सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3) भाग एक
इन दिनों कर्तव्य निभाने वाले लोग अधिकाधिक व्यस्त होते जा रहे हैं। उन्हें लगता है कि समय बहुत तेजी से बीत रहा है, कि वह पर्याप्त नहीं है। ऐसा क्यों है? वस्तुतः ऐसा इसलिए है कि वे अब सत्य को समझते हैं और कई मामलों में अंतर्दृष्टि रखते हैं। जिम्मेदारी की भावना उन्हें अधिकाधिक चिंतित कर रही है, और वे अपने कर्तव्य और अधिक परिश्रमपूर्वक निभा रहे हैं, और अधिक विस्तृत कार्य कर रहे हैं। इसलिए, उन्हें लगता है कि उन्हें अधिकाधिक कर्तव्य निभाने चाहिए। इसीलिए वे अपने कर्तव्यों में अधिकाधिक व्यस्त होते जा रहे हैं। इसके अलावा, कर्तव्य निभाने वाले ज्यादातर लोगों को रोज परमेश्वर के वचन पढ़ने होते हैं और सत्य के बारे में संगति करनी होती है। उन्हें आत्मचिंतन करना होता है, और जब कोई समस्या आती है तो उसे हल करने के लिए सत्य खोजना पड़ता है। उन्हें कुछ पेशेवर कौशल भी सीखने होते हैं। उन्हें हमेशा लगता है कि समय पर्याप्त नहीं है और हर दिन बहुत तेजी से बीत जाता है। रात में, वे उस बारे में गौर से सोचते हैं जो उन्होंने उस दिन किया था, और उन्हें ऐसा लगता है कि उन्होंने जो किया उसका कोई विशेष मूल्य नहीं है, उसका कोई बड़ा नतीजा नहीं निकला। वे खुद को बहुत छोटे आध्यात्मिक कद के और हीन महसूस करते हैं और अपना आध्यात्मिक कद तेजी से बढ़ाने के लिए उत्सुक रहते हैं। उनमें से कुछ कहते हैं, “इस काम से कब फुरसत मिलेगी? मैं कब अपना हृदय शांत कर परमेश्वर के वचन ठीक से पढ़ पाऊँगा, और खुद को ठीक से सत्य से सुसज्जित कर पाऊँगा? हफ्ते में एक-दो सभाओं से मुझे जो हासिल होता है, उसकी एक सीमा है। हमें सभाओं में ज्यादा जाना चाहिए और ज्यादा प्रवचन सुनने चाहिए—सत्य समझने का यही एकमात्र तरीका है।” इसलिए वे प्रतीक्षा करते और तरसते हैं, और पलक झपकते ही तीन, चार, पाँच साल बीत जाते हैं, तो उन्हें लगता है कि समय बहुत तेजी से बीत जाता है। कुछ लोग दस साल के विश्वास के बाद भी कुछ खास अनुभवात्मक गवाही नहीं दे पाते। वे बेचैन हो जाते हैं, डरते हैं कि उन्हें छोड़ दिया जाएगा, और जल्दी से खुद को और अधिक सत्य से लैस करना चाहते हैं। यही कारण है कि उन्हें समय का दबाव महसूस होता है। ऐसे सोचने वाले बहुत हैं। कर्तव्य निभाने का दायित्व उठाने वाले और सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोग महसूस करते हैं कि समय बहुत जल्दी बीत जाता है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, जो ऐशो-आराम के लिए ललचाते हैं, उन्हें नहीं लगता कि समय तेजी से भाग रहा है; उनमें से कुछ तो शिकायत भी करते हैं, “परमेश्वर का दिन कब आएगा? हमेशा यही कहा जाता है कि उसका कार्य अंत के करीब है—तो यह अभी तक खत्म क्यों नहीं हुआ? परमेश्वर का कार्य पूरे ब्रह्मांड में कब फैलेगा?” जो लोग ऐसी बातें कहते हैं, उन्हें लगता है कि समय बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। दिल से उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं है; वे हमेशा दुनिया में वापस जाकर अपना तुच्छ जीवन जीना चाहते हैं। उनकी यह दशा स्पष्ट रूप से उन लोगों से भिन्न होती है, जो सत्य का अनुसरण करते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अपने कर्तव्यों में चाहे जितने व्यस्त रहें, फिर भी वे खुद पर पड़ने वाली समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोज सकते हैं, और उन चीजों के बारे में संगति की माँग कर सकते हैं जो उनके द्वारा सुने गए प्रवचनों में उन्हें स्पष्ट नहीं होतीं, और रोज शांतचित्त होकर यह चिंतन कर सकते हैं कि उन्होंने कैसा प्रदर्शन किया, फिर परमेश्वर के वचनों पर विचार कर अनुभवात्मक गवाही के वीडियो देख सकते हैं। इससे उन्हें लाभ होता है। अपने कर्तव्यों में वे चाहे जितने व्यस्त रहें, इससे उनके जीवन-प्रवेश में कोई बाधा नहीं आती, न ही उसमें देरी होती है। सत्य से प्रेम करने वाले लोगों के लिए इस तरह अभ्यास करना स्वाभाविक है। सत्य से प्रेम न करने वाले लोग अपने कर्तव्य में चाहे व्यस्त हों या न हों और उन पर चाहे जो समस्या आन पड़े, वे सत्य नहीं खोजते और आत्मचिंतन करने और खुद को जानने के लिए परमेश्वर के सामने खुद को शांत करने के लिए तैयार नहीं होते। इसलिए, वे चाहे अपने कर्तव्य में व्यस्त हों या फुरसत में हों, वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। तथ्य यह है कि अगर व्यक्ति के पास सत्य की खोज करने वाला दिल है, और वह सत्य की लालसा रखता है और जीवन-प्रवेश और स्वभावगत बदलाव का दायित्व उठाता है, तो वह दिल से परमेश्वर के करीब आएगा और उससे प्रार्थना करेगा, फिर चाहे वह अपने कर्तव्य में कितना भी व्यस्त क्यों न हो। वह निश्चित रूप से पवित्र आत्मा की कुछ प्रबुद्धता और प्रतिभा प्राप्त करेगा, और उसका जीवन लगातार बढ़ेगा। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता और जीवन-प्रवेश या स्वभावगत बदलाव का कोई दायित्व नहीं उठाता, या अगर उसे इन चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है, तो वह कुछ भी हासिल नहीं कर सकता। व्यक्ति में भ्रष्टता के जो उद्गार हैं, उन पर चिंतन करना कहीं भी, किसी भी समय किया जाने वाला काम है। उदाहरण के लिए, अगर किसी ने अपना कर्तव्य निभाते समय भ्रष्टता दिखाई है, तो अपने दिल में उसे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और आत्मचिंतन कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना चाहिए, और उसे हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। यह दिल का मामला है; इसका मौजूदा कार्य से कोई संबंध नहीं है। क्या यह करना आसान है? यह इस पर निर्भर करता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, उन्हें जीवन में विकास के मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं होती। वे ऐसी चीजों पर विचार नहीं करते। केवल सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ही जीवन में विकास के लिए कठिन परिश्रम करने के इच्छुक होते हैं; केवल वे ही अक्सर उन समस्याओं पर विचार करते हैं जो वास्तव में मौजूद होती हैं, और इस पर भी कि उन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य कैसे खोजें। असल में, समस्याएँ हल करने