सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (2) भाग एक

अपनी पिछली सभा में हमने सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, इसके बारे में संगति की थी। आओ एक समीक्षा के साथ शुरू करें : सत्य का अनुसरण करने का अर्थ क्या है? क्या तुम्हारे पास इस सवाल का जवाब है? क्या तुम लोगों ने हमारी पिछली संगति के बाद इस पर विचार किया था? हमारे किसी विषय पर संगति पूरी कर लेने के बाद तुम्हें उन पर विचार करने और फिर अपने वास्तविक जीवन में व्यावहारिक रूप से उनका अनुभव करने और उनसे गुजरने की आवश्यकता होगी। तभी तुम सच्चा ज्ञान प्राप्त कर पाओगे; तभी तुम वास्तव में उन विषयों को समझ और सराह पाओगे जिन पर तुम विचार करते रहे हो; तभी तुम सच्चा अनुभव और ज्ञान पेश कर पाओगे। क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल।) तो, क्या तुम लोगों ने उस सवाल पर मनन किया? सत्य का अनुसरण करने का अर्थ क्या है? सत्य के अनुसरण में कौन-से तत्त्व शामिल हैं? इसमें कौन-सी मुख्य चीजें शामिल हैं? क्या तुम लोगों ने उन चीजों का सारांश तैयार किया है? (पिछली बार परमेश्वर ने सत्य के अनुसरण के संबंध में मनुष्य के विभिन्न गलत विचारों, दृष्टिकोणों और रवैयों के बारे में संगति करने से शुरुआत की थी, फिर परमेश्वर ने सत्य का अनुसरण करने के पाँच चरणों पर विस्तार से संगति की थी।) हमारी पिछली संगति के अनिवार्य रूप से दो प्रमुख भाग थे : सत्य के अनुसरण के संबंध में बहुत-से लोगों की कुछ नकारात्मक दशाएँ या गलत विचार, सत्य का अनुसरण करने के बारे में लोगों की गलतफहमियाँ, और साथ ही सत्य का अनुसरण न करने को लेकर लोगों के बहाने और औचित्य—यह था पहला प्रमुख भाग। दूसरा था, इस बारे में संगति कि सत्य का अनुसरण कैसे करें, जिसमें पाँच चरण शामिल थे। हालाँकि इसके केवल दो भाग थे, फिर भी हमने उनमें से प्रत्येक के भीतर बहुत सारे विवरणों और विशिष्ट बातों पर गौर किया। मैंने सत्य के अनुसरण के बारे में मनुष्य के कुछ विकृत ज्ञान और समझ को उजागर किया, और मैंने सत्य का अनुसरण करने में मनुष्य के सामने आने वाली कई कठिनाइयाँ भी उजागर कीं, साथ ही कुछ बहाने, औचित्य और हीले-हवाले भी उजागर किए, जो सत्य से विमुख लोग उसका अनुसरण न करने पर देते हैं। जब सत्य के अनुसरण की बात आती है, तो लोग जो नकारात्मक, निष्क्रिय रवैया और अनुभूति प्रदर्शित करते हैं, वे उन जीवन-शैलियों और अनुसरणों के अनुरूप होती हैं जिन पर वे अपने वास्तविक जीवन में कायम रहते हैं, साथ ही वे सत्य के प्रति उनके रवैये के अनुरूप भी होते हैं—वे सभी लोगों के विशिष्ट व्यवहारों और विशिष्ट उद्गारों से संबंधित होते हैं। फिर, मनुष्य के विभिन्न व्यवहारों के आधार पर, मैंने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग के संबंध में कुछ विशिष्ट विधियाँ और अभ्यास के चरण पेश किए थे। क्या यह सब तुम्हें स्पष्ट है? (हाँ।) क्या वाकई? फिर तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? ऐसा लगता है कि यह अभी भी तुम्हें उतना स्पष्ट नहीं है; और भी बहुत-कुछ है, जिस पर हमें संगति करने की आवश्यकता है।

परमेश्वर में विश्वास करने में सबसे बड़ी बात सत्य का अनुसरण करना है। सत्य का अनुसरण करने का अर्थ क्या है? जब सत्य का अनुसरण करने की बात आती है, तो लोगों की सभी अभिव्यक्तियाँ उनकी कई परेशानियों और कठिनाइयों को उजागर कर देती हैं, और लोगों के पास सत्य का अनुसरण न करने के लिए तमाम तरह के औचित्य और बहाने होते हैं—बाधाएँ इतनी बड़ी हैं। अपनी विभिन्न कठिनाइयों के कारण सत्य का अनुसरण करने की बात आने पर लोग बहुत परेशान और असहज दिखते हैं और सोचते हैं कि यह बहुत कठिन है। वास्तव में, अपने आप में इस प्रश्न—“सत्य का अनुसरण करने का अर्थ क्या है?”—का उत्तर देना आसान है, तो ऐसा क्यों है कि लोग सत्य का अनुसरण नहीं कर पाते? इसका कारण क्या है? सभी शेखी बघारते हैं कि उनमें विवेक और समझ है, कि वे वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, कि वे अपना कर्तव्य निभा सकते हैं, कि वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं। ऐसा कैसे है कि इन अच्छे व्यवहारों की नींव होने पर भी वे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने में असमर्थ रहते हैं? उनके पास इतनी अच्छी मानवता, सत्यनिष्ठा और बड़ी प्रतिष्ठा है; अपने अनुसरण के बारे में उनकी अपनी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और अभिलाषाएँ हैं; उनके अपने व्यक्तिपरक परिश्रम हैं, कठिनाइयाँ सहने की उनकी इच्छा और कीमत चुकाने का रवैया है; सत्य स्वीकारने के लिए लालायित रहने का उनका सक्रिय, सकारात्मक, ऊर्ध्वदर्शी रवैया है। उनकी नींव इन चीजों की बनी होने पर भी ऐसा कैसे है कि वे सत्य का अनुसरण करने के योग्य नहीं हैं? ऐसा क्यों है कि वे सत्य का अनुसरण हासिल नहीं कर पाते? समस्या की जड़ कहाँ है? (मनुष्य सत्य से प्रेम नहीं करता और उसकी प्रकृति ही उससे विमुख होने की है।) यह सटीक उत्तर है। सबसे बुनियादी कारण यह है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव शैतान का है, और जो कुछ भी शैतान का है, वह परमेश्वर और सत्य का विरोधी है। इसलिए लोगों से सत्य का अनुसरण करने के लिए कहना उनसे अपने अंतर्निहित जीवन और गुणों और अनुसरण के अपने अंतर्निहित तरीके और जीवन दृष्टि से विद्रोह करने की अपेक्षा करने के समान है। ये गलत चीजें छोड़ना, अपनी दैहिक प्राथमिकताओं से विद्रोह करना और इनके बजाय परमेश्वर के उन वचनों और सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना जो उनकी देह को पसंद नहीं है, जो उनके पास नहीं है और जिसका वे तुच्छ समझकर तिरस्कार करते हैं—यही उन्हें मुश्किल लगता है। तुमसे सत्य का अनुसरण करने के लिए कहना तुमसे अपना अंतर्निहित जीवन छोड़ने के लिए कहने के समान है। क्या यह वैसा ही नहीं है, जैसे तुमने अपना जीवन अर्पित कर दिया हो? (यह वैसा ही है।) यह तुम्हारे द्वारा अपना जीवन अर्पित करना ही है। क्या लोग स्वेच्छा से अपना जीवन अर्पित करते हैं? (नहीं।) अपने हृदय की गहराइयों में वे कहते हैं, “मैं नहीं करूँगा”—सौ बार, हजार बार, दस हजार बार : “मैं नहीं करूँगा।” कुछ भी हो, लोगों के लिए अपनी अंतर्निहित, शैतानी चीजें छोड़ना कठिन है। यह एक तथ्य है, ऐसा तथ्य जिसे तुम लोगों ने गहराई से और वास्तव में अनुभव किया है। अपने हृदय की गहराइयों से लोग सत्य का अनुसरण करने के लिए दैहिक इच्छाओं से या अपने उस जीवन से विद्रोह करने के इच्छुक नहीं होते जिसका प्रकृति सार शैतान का है; वे अपने अंतर्निहित, शैतानी लक्षणों या अपनी शैतानी प्रकृति से विद्रोह करने के इच्छुक भी नहीं होते। इसलिए, शैतानी स्वभावों के अनुसार जीने वाले शैतानी प्रकृति के लोगों के लिए, सत्य से प्रेम करना और उसका अनुसरण करना उनकी इच्छा के विपरीत होता है, और वे ऐसा करने के लिए अनिच्छुक रहते हैं। इसका मूल क्या है? वह यह है कि मनुष्य के भीतर के लक्षण शैतान के हैं, और वे कुदरती तौर पर परमेश्वर के विरोधी हैं। इसलिए, सत्य सुनने और समझने के बाद केवल वे लोग ही उसे अभ्यास में लाने में सक्षम रहते हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं, जो उसके लिए प्रयास करने और कीमत चुकाने के लिए तैयार होते हैं, जिनमें यह इच्छा, आकांक्षा और अभिलाषा होती है। केवल वे ही सत्य के अनुसार जीने और उसकी वास्तविकता को जीने में सक्षम हैं। