सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (14) भाग एक
हमने पारंपरिक संस्कृति में नैतिक आचरण संबंधी दावों के मुद्दे पर संगति करने और उनका विश्लेषण करने में कुछ समय बिताया है—क्या तुम लोगों के पास इसका कोई वास्तविक अनुभव है? (पहले, मैं यह तो मानता था कि नैतिक आचरण के बारे में ये वक्तव्य सत्य नहीं हैं, लेकिन मुझे यह एहसास नहीं था कि ये मानवजाति को कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर चुके हैं। तुम्हारी संगति और विश्लेषण से ही मुझे एहसास हुआ है कि नैतिक आचरण के बारे में शैतान ने लोगों के मन में जो विभिन्न वक्तव्य बैठा दिए हैं, वे लोगों को भले ही सही और अच्छे प्रतीत होते हैं, लेकिन उन्होंने लोगों को वैचारिक रूप से भ्रष्ट, पंगु और बंधक बना दिया है, जिससे लोग परमेश्वर को नकारकर उसका विरोध करने लगे हैं, और उससे और भी दूर हो गए हैं। शैतान इसी तरह मानवजाति को आज तक सिलसिलेवार ढंग से भ्रष्ट करता आया है।) यदि मैंने इन चीजों पर विस्तार से संगति नहीं की, तो क्या लोग स्वयं इन्हें पहचान पाएँगे? क्या वे नैतिक आचरण संबंधी इन वक्तव्यों के सार का विश्लेषण कर सकते हैं? (लोग नैतिक आचरण संबंधी इन वक्तव्यों के सार का विश्लेषण नहीं कर सकते या उनका मर्म नहीं समझ सकते।) लंबे अनुभव के बाद क्या होगा? (लोग नैतिक आचरण संबंधी कुछ वक्तव्यों से जुड़ी समस्याओं को पहचानने में तो सक्षम होंगे, लेकिन वे उनके सार का स्पष्ट विश्लेषण करने में सक्षम नहीं होंगे।) लोग अक्सर पारंपरिक संस्कृति की प्रसिद्ध कहावतों और सत्य को एक समान मानना पसंद करते हैं और उनमें घालमेल कर देते हैं, खासकर उन चीजों में जो बाहरी तौर पर सत्य से मिलती-जुलती हैं, या जो मानवीय नैतिकता, इंसानी विवेक के मानकों और मानवीय भावनाओं के अनुरूप प्रतीत होती हैं। हर कोई मानता है कि ये चीजें सकारात्मक और सत्य के अनुरूप हैं, लेकिन यह कोई नहीं देख पाता कि ये शैतान की उपज हैं और वास्तव में नकारात्मक चीजें हैं। तो क्या शैतान मनुष्य के मन में कुछ सकारात्मक चीजें भी बिठाता है? (नहीं।) इन चीजों में कुछ भी सकारात्मक नहीं है। इसके विपरीत, ये सभी चीजें नकारात्मक और शैतानी जहर हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। तो, क्या तुम लोगों ने इन नकारात्मक चीजों और शैतानी जहरों को जान और खोज लिया है? क्या तुम लोगों के दिमाग में पारंपरिक संस्कृति की इन चीजों जैसा कुछ बचा है जिसे तुम लोग सही मानते हो? यदि है, तो यह एक अभिशाप, एक कैंसर है! अब तुम लोगों को इस पर और अधिक विचार करना चाहिए, और अपने दैनिक जीवन में इसका सावधानी से अवलोकन करते हुए इस पर ध्यान देना चाहिए। देखो कि क्या दूसरे जो कहते हैं और जो तुम सुनते हो, या जो चीजें तुम पर प्रभाव डालती हैं या जो तुम्हें याद रहती हैं, या उन चीजों में जिन्हें तुम अपने दिल में स्वीकार करते हो और मूल्यवान मानते हो, उनमें कुछ ऐसा है जो उन चीजों से मिलता-जुलता हो जिनकी पारंपरिक संस्कृति वकालत करती है। यदि है, तो तुम्हें उसे पहचानना और उसका विश्लेषण करना चाहिए, और फिर उसे पूरी तरह से त्याग देना चाहिए। यह तुम्हारे सत्य के अनुसरण में लाभकारी होगा।
कुछ लोग अनुभवजन्य गवाही के लेखों में यह उक्ति लिखते हैं, “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,”—तुम लोगों को समझना चाहिए कि यह वक्तव्य सही है या गलत, यह सकारात्मक चीज है या नकारात्मक, और क्या यह सत्य से, परमेश्वर की अपेक्षाओं से और उन सिद्धांतों से संबंधित है जो विभिन्न मामलों से निपटते समय लोगों के पास होने चाहिए। क्या यह वक्तव्य “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” सच है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? क्या यह परमेश्वर द्वारा स्थापित नियमों और विनियमों से उपजा है? क्या इसका इस तथ्य से कोई लेना-देना है कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है? आगे