सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (14) भाग दो
जिन घटनाओं को तुम अपने आस-पास घटित होते हुए देखते हो, उन्हें चाहे मनुष्य अच्छी मानता हो या बुरी, वे तुम्हारी इच्छा के अनुसार हों या नहीं, वे तुम्हें खुशी और आनंद देती हों या दुःख और दर्द, तुम्हें उन्हें ऐसे लोगों, घटनाओं और चीजों के रूप में लेना चाहिए जिनसे सबक सीखे जा सकते हैं और जिनमें सत्य खोजे जा सकते हैं, और तुम्हें उन्हें परमेश्वर से आने वाली चीजों के रूप में देखना चाहिए। वे चीजें संयोग से नहीं होतीं, मनुष्य के कारण नहीं होतीं, वे किसी व्यक्ति के कारण नहीं होतीं, और वे कोई ऐसी चीज नहीं हैं जिसे कोई व्यक्ति नियंत्रित कर सके। बल्कि, यह परमेश्वर ही है जो इन सभी चीजों पर शासन करता है; परमेश्वर इन सभी चीजों का आयोजन और व्यवस्था करता है। किसी भी घटना का घटित होना मानवीय इच्छा पर निर्भर नहीं है, ऐसा नहीं है कि कोई भी व्यक्ति केवल अपनी इच्छा से किसी घटना को नियंत्रित कर सकता है। परमेश्वर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रकटन, विकास और रूपांतरण की पूरी प्रक्रिया को तब तक शासित और आयोजित करता है जब तक कि वे अपने अंतिम परिणाम तक नहीं पहुँच जातीं। यदि तुम्हें इस पर विश्वास नहीं है, तो मेरे द्वारा बताए गए वचनों और सिद्धांतों के अनुसार चीजों का अनुभव और निरीक्षण करने का प्रयास करो। देखो कि क्या जो मैं कहता हूँ वह सच है। देखो कि क्या यह कथन, “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,” जिस पर तुम विश्वास करते हो सही है या फिर यह कथन, “परमेश्वर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रकटन और विकास को तब तक शासित और आयोजित करता है, जब तक वे अपने अंतिम परिणाम तक नहीं पहुँच जातीं,” सही है। देखो कि इन दोनों कथनों में से कौन-सा सही है, कौन-सा तथ्यों के अनुरूप है, किससे लोग शिक्षा और लाभ पाते हैं, और कौन-सा लोगों को परमेश्वर को जानने और उसमें असली विश्वास रखने में सक्षम बनाता है। जब तुम अपने आस-पास होने वाली हर चीज का इस दृष्टिकोण और रवैये के साथ अनुभव करते हो कि परमेश्वर हर चीज पर शासन और उसका आयोजन करता है, तो चीजों पर तुम्हारा दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य पूरी तरह से अलग होगा। यदि तुम सभी चीजों और मामलों को, “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,” इस कथन के नजरिए से ही देखने पर अड़े रहते हो तो इसे आसान तरीके से कहें तो, जब तुम पर कोई विपत्ति आएगी, तो तुम सत्य सिद्धांतों को खोजने और परमेश्वर के वचनों के आधार पर उसके इरादे समझने के बजाय स्वाभाविक रूप से और न चाहते हुए भी सही और गलत के विचार में उलझ जाओगे, लोगों को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश करोगे, और विभिन्न घटनाओं के कारणों, विभिन्न मामलों में प्रतिकूल परिणाम देने वाले कारकों आदि का विश्लेषण करने लगोगे। “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,” इस कथन पर तुम जितना अधिक विश्वास करोगे, उतना ही अधिक छद्म-विश्वासियों के विचार तुम पर हावी होंगे। तब तुम्हारे द्वारा अनुभव की जाने वाली हर चीज का अंतिम परिणाम सत्य के विरोधाभास में रहने लगेगा, और परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास केवल एक सिद्धांत या नारा बनकर रह जाएगा। उस समय तक तुम पूर्ण रूप से एक छद्म-विश्वासी बन चुके होगे। दूसरे शब्दों में, “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,” इस कथन पर तुम जितना अधिक विश्वास करोगे, उतना ही अधिक तुम छद्म-विश्वासी साबित होगे। यदि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर या परमेश्वर के वचन नहीं हैं, यदि तुम परमेश्वर के किसी भी वचन, सत्य या सकारात्मक चीज को बिल्कुल भी मानते या स्वीकार नहीं करते, यदि उनका तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं है, तो तुम्हारी आत्मा की गहराई पर पूरी तरह से शैतान ने कब्जा कर लिया है, उसमें क्रमिक विकास और भौतिकवाद के विचार भर दिए गए हैं, जो सभी दानवों और शैतान के दानवी शब्द हैं। तुम उन सभी तथ्यों पर विश्वास करते हो जिन्हें तुम अपनी आँखों से देखते हो, लेकिन तुम यह नहीं मानते कि जो ब्रह्मांड में हर चीज पर शासन करता है, जिसे कोई भी व्यक्ति नहीं देख सकता, उसका वास्तव में अस्तित्व है। यदि तुम हर चीज को “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” के परिप्रेक्ष्य से देखते हो, तो तुम शैतान और भौतिकवादियों से बिल्कुल भी अलग नहीं हो। लेकिन अगर तुम हर चीज को इस नजरिए से देखते हो कि “दुनिया में हर चीज को परमेश्वर शासित और आयोजित करता है” तो भले ही तुम कुछ चीजों को स्पष्ट रूप से न देख पाओ, लेकिन तुम उन विशिष्ट घटनाओं के बारे