सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (2) भाग दो
परमेश्वर में विश्वास करना अनुग्रह या परमेश्वर की सहनशीलता और दया प्राप्त करने के बारे में नहीं है। फिर वह किस बारे में है? वह बचाए जाने के बारे में है। तो, उद्धार का चिह्न क्या है? परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक क्या हैं? बचाए जाने के लिए किस चीज की आवश्यकता है? व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव के समाधान की। यही इस मामले का मूल बिंदु है। इसलिए, अंततः, पूर्ण विचार करने के बाद, चाहे तुमने कितना भी कष्ट सहा हो या कितनी भी बड़ी कीमत चुकाई हो, या तुम कितने भी सच्चे विश्वासी होने का दावा करो—अगर, अंत में, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का बिल्कुल भी समाधान नहीं हुआ है, तो इसका अर्थ है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। या यह कहा जा सकता है कि चूँकि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, इसलिए तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं हुआ है। इसका अर्थ यह है कि तुमने उद्धार के मार्ग पर बिल्कुल भी कदम नहीं रखा है; इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता है और मनुष्य को बचाने के लिए वह जो भी कार्य करता है, उसने तुममें कुछ भी हासिल नहीं किया है, उसके द्वारा तुम कोई गवाही देने में सक्षम नहीं हुए, और वह तुम्हारे भीतर कोई परिणाम नहीं लाया है। परमेश्वर कहेगा, “चूँकि तुमने कष्ट सहा है और कीमत चुकाई है, इसलिए मैंने तुम्हें वह अनुग्रह, आशीष, देखभाल और सुरक्षा दी है, जिसके तुम इस जीवन और इस संसार में हकदार हो। पर तुम्हारा उस चीज में कोई हिस्सा नहीं है, जिसका हकदार मनुष्य बचा लिए जाने के बाद होता है। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि मैंने तुम्हें पहले ही वह प्रदान कर दिया है, जिसके तुम इस जीवन और इस संसार में हकदार हो; उद्धार के बाद मनुष्य जिसका हकदार होता है, उसमें तुम्हारे लिए कुछ नहीं है, क्योंकि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चले।” तुम उनमें से नहीं हो जो बचाए जाएँगे, तुम एक सच्चे सृजित प्राणी नहीं बने हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता। परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, जो केवल काम करते हैं, भाग-दौड़ करते हैं, कष्ट उठाते हैं और उसके लिए कीमत चुकाते हैं, जो कुछ हद तक सच्चा विश्वास करते हैं और थोड़ी आस्था रखते हैं, और कुछ नहीं। ऐसे लोग उसके विश्वासियों के समूहों में हर जगह पाए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, उनमें से बहुत-से ऐसे लोग हैं, जो परमेश्वर के लिए अनगिनत काम करते और श्रम करते हैं। अगर वे ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें परमेश्वर ने पूर्वनियत किया और चुना है, जिन्हें परमेश्वर अपने घर में वापस ले आया है, तो उनमें से कोई भी उसके लिए काम करने और श्रम करने के लिए अनिच्छुक नहीं होगा। ऐसा क्यों है? क्योंकि यह करना बहुत आसान है। यही कारण है कि ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो परमेश्वर के लिए श्रम और मेहनत करते हैं। यहाँ तक कि मसीह-विरोधी और दुष्ट लोग भी ऐसा करने में सक्षम हैं, जैसे पौलुस। क्या पौलुस जैसे बहुत-से लोग नहीं हैं? (हाँ, हैं।) अगर तुम किसी कलीसिया में जाकर इस तरह से प्रचार करते हो—“अगर तुम भाग-दौड़ करने, कष्ट उठाने और परमेश्वर के लिए कीमत चुकाने को तैयार हो, तो धार्मिकता का मुकुट तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा होगा”—क्या तुम्हें लगता है कि बहुत सारे लोग तुम्हारी पुकार का जवाब देंगे? बहुत सारे देंगे। लेकिन दुर्भाग्य से, अंत में, ये वे लोग नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा या जिन्हें बचाया जा सकता है। ऐसे लोग बस श्रम करने के स्तर पर ठहरे रहते हैं; वे सिर्फ परमेश्वर के लिए श्रम करने के इच्छुक होते हैं। दूसरे शब्दों में, ये लोग केवल परमेश्वर से सौभाग्य, उसके अनुग्रह और आशीष पाने के लिए अपनी मेहनत का सौदा करने के इच्छुक होते हैं। वे अपने जीवित रहने के तरीके, या अपने जीने के ढंग या वह नींव नहीं बदलना चाहते, जिस पर वे जीवित रहने के लिए निर्भर रहते हैं; वे अपने भ्रष्ट स्वभाव बदलने या उद्धार प्राप्त करने के लिए सत्य का अनुसरण करने हेतु परमेश्वर का न्याय और ताड़ना नहीं स्वीकारना चाहते। स्वाभाविक रूप से, तुम यह भी कह सकते हो कि ये लोग केवल कष्ट उठाने और कीमत चुकाने के इच्छुक होते हैं, ये केवल अपना सब-कुछ त्यागने और अर्पित करने के इच्छुक होते हैं, ये वह सब खपाना चाहते हैं जो वे खपा सकते हैं, चाहे उसकी जो भी कीमत हो, और ये हर संभव तरीके से मेहनत करने के लिए तैयार रहते हैं—लेकिन अगर तुम इनसे खुद को जानने, सत्य स्वीकारने, अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने, दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने, सत्य का अभ्यास करने, और नीनवे के लोगों की तरह अपनी बुराई छोड़कर वापस परमेश्वर की ओर मुड़ने, और उसके वचनों पर ध्यान देने और उसके वचनों के अनुसार जीने के लिए कहते हो, तो इनके लिए यह अत्यंत कठिन होगा। क्या ऐसा ही नहीं है? (ऐसा ही है।) क्या यह काफी तकलीफदेह नहीं है? परमेश्वर ने बहुत अधिक कार्य किया है और बहुत सारे वचन बोले हैं, तो लोगों को ऐसा क्यों लगता है कि सत्य का अनुसरण करना बहुत कठिन है? वे हमेशा उसके प्रति उदासीन क्यों रहते हैं? वर्षों तक प्रवचन सुनने के बाद भी उनका बदलने का कोई इरादा नहीं है। उन्होंने अपने दिल की गहराइयों से कभी परमेश्वर के सामने ईमानदारी से पश्चात्ताप नहीं किया है, न ही उन्होंने कभी यह तथ्य सच में माना या स्वीकारा है कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं। चीजों के बारे में अपने विचारों और कार्यकलापों दोनों में उन्होंने कभी अपने दृष्टिकोण नहीं छोड़े और सत्य नहीं खोजा; वे हर मामले के प्रति अपना दृष्टिकोण उलटने और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने का रवैया नहीं रखते। इसलिए, ऐसे बहुत-से लोग हैं, जिन्होंने बहुत-कुछ अनुभव किया है और बहुत काम किया है, जो काफी समय से अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, लेकिन फिर भी कोई गवाही नहीं दे सकते। उन्हें अभी भी परमेश्वर के वचनों का कोई ज्ञान या अनुभव नहीं है, और जब वे परमेश्वर के वचनों के बारे में अपने अनुभव और ज्ञान की बात करते हैं, तो बहुत शर्मिंदा और असहाय होते हैं, और वे अत्यंत अयोग्य दिखाई देते हैं। इसका कारण यह है कि उन्हें सत्य का कोई ज्ञान नहीं है या उन्हें उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। दूसरी ओर, मेहनत करना बहुत सरल, बहुत आसान है। इसलिए, हर कोई परमेश्वर के लिए श्रम करने के लिए तैयार है, लेकिन कोई सत्य का अनुसरण करना नहीं चुनता।