बढ़ो और इस वक्तव्य के बारे में अपना ज्ञान और समझ साझा करो। (मैंने यह पहले भी कहा है, खासकर कलीसिया के कार्य को व्यवस्थित करते समय। यदि कार्मिकों को सिद्धांतों के अनुसार उचित रूप से कार्य नहीं सौंपा जाता है, तो कभी-कभी इससे काम गड़बड़ा जाता है। यदि कार्मिकों को सिद्धांतों के अनुसार कार्य सौंपा जाता है, तो इसे अच्छी तरह से किया जा सकता है। उस समय, मैं लोगों की भूमिकाओं को बहुत महत्वपूर्ण और सार्थक समझता था, यही कारण है कि मैंने यह उक्ति उद्धृत की : “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है।” अब मुझे एहसास है कि परमेश्वर की संप्रभुता और सर्वशक्तिमत्ता को लेकर मुझमें समझ की कमी थी। मैंने हमेशा लोगों की भूमिका पर ध्यान दिया, और मेरे दिल में परमेश्वर के लिए बिल्कुल जगह नहीं थी।) और कौन अपने विचार साझा करना चाहेगा? (यह कथन “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” परमेश्वर के नहीं, बल्कि मनुष्यों के विषय में गवाही देता है, मानो कि सफलता मानवीय प्रयासों पर निर्भर करती हो। यह परमेश्वर की संप्रभुता को नकारना है और यह शैतान के लिए गवाही देने के बराबर है। यदि यह वक्तव्य लोगों के दिल में बैठा दिया जाता है, तो समय बीतने पर, जब उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ेगा तो वे सोचेंगे कि सफल होने के लिए उन्हें सिर्फ सही लोगों को ढूँढने की आवश्यकता है, और उनका विश्वास परमेश्वर में नहीं होगा या वे उस पर भरोसा नहीं करेंगे। इसलिए, यह बहुत ही विकृत वक्तव्य है।) इस वक्तव्य के बारे में तुम लोगों की समझ मूल रूप से यह है कि यह सही या सकारात्मक बात नहीं है, और यह निश्चित रूप से सत्य नहीं है। तो तुम लोग इसका उपयोग क्यों करते हो? यदि तुम लोग इसका प्रयोग करते हो तो इससे कौन सी समस्या सामने आती है? (यह कि हमें इस वक्तव्य की सही समझ नहीं है।) तुम्हारी इस समझ की कमी का कारण क्या है? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोग अभी भी मानते हो कि इस वक्तव्य का एक सही और वैध पहलू है? (हाँ।) तो, इस वक्तव्य में गलत क्या है? तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह एक सही या सकारात्मक बात नहीं है? पहले, यह देखते हैं कि क्या यह चीजों के वस्तुनिष्ठ नियमों के अनुरूप है। ऊपरी तौर पर, ऐसा प्रतीत होता है कि किसी कार्य को लोग निष्पादित करते हैं। वे कार्य की व्यवस्था करते हैं, कार्य को निष्पादित करते हैं, और उसकी निगरानी करते हैं। वे प्रत्येक चरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और अंततः वे उस कार्य के परिणामों और प्रगति को निर्धारित करते हैं। बाह्य रूप से, ऐसा लगता है कि चीजों के विकास का कारण, उनकी प्रक्रिया और उनके परिणाम सभी लोगों द्वारा निर्धारित होते हैं। लेकिन वास्तव में, इस सबको शासित, आयोजित और व्यवस्थित करने वाला कौन है? क्या इसका लोगों से कोई लेना-देना है? क्या लोग निष्क्रिय रूप से अपनी नियति और संप्रभु के आयोजनों को स्वीकार कर रहे हैं, या वे सक्रिय रूप से हर चीज को स्वयं नियंत्रित कर रहे हैं? (वे निष्क्रिय रूप से स्वीकार कर रहे हैं।) सभी लोग निष्क्रिय रूप से परमेश्वर की संप्रभुता, आयोजन और व्यवस्थाओं को स्वीकार कर रहे हैं। यहाँ लोगों की भूमिका क्या है? क्या वे परमेश्वर के हाथों की कठपुतलियाँ नहीं हैं? (हैं।) लोग कठपुतलियों की तरह हैं जिन्हें डोर से खींचा जा रहा है। खींची जाने वाली डोर उनके कार्य और अभिव्यक्ति को निर्धारित करती है। लोग कहाँ जाएँगे, क्या बोलेंगे और प्रतिदिन क्या करेंगे—यह सब किसके हाथ में है? (परमेश्वर के हाथ में।) यह सब परमेश्वर के हाथ में है। लोग निष्क्रिय रूप से परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान, परमेश्वर ही निर्धारित करता है कि वह क्या करेगा, वह किसी को उजागर करेगा या नहीं, वह इस मामले में कब और क्या बदलाव और प्रगति लाएगा, अंतिम परिणाम क्या होगा, और वह