर हो जाओगे। जितना ज्यादा तुम एक सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति बनने का प्रयास करोगे, उतना ही ज्यादा तुम खुद को छिपाओगे, और जितना ज्यादा तुम खुद को छिपाओगे—तुम्हारा छद्मवेश जितना गहरा होगा, दूसरों के लिए तुम्हारी माप लेना या तुम्हें समझना उतना ही कठिन होगा, और तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव उतना ही ज्यादा छिपा रहेगा। ऐसा करोगे, तो सत्य की स्वीकृति और उद्धार प्राप्त करना बहुत कठिन होगा। तो, इन बिंदुओं के आलोक में क्या एक सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति बनने का मार्ग सत्य का अनुसरण करने के मार्ग के समान है? क्या यह उचित अनुसरण है? (नहीं।) क्या सुशिक्षित और समझदार बनने के व्यवहार के पीछे दूसरों के साथ और खुद अपने प्रति ज्यादा धोखाधड़ी नहीं छिपी है, इसके नकारात्मक सार और इसके नकारात्मक परिणाम तो खैर हैं ही? (बिल्कुल छिपी है।) सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति अपने पीछे कई अकथनीय रहस्य छिपाता है, और उनसे भी ज्यादा, वह तमाम गलत विचार, धारणाएँ, दृष्टिकोण, रवैये और भाव छिपाता है जो दूसरों के लिए अज्ञात होते हैं, दूसरों के लिए नीच, गंदे, बुरे और घिनौने होते हैं। सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति के अच्छे व्यवहार के पीछे उसका ज्यादा भ्रष्ट स्वभाव छिपा होता है। इस व्यवहारगत प्रदर्शन की आड़ में ऐसे व्यक्ति में अपने भ्रष्ट स्वभाव का सामना करने का साहस नहीं होता, न ही उसमें अपना भ्रष्ट स्वभाव स्वीकारने का आत्मविश्वास होता है। अपने भ्रष्ट स्वभाव, अपने विकृत ज्ञान, अपने बुरे विचारों, इरादों और लक्ष्यों के बारे में—या जैसा कि हो सकता है, यहाँ तक कि अपने दुर्भावनापूर्ण, विषैले विचारों के बारे में भी खुलकर बोलने का साहस और आत्मविश्वास तो उसमें बिल्कुल नहीं होता। उसके पीछे बहुत-सी चीजें छिपी होती हैं, और कोई उन्हें नहीं देख सकता; लोग अपने सामने सिर्फ तथाकथित “अच्छे व्यक्ति” को देखते हैं, जिसमें सुशिक्षित और समझदार बनने का अच्छा व्यवहार होता है। क्या यह धोखाधड़ी का मामला नहीं है? (है।) उस व्यक्ति का संपूर्ण व्यवहार, प्रदर्शन, अनुसरण और सार धोखाधड़ी का मामला है। वह दूसरों को धोखा दे रहा है, और वह खुद को धोखा दे रहा है। ऐसे व्यक्ति का अंतिम परिणाम क्या होगा? एक सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति होने के लिए वह परमेश्वर को त्याग देता है, सच्चे मार्ग से मुँह मोड़ लेता है, और परमेश्वर उससे तिरस्कार करता है। सुशिक्षित और समझदार बनने के अच्छे व्यवहार के पीछे हर छिपे कोने में, मनुष्य अपने छद्मवेश और धोखाधड़ी की तकनीकों और व्यवहारों को छिपाता है, और ऐसा करके वह अपने अहंकारी, दुष्ट, सत्य-विमुख, शातिर और दुराग्रही स्वभाव छिपाता है। इसलिए व्यक्ति जितना ज्यादा सुशिक्षित और समझदार होता है, वह उतना ही ज्यादा धोखेबाज होता है, और व्यक्ति जितना ज्यादा सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति बनने का प्रयास करता है, उतना ही कम वह सत्य का प्रेमी होता है और उतना ही ज्यादा सत्य और परमेश्वर के वचनों से विमुख व्यक्ति होता है। मुझे बताओ, क्या ऐसा ही नहीं है? (ऐसा ही है।) फिलहाल हम सुशिक्षित और समझदार बनने के अच्छे व्यवहार के बारे में अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं।

अभी हमने परंपरागत संस्कृति में अच्छे व्यवहार के बारे में एक कथन पर संगति की : सुशिक्षित और समझदार बनना। हम अन्य कुछ कथनों के बारे में अलग-अलग संगति नहीं करेंगे। अच्छे व्यवहार के बारे में सभी कथन सामूहिक रूप से मनुष्य के बाहरी व्यवहार और छवि को पूर्ण बनाने का एक तरीका मात्र हैं। “पूर्ण बनाना” इसे अच्छी तरह से शब्दबद्ध करता है; इसे और ज्यादा सटीक रूप से कहें तो, असल में यह छद्मवेश का एक रूप है, छल से दूसरों के मन में अपने बारे में अच्छी भावनाएँ पैदा करवाने, उनसे अपना सकारात्मक मूल्यांकन करवाने, उनसे अपना सम्मान करवाने के लिए झूठे दिखावे का इस्तेमाल करने का एक तरीका है। जबकि व्यक्ति के दिल का काला पक्ष, उसके भ्रष्ट स्वभाव और उसका असली चेहरा सब छिपे रहते हैं और अच्छी तरह से पेश किए जाते हैं। हम इसे इस तरह भी कह सकते हैं : इन अच्छे व्यवहारों के प्रभामंडल के नीचे जो छिपा रहता है, वह भ्रष्ट मानवता के प्रत्येक सदस्य का भ्रष्ट असली चेहरा