तो अब, सत्य का अनुसरण करने का वास्तव में क्या अर्थ है? हमने बहुत-कुछ कहा है; क्या हमें यह परिभाषित नहीं करना चाहिए कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? क्या तुम लोग इसे परिभाषित कर सकते हो? यह एक बहुत ही सरल परिभाषा होनी चाहिए, है न? अगर तुम लोग केवल शब्दों पर विचार, चिंतन-मनन-करो, तो क्या यह तुम्हें समझ आ जाएगी? शायद कुछ लोग हों जो कहें, “सत्य का अनुसरण करना एक बड़ा विषय है। इसे कुछ ही वाक्यों में स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता। मैं नहीं जानता कि इसके बारे में क्या कहूँ। कौन-से शब्द इसका वर्णन कर सकते हैं? सत्य का अनुसरण करना एक बड़ा मामला है, और इसे भव्यतम शब्दों में ही उचित रूप से वर्णित और परिभाषित किया जा सकता है—वास्तव में सभी को प्रभावित करने का यही एकमात्र तरीका है!” क्या तुम लोग सोचते हो कि ऐसा ही होना चाहिए? (नहीं।) तो ठीक है, रोजमर्रा की भाषा में सत्य का अनुसरण करने को परिभाषित करो। (सत्य का अनुसरण करने का अर्थ है अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना।) क्या यह परिभाषा कहे जाने योग्य है? क्या तुम इससे कोई निष्कर्ष निकाल रहे हो? क्या सत्य का अनुसरण करने को परिभाषित करना आसान है? इसे परिभाषित करना कोई आसान काम नहीं है; तुम्हें इस पर विचार करने के लिए कुछ प्रयास करने की आवश्यकता है। सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? आओ, इसे परिभाषित करने का प्रयास करें, ठीक है? सभी इंसानी भाषाओं में सबसे अच्छी भाषा वह होती है, जो सरल, बोलचाल की और सच्ची व सटीक हो। हम किसी अनजानी भाषा में या कुछ भव्य शब्दों के साथ नहीं बोलेंगे। हम आम लोगों की रोजमर्रा की भाषा इस तरह बोलेंगे, जो धाराप्रवाह, बोलचाल की और समझने में आसान हो, ताकि लोग हमारा कहा तुरंत समझ सकें। नाबालिगों या उन लोगों के अलावा, जो इसे समझने में बहुत नादान या मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं, सामान्य रूप से सोचने वाला कोई भी वयस्क हमारे द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा सुनते ही समझने में सक्षम हो जाएगा। बोलचाल की भाषा होने का यही अर्थ है; इसे ही रोजमर्रा की भाषा कहा जाता है। तो, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के आधार पर, परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना—सत्य का अनुसरण करने का यही अर्थ है। सत्य का अनुसरण करने की सटीक परिभाषा यही लगती है। प्रश्न : सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? उत्तर : पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना। सत्य का अनुसरण करने की यही परिभाषा है। सरल है न? तुममें से कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम इस पूरे समय इस बात पर संगति कर रहे हो कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, जबकि उसकी परिभाषा केवल यह एक वाक्य है। क्या यह इतनी सरल है?” हाँ, यह इतनी ही सरल है। यह इतनी सरल परिभाषा है, फिर भी यह बहुत-से संबंधित विषयों को स्पर्श करती है—और वे सभी संबंधित विषय सत्य का अनुसरण करने के विषय को स्पर्श करते हैं। इन विषयों में मनुष्य की कठिनाइयाँ, और मनुष्य के विचार और दृष्टिकोण, और साथ ही सत्य का अनुसरण करने के प्रति मनुष्य के असंख्य बहाने, औचित्य, तरीके और दृष्टिकोण शामिल हैं। सत्य का अनुसरण करने के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध और उसके ऐसा करने से इनकार करने का विषय भी है, जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों के कारण होते हैं। बेशक, जिन चीजों के बारे में मैंने तुम्हें बताया है—सत्य का अनुसरण करने के कई मार्ग और कदम, व्यक्ति द्वारा सत्य का अनुसरण करने का तरीका, सत्य का अनुसरण करने से प्राप्त होने वाले परिणाम, और सत्य वास्तविकता जो उसे जीने वाले लोगों में देखी जा सकती है—ये भी सत्य का अनुसरण करने के विषय को स्पर्श करते हैं। इसका अंतिम परिणाम परमेश्वर के वचनों और मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य की अनुभवात्मक गवाही है, जो तब उत्पन्न होती है जब लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करते हैं। यह सबसे बड़ा परिणाम है। ऐसी गवाही की एक विशेषता यह है कि यह परमेश्वर के कार्य के परिणामों की गवाही देती है; दूसरी विशेषता यह है कि यह उन सकारात्मक प्रभावों की गवाही देती है, जो सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों में देखे जा सकते हैं, यानी उनके भ्रष्ट स्वभाव कम या ज्यादा सीमा तक हल कर लिए गए हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति जो बहुत अहंकारी हुआ करता था, जो मनमाना, लापरवाह और अपने कार्यों में अपने आप में कानून हुआ करता था, वह परमेश्वर के वचन पढ़कर सीखता है कि यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, और फिर इसे स्वीकारता और मानता है। धीरे-धीरे, इस भ्रष्ट स्वभाव के चलते दूसरों का और उसका जो नुकसान होता है, उसे उसका पता चलता है : छोटे दृष्टिकोण से, यह लोगों के लिए हानिकारक है, और बड़े दृष्टिकोण से, यह कलीसिया के कार्य को अव्यवस्थित, बाधित और क्षतिग्रस्त करता है। यह परिणामों का एक हिस्सा है; यह वह चीज है जो व्यक्ति तब सीखता है जब वह परमेश्वर के वचन समझता है। इसके अलावा, परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के आधार पर, वह अपना भ्रष्ट स्वभाव स्वीकारता है, और फिर, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित स्थितियों में वह धीरे-धीरे पश्चात्ताप करने लगता है और वे जीवन-शैलियाँ और अपने आचरण और कार्यों के वे दृष्टिकोण छोड़ देता है, जिन्हें वह कभी रखता था। वह परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के सिद्धांत और मार्ग ढूँढ़ता है और परमेश्वर द्वारा दिए गए अभ्यास के सिद्धांतों के अनुसार मामले सँभालता है। यह सच्चा पश्चात्ताप और वास्तव में खुद को बदलना है। वह परमेश्वर के वचनों के आधार पर आचरण और कार्य करने में सक्षम होता है, और अंततः, जब भी वह कार्य करता है तो सत्य सिद्धांत खोजता है, और परमेश्वर के वचनों को अपना आधार बनाने की वास्तविकता के एक हिस्से को जीता है। यह अहंकारी स्वभाव को हल करने का एक उदाहरण है। इससे प्राप्त अंतिम परिणाम यह होता है कि यह व्यक्ति अब अहंकार से नहीं जीता; इसके बजाय उसमें जमीर और विवेक होता है, वह सत्य सिद्धांत खोजने में सक्षम होता है और वास्तव में सत्य के प्रति समर्पित होता है; वह जिस चीज का अभ्यास करता और जिसे जीता है, उस पर उसका भ्रष्ट स्वभाव हावी नहीं रह जाता, इसके बजाय वह सत्य को अपनी कसौटी मानता है और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को जीता है—यही परिणाम है। क्या यह परिणाम सत्य का अनुसरण करने से प्राप्त नहीं होता? (होता है।) यह उस प्रकार का परिणाम है, जो सत्य का अनुसरण व्यक्ति में लाता है। और परमेश्वर की नजर में, इस तरह से जीना उसकी और उसके कार्य की सच्ची गवाही है; यह वह परिणाम है जो तब प्राप्त होता है जब सृजित प्राणी परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना और खुलासे से होकर गुजरता है। यह सच्ची गवाही है, और यह परमेश्वर के लिए महिमा की बात है। निस्संदेह, मनुष्य के लिए यह कोई महिमा की बात नहीं है; इसे केवल एक सम्माननीय और गर्व की बात कहा जा सकता है, और यह वह गवाही है जो परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बाद एक सृजित प्राणी के पास होनी चाहिए और जिसे उसे जीना चाहिए। यह वह सकारात्मक प्रभाव है, जो सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति में प्राप्त होता है। परमेश्वर भी ऐसे अनुभव और ज्ञान को, और जिसे ये लोग जीते हैं उसे, अपने कार्य द्वारा प्राप्त परिणाम मानता है। उसकी नजर में, यह वह गवाही है जो बड़ी ताकत के साथ शैतान पर पलटवार करती है। यही है, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और जिसे वह सँजोता है।