किसे उजागर करेगा या हटाएगा; वह निर्धारित करता है कि इस मामले से लोग क्या सबक सीखेंगे, कौन से सत्य समझेंगे और परमेश्वर के बारे में किस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करेंगे, वह लोगों के किन विचारों को पलट देगा, और वह उन्हें किन धारणाओं से छुटकारा दिलाएगा। क्या लोग ये सब कर सकते हैं जो परमेश्वर करता है? क्या वे ऐसा कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) लोग नहीं कर सकते। वे ये सब नहीं कर सकते। किसी भी मामले के संपूर्ण विकास के दौरान, लोग बस निष्क्रिय रूप से और सचेत रूप से या अनजाने में चीजें कर रहे होते हैं, लेकिन कोई भी व्यक्ति पूरे मामले के कारणों, प्रक्रिया, अंतिम परिणामों और प्राप्त परिणामों को पहले से नहीं देख सकता है, न ही कोई व्यक्ति इनमें से किसी भी चीज को नियंत्रित कर सकता है। इस सबको पहले से कौन देखता और नियंत्रित करता है? केवल परमेश्वर! चाहे ब्रह्माण्ड में होने वाली कोई महत्वपूर्ण घटना हो या किसी ग्रह के किसी कोने में होने वाली कोई छोटी-सी घटना, यह लोगों पर निर्भर नहीं करती है। कोई भी व्यक्ति हर चीज को संचालित करने वाले नियमों, या सभी चीजों की प्रगति की प्रक्रिया और उनके अंतिम परिणामों को नियंत्रित नहीं कर सकता। कोई भी व्यक्ति हर चीज का भविष्य नहीं देख सकता या भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि क्या होने वाला है, सभी चीजों के अंतिम परिणाम को नियंत्रित करना तो दूर की बात है। केवल परमेश्वर, जो सभी चीजों पर संप्रभु है, इन सब पर नियंत्रण और शासन करता है। लोग एकमात्र यही प्रभाव डाल सकते हैं कि वे बड़े और छोटे दोनों ही तरह के परिवेश के भीतर, और परमेश्वर द्वारा शासित, आयोजित और व्यवस्थित विभिन्न प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ विभिन्न भूमिकाएँ निभा सकते हैं जो सकारात्मक या नकारात्मक हो सकती हैं। लोगों का इतना ही प्रभाव और इतनी ही भूमिका है। जब कोई चीज सफल नहीं होती है, या जब परिणाम अपेक्षा के अनुरूप अच्छे नहीं प्रतीत होते, और परिणाम वह नहीं होता है जो लोग देखना चाहते हैं, जब परिणाम उनके लिए बहुत दुःख और पीड़ा लेकर आता है, तो ये भी ऐसी चीजें हैं जिन पर उनकी कोई संप्रभुता नहीं है, उन्हें लोगों द्वारा पहले से नहीं देखा जा सकता है, और जिन्हें निश्चित रूप से उनके द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। यदि किसी चीज का अंतिम परिणाम बहुत अच्छा है, यदि उसका बहुत सकारात्मक और सक्रिय प्रभाव है, यदि वह लोगों के लिए बहुत शिक्षाप्रद है, और उसका उन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, तो यह परमेश्वर की ओर से है। यदि किसी चीज का वांछित परिणाम प्राप्त नहीं होता है, यदि परिणाम बहुत अच्छा या आशावादी नहीं है, और यदि लोगों पर उसका सकारात्मक और सक्रिय प्रभाव पड़ने के बजाय कुछ नकारात्मक प्रभाव पड़ता प्रतीत होता है, तो उस मामले की पूरी प्रक्रिया भी परमेश्वर द्वारा आयोजित और व्यवस्थित है। इस पर किसी व्यक्ति का नियंत्रण नहीं है। चलो, हम दूर की बातें नहीं करते; हम इस बारे में बात करते हैं कि कलीसिया में क्या देखा जा सकता है, जैसे कि मसीह-विरोधियों का प्रकट होना। जब कोई मसीह-विरोधी आगे आता है और कार्य करना शुरू करता है, और उसे अगुआ या कार्यकर्ता के पद पर पदोन्नत किया जाता है, और वह कलीसिया में कोई महत्वपूर्ण कार्य का प्रभार लेता है, उस क्षण से लेकर उस बिंदु तक जब उसे एक मसीह-विरोधी के रूप में प्रकट किया जाता है, भाई-बहनों द्वारा उसे पहचाना और उजागर किया जाता है, और अंततः हटा और अस्वीकृत कर दिया जाता है—इस पूरी प्रक्रिया के दौरान बहुत से लोग गुमराह हो जाते हैं, कुछ लोग मसीह-विरोधी का अनुसरण भी करते हैं, और कुछ लोगों को मसीह-विरोधी प्रभाव के कारण अपने जीवन-प्रवेश में नुकसान भी उठाना पड़ता है, इत्यादि। हालाँकि यह सब शैतान के व्यवधान से उत्पन्न होता है और शैतान