सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (15) भाग तीन
इस विचार और दृष्टिकोण की त्रुटियों की पहचान और विश्लेषण करने के बाद कि “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है,” आओ देखते हैं कि परमेश्वर लोगों से उनकी कथनी-करनी को लेकर क्या अपेक्षा करता है। परमेश्वर लोगों से किस तरह का व्यक्ति बनने की अपेक्षा करता है? (एक ईमानदार व्यक्ति।) यह सही है। ईमानदार बनो, झूठ मत बोलो, छल-कपट मत करो, धोखेबाज मत बनो और चालाकी मत करो। कार्य करते हुए परमेश्वर के वचन और सत्य सिद्धांत खोजो। बस यही कुछ चीजें अपेक्षित हैं; यह बहुत सरल है। अगर तुम बेईमानी से बात करते हो, तो खुद को सुधारो। अगर तुम बढ़ा-चढ़ाकर बोलते हो, झूठ बोलते हो या अपनी औकात से बाहर जाकर बोलते हो, तो इस पर विचार करो और इससे अवगत हो जाओ, और इसे हल करने के लिए सत्य खोजो। तुम्हें वही चीजें कहनी चाहिए, जो तुम्हारी वास्तविक स्थिति, तुम्हारे दिल की समझ और तथ्यों को दर्शाती हों। इसके अलावा, अगर तुम वे काम कर सकते हो जिनका तुमने दूसरों से वादा किया है, तो उन्हें करो। अगर नहीं कर सकते, तो तुरंत उन्हें बताओ। कहो, “क्षमा करें, मैं यह नहीं कर सकता। मुझमें क्षमता नहीं है और मैं अच्छा काम नहीं कर पाऊँगा। मैं आपको अटकाना नहीं चाहता, इसलिए बेहतर होगा कि आप किसी और से मदद माँग लें।” तुम्हें हमेशा अपनी बात पर टिके रहने की जरूरत नहीं है, तुम अपने वादे से मुकर सकते हो। बस एक ईमानदार इंसान बनो। तुम जो कहते और करते हो, उसमें झूठ बोलने या धोखा देने की कोशिश करने के बजाय ईमानदार रहो, और हर स्थिति में सत्य सिद्धांत खोजो। यह बहुत सरल है; यह बहुत आसान है। परमेश्वर लोगों से जो कुछ करने के लिए कहता है, क्या उसका कोई हिस्सा ऐसा है जो उन्हें दिखावा करने पर मजबूर करता हो? क्या उसने कभी लोगों से बहुत ज्यादा माँगा है, उनसे उससे ज्यादा करने के लिए कहा है जितना वे सह या कर सकते हैं? (नहीं।) अगर लोगों के पास आवश्यक क्षमता, समझने की क्षमता, शारीरिक ऊर्जा या ताकत नहीं है, तो परमेश्वर उनसे कहता है कि उनका उतना ही करना पर्याप्त है जितना वे कर सकते हैं, भरसक प्रयास करो और अपना सब-कुछ दे दो। तुम कहते हो, “मैंने इसे वह सब-कुछ दे दिया है जो मेरे पास है, लेकिन मैं अभी भी परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर सकता। मैं बस इतना ही कर सकता हूँ, लेकिन पता नहीं परमेश्वर इससे संतुष्ट होगा या नहीं।” असल में, ऐसा करके तुम पहले ही परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर चुके हो। परमेश्वर लोगों को इतना भारी बोझ नहीं देता कि वे उठा न सकें। अगर तुम पचास किलो वजन ही उठा सकते हो, तो परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें पचास किलो से ज्यादा वजन नहीं देगा। वह तुम पर दबाव नहीं डालेगा। इसी तरह परमेश्वर सबके साथ है। और तुम किसी चीज से बेबस नहीं होगे—न किसी व्यक्ति से, न किसी विचार और दृष्टिकोण से। तुम स्वतंत्र हो। कुछ होने पर तुम्हें चुनने का अधिकार है। तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चुन सकते हो, तुम अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं के अनुसार अभ्यास करना चुन सकते हो, या, बेशक, तुम अपने मन में शैतान के बैठाए विचार और दृष्टिकोणों से चिपके रहना चुन सकते हो। तुम इनमें से कोई भी विकल्प चुनने के लिए स्वतंत्र हो, लेकिन तुम जो भी विकल्प चुनते हो, उसकी जिम्मेदारी तुम्हें लेनी होगी। परमेश्वर तुम्हें सिर्फ मार्ग दिखाता है; वह तुम पर कुछ करने या न करने के लिए दबाव नहीं डालता। परमेश्वर द्वारा तुम्हें मार्ग दिखाए जाने के बाद चुनाव तुम्हारा है। तुम्हारे पास पूर्ण मानवाधिकार हैं, जिनमें चुनने का पूर्ण अधिकार भी शामिल है। तुम सत्य, अपनी इंसानी इच्छाएँ, या, बेशक, शैतान के विचार और दृष्टिकोण भी चुन सकते हो। तुम चाहे जिसे चुनो, अंतिम परिणाम तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा; कोई भी इसे तुम्हारी ओर से वहन नहीं करेगा। जब तुम चुनाव करते हो, तो परमेश्वर किसी भी तरह से हस्तक्षेप नहीं करता, न ही वह तुम्हें मजबूर करने के लिए कुछ करता है। तुम जैसा चाहो वैसा चुन सकते हो, चाहे वह कोई भी विकल्प हो। अंत में, परमेश्वर सिर्फ इसलिए तुम पर प्रशंसा का अंबार नहीं लगाएगा, तुम्हें कोई बड़ा फायदा नहीं पहुँचाएगा, तुम्हारे दिल में कोई सुखद एहसास पैदा नहीं करेगा या तुम्हें बेहद महान महसूस नहीं कराएगा कि तुमने सही मार्ग और सत्य चुना। वह ऐसा नहीं करेगा। अपनी इंसानी इच्छाएँ चुनने पर परमेश्वर तुरंत तुम्हें अनुशासित या शापित भी नहीं करेगा, या दंड के रूप में तुम पर तुरंत आपदा भी नहीं बरसाएगा, भले ही तुम अपने मन में शैतान के बैठाए गए विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार लापरवाही से कार्य करो। जब तुम कोई विकल्प चुन रहे होते हो, तो सब-कुछ स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ता है, और तुम्हारे चुनने के बाद भी सब-कुछ स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ता रहता है। परमेश्वर बस अवलोकन करता है, यह सब होता हुआ देखता है, और कारण, प्रक्रिया और परिणाम पर नजर रखता है। बेशक, अंत में, जब लोगों का न्याय किया जाता है और उनका अंत निर्धारित किया जाता है, तो परमेश्वर तुम्हारी तमाम व्यक्तिगत पसंदगियों के आधार पर तुम्हारे द्वारा अपनाए गए मार्ग को वर्गीकृत करेगा, यह जानने के लिए उस मार्ग को समग्र रूप से देखेगा कि तुम वास्तव में किस प्रकार के व्यक्ति हो, और इससे यह निर्धारित करेगा कि तुम्हारा अंत किस तरह का होना चाहिए। परमेश्वर का यही तरीका है। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) जब परमेश्वर अपना कार्य कर रहा होता है, तो वह कभी किसी कथन, कहावत या विचार और दृष्टिकोण को लोगों के बीच ऐसी प्रवृत्ति नहीं बनने देता, जो उनके विचारों को सीमित और नियंत्रित करके अनिच्छा से वह करवाए जो परमेश्वर उनसे कराना चाहता है। यह परमेश्वर का कार्य करने का तरीका नहीं है। परमेश्वर लोगों को पूर्ण स्वतंत्रता और चुनने का अधिकार देता है, और वे पूर्ण मानवाधिकारों और चुनने के पूर्ण अधिकार का आनंद लेते हैं। लोग अपने सामने आने वाली हर स्थिति में किसी वस्तु-विशेष की बनावट समझने और आँकने के लिए शैतान के विचार और दृष्टिकोण स्वीकार और इस्तेमाल करना चुन सकते हैं, या परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार ऐसा करना भी चुन सकते हैं। क्या यह तथ्य है? (हाँ।) परमेश्वर लोगों को बाध्य नहीं करता; परमेश्वर जो करता है, वह सभी के लिए उचित होता है। जो लोग सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, वे अंततः सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हैं, सत्य प्राप्त करते हैं, परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखते हैं, परमेश्वर के प्रति वास्तव में समर्पित हो सकते हैं और वे बचाए जाएँगे, क्योंकि वे सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो सत्य से प्रेम नहीं करते, और जो हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार लापरवाही से कार्य करते हैं, वे सत्य से विमुख हो चुके हैं और उसे किसी भी तरह से नहीं स्वीकारते। वे बस परमेश्वर की ताड़ना और न्याय से डरते हैं, और इस बात से डरते हैं कि उन्हें दंडित किया जाएगा, इसलिए वे परमेश्वर के घर में दिखावे के लिए अनिच्छा से थोड़ा-सा काम करते हैं, थोड़ी-सी मजदूरी करते हैं और कुछ अच्छा व्यवहार दिखाते हैं। लेकिन वे कभी सत्य नहीं स्वीकारते या परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करते, और वे सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने के मार्ग पर नहीं हैं। नतीजतन, वे कभी सत्य को नहीं समझ पाएँगे या सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाएँगे, और इसलिए बचाए जाने का अवसर चूक जाएँगे। इनमें से ज्यादातर लोग मजदूर हैं। भले ही वे कोई बुराई न करें, विघ्न-बाधाएँ पैदा न करें और मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों की तरह परमेश्वर के घर से निकाले या बहिष्कृत न किए जाएँ, लेकिन अंततः वे मुश्किल से “मजदूर” की उपाधि ही प्राप्त कर पाएँगे और यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें बख्शा जाएगा या नहीं। लोगों का एक समूह और भी है जो शैतान से संबंधित है और उसके तमाम विचारों और दृष्टिकोणों पर हठपूर्वक कायम है। ये लोग मर जाएँगे, पर सत्य नहीं स्वीकारेंगे या सत्य और परमेश्वर के वचनों के साथ नहीं चलेंगे। वे तो तमाम सकारात्मक चीजों और परमेश्वर के विपरीत भी रहते हैं। चूँकि वे कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं और उसमें गड़बड़ी करते हैं, कई बुरी चीजें करते हैं और पूरी तरह से शैतान की भूमिका निभाते हैं, इसलिए इनमें से कुछ लोग अंततः कलीसिया से निकाल दिए जाते हैं, और कुछ निष्कासित कर दिए जाते हैं या उनके नाम रजिस्टर से काट दिए जाते हैं। अगर कुछ लोग अपना नाम कटवाने या निष्कासित होने से बच भी जाते हैं, तो भी अंततः परमेश्वर को उन्हें निकालना ही होगा। वे बचाए जाने का अवसर खो देते हैं, क्योंकि वे सत्य और परमेश्वर का उद्धार नहीं स्वीकारते, और अंततः जब दुनिया नष्ट हो जाएगी तो वे शैतान के साथ नष्ट हो जाएँगे। देखो, परमेश्वर इतने स्वतंत्र और मुक्तिदायक तरीके से कार्य करता है कि हर चीज स्वाभाविक रूप से घटित होती है। परमेश्वर लोगों में उनका मार्गदर्शन करने, उन्हें प्रबुद्ध करने और उनकी मदद करने, और कभी-कभी उन्हें याद दिलाने, सांत्वना देने और प्रोत्साहित करने के लिए काम करता है। यह परमेश्वर के स्वभाव का वह पक्ष है, जो प्रचुर दया दिखाता है। जब परमेश्वर अपनी दया दिखाता है तो लोग उसके अनुग्रह और आशीषों की प्रचुरता का आनंद लेते हैं, और बेबस होने या बाध्य किए जाने की किसी भावना के बिना, और निश्चित रूप से किसी कथन या विचार और दृष्टिकोण से सीमित किए जाने की भावना के बिना भी पूर्ण स्वतंत्रता और उद्धार का आनंद लेते हैं। जिस समय परमेश्वर यह कार्य करता है, उसी समय वह लोगों को प्रशासनिक नियमों और कलीसिया की विभिन्न प्रणालियों से नियंत्रित भी करता है, और उनकी भ्रष्टता और विद्रोहशीलता की काट-छाँट करता है, उनका न्याय करता है, और उन्हें ताड़ना देता है। वह उनमें से कुछ को अनुशासित और दंडित भी करता है, या अपने वचनों से उन्हें उजागर करता और फटकारता है, साथ ही अन्य कार्य भी करता है। हालाँकि, जब लोग इस सब का आनंद लेते हैं, तो वे परमेश्वर की प्रचुर दया और गहन क्रोध का भी आनंद लेते हैं। जब परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का दूसरा