की प्रक्रिया और सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया एक ही चीज है। अगर व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते समय समस्याएँ हल करने के लिए सत्य की खोज पर लगातार ध्यान केंद्रित करता है, और इस तरह कई वर्षों के अभ्यास में उसने काफी समस्याओं का समाधान किया है, तो उसके कर्तव्य का प्रदर्शन निश्चित रूप से मानक के अनुरूप है। ऐसे लोगों में भ्रष्टता का उद्गार बहुत कम होता है, और उन्हें अपने कर्तव्य निभाने में बहुत सच्चा अनुभव प्राप्त होता है। इस तरह वे परमेश्वर के लिए गवाही देने के योग्य होते हैं। ऐसे लोग पहली बार अपना कर्तव्य सँभालने से शुरू करके परमेश्वर के लिए गवाही देने में सक्षम होने तक के अनुभव से कैसे गुजरते हैं? वे समस्याओं के समाधान के लिए सत्य खोजने पर भरोसा करके ऐसा करते हैं। इसीलिए सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अपने कर्तव्यों में चाहे कितने ही व्यस्त क्यों न हों, वे समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजेंगे और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने में सफल होंगे, और वे सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होंगे। यह जीवन-प्रवेश की प्रक्रिया है, और यह सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने की भी प्रक्रिया है। कुछ लोग हमेशा कहते रहते हैं कि वे अपने कर्तव्यों में इतने व्यस्त रहते हैं कि उनके पास सत्य का अनुसरण करने का समय ही नहीं होता। यह मान्य नहीं है। सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति चाहे जो भी कार्य कर रहा हो, जैसे ही उसे किसी समस्या का पता चलता है, वह उसे हल करने के लिए सत्य खोजेगा और सत्य समझकर उसे प्राप्त करेगा। यह निश्चित है। कई लोग हैं, जो सोचते हैं कि सत्य केवल प्रतिदिन सभाओं में जाने से ही समझा जा सकता है। इससे ज्यादा गलत कुछ नहीं हो सकता। सत्य ऐसी चीज नहीं है, जिसे केवल सभाओं में जाकर प्रवचन सुनने से समझा जा सके; व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने की भी आवश्यकता है, और उसे समस्याएँ खोजकर उनका समाधान करने की प्रक्रिया की भी आवश्यकता है। अहम यह है कि उन्हें सत्य खोजना सीखना चाहिए। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे उसे नहीं खोजते, चाहे उन पर कितनी भी समस्याएँ क्यों न आएँ; सत्य के प्रेमी उसे खोजते हैं, चाहे वे अपने कर्तव्यों में कितने भी व्यस्त क्यों न हों। इसलिए, हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि जो लोग हमेशा शिकायत करते रहते हैं कि वे अपने कर्तव्यों में इतने व्यस्त रहते हैं कि उनके पास सभाओं में जाने का समय नहीं है, इसलिए परिणामस्वरूप उन्हें सत्य का अनुसरण छोड़ना पड़ता है, वे सत्य के प्रेमी नहीं हैं। वे बेतुकी समझ वाले लोग हैं, जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है। जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं या प्रवचन सुनते हैं, तो वे अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन में उनका अभ्यास या क्रियान्वयन क्यों नहीं कर सकते? परमेश्वर के वचनों को वे अपने वास्तविक जीवन में क्रियान्वित क्यों नहीं कर सकते? यह ये दिखाने के लिए पर्याप्त है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, इसलिए अपने कर्तव्य निभाने में उन्हें चाहे जो भी कठिनाई आए, वे सत्य नहीं खोजते या उसका अभ्यास नहीं करते। स्पष्ट रूप से ये लोग मजदूर हैं। हो सकता है, कुछ लोग सत्य का अनुसरण करना चाहते हों, पर उनकी क्षमता बहुत खराब है। वे अपना जीवन भी अच्छी तरह व्यवस्थित नहीं कर पाते; जब उनके पास दो-तीन चीजें करने के लिए होती हैं, तो वे नहीं जानते कि कौन-सी चीज पहले करनी है और कौन-सी आखिर में। अगर उन पर दो-तीन समस्याएँ आ पड़ती हैं, तो उन्हें समझ नहीं आता कि उन्हें कैसे हल किया जाए। उनका सिर घूम जाता है। क्या ऐसे लोग सत्य तक पहुँच प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजने में सफल हो सकते हैं? जरूरी नहीं, क्योंकि उनकी क्षमता बहुत खराब है। बहुत-से लोग सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हैं, फिर भी, दस-बीस वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बावजूद वे कोई अनुभवात्मक गवाही नहीं दे पाते, और उन्हें बिल्कुल भी सत्य प्राप्त नहीं हुआ होता। इसका मुख्य कारण यह है कि उनकी क्षमता बहुत खराब है। कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, इसका संबंध इस बात से नहीं है कि वह अपने कर्तव्य में कितना व्यस्त है या उसके पास कितना समय है; यह इस पर निर्भर करता है कि वह हृदय से सत्य से प्रेम करता है या नहीं। सच तो यह है कि सभी के पास समय की प्रचुरता समान होती है; अलग बात यह है कि हर व्यक्ति उसे खर्च कहाँ करता है। यह संभव है कि जो व्यक्ति कहता है कि उसके पास सत्य का अनुसरण करने के लिए समय नहीं है, वह अपना समय दैहिक सुखों पर खर्च कर रहा हो, या वह किसी बाहरी मामले में व्यस्त हो। वह उस समय को समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजने में खर्च नहीं करता। अपने अनुसरण में लापरवाही बरतने वाले लोग ऐसे ही होते हैं। इससे उनके जीवन-प्रवेश के बड़े मामले में देरी होती है।
अपनी पिछली दो सभाओं में हमने “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” विषय पर और साथ ही उस विषय की कुछ विशिष्ट बातों पर संगति की। आओ, उससे शुरुआत करते हैं, जिस पर हमने अपनी पिछली सभा में संगति की थी। हमने “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” की एक सटीक परिभाषा स्थापित की, फिर कुछ विशिष्ट समस्याओं और लोगों के व्यवहार के विशिष्ट तरीकों के बारे में संगति की, जो सत्य का अनुसरण करने के अर्थ में शामिल हैं। पिछली सभा में हमारी संगति का आखिरी विषय क्या था? (परमेश्वर ने एक प्रश्न रखा : यह देखते हुए कि मनुष्य जिसे अच्छा और सही मानता है वह सत्य नहीं है, फिर भी वह उसका इस तरह अनुसरण क्यों करता है मानो वह सत्य हो?) यह देखते हुए कि जिन चीजों को मनुष्य अच्छा और सही मानता है वे सत्य नहीं हैं, वह फिर भी यह समझते हुए कि वह सत्य का अनुसरण कर रहा है, उन्हें इस तरह क्यों कायम रखता है मानो वे सत्य हों? पिछली बार