के सेवकों का काम है, तो क्या इसका मतलब यह है कि परमेश्वर इन सभी चीजों के घटित होने और विकास को नहीं देखता है? क्या परमेश्वर नहीं जानता कि एक मसीह-विरोधी के प्रकट होने के परिणाम क्या होंगे? क्या परमेश्वर नहीं जानता कि कलीसिया और भाई-बहनों पर किसी मसीह-विरोधी का क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या यह सब केवल लोगों की विफलता का परिणाम है? जब इस तरह की नकारात्मक चीजें उभरने लगती हैं, तो अक्सर लोग सोचते हैं, “अरे नहीं, शैतान ने कम समझ का फायदा उठाया, यह शैतान था जो चीजों में व्यवधान डाल रहा था।” निहितार्थ यह है, “परमेश्वर चीजों पर नजर क्यों नहीं रख रहा था? क्या परमेश्वर सभी चीजों की पड़ताल नहीं करता? क्या परमेश्वर सर्वव्यापी नहीं है? क्या परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है? परमेश्वर का अधिकार और शक्ति कहाँ थी?” लोगों के दिलों में शंकाएँ पैदा होती हैं। इन शंकाओं का स्रोत क्या है? चूँकि घटना का परिणाम नकारात्मक, अवांछित है, और वह नहीं है जो लोग देखना चाहते हैं, और उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ तो बिल्कुल भी मेल नहीं खाता है, इससे परमेश्वर में उनके पवित्र विश्वास को झटका लगता है। लोग इसे समझ नहीं पाते और सोचते हैं : “यदि परमेश्वर संप्रभु है और हर चीज को नियंत्रित करता है, तो मसीह-विरोधी द्वारा लोगों को गुमराह करने जैसा कुछ हमारी आँखों के ठीक सामने क्यों होगा? कलीसिया में और भाई-बहनों के बीच ऐसी अवांछनीय चीज क्यों होगी?” लोगों के दिल में शंकाएँ पैदा होने लगती हैं और उनके इस विश्वास को चुनौती मिलती है कि “परमेश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।” जब परमेश्वर में लोगों के विश्वास को चुनौती मिलती है, तब यदि तुम उनसे पूछो, “परमेश्वर के बारे में तुममें विकसित धारणाओं के लिए कौन दोषी है?” तो वे कहेंगे, “शैतान दोषी है।” लेकिन चूँकि शैतान को मनुष्य देख नहीं सकता है, तो अंततः यह जिम्मेदारी किस पर आनी चाहिए? यह मसीह-विरोधी पर आनी चाहिए या मसीह-विरोधी के समूह पर। लोग कहेंगे कि जिन लोगों को मसीह-विरोधी ने गुमराह किया और जिन्हें जीवन में नुकसान उठाना पड़ा, वे मसीह-विरोधी से गुमराह होने लायक ही थे। आखिरकार पूरे मामले में लोगों की समझ किस वक्तव्य पर आ टिकती है? “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है।” वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। इसमें वे परमेश्वर को कहाँ रखते हैं? वे नहीं समझते कि परमेश्वर संप्रभु है, इसलिए जो कुछ भी घटित होता है उसका श्रेय वे इस खोखले सिद्धांत को देते हैं कि “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है।”
जब लोग अपने आस-पास अपेक्षाकृत कुछ अच्छी और सकारात्मक चीजें घटित होते देखते हैं, जैसे कि जब पवित्र आत्मा शक्तिशाली कार्य करता है, और हर किसी में बहुत अधिक विश्वास होता है, जब लोग उत्पीड़न और प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भी दृढ़ रहते हैं, कोई यहूदा नहीं बनता और जब परमेश्वर के घर की वस्तुओं और भाई-बहनों के जीवन को कोई नुकसान नहीं होता है, तो लोग कहते हैं, “यह परमेश्वर की सुरक्षा है। यह सफलता लोगों के कारण नहीं मिली थी; यह निस्संदेह परमेश्वर का कार्य है।” मान लो कि जो चीजें लोग अपने आसपास घटित होते हुए देखते हैं वे अवांछनीय हैं, उदाहरण के लिए, कलीसिया को बड़े लाल अजगर द्वारा दमन और गिरफ्तारी का सामना करना पड़ता है, और कलीसिया की संपत्ति शैतान द्वारा जब्त कर ली जाती है। मान लो कि भाई-बहनों के जीवन को नुकसान होता है, और परमेश्वर के चुने हुए लोग हर जगह बिखरे हुए हैं, विस्थापित हो गए हैं और घर लौटने में असमर्थ हैं। मान लो कि कलीसिया का जीवन नष्ट हो गया है, और कलीसिया के सदस्य अब पहले जैसा कलीसियाई जीवन नहीं जी सकते हैं। कल्पना करो कि वे अब अपने भाई-बहनों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का