पक्ष—गहन क्रोध—लोगों के सामने प्रकट होता है, तब भी वे स्वतंत्र और मुक्त महसूस करते हैं, न कि बेबस, बँधा हुआ या कैद में महसूस करते हैं। जब लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के किसी भी पहलू का अनुभव करेंगे और वह उनमें कार्य करेगा तो वे वास्तव में परमेश्वर का प्रेम महसूस करेंगे। उनमें प्राप्त परिणाम सकारात्मक होंगे, वे इससे लाभान्वित होंगे, और निस्संदेह सबसे बड़े लाभार्थी होंगे। परमेश्वर इसी तरह से काम करता है, कभी लोगों को मजबूर नहीं करता, बाध्य नहीं करता, दबाता या बाँधता नहीं, बल्कि उन्हें मुक्त, स्वतंत्र, निश्चिंत और खुश महसूस कराता है। लोग चाहे परमेश्वर की दया और करुणा का आनंद लें या उसकी धार्मिकता और प्रताप का, अंततः वे परमेश्वर से सत्य प्राप्त करते हैं और यह समझ जाते हैं कि जीवन का अर्थ और मूल्य क्या है, उन्हें किस मार्ग पर चलना चाहिए और मनुष्य होने की दिशा और लक्ष्य क्या है। उन्हें इतना अधिक मिलता है! लोग शैतान की सत्ता में रहते हैं, और अपने मन में उसके बैठाए विभिन्न भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों से बद्ध, सीमित और पंगु बने रहते हैं। यह असहनीय है, लेकिन उनमें इससे मुक्त होने की ताकत नहीं होती। जब लोग परमेश्वर के पास आते हैं तो उनका रवैया चाहे जैसा भी हो, उनके प्रति परमेश्वर का रवैया हमेशा एक-समान रहेगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर का स्वभाव और सार नहीं बदलता। वह हमेशा सत्य व्यक्त करता है, और ऐसा करते हुए अपना स्वभाव और सार प्रकट करता है। वह लोगों में इसी तरह कार्य करता है। वे परमेश्वर की करुणा और दया, और साथ ही उसकी धार्मिकता और प्रताप का पूरी तरह से आनंद लेते हैं, और जो लोग इस परिवेश में रहते हैं वे धन्य हैं। अगर ऐसे परिवेश में लोग सत्य का अनुसरण करने, उससे प्रेम करने और अंततः उसे प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं, बचाए जाने का अवसर चूक जाते हैं, और कुछ तो शैतान की तरह दंडित और नष्ट भी कर दिए जाते हैं, तो इसका सिर्फ एक ही कारण है, और वह है एक तथ्य। तुम लोगों को क्या लगता है कि वह क्या है? लोग अपनी प्रकृति के अनुसार एक निश्चित मार्ग पर चलेंगे और उनका एक निश्चित परिणाम होगा। जिस समय अंततः प्रत्येक व्यक्ति का परिणाम निर्धारित किया जाएगा, वह वही समय होगा जब उन्हें उनके प्रकार के अनुसार समूहों में बाँटा जाएगा। अगर वे सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, तो जब परमेश्वर अंततः बोलेगा और कार्य करेगा, तब वे परमेश्वर के पास लौट आएँगे और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलेंगे, चाहे शैतान ने उनमें कितनी भी नकारात्मक चीजें क्यों न डाली हों। लेकिन अगर कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता और इससे विमुख है, तो उसका यह स्वभाव अपरिवर्तित रहेगा और उसे निर्देशित करेगा, चाहे परमेश्वर कितना भी बोले, उसके वचन कितने भी ईमानदार हों, वह कितना भी काम करे और उसके चिह्न और चमत्कार कितने भी अद्भुत हों। बुरे लोग तो और भी ज्यादा अति करते हैं। वे न सिर्फ सत्य से विमुख हैं, बल्कि उनका सार भी दुष्ट होता है और सत्य से घृणा करता है। वे परमेश्वर के विरोधी होते हैं और शैतान के खेमे के होते हैं। अगर वे परमेश्वर में विश्वास करते भी हों, तो भी वे अंततः शैतान के पास लौट जाएँगे। इन तीनों तरह के लोगों ने शैतान की भ्रष्टता का अनुभव किया है, और शैतान के विभिन्न कथनों और विचारों और दृष्टिकोणों से गुमराह और कैद किए गए हैं। तो, अंततः क्यों कुछ लोग बचाए जा सकते हैं और अन्य नहीं? यह मुख्य रूप से उस मार्ग पर निर्भर करता है, जिसका लोग अनुसरण करते हैं और इस पर भी कि वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं। इसका संबंध इन दो चीजों से है। तो फिर, क्यों कुछ लोग सत्य से प्रेम करने में सक्षम हैं और अन्य नहीं? क्यों कुछ लोग सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकते हैं, जबकि दूसरे नहीं चल सकते, और कुछ लोग तो खुले तौर पर परमेश्वर से झगड़ते भी हैं और सार्वजनिक रूप से सत्य को बदनाम भी करते हैं? यहाँ क्या चल रहा होता है? क्या यह उनके प्रकृति सार से निर्धारित होता है? (हाँ।) उन सभी ने शैतान की भ्रष्टता का अनुभव किया है, लेकिन हर व्यक्ति का सार अलग है। मुझे बताओ, क्या परमेश्वर अपना कार्य बुद्धि से करता है? क्या परमेश्वर मनुष्य की असलियत देखने में सक्षम है? (हाँ।) तो फिर परमेश्वर लोगों को स्वतंत्र रूप से चुनने का अधिकार क्यों देता है? परमेश्वर सभी को बलपूर्वक शिक्षा क्यों नहीं देता? ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत और उजागर करना चाहता है। परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता; परमेश्वर जो भी कार्य करता है उसके पीछे सिद्धांत होते हैं, और वह किसी व्यक्ति में जो कार्य करता है, वह इस पर आधारित होता है कि वह किस तरह का व्यक्ति है। किसी व्यक्ति की श्रेणी कैसे प्रकट होती है? लोगों को किस आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जाता है? यह उन चीजों पर, जिन्हें लोग पसंद करते हैं और उस मार्ग पर, जिस पर वे चलते हैं, आधारित है। क्या यह सही नहीं है? (हाँ, है।) परमेश्वर लोगों को उनकी पसंद की चीजों और उनके अपनाए हुए मार्ग के अनुसार वर्गीकृत करता है, उनकी श्रेणी के आधार पर यह निर्धारित करता है कि उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं, और इसके अनुसार उनमें कार्य करता है कि उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं। यह वैसा ही है, जैसे कुछ लोग मीठा खाना पसंद करते हैं तो कुछ मसालेदार, कुछ नमकीन और कुछ खट्टा। अगर ये विभिन्न प्रकार के भोजन मेज पर रखे जाएँ, तो लोगों को यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि क्या खाएँ और क्या न खाएँ। जो लोग मसालेदार खाना पसंद करते हैं वे कुछ मसालेदार खाएँगे, जो लोग मीठा खाना पसंद करते हैं वे कुछ मीठा खाएँगे और जो लोग नमकीन खाना पसंद करते हैं वे कुछ नमकीन खाएँगे। उन्हें स्वतंत्र रूप से चयन करने दिया जा सकता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें यह चुनने का अधिकार है कि वे सत्य से प्रेम करें या नहीं और वे कौन-सा मार्ग अपनाएँ, लेकिन यह निर्णय करना उन पर निर्भर नहीं है कि उन्हें बचाया जाएगा या नहीं और अंततः उनका अंत क्या होगा। क्या तुम देखते हो कि परमेश्वर के कार्य के पीछे सिद्धांत हैं? (हाँ।) उसके कार्य के पीछे सिद्धांत हैं, और सबसे महान सिद्धांतों में से एक है लोगों को उनके अनुसरणों और मार्ग के अनुसार वर्गीकृत करना और हर चीज स्वाभाविक रूप से होने देना। लोग इसे समझने में हमेशा असफल रहते हैं और पूछते हैं, “हमेशा कहा जाता है कि परमेश्वर के पास अधिकार है, लेकिन वे कहाँ है? परमेश्वर अपना अधिकार दिखाने के लिए थोड़ा जबरदस्ती क्यों नहीं समझाता?” परमेश्वर का अधिकार इस तरह अभिव्यक्त नहीं होता; परमेश्वर इस तरह अपना अधिकार लोगों के सामने जाहिर नहीं करता।
क्या तुम लोग अब इस नैतिक आचरण की कहावत को समझने में सक्षम हो कि “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है”? क्या तुम लोग यह भी समझते हो कि परमेश्वर लोगों से क्या चाहता है? (हाँ।) तुम्हारी समझ क्या है? (परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार हों।) लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत साधारण हैं। वह चाहता है कि लोग ईमानदार हों, सामने आने वाले मामले सत्य सिद्धांतों के अनुसार सँभालें, दिखावा न करें, सिर्फ सतही व्यवहार पर ध्यान न दें, बल्कि सिद्धांतों के अनुसार काम करने पर ध्यान दें। तुम जो मार्ग अपनाते हो, अगर वह सही है, और जिन सिद्धांतों के अनुसार तुम आचरण करते हो वे सही और परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुरूप हैं, तो यह पर्याप्त है। क्या यह सरल नहीं है? (है।) शैतान के पास सत्य नहीं है, न ही वह सत्य स्वीकारता है, इसलिए वह लोगों को ऐसी कहावतों से गुमराह करता है जिन्हें लोग अच्छे और सही समझते हैं, और उनसे बुरे काम करने वाले खलनायकों के बजाय अच्छा व्यवहार करने वाले सज्जन बनने की कोशिश करवाता है। लोग शैतान द्वारा जल्दी से गुमराह हो जाते हैं, क्योंकि ये चीजें लोगों की धारणाओं और पसंद के अनुरूप होती हैं, और वे उन्हें आसानी से स्वीकार सकते हैं। शैतान लोगों से ऐसी चीजें करवाता है, जो सिर्फ अच्छी प्रतीत होती हों। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुमने पर्दे के पीछे कितना भी बुरा काम किया है, तुम्हारा स्वभाव कितना भी भ्रष्ट है, या तुम बुरे व्यक्ति हो या नहीं हो; अगर तुमने शैतान के कहावतों और अपेक्षाओं के अनुसार अपना बाहरी स्वरूप छिपा रखा है, और दूसरे लोग तुम्हें अच्छा व्यक्ति कहते हैं, तो तुम अच्छे व्यक्ति हो। ये अपेक्षाएँ और मानक स्पष्ट रूप से लोगों को धोखेबाज और बुरे होने, मुखौटा पहनने, और सही मार्ग पर चलने से रोकने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इसलिए, क्या हम कह सकते हैं कि शैतान द्वारा लोगों में डाला गया हर विचार और दृष्टिकोण उन्हें एक के बाद एक गलत मार्ग पर ले जा रहा है? (हाँ।) परमेश्वर आज जो कार्य करना चाहता है, वह लोगों को शैतान के विभिन्न पाखंड और भ्रांतियाँ समझने, शैतान को समझकर नकारने, और फिर उनके विभिन्न स्वच्छंद मार्गों से वापस सही मार्ग पर लाने में सहायक है, ताकि वे सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देख सकें, आचरण और कार्य कर सकें। इनमें से कोई भी सिद्धांत लोगों से नहीं आता, बल्कि ये सत्य सिद्धांत हैं। जब लोग इन सत्य सिद्धांतों को समझ जाते हैं, और इनका अभ्यास करने और इनकी वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम हो जाते हैं, तो परमेश्वर के वचन और उसका जीवन धीरे-धीरे इन लोगों में गढ़ दिए जाएँगे। अगर लोग परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में लेते हैं, तो वे फिर कभी शैतान से गुमराह नहीं होंगे और गलत मार्ग, शैतान के मार्ग और उस मार्ग पर नहीं चलेंगे जिससे लौटा नहीं जा सकता। ये लोग परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं करेंगे, चाहे शैतान इन्हें कितना भी गुमराह और भ्रष्ट करे। चाहे दुनिया कैसे भी बदले और चाहे कैसा भी समय आए, इनका जीवन क्षीण या नष्ट नहीं होगा, क्योंकि इनके पास परमेश्वर के वचन इनके जीवन की तरह हैं, और चूँकि इनका जीवन क्षीण या नष्ट नहीं होगा, इसलिए ये इस तरह के जीवन के साथ सह-अस्तित्व में रहेंगे और सदैव जीवित रहेंगे। क्या यह अच्छी चीज है? (हाँ।) जब लोगों को बचाया जाता है, तो उन्हें भरपूर आशीष मिलता है!
