सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (16) भाग एक
हम मुख्य रूप से नैतिक आचरण से संबंधित विभिन्न कहावतों के सार पर संगति कर उनका विश्लेषण करते रहे हैं और लोगों पर विभिन्न कहावतों के प्रभाव का विश्लेषण करते रहे हैं। नैतिक आचरण से संबंधित ये विभिन्न कहावतें मुख्य रूप से पारंपरिक चीनी संस्कृति के लोगों पर विभिन्न मात्राओं में पड़ने वाले ऐसे प्रभावों को दर्शाती हैं जो आज भी कायम हैं। अपनी पिछली सभा में हमने नैतिक आचरण से संबंधित किस कहावत पर संगति कर उसे उजागर किया था? (पिछली बार, परमेश्वर ने संगति कर इस कहावत को उजागर किया था, “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है।”) जब हम नैतिक आचरण से संबंधित कहावतों पर संगति करते हैं, तो हम सामान्य परिवेश के मुद्दे पर विचार-विमर्श करते हैं : चाहे समय कैसे भी बदले, या हमारा सामाजिक परिवेश या किसी देश में राजनीतिक स्थिति कैसे भी बदले, परंपरागत संस्कृति में पाए जाने वाले, नैतिक आचरण से संबंधित विभिन्न पाखंडों और भ्रांतियों के माध्यम से शैतान लोगों के विचारों और नैतिक आचरण में और उनके हृदयों के अंतरतम में और मानवजाति में जो भ्रष्टता पैदा करता है, वह उत्तरोत्तर स्पष्ट होती जाती है। मानवजाति पर परंपरागत संस्कृति का घातक प्रभाव बदलते समय और जीवन-परिवेश में आए बदलावों के कारण कम नहीं हुआ है, और कई लोग अभी भी परंपरागत संस्कृति से प्राप्त विभिन्न कहावतें उद्धृत करते हैं, उन्हें बढ़ावा देते हैं, उन्हें चीन के परंपरागत अध्ययन और शास्त्र जैसा आदर देते हैं। यह स्पष्ट है कि शैतान ने नैतिक आचरण से संबंधित विभिन्न कहावतें लोगों के दिलों में गहराई से रोप दी हैं और लोगों को चरम सीमा तक भ्रष्ट कर दिया है। शैतान लोगों को भ्रष्ट क्यों करता है? लोगों को भ्रष्ट करने में उसका अंतिम लक्ष्य क्या है? उसका लक्ष्य मनुष्य है या परमेश्वर? (परमेश्वर।) यह ऐसी चीज है, जिसे तुम्हें शैतान का सार और उसके द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किए जाने का मूल कारण और प्रक्रिया जानने के लिए समझना चाहिए। शैतान लोगों के विचार कैसे भ्रष्ट करता है? लोग ऐसी परमेश्वर-विरोधी चीजों को अपने अंतरतम हृदय में क्यों प्रश्रय देते हैं? लोग इन चीजों को प्रश्रय क्यों देते हैं, जो सत्य के विपरीत हैं? लोग ऐसे कैसे हो गए? मानवजाति परमेश्वर ने रची थी, तो फिर लोग शैतान की तरह हर मोड़ पर परमेश्वर का विरोध और उससे विद्रोह क्यों करते हैं? इसका मूल कारण क्या है? क्या इन प्रश्नों का उत्तर उससे दिया जा सकता है, जिसकी हमने पहले चर्चा की थी? (हाँ।) याद करो और सोचो कि पिछली बार हमने किस बारे में संगति की थी। (परमेश्वर ने पहले हमारी वर्तमान स्थितियों पर संगति की। भले ही हम परमेश्वर के वचन खाते-पीते हों, लेकिन जब पाखंडों और भ्रांतियों, और शैतान द्वारा हमारे मन में बैठाए गए विचारों और दृष्टिकोणों को पहचानने की बात आती है, तो हमें मूल रूप से इसकी कोई समझ नहीं होती, और हम कभी भी और कहीं भी शैतान के प्रवक्ता और अनुचर बन सकते हैं। परमेश्वर ने इस पर भी संगति की कि शैतान लोगों को गुमराह करने और भ्रष्ट करने के लिए इन पाखंडों और भ्रांतियों का उपयोग क्यों करता है। हालाँकि वह लोगों को भ्रष्ट कर नुकसान पहुँचाता है, फिर भी शैतान का असली उद्देश्य परमेश्वर को निशाना बनाना है। वह परमेश्वर की प्रबंधन-योजना को नीचा दिखाना और नष्ट करना चाहता है। चूँकि परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का उद्देश्य अंततः लोगों के एक समूह को बचाना और पूर्ण करना है, ताकि वे परमेश्वर के साथ एक दिल और दिमाग के हो सकें, इसलिए शैतान इन लोगों को परमेश्वर का अनुसरण करने, परमेश्वर द्वारा संपूर्ण बनाए जाने और परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने से रोकने की और उसमें अड़चन डालने की कोशिश करता है। परमेश्वर शैतान की चालाक योजनाएँ समझता है, लेकिन उसे रोकता नहीं। बल्कि परमेश्वर शैतान को सेवा की एक वस्तु और एक विषमता के रूप में इस्तेमाल करता है, क्योंकि परमेश्वर की बुद्धि शैतान की शातिर योजनाओं पर निर्मित होती है और वह शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए इन लोगों पर शुद्धिकरण और उद्धार का कार्य करता है। परमेश्वर परंपरागत संस्कृति की विभिन्न कहावतों को प्रकट कर उनका विश्लेषण इसलिए करता है, ताकि हम स्पष्ट रूप से देख सकें कि शैतान इन पाखंडों और भ्रांतियों का इस्तेमाल लोगों को गुमराह करने और भ्रष्ट करने के लिए करता है। परमेश्वर ऐसा इसलिए करता है, ताकि हम पहचान करना सीखकर न सिर्फ सैद्धांतिक रूप से समझ सकें कि ये पाखंड और भ्रांतियाँ नकारात्मक हैं, बल्कि स्पष्ट रूप से यह समझ सकें कि इन कहावतों के भीतर शैतान की क्या शातिर योजनाएँ हैं। जब हम उन्हें स्पष्ट रूप से समझ लेते हैं, तब हम उनसे अपनी तुलना कर सकते हैं, परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में आत्मचिंतन कर सकते हैं, जाँच सकते हैं कि हमारे भीतर कौन-से शैतानी विचार और भाव हैं, हमारे कार्यों के उद्देश्य में शैतान की कौन-सी शातिर योजनाएँ हैं और हम कौन-से शैतानी स्वभाव प्रकट करते हैं। वास्तव में खुद को जानना यही है, न कि सिर्फ सैद्धांतिक समझ और सरल पहचान के स्तर पर बने रहना।) जिन तरीकों से शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है, उनमें से एक है उनके विचारों और दिलों को भ्रष्ट करना; वह लोगों के दिलो-दिमाग में हर तरह के शैतानी विचार, भाव, पाखंड और भ्रांतियाँ डाल देता है। इन्हीं में शामिल हैं नैतिक आचरण से संबंधित विभिन्न कहावतें, जो परंपरागत चीनी संस्कृति की सर्वोत्कृष्ट चीजों को दर्शाती हैं—वे परंपरागत चीनी संस्कृति की उत्कृष्ट प्रस्तुतियाँ हैं। परंपरागत संस्कृति के ये विचार और दृष्टिकोण मूलतः शैतान के विचार, शैतान का सार दर्शाते हैं, और वे शैतान की प्रकृति की उन चीजों को दर्शाते हैं जो परमेश्वर की अवहेलना करती हैं। लोगों को भ्रष्ट करने के लिए शैतान द्वारा इन चीजों का इस्तेमाल करने का अंतिम परिणाम क्या होता है? (वह लोगों को परमेश्वर के विरुद्ध खड़ा कर देता है।) इसका परिणाम