आनंदमय, सुखी जीवन नहीं जी सकते हैं, परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के लिए एक साथ इकट्ठा नहीं हो सकते हैं, और अपने कर्तव्य नहीं कर सकते हैं, और कुछ दुष्ट लोग और छद्म-विश्वासी दूसरों को गुमराह करने के लिए धारणाएँ फैलाना शुरू कर देते हैं, जिससे परमेश्वर में उनका विश्वास नहीं रहता और वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं। ऐसे समय में लोग शिकायत किए बिना नहीं रह पाते। वे परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत करने का साहस नहीं कर पाते, इसलिए वे इस तरह से शिकायत करते हैं : “अमुक एक दुष्ट व्यक्ति है, अमुक शैतान है, अमुक दानव है। यदि वे सभाओं में लापरवाह रहने के कारण गिरफ्तार नहीं होते, तो हम घर लौटने में असमर्थ होने की इस स्थिति में नहीं पहुँचते। यदि उनकी गलती नहीं होती, तो हम अभी भी खुशी-खुशी कलीसिया का जीवन जी रहे होते, परमेश्वर के वचनों को खा-पी रहे होते और सामान्य रूप से अपने कर्तव्यों को कर रहे होते। यह सब एक व्यक्ति विशेष, एक दानव, एक शैतान, या एक शैतानी शासन के कारण है।” भले ही लोग परमेश्वर के प्रति मन में कोई शिकायत रखने की हिम्मत नहीं करते या पूरी स्थिति की जिम्मेदारी परमेश्वर पर नहीं डालते, लेकिन उस समय, उनमें परमेश्वर के प्रति न तो बड़ा और न ही मामूली, अकथनीय अविश्वास विकसित हो चुका होता है। इन अविश्वासपूर्ण विचारों से क्या उपजेगा? लोग कहेंगे, “मैंने इस अनुभव से एक सबक सीखा है। अब से, मैं अपने सामने आने वाली हर चीज पर ध्यानपूर्वक विचार करूँगा और कोई कदम उठाने से पहले दो बार सोचूँगा। मैं लापरवाह नहीं बनूँगा और आसानी से किसी पर भरोसा नहीं करूँगा। मैं सभी परिस्थितियों में अतिरिक्त सावधान रहूँगा और अपनी सुरक्षा करना सीखूँगा।” क्या उनके हृदय में अभी भी परमेश्वर है? क्या वे अब भी परमेश्वर पर भरोसा करते हैं और उस पर विश्वास रखते हैं? कुछ लोग कहते हैं, “विश्वास कैसे नहीं होगा? अपने हृदय में, मैं अब भी परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, और मेरी अभी भी उस पर सच्ची निर्भरता है।” लेकिन गुप्त रूप से वे खुद से कहते हैं, “परमेश्वर के वचनों पर इतनी आसानी से भरोसा मत करो। परमेश्वर हमेशा लोगों का परीक्षण और शोधन करता है। परमेश्वर पर भरोसा नहीं किया जा सकता! जरा देखो, हमारी आँखों के ठीक सामने क्या हुआ। हमारे कलीसिया के सदस्यों को बड़े लाल अजगर द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। परमेश्वर ने हमारी रक्षा क्यों नहीं की? क्या परमेश्वर अपने घर के हितों को नुकसान पहुँचते देखना चाहता है? क्या परमेश्वर तब उदासीन महसूस करता है जब वह छद्म-विश्वासियों को लोगों को गुमराह करते हुए देखता है? यदि परमेश्वर सचमुच यह देखता है, तो वह परवाह क्यों नहीं करता? वह इसे रोकता या अवरुद्ध क्यों नहीं करता? वह हमें प्रबुद्ध क्यों नहीं करता ताकि हम समझ सकें कि हमें गुमराह करने वाला व्यक्ति एक दुष्ट व्यक्ति और छद्म-विश्वासी है, ताकि हम यथाशीघ्र खुद को उससे दूर कर लें, और इन सभी परिणामों से बचें? जब छद्म-विश्वासी लोगों को गुमराह कर रहा होता है, तो परमेश्वर हमारी रक्षा क्यों नहीं करता? एक त्वरित चेतावनी भी काफी होगी!” न तो उन्हें इन सभी “क्यों” का उत्तर मिलता है और न ही मिल सकता है। अंत में, यह अनुभव करने के बाद, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं : “मैं उन मामलों में परमेश्वर पर भरोसा करूँगा जहाँ मुझे उस पर भरोसा करना चाहिए, और मैं उन मामलों में खुद पर भरोसा करूँगा जहाँ मुझे परमेश्वर पर भरोसा नहीं करना चाहिए। मैं मूर्खता नहीं कर सकता। हम भाई-बहनों को गर्माहट के लिए एकजुट होना और एक-दूसरे की मदद करना सीखना चाहिए। जहाँ तक बाकी सब चीजों की बात है, जैसा परमेश्वर चाहे, वैसा करे। हम इसे नियंत्रित नहीं कर सकते।” यदि बड़ा लाल अजगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गिरफ्तार