इस समय तुम लोगों के लिए एकमात्र सबसे अहम चीज क्या है? वह है ज्यादा सत्य से सुसज्जित होना। जब तुम सत्य से ज्यादा सुसज्जित होते हो, और ज्यादा सुन लेते, अनुभव कर लेते और समझ लेते हो, सिर्फ तभी तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देख सकोगे और आचरण और कार्य कर पाओगे, और जान पाओगे कि वास्तव में सत्य सिद्धांत क्या हैं। सिर्फ तभी तुम नहीं भटकोगे, और परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों को इंसानी इच्छा और उन विचारों और दृष्टिकोणों से नहीं बदलोगे जो शैतान ने तुम्हारे मन में बैठाए हैं। क्या यही मामला नहीं है? (यही है।) इसलिए, सबसे अहम और जरूरी चीजों में से एक जो तुम लोगों को अभी करनी चाहिए, वह है सत्य से सुसज्जित होना और परमेश्वर के वचनों को और ज्यादा समझना। तुम्हें खुद को परमेश्वर के वचनों पर लागू करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों में कई चीजें शामिल हैं, और उनमें सत्य की कई मदें हैं। तुम्हें बिना किसी देरी के खुद को इन सभी सत्यों से सुसज्जित करना चाहिए। अगर तुम खुद को सुसज्जित नहीं करते, तो कुछ घटित होने पर तुम परमेश्वर के वचनों को नींव के रूप में इस्तेमाल नहीं कर पाओगे, और सिर्फ अपनी इच्छा के अनुसार मामले से निपटोगे। नतीजतन, तुम सिद्धांतों का उल्लंघन करोगे, और तुम्हारे अपराध एक दाग की तरह तुम्हारे साथ रहेंगे। अगर तुम नहीं जानते कि कुछ घटित होने पर सत्य कैसे खोजें, और उसे सिर्फ अपनी इच्छा के अनुसार और अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए सँभालते हो, और अगर तुम अपनी इच्छा पर भरोसा करते हो और तुम्हारे अंदर अशुद्धियाँ हैं लेकिन तुम नहीं जानते कि कैसे आत्म-चिंतन कर आत्म-जागरूक बनें, न ही यह जानते हो कि खुद को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कैसे कसें, तो तुम खुद को नहीं जानोगे, और वास्तव में पश्चात्ताप नहीं कर पाओगे। अगर तुम वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें कैसे देखेगा? इसका मतलब है कि तुममें अड़ियल स्वभाव है और तुम सत्य से विमुख हो, जो एक और दाग छोड़ देगा, और यह एक और गंभीर अपराध है। क्या अनेक दाग और अपराध जमा करना तुम्हारे लिए लाभदायक है? (नहीं।) नहीं, यह लाभदायक नहीं है। तो अपराधों का समाधान कैसे किया जा सकता है? पिछली बार मैंने “अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे” नामक अध्याय सुनाया था। इसका मतलब यह है कि अपराधों का सीधा संबंध व्यक्ति के अंत से होता है। जो लोग हमेशा अपराध करते हैं, उनके साथ क्या हो रहा है? उनमें से कुछ लोग कहते हैं, “यह जानबूझकर नहीं किया गया था। उस समय मेरा इरादा कुछ भी बुरा करने का नहीं था।” क्या यह एक अच्छा बहाना है? अगर तुम्हारा यह इरादा नहीं था, तो क्या यह अपराध नहीं था? क्या तुम्हें चिंतन करके पश्चात्ताप करने की आवश्यकता नहीं है? यह जानबूझकर नहीं किया गया था, तो क्या यह तब भी अपराध नहीं है? तुमने जानबूझकर ऐसा नहीं किया, लेकिन तुमने परमेश्वर के स्वभाव और प्रशासनिक आदेशों को ठेस पहुँचाई, क्या यह सच नहीं है? (हाँ, है।) यह एक तथ्य है, इसलिए यह एक अपराध था। बहाने बनाने से कोई फायदा नहीं। तुम कहते हो, “मैं उम्र में छोटा हूँ। मैं ज्यादा शिक्षित नहीं हूँ और मुझे समाज का ज्यादा अनुभव नहीं है। मैं नहीं जानता था कि यह गलत है—किसी ने मुझे नहीं बताया।” या तुम कहते हो, “स्थिति बहुत खतरनाक थी। मैंने यह काम आवेश में आकर कर दिया।” क्या ये अच्छे कारण हैं? इनमें से कोई भी अच्छा कारण नहीं है। अगर तुम्हारे पास अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने का अवसर है, तो तुम्हारे पास सत्य खोजने का भी अवसर है, और तुम्हें अपने कार्यों के लिए सत्य को एक सिद्धांत के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। तो जब तुम्हारे पास सत्य खोजने का अवसर था, तब तुमने अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना क्यों चुना? एक कारण तो यह है कि सत्य के बारे में तुम्हारी समझ बहुत उथली है और तुम आम तौर पर सत्य का अनुसरण करने और खुद को परमेश्वर के वचनों से सुसज्जित करने को महत्व नहीं देते। एक कारण और स्थिति और है, और वह भी सच है : तुम आम तौर पर अपने दिल में परमेश्वर या परमेश्वर के वचनों को रखे बिना काम करते हो। परमेश्वर के वचनों ने कभी तुम्हारे हृदय पर शासन नहीं किया है। तुम हठी होने के आदी हो, और आदतन सोचते हो कि तुम सही हो, आदतन हर मामले पर नियंत्रण रखते हो, और आदतन अपनी पसंद के अनुसार काम करते हो। तुम सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करने की प्रक्रिया और औपचारिकताएँ पूरी करते हो। परमेश्वर के वचनों का तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं है और वे उस पर शासन नहीं कर सकते। तुम जो कुछ भी करते हो, उसकी कमान संभालना तुम्हारे लिए स्वाभाविक है, और नतीजतन, तुम सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हो। क्या यह अपराध है? बेशक—यह एक अपराध है। तो फिर तुम बहाने क्यों बना रहे हो? कोई बहाना वैध नहीं है। अपराध तो अपराध है। अगर तुम कई अपराध करते हो, परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाते हो, और अंततः परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित करते हो, तो तुम्हारे उद्धार का मौका खत्म हो जाएगा। यह “अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे” की सटीक व्याख्या है; यह एक तथ्य है। यह लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के कारण होता है, जो तमाम तरह के व्यवहारों को जन्म देता है, जिससे उस मार्ग का निर्माण होता है जिस पर लोग चलते हैं। यह गलत मार्ग लोगों को अपना कर्तव्य निभाते समय अहम और नाजुक क्षणों में तमाम तरह के अपराध करने के लिए प्रेरित करता है। अगर तुमने बहुत ज्यादा अपराध किए हैं और वे जमा हो जाते हैं, तो फिर तुम्हारे उद्धार का अवसर तो हाथ से गया। लोग हमेशा अपराध क्यों करते हैं? मूल कारण यह है कि वे कभी परमेश्वर के वचनों से सुसज्जित नहीं होते या शायद ही कभी होते हैं, और वे शायद ही कभी परमेश्वर के वचनों या सत्य सिद्धांतों के आधार पर कुछ करते हैं—अंत में वे हमेशा अपराध करते हैं। जब लोग अपराध करते हैं, तो हमेशा खुद को माफ कर देते हैं और कारण और बहाने बना देते हैं, जैसे, “मेरा ऐसा करने का इरादा नहीं था। मेरे इरादे अच्छे थे। ऐसा इसलिए हो गया, क्योंकि स्थिति अत्यावश्यक थी। ऐसा इस शख्स की वजह से हुआ। यह तमाम तरह के वस्तुगत कारणों से हुआ। ...” चाहे कारण जो भी हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर कार्य नहीं करते, तो तुम परमेश्वर के प्रति अपराध और उसका विरोध करने के लिए उत्तरदायी होगे। यह एक निर्विवाद तथ्य है। इस तथ्य के अनुसार, तुम्हारा अंत वैसा ही होगा जैसा मैंने पहले कहा था : “अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे।” यही तुम्हारा अंत होगा। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ, मैं समझ रहा हूँ।)