में उत्तर खोज पाओगे जिन्हें तुम अपने आस-पास घटित होते हुए देखते हो, मामले की जड़ की तलाश कर पाओगे, और परमेश्वर के वचनों में समस्या का सार और सत्य खोज पाओगे। तुम यह नहीं जाँच रहे होगे कि कौन सही था और कौन गलत, तुम केवल किसी को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश नहीं कर रहे होगे; इसके बजाय, तुम मामले की तुलना परमेश्वर के वचनों से कर पाओगे, समस्या की जड़ का पता लगाओगे, मुद्दे के मर्म की पहचान करोगे, और यह पता लगाओगे कि लोग कहाँ असफल हुए, उनमें क्या कमी थी, उन्होंने कैसा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया, वे विद्रोही कैसे थे, और पूरे घटनाक्रम के दौरान उनके कौन से पहलू परमेश्वर के साथ असंगत थे। तुम यह पता लगाने में सक्षम होगे कि उन चीजों को करने में परमेश्वर के इरादे और लक्ष्य क्या थे, वह लोगों में क्या प्राप्त करना चाहता था, वह कैसे परिणाम प्राप्त करना चाहता था, वह क्या चाहता था कि लोग कौन-से लाभ प्राप्त करें, और कौन-से सिद्धांतों का पालन करें। जब तुम किसी विशिष्ट घटना को इन दृष्टिकोणों से समझोगे और देखोगे तो तुम्हारी आंतरिक अवस्था बदल जाएगी। चीजों पर तुम्हारा दृष्टिकोण अनजाने में ही परमेश्वर के वचनों द्वारा मार्गदर्शित और निर्देशित होगा। तुम अनजाने में ही परमेश्वर के वचनों में प्रबोधन और दिशा और साथ ही वे सत्य सिद्धांत प्राप्त करोगे जिनका ऐसे मामले सामने आने पर तुम्हें पालन और अभ्यास करना चाहिए। जब तुम वास्तव में इन सत्य सिद्धांतों में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारा परमेश्वर पर सच्चा विश्वास और निर्भरता होगी, तुम ईमानदारी से प्रार्थना और याचना करोगे, तुममें सच्चा समर्पण होगा, और तुम सत्य सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास करने में सक्षम होगे—इसका अंतिम परिणाम क्या होगा? पूरे घटनाक्रम के दौरान, तुम मामले की सच्चाई को स्पष्ट रूप से देखोगे, सबक सीखोगे, स्वयं पर पड़ने वाली हर चीज को सही ढंग से समझ पाओगे, और यह देख पाओगे कि यह परमेश्वर की व्यवस्था से हो रहा है, और इसमें परमेश्वर की सद्भावना समाहित है। और इस तरह, जैसा कि लोग अक्सर कहते हैं, तुम “बुरी चीज से एक अच्छी चीज बना लोगे,” तुम स्वाभाविक रूप से हर उस घटना को सकारात्मक तौर पर लेने में सक्षम होगे जिसकी लोग निंदा, भर्त्सना करते और जिससे वे घृणा करते हैं, और यह स्वीकार करने में सक्षम होगे कि यह परमेश्वर द्वारा शासित और व्यवस्थित है, और इसे परमेश्वर से स्वीकार किया जाना चाहिए। तुम इसे एक ऐसी चीज के रूप में देखोगे जिसमें परमेश्वर के श्रमसाध्य प्रयास, उसके इरादे और उसकी अपेक्षाएँ शामिल हैं। इसका अनुभव करने की प्रक्रिया में, तुम अनजाने में ही समझ जाओगे कि पूरे मामले के आयोजन में परमेश्वर के इरादे क्या थे। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम उसके इरादे समझ जाओगे, और जब ऐसा हो जाएगा, तब तुम सहज ही इसमें समाहित सत्यों को समझ जाओगे, और तुम इस पूरे घटनाक्रम में शामिल सभी लोगों और मामलों को समझने में सक्षम होगे। यदि, पूरे घटनाक्रम के दौरान, तुम समस्या को “दुनिया में हर चीज को परमेश्वर शासित और आयोजित करता है” के परिप्रेक्ष्य से देखते हो, तो इससे तुम्हें बहुत लाभ होगा। तुम सत्य को, परमेश्वर में सच्चे विश्वास को और इस बात की समझ को प्राप्त कर लोगे कि सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता है। तुम इस मामले में परमेश्वर के नेक इरादों और श्रमसाध्य विचारों को समझोगे। निःसंदेह, तुम्हें “परमेश्वर सर्वव्यापी है” वाक्यांश की समझ और अनुभव भी प्राप्त होगा, जो पहले केवल तुम्हारी चेतना में मौजूद था। यदि पूरे घटनाक्रम के दौरान, तुम समस्या को “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” के नजरिए से देखते हो, तो तुम शिकायत करोगे, परमेश्वर की उपेक्षा करोगे, और तुम्हें लगेगा कि परमेश्वर बहुत दूर और अस्पष्ट है। यह शब्द “परमेश्वर,” परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर का सार और परमेश्वर की इच्छा से संबंधित सब कुछ बहुत दूर और खोखला प्रतीत होगा। तुम मानोगे कि संपूर्ण घटनाक्रम का घटना, उसका विकास और परिणाम, सब कुछ मानवीय हेरफेर पर निर्भर था, और पूरे मामले में मानवीय कारक समाए हुए हैं। इसलिए तुम लगातार यह सोचते हुए इन बातों पर मनन करते रहोगे कि “इस स्तर पर गलती किसने की? उस स्तर पर किसकी लापरवाही से नुकसान हुआ? इस चरण को किसने बाधित, अवरोधित और बरबाद किया? मैं यह सुनिश्चित करूँगा कि वे इसकी कीमत चुकाएँ।” तुम व्यक्तियों और मामलों पर ध्यान केंद्रित करोगे, लगातार सही और गलत की दुनिया में रहोगे, जबकि परमेश्वर के वचनों, सत्य, जिम्मेदारियों, कर्तव्यों और उन दायित्वों की