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक होते हैं, लेकिन उन्हें उनकी शैतानी प्रकृति और स्वभाव बाधित करते हैं; चाहें भी तो वे सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते। तथ्य यह है कि वास्तविक जीवन में सत्य का अभ्यास करना बहुत कठिन कार्य है। तुमसे अपने पसंदीदा कपड़े और गहने, या वे चीजें जिनका तुम आनंद लेते हो, या नौकरी और करियर जिसे तुम पसंद करते हो, या अपनी खूबियाँ और शौक, या ऐसी कोई भी चीज छोड़ने के लिए कहना एक बात है। तुम इनमें से किसी के खिलाफ भी विद्रोह कर सकते हो; इन्हें छोड़ना आसान है। लेकिन तुमसे अपनी दैहिक इच्छाओं और अपने शैतानी स्वभाव से विद्रोह करवाना, सत्य का अभ्यास करवाना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करवाना—यह कहीं अधिक कठिन है। एक थोड़े कम सटीक वाक्यांश का उपयोग करके इसे बताऊँ तो यह बत्तख को मचान पर या बैल को पेड़ पर चढ़ने के लिए मजबूर करने जैसा होगा—ये चीजें उनके लिए बहुत कठिन हैं। अब, बिल्ली को पेड़ पर चढ़ाना आसान होगा; यह उसके लिए स्वाभाविक है। लेकिन किसी बिल्ली को मांस के बदले घास खिलाना बिल्कुल असंभव होगा। अगर तुम किसी व्यक्ति से थोड़ा-सा कष्ट उठाने, थोड़ी-सी कीमत चुकाने और शेष जीवन विनम्रतापूर्वक जीने के लिए कहो, तो यह ऐसी चीज है जिसे करने की इच्छा रखने वाला कोई भी व्यक्ति हासिल कर सकता है। असल में, कोई भी शारीरिक कठिनाई ऐसे व्यक्ति के लिए बड़ी समस्या नहीं होती, जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करता है और सत्य के लिए तरसता है। उदाहरण के लिए, शारीरिक सुख-सुविधाओं में लिप्त न होना; या अपनी रोज की नींद का समय कम करना; या लगातार दस साल तक बेघर रहना; या बहुत खराब भोजन, कपड़ों, आवास और परिवहन से काम चलाना—ऐसी कठिनाइयाँ कोई भी उठा सकता है और ऐसी कीमतें कोई भी चुका सकता है, बशर्ते उसमें ऐसा करने की इच्छा हो, और वह सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हो, और उसमें थोड़ा आत्म-संयम हो। लेकिन अगर तुम किसी से अपनी दैहिक इच्छाओं और शैतान से विद्रोह करने के लिए, पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार और उसके वचनों के आधार पर कार्य करने के लिए, सत्य के अनुसार अभ्यास करने और इस प्रकार परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए कहोगे, तो किसी भी व्यक्ति को यह कठिन लगेगा। मनुष्य की कठिनाइयाँ यही हैं। इसलिए, सत्य का अनुसरण करने में, ऐसा नहीं है कि लोग बस एक संकल्प लेकर इसे करना शुरू कर सकते हैं, या आत्म-संयम का अभ्यास और नियमों का पालन कर सकते हैं, और फिर सत्य को अभ्यास में ला सकते और सत्य प्राप्त कर सकते हैं। सत्य का अनुसरण करना भ्रष्ट मनुष्य के लिए सबसे कठिन और सबसे दुष्कर चीज है। इस समस्या की जड़ कहाँ है? (यह शैतान के स्वभाव में निहित है।) यह सही है। शैतान का स्वभाव मनुष्य की सबसे बड़ी चुनौती है। हो सकता है कि व्यक्ति की काबिलियत कम हो या उसका मिजाज और व्यक्तित्व खराब हो, हो सकता है उसके पास कोई उल्लेखनीय खूबी, प्रतिभा या गुण न हो—इनमें से कोई भी चीज उसके लिए बड़ी चुनौती नहीं होगी। अंततः, समस्या मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में होती है। भ्रष्ट स्वभाव लोगों के हाथ-पैर, उनके मन और ख्याल, उनके विचार, उनके सोचने का तरीका, और उनकी आत्मा की गहराई को अपने नियंत्रण की ऐसी मजबूत पकड़ में रखता है कि सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर एक-एक इंच चलना उनके लिए कठिन होता है। हो सकता है कि व्यक्ति तीन या पाँच साल तक बिना कुछ हासिल किए परमेश्वर में विश्वास करता रहे; यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने दस, बीस या तीस साल तक विश्वास किया है, और इससे केवल थोड़ी-सी चीजें ही प्राप्त की हैं। उनमें से कुछ ने तो कुछ भी प्राप्त नहीं किया है—वे खाली-हाथ लोग कितने दरिद्र और दयनीय हैं! उन्होंने तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन वे दरिद्र और अंधे ही हैं, उनके पास दिखाने के लिए कुछ नहीं है। जब वे नकारात्मकता में पड़ते हैं, तो वे नहीं जानते कि उससे कैसे उबरें; जब वे परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों में पड़ते हैं, तो वे नहीं जानते कि उन्हें कैसे दूर करें; जब उन पर विपत्ति आती है, तो वे नहीं जानते कि उसका सामना कैसे करें, न ही वे यह जानते हैं कि उस तरह की कठिनाई कैसे दूर की जाए। क्या स्वयं को संयमित करने की व्यक्तिपरक इच्छाशक्ति के उपयोग मात्र से या धैर्य के सहारे अनंत रूप से प्रयास करते रहने से समस्याएँ हल की जा सकती हैं? लोग परिस्थितियों से कदम-दर-कदम तब तक जूझते रहते हैं जब तक कि वे गुजर नहीं जातीं, लेकिन उनके भ्रष्ट स्वभाव फिर भी बने रहते हैं। उनका समाधान नहीं होता है। चाहे उन्होंने कितनी भी बार नकारात्मकता या परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों का अनुभव किया हो, या परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखी हों, या विफल हुए हों, गिरे हों और कमजोर हुए हों, फिर भी आज तक वे न तो जरा-सी भी अनुभवात्मक गवाही देने में सक्षम हैं, न ही उनके पास परमेश्वर के वचनों के अपने ज्ञान या अनुभव के बारे में कहने के लिए एक भी चीज है। उनके हृदय खाली हैं; उनकी आत्मा में गहराई नहीं है। उनके पास सत्य की कोई अनुभवात्मक समझ नहीं है, और उन्हें परमेश्वर के वचनों का कोई सच्चा ज्ञान नहीं है, और वे उसके कार्य और स्वभाव के ज्ञान से और भी दूर हैं। क्या वे दरिद्र, अंधे और दयनीय नहीं हैं? (हैं।) अगर कोई सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो चाहे वह कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहा हो, यह व्यर्थ है। तो फिर, व्यक्ति खुद को इस मुकाम तक क्यों आने देगा? इसका कारण कहाँ है? यहाँ भी समस्या मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में ही उत्पन्न होती है। यह वस्तुपरक कारण है।