कुछ लोगों का स्वभाव इतना अड़ियल होता है और वे इतने बेईमान होते हैं कि वे हमेशा ईर्ष्यापूर्वक सोचते हैं, “थोड़ा-सा अपराध कुछ मायने नहीं रखता। परमेश्वर लोगों को दंड नहीं देता। वह दयालु और प्रेममय है, और लोगों के प्रति क्षमाशील और धैर्यवान है। परमेश्वर का दिन अभी भी दूर है। मैं उसके द्वारा जारी इन सत्यों का अनुसरण बाद में कर लूँगा, जब मुझे अवसर मिलेगा। हालाँकि परमेश्वर ने ये वचन ईमानदार और अत्यावश्यक लहजे में कहे थे, लेकिन हमें परमेश्वर पर विश्वास करने और बचाए जाने के अभी भी बहुत सारे अवसर मिलेंगे।” वे हमेशा बेमुरौवत होते हैं, वे कभी वक्त की नजाकत नहीं समझते, उनमें परमेश्वर के प्रति उत्कट इच्छा या सत्य की प्यास नहीं होती। वे हमेशा अड़ियल दिल वाले होते हैं, और वे हमेशा सत्य को और परमेश्वर के वचनों की माँगों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर देते हैं। अगर वे अपना कर्तव्य ऐसे रवैये और इस अवस्था में निभाते हैं, तो अंततः क्या होगा? वे लगातार अपराध करेंगे और दाग लगवाएँगे! किसी व्यक्ति के लिए लगातार दाग लगवाना और अपराध करना, और फिर भी इसे गंभीरता से न लेना और इसके बारे में इतना बेपरवाह होना खतरनाक है। सिर्फ इसलिए कि परमेश्वर इस समय तुम्हारी निंदा नहीं करता, इसका मतलब यह नहीं है कि वह भविष्य में भी तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। संक्षेप में कहें तो ऐसी अवस्था में रहने वाला व्यक्ति खतरे में है। वह परमेश्वर के वचन, बचाए जाने का अवसर या अपना कर्तव्य निभाने का अवसर नहीं सँजोता, परमेश्वर द्वारा अपने लिए आयोजित हर स्थिति सँजोना तो दूर की बात है। वह हमेशा सुस्त और बेपरवाह रहता है, और हर चीज लापरवाह, ढीले और अनमने ढंग से करता है। ऐसा व्यक्ति खतरे में है। कुछ लोग अभी भी यह सोचते हुए अपने बारे में अच्छा महसूस करते हैं, “जब मैं कुछ करता हूँ, तो परमेश्वर मेरे साथ होता है, मेरे पास परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन है, कभी-कभी मेरे पास परमेश्वर का अनुशासन भी होता है, और वह मेरी प्रार्थनाओं में मेरे साथ होता है!” परमेश्वर का अनुग्रह प्रचुर है—निश्चित रूप से तुम्हारे आनंद लेने के लिए पर्याप्त है—तुम जो चाहो वह सब ले सकते हो और कभी उसका उपयोग नहीं करते, तो भी क्या? परमेश्वर का अनुग्रह सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता, और तुम्हारे परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे पास सत्य है। परमेश्वर के पास हर व्यक्ति के लिए दया है, लेकिन परमेश्वर की दया अति उदार नहीं है। परमेश्वर के पास मानव-जीवन और प्रत्येक सृजित प्राणी के लिए दया है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उसके कार्य में कोई सिद्धांत नहीं है, कि उसका स्वभाव धार्मिक नहीं है, और यह भी कि वह लोगों से जिन मानकों की अपेक्षा करता है और जिनसे वह उनका मूल्यांकन करता है, वे बदल जाएँगे। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) तुम्हें लगता है कि परमेश्वर तुमसे कभी नाराज नहीं हुआ है, परमेश्वर तुम्हारे प्रति हमेशा दयालु और विचारशील रहता है, और वह तुम्हारी बेहद परवाह करता है, तुमसे प्रेम करता है और तुम्हें बहुत सँजोता है। तुम परमेश्वर की गर्मजोशी, परमेश्वर का पोषण, परमेश्वर की सहायता, यहाँ तक कि परमेश्वर का पक्षपात और अनुग्रहशीलता भी महसूस करते हो। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर तुमसे सबसे ज्यादा प्रेम करता है, और भले ही वह दूसरों को त्याग दे, लेकिन तुम्हें कभी नहीं त्यागेगा। इसलिए तुम आत्मविश्वास से भरे हुए हो, और तुम्हें लगता है कि तुम्हारा सत्य का अनुसरण न करना, अपना कर्तव्य निभाते समय कष्ट न उठाना और कीमत न चुकाना, और स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश न करना उचित है। परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें नहीं त्यागेगा। क्या तुम्हारा यह दृढ़ विश्वास परमेश्वर के वचनों पर आधारित है? अगर किसी दिन तुम वास्तव में परमेश्वर की उपस्थिति महसूस न कर पाए, तो तुम्हारे दिल में घबराहट होगी और तुम सोचोगे, “क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है?” तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि तुम्हारा अंत क्या होगा। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और अत्यधिक आत्मतुष्ट हैं, उनका अंत बिल्कुल भी अच्छा नहीं होगा। लोगों से प्रेम करने और उन्हें सँजोने, लोगों पर दया करने, लोगों पर अनुग्रह करने, यहाँ तक कि लोगों के एक निश्चित अनुपात के साथ अनुकूल या दयालु व्यवहार करने में परमेश्वर का उद्देश्य और साथ ही इन कार्यों का सार निश्चित रूप से तुमसे लाड़ लड़ाना या तुम्हें खुश करना, या तुम्हें गलत मार्ग पर ले जाना या तुम्हें भटका देना, या तुम्हें सत्य या सच्चे मार्ग से विमुख कर देना नहीं है। यह सब करने में परमेश्वर का उद्देश्य तुम्हें सही मार्ग पर चलने में सहायता करना, तुम्हें उसके लिए जबरदस्त इच्छा रखने वाला दिल रखने के लिए प्रेरित करना, उसमें तुम्हारी आस्था बढ़ाना और फिर वास्तव में परमेश्वर का भय मानने वाला एक दिल विकसित करना है। अगर तुम हमेशा परमेश्वर के स्नेह का आनंद लेना चाहते हो और उसके प्रेमपात्र बने रहना चाहते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम गलत हो। तुम परमेश्वर के प्रेमपात्र