हमने अभी-अभी परिभाषित किया है कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। इस परिभाषा के जरिये, क्या सत्य का अनुसरण करने के अर्थ के बारे में तुम लोगों का दृष्टिकोण वास्तविकता के करीब आया है? (हाँ।) अब जबकि हमने सत्य का अनुसरण उस रूप में परिभाषित कर दिया है जिसे तुम लोग समझते हो, तो तुम लोगों को अपने पिछले अनुसरणों को कैसे देखना चाहिए? यह संभव है कि तुम लोगों में से अधिकांश ऐसे लोग नहीं हैं, जो सत्य का अनुसरण करते हैं। यह सुनना तुम लोगों को थोड़ा परेशान कर सकता है, है न? परिभाषा एक बार और पढ़ो। (सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? उत्तर : पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।) अब तुम लोग इसे सटीक रूप से कह सकते हो। आगे विचार करने पर, क्या यह सही है? (हाँ।) अगर तुम इस परिभाषा के आधार पर अपने पिछले अनुसरण और अभ्यास मापो, तो परिणाम क्या होगा? तुम यह जान पाओगे कि तुम लोगों में वर्तमान में सत्य वास्तविकता है या नहीं, और तुम यह सत्यापित कर पाओगे कि तुम लोगों का वर्तमान आचरण सत्य का अनुसरण है या नहीं। यह इसे कहने का कोई खयाली तरीका नहीं है, है न? यह काफी बोलचाल की भाषा है, है न? (हाँ।) यह वह आम भाषा है, जिसे कोई भी आम व्यक्ति समझ सकता है। हालाँकि यह समझने में काफी आसान लग सकता है, लेकिन लोगों को एक समस्या है। वह क्या समस्या है? कि जब वे परिभाषा समझ जाते हैं, तो असहज और परेशान महसूस करते हैं। वे परेशान क्यों होते हैं? क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके पिछले कष्टों और उनके द्वारा चुकाई गई कीमतों की निंदा की गई है, कि उन्होंने वह व्यर्थ ही किया है, इस कारण वे उखड़ा-उखड़ा महसूस करते हैं। यह सुनकर कुछ लोग कहेंगे, “ओह—तो यह है सत्य का अनुसरण करने की परिभाषा। अगर हम उस परिभाषा के अनुसार चलते हैं, तो क्या हमारे द्वारा चुकाई गई सभी कीमतें और हमारे पिछले सभी व्यय व्यर्थ नहीं गए? अगर तुमने यह परिभाषित नहीं किया होता कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, तो हम यह सोचते रहते कि हम अपने अनुसरणों में अच्छा कर रहे हैं; अब जबकि तुमने इसे यह परिभाषा दे दी है, तो क्या हमारे सब अनुसरण और हमारे द्वारा चुकाई गई सभी कीमतें बेकार नहीं चली गईं? क्या मुकुट पाने और पुरस्कृत होने के हमारे सारे सपने नष्ट नहीं हो गए हैं? सत्य समझ लेने पर हमें आशीष मिलने चाहिए और हमारे सपने सच होने चाहिए, तो अब जबकि हम सत्य समझते हैं, हमारा न्याय क्यों किया जा रहा है? क्यों हम निराशा से अँधेरे में जी रहे हैं? हमारे अतीत और वर्तमान की निंदा कर दी गई है, पता नहीं भविष्य कैसा होगा। ऐसा लगता है कि हमारे आशीष पाने की कोई आशा नहीं है।” क्या ऐसा ही है? क्या लोगों का इस तरह सोचना सही है? (नहीं।) तो क्या लोगों को इसके बारे में इस तरह सोचना चाहिए? (नहीं।) उन्हें इस तरह नहीं सोचना चाहिए। लेकिन इसके बारे में एक अच्छी बात है : तुम सत्य का अनुसरण करने की इस परिभाषा का बार-बार प्रार्थना-पाठ कर सकते हो, फिर अपने अतीत पर नजर डालो, अपने वर्तमान पर नजर डालो, और अपने भविष्य पर नजर डालो। तुम परेशान महसूस कर सकते हो, लेकिन इस एहसास का मतलब है कि तुम सुन्न नहीं हो। तुम अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य पर विचार करना जानते हो, और तुम अपनी सँभावनाओं के लिए योजना बनाना और उनके बारे में सोचना, उनके बारे में चिंता करना और उनके बारे में क्षुब्ध होना जानते हो। यह एक अच्छी बात है। यह साबित करता है कि तुम अभी जीवित हो, कि तुम एक जीवित व्यक्ति हो, और तुम्हारा दिल मरा नहीं है। चिंता की बात तब होती है, जब व्यक्ति से चाहे कुछ भी कहा जाए या उसके साथ सत्य का अनुसरण करने के मार्ग की कितनी भी स्पष्ट संगति की जाए, वह उदासीन रहता है। वह सोचता है, “मैं तो ऐसा ही हूँ; क्या फर्क पड़ता है कि मुझे आशीष मिलता है या मुझ पर आपदा आ पड़ती है? मेरा न्याय करो, मेरी निंदा करो—जो तुम्हारे जी में आए करो!” उसे चाहे कुछ भी कहा जाए, वह उसके प्रति सुन्न रहता है। यह परेशानी की बात है। परेशानी से मेरा क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम सत्य के बारे में उसके साथ कितनी भी संगति करो, वह इसे नहीं समझेगा; वह एक मृत व्यक्ति है, जिसमें आत्मा नहीं है। उसे परमेश्वर में विश्वास करने, सत्य का अनुसरण करने, बचाए जाने, या मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य जैसी चीजों के बारे में कोई जानकारी नहीं है, और वह ऐसी चीजें नहीं समझता। यह संगीत के स्वरों में अंतर न कर पाने वाले व्यक्ति को गाना सिखाने की कोशिश करने या रंग न देख पाने वाले व्यक्ति को रंग मिलाना सिखाने जैसा है : यह संभव ही नहीं है। इन चीजों पर संगति करना उसके लिए कोई महत्व या मूल्य नहीं रखता, क्योंकि तुम चाहे कुछ भी कहो, वह चाहे गहरा हो या उथला, विशिष्ट हो या व्यापक, कोई फर्क नहीं पड़ेगा—उसे किसी भी हालत में कुछ भी महसूस नहीं होगा। वह चश्मा पहने अंधे व्यक्ति की तरह होता है, वह चश्मा पहने या न पहने, उसकी दृष्टि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कुछ लोग अक्सर कहते हैं, “सर्दी आ चुकी है, तो वसंत कितनी ही दूर होगा?” और “जब मैं मरने से नहीं डरता, तो जीने से क्यों डरूँ?” और “मैं अपने हाथ हिलाता हूँ, पर बादल का एक कण भी नहीं हटाऊँगा।” ये सब आत्माहीन, मृत लोगों के शब्द हैं, जो खुद को बहुत चतुर समझते हैं। इसे आध्यात्मिक शब्दावली में कहें तो, उनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है, वे जीवित होते हुए भी मृत होते हैं। क्या मृत लोग जीवित लोगों की बातें समझ सकते हैं? वे सोचते हैं, “सत्य का अनुसरण करने के बारे में यह सारी बात, और लोगों और चीजों पर व्यक्ति के विचार, और व्यक्ति का आचरण और उसके कार्यकलाप—इसका मुझसे क्या लेना-देना है? मैं मरने से नहीं डरता, तो जीने से क्यों डरूँ?” जो ऐसा सोचता है, वह गया काम से। वह मृतकों में से एक है। सत्य का अनुसरण करने की परिभाषा के साथ ऐसा ही है। इस परिभाषा को पढ़ने के बाद भविष्य के मार्ग के लिए तुम्हारे चाहे जो भी इरादे या योजनाएँ हों, या तुम कैसे बदलोगे, यह सब तुम्हारे व्यक्तिगत अनुसरण पर निर्भर करता है। ये वे वचन हैं, जिन्हें मुझे कहने की आवश्यकता है और वे कार्य हैं, जो मुझे करने की आवश्यकता है। मैंने वह सब कह दिया है जिसकी मुझे आवश्यकता थी, और मैंने वह सब कह दिया जो मुझे कहना था। अगर तुम लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हो और उसका अनुसरण करने की इच्छा रखते हो, तो अच्छा होगा कि तुम इस बात के आने पर कि तुम लोग आम तौर पर लोगों और चीजों को कैसे देखते हो, और कैसे आचरण और कार्य करते हो, सत्य का अनुसरण करने की वह परिभाषा अपना लो जो मैंने तुम्हारे अनुसरण के लिए लक्ष्य और दिशा के रूप में दी है, या उसे संदर्भ के रूप में अपना लो, ताकि तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सको। अगर तुम ऐसा करते हो, तो निकट भविष्य में तुम निश्चित रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर कुछ प्राप्त करोगे। कुछ लोग कह सकते हैं, “सत्य का अनुसरण करने में देर क्या सबेर क्या।” यह गलत है—अगर तुम परमेश्वर का कार्य समाप्त होने के बाद तक सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वास्तव में बहुत देर हो जाएगी। इस विचार को कैसे समझाया जाए? सत्य का अनुसरण परमेश्वर का कार्य समाप्त होने से पहले होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, यह कथन तब तक सत्य है जब तक परमेश्वर अपने कार्य की समाप्ति दर्शाने के लिए घंटी नहीं बजा देता। लेकिन जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है और वह कहता है, “मैं मनुष्य को बचाने का और कार्य नहीं करूँगा, और मैं ऐसे और कोई वचन नहीं बोलूँगा जिससे लोगों को उद्धार प्राप्त करने में मदद मिले या जिसमें मनुष्य का उद्धार शामिल हो। मैं ऐसी और चीजें नहीं बोलूँगा,” तब उसका कार्य वास्तव में समाप्त हो चुका होगा। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए तब तक प्रतीक्षा करते हो, तो वास्तव में बहुत देर हो चुकी होगी। जो भी हो, अगर तुम अब भी सत्य का अनुसरण करना शुरू कर देते हो, तो तुम्हारे पास अभी भी समय होगा—तुम्हारे पास अभी भी उद्धार प्राप्त करने का अवसर है। अब से धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने का भरसक प्रयास करो। थोड़े ही समय में मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने वाले परमेश्वर के सभी वचन पढ़ने और समझने का प्रयास करो, और आत्मचिंतन कर खुद को जानने का अभ्यास करो। ऐसा करना तुम्हारे जीवन-प्रवेश के लिए बहुत लाभदायक है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के उन वचनों को लो, जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करते हैं, जो मसीह-विरोधियों के स्वभाव का उल्लेख करते हैं। क्या ये सबसे मूलभूत वचन नहीं हैं? (हैं।) और तुम्हें उन शब्दों को अपना आधार बनाकर क्या करना चाहिए? अपनी निंदा करनी चाहिए? खुद को शाप देना चाहिए? अपने भविष्य और नियति से खुद को बेदखल कर देना चाहिए? नहीं—तुम्हें उनका उपयोग अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने के लिए करना है। इससे बचने की कोशिश न करो। यह वह मोड़ है, जिससे हर व्यक्ति को गुजरना ही पड़ेगा। इसका क्या अर्थ है कि हर व्यक्ति को इससे गुजरना ही पड़ेगा? यह ठीक उसी तरह है, जैसे हर व्यक्ति एक माँ और पिता से पैदा होता है, फिर बड़ा होता है, फिर बूढ़ा होता है, फिर मर जाता है। ये ऐसे मोड़ हैं, जिनसे हर व्यक्ति को एक-एक करके गुजरना ही पड़ता है। सत्य का अनुसरण करना कितना महत्वपूर्ण है? यह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि मनुष्य का रोज का खाना-पीना। अगर तुम रोज का खाना-पीना छोड़ दो, तो तुम्हारी देह जीवित नहीं रह पाएगी; तुम्हारा जीवन जारी नहीं रह पाएगा। “परमेश्वर के वचनों के अनुसार” का अर्थ है कि तुम्हें पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना चाहिए, जो कि बदले में तुम्हारे दृष्टिकोण, तरीके और अभ्यास को जन्म देगा। बेशक, “परमेश्वर के वचनों के अनुसार” “सत्य को कसौटी मानने” के बराबर है। इसलिए, सत्य का अनुसरण करने की परिभाषा में “परमेश्वर के वचनों के अनुसार” अपने आप में पर्याप्त है। फिर “सत्य को कसौटी मानने” को क्यों जोड़ा जाना चाहिए? क्योंकि कुछ विशिष्ट समस्याएँ हैं, जिनकी परमेश्वर के वचनों में चर्चा नहीं की गई है। ऐसे मामलों में तुम्हें सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए, और उन सिद्धांतों के भीतर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना चाहिए। ऐसा करने से तुम निश्चित रूप से पूर्ण सटीकता प्राप्त कर लोगे। पूर्ण सटीकता प्राप्त करने से पहले व्यक्ति को अपना भ्रष्ट स्वभाव जानना चाहिए और अपने भ्रष्ट उद्गारों और भ्रष्ट सार को स्वीकारना चाहिए। इसके बाद उन्हें ईमानदारी से पश्चात्ताप करना चाहिए, और इस प्रकार वास्तव में खुद को बदलना चाहिए। इस शृंखला की प्रत्येक प्रक्रिया अपरिहार्य है, ठीक किसी व्यक्ति के खाना खाने की तरह : भोजन उसके मुँह में डाला जाना चाहिए, और वह उसकी ग्रासनली से उसके पेट में जाएगा, जिसके बाद वह पच जाता है और अवशोषित हो जाता है। तभी वह धीरे-धीरे उसके रक्त में प्रवेश कर सकता है और उसके शरीर के लिए आवश्यक पोषण बन सकता है। लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और उसे अपनी कसौटी मानने लगते हैं, फिर वे सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं, उसे जी सकते हैं और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। इस क्रम में प्रत्येक सामान्य प्रक्रिया अपरिहार्य है; ये वे अनिवार्य कदम हैं, जो सत्य का अनुसरण करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सत्य के किसी भी तत्त्व की खोज में अवश्य उठाने चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “सत्य का अनुसरण करने के लिए मुझे इन कदमों और प्रक्रियाओं की आवश्यकता नहीं है। मैं बस सीधे सत्य खोजूँगा और फिर उसे अभ्यास में लाऊँगा और उसे अपनी वास्तविकता बनाऊँगा।” यह एकांगी समझ है, लेकिन अगर यह परिणाम दे सके, तो निश्चित रूप से यह एक बेहतर तरीका है। यह दर्शाता है कि तुमने अपने भ्रष्ट स्वभाव को नियमित रूप से जानने के दौरान पहले ही एक निश्चित मात्रा में ज्ञान और सफलता अर्जित कर ली है, इसलिए तुम जाँचने, जानने, स्वीकारने, पश्चात्ताप करने आदि की प्रक्रियाएँ छोड़ सकते हो, और सीधे सत्य सिद्धांत खोज सकते हो। सीधे सत्य सिद्धांत खोजने के लिए व्यक्ति का एक निश्चित आध्यात्मिक कद होना चाहिए। ऐसा आध्यात्मिक कद होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का सच्चा ज्ञान है, और जब वे किसी ऐसी चीज के बारे में सत्य नहीं समझते जो उन पर आन पड़ती है, तो उन्हें खुद को जानने या पश्चात्ताप करने या अपना ढर्रा बदलने की जरूरत नहीं है। उन्हें बस इतना करना है कि सीधे तौर पर सत्य सिद्धांतों की समझ हासिल करनी है, और फिर उनके अनुसार अभ्यास करना है। यह पर्याप्त है। यह किसी साधारण व्यक्ति का आध्यात्मिक कद नहीं है। ऐसे आध्यात्मिक कद वाले व्यक्ति ने कम से कम परमेश्वर के कठोर न्याय, ताड़ना, अनुशासन और परीक्षण की प्रक्रिया का अनुभव किया होता है। वह उसके प्रति समर्पित हो चुका होता है और पहले से ही पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर होता है। ऐसे लोगों को अपनी भ्रष्टता जानने, फिर उसे स्वीकारने, पश्चात्ताप करने और खुद को बदलने जैसी प्रक्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती। तो फिर तुम लोगों का क्या? क्या तुममें से अधिकांश लोगों को खुद को जानने से शुरुआत करने की आवश्यकता है? अगर तुम खुद को नहीं जानते, तो तुम आश्वस्त नहीं होगे, और तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना आसान नहीं होगा, और न ही तुम सच्चा पश्चात्ताप करने में सक्षम होगे। अगर तुम वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करते, तो क्या तुम सत्य के प्रति समर्पित हो सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हो? निश्चित रूप से नहीं हो सकते, और उस स्थिति में, तुम वह व्यक्ति नहीं हो जिसे बचाया जाएगा।