पूरी तरह उपेक्षा करोगे जिन्हें सृजित प्राणियों द्वारा पूर्ण किया जाना चाहिए, और साथ ही उन दृष्टिकोणों और स्थितियों की भी उपेक्षा करोगे जिन्हें तुम्हें कायम रखना चाहिए। तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। पूरे घटनाक्रम के दौरान, न तो तुम्हारे और परमेश्वर के बीच, और न ही तुम्हारे और परमेश्वर के वचनों के बीच कोई संबंध रहेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी परिस्थिति का सामना होने पर तुम केवल लोगों और चीजों पर ध्यान केंद्रित करोगे। तुम उस मामले की तुलना करने के लिए एक भी ऐसा शब्द नहीं सोच पाओगे जो सत्य के अनुरूप हो, न ही कोई सत्य कथन सोच पाओगे जो परमेश्वर से आता हो, तुम परिस्थिति के विश्लेषण के लिए इसका आधार के तौर पर प्रयोग नहीं कर सकोगे, तुम परिस्थिति से सबक नहीं सीखोगे या कोई समझ हासिल नहीं करोगे, तुम अपने विश्वास को मजबूत नहीं करोगे, या परमेश्वर को नहीं जान पाओगे। तुम इसमें से कुछ भी नहीं करोगे। पूरे घटनाक्रम के दौरान, तुम “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,” इस लोकप्रिय कथन से ही चिपके रहोगे, जो, अधिक सटीक रूप से कहें तो, छद्म-विश्वासियों का तर्क और दृष्टिकोण है। इसके विपरीत, मान लो कि घटना की शुरुआत से ही, तुम उसे एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से स्वीकार कर सकते हो, बिना यह जाँचे कि कोई व्यक्ति सही है या गलत, बिना किसी व्यक्ति या वस्तु का अत्यधिक विश्लेषण किए, और बिना लोगों और चीजों पर ध्यान केंद्रित किए। मान लो कि इसके बजाय तुम सक्रिय रूप से परमेश्वर के वचनों में उत्तर खोजते हो, प्रार्थना करने सक्रिय रूप से परमेश्वर के सामने आते हो और उस पर भरोसा करते हो, और परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन माँगते हो, जिससे परमेश्वर अपना कार्य और आयोजन कर पाता है। मान लो कि तुम्हारा दृष्टिकोण परमेश्वर के प्रति भय और समर्पण का है, सत्य के प्रति तृष्णा और परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग का है—यह एक छद्म-विश्वासी का दृष्टिकोण और रवैया नहीं है, बल्कि वह दृष्टिकोण और रुख है जो परमेश्वर के एक सच्चे अनुयायी का होना चाहिए। ऐसे दृष्टिकोण और रुख के साथ, तुम अनजाने में वह हासिल कर लोगे जो तुमने पहले कभी अनुभव नहीं किया है, जो कि वे सत्य वास्तविकताएँ हैं जो तुम्हारे पास पहले नहीं थीं। सत्य की ये वास्तविकताएँ वास्तव में वे प्रभाव हैं जिन्हें परमेश्वर संपूर्ण घटनाक्रम पर अपनी संप्रभुता के माध्यम से तुममें प्राप्त करना चाहता है। यदि परमेश्वर जो हासिल करना चाहता है, उसे पा लेता है, तो उसका कार्य व्यर्थ नहीं जाएगा क्योंकि तब उसने तुममें वांछित प्रभाव प्राप्त कर लिए होंगे। ये प्रभाव क्या हैं? परमेश्वर चाहता है कि तुम देखो कि वास्तव में क्या चल रहा है, यह कि कुछ भी संयोग से नहीं होता है, न ही लोगों के कारण होता है, बल्कि सब परमेश्वर के नियंत्रण में है। परमेश्वर चाहता है कि तुम उसके वास्तविक अस्तित्व का अनुभव करो और इस तथ्य को समझो कि वह संप्रभु है और सभी चीजों का भाग्य उसी के द्वारा आयोजित है और यह एक तथ्य है, कोई खोखला कथन नहीं।
यदि, अपने अनुभवों के माध्यम से, तुम्हें वास्तव में इस तथ्य का एहसास होता है कि परमेश्वर हर चीज पर शासन करता है और वह सभी चीजों के भाग्य को आयोजित करता है, तो तुम अय्यूब की तरह यह वक्तव्य देने में सक्षम होगे : “मैं ने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं; इसलिये मुझे अपने ऊपर घृणा आती है, और मैं धूल और राख में पश्चाताप करता हूँ” (अय्यूब 42:5-6)। क्या यह एक अच्छा वक्तव्य है? (हाँ।) यह वक्तव्य सुनकर बहुत अच्छा लगता है, और यह प्रेरक है। क्या तुम इस वक्तव्य की सत्यता का अनुभव करना चाहते हो? क्या तुम समझना चाहते हो कि जब अय्यूब ने ये शब्द कहे तो उसे कैसा महसूस हुआ? (हाँ।) क्या यह महज एक सामान्य इच्छा है, या कोई प्रबल इच्छा? (प्रबल इच्छा।) संक्षेप में, तुम्हारे पास इस प्रकार का संकल्प और इच्छा है। तो यह इच्छा कैसे पूरी हो सकती है? वैसे ही जैसे मैंने पहले कहा था। तुम्हें एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है, और जरूरत है कि तुम उन सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को जिनका तुमसे सामना होता है, उन्हें यह मानने के परिप्रेक्ष्य से देखो कि परमेश्वर सभी चीजों का शासक है और हर चीज को नियंत्रित और आयोजित करता है। तुम्हें इससे सबक सीखने चाहिए, परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें उसके इरादों को समझना चाहिए, और यह पहचानना चाहिए कि परमेश्वर तुममें क्या हासिल और पूर्ण करना चाहता है। ऐसा करने से, जल्द ही एक दिन, और निकट भविष्य में, तुम भी वैसा ही