नहीं हो, और तुम्हारे लिए उसकी दयालुता या पक्षपात निश्चित रूप से स्नेह या तुष्टि नहीं है। यह सब करने में परमेश्वर का उद्देश्य तुम्हें परमेश्वर के वचन सँजोने, सत्य स्वीकारने और उसके अनुग्रह और आशीषों से मजबूत होने में सक्षम बनाना है, ताकि तुममें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने और जीवन में सही मार्ग अपनाने की इच्छा और दृढ़ता हो। निस्संदेह, यह निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि जब परमेश्वर ये सत्य जारी करता है, तो समझो तुम्हें पोषण मिल गया, तुमने जीवन प्राप्त कर लिया और तुमने उसके प्रेम का आनंद ले लिया। अगर तुम परमेश्वर को उसकी दयालुता के लिए धन्यवाद दे सकते हो, अपने उचित स्थान पर मजबूती से खड़े हो सकते हो, परमेश्वर के वचनों से ज्यादा सुसज्जित हो सकते हो, उसके वचनों को ज्यादा सँजो सकते हो, अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य सिद्धांतों की खोज कर सकते हो, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने का प्रयास कर सकते हो, तो तुम उसे विफल नहीं करते। लेकिन अगर तुम अपने प्रति परमेश्वर की दयालुता और पक्षपात का लाभ उठाते हो, अपने प्रति उसकी करुणा की उपेक्षा करते हो, चीजें अपने तरीके से करने पर जोर देते हो, और मनमाने और लापरवाह ढंग से कार्य करते हो, सिवाय परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने और अपने बारे में अच्छा महसूस करने के कभी खुद को परमेश्वर के वचनों से सुसज्जित नहीं करते, सत्य के लिए प्रयास करने की इच्छा नहीं रखते, या परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को नहीं देखते, आचरण और कार्य नहीं करते, तो, जब तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते—अर्थात, जब तुम बार-बार परमेश्वर को निराश करते हो, तो तुम्हारे प्रति परमेश्वर का अनुग्रह, अनुकंपा और करुणा देर-सबेर समाप्त हो जाएगी। जिस दिन ये चीजें समाप्त हो जाती हैं, उसी दिन परमेश्वर अपना सारा अनुग्रह छीन लेता है। जब तुम परमेश्वर की उपस्थिति तक महसूस नहीं करते, तब तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम वास्तव में अंदर क्या महसूस करते हो। तुम्हारे अंदर अँधेरा होगा। तुम उदास और असहज, चिंतित और खोखले महसूस करोगे। तुम्हें लगेगा कि भविष्य अनिश्चित है। तुम भयभीत हो जाओगे और लगातार घबराए रहोगे। ये बहुत भयानक चीज है। इसलिए, लोगों को परमेश्वर ने उन्हें जो कुछ भी दिया है, उसे सँजोना सीखना चाहिए, जो कर्तव्य उन्हें निभाना चाहिए उसे सँजोना सीखना चाहिए, और साथ ही, यह भी जानना चाहिए कि प्रतिदान कैसे करना है। असल में, परमेश्वर का यह अनुरोध कि तुम प्रतिदान करो, इससे संबंध नहीं रखता कि तुम उसके प्रति कितना योगदान देते हो, या उसके लिए तुम्हारी गवाही कितनी शानदार है। परमेश्वर यही चाहता है कि तुम सही मार्ग पर चलो, उस मार्ग पर जिस पर वह तुम्हें चलाना चाहता है। लोगों के आनंद लेने के लिए परमेश्वर का अनुग्रह पर्याप्त है। वह लोगों को यह अनुग्रह प्रदान करने में कंजूसी नहीं करता, न ही वह लोगों को यह अनुग्रह प्रदान करने पर पछताएगा। अगर परमेश्वर किसी व्यक्ति को आशीष देता है और उसके प्रति दयालु होता है, तो वह हमेशा स्वेच्छा से ऐसा करता है। यह उसके सार, स्वभाव और पहचान का हिस्सा है। वह लोगों को ये चीजें देकर कभी अफसोस नहीं करता या पछतावे से नहीं भरता। लेकिन, मान लो, लोग अच्छे-बुरे में भेद करना या अनुग्रह को सराहना नहीं जानते। वे हमेशा परमेश्वर को नीचा दिखाते हैं और उसे बार-बार निराश करते हैं। चाहे परमेश्वर ने कितनी भी बड़ी कीमत चुकाई हो या कितने भी लंबे समय तक इंतजार किया हो, लोग फिर भी उसे अनदेखा करते हैं और उसके अच्छे इरादे नहीं समझते। लोग सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेना चाहते हैं—जितना ज्यादा मिल जाए, उतना बेहतर। चाहे वे परमेश्वर के कितने भी अनुग्रह और आशीषों का आनंद लेते हों, वे परमेश्वर का प्रेम लौटाना नहीं जानते, न ही अपना हृदय परमेश्वर को लौटाना और उसका अनुसरण करना जानते हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि अगर लोग परमेश्वर के साथ इस तरह व्यवहार करेंगे, तो वह संतुष्ट होगा? (नहीं।) परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए व्यक्ति को किस तरह का सच्चा रवैया रखना चाहिए? लोगों को पश्चात्ताप करना चाहिए, व्यावहारिक अभिव्यक्तियाँ दिखानी चाहिए और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। उन्हें विभिन्न कारणों और बहानों का सहारा नहीं लेना चाहिए। मानवजाति के लिए परमेश्वर का अनुग्रह, क्षमा और करुणा ऐसी पूँजी या ऐसे बहाने नहीं हैं, जिनमें लिप्त रहा जाए। चाहे परमेश्वर कुछ भी करे, या वह लोगों में जिस भी तरह के श्रमसाध्य प्रयास या विचार का निवेश करे, उसका सिर्फ एक ही अंतिम उद्देश्य होता है। वो यह है कि वह लोगों से सही मार्ग की ओर मुड़ने और उस पर चलने की आशा करता है। सही मार्ग क्या है? वह है सत्य का अनुसरण करना और उससे ज्यादा सुसज्जित होना। लोग जिस मार्ग पर चलते हैं, अगर वह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप है और उसकी कसौटी सत्य है, तो परमेश्वर लोगों में जो लागत लगाता है और उनसे जो अपेक्षाएँ रखता है, वे प्रतिफलित होंगी। क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर लोगों से ऊँची अपेक्षाएँ रखता है? (नहीं।) परमेश्वर लोगों से ऊँची अपेक्षाएँ नहीं रखता, और उसमें लोगों के लौटने का इंतजार करने के लिए पर्याप्त धैर्य और प्रेम है। जब तुम परमेश्वर की ओर मुड़ते हो, तो वह तुम्हें न सिर्फ कुछ अनुग्रह और आशीष प्रदान करेगा, बल्कि तुम्हारा पोषण भी करेगा, सत्य में, जीवन में और जिस मार्ग पर तुम चलते हो उस पर तुम्हारा समर्थन और मार्गदर्शन भी करेगा। परमेश्वर तुममें और भी बड़ा कार्य करेगा। वह इसी का इंतजार कर रहा है। इस कार्य को करने से पहले परमेश्वर अथक रूप से लोगों का मार्गदर्शन करता है, उनका समर्थन करता है और उन्हें अनुग्रह और आशीष प्रदान करता है। यह सब परमेश्वर का मूल इरादा नहीं था, न ही यह कुछ ऐसा है जो वह खास तौर पर करना चाहता है। लेकिन, उसके पास लोगों के लिए कोई भी कीमत चुकाने और इस कार्य को