कर लेता है, तो कलीसिया का कार्य और कलीसिया का जीवन बहुत बाधित हो जाएगा और भाई-बहनों का कर्तव्य निर्वहन बहुत प्रभावित होगा। ऐसे समय में छद्म-विश्वासी और मसीह-विरोधी प्रकट होकर अफवाह और भ्रांतियाँ फैलाएँगे, रुकावट डालेंगे और गुमराह करेंगे, यह दावा करते हुए कि गिरफ्तारियाँ हुईं क्योंकि अगुआ और कार्यकर्ता परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध गए थे, और लोग इन मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों द्वारा गुमराह किए जाएँगे। जब ऐसी घटनाएँ घटती हैं जो लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं या मानवीय भावनाओं के अनुरूप नहीं होती हैं, तो लोग उनसे कभी सबक नहीं लेते हैं। लोग इन घटनाओं से कभी भी परमेश्वर की संप्रभुता, आयोजन और स्वभाव को नहीं समझ पाते हैं। लोग कभी भी परमेश्वर के इरादे या फिर यह नहीं समझ पाते हैं कि परमेश्वर उन्हें कौन-से सबक सिखाना चाहता है, वह उन्हें कौन-सी शिक्षा देना चाहता है, और इन घटनाओं से उन्हें क्या समझाना चाहता है। लोग इनमें से कुछ भी नहीं जानते हैं, और वे नहीं जानते कि इनका अनुभव कैसे किया जाए। इसलिए, जब उन सभी चीजों की बात आती है जो लोग अपने आस-पास घटित होते देखते हैं, तो लोग वास्तव में मानते हैं कि यह उक्ति कि “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” सटीक है, और यह इस तथ्य की तुलना में अधिक विश्वसनीय और वास्तविक है कि “परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है, परमेश्वर सर्वव्यापी है, और परमेश्वर हर चीज की पड़ताल करता है।” वास्तव में, हृदय की गहराई में, तुम लोग अब भी यह विश्वास रखते हो कि यह उक्ति “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” अधिक वास्तविक है, कि मनुष्य सब कुछ निर्धारित करते हैं, और यह कहना कि परमेश्वर सब तय करता है, थोड़ा अस्पष्ट लगता है। लोग ऐसा क्यों सोचते हैं कि यह अस्पष्ट है? लोगों को यह कथन कि “परमेश्वर सब कुछ तय करता है” भरोसे लायक क्यों नहीं लगता है? सिद्धांत रूप में, ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग सत्य को नहीं समझते हैं और परमेश्वर को नहीं जानते हैं, लेकिन वास्तव में, इसका कारण क्या है? (वास्तव में, लोग यह स्वीकार या विश्वास नहीं करते हैं कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभु है।) यह कहना कि लोग इसमें विश्वास नहीं करते हैं या स्वीकार नहीं करते हैं कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभु है, सही है, लेकिन एक अधिक विशिष्ट कारण है, जो यह है कि इस उक्ति “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” से लोगों के उस दोषपूर्ण दृष्टिकोण का पता चलता है, जो वे अच्छी और बुरी चीजों को देखने के तरीके के प्रति रखते हैं। लोग मानते हैं कि जो चीजें उन्हें शांति, आनंद, आराम और खुशी देती हैं वे अच्छी हैं और परमेश्वर से आती हैं। कुछ चीजें हैं जो लोगों को असहज या भयभीत कर देती हैं, जो उन्हें रुलाती, पीड़ा देती हैं या इतने दुःख से भर देती हैं कि वे मर जाना चाहते हैं—कुछ चीजें लोगों के लिए सामान्य कलीसियाई जीवन और अपने कर्तव्यों को करने के लिए सामान्य परिवेश पाना भी असंभव बना देती हैं। इस प्रकार की चीजों को लोग “बुरी चीजें” मानते हैं। “बुरी चीजें” शब्द को उद्धरण चिह्नों में रखा जाना चाहिए। क्या “बुरी चीजें” लोगों पर अच्छा प्रभाव डाल सकती हैं? लोग इन अच्छे प्रभावों को देख या महसूस नहीं कर सकते हैं, इसलिए, उनके दिमाग में, जिस “हर चीज” पर परमेश्वर का प्रभुत्व है, उसमें केवल वे चीजें शामिल हैं जो उन्हें शांति, आनंद, तृप्ति, लाभ, शिक्षा और फायदे देती हैं, और वे चीजें जो परमेश्वर में उनके विश्वास को मजबूत करती हैं। ये वे चीजें हैं जिनके बारे में लोग मानते हैं कि ये, हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता से संबंधित हैं। इसके