है। जो छिपा होता है वह है दुष्ट मानवजाति के प्रत्येक सदस्य का अहंकारी स्वभाव, धोखेबाज स्वभाव, दुष्ट स्वभाव और सत्य से विमुख रहने वाला स्वभाव। चाहे व्यक्ति का बाहरी व्यवहार सुशिक्षित और समझदार हो या सौम्य और परिष्कृत, या चाहे वह मिलनसार, सुलभ, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला हो या ऐसी कोई भी चीज—इनमें से जो भी वह दिखाता है, वह एक बाहरी व्यवहार से ज्यादा कुछ नहीं है, जिसे दूसरे लोग देख सकते हैं। यह उसे अच्छे व्यवहार के माध्यम से उसकी प्रकृति और सार के ज्ञान तक नहीं ले जा सकता। हालाँकि मनुष्य सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, सुलभ और मिलनसार होने के बाहरी व्यवहारों से अच्छा दिखता है, इतना कि संपूर्ण मानव-जगत उनके साथ मित्रवत् पेश आता है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन अच्छे व्यवहारों के आवरण के नीचे मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव वाकई मौजूद रहते हैं। मनुष्य का सत्य से विमुख होना, परमेश्वर के प्रति उसका प्रतिरोध और विद्रोहशीलता, सृष्टिकर्ता के बोले गए वचनों से विमुख होने और सृष्टिकर्ता का विरोध करने की उसका प्रकृति सार—ये वास्तव में वहाँ मौजूद रहते हैं। इसमें कुछ भी झूठ नहीं है। कोई व्यक्ति अच्छा होने का चाहे कितना भी दिखावा करे, चाहे उसके व्यवहार कितने भी सभ्य और शोभनीय लगें, चाहे कितनी भी अच्छी तरह या खूबसूरती से वह खुद को पेश करे, या वह कितना भी कपटी हो, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक भ्रष्ट व्यक्ति शैतानी स्वभाव से भरा होता है। इन बाहरी व्यवहारों के मुखौटे के अंदर, वह परमेश्वर का विरोध और उसके प्रति विद्रोह करता रहता है, सृष्टिकर्ता का विरोध और उसके प्रति विद्रोह करता रहता है। निस्संदेह, इन अच्छे व्यवहारों का लबादा और आवरण ओढ़े हुए मनुष्य हर दिन, हर घंटे और पल, हर मिनट और सेकंड, हर मामले में भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, जिसके दौरान वह भ्रष्ट स्वभावों और पाप के बीच रहता है। यह एक निर्विवाद तथ्य है। मनुष्य के आकर्षक व्यवहारों, मधुर शब्दों और झूठे दिखावों के बावजूद उसका भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल भी कम नहीं हुआ, न ही उसके बाहरी व्यवहारों के कारण उसमें कोई बदलाव आया है। इसके विपरीत, चूँकि उसके पास इन बाहरी अच्छे व्यवहारों का आवरण है, इसलिए उसका भ्रष्ट स्वभाव लगातार प्रकट होता है, और वह बुराई करने और परमेश्वर का विरोध करने की दिशा में अपने कदम कभी नहीं रोकता—और निस्संदेह, अपने शातिर और दुष्ट स्वभावों से संचालित उसकी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और असाधारण अपेक्षाएँ लगातार विस्तृत और विकसित हो रही हैं। मुझे बताओ, ऐसा विनम्र, मिलनसार, सुलभ व्यक्ति कहाँ है, जिसकी जीवंत छवि और जिसके आचरण और कार्यों का आधार सकारात्मक और परमेश्वर के वचनों, सत्य के अनुरूप हो? कहाँ है ऐसा सुशिक्षित, समझदार, सौम्य और परिष्कृत व्यक्ति, जो सत्य से प्रेम करता हो, जो अपने जीवन की दिशा और लक्ष्य परमेश्वर के वचनों में खोजने को तैयार हो, जिसने मानवजाति के उद्धार में योगदान दिया हो? क्या तुम ऐसा एक भी व्यक्ति ढूँढ़ सकते हो? (नहीं।) तथ्य यह है कि मानवजाति में जो व्यक्ति जितना ज्यादा ज्ञानी होता है; जितना ज्यादा शिक्षित होता है और जितने ज्यादा विचार, हैसियत और प्रतिष्ठा उसके पास होती है—भले ही उसे एक सुशिक्षित और समझदार, मिलनसार, सुलभ व्यक्ति कहा जा सकता हो—उतना ही ज्यादा लिखित रूप में किए गए उसके दावे लोगों को गुमराह कर सकते हैं, और उतनी ही ज्यादा वह बुराई करता है, और उतना ही ज्यादा गंभीर परमेश्वर के प्रति उसका प्रतिरोध होता है। ज्यादा प्रतिष्ठा और रुतबे वाले लोग दूसरों को और भी ज्यादा गुमराह करते हैं, और परमेश्वर के विरुद्ध अपने प्रतिरोध में वे और भी ज्यादा जंगली होते हैं। पूरी मानवजाति में उसके प्रसिद्ध लोगों, उसके महान लोगों, उसके विचारकों, शिक्षकों, लेखकों, क्रांतिकारियों, राजनेताओं या किसी भी क्षेत्र के ऐसे दिग्गजों को देखो—उनमें से कौन सुशिक्षित और समझदार, सुलभ और मिलनसार नहीं है? उनमें से किसने बाहरी तौर पर ऐसा व्यवहार नहीं किया, जिससे दूसरों की प्रशंसा मिले और वह दूसरों के सम्मान के योग्य हो? फिर भी क्या उन्होंने वास्तव में मानवजाति के लिए योगदान किया है? क्या