इस संगति के बाद, क्या तुम लोगों के पास अब सत्य का अनुसरण करने के लिए थोड़ा-सा मार्ग है? क्या तुम्हारे पास उसका अनुसरण करने का आत्मविश्वास है? (हाँ।) अच्छा है; अगर तुम्हारे पास कोई मार्ग न होता तो यह चिंता की बात होती। तुममें से कुछ ऐसे हो सकते हैं, जो प्रवचन के बाद नकारात्मक महसूस करें। “ओह, नहीं—मेरी क्षमता खराब है। मैंने प्रवचन सुना, पर मैं इसमें से कुछ भी नहीं समझ पाया; मैं बस थोड़ा-सा सिद्धांत समझता हूँ। लगता है, मुझमें ज्यादा आध्यात्मिक समझ नहीं है। मैं सत्य के अनुसरण को लेकर निरुत्साहित महसूस करता हूँ। अपना कर्तव्य निभाने में, मैं बस थोड़ी-सी मेहनत ही कर सकता हूँ। मुझमें बहुत सारी कमियाँ हैं और मैं भ्रष्ट स्वभावों से भरा हुआ हूँ। मुझे लगता है कि इसे बदला नहीं जा सकता। यह ऐसा ही रहेगा। सिर्फ एक श्रमिक होना ही मेरे लिए काफी है।” क्या इस तरह के नकारात्मक विचारों वाला कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर रवाना हो सकता है? यह थोड़ा खतरनाक लगता है, क्योंकि ये नकारात्मक विचार ही सत्य के अनुसरण में एक बड़ी बाधा बनते हैं। अगर व्यक्ति इनका समाधान नहीं करता, तो वह इस मार्ग पर नहीं चल पाएगा, चाहे यह कितना भी अच्छा क्यों न हो। कुछ लोग सत्य का अनुसरण करने के मार्ग में कई बार विफल होकर गिरे हैं, और वे अंततः निरुत्साहित हो जाते हैं : “बस बहुत हुआ—मुझे अब सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है। धन्य होना मेरे भाग्य में ही नहीं है। क्या परमेश्वर ने खुद यह नहीं कहा : ‘क्या तुम्हारे पास आशीष पा सकने लायक मुँह है?’ आईने में देखते ही नजर आ जाता है कि मैं दिखने में औसत हूँ, मेरी आँखों में चमक नहीं और नैन-नक्श अच्छे नहीं, जरा भी परिष्कृत नहीं हैं। तुम जैसे चाहे देखो, मैं आशीष-प्राप्त व्यक्ति की तरह नहीं दिखता। अगर परमेश्वर ने इसे पूर्वनिर्धारित नहीं किया है, तो लोग जितना चाहें उतना अनुसरण कर सकते हैं, कोई फायदा नहीं होगा!” इन लोगों की मानसिकता देखो : उनके दिलों में इतनी घिनौनी चीजें हैं, जिनका अभी समाधान होना बाकी है, फिर वे सत्य के अनुसरण के मार्ग पर कैसे चल सकते हैं? सत्य का अनुसरण करना जीवन का सबसे बड़ा मामला है, और सबसे खराब चीज जो तुम कर सकते हो, वह है इसे हमेशा आशीष प्राप्त करने से जोड़ना। व्यक्ति को पहले आशीष प्राप्त करने की अपनी मंशा का समाधान करना चाहिए। इसके बाद सत्य का अनुसरण करना थोड़ा आसान हो जाएगा। जब सत्य के अनुसरण की बात आती है, तो सबसे महत्वपूर्ण बात यह देखना नहीं कि इस मार्ग पर बहुत-से लोग हैं या नहीं, और अधिकांश लोग जिसे चुनते हैं उसका अनुसरण करना नहीं बल्कि पतरस का अनुकरण करते हुए सिर्फ परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने का प्रयास करने पर ध्यान देना है। सबसे महत्वपूर्ण बात वर्तमान को स्पष्ट रूप से देखना और उसमें जीना है, यह जानना है कि वह कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव है जो वर्तमान में तुम प्रकट करते हो, और उसे हल करने के लिए तत्काल और तुरंत उसका समाधान करना, सत्य खोजकर पहले उसका विश्लेषण कर उसे अच्छी तरह से जानना और फिर परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करना है। जब तुम पश्चात्ताप करते हो, तो सत्य को अभ्यास में लाना अत्यंत महत्वपूर्ण है—वास्तविक परिणाम प्राप्त करने का यही एकमात्र तरीका है। अगर तुम परमेश्वर से सिर्फ यह कहते हो, “परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। मुझे क्षमा करो। मैं गलत था। कृपया मुझे क्षमा करो!” और सोचते हो कि परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए तुम्हें बस इतना ही करने की आवश्यकता है, तो क्या इससे काम चलेगा? (नहीं।) अगर तुम हमेशा परमेश्वर से यह कहने के इच्छुक रहते हो, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” और आशा करते हो कि तुम्हारे यह कहते ही परमेश्वर कहेगा, “ठीक है। जो कर रहे हो करते रहो”—अगर तुम हमेशा इस तरह की स्थिति में रहते हो, तो तुम सत्य में प्रवेश करने में असमर्थ होगे। तो, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना और पश्चात्ताप कैसे करना चाहिए? क्या कोई मार्ग है? जिसके पास इसका अनुभव है, वह इसके बारे में कुछ बोल सकता है। कोई नहीं? लगता है, आम तौर पर तुम लोग कभी पश्चात्ताप की प्रार्थना नहीं करते, न ही तुम अपने पाप स्वीकारते हो और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करते हो। तो, तुम लोगों को अपनी इच्छाएँ और इरादे कैसे छोड़ने चाहिए? तुम्हें अपनी भ्रष्टता कैसे हल करनी चाहिए? क्या तुम्हारे पास अभ्यास का मार्ग है? उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारे पास अहंकारी स्वभाव हल करने का कोई मार्ग नहीं है, तो तुम्हें परमेश्वर से इस तरह प्रार्थना करनी चाहिए : “परमेश्वर, मेरा अहंकारी स्वभाव है। मुझे लगता है कि मैं दूसरों से ज्यादा अच्छा हूँ, दूसरों से बेहतर हूँ, दूसरों से ज्यादा चतुर हूँ, और मैं दूसरों से वैसा ही करवाना चाहता हूँ जैसा मैं कहता हूँ। यह बहुत नासमझी है। यह जानते हुए भी कि यह अहंकार है, मैं इसे क्यों नहीं छोड़ पाता? मैं विनती करता हूँ कि तुम मुझे अनुशासित करो और फटकारो। मैं अपना अहंकार और अपने इरादे छोड़कर तुम्हारे इरादे खोजने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम्हारे वचन सुनने और उन्हें अपना जीवन और कार्य करने के सिद्धांत मानने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम्हारे वचनों को जीने के लिए तैयार हूँ। मैं विनती करता हूँ कि तुम मेरा मार्गदर्शन करो, मैं विनती करता हूँ कि तुम मेरी सहायता और अगुआई करो।” क्या इन शब्दों में समर्पण का रवैया है? समर्पित होने की इच्छा है? (हाँ।) कुछ लोग कह सकते हैं, “सिर्फ एक बार प्रार्थना करने से काम नहीं चलता। जब मुझ पर कुछ आकर पड़ता है, तो मैं अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीता हूँ, और मैं अभी भी प्रभारी बनना चाहता हूँ।” उस स्थिति में, प्रार्थना करते रहो : “परमेश्वर, मैं बहुत अहंकारी हूँ, बहुत विद्रोही हूँ! मैं तुमसे विनती करता हूँ कि तुम मुझे अनुशासित करो, मेरे बुरे काम वहीं के वहीं रोक दो, और मेरे अहंकारी स्वभाव पर लगाम लगाओ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मेरा मार्गदर्शन और अगुआई करो, ताकि मैं तुम्हारे वचनों को जी सकूँ, और तुम्हारे वचनों और तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य और अभ्यास कर सकूँ।” प्रार्थना और याचना में परमेश्वर के सामने और ज्यादा आओ, और उसे कार्य करने दो। तुम्हारे शब्द जितने सच्चे होंगे, और तुम्हारा दिल जितना ईमानदार होगा, दैहिक इच्छाओं और खुद से विद्रोह करने की तुम्हारी इच्छा उतनी ही ज्यादा होगी। जब यह अपनी मरजी के अनुसार कार्य करने की तुम्हारी इच्छा को दबा देती है, तो तुम्हारा दिल धीरे-धीरे बदलने लगता है—और जब ऐसा होता है, तो तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की आशा होगी। जब तुम प्रार्थना करोगे, तो परमेश्वर तुमसे कुछ नहीं कहेगा, या तुम्हें कोई संकेत नहीं देगा, या तुमसे कोई वादा नहीं करेगा, बल्कि वह तुम्हारे दिल की और तुम्हारे शब्दों के पीछे की मंशा की जाँच करेगा; वह देखेगा कि तुम जो कहते हो, वह ईमानदार और सच्चा है या नहीं, और तुम उससे सच्चे दिल से याचना और प्रार्थना कर रहे हो या नहीं। जब परमेश्वर देखता है कि तुम्हारा हृदय ईमानदार है, तो वह तुम्हारी अगुआई और मार्गदर्शन करेगा, जैसा कि तुमने उससे करने के लिए कहा और प्रार्थना की थी, बेशक वह तुम्हें फटकारेगा और अनुशासित भी करेगा। जब परमेश्वर तुम्हारी याचना पूरी कर देगा, तो तुम्हारा हृदय प्रबुद्ध हो जाएगा और कुछ हद तक बदल जाएगा। इसके विपरीत, अगर परमेश्वर से तुम्हारी याचनाएँ और प्रार्थनाएँ झूठी हैं, और तुम्हारी पश्चात्ताप करने की कोई सच्ची इच्छा नहीं है, बल्कि तुम अपने शब्दों से बेमन से सिर्फ परमेश्वर को मनाने और मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहे हो, तो जब परमेश्वर तुम्हारे