महसूस करोगे जैसा अय्यूब ने ये शब्द कहते हुए किया था। जब मैं तुम लोगों को यह कहते हुए सुनता हूँ कि तुम वास्तव में अनुभव करना चाहते हो कि जब अय्यूब ने ये शब्द बोले तो उसे कैसा महसूस हुआ था, तो मुझे पता है कि 99 प्रतिशत से अधिक लोगों ने पहले कभी ऐसी भावों का अनुभव नहीं किया है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि तुम लोगों ने कभी एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से नहीं देखा और इस तथ्य का अनुभव नहीं किया है कि सृष्टिकर्ता सभी चीजों पर शासन करता है और हर चीज को नियंत्रित करता है, जैसा कि अय्यूब ने किया था। यह सब मानवीय अज्ञानता, मूर्खता और विद्रोह के कारण है और साथ ही शैतान द्वारा गुमराह किए जाने और उसके भ्रष्टाचार के कारण है, जिसके कारण लोग अनजाने में अपने साथ होने वाली हर चीज को एक छद्म-विश्वासी के दृष्टिकोण से तोलते और देखते हैं और यहाँ तक कि अपने आस-पास होने वाली हर चीज को गैर-विश्वासियों द्वारा आमतौर पर प्रयुक्त कुछ विधियों और सैद्धांतिक आधारों से देखने और पहचानने की कोशिश करते हैं। अंततः वे जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हैं उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता, कुछ तो सत्य के विपरीत भी होते हैं। इससे दीर्घावधि में लोग इस तथ्य का अनुभव नहीं कर पाते कि सृष्टिकर्ता सभी चीजों पर शासन और उन्हें नियंत्रित करता है, और उस भाव को भी महसूस नहीं कर पाते जिसका एहसास अय्यूब को ये शब्द कहने पर हुआ था। यदि तुम अय्यूब जैसे परीक्षणों से गुजरे हो, फिर चाहे वे बड़े हों या छोटे, और तुमने यह महसूस किया है कि परमेश्वर कार्यरत है और उन कार्यों में परमेश्वर की संप्रभुता है, यदि तुमने शासन करने और इन मामलों के आयोजन में परमेश्वर के विशिष्ट इरादों को भी पहचान लिया है, साथ ही उस तरीके को भी जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए, तो अंत में, तुम अन्य चीजों के साथ-साथ उन सकारात्मक प्रभावों को अनुभव करने में सक्षम होगे जो परमेश्वर पूरे घटनाक्रम के दौरान तुममें प्राप्त करना चाहता था, परमेश्वर के नेक इरादों और तुमसे जुड़ी अपेक्षाओं को भी अनुभव करने में सक्षम होगे। तुम्हें ये सब अनुभव होगा। जब तुम यह सब अनुभव करोगे, तो तुम केवल इतना ही विश्वास नहीं करोगे कि परमेश्वर सत्य बोल सकता है और तुम्हें जीवन प्रदान कर सकता है, बल्कि तुम्हें ठोस तरीके से यह एहसास होगा कि सृष्टिकर्ता का वास्तव में अस्तित्व है, और तुम्हें इस तथ्य का भी एहसास होगा कि सृष्टिकर्ता ने सभी चीजों को बनाया है और वह उन पर शासन करता है। इन सभी चीजों के अनुभव के दौरान, परमेश्वर और सृष्टिकर्ता में तुम्हारा विश्वास बढ़ जाएगा। साथ ही, इससे तुम्हें इस तथ्य का एहसास होगा कि तुमने वास्तव में सृष्टिकर्ता के साथ बातचीत की है, और यह परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास, तुम्हारे भरोसे, परमेश्वर का अनुसरण करने के तुम्हारे तरीके और इस तथ्य की मूर्त और पूर्ण रूप से पुष्टि करेगा कि परमेश्वर का सब पर शासन है और वह सर्वव्यापी है। यह पुष्टि होने और इसका एहसास हो जाने पर, तुम लोग क्या सोचते हो कि तुम्हारा हृदय खुशी और आनंद से भर जाएगा या फिर दुःख और दर्द से? (खुशी और आनंद से।) निश्चित रूप से खुशी और आनंद से! भले ही तुमने पहले कितना भी दुःख और दर्द अनुभव किया हो, वह धुएँ के गुबार की तरह छँट जाएगा, और तुम्हारा हृदय खुशी से पागल हो जाएगा, तुम आनंद मना रहे होगे और खुशी से उछल रहे होगे। जब तुम देखोगे कि सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य की वास्तव में पुष्टि हो गई है और तुम्हें अपने भीतर इसका अनुभव हुआ है, तो यह वास्तव में तुम्हारे परमेश्वर से आमने-सामने मिलने और उससे बातचीत करने के बराबर होगा। उस समय, तुम्हें वैसा ही महसूस होगा जैसा अय्यूब को हुआ था। उस समय अय्यूब ने क्या कहा था? (“मैं ने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं; इसलिये मुझे अपने ऊपर घृणा आती है, और मैं धूल और राख में पश्चाताप करता हूँ।”) अय्यूब ने अतीत के प्रति अपनी घृणा व्यक्त करने के लिए बाहरी तौर पर खुद से घृणा और पश्चात्ताप के व्यवहार और कार्यों का सहारा लिया, लेकिन वास्तव में, हृदय की गहराई में, वह खुश और आनंदमय था। क्यों? क्योंकि उसने अप्रत्याशित रूप से सृष्टिकर्ता का चेहरा देख लिया था, वह उससे आमने-सामने मिला था, और एक घटना में, एक सामान्य और संयोग से हुई घटना में, उसका परमेश्वर से सामना हो गया था। मुझे बताओ, कौन-सा सृजित प्राणी, परमेश्वर का कौन-सा अनुयायी परमेश्वर को देखने को लालायित नहीं होता? जब ऐसी स्थिति आती है, जब ऐसी घटना घट जाती है, तो कौन खुश नहीं होगा, कौन उत्साहित नहीं होगा? हर