उन्होंने मानवजाति को सही मार्ग पर चलाया है, या उसे भटकाया है? (भटकाया है।) क्या वे मानवजाति को सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में लाए हैं, या उसे शैतान के पैरों के नीचे ले गए हैं? (शैतान के पैरों के नीचे ले गए हैं।) क्या उन्होंने मानवजाति को सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, पोषण और मार्गदर्शन का हिस्सा बनाया है, या उसे शैतान के पद-दलन, क्रूरता और दुर्व्यवहार का सामना करने दिया है? इतिहास के तमाम वीर व्यक्तियों, प्रसिद्ध, महान, श्रेष्ठ, असाधारण, सशक्त लोगों में से, उनका कौन-सा अधिकार और रुतबा लाखों-करोड़ों लोगों की हत्या से प्राप्त नहीं हुआ? उनकी ऐसी कौन-सी प्रतिष्ठा है जो उन्हें मानवजाति के साथ धोखाधड़ी करने, उसे गुमराह करने और प्रलोभन देने से प्राप्त नहीं हुई? बाहर से वे दूसरों के साथ अपनी दैनिक मुलाकातों में सुलभ और काफी सहज लगते हैं, खुद को दूसरों के बराबर रखते हैं और अपनी बोलचाल में मिलनसार होते हैं—लेकिन पर्दे के पीछे जो वे करते हैं, वह पूरी तरह से अलग होता है। उनमें से कुछ दूसरों को फँसाने की साजिश रचते हैं; कुछ लोग दूसरों को सताने और नुकसान पहुँचाने के लिए चालबाजी में लगे रहते हैं; दूसरे लोग बदला लेने के मौके तलाशते हैं। अधिकांश राजनेता लोगों के लिए बेहद क्रूर और हानिकारक हैं। उन्होंने अनगिनत लोगों के सिर पर और उनके खून में अपने पैर जमाकर अपना रुतबा और प्रभाव हासिल किया, फिर भी सार्वजनिक विन्यास में, लोग जो देखते हैं वह उनका सुलभ रूप और मिलनसार व्यवहार है। लोग जो देखते हैं, वह उनके द्वारा दिखाया जाने वाला सौम्य और परिष्कृत, सुशिक्षित और समझदार, अत्यधिक विनम्र रूप है। बाहर से वे विनम्र, सौम्य और परिष्कृत होते हैं, लेकिन उसके पीछे वे अनगिनत लोगों की हत्या कर देते हैं, अनगिनत लोगों की संपत्ति हड़प लेते हैं, अनगिनत लोगों पर हावी होकर उनके साथ खिलवाड़ करते हैं। वे हर अच्छा शब्द बोलते हैं और हर बुरा काम करते हैं, और बेशर्मी से, निर्लज्जता से, वे अपने मंच से प्रवचन देते हैं, दूसरों को सिखाते हैं कि कैसे सुलभ, सुशिक्षित और समझदार लोग बनें, कैसे देश और मानवजाति के लिए योगदान करने वाले लोग बनें, कैसे लोगों की सेवा करें और जनता के सेवक बनें, कैसे राष्ट्र के प्रति समर्पित हों। क्या यह बेशर्मी नहीं है? ढीठ, लालची मैल, वे सब! संक्षेप में, नैतिकता की परंपरागत धारणाओं के अनुरूप अच्छे व्यवहार वाला व्यक्ति होना सत्य का अनुसरण करना नहीं है; यह एक सच्चे सृजित प्राणी होने का प्रयास नहीं है। इसके विपरीत, इन अच्छे व्यवहारों के अनुसरण के पीछे कई काले और बताए न जा सकने वाले रहस्य छिपे होते हैं। मनुष्य चाहे जिस भी प्रकार के अच्छे व्यवहार का अनुसरण करे, उसके पीछे ज्यादा लोगों से चाहत और सम्मान प्राप्त करने, अपनी हैसियत बढ़ाने और लोगों को यह सोचने के लिए प्रेरित करने के सिवा कोई लक्ष्य नहीं होता कि वह सम्माननीय और भरोसा और आदेश पाने योग्य है। अगर तुम ऐसे शिष्ट व्यक्ति होने का प्रयास करते हो, तो क्या यह गुणवत्ता में उन लोगों के समान नहीं है, जो प्रसिद्ध और महान हैं? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो केवल शिष्ट है, लेकिन परमेश्वर के वचनों से प्रेम नहीं करता और सत्य नहीं स्वीकारता, तो गुणवत्ता में तुम उन जैसे ही हो। और नतीजा क्या होता है? तुमने जो त्याग दिया है, वह सत्य है; तुमने जो खो दिया है, वह उद्धार का तुम्हारा अवसर है। यह सबसे मूर्खतापूर्ण व्यवहार है—यह एक मूर्ख की पसंद और अनुसरण है। क्या तुम लोगों ने कभी वह व्यक्ति बनना चाहा है, जो महान, प्रसिद्ध, मंच पर असाधारण रूप से बड़ा होता है, जिसकी तुमने इतने लंबे समय तक प्रशंसा की है? वह मिलनसार और सुलभ व्यक्ति? वह विनम्र, सौम्य और परिष्कृत, सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति? वह व्यक्ति, जो बाहर से मित्रवत् और प्यारा लगता है? क्या तुम लोगों ने पहले इस तरह के लोगों का अनुसरण और आराधना नहीं की है? (हाँ।) अगर तुम अब भी इस तरह के लोगों का अनुसरण कर रहे हो, अब भी इस तरह के लोगों को पूज रहे हो, तो मैं तुम्हें बता दूँ : तुम मृत्यु से दूर नहीं हो, क्योंकि जिन लोगों को तुम पूजते हो, वे दुष्ट लोग हैं जो अच्छा होने का दिखावा करते हैं। परमेश्वर दुष्ट लोगों को नहीं बचाएगा। अगर तुम दुष्ट लोगों की पूजा करते हो और सत्य नहीं स्वीकारते, तो अंत में तुम भी नष्ट हो जाओगे।