हृदय को जाँच लेगा, तो वह तुम्हारे लिए कुछ नहीं करेगा, और वह तुमसे तिरस्कार करेगा। इन परिस्थितियों में तुम्हें यह भी नहीं लगेगा कि परमेश्वर तुमसे कुछ कहता है, या कुछ करता है, या कोई भी कार्रवाई करता है, लेकिन परमेश्वर तुम में कोई कार्य नहीं करेगा, क्योंकि तुम दिल से बेईमान हो। और जब परमेश्वर कोई काम नहीं करेगा, तो क्या होगा? जैसे तुमने इरादा किया था, वैसे ही तुम्हारे दिल में पश्चात्ताप करने की इच्छा नहीं होगी, और यह बिल्कुल भी बदला नहीं होगा। और इसलिए, उस परिवेश में और उस घटना में जो तुम पर आ पड़ी है, तुम जो भी करोगे, वह सत्य सिद्धांतों पर आधारित होने के बजाय अभी भी मानवीय इच्छा और भ्रष्ट स्वभावों द्वारा निर्धारित किया जाएगा। तुम अभी भी अपनी इच्छा और अभिलाषा के अनुसार कार्य और अभ्यास करोगे। परमेश्वर से तुम्हारी प्रार्थनाओं का परिणाम वही होगा, जो तुम्हारे प्रार्थना करने से पहले था; कोई बदलाव नहीं होगा। खुद को बिल्कुल भी बदले बिना तुम अभी भी वही करोगे, जो तुम्हें पसंद है। इसका अर्थ यह है कि, सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में लोगों के व्यक्तिपरक प्रयास महत्वपूर्ण हैं, और उतना ही महत्वपूर्ण है यह कि वे सत्य समझते हैं या नहीं। साथ ही, जब लोग सत्य समझते हैं और उसका अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन ऐसा करना मुश्किल पाते हैं, तो उन्हें परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, और अपना ईमानदार दिल और सच्ची प्रार्थनाएँ अर्पित करनी चाहिए। यह भी बहुत महत्वपूर्ण है; ये सभी चीजें अपरिहार्य हैं। अगर तुम सिर्फ यह कहते हुए सरसरी तौर पर, सतही तरीके से परमेश्वर से प्रार्थना करते हो : “परमेश्वर, मैं गलत था। मुझे क्षमा करो,” और अगर तुम अपने दिल में परमेश्वर के साथ उतने ही अनमने रहते हो, जितना कि तुम अपनी प्रार्थना के शब्दों में होते हो, तो परमेश्वर कोई काम नहीं करेगा, न ही वह तुम पर ध्यान देगा। अगर तुम कहते हो, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” तो परमेश्वर निश्चित रूप से नहीं कहेगा : “ठीक है।” तुम्हारे द्वारा परमेश्वर से बोले गए सरसरी, सतही शब्दों के कारण वह तुमसे पूछेगा : “तुम किस तरह से गलत थे? तुम्हारा क्या करने का इरादा है? क्या तुम पश्चात्ताप करोगे? क्या तुम अपनी बुराई छोड़ दोगे और खुद को बदलोगे? क्या तुम अपनी इच्छा, इरादे और रुचियाँ छोड़कर खुद को बदलने के लिए दौड़ पड़ोगे? क्या तुम खुद को बदलने का संकल्प ले सकते हो?” हो सकता है, ऐसा होने पर तुम परमेश्वर को खुद से कुछ भी कहते हुए न सुनो, लेकिन अगर तुम परमेश्वर से कहते हो, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” तो परमेश्वर के दृष्टिकोण से, उसका रवैया वैसा ही होगा जैसा मैंने अभी कहा : वह इन वचनों से तुमसे सवाल करेगा। वह तुमसे कैसे सवाल करेगा? वह यह देखता रहेगा कि यह कहने के बाद : “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” तुम क्या करते हो और क्या विकल्प चुनते हो। वह देखेगा कि क्या तुममें सच में अपनी भ्रष्टता स्वीकारने और उससे घृणा करने से पैदा हुआ सच्चा पश्चात्ताप है। परमेश्वर यह देखेगा कि उसके प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को कैसे लेते हो और उस पर तुम्हारे क्या विचार हैं, और क्या तुम अपने गलत विचार और गलत तरीके छोड़ने का इरादा रखते हो; वह तुम्हारे चयन देखेगा, वह यह देखेगा कि क्या तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना चुनते हो, आगे बढ़ते हुए तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए और कौन-से सिद्धांत कायम रखने चाहिए, तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो या नहीं और उसके प्रति समर्पित हो सकते हो या नहीं। परमेश्वर तुम्हारे हर कदम, हर इरादे और चुनाव का निरीक्षण करेगा, और यह करते हुए वह यह देखेगा कि उन चयनों के बाद तुम जो चीजें करते हो, क्या वे वास्तव में पश्चात्ताप के कार्यकलाप हैं और क्या तुम खुद को बदल रहे हो। यही अहम मुद्दा है।
पश्चात्ताप करना चुनने के बाद लोग खुद को कैसे बदलें? सत्य का अभ्यास करने और वास्तव में बदलने के लिए अपनी इच्छाएँ, विचार और दृष्टिकोण, और काम करने के अपने पुराने तरीके छोड़कर। खुद को वास्तव में बदलने का यही अर्थ है। अगर तुम सिर्फ खुद को बदलने के इच्छुक होने का दावा करते हो, लेकिन दिल से तुम अभी भी अपनी इच्छाओं से चिपके रहते हो, सत्य त्याग रहे हो, और अपने पुराने ढर्रे पर चल रहे हो, तो तुम वास्तव में खुद को नहीं बदल रहे हो। अगर तुम प्रार्थना करते समय सिर्फ परमेश्वर से यही कहते हो, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” लेकिन अपने आगामी समस्त व्यवहार में तुम अभी भी अपनी इच्छा के अनुसार ही चुनाव, कार्य और अभ्यास करते और जीते हो, इन सभी चीजों में सत्य के विपरीत चलते हो, तो परमेश्वर के दृष्टिकोण से, तुम्हें कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? तुमने खुद को नहीं बदला है। कम से कम, वह कहेगा कि तुम्हारा खुद को बदलने का इरादा नहीं है। तुम परमेश्वर से कह सकते हो, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” लेकिन ये सिर्फ सतही शब्द हैं, यह तुम्हारे दिल की गहराई से आया हुआ पश्चात्ताप और पाप का स्वीकरण नहीं है। ये गलती स्वीकारने और पछताने का रवैया नहीं दर्शाते; ये सिर्फ खोखले शब्द हैं। परमेश्वर वह नहीं सुनता जो तुम कहते हो—वह देखता है कि तुम क्या सोच रहे हो, क्या योजना बना रहे हो, और क्या षड्यंत्र रच रहे हो। और जब परमेश्वर देखता है कि तुम्हारे कार्यों के आधार और सिद्धांत अभी भी सत्य के विपरीत हैं, तो वह तुम पर एक सच्चा, वास्तविक और सटीक निर्णय पारित करेगा। वह कहेगा, “तुमने खुद को बदला नहीं है, और तुम खुद को बदल नहीं रहे हो।” और जब परमेश्वर यह कहता है, जब परमेश्वर तुम पर यह फैसला सुनाता है, तो वह फिर तुमसे सरोकार नहीं रखता। और जब परमेश्वर तुमसे सरोकार नहीं रखता, तो आने वाले दिनों में तुम्हारा दिल अंधकारमय हो जाएगा, और तुम जो कुछ भी करोगे उसमें प्रबुद्धता और रोशनी की कमी होगी, और जब तुम भ्रष्ट स्वभाव दिखाओगे तो तुम्हें बिल्कुल भी पता नहीं चलेगा, न ही तुम इसके लिए अनुशासित किए जाओगे। तुम सुन्न और सुस्त होते जाओगे, और खोखला महसूस करोगे, और यह भी महसूस करोगे कि तुम्हारे पास भरोसा करने के लिए कुछ नहीं है। सबसे बुरी बात यह होगी कि तुम अपने मनमाने, लापरवाही भरे व्यवहार में लिप्त रहोगे, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को फूलने और बेरोकटोक बढ़ने दोगे। यही होगा। इस तरह से कार्य करने वाले व्यक्ति का अंतिम परिणाम क्या होगा? जब व्यक्ति सत्य को छोड़ देता है, तो वह अपने ऊपर यह परिणाम लाता है कि परमेश्वर उसके साथ सरोकार नहीं रखता। हालाँकि हो सकता है, परमेश्वर तुमसे कुछ न कहे या तुम्हें स्पष्ट रूप से कोई संकेत न दे, लेकिन तुम इसे महसूस कर पाओगे। तुम्हारे विचारों और ख्यालों, तुम्हारी वास्तविक अवस्थाओं और सत्य के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण के आधार पर, यह स्पष्ट होगा कि तुम्हारी समग्र स्थिति सुन्नता, नीरसता, हठधर्मिता और ऐसी ही अन्य अभिव्यक्तियों की होगी। ये बातें लोगों में झलकती हैं। इसलिए, इससे अपने वास्तविक जीवन और उन चीजों की तुलना करने के बाद, जिनका तुम लोग अभ्यास करते हो, तुम लोग निम्नलिखित का अध्ययन या जाँच करना चाह सकते हो : जब तुम परमेश्वर