यह होता है कि लोग परमेश्वर के विरुद्ध हो जाते हैं। और लोग क्या बन जाते हैं? (वे शैतान के प्रवक्ता और अनुचर बन जाते हैं। वे जीवित शैतान बन जाते हैं।) लोग शैतान के प्रवक्ता, शैतान के मूर्त रूप बन जाते हैं, और भ्रष्ट मनुष्य शैतान का प्रतिनिधित्व करने लगता है। भ्रष्ट मनुष्य जो बोलता और जो भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, उसमें निहित इरादे, उद्देश्य, विचार और भाव वे ही होते हैं, जो शैतान द्वारा व्यक्त और प्रकट किए जाते हैं। यह पूरी तरह से सत्यापित करता है कि मनुष्य के जीने के नियम और उसके विभिन्न विचार और दृष्टिकोण, जिनके द्वारा वह आचरण और दूसरों के साथ मेलजोल करता है, वे सब शैतान से आते हैं और सभी शैतान का प्रकृति सार दर्शाते हैं; यह पूरी तरह से सत्यापित करता है कि जीवित भ्रष्ट मनुष्य शैतान का मूर्त रूप है, शैतान की संतान है, और शैतान जैसा ही है; यह पूरी तरह से पुष्टि करता है कि भ्रष्ट मनुष्य जीवित शैतान है, जीवित दानव है, और मनुष्य, जो शैतान का मूर्त रूप बन गया है, शैतान का प्रतिनिधि है। मनुष्य चाहे शैतान की संतान हो या शैतान का मूर्त रूप, वह हर हाल में शैतान के समान है, और परमेश्वर के अनुसार वह ऐसा मनुष्य है जो परमेश्वर को नकारता और धोखा देता है, वह परमेश्वर का दुश्मन और परमेश्वर की विरोधी शक्ति है। इस तरह का मनुष्य अब वैसा कोरी स्लेट जैसे दिमाग वाला, नादान सृजित मनुष्य नहीं है, जैसा वह शुरुआत में था। मनुष्य शैतान के प्रभाव में रहता है और शैतानी भ्रष्ट स्वभावों से भरा हुआ है, और ऐसी अवस्था और स्थिति में रहने वाले मनुष्य को क्या चाहिए? उसे परमेश्वर का उद्धार चाहिए। अभी वह समय है जब परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए वचनों का इस्तेमाल करता है। वह कौन-सी परिस्थिति है, जिसमें परमेश्वर लोगों को बचाता है? वह यह है कि शैतान द्वारा मनुष्य की भ्रष्टता सबसे गहन-गंभीर स्तर तक पहुँच गई है; उसने लोगों को पूरी तरह से शैतान का मूर्त रूप और प्रवक्ता बना दिया है, और लोग परमेश्वर के दुश्मन बनकर उसके विरोधी बन गए हैं। इस परिस्थिति में, परमेश्वर ने मनुष्य को बचाने के लिए अपना कार्य शुरू कर दिया है। यह शैतान द्वारा लोगों को भ्रष्ट करने से संबंधित वास्तविक स्थिति है, और यह परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों में मनुष्य को बचाने के लिए सत्य व्यक्त कर न्याय का कार्य करने की वास्तविक परिस्थिति है। इन वास्तविकताओं को जानने के क्या लाभ हैं? यह लोगों को अपना सार जानने, शैतान का सार जानने, शैतान द्वारा लोगों को भ्रष्ट करने के साधनों को जानने और शैतान की दुष्टता जानने में सक्षम बनाता है; यह लोगों को परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का उद्देश्य जानने के साथ-साथ परमेश्वर की उस सर्वशक्तिमत्ता, अधिकार, बुद्धि और शक्ति को जानने में भी सक्षम बनाता है, जिसे वह मनुष्य को बचाने के अपने कार्य में प्रकट करता है। यह पहचानने के अलावा कि शैतान का सार और दुष्टता और भ्रष्ट मनुष्य का प्रकृति सार कैसा है, जो चीज महत्वपूर्ण है, वह यह है कि लोग परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और परमेश्वर का सार जानें। परमेश्वर का सार जानने में मुख्य रूप से परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता, अधिकार, बुद्धि और शक्ति जानना शामिल है—इसमें मुख्य रूप से उसके सार के ये पहलू जानना शामिल है।
परमेश्वर द्वारा मनुष्य को बचाने के लिए कार्य करने के संदर्भ के परिप्रेक्ष्य से, वह मनुष्य जिसे परमेश्वर बचाना चाहता है, वह मनुष्य नहीं है जिसे उसने अभी-अभी सृजित किया है, बल्कि वह मनुष्य है जिसे शैतान कई हजार वर्षों से भ्रष्ट करता रहा है। मनुष्य का अंतरतम हृदय कोरी स्लेट नहीं है, न ही मनुष्य के विचार या स्वभाव कोरी स्लेट हैं, बल्कि वे लंबे समय से शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किए गए हैं। जिन्हें परमेश्वर बचाता है, वे वो सृजित प्राणी हैं, जिन्हें शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किया गया, बहकाया गया, नियंत्रित किया गया, प्रभावित किया गया और कुचला गया है। जहाँ तक लोगों का संबंध है, इन सृजित मनुष्यों के भीतर से शैतान की चीजों और शैतानी स्वभावों को हटाना या बदलना बेहद कठिन, यहाँ तक कि असंभव है। कहने का तात्पर्य यह है कि, जहाँ तक लोगों का संबंध है, उनके लिए अपने विचार और दृष्टिकोण बदलना, अपने दिलों की गहराई से शैतान की चीजें साफ करना, और अपना भ्रष्ट स्वभाव बदलना सब असंभव कार्य हैं; यह बिल्कुल उस कहावत की तरह है, “कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती।” फिर भी, ठीक इसी परिस्थिति में और इसी सृजित मनुष्य के साथ परमेश्वर मनुष्य को बचाने का कार्य करना चाहता है। अपने कार्य में परमेश्वर कोई चिह्न और चमत्कार प्रदर्शित नहीं करता, न ही वह खुले तौर पर अपना वास्तविक व्यक्तित्व दिखाता है, और ऐसा कोई कार्य तो बिल्कुल नहीं करता जो लोगों को अधिकारपूर्ण और शक्तिशाली लगे। कहने का तात्पर्य यह है कि अंत के दिनों में, जिस दौरान देहधारी परमेश्वर मनुष्य को बचाता है, परमेश्वर कोई चिह्न और चमत्कार नहीं दिखाता, वह कोई ऐसा कार्य नहीं करता जो व्यावहारिकता या वास्तविकता की सीमाओं से परे जाता हो, और वह ऐसे कर्म नहीं करता जो दैहिक मानवता से बढ़कर हों। परमेश्वर ऐसे अलौकिक कार्य नहीं करता, बल्कि वह लोगों के जीवन को पोषण प्रदान करने और लोगों को उजागर कर उनकी भ्रष्टता साफ करने के लिए वचनों का इस्तेमाल करता है। चूँकि वह इस कार्य को करने के लिए सिर्फ वचनों का इस्तेमाल कर रहा है, इसलिए मनुष्य को यह और भी असंभव कार्य जैसा लगता है, और ज्यादातर लोगों को यह खेलकूद का मामला लगता है। लोग मानते हैं कि विभिन्न तरीकों से, विभिन्न दृष्टिकोणों से और विभिन्न चीजों के बारे में कहे गए कथनों का इस्तेमाल करके परमेश्वर का लोगों को पोषण प्रदान कर उन्हें उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बनाना एक असंभव कार्य है। खासकर शैतान तो इस बात से बिल्कुल भी आश्वस्त नहीं है कि यह कोई ऐसी चीज है जिसे करने में