विपरीत, यदि, ऊपरी तौर पर, कुछ चीजें लोगों के जीवन को कष्ट पहुँचाती, और कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचाती प्रतीत होती हैं, और यदि कुछ लोगों को गुमराह किया जाता है, और कुछ को हटा दिया जाता है, और यदि कुछ लोगों के साथ कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटता है और वे कुछ दर्द सहते हैं, तो लोगों को लगता है कि इन चीजों का परमेश्वर की संप्रभुता से कोई लेना-देना नहीं है, और यह शैतान का काम है। लोग मानते हैं कि यदि यह परमेश्वर का कार्य होता, तो ये नकारात्मक चीजें दिखाई नहीं देतीं या अस्तित्व में ही नहीं होतीं, लोगों ने यही निर्धारित किया है। इसलिए, “परमेश्वर हर चीज पर संप्रभु है” उक्ति के बारे में लोगों की समझ बहुत एकतरफा और उथली है। यह मानवीय धारणाओं तक ही सीमित है, यह मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत है, और यह तथ्यों से मेल नहीं खाता है। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ। परमेश्वर ने सभी प्रकार के कीड़े-मकौड़े और पक्षी बनाए। कुछ लोग कहते हैं, “मेरा मानना है कि परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजें महत्वपूर्ण हैं, वे सभी कीड़े लाभकारी और अच्छे हैं। मधुमक्खियाँ परमेश्वर द्वारा बनाई गई थीं, और सभी प्रकार के अच्छे पक्षी परमेश्वर द्वारा बनाए गए थे। मच्छर हमेशा लोगों को काटते हैं और बीमारियाँ फैलाते हैं, इसलिए मच्छर अच्छे नहीं होते। शायद मच्छरों को परमेश्वर ने नहीं बनाया है।” क्या यह एक विकृत समझ नहीं है? वास्तव में, सभी चीजें परमेश्वर द्वारा बनाई गई थीं। केवल एक ही परमेश्वर है, जो कि सृष्टिकर्ता है, और जो कुछ भी जीवित है और जो जीवित नहीं है वह परमेश्वर से आता है। अपनी धारणाओं में, लोग केवल यह मानते हैं कि विभिन्न लाभकारी कीड़े, पक्षी और अन्य लाभकारी जीव परमेश्वर से आते हैं—जहाँ तक मक्खियों, मच्छरों, खटमलों और कुछ माँसाहारी पशुओं की बात है जिन्हें मनुष्य विशेष रूप से हिंसक मानता है, तो वे जीव परमेश्वर से आए नहीं लगते हैं, और यदि वे आते भी हैं, तो वे अच्छी चीजें नहीं हैं। क्या यह एक मानवीय धारणा नहीं है? लोगों के विचारों और धारणाओं में, इन चीजों को धीरे-धीरे व्यवस्थित रूप से वर्गीकृत किया गया है : जो कुछ भी मनुष्य को पसंद है या जो उसे लाभ पहुँचाता है, उसे सकारात्मक और परमेश्वर द्वारा सृजित माना जाता है, जबकि जो कुछ भी मनुष्य को नापसंद है या जो उसे नुकसान पहुँचाता है उसे नकारात्मक और परमेश्वर द्वारा सृजित नहीं माना जाता है, और हो सकता है कि वह शैतान या प्रकृति द्वारा निर्मित हो। लोग मन में, अक्सर अनजाने में यह विश्वास करते हैं कि : “मक्खियाँ, मच्छर और खटमल अच्छी चीजें नहीं हैं, उन्हें परमेश्वर ने नहीं बनाया था। परमेश्वर निश्चित रूप से ऐसी चीजें नहीं बनाएगा।” या वे सोचते हैं, “शेर और बाघ हमेशा भेड़ और जेबरा खाते हैं, वे बहुत क्रूर हैं। वे अच्छी चीजें नहीं हैं। भेड़िये दुष्ट, कुटिल, भयानक, हिंसक और क्रूर होते हैं। भेड़िये बुरे हैं, लेकिन गायें और भेड़ें अच्छी हैं, और कुत्ते तो और भी अच्छे हैं।” परमेश्वर द्वारा बनाई गई कोई चीज अच्छी है या नहीं, इसे मानवीय भावनात्मक जरूरतों या स्वाद के आधार पर नहीं मापा जाता है—इन चीजों को इस तरह नहीं मापा जाता है। परमेश्वर ने सभी प्रकार के पशुओं को बनाया, जिनमें जेबरा, हिरण और विभिन्न प्रकार के शाकाहारी पशु शामिल हैं, साथ ही शेर, बाघ, तेंदुए और मगरमच्छ जैसे भयानक माँसाहारी जानवर भी शामिल हैं, जो विशेष रूप से हिंसक हैं, जिनमें कुछ शिकारी भी शामिल हैं जो एक ही बार में अपने शिकार को मार सकते हैं। भले ही ये पशु इंसानों की नजर में अच्छे हों या बुरे, ये सभी परमेश्वर द्वारा बनाए गए थे। कुछ लोग शेरों को जेबरा खाते हुए देखते हैं और सोचते हैं, “अरे नहीं! बेचारा जेबरा! शेर इतने भयानक होते हैं कि जेबरा खा जाते हैं।” जब वे एक भेड़िये को भेड़ खाते हुए देखते हैं, तो सोचते हैं, “भेड़िये कितने क्रूर और धूर्त होते हैं। परमेश्वर ने भेड़िये क्यों बनाए? भेड़ें बहुत प्यारी, दयालु और कोमल होती हैं। परमेश्वर ने केवल कोमल जानवर ही क्यों नहीं बनाए? भेड़िये भेड़ों के स्वाभाविक शत्रु हैं, तो फिर परमेश्वर ने भेड़िये और भेड़ दोनों को क्यों बनाया?” वे इसके पीछे के रहस्य को नहीं समझते और हमेशा मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं को आश्रय देते हैं। जब कलीसिया में मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों को गुमराह करने की घटनाएँ होती हैं, तो कुछ लोग कहते हैं, “यदि परमेश्वर को इस मानवजाति पर दया आती है, तो उसने शैतान को क्यों बनाया? वह शैतान को मानवजाति को भ्रष्ट करने की अनुमति क्यों देता है? चूँकि परमेश्वर ने हमें चुना है, तो वह मसीह-विरोधियों को कलीसिया में आने की अनुमति क्यों देता है?” तुम्हें समझ नहीं आता, है न? यह परमेश्वर की संप्रभुता है। परमेश्वर इसी तरह से सभी चीजों पर शासन करता है, और केवल जब वह उन पर इस तरह से शासन करता है तभी सभी चीजें उसके द्वारा निर्धारित नियमों और व्यवस्थाओं के अंतर्गत सामान्य रूप से अस्तित्व में रह सकती हैं। यदि परमेश्वर तुम्हारी रक्षा करता और मसीह-विरोधियों को कलीसिया में आने से रोक देता, तो क्या तुम जान पाते कि मसीह-विरोधी क्या होते हैं? क्या तुम जान पाते कि किसी मसीह-विरोधी का स्वभाव कैसा होता है? यदि तुम्हें किसी से मिले बिना, केवल मसीह-विरोधियों को पहचानने के बारे में कुछ शब्द और सिद्धांत बताए जाते, तो क्या तुम मसीह-विरोधियों को पहचानने में सक्षम होते? (नहीं।) बिल्कुल नहीं। यदि मसीह-विरोधियों और दुष्टों को प्रकट होने की अनुमति नहीं दी जाती, तो तुम हमेशा ग्रीनहाउस में एक फूल की तरह रहते : जैसे ही तापमान में अचानक बदलाव होता, तुम अचानक ठंड के कारण मुरझा जाते, उसे सहन करने में असमर्थ रहते। इसलिए, यदि लोग सत्य को समझना चाहते हैं, तो उन्हें उन सभी परिवेशों, और उन सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को स्वीकार और उनके प्रति समर्पण करना होगा जिन पर परमेश्वर संप्रभु है और जिन्हें वह आयोजित करता है। “सभी लोगों, घटनाओं और चीजों” में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों शामिल हैं, इसमें वे चीजें शामिल हैं जो तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ मेल खाती हैं, और वे भी जो मेल नहीं खाती हैं। इसमें वे चीजें शामिल हैं जिन्हें तुम सकारात्मक मानते हो और वे नकारात्मक चीजें भी जिन्हें तुम नापसंद करते हो, इसमें वे चीजें शामिल हैं जो तुम्हारी भावनाओं के अनुरूप हैं, और वे चीजें भी जो तुम्हारी भावनाओं या अभिरुचि के अनुरूप नहीं हैं। तुम्हें इन सभी चीजों को स्वीकार करना होगा। इन सब चीजों को स्वीकार करने का उद्देश्य क्या है? यह सिर्फ तुम्हें ज्ञान देने और तुम्हारे अनुभवों को बढ़ाने के लिए नहीं है, बल्कि यह तुम्हें इन तथ्यों के माध्यम से परमेश्वर के वचनों को अधिक व्यावहारिक और ठोस रूप से जानने, सत्य को समझने और परमेश्वर के वचनों की सत्यता और सटीकता का अनुभव करने में सक्षम बनाने के लिए है। अंततः तुम पुष्टि करोगे कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, तुम विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से सबक सीखोगे, खुद को और अधिक सत्य समझने, कई चीजों की असलियत देख पाने और खुद को और अधिक समृद्ध बनाने में सक्षम बना पाओगे। इससे अंतिम परिणाम यह प्राप्त होगा कि तुम विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के उद्भव और विकास के माध्यम से सृष्टिकर्ता के बारे में ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होगे, तुम उसके स्वभाव और सार को समझ पाओगे, और यह जानोगे कि वही सभी चीजों पर संप्रभु है और उन्हें आयोजित करता है।
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