की ओर बिल्कुल भी नहीं मुड़े होते, तो तुम उससे बहुत-सी अच्छी लगने वाली, मीठी बातें कह सकते हो, लेकिन जब तुम ऐसा करते हो तो तुम किस प्रकार की अवस्था और स्थिति में होते हो? और जब तुम वास्तव में खुद को बदल लेते हो, तो भले ही तुम मीठे या अच्छे लगने वाले शब्दों के साथ परमेश्वर से प्रार्थना नहीं कर पाते, और अपने दिल से थोड़ा ही बोल पाते हो, पर तब तुम किस प्रकार की अवस्था और स्थिति में होते हो? दोनों स्थितियाँ बिल्कुल अलग हैं। हो सकता है, परमेश्वर लोगों को उनके दैनिक जीवन में स्पष्ट रूप से कोई संकेत न दे या उनसे स्पष्ट शब्दों में बात न करे, लेकिन लोगों को अपने दैनिक जीवन में पवित्र आत्मा का कार्य, और वह सब-कुछ जो वह करता है, और हर वह इरादा जिसे वह व्यक्त करना चाहता है, महसूस करने में सक्षम होना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, प्रेक्षक भी इन चीजों का पता लगा सकते हैं। जो व्यक्ति सुन्न और मंदबुद्धि था, वह अचानक चतुर बन सकता है, या जो व्यक्ति आम तौर पर चतुर होता है, अचानक सुन्न, मंदबुद्धि और बेकार हो सकता है। ये दोनों स्थितियाँ या अवस्थाएँ एक ही समय में एक व्यक्ति में या अलग-अलग लोगों में हो सकती हैं—ऐसा अक्सर होता है। इससे देखा जा सकता है कि कई मामलों में व्यक्ति का चतुर या मूर्ख होना उसके मस्तिष्क, विचारों या क्षमता से नहीं होता; यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है। क्या यह स्पष्ट है? (हाँ।) तुम ये चीजें तब तक नहीं समझ पाओगे, जब तक तुम इनका अनुभव नहीं कर लेते। इनका अनुभव करके तुम जान जाओगे—इनके बारे में तुम्हारा अनुभव जितना गहरा होगा, तुम्हारी समझ उतनी ही गहन होगी, और इनकी सराहना भी उतनी ही गहरी होगी। परमेश्वर के इरादे उसके कार्यों में होते हैं; वह तुम्हें उनका कोई स्पष्ट संकेत नहीं देगा, न ही वह तुम्हें उनके बारे में स्पष्ट रूप से बताएगा या उनके बारे में तुमसे बात करेगा, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसका तुम्हारे बारे में कोई रुख नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हारे किसी भी विचार, ख्याल, अवस्था या रवैये पर परमेश्वर का कोई विचार नहीं है। जब कोई खुद पर कुछ आ पड़ने पर अपने व्यक्तिगत इरादों और योजनाओं को प्रश्रय देता है, जब वह स्पष्ट रूप से भ्रष्ट स्वभाव प्रदर्शित करता है—ठीक यही वे क्षण होते हैं, जब उसे आत्मचिंतन करने और सत्य तलाशने की आवश्यकता होती है, और ये वे महत्वपूर्ण क्षण भी होते हैं, जब परमेश्वर उस व्यक्ति की जाँच पड़ताल करता है। इसलिए तुम सत्य तलाशने, सत्य स्वीकारने और वास्तव में पश्चात्ताप करने में सक्षम हो या नहीं—यही वे क्षण होते हैं, जो व्यक्ति को सबसे ज्यादा प्रकट करते हैं। ऐसे समय में, तुम्हें यह स्वीकारना चाहिए कि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, और तुम्हें वास्तव में पश्चात्ताप करने के लिए तैयार रहना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने इसकी ईमानदारी से घोषणा करनी चाहिए, न कि बेपरवाही से यह कहना चाहिए कि, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था।” परमेश्वर को तुमसे जो चाहिए, वह तुम्हारी बेपरवाही नहीं, बल्कि सच्चे पश्चात्ताप का रवैया है। अगर तुम्हें कठिनाइयाँ हैं, तो परमेश्वर तुम्हारी मदद करेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और सत्य स्वीकारने और उसका अनुसरण करने के मार्ग की ओर कदम-दर-कदम तुम्हारी अगुआई करेगा। अगर तुम्हारा पश्चात्ताप सिर्फ शब्दों में मौजूद है, या अगर तुम पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो और अपने इरादे और इच्छाएँ छोड़ना चाहते हो लेकिन तुम इसके बारे में ईमानदार नहीं हो और ऐसा करने की इच्छा नहीं रखते, तो बेशक परमेश्वर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा। जब परमेश्वर की बात आती है, तो मनुष्य के प्रति उसके रवैये में “होना ही चाहिए” जैसा कुछ नहीं होता; परमेश्वर तुम्हें स्वतंत्रता और विकल्प देता है, और प्रतीक्षा करता है। वह किसकी प्रतीक्षा करता है? वह प्रतीक्षा करता है कि देखे आखिरकार तुम क्या चुनाव करते हो और तुम पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो या नहीं। अगर तुम पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो, तो कब करने वाले हो? तुम्हारा पश्चात्ताप कैसे अभिव्यक्त होगा? अगर तुम पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो और ऐसा करने के इच्छुक हो, लेकिन कार्य करते समय अपने हितों की रक्षा करने का प्रयास करते हो, और तुम अभी भी अपना रुतबा नहीं खोना चाहते हो, तो यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम वास्तव में पश्चात्ताप नहीं कर रहे हो, तुम उसके बारे में ईमानदार नहीं हो। तुम बस थोड़ा-सा पश्चात्ताप करना चाहते हो, लेकिन तुम्हें वास्तव में कोई पछतावा नहीं है। अगर तुम सिर्फ पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो, लेकिन वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करते, तो क्या परमेश्वर तुममें कार्य करेगा? वह नहीं करेगा। वह कहेगा, “अच्छा, तुम्हारा कब पश्चात्ताप करने का इरादा है?” तुम्हें नहीं पता होगा। क्या परमेश्वर तुमसे दोबारा पूछेगा? नहीं—वह कहेगा, “तो, तुम्हें वास्तव में पछतावा नहीं है। तो फिर मैं बस इंतजार करूँगा।” हो सकता है, तुम्हारा पश्चात्ताप करने का इरादा न हो, तुम पश्चात्ताप करने या अपना रुतबा और हित छोड़ने के इच्छुक न हो। तो ठीक है। परमेश्वर तुम्हें स्वतंत्रता देता है, और तुम अपनी पसंद से चुनाव कर सकते हो। परमेश्वर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा। लेकिन तुम्हारे विचार करने के लिए एक तथ्य है, कि अगर तुम नीनवे के लोगों की तरह खुद को नहीं बदलते और पश्चात्ताप नहीं करते, तो इसका क्या परिणाम होगा? तुम नष्ट हो जाओगे। अगर, इस समय तुम सिर्फ पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो, लेकिन तुमने पश्चात्ताप करने की दिशा में कोई वास्तविक कार्य नहीं किया है, तो परमेश्वर तुमसे कोई सरोकार नहीं रखेगा। वह तुमसे कोई सरोकार क्यों नहीं रखेगा? परमेश्वर कहता है : “तुम सच्चे नहीं हो, तुम अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर रहे, और तुम्हारा हृदय अभी भी डगमगा रहा है।” पल भर विचार करने के बाद, तुम कह सकते हो कि तुम पश्चात्ताप करने को तैयार हो, लेकिन यह बिना किसी कार्य या किसी ठोस योजना के सिर्फ तुम्हारा एक विचार है, एक खोखला बयान है। इसलिए परमेश्वर कहता है : “मैं तुम जैसे लोगों को किनारे कर दूँगा। मुझे तुमसे कोई सरोकार नहीं। जैसा चाहो वैसा करो!” जब एक दिन, तुम्हें एहसास होगा, “अरे नहीं, मुझे पश्चात्ताप करने की जरूरत है,” तो तुम्हें इसे कैसे करना चाहिए? परमेश्वर तुम्हारे इन शब्दों से मूर्ख नहीं बनेगा और आँख मूँदकर कार्य करते हुए यह नहीं कहेगा, “यह पश्चात्ताप करना चाहता है, इसलिए अब मुझे इसे आशीष देना होगा, है न?” परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा। वह क्या करेगा? वह तुम्हारी जाँच करेगा। तुम्हारा पश्चात्ताप करने का इरादा है; तुम पश्चात्ताप करना चाहते हो, और इसके लिए तुम्हारा दावा पहले से थोड़ा ज्यादा मजबूत है, लेकिन कौन जानता है कि तुम्हारे वास्तव में ऐसा करने में कितना समय लगेगा। अगर तुमने पश्चात्ताप करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए हैं या तुम्हारे पास उसकी