हमने तीन चीजों पर संगति की थी, जो इस प्रश्न का समाधान करती हैं। पहली : जिन चीजों का मनुष्य अनुसरण करता है वे सत्य नहीं हैं, तो वह फिर भी उनका अभ्यास इस तरह क्यों करता है मानो वे सत्य हों? चूँकि मनुष्य को सही और अच्छी लगने वाली चीजें ऐसी लगती हैं मानो वे सत्य हों, इसलिए मनुष्य उन चीजों का, जिन्हें वह अच्छा और सही समझता है, इस तरह अनुसरण करता है मानो वे सत्य हों। क्या यह इसे व्यक्त करने का एक स्पष्ट तरीका नहीं है? (है।) तो, इस प्रश्न का सटीक उत्तर क्या है? लोग जिन चीजों को सही और अच्छा समझते हैं, उन्हें कायम रखते हैं मानो वे सत्य हों, और ऐसा करते हुए वे समझते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं। क्या यह पूरा उत्तर नहीं है? (है।) दूसरी : मनुष्य उन चीजों को, जिन्हें वह अच्छा और सही समझता है, इस तरह कायम रखते हुए मानो वे सत्य हों, यह क्यों समझता है कि वह सत्य का अनुसरण कर रहा है? इसका उत्तर इस तरह दिया जा सकता है : क्योंकि मनुष्य को धन्य होने की इच्छा है। मनुष्य उन चीजों का, जिन्हें वह अच्छा और सही समझता है, इच्छा और महत्वाकांक्षा के साथ अनुसरण करता रहता है, और इस तरह समझता है कि वह सत्य का अभ्यास और अनुसरण कर रहा है। सार में, यह परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश है। तीसरी : अगर व्यक्ति में सामान्य जमीर और विवेक है, तो उन मामलों में, जिनमें वे सत्य नहीं समझते, वे सहज रूप से विनियमों, कानूनों, नियमों आदि का पालन करते हुए अपने जमीर और विवेक के अनुसार कार्य करना चुनेंगे। हम कह सकते हैं कि मनुष्य सहज रूप से उन चीजों को कायम रखता है, जिन्हें वह अपने जमीर में सकारात्मक, रचनात्मक और मानवता के अनुरूप मानता है, मानो वे सत्य हों। इसे मनुष्य के जमीर और विवेक के मापदंडों के भीतर हासिल किया जा सकता है। बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर के घर में सामान्य रूप से कड़ी मेहनत कर सकते हैं; वे मजदूरी करने और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार रहते हैं, क्योंकि उनमें सामान्य जमीर और विवेक होता है। आशीष प्राप्त करने के लिए वे कष्ट भी उठाएँगे और कोई कीमत भी चुकाएँगे। इसलिए, मनुष्य अपने जमीर और विवेक के मापदंडों के भीतर जो कुछ भी करने में सक्षम होता है, उसे भी सत्य का अभ्यास और अनुसरण मानता है। उस प्रश्न के उत्तर के ये तीन मुख्य हिस्से हैं। पिछली बार हमने इन तीन हिस्सों के बारे में सामान्य तरीके से संगति की थी; आज हम इन तीन बिंदुओं द्वारा अपने पीछे छोड़ी जाने वाली समस्याओं के बारे में विशिष्ट, विस्तृत संगति करेंगे, और प्रत्येक बिंदु द्वारा अपरिहार्य बनाई जाने वाली समस्याओं का गहन-विश्लेषण करेंगे, और साथ ही इस बात का भी कि प्रत्येक तत्त्व सत्य की खोज से कैसे भिन्न है या उसके विपरीत है, ताकि तुम ज्यादा स्पष्ट रूप से जान सको कि सत्य का अनुसरण करना क्या है और वास्तव में, उस अनुसरण का अभ्यास कैसे किया जाना है। ऐसा करना लोगों के लिए अपने दैनिक जीवन में सत्य का सटीक रूप से अभ्यास और अनुसरण करने के लिए एक बेहतर प्रोत्साहन के रूप में कार्य करेगा।
हम संगति की शुरुआत पहले विषय से करेंगे। सीधे शब्दों में कहें तो, पहले विषय के रूप में हमारी संगति उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करेगी जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है। हमारी संगति को इस विषयवस्तु पर ध्यान केंद्रित क्यों करना चाहिए? यह विषयवस्तु किन समस्याओं के बारे में है? पहले इस पर विस्तार से विचार करो। अगर हम सभाओं में इसके बारे में ठीक से संगति न करें, तो क्या तुम इनका सटीक ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होगे? अगर इसके बारे में हमने कोई विशेष संगति न की, और तुम लोग सिर्फ अपने चिंतन के अनुसार चले, या अगर तुमने इसे अनुभव करने और जानने में समय बिताया, तो क्या तब तुम जान पाओगे कि यह विषयवस्तु किन सत्यों के बारे में बात करती है? क्या तुम चिंतन से उनका पता लगा पाओगे? (नहीं।) हम “चीजें जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है” वाक्यांश के शब्दों पर विचार करने से शुरुआत करेंगे और देखेंगे कि इसके बारे में तुम लोगों का ज्ञान कहाँ तक जाता है। पहले, इस वाक्यांश का अहम भाग, जिसके बारे में हम संगति करने जा रहे हैं, क्या कहता है? क्या तुम लोग नहीं बता सकते? क्या यह एक गूढ़ वाक्यांश है? क्या इसमें कोई रहस्य है? (यह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं पर विचार करता है।) यह तो मोटी बात हो गई; कोई उदाहरण दो। (मनुष्य अपनी धारणाओं में विश्वास करता है कि अगर वह त्याग कर सकता है, खुद को खपा सकता है, पीड़ा सह सकता है और कीमत चुका सकता है, तो वह परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करने में सक्षम होगा। कुछ परंपरागत संस्कृति की बातें भी हैं—संतानोचित निष्ठा और महिलाओं द्वारा अपने पति की देखभाल और अपने बच्चों का पालन-पोषण करने जैसी चीजें। लोग इन्हें भी अच्छी चीजें मानते हैं।) तुम्हें कुछ उदाहरण मिल गए हैं। क्या तुम लोगों ने बात समझ ली है? इनमें से कौन-से हिस्से हमारे विषय को छूते हैं? (त्याग, खपना, कष्ट सहना और कीमत चुकाना।) (संतानोचित निष्ठा और महिलाओं द्वारा अपने पति की देखभाल और अपने बच्चों का पालन-पोषण करना।) हाँ। क्या और भी हैं? (फरीसियों की तरह धर्मपरायणता, धैर्य और सहनशीलता का प्रदर्शन।) विनम्रता, धैर्य, सहनशीलता—इसका संबंध कुछ विशिष्ट, व्यवहारगत प्रदर्शनों और कहावतों से है। चूँकि हम ऐसी विषयवस्तु के बारे में संगति करने जा रहे हैं, इसलिए हमें विशिष्ट कहावतों का उपयोग करते हुए विशिष्ट रूप से संगति करनी चाहिए। अगर हम प्रश्न पर इस तरह ध्यान केंद्रित करें, तो लोग ज्यादा सही और सटीक समझ प्राप्त कर सकते हैं। अभी तक तुम लोग कोई उदाहरण नहीं दे पाए, इसलिए मैं बस आगे बढ़कर संगति करता हूँ, ठीक है? (बिल्कुल।) चीन की पाँच हजार साल की संस्कृति “विशाल और गहन” है, जो तमाम लोकप्रिय कहावतों और मुहावरों से भरी है। उसमें कई प्रशंसित “प्राचीन संत” भी हैं, जैसे कन्फ्यूशियस, मेंसियस, इत्यादि। उन्होंने कन्फ्यूशीवाद की चीनी शिक्षाएँ सृजित कीं, जिनमें परंपरागत चीनी संस्कृति का मुख्य भाग शामिल है। चीनी