हम यह पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि लोगों द्वारा सत्य का अनुसरण न करने का वस्तुपरक कारण क्या है। अब हम व्यक्तिपरक कारण के बारे में कुछ बात करेंगे। व्यक्तिपरक कारण यह है कि भले ही लोगों ने परमेश्वर के कार्य और उसके सभी वचनों से या अपने वास्तविक जीवन से यह जान लिया हो कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है, पर वे कभी खुद को तुलना के लिए परमेश्वर के वचनों और सत्य के सामने नहीं रखते ताकि वे अपने भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान प्राप्त कर सकें, वे कभी अपने भ्रष्ट स्वभावों के खिलाफ विद्रोह नहीं करते, और कभी परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते। बात यह है कि भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर बहुत अधिक श्रम कर सकते हैं और खप सकते हैं, भले ही वे बहुत कठिन परिश्रम कर सकते हैं, अत्यधिक कष्ट उठा सकते हैं और इसके लिए बहुत-सी कीमत चुका सकते हैं, पर ये सब केवल बाहरी व्यवहार हैं। ये यह साबित नहीं करते कि व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पड़ा है। जिन लोगों ने सबसे अधिक कष्ट उठाया है, वे वो हैं जिन्होंने शुरुआती दिनों में ही परमेश्वर का अनुसरण करना शुरू कर दिया था, जिन्होंने लगभग बीस वर्ष की आयु में अपने कर्तव्य सँभाल लिए थे। ये लोग अब लगभग पचास वर्ष के हैं और अभी तक अविवाहित हैं। तुम कह सकते हो कि उन्होंने अपनी जवानी परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए समर्पित कर दी है, और परिवार और विवाह का त्याग किया है। क्या यह बड़ी कीमत है? (हाँ।) उन्होंने अपनी जवानी त्याग दी और अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया, पर इससे हुआ क्या? उन्होंने जो कीमत चुकाई वह बड़ी थी, लेकिन अंत में उन्हें जो हासिल हुआ, वह उनके व्यय के बराबर या उसके अनुरूप नहीं है। यहाँ क्या समस्या है? जिस रवैये और संकल्प के साथ वे कीमत चुकाते हैं, और उनके खपने की अवधि, परिमाण और मात्रा के आधार पर, ऐसा लगता है जैसे उन्हें सत्य समझना चाहिए और उसका अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए। तुम सोचोगे कि उनके पास गवाही और परमेश्वर के प्रति भय मानने वाला हृदय होना चाहिए; कि उन्हें परमेश्वर का ज्ञान होना चाहिए; कि उन्हें पहले से ही परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चल चुका होना चाहिए; कि उन्हें पहले ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुका होना चाहिए। लेकिन वास्तव में, यह सिर्फ एक अनुमान है—इन दोनों चीजों का केवल एक तार्किक संबंध है, यह तथ्यों या जिसे ये लोग जीते हैं, उसके अनुरूप नहीं है। यहाँ क्या समस्या है? क्या हमें इसे जाँच और चर्चा का विषय नहीं बनाना चाहिए? क्या यह ऐसी समस्या नहीं है, जिस पर गहन विचार किया जाना चाहिए? (यह ऐसी समस्या है।) जिन लोगों ने दो या तीन वर्षों से परमेश्वर के कार्य का यह चरण स्वीकारा है, उनके बीच में अनुभव और गवाही वाले लोगों की कोई कमी नहीं है। वे इस बात की गवाही देते हैं कि कैसे परमेश्वर के वचनों ने उन्हें बदल दिया है और उन्हें ईमानदार इंसान बना दिया है; वे इस बात की गवाही देते हैं कि कैसे परमेश्वर के वचनों ने उन्हें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर सत्य समझने दिया है; वे इस बात की गवाही देते हैं कि कैसे परमेश्वर के वचनों ने उनके भ्रष्ट स्वभावों, उनके अहंकार और छल-कपट, उनके विद्रोह, उनकी रुतबे की लालसा, उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं आदि का समाधान कर दिया है। परमेश्वर में विश्वास करने के मात्र दो-तीन वर्षों के बाद ही ये लोग अनुभव करने और गवाही देने में सक्षम हैं; उन्हें परमेश्वर के वचनों की गहरी अनुभवात्मक समझ है, और वे उसके वचनों की सच्चाई महसूस कर सकते हैं। फिर, क्यों कुछ लोगों ने बीस-तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है और इतनी ज्यादा कीमत चुकाई है, इतना ज्यादा कष्ट उठाया है और इतनी ज्यादा भागदौड़ की है, लेकिन उनके हृदय की गहराई और उनके आध्यात्मिक संसार खाली और खोखले हैं? बहुत-से लोग, जो इस तरह की स्थिति में हैं, अक्सर खोया हुआ महसूस करते हैं। वे हमेशा कहते हैं, “मैं तो खो गया हूँ।” मैं कहता हूँ, “तुमने अब तक बीस-तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है। तुम अभी भी कैसे खोए हुए हो? यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि तुमने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है।” आज भी कुछ लोग नकारात्मक और कमजोर हैं। वे कहते हैं, “मैंने इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन प्राप्त क्या किया है?” अक्सर, जब वे नकारात्मक और कमजोर होते हैं, या जब वे अपनी हैसियत और लाभों से वंचित हो जाते हैं, या जब उनका अहंकार संतुष्ट नहीं होता, तो वे परमेश्वर को दोष देते हैं और इतने वर्षों तक उस पर विश्वास करने पर पछताते हैं। उन्हें उसके वचनों पर विश्वास करने पर ही पछतावा होता है, उन्हें इस बात पर पछतावा होता है कि उन्होंने परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपनी नौकरी, शादी और परिवार, कॉलेज जाने का अपना मौका दृढ़ रहकर जाने दिया। उनमें से कुछ तो कलीसिया छोड़ने की भी सोचते हैं। वे अब अपनी आस्था के बारे में पछतावे से इतने भरे होते हैं—उन्होंने इसकी परवाह ही क्यों की? उन्होंने बीस या तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, उन्होंने बहुत-से सत्य सुने हैं और परमेश्वर के कार्य का बहुत ज्यादा अनुभव किया है, लेकिन उनके हृदय में अभी भी गहराई नहीं है, और वे अक्सर अराजकता, भ्रम, पछतावे, अनिच्छा, यहाँ तक कि अपने भविष्य के बारे में अनिश्चितता की स्थितियों में डूब जाते हैं—इसका क्या कारण है? क्या ऐसे लोग दया के पात्र हैं? (नहीं।) जब भी मैं इन लोगों को देखता हूँ, जब भी मैं उनकी खबरें सुनता हूँ और उनकी हाल की गतिविधियों के बारे में जानता हूँ, तो मुझे उनके बारे में पूर्वाभास हो जाता है। उनके बारे में मेरे मन में एक विचार आता है। ऐसा कैसे है कि उनकी स्थिति और उनकी आंतरिक दुनिया