कोई ठोस योजना नहीं है, तो यह सच्चा पश्चात्ताप नहीं है। तुम्हें वास्तविक कार्य करना चाहिए। जब तुम वास्तविक कार्रवाई करोगे, तो परमेश्वर का कार्य आएगा। क्या परमेश्वर के कार्य और लोगों के साथ उसके व्यवहार के सिद्धांत नहीं हैं? जब परमेश्वर कार्य करता है, तो व्यक्ति प्रबुद्धता प्राप्त करता है, उसकी आँखें चमकती हैं, वह सत्य समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होता है, और उसकी उपलब्धियाँ सौ गुना, हजार गुना बढ़ जाती हैं। जब ऐसा होता है, तो तुम वास्तव में धन्य हो जाते हो। तो, ये चीजें प्राप्त करने के लिए लोगों को किस आधार पर निर्माण करना चाहिए? (वास्तव में पश्चात्ताप करने की क्षमता पर।) यह सही है। जब लोग वास्तव में अपने हित और इच्छाएँ छोड़ देते हैं, जब वे परमेश्वर के सामने वास्तव में पश्चात्ताप करते हैं—अर्थात वे अपने बुरे काम वहीं के वहीं रोक देते हैं; और अपनी बुराई, अपनी इच्छाएँ और इरादे त्याग देते हैं; और परमेश्वर के सामने पाप कबूलते हैं; और परमेश्वर की अपेक्षाएँ और उसके वचन स्वीकारते हैं—तो वे खुद को बदलने की वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर देते हैं। सिर्फ यही सच्चा पश्चात्ताप है।
अभी-अभी हमने उन समस्याओं पर संगति की, जो अक्सर मनुष्य के सत्य के अनुसरण के दौरान पाई जाती हैं, और जिन्हें सत्य का अनुसरण करने वाले पहचान और जान सकते हैं। ये ही वे समस्याएँ हैं, जिन्हें हल किया जाना चाहिए। हो सकता है कि हमने अतीत में इन समस्याओं की बहुत ज्यादा व्याख्या या विश्लेषण न किया हो, हो सकता है कि हम इनके बारे में किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर भी न पहुँचे हों, लेकिन सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में मनुष्य द्वारा अनुभव किए जाने वाले प्रत्येक कदम और इस प्रक्रिया के दौरान उनके विभिन्न व्यवहारों और अवस्थाओं के संबंध में परमेश्वर के पास तदनुरूपी वचन और कार्य, और उन्हें देखने और हल करने के प्रासंगिक उपाय और तरीके हैं। लोग इन सभी चीजों को थोड़ा-बहुत अनुभव कर और समझ सकते हैं; उन्हें परमेश्वर को गलत नहीं समझना चाहिए, या परमेश्वर के बारे में ऐसी कोई धारणा या कल्पना नहीं रखनी चाहिए, जो वास्तविकता से मेल न खाती हो। इसके अलावा, परमेश्वर लोगों को सत्य के अनुसरण में शामिल हर कदम, कार्य और अभ्यास करने के हर तरीके के बारे में चुनाव करने के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता और पर्याप्त साधन देता है—वह लोगों को बाध्य नहीं करता। हालाँकि ये वचन और अपेक्षाएँ पाठ में मुद्रित किए गए हैं और स्पष्ट, सटीक भाषा में बोले गए हैं, फिर भी, एक व्यक्ति स्वतंत्र रूप से चुन सकता है कि वह इन सत्यों को कैसे लेगा। परमेश्वर लोगों को मजबूर नहीं करता। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हो, तो तुम्हारे पास बचाए जाने की आशा है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक नहीं हो, अगर तुम इन सत्यों की परवाह नहीं करते और इन्हें खारिज कर देते हो, अगर तुम सत्य के अनुसरण का अभ्यास करने के इन तरीकों में बिल्कुल भी रुचि नहीं रखते—तो भी ठीक है। परमेश्वर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा। अगर तुम सिर्फ मेहनत करने के इच्छुक हो, तो यह भी ठीक है। जब तक तुम सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करते, तब तक परमेश्वर का घर तुम्हें स्वयं अपना विकल्प चुनने देगा। हालाँकि सत्य का अनुसरण उद्धार की प्राप्ति से अभिन्न रूप से संबद्ध है और उसके साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा है, फिर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो सत्य का अनुसरण करने में रुचि नहीं रखते, जिनका इसके बारे में कोई विचार या इसे करने का इरादा नहीं है, न ही कोई योजना है। तो क्या इन लोगों की निंदा की जाती है? असल में नहीं। अगर ये लोग अपने कर्तव्य निभाने में परमेश्वर के घर की अपेक्षाएँ पूरी करते हैं, तो वे वहाँ अपने कर्तव्य निभाते रह सकते हैं। परमेश्वर का घर तुम्हें इस वजह से कर्तव्य निभाने के अधिकार से वंचित नहीं करेगा कि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते। लेकिन इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना आज तक “मेहनत” के रूप में वर्गीकृत किया गया है। “मेहनत” इसे कहने का एक अच्छा तरीका है, यह वह शब्द है जिसे परमेश्वर का घर इस्तेमाल करता है, लेकिन वास्तव में, इसे “नौकरी करना” भी कहा जा सकता है। तुममें से कुछ लोग कह रहे होंगे, “जब तुम नौकरी करते हो, तो तुम्हें वेतन मिलता है।” हाँ, तुम्हें नौकरी करने की मजदूरी मिल सकती है। तो, तुम्हारी मजदूरी क्या है? वे सब अनुग्रह, जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं—तुम्हारी मजदूरी हैं। और जहाँ तक सत्य के अनुसरण की बात है, तुम जो कुछ भी करने का इरादा रखते हो, या करने की योजना बनाते हो, या करना चाहते हो, मैं तुम्हें अब स्पष्ट रूप से बता सकता हूँ कि तुम स्वतंत्र हो। तुम सत्य का अनुसरण कर पाओ तो ठीक है; न कर पाओ तो भी ठीक है। लेकिन आखिरी बात जो मैं तुम लोगों से कहूँगा, वह यह है कि सिर्फ सत्य का अनुसरण करके ही व्यक्ति को बचाया जा सकता है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम्हारे बचाए जाने की आशा शून्य है। यही तथ्य मैं तुमसे कहूँगा। तुम लोगों को यह तथ्य बताया जाना चाहिए, ताकि यह स्पष्ट रूप से, असंदिग्ध रूप से, सटीक रूप से, और प्रत्यक्ष रूप से तुम्हारे दिलों में समा जाए—ताकि तुम अपने दिलों में स्पष्ट रूप से जान सको कि वह कौन-सी नींव है, जिस पर उद्धार की आशा निर्मित की जाती है। अगर तुम यह सोचते हुए सिर्फ मेहनत करने से संतुष्ट रहते हो, “अगर मैं सिर्फ अपना कर्तव्य निभा सकता हूँ और परमेश्वर के घर से बाहर नहीं निकाला जाता, तो यह चलेगा; मुझे सत्य का अनुसरण करने जैसी कठिन चीज करने की परेशानी नहीं उठानी,” तो क्या तुम्हारा यह दृष्टिकोण कायम रहेगा? हालाँकि तुम अभी भी परमेश्वर में विश्वास करते हो, या कर्तव्य निभाते हो, पर क्या तुम आश्वस्त हो कि तुम अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हो? जो भी हो, सत्य का अनुसरण करना जीवन में एक बहुत बड़ी बात है, यह शादी करके बच्चे पैदा करने, अपने बेटे-बेटियों की परवरिश करने, अपना जीवन जीने और संपत्ति बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह परमेश्वर के घर में कोई कर्तव्य निभाने और भविष्य बनाने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। कुल मिलाकर, सत्य का अनुसरण करना व्यक्ति के जीवन-पथ पर सबसे महत्वपूर्ण चीज होती है। अगर तुम लोगों ने अभी तक सत्य के अनुसरण में रुचि विकसित नहीं की है, तो कोई तुम लोगों पर फैसला सुनाते हुए यह नहीं कहेगा कि तुम लोग भविष्य में सत्य का अनुसरण नहीं करोगे। मैं भी तुम लोगों पर फैसला सुनाते हुए यह नहीं कहूँगा कि अगर तुम अभी सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो भविष्य में भी कभी नहीं करोगे। जो हो रहा है वह ऐसा नहीं है। ऐसा कोई तार्किक संबंध नहीं है; यह तथ्य नहीं है। जो भी हो, मुझे आशा है कि निकट भविष्य में, या इसी क्षण, तुम लोग सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकोगे, और सत्य का अनुसरण करने वाले लोग बन सकोगे, और उन लोगों में शामिल हो सकोगे, जिनके पास उद्धार की आशा है।
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।