परंपरागत संस्कृति में लोगों की पीढ़ियों द्वारा तैयार की गई बहुत सारी भाषा, शब्दावली और कहावतें हैं। उनमें से कुछ पुरातनता की ओर संकेत करती हैं, कुछ नहीं करतीं; कुछ आम लोगों से आती हैं और दूसरी प्रसिद्ध व्यक्तियों से। हो सकता है, तुम लोगों को परंपरागत संस्कृति ज्यादा पसंद न आए, या तुमने खुद को आधारभूत, परंपरागत संस्कृति से दूर कर लिया हो, या तुम लोग इतने युवा हो कि अभी तक चीन की “विशाल और गहन” परंपरागत संस्कृति के गहन अध्ययन या अनुसंधान में संलग्न न हुए हो, इसलिए तुम अभी तक इसके बारे में नहीं जानते या ऐसी चीजें नहीं समझते। यह वास्तव में एक अच्छी चीज है। हालाँकि, हो सकता है, व्यक्ति इसे समझता न हो, लेकिन उसकी सोच और धारणाएँ परंपरागत संस्कृति की चीजों से अचेतन रूप से मन में बैठती और संक्रमित होती हैं। वह अनजाने ही इन चीजों के अनुसार जीने लगता है। बाप-दादाओं से चली आ रही, अर्थात् मनुष्य के पूर्वजों से चली आ रही परंपरागत संस्कृति इस बारे में तमाम तरह के बहुत-से दावे करती है कि मनुष्य को कैसे बोलना, कार्य और आचरण करना चाहिए। और हालाँकि परंपरागत संस्कृति के विभिन्न कथनों के बारे में लोगों की अलग-अलग समझ और विचार हो सकते हैं, फिर भी वे सामान्यतः परंपरागत संस्कृति की ऐसी चीजों के बारे में आश्वस्त होते हैं। इस अवलोकन से हम देख सकते हैं कि परंपरागत संस्कृति की तमाम चीजें मनुष्य के जीवन और अस्तित्व पर, लोगों और चीजों के प्रति उसके विचार पर, और उसके आचरण और कार्यकलाप पर प्रभाव की स्रोत हैं। हालाँकि मनुष्य के विभिन्न जाति-समूह अपने नैतिक मानकों और नैतिक मानदंडों से संबंधित अपने कथनों में भिन्न हैं, फिर भी उनके पीछे के सामान्य विचार एक-जैसे हैं। आज हम उनमें से कुछ के बारे में विस्तार से संगति कर उनका गहन-विश्लेषण करेंगे। भले ही हम उन सभी चीजों का उल्लेख और गहन-विश्लेषण नहीं कर पाएँगे जिन्हें मनुष्य सही और अच्छी मानता है, फिर भी उनकी सामान्य विषयवस्तु सत्य के अनुसरण की परिभाषा में बताए गए इन दो तत्त्वों के अलावा कुछ नहीं है : लोगों और चीजों पर व्यक्ति के विचार, और व्यक्ति कैसे आचरण और कार्य करता है। एक है विचार, दूसरा है व्यवहार। इसका मतलब यह है कि मनुष्य दुनिया के लोगों और घटनाओं को उन चीजों के माध्यम से देखता है, जिन्हें वह अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है, और वह उन चीजों को उस नींव, आधार और मानदंड के रूप में लेता है जिसके द्वारा वह आचरण और कार्य करता है। तो, ये अच्छी और सही चीजें असल में क्या हैं? मोटे तौर पर कहें तो, जिन चीजों को मनुष्य अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है, वे और कुछ नहीं बल्कि ये अपेक्षाएँ हैं कि मनुष्य अच्छा व्यवहार करे और उसमें अच्छी मानवीय नैतिकता और चरित्र हों। ये ही वो दो चीजें हैं। इस पर सोचो : क्या ये ही मूल रूप से वे दो चीजें नहीं हैं? (हाँ, हैं।) एक है अच्छा व्यवहार; दूसरा है मानवीय चरित्र और नैतिकता। मनुष्य ने मूल रूप से दो चीजें उस मानवता को मापने के मानकों के रूप में स्थापित की हैं, जिनके साथ व्यक्ति जीता और आचरण करता है : एक है मनुष्य के लिए बाहरी रूप से अच्छा व्यवहार करने की अपेक्षा, दूसरी यह कि वह नैतिक रूप से आचरण करे। वह व्यक्ति की अच्छाई मापने के लिए इन दो कारकों का उपयोग करता है। चूँकि वह व्यक्ति की अच्छाई मापने के लिए इन दो कारकों का उपयोग करता है, इसलिए लोगों के व्यवहार और नैतिकता का मूल्यांकन करने के मानक सामने आए, और हुआ यह कि लोगों ने स्वाभाविक रूप से मनुष्य के नैतिक आचरण या उसके व्यवहार के बारे में तमाम तरह के कथन सुनने शुरू कर दिए। ये विशिष्ट कहावतें कौन-सी हैं? क्या तुम लोग जानते हो? कुछ सरल चीजें, जैसे : लोगों का व्यवहार मापने के लिए कौन-से मानक और कहावतें हैं? सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना—इनका संबंध बाहरी व्यवहार से है। क्या विनम्र होना भी इनमें शामिल है? (हाँ।) बाकी सब कमोबेश समान हैं, और उपमा देखकर तुम लोगों को पता चल जाएगा कि कौन-से शब्द और कथन मनुष्य का व्यवहार मापने के मानक हैं, तो कौन-से कथन उसकी नैतिकता मापने के मानक हैं। तो, “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए”—यह बाहरी व्यवहार का मानक है या नैतिकता का? (इसका संबंध नैतिक मूल्यों और सदाचार से है।) उदारता के बारे में क्या खयाल है? (यह भी नैतिक मूल्यों के बारे में है।) यह सही है। इनका संबंध नैतिक मूल्यों से, मनुष्य के नैतिक चरित्र से है। मनुष्य के व्यवहार से संबंधित मुख्य कथन हैं विनम्र होना, सौम्य और परिष्कृत होना, और सुशिक्षित और समझदार होना। ये सभी वे चीजें हैं, जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है; ये वे चीजें हैं, जिन्हें वह परंपरागत संस्कृति के दावों के आधार पर सकारात्मक या कम से कम जमीर और विवेक के अनुरूप मानता है, न कि नकारात्मक चीजें। यहाँ हम जिन चीजों के बारे में बात कर रहे हैं, वे ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोग आम तौर पर सही और अच्छी मानते हैं। तो, मेरे द्वारा अभी कहे गए तीन कथनों के अलावा, मनुष्य के अच्छे व्यवहार के बारे में और कौन-से कथन हैं? (बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना।) बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना, मिलनसार होना, सुलभ होना—ये सभी वे चीजें हैं, जिनसे लोग कुछ हद तक परिचित हैं और जिन्हें समझते हैं। सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना, मिलनसार होना, सुलभ होना—जनमानस में इन व्यवहारों वाले सभी लोग अच्छे व्यक्ति, दयालु व्यक्ति, मानवता वाले व्यक्ति माने जाते हैं। सभी लोग दूसरों को उनके व्यवहार के आधार पर मापते हैं; वे व्यक्ति की अच्छाई उसके बाहरी व्यवहार से आँकते हैं। लोग परंपरागत संस्कृति के विचारों और मतों और व्यक्ति के दिखाई देने वाले व्यवहारों के अनुसार यह फैसला, निर्धारण और मापन करते हैं कि कोई व्यक्ति सुसंस्कृत और मानवता से युक्त और बातचीत और भरोसे के काबिल है या नहीं? क्या लोगों में भौतिक संसार को समझने की क्षमता है? जरा-सी भी नहीं। लोग सिर्फ व्यक्ति के व्यवहार से ही निर्णय कर पाते और पहचान पाते हैं कि वह अच्छा है या बुरा, या वह किस तरह का व्यक्ति है; सिर्फ व्यक्ति के साथ मिलजुलकर, बातचीत और सहयोग करके ही लोग इन चीजों का निरीक्षण और निर्धारण कर पाते हैं। चाहे तुम अपने माप में स्पष्ट रूप से “सुशिक्षित और समझदार होना,” “मिलनसार होना,” “बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना” जैसे कथनों का उपयोग करते हो या नहीं, तुम्हारे माप के मानक इन कथनों से आगे नहीं जाते। जब व्यक्ति दूसरे की आंतरिक दुनिया नहीं देख पाता, तो वह उसके व्यवहार और क्रियाकलाप देखकर और व्यवहार के ये मानदंड लागू करके मापता है कि वह अच्छा है या बुरा, नेक है या नीच। वह अनिवार्यतः इन्हीं का उपयोग करता है। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) अभी-अभी उल्लिखित कथनों के आधार पर, मनुष्य के पास माप के लिए कौन-से मानक हैं? वे कौन-सी चीजें हैं, जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में अच्छी और सही मानता है? नैतिक आचरण से संबंधित चीजों से शुरुआत करने के बजाय, आओ, अपनी संगति और गहन-विश्लेषण उन अच्छी, सही और सकारात्मक चीजों से शुरू करते हैं जिन्हें मनुष्य अपने व्यवहार में प्रकट करता है। आओ, देखें कि क्या ये सचमुच सकारात्मक चीजें हैं। तो, क्या हमारे द्वारा सूचीबद्ध कथनों में कुछ ऐसा है, जो सत्य को छूता है? क्या उनकी कोई भी विषयवस्तु सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) अगर किसी का लक्ष्य ऐसा व्यक्ति बनना है, ऐसे व्यवहार और ऐसी सूरत वाला व्यक्ति बनना, तो क्या वह सत्य का अनुसरण कर रहा है? क्या उसका अनुसरण सत्य के अनुसरण से संबंधित है? क्या इन व्यवहारों से युक्त व्यक्ति सत्य का अभ्यास और अनुसरण कर रहा है? क्या इन व्यवहारों और प्रदर्शनों से युक्त व्यक्ति सच्चे अर्थों में एक अच्छा व्यक्ति है? उत्तर नकारात्मक है—वह अच्छा व्यक्ति नहीं है। यह आसानी से देखा जा सकता है।
आओ, पहले इस कथन पर नजर डालते हैं कि व्यक्ति को सुशिक्षित और समझदार होना चाहिए। यह बताओ कि “सुशिक्षित और समझदार होना” कथन का अपने आपमें क्या अर्थ है। (यह किसी ऐसे व्यक्ति का वर्णन करता है, जो काफी शोभनीय और शिष्ट है।) “शोभनीय” होने का क्या अर्थ है? (इसका अर्थ कुछ हद तक नियम पालन करने वाला है।) सही है। ऐसा व्यक्ति किन नियमों का पालन करता है? तुम्हारा उत्तर जितना ज्यादा विशिष्ट होगा, इस मामले और इसके सार के बारे में तुम्हारी समझ उतनी ही ज्यादा गहन होगी। तो, नियम पालन करने वाला होने का क्या मतलब है? एक उदाहरण प्रस्तुत है। भोजन करते समय युवा पीढ़ी को तब तक नहीं बैठना चाहिए, जब तक उसके बड़े न बैठ जाएँ, और जब उसके बड़े न बोल रहे हों, तो उसे चुप रहना चाहिए। बड़ों के लिए छोड़ा गया भोजन कोई तब तक नहीं खा सकता, जब तक बड़े खाने के लिए न कहें। इसके अलावा, खाते समय बात न करना, या दाँत न दिखाना, या जोर से न हँसना, या होंठ न चाटना, या थाली में खोजबीन न करना। बड़ी पीढ़ी के खा चुकने पर युवा पीढ़ी को तुरंत खाना बंद कर देना चाहिए और उठ खड़े होना चाहिए। अपने बड़ों को विदा करने के बाद ही वे खाना जारी रख सकते हैं। क्या यह नियमों का पालन नहीं है? (बिल्कुल, है।) ये नियम कमोबेश हर घर-परिवार में, हर नाम और वंश के परिवारों में हैं। सभी लोग थोड़ी-बहुत मात्रा में इन नियमों का पालन करते हैं, और होता यह है कि वे उनसे प्रतिबंधित हो जाते हैं। अलग-अलग परिवारों में अलग-अलग नियम होते हैं—और उन्हें स्थापित कौन करता है? उस परिवार के पूर्वजों और विभिन्न युगों के आदरणीय बुजुर्गों ने उन्हें स्थापित किया होता है। अहम अवकाश और स्मारक दिवस मनाते समय वे विशेष महत्व प्राप्त कर लेते हैं; तब बिना किसी अपवाद के सभी को उनका अनुसरण करना चाहिए। अगर कोई नियम तोड़ता है या उनका उल्लंघन करता है, तो उसे परिवार के नियमों के अनुसार कड़ी सजा दी जाएगी। कुछ लोगों को पारिवारिक वेदी पर क्षमा के लिए घुटने तक टेकने पड़ सकते हैं। नियम ऐसे ही होते हैं। अभी हम सिर्फ किसी विशेष घर या परिवार में लागू हो सकने वाले कुछ नियमों के बारे में बात कर रहे थे। क्या ऐसे नियम “शोभनीय” होने के अर्थ का हिस्सा नहीं हैं? (हाँ, हैं।) किसी व्यक्ति को सिर्फ खाना खाते देखकर बताया जा सकता है कि वह शोभनीय है या नहीं। अगर वह खाना खाते समय अपने होंठ चाटता है, या भोजन में मीनमेख निकालता है, या हमेशा दूसरों को निवाले परोसता रहता है, और भोजन करते समय बात करता रहता है, और जोर-जोर से हँसता है, यहाँ तक कि कुछ मामलों में अपनी चॉपस्टिक से उसकी तरफ इशारा तक करता है जिससे वह बात कर रहा होता है, तो इन सबमें वह अपनी अशोभनीयता का प्रदर्शन करता है। किसी व्यक्ति को अशोभनीय कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरे लोग उसके व्यवहार को लेकर उसे डाँटते हैं, उस पर सवाल उठाते हैं और उसका तिरस्कार करते हैं। जबकि जो लोग शोभनीय होते हैं, वे भोजन करते समय बोलते नहीं, हँसी-ठट्ठा नहीं करते, भोजन में मीनमेख नहीं निकालते या दूसरों को निवाले नहीं परोसते। वे काफी नियम पालन करते हैं। दूसरे लोग उनका व्यवहार और प्रदर्शन देखते हैं और उसके आधार पर कहते हैं कि यह शोभनीय व्यक्ति है। और अपनी इस शोभनीयता के कारण वे दूसरों का आदर-सम्मान हासिल करते हैं, और स्नेह भी। यह शोभनीयता में अंतर्निहित चीज का एक हिस्सा है। तो, शोभनीयता असल में क्या है? हमने अभी-अभी कहा : “शोभनीयता” का संबंध सिर्फ लोगों के व्यवहार से है। जैसे पिछले उदाहरणों में, भोजन करते समय पीढ़ीगत प्राथमिकता का क्रम रहा है। सभी को अपना आसन नियमों के अनुसार लगाना चाहिए; उन्हें गलत स्थान पर नहीं बैठना चाहिए। बुजुर्ग और युवा पीढ़ियाँ समान रूप से पारिवारिक नियमों का पालन करती हैं, जिनका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता, और वे बहुत नियमित, बहुत सज्जन, बहुत महान, बहुत गरिमापूर्ण दिखते हैं—फिर भी, चाहे वे कितने भी ऐसे क्यों न दिखें, यह सब सिर्फ बाहरी अच्छे व्यवहार के रूप में सामने आता है। क्या इसमें भ्रष्ट स्वभाव शामिल हैं? नहीं; यह लोगों के बाहरी व्यवहार मापने के लिए एक मानक से ज्यादा कुछ नहीं है। कौन-से व्यवहार? मुख्य रूप से उनकी बोलचाल और क्रियाकलाप। उदाहरण के लिए, भोजन करते समय बात नहीं करनी चाहिए या चबाते समय शोर नहीं करना चाहिए। भोजन के लिए बैठते समय पहले कौन बैठेगा, इसका एक क्रम