परमेश्वर पूरी तरह से सक्षम है, कि परमेश्वर के पास इस कार्य को करने की शक्ति, अधिकार और बुद्धि है। स्पष्ट है कि सृजित मनुष्यों की नजर में, परमेश्वर का अपने कथन कहना और मनुष्य को बचाने के लिए अपना काम करना एक असंभव कार्य है। लेकिन, चाहे भविष्य में चीजें कैसी भी हों, अभी, परमेश्वर के इन वचनों में जो कहा गया है, “परमेश्वर जो कहता है उसके मायने हैं, वह जो कहता है उसे पूरा करेगा, और जो वह करता है वह हमेशा के लिए बना रहेगा,” वह उन लोगों में पहले ही पूरा हो चुका है जो उसका अनुसरण करते हैं, अर्थात्, ज्यादातर लोगों को पहले ही इसका पूर्वानुभव हो चुका है। परमेश्वर के कार्य करने के तरीके को देखते हुए, परमेश्वर द्वारा सिर्फ वचनों के पोषण, वचनों के भोजन, वचनों के प्रकाशन, वचनों की ताड़ना और न्याय, वचनों की मार, वचनों की चेतावनी और प्रोत्साहन और अन्य तरीकों से मनुष्य को बचाने का कार्य करने को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि परमेश्वर के वचनों में सिर्फ वचनों के सरल अर्थ नहीं हैं, जिन्हें इंसानी धारणाओं द्वारा समझा जा सकता है। इस मूलभूत कहावत के अलावा कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, जिस चीज को लोग और भी ज्यादा देख पाते हैं और जो तथ्यात्मक रूप से स्पष्ट है, वह यह है कि परमेश्वर के वचनों में जीवन है और परमेश्वर के वचन जीवन हैं, कि वे भ्रष्ट मनुष्य के जीवन को पोषण प्रदान कर सकते हैं और भ्रष्ट मनुष्य को जीवन के लिए आवश्यक सभी चीजें प्रदान कर सकते हैं। शक्ति और अधिकार के संदर्भ में, परमेश्वर के वचन मनुष्य की जीवन-स्थितियाँ बदल सकते हैं, मनुष्य के विचार और दृष्टिकोण बदल सकते हैं, मनुष्य का हृदय बदल सकते हैं जिसे शैतान ने गहराई से भ्रष्ट कर दिया है और, इससे भी बढ़कर, वे मनुष्य द्वारा चुना गया मार्ग और जीवन-दिशा बदल सकते हैं, यहाँ तक कि जीवन और मूल्यों के प्रति मनुष्य का दृष्टिकोण भी बदल सकते हैं। अगर तुम परमेश्वर के वचन स्वीकार कर उन्हें समर्पित होते हो, और, हम यह भी कह सकते हैं कि, अगर तुम परमेश्वर के वचनों से प्रेम करते हो और उनका अनुसरण करते हो, तो चाहे तुम्हारी क्षमता जैसी भी हो, या तुम्हारे अनुसरण का लक्ष्य जो भी हो, या अनुसरण करने का तुम्हारा दृढ़ संकल्प जितना भी बड़ा हो, या तुम्हारी आस्था जितनी भी बड़ी हो, परमेश्वर के वचन निश्चित रूप से तुम्हें बदल सकते हैं, जीवन के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण और मूल्यों को बदलने में सक्षम बना सकते हैं, लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों को बदलने में सक्षम बना सकते हैं, और अंततः तुम्हारे जीवन-स्वभाव को बदलने में सक्षम बना सकते हैं। हालाँकि ज्यादातर लोगों की क्षमता कमजोर है और उनमें सत्य का अनुसरण करने का दृढ़ संकल्प नहीं है, यहाँ तक कि वे सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक भी नहीं हैं, फिर भी, चाहे उनकी परिस्थितियाँ कैसी भी हों, अगर उन्होंने परमेश्वर के वचन सुने हैं, तो उनके अवचेतन में शैतान, दुनिया और मनुष्य के संबंध में परमेश्वर की शिक्षाओं से कुछ हद तक सही विचार और धारणाएँ आ ही जाती हैं। उनके अवचेतन में सकारात्मक चीजों के संबंध में, सत्य सिद्धांतों और जीवन में सही दिशा और लक्ष्यों के संबंध में अलग-अलग मात्रा में वह लालसा और प्यास आ जाती है, जो परमेश्वर लोगों में चाहता है। ये घटनाएँ, जो लोगों में और उनके बीच घटित होती हैं—चाहे वे लोगों की इच्छानुसार हों या न हों, चाहे वे लोगों की धारणाओं के अनुरूप हों या नहीं, चाहे वे परमेश्वर की अपेक्षाएँ और उसके मानक पूरे करती हों या नहीं, इत्यादि—लोगों पर ये सभी प्रभाव और ये सभी घटनाएँ दर्शाती हैं कि परमेश्वर के वचन न सिर्फ लोगों के जीवन को पोषण प्रदान कर सकते हैं और उन्हें वह प्रदान कर सकते हैं जिसकी उन्हें आवश्यकता है, बल्कि, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर के वचन किसी भी शक्ति द्वारा बदले नहीं जा सकते। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि परमेश्वर के वचनों में अधिकार होता है, और कोई भी सांसारिक सिद्धांत, दर्शन या ज्ञान, या कोई भी तर्क, विचार या दृष्टिकोण परमेश्वर के वचनों के अधिकार से बढ़कर नहीं हो सकता—यह परमेश्वर के वचनों में अधिकार होने का व्यावहारिक अर्थ है, और यह उन सभी में स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। परमेश्वर के वचनों में अधिकार होता है और वे मनुष्य के हृदय और विचार बदल सकते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे उन भ्रष्ट स्वभावों को साफ और दूर कर सकते हैं, जिन्हें शैतान ने लोगों के अंतरतम हृदय में रोप दिया है—यह परमेश्वर के वचनों की शक्ति है। निस्संदेह, कुछ और भी है, जो यह है कि लोगों को परमेश्वर की बुद्धि जाननी चाहिए। परमेश्वर की बुद्धि उसके कार्य के हर अंश में प्रकट होती है। परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों के भीतर और उनके निहितार्थ में ही नहीं, बल्कि परमेश्वर के बोलने के तरीके में भी वह प्रकट होती है, जो चीजें वह कहता है, अपने कथनों में जो दृष्टिकोण वह अपनाता है, यहाँ तक कि उसकी बातचीत के लहजे में भी, परमेश्वर की बुद्धि सबमें देखी जा सकती है। परमेश्वर की बुद्धि किन पहलुओं में अभिव्यक्त होती है? एक पहलू तो यह है कि परमेश्वर द्वारा बोले गए प्रत्येक वचन में उसकी बुद्धि देखी जा सकती है, और जिन अनेक तरीकों से वह बोलता है, उनमें उसकी बुद्धि प्रदर्शित होती है; दूसरा पहलू यह है कि जिन विभिन्न तरीकों से परमेश्वर लोगों में कार्य करता है, उन सभी में उसकी बुद्धि देखी जा सकती है, और वह उन लोगों में भी देखी जा सकती है जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, जिनकी वह अगुआई करता है। तो निस्संदेह, हम कह सकते हैं कि परमेश्वर की बुद्धि उसके वचनों में प्रकट होती है, और वह उसके कार्य में भी प्रकट होती है। परमेश्वर की बुद्धि उसके वचनों में देख सकने के अलावा लोग अपने सामने आने वाली विभिन्न समस्याओं के विभिन्न परिवेशों और स्थितियों में भी उसकी गहरी समझ प्राप्त कर सकते हैं। परमेश्वर के वचन