“अच्छे” व्यवहार के पीछे के सार जैसे कि सुलभ और मिलनसार होने को एक शब्द में बयाँ किया जा सकता है : दिखावा। ऐसा “अच्छा” व्यवहार परमेश्वर के वचनों से उत्पन्न नहीं होता, न ही सत्य का अभ्यास या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने से होता है। फिर यह कैसे उत्पन्न होता है? यह लोगों के इरादों, षड्यंत्रों से पैदा होता है, उनके दिखावे, नाटक करने और धोखेबाज होने से पैदा होता है। जब लोग इन “अच्छे” व्यवहारों से चिपके रहते हैं, तो उनका उद्देश्य मनचाही चीजें पाना होता है; यदि न मिलें, तो वे कभी भी इस तरह से खुद को दुखी करके अपनी इच्छाओं के विपरीत नहीं जिएँगे। अपनी इच्छाओं के विपरीत जीने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि उनकी वास्तविक प्रकृति शिष्टता, निष्कपटता, सौम्यता, दयालुता और सदाचार की नहीं होती, जैसा कि लोग सोचते हैं। वे अंतरात्मा और विवेकानुसार नहीं जीते; बल्कि, वे एक उद्देश्य-विशेष या अपेक्षा को पूरा करने के लिए जीते हैं। मनुष्य की वास्तविक प्रकृति क्या है? वह भ्रमित और अबोध होती है। परमेश्वर द्वारा प्रदत्त नियमों और आज्ञाओं के बिना, लोगों को पता नहीं होता कि पाप क्या है। क्या मानवजाति पहले ऐसी ही नहीं थी? जब परमेश्वर ने नियम और आज्ञाएं जारी कीं, तब जाकर लोगों को पाप के बारे में कुछ समझ आया। लेकिन तब भी उनके मन में सही-गलत या सकारात्मक और नकारात्मक चीजों की कोई धारणा नहीं थी। तो ऐसी स्थिति में, वे बोलने और पेश आने के सही सिद्धांतों से अवगत कैसे हो सकते थे? क्या उन्हें पता था कि सामान्य मानवता में पेश आने के कौन से तरीके, कौन-से अच्छे व्यवहार होने चाहिए? क्या वे जान सकते थे कि वास्तव में अच्छा व्यवहार किस तरह से आता है, इंसानियत से जीने के लिए उन्हें किन बातों का पालन करना चाहिए? उन्हें जानकारी नहीं हो सकती थी। लोग अपनी शैतानी प्रकृति के कारण, अपनी सहज प्रवृत्ति के कारण, केवल दिखावा कर सकते थे, शालीनता और गरिमा से जीने का नाटक कर सकते थे—इन्हीं चीजों ने सुशिक्षित और समझदार होने, सौम्य और परिष्कृत होने, विनम्र होने, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने, मिलनसार और सुलभ होने जैसे कपट को जन्म दिया; इस प्रकार धोखे की ये तरकीबें और तकनीकें सामने आईं। और एक बार जब ये चीजें सामने आ गईं, तो लोग चुनकर इनमें से कई कपटों से चिपक गए। कुछ लोगों ने मिलनसार और सुलभ होना चुना, कुछ ने सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत होना चुना, कुछ ने विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना चुना और कुछ ने तो इन सारी चीजों को ही चुन लिया। फिर भी मैं ऐसे “अच्छे” व्यवहारों वाले लोगों को एक शब्द-युग्म से परिभाषित करता हूँ। वह शब्द-युग्म क्या है? “चिकने पत्थर।” चिकने पत्थर क्या होते हैं? ये नदी के वे चिकने पत्थर होते हैं, जिनका नुकीलापन लंबे समय से बहते जल से घिस-घिसकर चिकना हो गया है। हालाँकि उन पर पैर रखने से चोट नहीं लगती है, लेकिन लापरवाही करने पर लोग उन पर फिसल सकते हैं। दिखने में और आकार में, ये पत्थर बहुत सुंदर होते हैं, लेकिन घर ले जाने पर बेकार साबित होते हैं, किसी काम के नहीं होते। मगर तुम उन्हें फेंकना भी नहीं चाहते, लेकिन रखने का भी कोई मतलब नहीं होता—“चिकना पत्थर” यही होता है। मेरे हिसाब से, ऐसे अच्छे व्यवहार वाले लोग नीरस होते हैं। वे बाहर से अच्छे होने का ढोंग करते हैं, लेकिन कभी सत्य नहीं स्वीकारते, वे अच्छी लगने वाली बातें करते हैं, लेकिन वास्तविक कुछ नहीं करते। वे चिकने पत्थरों के अलावा और कुछ नहीं होते। अगर तुम उनके साथ सत्य और सिद्धांतों पर संगति करते हो, तो वे तुमसे सौम्य और परिष्कृत, और विनम्र होने के बारे में बोलते हैं। अगर तुम उनसे मसीह-विरोधियों को पहचानने के बारे में बात करते हो, तो वे तुमसे बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने, और सुशिक्षित और समझदार होने के बारे में बोलते हैं। अगर तुम उनसे कहते हो कि व्यक्ति के आचरण में सिद्धांत होने चाहिए, कि व्यक्ति को अपने कर्तव्य में सिद्धांतों की खोज करनी चाहिए और हठधर्मिता से कार्य नहीं करना चाहिए, तो उनका रवैया क्या होगा? वे कहेंगे, “सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना दूसरी बात है। मैं बस सुशिक्षित और समझदार बनना चाहता हूँ, और दूसरों