मुझे इतनी परिचित लगती है? वे अभी भी कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर के घर में रहते हैं—वह क्या है, जिस पर वे भरोसा कर रहे हैं? क्या यह अनुग्रह द्वारा उद्धार की मानसिकता है? क्या यह ये मानसिकता है कि अगर व्यक्ति अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करता है, तो यह अनिवार्य रूप से उसे उद्धार की ओर ले जाएगा? या यह भाग्य और संयोग पर आधारित मानसिकता है? यह इनमें से कुछ नहीं है। तो वह क्या है? यह वैसा ही है, जैसा पौलुस ने कहा था : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। इस अंश का विश्लेषण करके इसे सरल शब्दों में कहें तो, इन शब्दों में एक लेन-देन का लक्षण है, इनके भीतर सौदा करने का एक रवैया, विचार और योजना है, और ये इच्छा और महत्वाकांक्षा की जगह से आते हैं। तुम इन शब्दों में क्या तथ्य देखते हो? लोग परमेश्वर में अपने विश्वास में किस चीज के पीछे भागते हैं? (मुकुट और आशीषों के पीछे।) हाँ। वे आशीषों और अच्छी मंजिल के पीछे भागते हैं। उस अच्छी मंजिल और उन आशीषों के बदले में वे कौन-सी चीज देंगे? वे उनके लिए किस चीज का विनिमय करेंगे? (अपनी मेहनत-मशक्कत और कार्य का, अपने बलिदानों और व्यय का, अपने कष्ट उठाने और कीमत चुकाने का।) पौलुस के शब्दों में, वे अपनी कुश्तियाँ लड़ चुके हैं, उन्होंने अपनी दौड़ पूरी कर ली है। वे मानते हैं कि उन्होंने वह सब-कुछ किया है जो उन्हें करना चाहिए था, इसलिए उन्हें वह अच्छी मंजिल और वे आशीष मिलने चाहिए, जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य के लिए तैयार किया है। वे सोचते हैं कि यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यही है जो परमेश्वर को करना चाहिए—जो उसे अवश्य करना चाहिए—और अगर वह नहीं करता, तो वह परमेश्वर नहीं है। जाहिर है, इसमें परमेश्वर के प्रति कोई समर्पण नहीं है, सत्य का अनुसरण करने का कोई रवैया नहीं है, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने का कोई रवैया या योजना नहीं है। यह सिर्फ उन कुछ चीजों का व्यापार करने की इच्छा है, जो वे उन आशीषों के लिए करने में सक्षम हैं जिनका परमेश्वर ने मनुष्य से वादा किया है। इसलिए, जिन लोगों के बारे में हम अभी बात कर रहे थे, वे अक्सर महसूस करते हैं कि उनके भीतर की दुनिया में एक खालीपन है और उनके पास अपने दिल की गहराई में भरोसा करने के लिए कुछ नहीं है, फिर भी वे हमेशा की तरह चलते रहते हैं, ऐसी कीमत चुकाते हुए और इस तरह पीड़ा झेलते हुए, अपनी कुश्ती लड़ने और दौड़ पूरी करने में लगे रहते हैं। वे किस पर भरोसा करते हैं? वह है पौलुस के वे उद्धरण, जिनसे वे चिपके रहते हैं और जिन पर आँख मूँदकर विश्वास करते हैं, जो उनकी “आस्था” को सहारा देते हैं। वे पुरस्कार और मुकुट पाने की अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छा पर भरोसा करते हैं। वे महान आशीष प्राप्त करने के लिए लेनदेनपरक विनिमय का उपयोग करने के अपने सपनों पर भरोसा करते हैं। वे परमेश्वर के कार्य की समझ या परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हुए सत्य का अनुसरण करके प्राप्त किए जाने वाले अनुभव और ज्ञान पर भरोसा नहीं करते। यह वह चीज नहीं है, जिस पर वे भरोसा करते हैं।

हमने अभी जिस विषय पर संगति की है, उस पर नजर डालें तो देखा जा सकता है कि हालाँकि सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर कई व्यावहारिक चुनौतियाँ हैं, और साथ ही भ्रष्ट स्वभावों की बेड़ियाँ और बाधाएँ, और बहुत-सी कठिनाइयाँ और अड़चनें हैं, फिर भी व्यक्ति को यह विश्वास करना चाहिए कि अगर उसके पास सच्ची आस्था है, तो परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा के कार्य पर भरोसा करके वह सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने में पूरी तरह सक्षम होगा। पतरस इसकी एक मिसाल है। परमेश्वर पर अपनी आस्था में बहुत-से लोग सिर्फ परमेश्वर के लिए काम करने पर ध्यान देते हैं, वे सिर्फ कष्ट उठाने और कीमत चुकाने से ही संतुष्ट हो जाते हैं, लेकिन वे सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करते। नतीजतन दस, बीस, तीस साल तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी उनके पास परमेश्वर के कार्य का सच्चा ज्ञान नहीं होता, और वे सत्य या परमेश्वर के वचनों को लेकर किसी भी तरह के अनुभव या ज्ञान के बारे में नहीं बोल पाते। सभाओं के दौरान, जब वे अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में थोड़ी बात करने की कोशिश करते हैं, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता; उन्हें बचाया जाएगा या नहीं, इसका उन्हें बिल्कुल भी पता नहीं होता। यहाँ क्या समस्या है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे ऐसे ही होते हैं। चाहे वे कितने भी वर्षों से विश्वासी रहे हों, वे सत्य समझने में असमर्थ होते हैं, उसका अभ्यास तो बिल्कुल नहीं करते। जो सत्य को बिल्कुल-भी स्वीकार ही नहीं करता, वह भला सत्य वास्तविकता में प्रवेश कैसे कर सकता है? कुछ ऐसे लोग हैं, जो इस समस्या की असलियत नहीं देख पाते। वे मानते हैं कि अगर वचन और धर्म-सिद्धांत रटने वाले लोग सत्य का अभ्यास करते हैं, तो वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। क्या यह सही है? जो लोग स्वाभाविक रूप से वचन और धर्म-सिद्धांत रटते हैं, वे सत्य नहीं समझते हैं—तो भला वे उसका अभ्यास कैसे कर सकते हैं? वे जिनका अभ्यास करते हैं, वे सत्य का उल्लंघन करते प्रतीत नहीं होते, और अच्छे कर्म, अच्छे व्यवहार लगते हैं, पर उन अच्छे कर्मों और अच्छे व्यवहारों को सत्य वास्तविकता कैसे कहा जा सकता है? जो लोग सत्य नहीं समझते, वे नहीं जानते कि सत्य वास्तविकता क्या है; वे लोगों के अच्छे कर्मों और अच्छे व्यवहारों को ही सत्य का अभ्यास मानते हैं। यह बेतुका है, है न? यह धार्मिक लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों से किस प्रकार भिन्न है? और विकृत समझ की ऐसी समस्याओं का समाधान कैसे किया जा सकता है? लोगों को पहले परमेश्वर के वचनों से उसके इरादे समझने चाहिए, उन्हें जानना चाहिए कि सत्य समझना क्या है, और सत्य का अभ्यास क्या है, ताकि वे दूसरों को देखकर उन्हें पहचान पाएँ कि वे वास्तव में क्या हैं, और यह बता पाएँ कि उनमें सत्य वास्तविकता है या नहीं। परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के उद्धार का उद्देश्य है लोगों को सत्य समझाकर उनसे उसका अभ्यास करवाना; तभी लोग अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ पाएँगे, और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होंगे, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकेंगे। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, और सिर्फ अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर के लिए खपने, कष्ट सहने और कीमत चुकाने से संतुष्ट हो, तो क्या तुम जो कुछ भी करते हो, वह तुम्हारे सत्य के अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण को दर्शाएगा? क्या वह साबित करेगा कि तुमने अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव किए हैं? क्या वह दर्शाएगा कि तुम्हारे पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान है? नहीं। तो, तुम जो कुछ भी करते हो, वह क्या दर्शाता है? वह सिर्फ तुम्हारी व्यक्तिगत पसंद, समझ और खयाली पुलाव को ही दर्शा सकता है। ये वे चीजें होंगी जिन्हें तुम करना पसंद करते हो, जिन्हें करने के तुम इच्छुक हो; तुम जो कुछ भी करते हो, वह सिर्फ तुम्हारी इच्छाओं, संकल्पों और आदर्शों को ही संतुष्ट करता है। जाहिर है, यह सत्य का अनुसरण करना नहीं है। तुम्हारे किन्हीं भी क्रियाकलापों या व्यवहारों का सत्य से या परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे सभी क्रियाकलाप और व्यवहार अपने लिए हैं; तुम सिर्फ अपने आदर्शों, प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए काम कर रहे हो, लड़ और दौड़ रहे हो—यह तुम्हें कोई पौलुस से अलग नहीं बनाता, जिसने अपने पूरे जीवन में केवल पुरस्कृत होने, मुकुट पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए मेहनत और कार्य किया—यह दर्शाता है कि तुम स्पष्ट रूप से पौलुस के मार्ग पर चल रहे हो। कुछ लोग कहते हैं, “मैं स्वेच्छा से मेहनत और काम करता हूँ। मैंने परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश नहीं की है।” चाहे तुमने परमेश्वर के साथ किसी तरह से सौदा करने की कोशिश की हो या नहीं, चाहे तुम्हारे मन या व्यवहार में परमेश्वर के साथ सौदा करने का स्पष्ट इरादा हो या नहीं—चाहे तुम्हारी ऐसी कोई योजना और लक्ष्य हो या नहीं—तुम अपने परिश्रम और कार्य, अपनी कठिनाइयों, और स्वयं द्वारा चुकाई गई कीमतों के बदले में स्वर्ग के राज्य के पुरस्कार और मुकुट पाने का प्रयास कर रहे हो। इस समस्या का सार यह है कि तुम परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश कर रहे हो—बात सिर्फ इतनी है कि तुम्हें पता नहीं कि तुम ऐसा कर रहे हो। बहरहाल, अगर कोई आशीष पाने के लिए कठिनाइयों से गुजरता और कीमत चुकाता है, तो उसके अनुसरण का सार वही होता है जो पौलुस का था। वे किस प्रकार समान हैं? वे दोनों प्रयास हैं कि अपने अच्छे व्यवहारों—अपनी मेहनत, जिन कठिनाइयों से वे गुजरते हैं, जो कीमत वे चुकाते हैं, इत्यादि—के बदले में परमेश्वर के आशीष पाएँ, वे आशीष पाएँ जिनका वह मनुष्य से वादा करता है। क्या ये चीजें सार में एक जैसी नहीं हैं? (हैं।) वे सार में एक जैसी हैं; उनमें कोई वास्तविक अंतर नहीं है। अगर तुम पौलुस के मार्ग पर नहीं, बल्कि पतरस के मार्ग पर चलना चाहते हो और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? इसमें कोई संदेह नहीं : तुम्हें सत्य का अनुसरण करना सीखना चाहिए। तुम्हें सत्य के साथ ही परमेश्वर का न्याय और ताड़ना और काट-छाँट स्वीकारने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हें खुद को जानने और अपने स्वभाव में बदलाव लाने पर ध्यान देना चाहिए, और परमेश्वर से प्रेम करने का अभ्यास करने की कोशिश करनी चाहिए। सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने और पतरस के मार्ग पर चलने का यही अर्थ है। पतरस के मार्ग पर चलने के लिए तुम्हें पहले यह समझना चाहिए कि परमेश्वर मनुष्य से क्या अपेक्षा करता है और वह कौन-सा मार्ग है जो परमेश्वर ने मनुष्य को बताया है। तुम्हें उद्धार की ओर ले जाने वाले परमेश्वर में विश्वास के मार्ग और उस मार्ग में भेद करने में सक्षम होना चाहिए, जो तबाही और विनाश की ओर ले जाता है। तुम्हें मन से इस पर चिंतन करना चाहिए कि ऐसा क्यों है कि तुम पौलुस के मार्ग पर चल पाए, और यह पता लगाने की आवश्यकता है कि कौन-सा स्वभाव तुम्हें उस मार्ग पर चलने की आज्ञा देता है। तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों में मौजूद सबसे प्रमुख और स्पष्ट चीजें पहचाननी चाहिए, जैसे कि अहंकार, कपट या दुष्टता। इन भ्रष्ट स्वभावों से शुरु करते हुए चिंतन करो, विश्लेषण करो और आत्मज्ञान प्राप्त करो। अगर तुम सच्चा आत्मज्ञान और खुद से घृणा हासिल कर सकते हो, तो तुम्हारे लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ना और सत्य को अभ्यास में लाना आसान होगा। तो, इसका विशेष रूप से अभ्यास कैसे किया जाए? आओ, अहंकारी स्वभाव के उदाहरण का इस्तेमाल करते हुए इसके बारे में सरल ढंग से संगति करें। अपने दैनिक जीवन में, बोलते, आचरण करते और मामले सँभालते समय, अपना कर्तव्य निभाते हुए, दूसरों के साथ संगति आदि करते हुए, मामला चाहे जो भी हो, या तुम कहीं भी हो, या जो भी परिस्थितियाँ हों, तुम्हें हर समय यह जाँचने पर ध्यान देना चाहिए कि तुमने किस प्रकार का अहंकारी स्वभाव दिखाया है। तुम्हें अहंकारी स्वभाव से आने वाले उन सभी उद्गारों, विचारों और भावों को खोद-खोदकर निकालना चाहिए जिनके बारे में तुम जानते हो और जिन्हें अनुभव कर सकते हो, साथ ही अपने इरादों और लक्ष्यों को भी—विशेष रूप से, हमेशा ऊँचाई से दूसरों को भाषण देने की इच्छा रखना; किसी की आज्ञा न मानना; खुद को दूसरों से बेहतर समझना; दूसरे जो कहते हैं उसे स्वीकार न करना, चाहे वे कितने भी सही क्यों न हों; खुद गलत होने पर भी दूसरों से अपनी बात मनवाना और उसके प्रति समर्पण करवाना; दूसरों की अगुआई करने की सतत प्रवृत्ति होना; अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा तुम्हारी काट-छाँट किए जाने पर झूठा कहकर उनकी निंदा करते हुए अवज्ञाकारी होना और औचित्य पेश करना; हमेशा दूसरों की निंदा करना और खुद को ऊपर उठाना; हमेशा यह सोचना कि तुम अन्य सबसे बेहतर हो; हमेशा एक प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित व्यक्ति बनने की इच्छा रखना; हमेशा दिखावा करना पसंद करना, ताकि दूसरे तुम्हें सम्मान दें और तुम्हारी आराधना करें...। भ्रष्टता के इन उद्गारों पर चिंतन करने और उनका विश्लेषण करने के अभ्यास के जरिये तुम जान सकते हो कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कितना