होता है। सामान्यतः खड़े होने और बैठने के उचित तरीके होते हैं। ये सब बातें व्यवहार से ज्यादा कुछ नहीं हैं, ये सारे बाहरी व्यवहार हैं। तो, क्या लोग वास्तव में इन नियमों का पालन करने के इच्छुक होते हैं? लोग इस मुद्दे पर अपने मन में क्या सोचते हैं? वे इसके बारे में कैसा महसूस करते हैं? क्या इन दयनीय नियमों का पालन करना लोगों के लिए लाभकारी है? क्या ये उन्हें जीवन में उन्नति प्रदान कर सकते हैं? इन दयनीय नियमों का पालन करने में क्या समस्या है? क्या इसका इस मुद्दे से कोई लेना-देना है कि चीजों और जीवन-स्वभाव के बारे में व्यक्ति के दृष्टिकोण में कोई बदलाव आया है? बिल्कुल नहीं। इसका संबंध सिर्फ लोगों के व्यवहार से है। यह बस लोगों के व्यवहार के बारे में कुछ अपेक्षाएँ बनाता है, अपेक्षाएँ जो इस बात से संबंधित हैं कि लोगों को कौन-से नियम हासिल कर उनका पालन करना है। इन नियमों के बारे में कोई चाहे कुछ भी सोचे, चाहे वह इनसे नफरत कर इनका तिरस्कार ही क्यों न करे, उसके पास अपने परिवार और पूर्वजों और अपनी घरेलू नियमावली के कारण उनसे बँधे रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। फिर भी कोई इस बात की जाँच नहीं करता कि इन नियमों के बारे में लोगों के विशिष्ट विचार क्या हैं, या अपनी सोच में लोग इन्हें कैसे देखते और लेते हैं, या इनके प्रति उनका दृष्टिकोण और रवैया क्या है। तुम्हारे लिए इस निर्दिष्ट दायरे में अच्छा व्यवहार प्रदर्शित करना और इन नियमों का पालन करना पर्याप्त है। जो लोग ऐसा करते हैं, वे शोभनीय लोग हैं। “सुशिक्षित और समझदार होना” अपनी विभिन्न माँगें सिर्फ लोगों के व्यवहार पर रखता है। इसका उपयोग सिर्फ लोगों का व्यवहार सीमित करने के लिए किया जाता है, व्यवहार जिसमें लोगों के बैठने और खड़े होने की मुद्रा, उनकी शारीरिक गतिविधियाँ, उनके संवेदी अंगों के हावभाव, उनकी आँखें कैसी दिखनी चाहिए, उनका मुँह कैसे चलना चाहिए, उनका सिर कैसे मुड़ना चाहिए, इत्यादि शामिल हैं। यह लोगों को बाहरी व्यवहार के लिए एक मानक देता है, बिना इस बात की परवाह किए कि उनके मन, स्वभाव और उनकी मानवता का सार कैसा है। ऐसा है सुशिक्षित और समझदार होने का मानक। अगर तुम यह मानक पूरा करते हो, तो तुम सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति हो, और अगर तुममें सुशिक्षित और समझदार होने का अच्छा व्यवहार है, तो दूसरों की नजर में, तुम वह व्यक्ति हो जिसे सम्मान और आदर दिया जाना आवश्यक है। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) तो, क्या इस कथन के ध्यान का केंद्र मनुष्य का व्यवहार है? (हाँ।) इस व्यवहारगत मानक का असल में क्या उपयोग है? मुख्य रूप से, इसका उपयोग यह मापना है कि व्यक्ति शोभनीय और अच्छी तरह से नियमित है या नहीं, वह दूसरों के साथ अपने व्यवहार में आदर-सम्मान अर्जित कर सकता है या नहीं, और वह प्रशंसा के योग्य है या नहीं। लोगों को इस तरह से मापना पूरी तरह से सत्य-सिद्धांतों के विपरीत है। यह निरर्थक है।
अभी हमारी संगति मुख्य रूप से व्यक्ति को विकसित किए जाने से संबंधित थी, जो कि “सुशिक्षित और समझदार बनो” कथन की थोपी हुई अपेक्षाओं में से एक है। “समझदार होने” का तात्पर्य क्या है? (तहजीब और शिष्टाचार की समझ दिखाना।) यह थोड़ा सतही है, लेकिन यह इसका हिस्सा है। क्या “समझदार होने” का मतलब सद्बुद्धि होना, तर्क का अनुगामी होना नहीं है? क्या हम इसके साथ इतनी दूर तक जा सकते हैं? (हाँ।) तहजीब और शिष्टाचार की समझ दिखाना, और सद्बुद्धि होना। तो, यह सब एक-साथ रखते हुए, अगर व्यक्ति “सुशिक्षित और समझदार होने” वाले व्यवहारों से युक्त है, तो वह वास्तव में इसे समग्र रूप से कैसे दिखाता है? क्या तुम लोगों ने ऐसा व्यक्ति देखा है, जो सुशिक्षित और समझदार हो? क्या तुम लोगों के बुजुर्गों और रिश्तेदारों या दोस्तों में कोई सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति है? उसका विशिष्ट लक्षण क्या है? वह असाधारण संख्या में नियमों का पालन करता है। वह अपनी बोलचाल को लेकर काफी सतर्क रहता है, जो न तो रूखी होती है, न ही अपरिपक्व, न ही दूसरों को चोट पहुँचाने वाली होती है। जब वह बैठता है तो ठीक से बैठता है; जब वह खड़ा होता है तो सही मुद्रा में खड़ा होता है। हर लिहाज से उसका व्यवहार दूसरों को परिष्कृत और संतुलित लगता है, जो उसे देखकर स्नेह और प्रशंसा महसूस करते हैं। जब वह लोगों से मिलता है, तो अपना सिर नीचा कर लेता है, शरीर झुका लेता है, झुककर प्रणाम करता है और आदर से घुटने टेक देता है। वह समाज के निचले तबके की आदत या गुंडागर्दी के बिना, सार्वजनिक शालीनता और व्यवस्था के नियमों का सख्ती से पालन करते हुए विनम्रता से बात करता है। कुल मिलाकर, उसका बाहरी व्यवहार उसे देखने वालों में सांत्वना और प्रशंसा प्रकट करता है। हालाँकि इसके बारे में एक परेशान करने वाली चीज है : उसके लिए हर चीज के नियम हैं। खाने के अपने नियम हैं; सोने के अपने नियम हैं; चलने के अपने नियम हैं; यहाँ तक कि घर से जाने और वापस आने के भी नियम हैं। जब कोई ऐसे व्यक्ति के साथ होता है, तो वह काफी विवश और असहज महसूस करता है। तुम नहीं जानते कि वह कब कोई नियम दिखा देगा, और अगर तुमने लापरवाही से उसका उल्लंघन किया, तो तुम काफी लापरवाह और अज्ञानी दिखते हो, जबकि वह बहुत परिष्कृत दिखाई देता है। वह मुस्कुराता भी सलीके से है जिसमें दाँत नहीं दिखते और रोता भी सलीके से है, वह दूसरों के सामने कभी नहीं रोता, बल्कि देर रात जब दूसरे सो रहे होते हैं तो वह अपने कंबल में मुँह ढककर रोता है। वह जो कुछ भी करता है, वह नियमबद्ध होता है। इसे ही “शिक्षा-दीक्षा” कहा जाता है। ऐसे लोग शिष्टाचार के देश में, एक बहुत बड़े परिवार में रहते हैं; उनके पास बहुत सारे नियम और बहुत सारी शिक्षा-दीक्षा होती है। तुम इसे चाहे जैसे कहो, सुशिक्षित और समझदार होने में शामिल अच्छे व्यवहार, व्यवहार ही हैं—बाहरी तौर पर अच्छे व्यवहार, जो व्यक्ति के मन में उस वातावरण द्वारा बैठाए जाते हैं जिसमें उसका लालन-पालन होता है, और जो धीरे-धीरे व्यक्ति में उन उच्च मानकों और सख्त अपेक्षाओं द्वारा कड़े किए जाते हैं, जिन्हें वह अपने व्यवहार पर रखता है। ऐसे व्यवहारों का लोगों पर जो भी प्रभाव हो, वे मनुष्य के बाहरी व्यवहार