कोई उत्साहित होगा; वह उत्साहित और आनंदित महसूस करेगा। यह कुछ ऐसा होगा जिसे वह जब तक जीवित रहेगा, कभी नहीं भूलेगा, और यह याद रखने लायक चीज है। इस बारे में सोचो, क्या इसके अनेक फायदे नहीं हैं? मुझे आशा है कि भविष्य में, तुम लोग वास्तव में यह भाव महसूस करोगे, इस तरह का अनुभव प्राप्त करोगे, और तुम लोगों का ऐसा आमना-सामना होगा। जब कोई व्यक्ति वास्तव में परमेश्वर का चेहरा देखता है और वास्तव में उन्हीं भावों का अनुभव करने में सक्षम होता है जो अय्यूब ने महसूस किए थे जब उसने यहोवा परमेश्वर को सामने पाया था, तो यह परमेश्वर में उनके विश्वास में एक मील का पत्थर बन जाता है। यह कितनी अद्भुत बात है! प्रत्येक व्यक्ति ऐसे परिणाम और ऐसी स्थिति की आशा करता है, और हर कोई इसका अनुभव करने और वैसा आमना-सामना होने की आशा करता है। चूँकि तुम्हें ऐसी उम्मीदें हैं, इसलिए अपने आस-पास होने वाली हर चीज का अनुभव करते समय तुम्हें सही दृष्टिकोण और रुख रखना चाहिए, हर चीज को उस तरीके से अनुभव करना और समझना चाहिए जिस तरह से परमेश्वर सिखाता और निर्देश देता है, परमेश्वर से सब कुछ स्वीकार करना सीखना चाहिए और सत्य को अपनी कसौटी मानकर हर चीज को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना चाहिए। इस तरह, तुम्हें एहसास भी नहीं होगा और तुम्हारा विश्वास निरंतर बढ़ता जाएगा, और यह तथ्य कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है और हर चीज पर शासन करता है, धीरे-धीरे तुम्हारे हृदय में पुष्ट और सत्यापित हो जाएगा। जब यह सब तुममें पुष्ट हो जाएगा, तो क्या तुम तब भी अपने आध्यात्मिक कद के न बढ़ने की चिंता करोगे? (नहीं।) लेकिन अभी थोड़ा चिंतित होना तुम्हारे लिए सामान्य है, क्योंकि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें तुम नहीं समझ सकते—तुम्हारे लिए चिंता न करना असंभव होगा, यह कुछ ऐसा है जिसे तुम टाल नहीं सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के भीतर बहुत-सी चीजें हैं जो ज्ञान, मनुष्य, शैतान, समाज इत्यादि से आती हैं। ये सभी चीजें उन दृष्टिकोणों को जिनसे लोग परमेश्वर के पास आते हैं और विभिन्न चीजों का अनुभव करते समय उन्हें कैसा दृष्टिकोण और रुख अपनाना चाहिए, इसको गहराई से प्रभावित करती हैं। इसलिए, जब चीजें तुम्हारे सामने आएँ तो सही रुख और परिप्रेक्ष्य रखने में सक्षम होना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए तुम्हें न केवल सकारात्मक, बल्कि नकारात्मक चीजों का भी अनुभव करना होगा। इन नकारात्मक चीजों का सार समझने और पहचानने से, तुम और अधिक सबक सीखोगे और परमेश्वर के कार्यों और सभी चीजों पर शासन करने में उसकी सर्वशक्तिमत्ता और प्रज्ञा को समझ पाओगे।
अब, क्या तुम पूरी तरह से समझते हो कि यह कथन “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” गलत है? (हाँ, हम समझते हैं।) क्या इस कथन के कोई सही पहलू हैं? क्या कोई वैध तत्व हैं? (नहीं हैं।) कोई भी नहीं? (कोई भी नहीं।) यह समझना सही है कि इसके कोई वैध पहलू नहीं हैं। यह एक सैद्धांतिक समझ है। फिर, वास्तविक जीवन में, अवलोकन और अनुभव के माध्यम से, तुम पाओगे कि यह कथन “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” गलत, बेतुका और छद्म-विश्वासियों का दृष्टिकोण है। जब तुम्हें इस तथ्य का पता चलता है, और तुम इस कथन में त्रुटि प्रदर्शित करने के लिए तथ्यों का उपयोग कर सकने में सक्षम होते हो, तो तुम इसे पूरी तरह से त्याग दोगे और खारिज कर दोगे, और फिर इसका प्रयोग नहीं करोगे। तुम अभी इस बिंदु तक नहीं पहुँचे हो। हालाँकि तुमने मेरी बात स्वीकार कर ली है, लेकिन बाद में जब परिस्थितियों का सामना होगा, तो तुम विचार करोगे, “उस समय मैंने सोचा था कि ‘सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,’ इस कथन में कुछ भी सही नहीं है, तो अब मुझे क्यों लगता है कि यह थोड़ा तो सही है?” तुम अंदर-ही-अंदर संघर्ष करना शुरू कर दोगे और फिर से विरोधाभासों का अनुभव करने लगोगे। तो फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, तुम्हें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। उन सभी विचारों और दृष्टिकोणों से स्वयं को मुक्त कर दो जो इस कथन पर कायम रहने से उत्पन्न होते हैं। इस कथन से उत्पन्न होने वाले सभी कार्य बंद कर दो। लोगों या मामलों पर ध्यान केंद्रित मत करो। पहले परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करो, फिर परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत खोजो। खोज की प्रक्रिया में, तुम अनजाने में प्रबोधन प्राप्त करोगे और सत्य समझ जाओगे। स्वयं सिद्धांतों की खोज करना तुम्हारे लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है, इसलिए मामले में