हर कीमत पर करने के लिए बाध्य होने के अलावा कोई चारा नहीं है। यह सब कार्य करने के बाद अंततः परमेश्वर जो चाहता है, वह यह देखना है कि लोग पीछे मुड़ सकें। अगर लोग उसके इरादे और सोच और यह बात समझ लें कि वह वास्तव में ऐसा क्यों करना चाहता है, तो वे उसकी सुंदरता पहचान लेंगे, उनका कुछ आध्यात्मिक कद हो जाएगा और वे बड़े हो जाएँगे। जब लोग परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए प्रत्येक सत्य के प्रति सावधान होना और उस पर कड़ी मेहनत करना और प्रत्येक सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर देते हैं, तो परमेश्वर प्रसन्न होता है। फिर उसे लोगों के साथ रहने और उन्हें सांत्वना देने, प्रेरित करने, प्रोत्साहित करने और नसीहत देने का सरल कार्य नहीं करना पड़ता। बल्कि, वह उन्हें सत्य, जीवन और उस मार्ग के संदर्भ में जिस पर वे चलते हैं, और ज्यादा प्रदान कर सकता है। वह लोगों पर ज्यादा बड़ा और ठोस कार्य कर सकता है। परमेश्वर ऐसा कार्य करना क्यों पसंद करता है? इसलिए कि ऐसा कार्य करते समय वह लोगों में आशा देखता है, उनका भविष्य देखता है और देखता है कि लोग दिल और दिमाग से उसके साथ जुड़े हुए हैं। यह लोगों और परमेश्वर दोनों के लिए एक बहुत बड़ी बात है, और ऐसी चीज है जिसकी वह लंबे समय से प्रतीक्षा कर रहा है। जब कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने का मार्ग अपनाता है, तो धीरे-धीरे उसके पास शैतान से लड़ने के लिए ज्यादा ताकत और वास्तविक आध्यात्मिक कद होगा और वह परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में अडिग रहेगा, और परमेश्वर को यह देखने की और ज्यादा आशा होगी कि उसके लिए एक और सृजित इंसान शैतान के विरुद्ध खड़ा है और लड़ रहा है। यह परमेश्वर की महिमा है। जैसे-जैसे लोगों का आध्यात्मिक कद बढ़ता है, वे ज्यादा मजबूत होते जाते हैं, ज्यादा से ज्यादा गवाही देते हैं और परमेश्वर से अधिकाधिक भयभीत और समर्पित होते जाते हैं, यानी इस बात की आशा होती है कि परमेश्वर विजेताओं का एक समूह प्राप्त करेगा और लोगों के माध्यम से और उनके बीच महिमामंडित होगा। क्या यह अच्छी चीज है? (हाँ, है।) परमेश्वर इसी की प्रतीक्षा करता है और यही तुमसे उसकी आशा और अपेक्षा है। वह काफी समय से इसका इंतजार कर रहा है। अगर लोग परमेश्वर के हृदय को समझें और उसके प्रति विचारशील हो पाएँ, तो वे उस पर काम करेंगे जो वह उनसे चाहता है, और उसके लिए कीमत चुकाएँगे जो वह उनसे कहता है। परमेश्वर जो करना चाहता है, उसमें वे सहयोग करेंगे, उसकी इच्छाएँ पूरी करेंगे और उसके दिल को सांत्वना देंगे। लेकिन अगर तुम ऐसा नहीं करना चाहते, तो परमेश्वर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा। तुम कहते हो, “मुझे यह क्यों नहीं चाहिए? मैं वह क्यों नहीं करना चाहता, जो परमेश्वर चाहता है? जब मैं परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के बारे में सोचता हूँ, तो मैं बेचैन, असहज और समर्पित होने के लिए अनिच्छुक महसूस क्यों करता हूँ?” तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने की आवश्यकता नहीं है; यह स्वैच्छिक है। तुम्हें चुनने का अधिकार है, और तुम स्वतंत्र हो। परमेश्वर लोगों को मजबूर नहीं करता। मैं तुम लोगों को यह सिर्फ इसलिए बता रहा हूँ, ताकि तुम लोग इस वास्तविकता को पूरी तरह से समझ सको कि परमेश्वर क्या करना चाहता है, तुम लोग क्या जिम्मेदारी निभाते हो और परमेश्वर तुम लोगों से क्या अपेक्षा करता है। क्या यह स्पष्ट है? (हाँ।) अच्छा है कि यह स्पष्ट है। अगर यह स्पष्ट है, तो लोगों के हृदय जागरूक हो जाएँगे। वे अंदर ही अंदर जान जाएँगे कि आगे किस चीज पर मेहनत करनी है, क्या करना है और उन्हें क्या कीमत चुकानी चाहिए; उनके पास दिशा होगी।
आज, मैंने नैतिक आचरण के बारे में इस कहावत पर संगति की, “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है।” पूर्व में, शैतान द्वारा प्रचारित नैतिक आचरण से संबंधित कई अन्य कहावतों पर संगति करने के बाद, इस कहावत को समझना थोड़ा आसान हो जाता है। चाहे नैतिक आचरण के बारे में कोई भी कहावत हो, शैतान मूल रूप से मानव-व्यवहार को बाँधने और नियंत्रित करने के लिए एक तरह के कथन का उपयोग करना और फिर समाज में एक प्रवृत्ति बनाना चाहता है। यह प्रवृत्ति बनाकर वह पूरी मानवता के दिमाग को गुमराह करना, नियंत्रित करना और कैद करना चाहता है और ऐसा करके पूरी मानवता को परमेश्वर के विरुद्ध कर देना चाहता है। लोगों के परमेश्वर के विरुद्ध होने के बाद शैतान यह देखना चाहता है कि परमेश्वर के पास लोगों पर कार्रवाई करने या कार्य करने का कोई उपाय नहीं है। यही वह लक्ष्य है जिसे शैतान हासिल करना चाहता है और यही उन सभी चीजों का सार है जो शैतान करता है। ये कथन व्यवहार के जिस पहलू का या जिन भी विचारों और दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करते हों, शैतान द्वारा प्रचारित नैतिक आचरण से संबंधित ये कहावतें, हर हाल में, सत्य से असंबद्ध हैं, और सत्य के विपरीत भी हैं। शैतान द्वारा प्रचारित नैतिक आचरण से संबंधित इन कहावतों से लोगों को कैसे निपटना चाहिए? एक बहुत ही सरल और मूल सिद्धांत यह है कि शैतान की ओर से आने वाला हर कथन ऐसा होता है, जिसे हमें उजागर करना चाहिए, जिसका विश्लेषण करना चाहिए और जिसे समझकर नकार देना चाहिए। चूँकि वे शैतान से आते हैं, इसलिए अगर हमारे दिल उन्हें समझ लें, तो हम उनकी निंदा कर उन्हें नकार सकते हैं। हम शैतान की चीजों को कलीसिया में मौजूद रहने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह करने, भ्रष्ट करने और परेशान करने नहीं दे सकते। यह लक्ष्य अवश्य प्राप्त किया जाना चाहिए, जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोग शैतान को नकार दें, और उनमें शैतान के पाखंडों और भ्रांतियों का एक भी संकेत न देखा जा सके। परमेश्वर के चुने हुए लोगों के दिलों पर इन पाखंडों और भ्रांतियों के बजाय परमेश्वर के वचनों और सत्य को राज करना चाहिए और उनका जीवन बनना चाहिए। परमेश्वर ऐसी ही मानवजाति प्राप्त करना चाहता है। हम आज की संगति यहीं समाप्त करते हैं।
9 जुलाई 2022
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