से ज्यादा किसी चीज को नहीं छूते, और हालाँकि ऐसे बाहरी व्यवहारों को मनुष्य अच्छे व्यवहार मानता है, ऐसे व्यवहार जिनके लिए लोग प्रयास करते हैं और जिनका अनुमोदन करते हैं, फिर भी वे मनुष्य के स्वभाव से अलग चीज हैं। किसी का बाहरी व्यवहार कितना भी अच्छा हो, वह उसका भ्रष्ट स्वभाव नहीं छिपा सकता; किसी का बाहरी व्यवहार कितना भी अच्छा हो, वह उसके भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव का स्थान नहीं ले सकता। हालाँकि एक सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति का व्यवहार काफी अनुशासित होता है, जिससे दूसरों का काफी आदर-सम्मान प्राप्त होता है, लेकिन जब उसका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है, तो उसका वह अच्छा व्यवहार किसी काम नहीं आता। उसका व्यवहार कितना भी नेक और परिपक्व क्यों न हो, जब सत्य-सिद्धांतों को छूने वाली कोई चीज उस पर आन पड़ती है, तो उसका वह अच्छा व्यवहार किसी काम नहीं आता, न ही वह उसे सत्य समझने के लिए प्रेरित करता है—इसके बजाय, चूँकि वह अपनी इस धारणा में विश्वास करता है कि सुशिक्षित और समझदार होना एक सकारात्मक चीज है, इसलिए वह उस चीज को सत्य समझने लगता है, जिससे वह परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों को मापता और उन पर सवाल उठाता है। वह अपनी बोलचाल को भी उसी कथन के अनुसार मापता है और उसी के अनुसार कार्य करता है, और दूसरों को मापने के लिए भी यही उसका मानक होता है। अब “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” की परिभाषा देखो—पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना। अब, क्या सुशिक्षित और समझदार बनने का आह्वान करने वाले बाहरी व्यवहार के मानक का परमेश्वर के वचनों और सत्य से कोई लेना-देना है? (नहीं।) ये असंबंधित ही नहीं हैं—ये विरोधी भी हैं। विरोध कहाँ है? (ऐसी कहावतें लोगों को सिर्फ बाहरी अच्छे व्यवहार पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करेंगी, जबकि उनके अंदर के इरादों और भ्रष्ट स्वभावों को नजरअंदाज कर देंगी। वे ऐसा इसलिए करती हैं ताकि लोग इन अच्छे व्यवहारों से गुमराह होकर इस बात पर विचार न करें कि उनके विचारों और धारणाओं में क्या है, और ताकि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव देखने में असमर्थ रहें, यहाँ तक कि दूसरों के व्यवहार के अनुसार उनसे आँख मूँदकर ईर्ष्या और उनकी आराधना भी कर सकें।) ऐसे होते हैं परंपरागत संस्कृति के कथन स्वीकारने के परिणाम। इसलिए, जब मनुष्य इन अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन देखता है, तो वह उन व्यवहारों को सँजो लेता है। वह यह विश्वास करने से शुरुआत करता है कि ये व्यवहार अच्छी और सकारात्मक चीजें हैं, और उनके सकारात्मक चीजें होने के आधार पर वह उनके साथ ऐसा व्यवहार करता है, मानो वे सत्य हों। फिर, वह इसे उस मानदंड के रूप में इस्तेमाल करता है, जिसके द्वारा वह स्वयं को रोकता और दूसरों को मापता है; वह इसे लोगों और चीजों के बारे में अपने विचारों के आधार के रूप में लेता है, और सामान्यतः वह इसे अपने आचरण और कार्यों के आधार के रूप में भी लेता है। तो क्या यह सत्य के विपरीत नहीं है? (हाँ, है।) व्यक्ति को सुशिक्षित और समझदार होना चाहिए, यह कथन लोगों को गुमराह करता है या नहीं, फिलहाल हम इस बात को छोड़ देते हैं और इस कथन पर ही बात करते हैं। “सुशिक्षित और समझदार होना”—यह एक सभ्य, नेक वाक्यांश है। हर कोई इस कथन को पसंद करता है और इस धारणा के आधार पर कि यह सही है, अच्छा है और एक मानदंड है, मनुष्य इस कथन का इस्तेमाल दूसरों को मापने और लोगों और चीजों को देखने के लिए करता है। सामान्य रूप से वह इसे अपने आचरण और कार्यों का आधार भी बनाता है। उदाहरण के लिए, मनुष्य किसी की अच्छाई को मापने का आधार परमेश्वर के वचनों को नहीं बनाता। वह इसका आधार किसे बनाता है? “क्या यह व्यक्ति सुशिक्षित और समझदार है? क्या इसका बाहरी व्यवहार सुसंस्कृत है? क्या यह सुनियंत्रित है? क्या यह दूसरों का सम्मान करता है? क्या इसमें शिष्टाचार है? क्या यह दूसरों से बात करते समय विनम्र रवैया अपनाता है? क्या उसे सद्व्यवहार आता है, जैसे कि कोंग रोंग ने एक बार बड़ी नाशपातियाँ त्यागकर दिखाया था? क्या यह ऐसा व्यक्ति है?” वे ये सवाल और विचार किस आधार पर उठाते हैं? पहले तो यह सुशिक्षित और समझदार होने की कसौटी पर आधारित है। क्या इसे अपनी कसौटी के रूप में इस्तेमाल करना उनके लिए सही है? (नहीं।) यह सही क्यों नहीं है? कितना आसान जवाब है, फिर भी तुम लोग इसे नहीं दे पाते। क्योंकि परमेश्वर इस तरह माप नहीं करता, न ही वह मनुष्य से ऐसा करवाना चाहता है। अगर मनुष्य ऐसा करता है, तो वह गलती पर है। अगर कोई किसी व्यक्ति या घटना को इस तरह से मापता है, अगर वह इसे लोगों और चीजों को देखने के मानक के रूप में इस्तेमाल करता है, तो वह सत्य और परमेश्वर के वचनों का उल्लंघन करता है। यह परंपरागत धारणाओं और सत्य के बीच संघर्ष है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) परमेश्वर मनुष्य से दूसरों का माप किस आधार पर करवाता है? वह मनुष्य को लोगों और चीजों को किसके अनुसार दिखवाता है? (अपने वचनों के अनुसार।) वह मनुष्य को लोगों को अपने वचनों के अनुसार दिखवाता है। विशेष रूप से, इसका अर्थ है उसके वचनों के अनुसार यह मापना कि व्यक्ति में मानवता है या नहीं। यह तो रहा इसका एक हिस्सा। इसके अलावा, यह आधार भी है कि वह व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं, उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है या नहीं, और वह सत्य के प्रति समर्पित हो सकता है या नहीं। क्या ये इसकी विशिष्टताएँ नहीं हैं? (हाँ, हैं।) तो, मनुष्य दूसरे की अच्छाई किस आधार पर मापता है? इस आधार पर कि वे सुसंस्कृत और सुनियंत्रित हैं या नहीं, खाना खाते समय अपने होंठ चाटते या निवाले खोजते हैं या नहीं, भोजन के लिए बैठने से पहले अपने बड़ों के बैठने का इंतजार करते हैं या नहीं। दूसरों को मापने के लिए वह ऐसी चीजों का इस्तेमाल करता है। क्या इन चीजों का इस्तेमाल करना सुशिक्षित और समझदार होने जैसे व्यवहार के मानक का इस्तेमाल करना नहीं है? (हाँ, है।) क्या ऐसे माप सटीक हैं? क्या वे सत्य के अनुरूप