से अपने कार्यों की स्वीकृति पाना चाहता हूँ। अगर मैं बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करता हूँ, और मुझे दूसरे लोगों की स्वीकृति मिलती है, तो यह काफी है।” वे केवल अच्छे व्यवहारों की परवाह करते हैं, सत्य पर ध्यान नहीं देते। वे आम तौर पर बुजुर्गों, अपने वरिष्ठों, योग्यताएँ रखने वालों, अपने समूह के भीतर अच्छी नैतिक स्थिति और प्रतिष्ठा वाले लोगों का सम्मान करने में सक्षम होते हैं, साथ ही युवा और कमजोर लोगों के समुदायों की बहुत अच्छी, प्रेमपूर्ण देखभाल भी करते हैं। वे खुद को महान प्रदर्शित करने के लिए बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने के सामाजिक नियम का सख्ती से पालन करते हैं। हालाँकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब उनके हित और यह नियम आपस में टकराते हैं, तो वे नियम किनारे रखकर अपने हितों की रक्षा के लिए बिना किसी की बाध्यताएँ “सहे” सिर के बल चल पड़ते हैं। हालाँकि उनका अच्छा व्यवहार उन सभी का अनुमोदन प्राप्त करता है, जिनसे वे मिलते, परिचित या वाकिफ होते हैं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भले ही वे इन अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करते हों जिनकी दूसरों द्वारा प्रशंसा की जाती है, लेकिन वे अपने हितों को थोड़ा-सा भी नुकसान नहीं पहुँचाते, और किसी की बाध्यताएँ “सहे” बिना, हर जरूरी तरीके से अपने हितों के लिए लड़ते हैं। उनके द्वारा बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह सिर्फ एक अस्थायी व्यवहार होता है, जो उनके हितों में हस्तक्षेप न करने की नींव पर निर्मित होता है। इसका दायरा आचरण के एक तरीके तक सीमित है। वे उन्हीं मामलों में ऐसा कर सकते हैं, जिनमें यह उनके हितों को बिल्कुल भी नहीं छूता या उनका अतिक्रमण नहीं करता, लेकिन जब उनके हित आड़े आते हैं, तो अंततः वे उन्हीं के लिए लड़ेंगे। इसलिए, उनके द्वारा बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह, वास्तव में उनके हितों के अनुसरण में हस्तक्षेप नहीं करती, न ही यह उस अनुसरण को प्रतिबंधित कर सकती है। बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने का व्यवहार एक ऐसा अच्छा व्यवहार है, जिसे लोग सिर्फ कुछ परिस्थितियों में ही कर सकते हैं, बशर्ते वह उनके हितों के आड़े न आए। यह ऐसी चीज नहीं है, जो व्यक्ति के जीवन, उसकी हड्डियों के अंदर से उत्पन्न होती हो। चाहे कोई कितना भी इस तरह का व्यवहार कर सकता हो, चाहे वह कितने भी लंबे समय तक दृढ़ रह सकता हो, इससे वे भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकते, जिन पर मनुष्य जीने के लिए निर्भर रहता है। इसका मतलब यह है कि किसी में यह अच्छा व्यवहार न हो, तब भी वह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है—लेकिन जब वह इस अच्छे व्यवहार को अपना लेता है, तो उसके भ्रष्ट स्वभावों में जरा भी सुधार या बदलाव नहीं होता। इसके विपरीत वह उन्हें और भी गहरे छिपाता जाता है। ये वे अनिवार्य चीजें हैं, जो ऐसे अच्छे व्यवहारों के पीछे छिपी रहती हैं।

परंपरागत संस्कृति के सौम्य और परिष्कृत, विनम्र, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाले, मिलनसार और सुलभ होने के अच्छे व्यवहारों के बारे में हमारी संगति और गहन-विश्लेषण के लिए और कुछ नहीं कहना है। वे सुशिक्षित और समझदार होने के समान ही हैं और सार में कमोबेश एक जैसे हैं। वे सारहीन हैं। लोगों को ये अच्छे व्यवहार छोड़ देने चाहिए। लोगों को परमेश्वर के वचनों को ही अपना आधार और सत्य को अपना मापदंड बनाने का सर्वाधिक प्रयास करना चाहिए; तभी वे रोशनी में रह सकते हैं और एक सामान्य व्यक्ति के समान जी सकते हैं। अगर तुम रोशनी में रहना चाहते हो, तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए; तुम्हें ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए जो ईमानदार बातें कहता हो और ईमानदार चीजें करता हो। मूलभूत बात है अपने आचरण में सत्य-सिद्धांत होना; जब लोग सत्य-सिद्धांत गँवा देते हैं, और केवल अच्छे व्यवहार पर ध्यान देते हैं, तो इससे अनिवार्य रूप से जालसाजी और ढोंग का जन्म होता है। यदि लोगों के आचरण में कोई सिद्धांत न हों, तो फिर उनका व्यवहार कितना भी अच्छा क्यों न हो, वे पाखंडी होते हैं; वे कुछ समय के लिए दूसरों को गुमराह कर सकते हैं, लेकिन वे कभी भी भरोसेमंद