शामिल सभी लोगों को इकट्ठा करो और परमेश्वर के वचनों के भीतर आधार और सत्य सिद्धांतों की मिलकर खोज करो। फिर प्रार्थना-पाठ करो, परमेश्वर के संबंधित वचनों पर संगति करो, और तुलना के लिए उन्हें देखो। परमेश्वर के वचनों से तुलना करने के बाद, सही दृष्टिकोणों को स्वीकार करो और गलत दृष्टिकोण स्वाभाविक रूप से छूट जाएँगे। तब से, इन सिद्धांतों के अनुसार मुद्दों को हल करो और उनसे निपटो। यह विधि सुनने में कैसी लगती है? (अच्छी।) सत्य की खोज की प्रक्रिया में, तुम्हें उन कार्यों को छोड़ देना चाहिए जो “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” के दृष्टिकोण से उत्पन्न होते हैं। परमेश्वर के इससे संबंधित वचन खोजो और परमेश्वर के वचनों के आधार पर समस्याओं का समाधान करो और उनसे निपटो। सत्य की खोज करने और समस्याओं का इस प्रकार समाधान करने से तुम्हारे गलत दृष्टिकोणों का समाधान हो जायेगा। यदि तुम चीजों से परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर निपटते हो, तो मामलों से निपटने का तुम्हारा तरीका और दृष्टिकोण तदनुसार बदल जाएगा। नतीजतन, मामले का नतीजा सही दिशा में आगे बढ़ेगा। लेकिन, समस्याओं को हल करने और मामलों से निपटने में “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” के परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण का उपयोग करने से वह घातक दिशा में आगे बढ़ेगा। उदाहरण के लिए, जब मसीह-विरोधी कलीसिया में लोगों को गुमराह करते हैं, तब यदि लोग सत्य की तलाश नहीं करते, बल्कि केवल लोगों और मामलों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, सही और गलत पर चर्चा करते हैं और लोगों को जवाबदेह ठहराते हैं, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि वे कुछ व्यक्तियों से निपटकर मामले को हल हुआ समझ लेंगे। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुमने कहा था कि यह एक घातक दिशा में आगे बढ़ रहा है, लेकिन मैंने कोई घातक परिणाम नहीं देखा है। मसीह-विरोधियों को निष्कासित कर दिया गया है, तो क्या समस्या हल नहीं हो गई है? घातक परिणाम कहाँ है?” क्या इस अनुभव से सभी ने कोई सबक सीखा? क्या इससे उन्होंने सत्य समझा? क्या वे मसीह-विरोधियों को पहचान सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के इरादे समझते हैं? क्या उन्हें परमेश्वर की संप्रभुता का एहसास हो गया? इनमें से कोई भी सकारात्मक प्रभाव नहीं हुआ। इसके विपरीत, लोग शैतानी दर्शन के अनुसार जीना जारी रखते हैं, एक-दूसरे पर अविश्वास करते हैं और एक-दूसरे से सावधान रहते हैं, और एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालते हैं। जब किसी स्थिति से सामना होता है, तो वे केवल खुद को बचाने के लिए तुरंत अपनी रक्षा करते हैं। वे जिम्मेदारी लेने और निपटे जाने से डरते हैं। वे कोई सबक नहीं सीखते और परमेश्वर से कुछ भी स्वीकार नहीं करते, परमेश्वर के इरादों का पता लगाना तो दूर की बात है। क्या लोग इस तरह से जीवन में आगे बढ़ सकते हैं? अंततः, लोग केवल यही जान पाते हैं कि वे अपने अगुआओं के सामने क्या कर सकते हैं या क्या नहीं, उन्हें खुश करने के लिए क्या कहें और क्या करें और कौन-सी कथनी-करनी से वे उनसे नाराज होंगे और उन्हें नापसंद करेंगे। परिणामस्वरूप, लोग एक-दूसरे के प्रति सतर्क हो जाते हैं, अपने ही दायरे में रहने लगते हैं, छद्म वेश धारण कर लेते हैं, और कोई भी खुलकर व्यवहार नहीं करता। इस तरह अपने दायरे में और सतर्क तथा भेष बदलकर जीते हुए, क्या लोग परमेश्वर के सामने आए हैं? नहीं, वे नहीं आए हैं। कई चीजों का अनुभव करने के बाद, लोग परिस्थितियों से बचना सीख जाते हैं, और वे दूसरों के साथ बातचीत करने और समस्याओं का सामना करने से डरते हैं। अंत में, वे स्वयं को पूरी तरह से अपने दायरे में कैद कर लेते हैं, किसी के सामने नहीं खुलते, और उनके हृदय परमेश्वर से रहित हो जाते हैं। इस तरह से परमेश्वर पर विश्वास करना पूरी तरह से शैतानी दर्शन पर आधारित है। चाहे वे कितने भी अनुभवों से गुजरें, वे कोई सबक नहीं सीख सकते, खुद को नहीं जान सकते, अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ने की तो बात ही छोड़ो। क्या वे इस तरह से सत्य को समझ सकते हैं और परमेश्वर को जान सकते हैं? क्या वे सच्चा पश्चात्ताप महसूस कर सकते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। इसके बजाय, वे दूसरों से सावधान रहना, अपनी रक्षा करना, दूसरों के शब्दों और भावों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना और हवा के रुख के अनुसार चलना सीख जाते हैं। वे तरकीबें इस्तेमाल करना सीखते हैं और पहले से भी अधिक चतुर बन जाते हैं, और झगड़ों व लड़ाइयों से निपटने में अधिक सक्षम हो जाते हैं। जब समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो वे जिम्मेदारी लेने से बचते हैं और उसे दूसरों पर डाल देते हैं। उनका अब परमेश्वर, उसके वचनों या सत्य से कोई संबंध नहीं रह जाता। उनके हृदय परमेश्वर से और भी दूर होते चले जाते हैं। क्या यह एक घातक विकास नहीं है? (हाँ।) चीजें इस तरह से घातक रूप से आगे कैसे बढ़ीं? मान लो एक व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखता और आचरण व कार्य करता है, सत्य को अपने सिद्धांत के रूप में अपनाता है। वह समस्याओं से सामना होने पर परमेश्वर के वचनों को आधार के रूप में खोजता है, उसके वचनों में उत्तर खोजता है, परमेश्वर के वचनों से समस्याओं की जड़ को पहचानता है और तुलना के लिए उन्हें देखता है, और सभी समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए उसके वचनों का उपयोग करता है। परमेश्वर के वचन उसे आगे बढ़ने का मार्ग प्रदान करते हैं ताकि वह अवरोधित न हो, या इन मामलों में फँसे या उलझे नहीं। इस मामले में, अंत में, वे अभ्यास के उन सिद्धांतों को समझेंगे जिनकी परमेश्वर को ऐसे मामलों में अपेक्षा होती है और उनके पास अनुसरण करने के लिए एक मार्ग होगा। यदि चुनौतियों का सामना होने पर हर कोई परमेश्वर के समक्ष आता, परमेश्वर से सब स्वीकार करता, उस पर भरोसा करना सीखता, और खोज की प्रक्रिया में आधार के रूप में सत्य सिद्धांतों को खोजता, तब भी क्या लोग एक-दूसरे से सावधान रहते? क्या कोई तब भी मुद्दे की जड़ का समाधान किए बिना सही और गलत की खोज करता? (नहीं, कोई ऐसा नहीं करता।) यहाँ तक कि अगर कोई व्यक्ति सत्य का अभ्यास नहीं करता और फिर भी ऐसे मामलों का अनुसरण करता, तो वह सभी के द्वारा अस्वीकृत, बहिष्कृत किया जाता। यदि लोग चीजों से सामना होने पर उन्हें परमेश्वर से स्वीकार कर सकें, तो स्थिति अनुकूल रूप से आगे बढ़ेगी। लोग अंततः परमेश्वर के वचनों को जानेंगे-समझेंगे और सत्य को प्राप्त करेंगे। अगर लोग जिसका अभ्यास करते हैं वह सत्य है, और वे जो हासिल करते हैं वह सत्य प्राप्त करने और परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम होने का सही लक्ष्य है, तो उनकी आस्था बढ़ेगी, परमेश्वर के बारे में उनकी समझ बढ़ेगी और उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय विकसित होगा। क्या यह अनुकूल रूप से आगे बढ़ना नहीं है? (हाँ।) ऐसे परिणाम कैसे मिलते हैं? क्या ऐसा इसलिए है कि लोग हर मामले में जो परिप्रेक्ष्य और रुख अपनाते हैं वह सही और सत्य के अनुरूप होता है? (हाँ।) सीधे-सरल शब्दों में, इस परिप्रेक्ष्य और रुख का अर्थ है, परमेश्वर से चीजें स्वीकार करना, जो स्वाभाविक रूप से विकास की अनुकूल दिशा और विकास के अनुकूल कदमों की ओर ले जाता है, और जिससे सत्य को समझने और परमेश्वर को जानने का परिणाम स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है। लेकिन, यदि लोग परमेश्वर से चीजें स्वीकार नहीं करते, बल्कि मानवीय परिप्रेक्ष्य और शैतानी दर्शन से चीजों को देखते हैं, मामलों को देखने के लिए शैतानी दर्शन पर भरोसा कर लोगों और चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो जो कुछ भी उत्पन्न होगा, वह घातक होगा। अंतिम परिणाम यह होगा कि कोई भी सत्य समझ नहीं पाएगा और लाभ प्राप्त नहीं कर पाएगा। यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए, यह न जानने का परिणाम है। इसलिए, कुछ कलीसियाओं में कुछ कर्तव्य निभाने वालों के बीच असामंजस्यपूर्ण माहौल रहता है। वे हमेशा एक-दूसरे पर संदेह करते हैं, एक-दूसरे से सावधान रहते हैं, एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं, एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं और एक-दूसरे से बहस करते हैं। वे अपने हृदय की गहराइयों में गुप्त रूप से लड़ रहे होते हैं। इससे एक बात की पुष्टि होती है : इस समूह में कोई भी ऐसा नहीं है जो सत्य की खोज करता हो, कोई भी ऐसा नहीं है जो मुद्दों से सामना होने पर उन्हें परमेश्वर से स्वीकार करता हो। वे सभी छद्म-विश्वासी हैं और सत्य का अनुसरण नहीं करते। इसके विपरीत, कुछ कलीसियाओं में, कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो आध्यात्मिक कद में छोटे होने और सत्य को अधिक न समझने के बावजूद, छोटी या बड़ी हर परिस्थिति में वास्तव में परमेश्वर से मामलों को स्वीकार करने में सक्षम होते हैं, और फिर उसके वचनों के अनुसार अभ्यास और अनुभव करते हैं, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करते हैं। हालाँकि ये लोग जो एक साथ अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, कभी-कभी लड़ते-झगड़ते और बहस करते हैं, लेकिन उनके बीच एक ऐसा माहौल है, जो गैर-विश्वासियों के बीच नहीं पाया जाता। जब वे कुछ भी करने के