लोगों को किसी भी समय और स्थान पर तदनुरूप पोषण प्राप्त करने देते हैं। परमेश्वर किसी भी समय और स्थान पर तुम्हारी मदद कर सकता है, किसी भी समय और स्थान पर तुम्हें समर्थन और पोषण प्रदान कर सकता है, तुम्हें किसी भी समय और स्थान पर अपनी नकारात्मक स्थिति पीछे छोड़ने में सक्षम बना सकता है, और तुम्हें मजबूत बना सकता है कि तुम फिर कमजोर न रहो। किसी भी समय और स्थान पर परमेश्वर तुम्हारे विचार और सोचने का तरीका बदल सकता है, जिन चीजों को तुम सही मानते हो उन्हें और शैतान की चीजों को छोड़ने, अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने, परमेश्वर के प्रति पश्चात्ताप करने, परमेश्वर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और अभ्यास करने में सक्षम बना सकता है। यह एक पहलू है। इसके अलावा, परमेश्वर उन सभी लोगों में कई विभिन्न तरीकों से काम करता है, जो उसका अनुसरण करते हैं, जो उसके वचनों और सत्य से प्रेम करते हैं। कभी-कभी वह अनुग्रह प्रदान करता है, और कभी-कभी वह रोशनी और प्रकाशन प्रदान करता है। निस्संदेह, कभी-कभी परमेश्वर लोगों को दंडित और अनुशासित भी करता है, ताकि वे अपने तौर-तरीके सुधार सकें, अपने अंतरतम हृदयों में खुद को धिक्कारें, परमेश्वर के प्रति सच में कृतज्ञ महसूस कर सकें, पछतावा महसूस कर सकें, पश्चात्ताप कर सकें, और इस प्रकार बुराई का त्याग कर सकें और अब परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह न करें, मनमाने ढंग से कार्य न करें या शैतान का अनुसरण न करें, बल्कि परमेश्वर ने उन्हें जो मार्ग दिखाया है, उसके अनुसार अभ्यास करें। परमेश्वर का कार्य मनुष्य में पूरा किया जाता है। सटीक रूप से कहें तो, पवित्र आत्मा का कार्य मनुष्य में पूरा किया जाता है, और पवित्र आत्मा ज्यादातर लोगों में अलग-अलग तरीकों से कार्य करता है। निस्संदेह, पवित्र आत्मा चाहे जिस भी तरह से कार्य करे, हर व्यक्ति पवित्र आत्मा के कार्य करने के विभिन्न तरीकों का कमोबेश अनुभव कर सकता है। इससे हम देख सकते हैं कि पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर का कार्य, चाहे वे कई तरीकों से किए जाएँ या एक ही तरीके से, दोनों ही लोगों को यह समझने में सक्षम बना सकते हैं कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य की मदद के लिए है और वह चीज है जिसकी मनुष्य को हर समय और स्थान पर आवश्यकता होती है। पवित्र आत्मा हर समय और स्थान पर कार्य कर सकता है और लोगों को पोषण प्रदान कर सकता है। वह स्थान, भौगोलिक स्थिति या समय से प्रतिबंधित नहीं होता, न ही वह लोगों के सामान्य जीवन की दिनचर्या अस्त-व्यस्त करता है या उनके विचार बाधित करता है, और परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए निर्धारित किसी नियम को तो वह बिल्कुल भी नष्ट नहीं करता। पवित्र आत्मा हर व्यक्ति पर चुपचाप काम करता है, उन्हें स्पष्ट रूप से सूचित, शिक्षित, प्रबुद्ध करने और उनका मार्गदर्शन करने के लिए वचनों का इस्तेमाल करता है, साथ ही उन पर काम करने के लिए विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करता है, और उन्हें स्वाभाविक रूप से और अनजाने ही परमेश्वर के वचनों के पोषण के तहत रहने में सक्षम बनाता है। निस्संदेह, परमेश्वर के कार्य और पवित्र आत्मा के कार्य के परिणामस्वरूप लोगों के स्वभाव और उनके विचार उन्हें पता चले बिना ही बदल जाते हैं, और धीरे-धीरे परमेश्वर में उनकी आस्था बढ़ जाती है। यह कहा जाना चाहिए कि लोगों में प्राप्त होने वाले ये सभी परिणाम परमेश्वर के वचनों की शक्ति और परमेश्वर के कार्य की बुद्धि द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। जहाँ तक उन लोगों का संबंध है जो अब परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर उनके लिए कार्य करने और उनकी अगुआई कर उन्हें पोषण प्रदान करने के लिए अपने वचनों का इस्तेमाल करता है, और इन चीजों का आनंद लेने का अधिकार और अवसर सभी के पास है। अगर परमेश्वर का अनुसरण करने वाले अब उसका अनुसरण करने वालों की संख्या से दस गुना, बीस गुना, यहाँ तक कि सौ गुना ज्यादा भी हो जाएँ, तो भी परमेश्वर उनकी इसी तरह देखभाल करने में सक्षम होगा, और वह तब भी यह कार्य पूरा करने में सक्षम होगा। प्राप्त होने वाले परिणाम कभी बदले नहीं जा सकते, और यही परमेश्वर की बुद्धि है।
परमेश्वर के वचन सत्य के तमाम पहलू व्यक्त करते हैं और वह चीज प्रदान करते हैं, जिसकी पूरी मानवजाति को आवश्यकता है। परमेश्वर विभिन्न दृष्टिकोणों से, विभिन्न समयों और परिवेशों में लोगों पर तमाम तरह की विभिन्न कार्य-पद्धतियों का इस्तेमाल करता है, ताकि उनके इसके बारे में जाने बिना उनका मार्गदर्शन किया जा सके और प्रत्येक व्यक्ति पर विभिन्न परिणाम हासिल किए जा सकें। भले ही अब तुम सोचते हो, “मैं परमेश्वर के कार्य के बारे में ज्यादा नहीं समझता और मैं अब भी बहुत कमजोर हूँ। मुझे अभी भी परमेश्वर पर बहुत कम विश्वास है और परमेश्वर के बारे में मेरा ज्ञान नहीं बढ़ा है। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मेरा वर्तमान रवैया पहले की तरह ही बेपरवाह प्रतीत होता है, और मुझे लगता है कि मैं बहुत आगे नहीं बढ़ पाया हूँ,” फिर भी एक बात निश्चित है : तुम चाहे कितने भी कमजोर हो, या परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने से कितने भी दूर महसूस करो, परमेश्वर के वचन और उसका कार्य पहले ही तुम्हारे दिल पर कब्जा कर चुके हैं। भले ही तुम सत्य का अनुसरण करने में बहुत रुचि न रखो, भले ही तुम अभी भी उद्धार प्राप्त करने के अर्थ को बहुत महत्वपूर्ण न मानो, फिर भी परमेश्वर के वचनों का सत्य और परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों की विषयवस्तु तुम्हें आशा देती है, और अपने अंतरतम हृदय में तुम परमेश्वर के कार्य और उन तथ्यों के बारे में अपेक्षाएँ रखते हो, जिन्हें परमेश्वर पूरा करना चाहता है। चाहे तुम्हारी आस्था अभी कितनी भी बड़ी हो, या तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना भी हो, तुम्हारे पास आशा तो निश्चित रूप से है। यह क्या दर्शाता है? परमेश्वर के वचन वह चीज हैं जिसकी मनुष्य को आवश्यकता है, वे वह चीज प्रदान करते हैं जिसकी मनुष्य को आवश्यकता है, वे पहले ही तुम्हारे हृदय पर कब्जा कर चुके हैं, और अपने अंतरतम हृदय में तुम अनजाने ही परमेश्वर के वचनों को एक निश्चित स्वीकृति दे चुके हो। बेशक, ये तथ्य उन लोगों की ओर निर्देशित हैं जो सत्य में बहुत रुचि नहीं रखते, और जिन्हें परमेश्वर के कार्य और उद्धार की अपेक्षाकृत धुँधली और अस्पष्ट समझ है। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, वे यही एकमात्र परिणाम प्राप्त नहीं करते, बल्कि वे परमेश्वर को जान भी सकते हैं और परमेश्वर के लिए गवाही भी दे सकते हैं। इन तथ्यों और संकेतों से हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के कथनों और कार्य में परमेश्वर की शक्ति, अधिकार और बुद्धि व्याप्त है। यह किसी और चीज को भी सत्यापित करता है : मानवजाति परमेश्वर द्वारा सृजित की गई थी, और हालाँकि मनुष्य सूरज की रोशनी, पानी और हवा के बिना जी सकते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के बिना नहीं जी सकते, वे परमेश्वर के वचनों के बिना नहीं जी सकते, और वे परमेश्वर के पोषण के बिना नहीं जी सकते। सिर्फ परमेश्वर का मार्गदर्शन, पोषण और चरवाही और परमेश्वर द्वारा व्यक्त समस्त सत्य ही मनुष्य को आशा और रोशनी, और साथ ही उसके अस्तित्व के लिए लक्ष्य और दिशा दे सकते हैं—ये वे चीजें हैं जिन्हें लोगों ने देखा है। नैतिक आचरण के संदर्भ में शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने की वास्तविक स्थिति को उजागर और उसका विश्लेषण करके लोगों को यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर किस तरह के संदर्भ में काम करता है। यह पहचानने के अलावा कि जिस संदर्भ में परमेश्वर कार्य करता है उसकी वास्तविक स्थिति कैसी है, लोगों को और भी ज्यादा यह समझना चाहिए कि मनुष्य को बचाने का परमेश्वर का कार्य कितना कठिन है, और यह समझकर कि वह कितना कठिन है, उन्हें परमेश्वर की शक्ति, अधिकार और बुद्धि जाननी चाहिए। मनुष्य को बचाने के अपने कार्य में परमेश्वर ने उसे तब बचाने की जल्दबाजी नहीं की, जब शैतान ने पहली बार मनुष्य को भ्रष्ट करना शुरू किया। उसने चार हजार साल पहले या छह हजार साल पहले मनुष्य को बचाने की जल्दबाजी नहीं की। बल्कि, उसने चीजें तभी कीं, जब वे की जानी चाहिए थीं : सर्प द्वारा बहकाए जाने और शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने से मानवजाति पाप में डूब गई और पृथ्वी बाढ़ से नष्ट हो गई। तब परमेश्वर ने धीरे-धीरे मानवजाति की अगुआई करने के लिए व्यवस्था का इस्तेमाल किया और जैसे-जैसे शैतान द्वारा मनुष्य की भ्रष्टता गहरी होती गई, परमेश्वर ने पापी देह के समान होकर और क्रूस पर चढ़कर मानवजाति को छुटकारा दिलाने का कार्य किया। अब, अंत के दिनों में, जब मानवजाति शैतान द्वारा इतनी ज्यादा भ्रष्ट कर दी गई है कि लोग इससे बुरी तरह से तबाह हो गए हैं और पूरी तरह से शैतान के प्रतिरूप बन गए हैं, तो परमेश्वर औपचारिक रूप से और खुले तौर पर मानवजाति के लिए अपने वचन व्यक्त करता है, और वह अपने दिल की बातें, तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों के संबंध में अपने विचार और रवैये, और वे तमाम सत्य व्यक्त करता है जिनकी मानवजाति को आवश्यकता है। ऐसी पृष्ठभूमि में, परमेश्वर औपचारिक रूप से वह प्रदान करना शुरू करता है, जिसकी मानवजाति को आवश्यकता है—वह मानवजाति को उस स्थिति में समस्त सत्य प्रदान नहीं करता, जहाँ मानवजाति पूरी तरह से अबोध होती है। जब मानवजाति शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट कर दी गई होती है और लोग मानते हैं कि उन्हें बचाए जा सकने का कोई रास्ता नहीं है, ठीक तभी परमेश्वर आता है, अपने वचन बोलता है, अपना कार्य करता है, मनुष्यों के बीच चलता है और वे वचन व्यक्त करता है जिन्हें वह व्यक्त करना चाहता है, और जो तथ्य वह पूरे करना चाहता है उन्हें पूरा करने के लिए सिर्फ वचनों का पोषण इस्तेमाल करता है। सृजित मानवजाति के बीच कोई भी अपेक्षाकृत सक्षम व्यक्ति यह कार्य करने की चुनौती स्वीकारने की हिम्मत नहीं करता, क्योंकि लोग इसे काफी कठिन कार्य मानते हैं, ऐसा कार्य जिसे करना असंभव है। फिर भी बिल्कुल इसी संदर्भ में परमेश्वर ने अपनी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन-योजना का यह कार्य शुरू किया है, ऐसा कार्य जिसमें तमाम चीजें पूरी करने के लिए वचनों का इस्तेमाल किया जाता है। यह एक बहुत बड़ा उपक्रम है, एक अभूतपूर्व कार्य, और तो और, यह एक युग का निर्माण करने और लंबे समय तक चलने वाला कार्य है। चाहे कोई कितना भी कहे या कुछ भी कहे या उसके कहने का कुछ भी सार हो, कोई भी वह करने में सक्षम नहीं है जिसे उसके शब्द हासिल करना चाहते हैं। सिर्फ परमेश्वर के वचन ही पूरे हो सकते हैं, और सिर्फ परमेश्वर के वचन ही परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके विचार की योजनाओं के अनुसार पूरे हो सकते हैं—यह भी परमेश्वर का अधिकार है। क्या लोगों को ये चीजें समझनी नहीं चाहिए? (हाँ, उन्हें समझनी चाहिए।) तो, इन चीजों को समझने का क्या महत्व है? कौन बोलेगा? (एक पहलू तो यह है कि लोगों को परमेश्वर के कार्य की बुद्धि की कुछ समझ आ सकती है और वे समझ सकते हैं कि परमेश्वर का कार्य उन अबोध लोगों पर नहीं किया जाता, जिन्हें शैतान ने भ्रष्ट नहीं किया है। इसके बजाय, परमेश्वर शैतान को अपनी सेवा में इस्तेमाल करता है और उन लोगों पर उद्धार का कार्य करता है जिन्हें शैतान ने गहराई से भ्रष्ट कर दिया है। लोग इस कार्य को बहुत कठिन मानते हैं, फिर भी परमेश्वर के वचनों का प्रभाव लोगों पर अवश्य पड़ता है। इसके अलावा, सामान्यतः अपने अनुभवों के दौरान, हम अक्सर अपने भ्रष्ट स्वभावों से विवश होते हैं और भ्रष्टता प्रकट किए बिना नहीं रह पाते, हम सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो जाते हैं, और कभी-कभी हम इतने नकारात्मक हो सकते हैं कि हम अपनी आस्था खो देते हैं। लेकिन, परमेश्वर की संगति सुनने के बाद हम परमेश्वर के वचनों में विश्वास करने लगते हैं और समझ जाते हैं कि अगर हम सत्य से प्रेम करें और उसे स्वीकार लें, तो हमारे भ्रष्ट स्वभाव बदल सकते हैं और हमारे भ्रष्ट स्वभाव अपरिवर्तनीय नहीं हैं। अगर व्यक्ति अपने सार में सत्य से प्रेम नहीं करता या उसे स्वीकारता नहीं, तो वह अपने भ्रष्ट स्वभाव बदलने में असमर्थ होगा।) तुम्हारा कहना पूरी तरह से उचित और सही है।