नहीं होंगे। जब लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और आचरण करते हैं, तभी उनकी बुनियाद सच्ची होती है। अगर वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण नहीं करते, और केवल अच्छा व्यवहार करने का दिखावा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो इसके परिणामस्वरूप क्या वे अच्छे लोग बन सकते हैं? बिल्कुल नहीं। अच्छे सिद्धांत और व्यवहार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकते, और वे उसका सार नहीं बदल सकते। केवल सत्य और परमेश्वर के वचन ही लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, विचार और राय बदल सकते हैं, और उनका जीवन बन सकते हैं। मनुष्य अपनी परंपरागत संस्कृति और धारणाओं में जिन विभिन्न अच्छे व्यवहारों को ऐसा समझता है, जैसे कि सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, विनम्र, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला, मिलनसार और सुलभ होना, वे मात्र व्यवहार हैं। वे जीवन नहीं हैं, सत्य तो बिल्कुल भी नहीं हैं। परंपरागत संस्कृति सत्य नहीं है, न उसके द्वारा प्रचारित कोई अच्छा व्यवहार ही सत्य है। मनुष्य परंपरागत संस्कृति को चाहे कितना भी पकड़ ले और अपने जीवन में चाहे जितने भी अच्छे व्यवहार अपना ले, इससे उसके भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकते। इसलिए, परंपरागत संस्कृति हजारों वर्षों से मनुष्य के मन में बैठी हुई है, लेकिन उसका भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला है; इसके बजाय, उसकी भ्रष्टता और भी गहरी हो गई है, और दुनिया और भी ज्यादा अंधकारमय और बुरी हो गई है। इसका सीधा संबंध परंपरागत संस्कृति की शिक्षा से है। परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन मानकर ही मनुष्य एक सच्चे इंसान के समान जी सकते हैं। यह निर्विवाद है। तो, परमेश्वर के वचन मनुष्य के व्यवहार के लिए किस तरह के मानदंड और अपेक्षाएँ निर्धारित करते हैं? व्यवस्थाओं और आज्ञाओं में जो स्थापित है, उसके अलावा, मनुष्य के व्यवहार के लिए प्रभु यीशु की अपेक्षाएँ भी हैं, विशेषकर अंत के दिनों के परमेश्वर के न्याय में मनुष्य के लिए अपेक्षाएँ और नियम। जहाँ तक मनुष्य का संबंध है, ये सबसे अनमोल वचन हैं, और ये उसके आचरण के लिए सबसे बुनियादी सिद्धांत हैं। तुम लोगों को अपने आचरण और कार्य के लिए परमेश्वर के वचनों में सबसे बुनियादी व्यवहारगत मानदंडों का पता लगाना चाहिए। ऐसा करके तुम परंपरागत चीनी संस्कृति के अच्छे व्यवहारों के बहकावे में आने और गुमराह होने से छुटकारा पा सकोगे। तब तुम्हें आचरण और कार्य के लिए मार्ग और सिद्धांत मिल जाएँगे, जिसका अर्थ यह भी है कि तुम्हें उद्धार का मार्ग और उसके सिद्धांत मिल जाएँगे। अगर तुम लोग परमेश्वर के वर्तमान वचनों को अपना आधार बनाते हो और अभी संगति किए जा रहे सत्य को अपनी कसौटी मानते हो, और इन्हें अच्छे व्यवहार के उन मानकों की जगह इस्तेमाल करते हो, जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में रखता है, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण कर रहा है। मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ सभी मामलों में इस बारे में हैं कि उसे किस तरह का व्यक्ति होना चाहिए और किस मार्ग पर चलना चाहिए। वह यह अपेक्षा कभी नहीं करता कि मनुष्य पृथक् रूप से किसी आचरण से युक्त हो। वह चाहता है कि लोग ईमानदार बनें, धोखेबाज नहीं; वह मनुष्य से अपेक्षा करता है कि वह सत्य स्वीकारकर उसका अनुसरण करे, और उसके प्रति वफादार रहे, विनम्र रहे और उसकी गवाही दे। उसने यह अपेक्षा कभी नहीं की है कि मनुष्य सिर्फ कुछ अच्छे व्यवहार करे, कि यह अपने आप ठीक होगा। फिर भी चीन की परंपरागत संस्कृति मनुष्य का ध्यान सिर्फ अच्छे व्यवहार, अच्छे बाहरी प्रदर्शनों पर केंद्रित करवाती है। वह इस पर प्रकाश डालने के लिए कुछ भी नहीं करती कि मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव क्या हैं या उसकी भ्रष्टता कहाँ से उत्पन्न होती है, वह उस मार्ग को इंगित करने में सक्षम तो बिल्कुल भी नहीं है, जिससे उसके भ्रष्ट स्वभाव दूर होते हैं। इसलिए परंपरागत संस्कृति मनुष्य में चाहे किसी भी अच्छे व्यवहार होने की वकालत करे, जब बात मनुष्य के अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ने और एक सच्चे मनुष्य के समान जीने की आती है, तो