हैं? (नहीं।) यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं। तो फिर, इस तरह के माप से अंततः क्या नतीजा निकलता है? मापने वाला मानता है कि जो भी व्यक्ति सुशिक्षित और समझदार है, वह अच्छा व्यक्ति है, और अगर तुम उससे सत्य के बारे में संगति करवाओगे, तो वह हमेशा लोगों के मन में वही घरेलू नियम और शिक्षाएँ और अच्छे व्यवहार बैठाएगा। और लोगों के मन में ये चीजें बैठाने का नतीजा अंततः यह होता है कि ये चीजें लोगों को अच्छे व्यवहारों की ओर तो ले जाएँगी, लेकिन उन लोगों का भ्रष्ट सार बिल्कुल नहीं बदलेगा। काम करने का यह तरीका सत्य और परमेश्वर के वचनों से बिल्कुल अलग है। ऐसे लोगों में सिर्फ कुछ अच्छे व्यवहार होते हैं। तो, क्या अच्छे व्यवहार के कारण उनके अंदर के भ्रष्ट स्वभाव बदले जा सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पण और निष्ठा प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। ये लोग क्या बन गए हैं? फरीसी, जिनमें सिर्फ बाहरी अच्छा व्यवहार होता है, लेकिन जो मूलभूत रूप से सत्य नहीं समझते और परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं हो सकते। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) फरीसियों को देखो—क्या वे दिखने में निर्दोष नहीं थे? वे सब्त मनाते थे; सब्त के दिन वे कुछ नहीं करते थे। वे बोलचाल में विनम्र, काफी नियंत्रित और नियमों का पालन करने वाले, काफी सुसंस्कृत, काफी सभ्य और विद्वान थे। चूँकि वे स्वाँग रचने में अच्छे थे और परमेश्वर का भय बिल्कुल भी नहीं मानते थे, बल्कि उसकी आलोचना और निंदा करते थे, इसलिए अंत में उन्हें परमेश्वर द्वारा शाप दिया गया। परमेश्वर ने उन्हें पाखंडी फरीसी ठहराया, जो सभी दुष्ट हैं। ऐसे ही, जिस तरह के लोग सुशिक्षित और समझदार बनने के अच्छे व्यवहार को अपने आचरण और कार्य की कसौटी के रूप में इस्तेमाल करते हैं, वे स्पष्ट रूप से वे लोग नहीं हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। जब वे इस नियम का इस्तेमाल दूसरों को मापने और अपना आचरण और कार्य करने के लिए करते हैं, तो वे निस्संदेह सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे होते; और जब वे किसी व्यक्ति या चीज के बारे में कोई निर्णय लेते हैं, तो उस निर्णय के मानक और आधार सत्य के अनुरूप नहीं होते, बल्कि उसका उल्लंघन करते हैं। एकमात्र चीज जिस पर वे ध्यान केंद्रित करते हैं, वह है व्यक्ति का व्यवहार, उसके तरीके, न कि उसका स्वभाव और सार। उनका आधार परमेश्वर के वचन नहीं होते, सत्य नहीं होता; इसके बजाय, उनके माप परंपरागत संस्कृति के सुशिक्षित और समझदार होने जैसे व्यवहार के मानक पर आधारित होते हैं। इस तरह के माप का निष्कर्ष यह होता है कि अगर व्यक्ति में सुशिक्षित और समझदार होने जैसे बाहरी अच्छे व्यवहार हैं, तो वह अच्छा और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। जब लोग ऐसे वर्गीकरण अपनाते हैं, तो उन्होंने स्पष्ट रूप से सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति विरोधी रुख अपना लिया होता है। और जितना ज्यादा वे लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के लिए इस व्यवहारगत मानदंड का इस्तेमाल करते हैं, इसका नतीजा उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य से और भी दूर ले जाता है। फिर भी, वे जो कर रहे होते हैं, उसका आनंद लेते हैं और मानते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं। परंपरागत संस्कृति के कुछ अच्छे कथनों को कायम रखकर वे मानते हैं कि वे सत्य और सच्चे मार्ग को कायम रख रहे हैं। लेकिन वे इन चीजों का चाहे जितना पालन करें, इन पर चाहे जितना जोर दें, अंततः उन्हें परमेश्वर के वचनों का, सत्य का कोई अनुभव नहीं होगा या पूरी समझ नहीं होगी, न ही वे परमेश्वर के प्रति जरा भी समर्पित होंगे। इससे परमेश्वर के प्रति सच्चा भय तो बिल्कुल भी उत्पन्न नहीं हो सकता। ऐसा तब होता है, जब लोग सुशिक्षित और समझदार होने जैसे तमाम अच्छे व्यवहार अपनाते हैं। मनुष्य अच्छे व्यवहार पर, उसे जीने पर, उसका अनुसरण करने पर जितना ज्यादा ध्यान केंद्रित करता है, उतना ही वह परमेश्वर के वचनों से दूर होता जाता है—और मनुष्य परमेश्वर के वचनों से जितना ज्यादा दूर होता है, वह सत्य समझने में उतना ही कम सक्षम होता है। यह बिल्कुल सामान्य है। अगर किसी का व्यवहार सुधरता है, तो क्या इसका मतलब यह है कि उसका स्वभाव बदल गया है? क्या तुम लोगों को इसका अनुभव है? क्या तुम लोगों ने कभी अनजाने में सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति बनने का प्रयास किया है? (हाँ।) ऐसा इसलिए है, क्योंकि सभी लोग समझते हैं कि सुशिक्षित, समझदार बनने से व्यक्ति दूसरों को काफी सम्मानित और नेक प्रतीत होता है। दूसरे लोग उसका बहुत आदर करते हैं। ऐसा ही होता है, है न? (बिल्कुल।) इसलिए, इन अच्छे व्यवहारों का होना कोई बुरी बात नहीं होनी चाहिए। लेकिन क्या ये अच्छे व्यवहार, ये अच्छे प्रदर्शन प्राप्त करने से मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान हो सकता है? क्या यह लोगों को बुरे काम करने से रोक सकता है? अगर नहीं, तो ऐसे अच्छे व्यवहारों का क्या लाभ है? यह सिर्फ अच्छा रूप-रंग है; यह किसी काम का नहीं है। क्या ऐसे अच्छे व्यवहार वाले लोग परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं? क्या वे सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकते हैं? स्पष्ट रूप से नहीं। अच्छा व्यवहार मनुष्य के सत्य के अभ्यास का स्थान नहीं ले सकता। यह वैसा ही है, जैसा फरीसियों के साथ था। उनका व्यवहार बहुत अच्छा था, और वे काफी पवित्र थे, लेकिन उन्होंने प्रभु यीशु के साथ कैसा व्यवहार किया? किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि वे मानवजाति के उद्धारकर्ता को क्रूस पर चढ़ा सकते हैं। इसलिए, जिन लोगों का सिर्फ बाहरी व्यवहार अच्छा है लेकिन उन्होंने सत्य प्राप्त नहीं किया है, वे खतरे में हैं। वे परमेश्वर का विरोध और उसके साथ विश्वासघात करते हुए वैसे ही चलते रह सकते हैं, जैसे चलते रहे हैं। अगर तुम इसे नहीं समझ सकते, तो तुम हमेशा की तरह अभी भी लोगों के अच्छे व्यवहार से गुमराह हो सकते हो।
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