परमेश्वर के वचन सभी चीजें पूरी कर सकते हैं और सभी चीजें बदल सकते हैं। साथ ही, लोगों को यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों का उन पर एक और प्रभाव पड़ता है—सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे, और स्वयं परमेश्वर की ही तरह परमेश्वर के वचन भी हमेशा रहेंगे। इससे हम क्या देखते हैं? (हम परमेश्वर का अधिकार देखते हैं।) हम परमेश्वर का अधिकार, परमेश्वर की बुद्धि देखते हैं, और हम उसके वचनों में प्रदर्शित शक्ति देखते हैं। चूँकि परमेश्वर के वचन उसका जीवन, सार और स्वभाव दर्शाते हैं, इसलिए वे ठीक परमेश्वर की ही तरह हमेशा रहेंगे। यह तुम्हें क्या बताता है? यह तुम्हें बताता है कि परमेश्वर के वचन मनुष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। चाहे तुम्हें कुछ भी मिल जाए, वह कोई वास्तविक खजाना नहीं है। तुम्हें सोने की सिल्लियाँ मिल जाएँ या दुनिया का कोई दुर्लभ और कीमती रत्न, वे असली खजाने नहीं हैं। अगर तुम्हें अमृत भी मिल जाए, तो उसका भी मोल एक दमड़ी भी नहीं है। यहाँ तक कि अगर तुम आत्म-विकास का अभ्यास कर स्वर्ग तक उड़ने में भी सफल हो जाओ, तो भी जरूरी नहीं कि तुम हमेशा के लिए जीवित रहो, और वह इसलिए कि तुम एक सृजित प्राणी हो, सब-कुछ परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है, और परमेश्वर की संप्रभुता से कोई नहीं बच सकता। सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे, और स्वयं परमेश्वर की ही तरह परमेश्वर के वचन भी हमेशा रहेंगे। इन वचनों को जानने का क्या उपयोग है? अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और तुम्हें सत्य या परमेश्वर की निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम नहीं है, तो शायद तुम्हें इन वचनों या इस तथ्य में रुचि न हो। लेकिन, अगर तुम परमेश्वर की निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम करते हो, सत्य से प्रेम करते हो, और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हो, तो तुम्हारी इन वचनों में गहरी रुचि विकसित हो जाएगी और तुम इस तथ्य और इन वचनों को अपने दिल में गहरे उकेर लोगे। वे कौन-से वचन हैं? सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे, और स्वयं परमेश्वर की ही तरह परमेश्वर के वचन भी हमेशा रहेंगे। तुम लोगों को ये वचन अपने दिल में रख लेने चाहिए और अपने खाली समय में इन पर विचार करना चाहिए। ये वचन बहुत महत्वपूर्ण हैं। मुझे बताओ, तुम लोगों को इनसे क्या मिलता है? (परमेश्वर, मैं कुछ समझती हूँ। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे।” कभी-कभी बाहरी दुनिया में चीजें बदल जाती हैं, और जब हम ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो हमारी अवस्था बदल जाती है और परमेश्वर का अनुसरण करने का हमारा दृढ़ संकल्प भी बदल जाता है। हमारे लिए यह मुश्किल हो जाता है कि हम नकारात्मक और कमजोर महसूस न करें, लेकिन जब हम परमेश्वर के इन वचनों और परमेश्वर द्वारा हमसे शुरुआत में किए गए वादों के बारे में सोचते हैं, और इस बारे में भी कि परमेश्वर ने कहा था कि वह ऐसे लोगों का एक समूह हासिल करना चाहता है जो उसके साथ एक दिल और दिमाग के हों, तो हमारे दिलों में शक्ति और आस्था की बाढ़ आ जाती है। अब हम बाहरी दुनिया की परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होते, और हममें परमेश्वर का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य निभाने की आस्था उत्पन्न हो जाती है।) ये वचन तुम लोगों को अभ्यास का एक मार्ग देते हैं—कैसा अभ्यास का मार्ग? यह भौतिक संसार में किसी चीज का अनुसरण करना या उसे सँजोना नहीं है; ये चीजें तो खोखली हैं। तुम्हारी आँखों के सामने प्रसिद्धि, लाभ, पद, भौतिक सुख, स्त्री-सौंदर्य, और पुरुषों की पहचान और हैसियत जैसी सभी चीजें क्षणभंगुर हैं, पलक झपकते ही खत्म हो जाती हैं, और इन चीजों को सँजोना व्यर्थ है। इसे व्यर्थ कहने से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि ये चीजें सिर्फ तुम्हारी देह की क्षणिक जरूरतों, अभिरुचियों और इच्छाओं, या तुम्हारी मनोदशा और स्नेह आदि की ही पूर्ति कर सकती हैं, तुम्हारी आध्यात्मिक जरूरतों की नहीं। जब तुम्हारी आत्मा भूख, प्यास और खोखलापन महसूस करती है, तो भौतिक संसार की कोई भी चीज तुम्हारी आध्यात्मिक जरूरतें पूरी नहीं कर सकती या तुम्हारे अंतरतम हृदय का खोखलापन नहीं भर सकती, इसीलिए इन चीजों का अनुसरण करना व्यर्थ है। तो, कौन-सी चीज तुम्हें संतुष्ट कर सकती है और तुम्हारे अंतरतम हृदय का खोखलापन भर सकती है? जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो और सत्य समझते हो, तो तुम्हारा अंतरतम हृदय पुनः भर जाता है और शांति और आनंद प्राप्त करता है, और तुम्हारा हृदय संतुष्ट और सहज महसूस करता है। अगर तुम इसी तरह से अनुसरण करना जारी रखते हो, तो जब परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन जाते हैं, तो कोई तुमसे तुम्हारा जीवन नहीं छीन सकता, न उसे नष्ट कर सकता है। जब कोई तुमसे तुम्हारा जीवन नहीं छीन सकता या उसे नष्ट नहीं कर सकता, तब तुम क्या महसूस करोगे? तुम अब खोखलापन महसूस नहीं करोगे, तुम इस दुनिया में रहते हुए खोया हुआ, भयभीत या असहज महसूस नहीं करोगे, क्योंकि तुम्हारे भीतर परमेश्वर के वचन होंगे जो तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे, तुम्हें पोषण प्रदान करेंगे, तुम्हें उद्देश्य और दिशा के साथ जीने में सक्षम बनाएँगे। तुम हर दिन अर्थ और मूल्य की भावना के साथ जियोगे। लोग वास्तव में ऐसा ही महसूस करते हैं। तो यह सकारात्मक परिणाम, जिसे लोग वास्तव में महसूस करते हैं, कैसे प्राप्त होता हैं? (यह लोगों में परमेश्वर के वचनों से तब प्राप्त होता है, जब वे उन्हें अभ्यास में लाते हैं।) यह सही है, जब लोग परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकारते हैं, तो उनमें यह परिणाम प्राप्त होता है; उनका जीवन बदल जाता है, उनके जीने का तरीका बदल जाता है, लोगों और चीजों के बारे में उनके विचार अलग हो जाते हैं, लोगों और चीजों को देखने का उनका तरीका अलग हो जाता है, और इसलिए उनका अनुसरण भी अलग हो जाता है। वे अब उन दैहिक सुखों, भौतिक पुरस्कारों, या प्रसिद्धि, लाभ और पद का अनुसरण नहीं करते। अपनी दैहिक अभिरुचियों की चीजों का अनुसरण करने से व्यक्ति सिर्फ अधिकाधिक नीरस, खोखला, असहज और पीड़ित महसूस कर सकता है। लेकिन, जब परमेश्वर के वचन व्यक्ति के दिल में घर कर लेते हैं, तो सत्य उनके भीतर का जीवन बन जाता है, उनका आंतरिक सार और जीवन बदल जाता है, और इसलिए वे बिल्कुल अलग महसूस करते हैं। उनकी भावनाएँ और अभिरुचियाँ, उनके विभिन्न भाव, जीवन में उनके लक्ष्य, उनके अनुसरण की दिशा और जीने के उनके नियम सब पूरी तरह से अलग हो जाते हैं। उनका अनुसरण बदल जाता है, वे सत्य का अनुसरण और परमेश्वर को जानने की कोशिश कर पाते हैं, और वे उस तरीके के अनुसार जीने में सक्षम हो जाते हैं जिस तरीके से परमेश्वर उनसे जीने की अपेक्षा करता है। जो लोग इसे प्राप्त कर लेते हैं, वे क्षय, मृत्यु और विनाश का सामना नहीं करते, बल्कि उन्हें वास्तविक जीवन प्राप्त हो जाता है, ऐसा जीवन जिसका क्षय नहीं होता। जब मैं कहता हूँ कि इसका क्षय नहीं होता, तो इससे मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा तात्पर्य है कि इन लोगों के भीतर का यह जीवन लुप्त नहीं होगा, नष्ट नहीं होगा, क्षीण नहीं होगा, खराब नहीं होगा, और उन्हें पहले की तरह विनाश का सामना नहीं करना पड़ेगा। इस तरह, क्या उनके अस्तित्व की वर्तमान दशा और उनके जीवित रहने की संभावनाएँ नहीं बदलतीं? स्पष्ट है कि उनकी जीवित रहने की संभावनाओं में बदलाव आता है। क्या कारण है कि मनुष्य का जीवन क्षीण पड़ जाता है, मुरझा जाता है, सड़ने लग जाता है, समाप्त हो जाता है और नष्ट हो जाता है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि लोग परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन नहीं बनाते, और चाहे कोई सौ साल जिए, या दो सौ साल, या तीन सौ साल, या एक हजार साल, उसके जीने के नियम, उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण, और उसके जीवन का अर्थ नहीं बदलता। तो, जो लोग इस तरह जीते हैं, वे वास्तव में किसके लिए जीते हैं? वे पूरी तरह से अपने दैहिक सुखों की पूर्ति के उद्देश्य से जीते हैं। मनुष्य की देह किस चीज का अनुसरण करती है? धन, प्रसिद्धि, लाभ और भौतिक सुखों जैसी चीजों का, और ठीक यही वे चीजें हैं जो परमेश्वर की नजर में सत्य के विपरीत हैं, और जिनसे परमेश्वर घृणा करता है। इसलिए परमेश्वर द्वारा लोगों को इन चीजों का अनुसरण करने देने और इनका आनंद लेने देने की एक समय-सीमा है। मनुष्य का एक जीवन लगभग साठ या सत्तर, अस्सी या नब्बे वर्ष तक चल सकता है और फिर समाप्त हो जाता है, और हर समाप्ति पर पुनर्जन्म का एक नया दौर चलता है, और इस तरह मनुष्य का जीवनकाल पूरा होता है। अगर परमेश्वर ने यह समय-सीमा पूर्वनिर्धारित न की होती, तो क्या लोग लंबे समय तक जीवित रहने के बाद जीने से ऊब न जाते? जब लोग लगभग बीस वर्ष के होते हैं, तो वे रोज महसूस करते हैं कि चीजें ताजा, सुंदर और सुखद हैं; जब वे लगभग चालीस की उम्र में पहुँचते हैं, तो उन्हें लगता है कि दिन में तीन बार भोजन करना और रात में सो जाना जीने का एक उबाऊ तरीका है; जब वे साठ की उम्र में पहुँचते हैं, तो उन्हें ऐसा महसूस होता है मानो वे सब-कुछ समझते हैं, और उन्होंने कुछ आशीष पाए हैं, कुछ कष्ट उठाए हैं, और उन्हें लगता है कि अब कुछ भी दिलचस्प नहीं है। वे रोज सूरज निकलने पर अपना काम शुरू कर देते हैं और सूरज ढलने पर आराम करते हैं, और पलक झपकते ही दिन खत्म हो जाता है। उनकी हर शारीरिक गतिविधि में गिरावट आने लगती है, जो तब से बिल्कुल अलग होती है जब वे लगभग बीस की उम्र के थे—यह तब होता है जब उनका अंत निकट होता है। जब व्यक्ति का अंत निकट होता है, तो इसका यह मतलब नहीं होता कि उसकी आत्मा समाप्त हो जाएगी। इसका मतलब यह है कि उसकी देह जल्दी ही समाप्त हो जाएगी। आम तौर पर लोग लगभग साठ, सत्तर या अस्सी की उम्र में पहुँचने पर मर जाते हैं, और लंबी उम्र वाले लोग ज्यादा से ज्यादा सौ साल से ऊपर जीवित रह सकते हैं। एक कहावत इस प्रकार है, “बहुत लंबे समय तक जीवित रहने वाला व्यक्ति जीने से थक जाता है—वह जीवन से ऊब चुका होता है।” जब व्यक्ति बहुत ज्यादा समय तक जीवित रहता है, तो वह जीवन से ऊब जाता है, वह और नहीं जीना चाहता, और जीवन उसके लिए निरर्थक हो जाता है। उसे ऐसा क्यों लगता है कि जीवन निरर्थक है? यहाँ एक वास्तविक स्थिति है, और वह यह है कि लोग अपनी देह में दिन में तीन बार भोजन करते हुए और अपने दैनिक काम करते हुए जीते हैं, उनका हर दिन बिल्कुल पिछले दिन की ही तरह, वही काम करते हुए, वही जीवन जीते हुए बीतता है, और जब वे एक निश्चित बिंदु पर पहुँच जाते हैं, तो वे इन चीजों को पूरी तरह से जान जाते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने हर वह चीज देख ली है जो उन्हें देखनी चाहिए थी, हर उस चीज का स्वाद ले लिया है जिसका स्वाद उन्हें लेना चाहिए था और वह सब अनुभव कर लिया है जो उन्हें अनुभव करना चाहिए था। उन्हें लगता है कि जीवन बस ऐसा ही है, और उनके पास आशा करने के लिए कुछ नहीं है, कुछ ऐसा नहीं है जिसका वे इंतजार करें, और उनका जीवन खोखला है और जल्दी ही उनका अंत हो जाएगा। क्या यही मामला नहीं है? (यही मामला है।) चीजें ऐसी ही हैं।