इसका कोई फायदा नहीं होता। नैतिकता के बारे में उसके कथन कितने भी भव्य या आकर्षक हों, वह मनुष्य के भ्रष्ट सार को बदलने के लिए कुछ नहीं कर सकती। परंपरागत संस्कृति के समावेश और प्रभाव के तहत भ्रष्ट मनुष्य में कई अवचेतन चीजें आ गई हैं। यहाँ “अवचेतन” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि जब मनुष्य परंपरागत संस्कृति द्वारा अलक्षित रूप से प्रभावित और संक्रमित कर दिया जाता है, तो स्पष्ट वचनों, कथनों, नियमों या उचित तरीके से कार्य करने के ज्ञान के अभाव में वह सहज रूप से लोगों के परंपरागत विचारों और तरीकों का अभ्यास और पालन करता है। ऐसी परिस्थितियों में, ऐसी स्थिति में रहते हुए, जैसा कि सभी लोग करते हैं, वह अनजाने ही अपने अवचेतन में यह सोचने लगता है, “सुशिक्षित और समझदार होना बहुत अच्छा है—यह सकारात्मक और सत्य के अनुरूप है; सौम्य और परिष्कृत होना बहुत अच्छा है—लोगों को ऐसा ही होना चाहिए, परमेश्वर इसे पसंद करता है, और यह सत्य के अनुरूप है; विनम्र, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला, मिलनसार और सुलभ होना सभी सामान्य मानवता के भीतर के प्रदर्शन हैं—ये परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुरूप हैं।” परमेश्वर के वचनों में कोई स्पष्ट आधार न मिलने के बावजूद वह अपने दिल में महसूस करता है कि परमेश्वर के वचन और मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ और परंपरागत संस्कृति के अपेक्षित मानक लगभग समान हैं, उनके बीच कोई बड़ा अंतर नहीं है। क्या यह परमेश्वर के वचनों को तोड़ना-मरोड़ना और उनकी झूठी व्याख्या करना नहीं है? क्या परमेश्वर के वचनों में ऐसी बातें कही गई हैं? नहीं कही गईं, और न ही उसका आशय इन चीजों से होता है; ये चीजें तो मनुष्य द्वारा परमेश्वर के वचनों को तोड़ना-मरोड़ना है और उसकी झूठी व्याख्याएँ हैं। परमेश्वर के वचनों में कभी ये चीजें नहीं कही गईं, इसलिए तुम लोगों को किसी भी परिस्थिति में उस तरह से नहीं सोचना है। तुम्हें परमेश्वर के वचन विस्तार से पढ़ने चाहिए और उसके वचनों द्वारा मनुष्य से की गई व्यावहारिक अपेक्षाएँ ठीक तरह से पता लगानी चाहिए, फिर उसके वचनों के कुछ और अंश ढूँढ़ने चाहिए, उन्हें इकट्ठा करना चाहिए, और उनका प्रार्थना-पाठ करना चाहिए और संकलित रूप में उनके बारे में संगति करनी चाहिए। जब तुम्हें उनका ज्ञान हो जाए, तभी तुम्हें उनका अभ्यास और अनुभव करना है। यह परमेश्वर के वचनों को तुम्हारे वास्तविक जीवन में लाता है, जहाँ वे लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों के साथ-साथ तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप का आधार बन जाते हैं। लोगों के बोलने का और उनके कार्यों का आधार क्या होना चाहिए? परमेश्वर के वचन। तो, लोगों के बोलने और उनके कार्यों के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ और मानक हैं? (कि वे लोगों के लिए रचनात्मक हों।) सही कहा। सबसे बुनियादी तौर पर तुम्हें सच बोलना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए और दूसरों को फायदा पहुँचाना चाहिए। कम से कम, तुम्हारा बोलना लोगों को शिक्षित करे, उन्हें छले नहीं, गुमराह न करे, उनका मजाक न उड़ाए, उन पर व्यंग्य न करे, उनका उपहास न करे और उनकी हँसी न उड़ाए, उन्हें जकड़े नहीं, उनकी कमजोरियाँ उजागर न करे, न उन्हें चोट पहुँचाए। यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। यह मानवता का गुण है। क्या परमेश्वर ने तुम्हें बताया है कि कितनी ऊँची आवाज में बोलना है? क्या उसने यह अपेक्षा की है कि तुम मानक भाषा का प्रयोग करो? क्या उसने यह अपेक्षा की है कि तुम लच्छेदार बयानबाजी या उदात्त, परिष्कृत भाषा-शैली का इस्तेमाल करो? (नहीं।) उसने इन सतही, पाखंडपूर्ण, झूठी, ठोस रूप से अलाभप्रद चीजों में से किसी की भी लेशमात्र अपेक्षा नहीं की है। परमेश्वर की सभी अपेक्षाएँ वे चीजें हैं, जो सामान्य लोगों में होनी चाहिए, वे मनुष्य की भाषा और व्यवहार के लिए मानक और सिद्धांत हैं। कोई कहाँ जन्मा है या कौन-सी भाषा बोलता है, यह मायने नहीं रखता। हर हाल में, तुम जो भी शब्द बोलो—उनकी शब्दावली और विषयवस्तु—दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होनी चाहिए। उनके लिए शिक्षाप्रद होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि दूसरे लोग उन्हें सुनकर सच मानें, उनसे