लिए एकजुट होते हैं तो यह विशेष रूप से सामंजस्यपूर्ण होता है, परिवार या रिश्तेदारों की तरह, उनके दिलों के बीच कोई दूरी नहीं होती है, और वे अपने काम में एकजुट रहते हैं। इस तरह का सौहार्दपूर्ण माहौल होने से पता चलता है कि कम-से-कम निरीक्षक या कुछ प्रमुख व्यक्ति सत्य की खोज करते हैं और समस्याओं का सामना होने पर मामलों को ठीक तरह से संभालते हैं, और उन्होंने “परमेश्वर से सब कुछ स्वीकार करने” के सिद्धांत को लागू करने में वास्तव में परिणाम प्राप्त किए हैं। ऐसे कई लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन चूँकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते या परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से नहीं लेते, इसलिए कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उन्होंने जीवन प्रवेश नहीं किया है। उनके साथ कुछ भी क्यों न हो, वे उसे परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते और इसके बजाय चीजों को समझने के लिए हमेशा मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं। वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर सकते। कलीसिया में, अगर कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास आध्यात्मिक समझ है और जो देख सकते हैं कि कई चीजें परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और आदेशित की जाती हैं, तो वे परमेश्वर पर भरोसा कर सकते हैं, सक्रिय रूप से सत्य की खोज और उसका अभ्यास कर सकते हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजों को संभाल सकते हैं। ऐसे कलीसिया में, पवित्र आत्मा के कार्य का वातावरण उत्पन्न होता है। निश्चित रूप से, लोग इस विशेष रूप से सुखद सौहार्दपूर्ण माहौल को महसूस कर सकते हैं, और उनकी मनोस्थिति स्वाभाविक रूप से सर्वोत्तम स्थिति में होती है। और भी विशेष रूप से, लोगों के बीच आपसी समझ, साझा महत्वाकांक्षा, लक्ष्य और दिलों में गहराई से अनुसरण करने की प्रेरणा होती है। इसी वजह से उन्हें एकजुट किया जा सकता है। ऐसे कलीसिया में, तुम विशेष रूप से सौहार्दपूर्ण माहौल का अनुभव कर सकते हो। यह माहौल लोगों को आत्मविश्वास से भर देता है और उन्हें प्रगति के लिए प्रेरित करता है। वे अपने हृदय में सशक्त महसूस करते हैं और मानो उनके पास परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की अटूट शक्ति हो। यह एहसास अविश्वसनीय रूप से सुखद है। जो कोई भी ऐसी कलीसिया की सभाओं में भाग लेता है, वह इस माहौल और आत्मविश्वास के भाव का आनंद ले सकता है। ऐसे समय में उन्हें ऐसा महसूस होता है मानो वे परमेश्वर के आलिंगन में रह रहे हों, मानो वे हर दिन उसकी उपस्थिति में हों। यह सचमुच एक अलग अनुभव है। उन कलीसियाओं में, जहाँ पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता है, अधिकतर लोग सत्य के अनुयायी नहीं होते। वे परिस्थितियों का सामना करते हुए परमेश्वर से चीजें स्वीकार नहीं कर पाते, और हर चीज को नियंत्रित करने के लिए मानवीय तरीकों और साधनों पर भरोसा करते हैं। ऐसे जनसमूह में लोगों में भिन्न भावनाएँ होती हैं और लोगों के बीच के रिश्ते और उत्पन्न माहौल भी अलग-अलग होते हैं। तुम्हें पवित्र आत्मा के कार्य का या एक-दूसरे से प्रेम का माहौल बिल्कुल भी महसूस नहीं होता। इसके बजाय, तुम्हें केवल एक ठंडापन महसूस हो पाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग एक-दूसरे के प्रति उदासीन रहते हैं। वे सभी एक-दूसरे से सावधान रहते हैं, एक-दूसरे से बहस करते हैं, गुप्त रूप से एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं, और एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए संघर्ष करते हैं। कोई भी दूसरे के प्रति समर्पण नहीं करता, बल्कि वे एक-दूसरे को दबाते, बहिष्कृत और दंडित करते हैं। वे कार्यस्थल, व्यापार जगत और राजनीति में मौजूद गैर-विश्वासियों की तरह हैं, और तुम्हें घृणा, नफरत और भय का अनुभव कराते हैं, जिससे तुममें सुरक्षा की भावना नहीं रहती। यदि तुम लोगों के किसी भी समूह में ऐसी भावनाओं का अनुभव करते हो, तो तुम इस कथन की सटीकता देखोगे, “मानवजाति को शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है,” और इससे तुम पवित्र आत्मा के कार्य से और भी अधिक प्रेम करने लगोगे। पवित्र आत्मा के कार्य के बिना, यानी जब मनुष्य, शैतान, ज्ञान, या छद्म-विश्वासी शासन करते हैं, तब माहौल पूरी तरह से अलग होता है। तब तुम्हें असहजता और आनंदहीनता का एहसास होगा, और जल्द ही तुम विवश और उदास महसूस करोगे। यह भावना शैतान और भ्रष्ट मानवजाति से आती है, यह सटीक बात है। इसी के साथ इस विषय पर सहभागिता का समापन होता है।
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