हमने अभी इन वचनों के बारे में बात की, “सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे, और स्वयं परमेश्वर की ही तरह परमेश्वर के वचन भी हमेशा रहेंगे।” ये वचन लोगों को यह तथ्य बताते हैं कि मनुष्य के लिए परमेश्वर के वचन बहुत महत्वपूर्ण हैं, और ये लोगों को उनके लक्ष्य और अभ्यास की दिशा भी बताते हैं, और यह बताते हैं कि किसी भी चीज का कोई भी अनुसरण मनुष्य द्वारा परमेश्वर के वचनों की एक पंक्ति भी प्राप्त करने का विकल्प नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सभी चीजें समय के साथ कुम्हला, मुरझा और कमजोर हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन ही कभी नष्ट नहीं होंगे। इसलिए, अगर तुम परमेश्वर के वचन प्राप्त कर उनकी वास्तविकता में प्रवेश करते हो, जिसका अर्थ है कि तुम सत्य समझते हो और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य के कारण मूल्य प्राप्त होता है, और तुम्हारा सार पहले से भिन्न हो जाता है। कुछ लोग कहते हैं, “मेरा सार भिन्न हुआ तो क्या हुआ?” मेरा अभिप्राय सामान्य अर्थों में भिन्न होने से नहीं है, बल्कि तुम्हारा सार अत्यधिक भिन्न हो जाता है, क्योंकि तुम परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में अपना लेते हो, और परमेश्वर के वचनों की ही तरह तुम भी नष्ट नहीं होगे, परमेश्वर की ही तरह तुम्हारे पास शाश्वत जीवन होगा, और तुम्हारे पास शाश्वत भूत, भविष्य और गंतव्य होगा। तो अब, यह देखते हुए कि भविष्य में क्या होगा, क्या परमेश्वर के वचन मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं? (हाँ, वे महत्वपूर्ण हैं।) वे निर्णायक हैं! यह समझ लेने के बाद कि परमेश्वर के वचन महत्वपूर्ण हैं, तुम्हें किस तरह अनुसरण करना चाहिए? तुम्हें ऐसी किस चीज का अनुसरण करना चाहिए, जिसका मूल्य और अर्थ हो? क्या तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने में ज्यादा प्रयास करने, ज्यादा कष्ट सहने, ज्यादा कीमत चुकाने और ज्यादा भागदौड़ करने का अनुसरण करना चाहिए? या तुम्हें पेशेवर कौशलों का ज्यादा अध्ययन करना चाहिए, खुद को ज्यादा सिद्धांतों से सुसज्जित करना और ज्यादा प्रवचन देना चाहिए? (इनमें से कुछ नहीं करना चाहिए।) तो फिर तुम्हारे लिए किस चीज का अनुसरण करना सबसे उपयोगी है? तुम सभी लोग उत्तर जानते हो, यह तुम्हारे लिए शीशे की तरह साफ है : परमेश्वर के वचनों की प्राप्ति ही सबसे मूल्यवान और सार्थक अनुसरण है। “सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी, सिर्फ परमेश्वर के वचन कभी नष्ट नहीं होंगे, और स्वयं परमेश्वर की ही तरह परमेश्वर के वचन भी हमेशा रहेंगे।” ये वचन अपने दिल में याद रखो और तुम्हें इन्हें कभी नहीं भूलना या त्यागना चाहिए। जब तुम नकारात्मक और कमजोर महसूस करते हो, जब तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास कोई आशा नहीं है, जब तुम्हारे सामने क्लेश आते हैं, जब तुम्हें तुम्हारे कर्तव्य से हटा दिया जाता है, जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, जब तुम्हें विघ्नों और असफलताओं का सामना करना पड़ता है, और जब तुम्हें डाँटा जाता है और तुम्हारी निंदा की जाती है; या फिर जब तुम अपनी सफलता के शिखर पर होते हो, जब तुम जहाँ भी जाते हो लोग तुम्हें खूब आदर-मान देते हैं और तुम्हारी प्रशंसा करते हैं, इत्यादि; किसी भी समय और किसी भी स्थिति में, तुम्हें हमेशा इन वचनों के बारे में सोचना चाहिए और उन्हें तुम्हें परमेश्वर के सामने लाने देना चाहिए और उस क्षण में तुम्हारे लिए परमेश्वर के वचनों का पोषण खोजने देना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को तुम्हें तुम्हारे कष्टों से मुक्त करने में मदद करने देना चाहिए, तुम्हारी कठिनाइयाँ हल करने देनी चाहिए, तुम्हारे अंतरतम हृदय में मौजूद भ्रम दूर करने देना चाहिए, तुम्हें उस गलत रास्ते से वापस लाने देना चाहिए जिस पर तुम चल रहे हो, और तुम्हारे अपराधों, तुम्हारी हठधर्मिता, तुम्हारी विद्रोहशीलता इत्यादि का समाधान करने देना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों को तुम्हारे सामने आने वाली हर समस्या हल करने देनी चाहिए। ये वचन तुम लोगों के लिए बहुत उपयोगी हैं! जब तुम भूल जाते हो कि तुम्हारी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य क्या हैं, जब तुम भूल जाते हो कि तुम्हें किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, जब तुम भूल जाते हो कि तुम्हें कौन-सा दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य अपनाना चाहिए और तुम्हारी पहचान और हैसियत क्या है, तो इन वचनों को याद करो। ये वचन तुम्हें परमेश्वर के सामने लाएँगे, ये तुम्हें परमेश्वर के वचनों में लाएँगे, ये तुम्हें यह समझ दिलाएँगे कि इस क्षण परमेश्वर का क्या इरादा है, और ये तुम्हें खुद को, दूसरों को, और तुम्हारे सामने आने वाली घटनाओं और परिवेशों को समझने के लिए सही दृष्टिकोण, नजरिया और परिप्रेक्ष्य अपनाने में मदद करेंगे। इस तरह, परमेश्वर के मार्गदर्शन के तहत और परमेश्वर के वचनों के पोषण, प्रबुद्धता और सहायता के तहत, कोई समस्या तुम्हें डगमगा नहीं सकती, और कोई समस्या तुम्हें सत्य का अनुसरण करने से बाधित नहीं कर सकती और तुम्हारे बढ़ते कदम रोक नहीं सकती। क्या यह अभ्यास का मार्ग नहीं है? (है।) जो सबक अब तुम लोगों को सीखना चाहिए, वह है कुड़कुड़ाना नहीं, शिकायत न करना और नियमों पर न अड़े रहना, या समस्याओं का सामना करने पर मनुष्य के नजरिये न तलाशना, बल्कि परमेश्वर के सामने आना और सत्य खोजना, परमेश्वर की सहायता माँगना, परमेश्वर के वचनों को तुम्हें पोषण प्रदान करने देना और तुम्हारी हर कठिनाई हल करने देना—यही वह सबक है जो तुम लोगों को सीखना चाहिए। यहाँ हम शैतान द्वारा मानवजाति को गहन रूप से भ्रष्ट किए जाने की पृष्ठभूमि में परमेश्वर द्वारा अपनी प्रबंधन-योजना का सबसे महत्वपूर्ण कार्य शुरू करने को समझने के विषय पर अपनी संगति यहीं समाप्त करेंगे; अंत में, यह सब परमेश्वर के वचनों पर निर्भर करता है। हम कैसे भी संगति करें, अंत में मैं आशा करता हूँ कि लोग परमेश्वर के वचनों की सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकेंगे और सिर्फ यह जानकर संतुष्ट नहीं हो जाएँगे कि शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कैसे किया जाए या धार्मिक सिद्धांत का अध्ययन कैसे किया जाए या रोज धार्मिक समारोहों में कैसे भाग लिया जाए। परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना जीवन-प्रवेश का सबसे जरूरी सबक है, जो लोगों को अवश्य सीखना चाहिए।
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