भद्दा है, और तुम खुद को नापसंद करते हुए खुद से घृणा कर सकते हो, और अपने अहंकारी स्वभाव से और भी ज्यादा नफरत कर सकते हो। इस तरह तुम इस बात पर विचार करने के इच्छुक होगे कि तुमने सभी मामलों में अहंकारी स्वभाव दिखाया है या नहीं। इसका एक हिस्सा इस बात पर चिंतन करना है कि तुम्हारे बोलने में कौन-से अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव प्रवाहित होते हैं—तुम कितनी शेखी भरी, अहंकारी, मूर्खतापूर्ण बातें कहते हो। दूसरा हिस्सा इस बात पर चिंतन करना है कि अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हुए तुम कितनी बेतुकी, मूर्खतापूर्ण चीजें करते हो। केवल इस तरह का आत्मचिंतन ही आत्मज्ञान उत्पन्न कर सकता है। जब तुम सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों में एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए अभ्यास के मार्ग और सिद्धांत खोजने चाहिए, और फिर अभ्यास करना चाहिए, अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों में बताए गए मार्गों और सिद्धांतों के अनुसार दूसरों से संपर्क और बातचीत करनी चाहिए। कुछ समय, शायद एक-दो महीने, इस तरह से अभ्यास कर लेने पर तुम इसे लेकर दिल में एक उजाला महसूस करोगे, और तुम्हें इससे कुछ हासिल होगा और तुम सफलता का स्वाद चख लोगे। तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे पास एक ईमानदार, समझदार व्यक्ति बनने का मार्ग है, और तुम बहुत अधिक स्थिरचित्त महसूस करोगे। हालाँकि तुम अभी सत्य के विशेष रूप से गहन ज्ञान के बारे में बात नहीं कर पाओगे, पर तुमने उसके बारे में कुछ बोधात्मक ज्ञान और साथ ही अभ्यास का एक मार्ग भी प्राप्त कर लिया होगा। हालाँकि तुम इसे शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाओगे, फिर भी तुम्हें इस बात की थोड़ी समझ होगी कि अहंकारी स्वभाव लोगों को क्या नुकसान पहुँचाता है और कैसे उनकी मानवता विकृत कर देता है। उदाहरण के लिए, अहंकारी, आत्म-तुष्ट लोग अक्सर डींग मारने वाली, जंगली बातें कहते हैं, और दूसरों को धोखा देने के लिए दानवी शब्द बोलते हैं; वे आडंबरपूर्ण शब्द बोलते हैं, नारे लगाते हैं और लंबी-चौड़ी बातें करते हैं। क्या ये अहंकारी स्वभाव की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? क्या ये अहंकारी स्वभाव दिखाना बहुत मूर्खतापूर्ण नहीं है? अगर तुम वास्तव में यह समझने में सक्षम हो कि तुमने ऐसा अहंकारी स्वभाव दिखाया है तो जरूर तुमने अपना सामान्य इंसानी विवेक खो दिया होगा, और अहंकारी स्वभाव के भीतर जीने का मतलब है कि तुम मानवता के बजाय दानवता को जी रहे हो, तो तुमने वास्तव में पहचान लिया होगा कि भ्रष्ट स्वभाव एक शैतानी स्वभाव है, और तुम शैतान और भ्रष्ट स्वभावों से दिल से घृणा करने में सक्षम होगे। छह महीने या साल भर के ऐसे अनुभव के बाद, तुम सच्चा आत्म-ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हो जाओगे, और अगर तुम फिर से अहंकारी स्वभाव प्रदर्शित करोगे, तो तुरंत उसके बारे में जान जाओगे, और उसके खिलाफ विद्रोह कर उसे त्यागने में सक्षम हो जाओगे। तुम बदलना शुरू कर चुके होगे, और धीरे-धीरे अपना अहंकारी स्वभाव छोड़ने में सक्षम हो जाओगे, और सामान्य रूप से दूसरों के साथ हिल-मिलकर रह पाओगे। तुम ईमानदारी से और दिल से बोल पाओगे; तुम अब झूठ नहीं बोलोगे या अहंकारी बातें नहीं कहोगे। तब क्या तुममें थोड़ा-सा विवेक और कुछ ईमानदार व्यक्ति की समानता नहीं होगी? क्या तुम वह प्रवेश प्राप्त नहीं कर चुके होगे? यह वह क्षण है, जब तुम कुछ हासिल करना शुरू करोगे। जब तुम इस तरह ईमानदार होने का अभ्यास करोगे, तो तुम चाहे किसी भी तरह का अहंकारी स्वभाव क्यों न दिखाओ, सत्य खोजने और आत्मचिंतन करने में सक्षम होगे, और कुछ समय तक इस तरह से एक ईमानदार व्यक्ति होने का अनुभव करने के बाद तुम अनजाने ही और धीरे-धीरे एक ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में सत्यों और परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों को समझने लगोगे। और जब तुम अपने अहंकारी स्वभाव का विश्लेषण करने के लिए उन सत्यों का उपयोग करते हो, तो तुम्हारे हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के वचनों की प्रबुद्धता और रोशनी होगी, और तुम्हारा हृदय उज्ज्वल महसूस करने लगेगा। तुम स्पष्ट रूप से वह भ्रष्टता देख सकोगे जो अहंकारी स्वभाव लोगों में लाता है, और वह कुरूपता देखोगे, जिसे जीने के लिए वह उन्हें मजबूर करता है, और उन सभी भ्रष्ट अवस्थाओं को समझने में सक्षम होगे, जिनमें लोग स्वयं को तब पाते हैं जब वे अहंकारी स्वभाव प्रकट करते हैं। अधिक विश्लेषण करने पर तुम शैतान की कुरूपता और अधिक स्पष्ट रूप से देखोगे, और तुम शैतान से और भी अधिक घृणा करोगे। इस तरह तुम्हारे लिए अपना अहंकारी स्वभाव त्यागना आसान हो जाएगा। जब तुम्हारा ज्ञान इस हद तक पहुँच जाएगा, तो परमेश्वर के वचनों का प्रासंगिक सत्य तुम्हारे लिए पारदर्शी रूप से बोधगम्य हो जाएगा, और तुम जान जाओगे कि परमेश्वर मनुष्य से केवल वही चाहता है जो सामान्य मानवता के लोगों के पास होना चाहिए और जिसे उन्हें जीना चाहिए। इसके साथ, सत्य का अभ्यास करना अब तुम्हें कठिन नहीं लगेगा। बल्कि तुम विश्वास करने लगोगे कि सत्य का अभ्यास करना पूर्णतया स्वाभाविक और उचित है और मनुष्य को इसी तरह जीना चाहिए। उस समय, परमेश्वर के वचनों और सत्य का तुम्हारा अभ्यास पूरी तरह स्वतःस्फूर्त, सकारात्मक और सक्रिय होगा, और साथ ही तुम सत्य से और भी अधिक प्रेम करोगे। तुम्हारे हृदय में सकारात्मक चीजों की संख्या बढ़ेगी, और वहाँ धीरे-धीरे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान उत्पन्न होगा। सत्य को वास्तव में समझने का यही अर्थ है। सभी मामलों पर तुम्हारा सही विचार और दृष्टिकोण होगा, और यह सच्चा ज्ञान और ये सही विचार धीरे-धीरे तुम्हारे दिल में जड़ें जमा लेंगे। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का यही अर्थ है—यह ऐसी चीज है, जिससे तुम्हें कोई वंचित नहीं कर सकता, न तुमसे कोई चुरा सकता है। इन सकारात्मक चीजों को थोड़ा-थोड़ा करके संचित करने के बाद तुम अपने दिल की गहराइयों में बहुत समृद्ध महसूस करोगे। तुम अब यह महसूस नहीं करोगे कि परमेश्वर में विश्वास करना बेकार है, और तुम्हारे हृदय का खोखलापन दूर हो जाएगा। जब तुम यह महसूस कर लोगे कि सत्य समझना और मानव-जीवन का प्रकाश देखना कितना अद्भुत है, तो तुममें सच्ची आस्था उत्पन्न होगी। और जब तुममें परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की आस्था होगी, और जब तुम देखोगे कि सत्य का अनुसरण करना और उद्धार प्राप्त करना कितना वास्तविक और व्यावहारिक है, तो तुम सकारात्मक और सक्रिय रूप से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करोगे। तुम अपने सच्चे अनुभव और ज्ञान के बारे में संगति करोगे, और इस तरह परमेश्वर की गवाही दोगे और ज्यादा लोगों की परमेश्वर के वचनों की शक्ति और सत्य से मनुष्य को होने वाले लाभों के बारे में जानने में मदद करोगे। तब तुममें सत्य का अभ्यास करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए और अधिक आस्था होगी—और इसके साथ ही, तुम वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पित हो जाओगे। जब तुम अपनी सच्ची अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात करोगे, तो तुम्हारा हृदय और उज्ज्वल हो जाएगा। तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे पास सत्य का अभ्यास करने का ज्यादा मार्ग है, और साथ ही, तुम देखोगे कि तुममें बहुत सारी कमियाँ हैं, और बहुत सारे सत्य हैं जिनका तुम्हें अभ्यास करना चाहिए। ऐसी अनुभवात्मक गवाही न केवल दूसरों के लिए फायदेमंद और शिक्षाप्रद है—बल्कि तुम महसूस करोगे कि तुमने भी सत्य के अनुसरण में कुछ हासिल किया है, और तुमने वास्तव में परमेश्वर के आशीष प्राप्त किए हैं। जब कोई इस तरह से परमेश्वर के कार्य का तब तक अनुभव करता है जब तक कि वह उसके लिए गवाही देने में सक्षम नहीं हो जाता, तो यह न केवल ज्यादा लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभाव जानने, उन स्वभावों की बेड़ियाँ, बाधाएँ और पीड़ा दूर करने की ओर ले जा सकता है और उन्हें शैतान की शक्ति से निकलने में सक्षम बना सकता है—बल्कि यह उस व्यक्ति को सत्य का अनुसरण करने और पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चलने के लिए अधिकाधिक आस्था भी दे सकता है। क्या ऐसा अनुभव सच्ची गवाही नहीं बन जाता? यही है सच्ची गवाही। क्या परमेश्वर के लिए ऐसी गवाही देने में सक्षम व्यक्ति को लगेगा कि उसमें विश्वास करना नीरस या निरर्थक या खोखला है? बिल्कुल नहीं। जब व्यक्ति परमेश्वर के लिए गवाही दे सकता है और जब उसे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान होता है, तो उसके दिल की गहराई सुकून और आनंद से भर जाती है, और वह समृद्ध और बेहद स्थिरचित्त महसूस करता है। जब व्यक्ति ऐसी स्थिति और क्षेत्र में रहता है, तो यह स्वाभाविक है कि वह खुद को पीड़ित होने के लिए, कीमत चुकाने के लिए, अवरुद्ध होने के लिए मजबूर नहीं करेगा। वह खुद को अपने शरीर को अनुशासित करने और दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने के लिए सिर्फ बाध्य नहीं करेगा। इससे ज्यादा वह सकारात्मक रूप से अपने भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान प्राप्त करेगा। वह परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश भी करेगा, और समझेगा कि परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसे संतुष्ट करने के लिए व्यक्ति को क्या करना चाहिए। इस तरह वह परमेश्वर के वचनों के बीच उसके इरादों को समझेगा, और सत्य के अभ्यास के सिद्धांत खोजेगा, अपने भीतर की क्षणिक भावनाओं पर ध्यान नहीं देगा। जैसे कि, चीजें घटित होने पर खुद को संयमित न कर पाना, बदमिजाज होना, खराब मनःस्थिति में रहना, उस दिन फिर से गुस्सा होना, उस दिन फिर से कुछ खराब या आदर्श से कमतर ढंग का काम करना, या ऐसा ही कोई तुच्छ मामला। जब तक ये चीजें तुम्हारे सत्य के अभ्यास में बाधा नहीं डालतीं, तब तक इनके बारे में चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने वाले और उसके इरादों के अनुरूप अभ्यास करने के तरीकों पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए। इस तरह सत्य का अभ्यास करके तुम जीवन में तेजी से प्रगति करोगे और सत्य का अनुसरण करने और पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चल पड़े होगे। तुम्हारा हृदय अब खोखला नहीं रहेगा; तुम्हें परमेश्वर पर सच्ची आस्था होगी, और तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य में पहले से कहीं अधिक रुचि रखोगे, और उन्हें पहले से अधिक सँजोओगे। तुम परमेश्वर के इरादों और उसकी अपेक्षाओं को अधिक से अधिक समझ पाओगे। जब व्यक्ति इस स्तर पर पहुँचता है, तो वह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुका होता है।

अभी बहुत-से लोग जिस चीज का अभ्यास कर रहे हैं और जिसमें प्रवेश कर रहे हैं, वह सत्य वास्तविकता नहीं है, बल्कि वे एक ऐसी स्थिति में प्रवेश करते हैं, जिसमें वे बाहर से अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, कीमत चुकाने के इच्छुक होते हैं, कष्ट उठाने के लिए तैयार हैं, और सब-कुछ खपाने के लिए तत्पर हैं। लेकिन उनके दिलों की गहराई में कुछ नहीं होता, और उनके आंतरिक संसार में उनके पास कोई सहारा देने वाला नहीं होता। उनके पास कोई सहारा क्यों नहीं होता? क्योंकि जब कोई बात हो जाती है, तो उनके पास कोई मार्ग नहीं होता; वे ख्याली पुलाव पर भरोसा करते हैं, और उनके पास सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत नहीं होते। जब उनके अंदर से भ्रष्ट स्वभाव उत्सर्जित होता है, तो वे केवल आत्मसंयम का अभ्यास कर पाते हैं, वे उसका समाधान करने के लिए सत्य नहीं खोज पाते। लोगों के लिए सौभाग्य की बात है कि उनकी पुरानी देह में एक सहज क्षमता है : वह कष्ट उठा सकता है। गैर-विश्वासियों के बीच एक कहावत है जो इस प्रकार है, “ऐसा कोई कष्ट नहीं जिसे सहा नहीं जा सकता, बस आशीष ही हैं जिनका आनंद नहीं लिया जा सकता।” मनुष्य की देह में एक जन्मजात, सहज क्षमता होती है : वह बहुत अधिक आशीषों का आनंद नहीं ले सकता, लेकिन वह कोई भी कष्ट उठाने, सहने और खुद को रोकने में सक्षम है। क्या यह अच्छी चीज है? यह गुण है या एक दोष, एक कमी? क्या उनकी यह कहावत सत्य है? (नहीं।) यह सत्य नहीं है, और अगर कोई चीज सत्य नहीं है, तो वह बकवास है। वह कहावत केवल खोखले शब्द है, वह तुम्हारी किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती, न ही वह तुम्हारी व्यावहारिक कठिनाइयों का समाधान कर सकती है। सटीक रूप से कहूँ तो, वह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हल नहीं कर सकती। इसलिए उसे कहने का कोई फायदा नहीं। हालाँकि तुम्हें इसका कुछ ज्ञान हो सकता है, तुम इससे अवगत हो सकते हो, और तुमने इसे गहराई से अनुभव किया हो सकता है, फिर भी इसका