समृद्ध होकर सहायता प्राप्त करें, सत्य समझ सकें, अब और भ्रमित न हों, न ही आसानी से दूसरों से गुमराह हों। इसलिए परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग सच बोलें, वही कहें जो वे सोचते हैं, दूसरों को छलें नहीं, उन्हें गुमराह न करें, उनका मजाक न उड़ाएँ, उन पर व्यंग्य न करें, उनका उपहास न करें, उनकी हँसी न उड़ाएँ, या उन्हें जकड़ें नहीं, या उनकी कमजोरियाँ उजागर न करें, या उन्हें चोट न पहुँचाएँ। क्या ये बोलने के सिद्धांत नहीं हैं? यह कहने का क्या मतलब है कि लोगों की कमजोरियाँ उजागर नहीं की जानी चाहिए? इसका मतलब है दूसरे लोगों पर कीचड़ न उछालना। उनकी आलोचना या निंदा करने के लिए उनकी पिछली गलतियाँ या कमियाँ न पकड़े रहो। तुम्हें कम से कम इतना तो करना ही चाहिए। सक्रिय पहलू से, रचनात्मक वक्तव्य किसे कहा जाता है? वह मुख्य रूप से प्रोत्साहित करने वाला, उन्मुख करने वाला, राह दिखाने वाला, प्रोत्साहित करने वाला, समझने वाला और दिलासा देने वाला होता है। साथ ही, कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य का ज्ञान पाएँ और उनमें पश्चात्ताप की इच्छा जागे। केवल तभी यथोचित प्रभाव प्राप्त होता है। इस तरह से अभ्यास करना लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न? उदाहरण के लिए, मान लो, तुम बेहद उद्दंड और अहंकारी हो। तुम्हें इसका कभी पता नहीं चला, लेकिन कोई व्यक्ति जो तुम्हें अच्छी तरह से जानता है, स्पष्टवादिता से काम लेते हुए तुम्हें तुम्हारी समस्या बता देता है। तुम मन ही मन सोचते हो, “क्या मैं उद्दंड हूँ? क्या मैं अहंकारी हूँ? किसी और ने मुझे बताने की हिम्मत नहीं की, लेकिन वह मुझे समझता है। उसका यह कह सकना बताता है कि यह वास्तव में सच है। मुझे इस पर चिंतन करने पर कुछ समय लगाना चाहिए।” इसके बाद तुम उस व्यक्ति से कहते हो, “दूसरे लोग मुझसे केवल अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं, वे मेरा प्रशंसा-गान करते हैं, कोई मुझे खुलकर नहीं बताता, किसी ने कभी मेरी इन कमियों और समस्याओं को नहीं उठाया। केवल तुम ही मुझे बता पाए हो, तुम ही मेरे साथ खुल पाए हो। यह बहुत अच्छा रहा, इससे मेरी बहुत बड़ी मदद हुई।” यह घनिष्ठ होना है, है न? धीरे-धीरे, दूसरा व्यक्ति तुम्हें अपने मन की बात, तुम्हारे बारे में अपने विचार और इस मामले में अपनी धारणाएँ, कल्पनाएँ, नकारात्मकता और कमजोरी के बारे में अपने अनुभव बताता है, और यह भी कि कैसे वह सत्य की खोज करके इससे बचने में सक्षम रहा। यह घनिष्ठ होना है; यह आत्माओं का मिलन है। और संक्षेप में, बोलने के पीछे का सिद्धांत क्या है? वह यह है : वह बोलो जो तुम्हारे दिल में है, और अपने सच्चे अनुभव सुनाओ और बताओ कि तुम वास्तव में क्या सोचते हो। ये शब्द लोगों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हैं, वे लोगों को पोषण प्रदान करते हैं, वे उनकी मदद करते हैं, वे सबसे अधिक सकारात्मक शब्द होते हैं। वे नकली शब्द कहने से इनकार कर दो, जो लोगों को लाभ नहीं पहुँचाते या उन्हें कुछ नहीं सिखाते; यह उन्हें नुकसान पहुँचने या उन्हें गलती करने, नकारात्मकता में डूबने और नकारात्मक प्रभाव ग्रहण करने से बचाएगा। तुम्हें सकारात्मक बातें कहनी चाहिए। तुम्हें लोगों की यथासंभव मदद करने, उन्हें लाभ पहुँचाने, उन्हें पोषण प्रदान करने, उनमें परमेश्वर में सच्ची आस्था पैदा करने का प्रयास करना चाहिए; और तुम्हें लोगों को मदद लेने देनी चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अपने अनुभवों से और समस्याएँ हल करने के अपने ढंग से बहुत-कुछ हासिल करने देना चाहिए, और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने के मार्ग को समझने में सक्षम होने देना चाहिए, उन्हें जीवन-प्रवेश करने और अपना जीवन विकसित करने देना चाहिए—जो कि तुम्हारे शब्दों में सिद्धांत के होने और उनके लोगों के लिए शिक्षाप्रद होने का परिणाम है। इसके अलावा, जब लोग गपशप और हँसी-ठठ्ठा करने इकट्ठे होते हैं, तो यह सिद्धांतहीन होता है। वे अपने भ्रष्ट स्वभाव ही प्रकट करते हैं। यह परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं है, और वे सत्य-सिद्धांत कायम नहीं रख रहे। ये सब मनुष्य के सांसारिक आचरण के फलसफे हैं—वे वैसे ही जी रहे हैं, जैसे उनके भ्रष्ट स्वभाव उन्हें प्रेरित करते हैं।

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