कोई उपयोग नहीं है। गैरविश्वासियों की अन्य कहावतें भी हैं, जैसे, “मैं मरने से नहीं डरता, तो जीने से क्यों डरूँ?” और “सर्दी आ चुकी है, तो वसंत कितनी ही दूर होगा?” ये बहुत भव्य कथन हैं, है न? काफी प्रेरणादायक और दार्शनिक, है न? गैर-विश्वासी इन कथनों को “आत्मा के लिए चिकन-सूप” कहते हैं। क्या तुम लोग इस तरह की कहावतें पसंद करते हो? (नहीं।) क्यों नहीं? कुछ लोग कह सकते हैं, “हमें वे बस पसंद नहीं हैं। ये सब तो अविश्वासी कहते हैं; हमें परमेश्वर के वचन पसंद हैं।” तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों का कौन-सा हिस्सा पसंद है? किस वाक्यांश को तुम सत्य मानते हो? तुमने किस वाक्यांश का अनुभव किया है, किसका अभ्यास किया है और किसमें प्रवेश किया है, और किसे प्राप्त किया है? सिर्फ इन गैर-विश्वासियों की कहावतें नापसंद करना बेकार है; हो सकता है तुम उन्हें पसंद न करो, लेकिन तुम उनका सार स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते। क्या ये कहावतें सही हैं? (नहीं।) सही हों या नहीं, गैर-विश्वासियों के शब्दों का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। भले ही लोग उन्हें अच्छा और सही मानें, वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और वे सत्य के स्तर तक नहीं उठ सकतीं। वे सभी सत्य का उल्लंघन करने वाली और उससे शत्रुता करने वाली हैं। गैर-विश्वासी सत्य नहीं स्वीकारते, इसलिए उनके साथ सही-गलत पर बहस करने की आवश्यकता नहीं है। हम केवल इतना कर सकते हैं कि उनके शब्दों को भ्रमित बकवास मानें, और उनकी चिंता छोड़ दें। “बकवास” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है ऐसे शब्द, जो लोगों के लिए, उनके जीवन के लिए, उनके चलने के रास्तों के लिए, या उनके उद्धार के लिए बिल्कुल भी शिक्षाप्रद या मूल्यवान नहीं हैं। ऐसी सारी बातें बकवास हैं; इन्हें खोखले शब्द भी कहा जा सकता है। इनका मनुष्य के जीवन और मृत्यु या उन रास्तों से कोई लेना-देना नहीं है, जिन पर वे चलते हैं, और यह वह बकवास है जिसका कोई सकारात्मक प्रकार्य नहीं है। लोग ऐसा वाक्यांश सुनते हैं और अपना जीवन वैसे ही जीते रहते हैं जैसा वे चाहते हैं, जैसा उन्होंने हमेशा जिया है; इस तरह के वाक्यांश से कोई तथ्य नहीं बदलेगा, क्योंकि वह सत्य नहीं है। केवल सत्य ही मनुष्य के लिए शिक्षाप्रद है; उसका अथाह मूल्य है। मैं यह क्यों कहता हूँ? क्योंकि सत्य लोगों की नियति, और उनके विचार और नजरिये, और उनके आंतरिक संसार बदल सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सत्य मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव दूर कर सकता है; वह व्यक्ति के लक्षण बदल सकता है, उनके शैतानी लक्षणों को सत्य के गुणों में बदल सकता है—वह भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीने वाले व्यक्ति को बदलकर उसे सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने वाला व्यक्ति बना सकता है। जब व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को आधार मानकर सत्य वास्तविकता को जीता है, तो क्या इस तरह उसका जीवन नहीं बदल जाता? जब व्यक्ति का जीवन बदलता है, तो इसका मतलब है कि उसके विचार और दृष्टिकोण बदल गए हैं; इसका मतलब है कि लोगों और चीजों के बारे में उसका नजरिया, रवैया और विचार बदल गए हैं; इसका मतलब है कि घटनाओं और चीजों के बारे में उसका रुख और विचार पहले से अलग हैं। गैर-विश्वासियों की वे सब कहावतें खोखले शब्द और बकवास हैं। वे किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकतीं। जो कहावत मैंने अभी कही थी—“ऐसा कोई कष्ट नहीं जिसे सहा नहीं जा सकता, बस आशीष ही हैं जिनका आनंद नहीं लिया जा सकता”—क्या यह बकवास और खोखली बात नहीं है? (है।) तुम कष्ट उठा सकते हो—तो क्या? तुम सत्य प्राप्त करने के लिए कष्ट नहीं उठाते; तुम प्रतिष्ठा और हैसियत का आनंद लेने के लिए कष्ट उठाते हो। तुम्हारे कष्टों का कोई मूल्य या महत्व नहीं है। तथ्यों पर नजर डालो : तुमने बहुत-कुछ सहा है और बहुत बड़ी कीमत चुकाई है, फिर भी तुम खुद को नहीं जानते, और तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होने वाले विचार और भाव तक नहीं समझ सकते, न ही तुम उन्हें हल कर सकते हो। तो क्या तुम्हें लगता है कि तुम जीवन प्रवेश कर सकते हो? क्या तुम्हारे कष्ट उठाने का कोई मूल्य है? उसका कोई मूल्य नहीं है। कुछ लोगों के कष्ट उठाने का मूल्य होता है। उदाहरण के लिए, सत्य प्राप्त करने के लिए लोग जिस कष्ट से गुजरते हैं, उसका मूल्य है : जब व्यक्ति सत्य प्राप्त कर लेता है, तो वह दूसरों को शिक्षित कर सकता है और उन्हें पोषण प्रदान कर सकता है। बहुत-से लोग सुसमाचार फैलाने, कलीसिया और परमेश्वर के घर के कार्य का विस्तार करने और स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाने में मदद करने के लिए कष्ट सहते और कीमत चुकाते हैं। इससे हम देख सकते हैं कि जो लोग सत्य प्राप्त करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कष्ट उठाते और कीमत चुकाते हैं, वे इससे कुछ प्राप्त करेंगे। ये लोग परमेश्वर की स्वीकृति पाएँगे। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, और भले ही वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाते और कष्ट सहते हों, और उसकी दया प्राप्त करते हों, पर यह दया परमेश्वर के रहम और सहनशीलता से और मनुष्य पर दिखाई जाने वाली कृपा और मनुष्य पर किए जाने वाले अनुग्रह के प्रतिबिंब से ज्यादा कुछ नहीं है। किस प्रकार का अनुग्रह? कुछ भौतिक आशीष—इससे ज्यादा कुछ नहीं। क्या तुम यही चाहते हो? क्या परमेश्वर में विश्वास करने में यही तुम्हारा अंतिम लक्ष्य है? मुझे नहीं लगता ऐसा है। जिस दिन से तुम परमेश्वर में विश्वास करने लगे हो, क्या तुमने सिर्फ उसकी दया, उसकी सुरक्षा, और उसके द्वारा दिए जाने वाले कुछ भौतिक आशीषों की ही कामना की है? क्या ये ही वे चीजें हैं, जो तुम चाहते हो? क्या ये ही वे चीजें हैं, जिनका तुम अपने विश्वास में अनुसरण करते हो? (नहीं।) क्या ये चीजें तुम्हारे उद्धार का मुद्दा हल कर सकती हैं? (नहीं।) ऐसा लगता है कि तुम लोग काफी स्पष्ट रूप से सोच रहे हो। तुम समझते हो कि क्या निर्णायक है और क्या महत्वपूर्ण है। तुम भ्रमित नहीं हो। तुम जानते हो कि किस चीज में वजन है और किसमें नहीं। हालाँकि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकते हो या नहीं, यह देखा जाना बाकी है।

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