सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (13) भाग एक
पिछली सभा में हमने मुख्य रूप से परंपरागत संस्कृति की कहावत, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” पर संगति की और उसका विश्लेषण किया था। शैतान लोगों को यकीन दिलाने के लिए परंपरागत संस्कृति की जिन कहावतों और सिद्धांतों का उपयोग करता है, वे सही नहीं हैं, और न ही वे आडंबरी शब्द सही हैं जिनका वह लोगों से पालन कराता है। इसके विपरीत, उनमें लोगों को गुमराह और पथभ्रष्ट करने वाला और उनकी सोच को सीमित करने वाला प्रभाव होता है। आम जनता को परंपरागत संस्कृति के इन गलत विचारों और नजरियों की शिक्षा देकर और यकीन दिला कर और प्रभावित कर उसका अंतिम उद्देश्य उन्हें शासक वर्ग के प्रभुत्व के अधीन होने के लिए आश्वस्त करना होता है, और यहाँ तक कि उन लोगों की वफादारी के साथ शासकों की सेवा करना होता है जो अपने देश और पार्टी से प्यार करते हैं, और जिन्होंने अपने घर की रक्षा और राज्य की सुरक्षा के लिए दृढ़ संकल्प ले रखा है। यह दिखाने के लिए काफी है कि राष्ट्रीय सरकार मानवजाति पर और विभिन्न जातीय समूहों पर शासकों के नियंत्रण को सुविधाजनक बनाने और शासकों के शासन की स्थिरता और उनके नियंत्रण में समाज के सद्भाव और स्थिरता को और बढ़ाने के लिए परंपरागत संस्कृति की शिक्षा को लोकप्रिय बनाती है। शासक वर्ग परंपरागत संस्कृति की शिक्षा को चाहे कितना भी प्रचारित करे, बढ़ावा दे और लोकप्रिय बनाए, सामान्य तौर पर नैतिक आचरण की इन कहावतों ने लोगों को गुमराह और पथभ्रष्ट ही किया है, और सच-झूठ, अच्छे-बुरे, सही-गलत और सकारात्मक-नकारात्मक चीजों में अंतर करने की उनकी क्षमता को गंभीर रूप से बाधित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि नैतिक आचरण की ये कहावतें काले और सफेद को पूरी तरह से उलट देती हैं, सच को झूठ से मिला देती हैं, और आम जनता को गुमराह कर देती हैं, जिससे लोग परंपरागत संस्कृति के इन मतों से गुमराह हो जाते हैं, एक ऐसे संदर्भ में जिसमें वे नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, क्या सच है और क्या झूठ, कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं और कौन-सी नकारात्मक, क्या परमेश्वर से आता है और क्या शैतान से आता है। जिस तरह से परंपरागत संस्कृति सभी प्रकार की चीजों को परिभाषित करती है और सभी प्रकार के लोगों को अच्छे या बुरे, दयालु या दुष्ट की श्रेणियों में बाँटती है, उसने मनुष्यों को बाधित, गुमराह और पथभ्रष्ट कर दिया है; यहाँ तक कि लोगों के विचारों को नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों तक सीमित कर दिया है, जिसका परंपरागत संस्कृति समर्थन करती है, जिसके कारण वे खुद को छुड़ाने में असमर्थ होते हैं। नतीजतन, बहुत से लोग स्वेच्छा से शैतान राजाओं के प्रति निष्ठा रखने की प्रतिज्ञा करते हैं, अंत तक अंधभक्ति दिखाते हैं और मृत्यु तक उस प्रतिज्ञा का पालन करते हैं। यह स्थिति आज तक जारी है, और फिर भी कुछ ही लोग होश में आ सके हैं। हालाँकि आजकल परमेश्वर में विश्वास करने वाले बहुत से लोग सत्य को पहचान सकते हैं, लेकिन इसे स्वीकारने और अभ्यास में लाने में उनके सामने कई बाधाएँ हैं। यह कहा जा सकता है कि ये बाधाएँ मुख्य रूप से परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों से आती हैं, जो लंबे समय से उनके दिलों में जड़ें जमा चुके हैं। लोगों ने पहले उन्हें सीखा और वे अब तक प्रभावी हैं, वे पहले से लोगों के विचारों को नियंत्रित कर रहे थे, जो लोगों के सत्य स्वीकार करने और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करने में बहुत सारी बाधाएँ और बहुत अधिक प्रतिरोध पैदा करते हैं। यह इसका एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि चूँकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव है, जो कुछ हद तक उस तरीके के कारण है जिससे परंपरागत संस्कृति लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करती है। परंपरागत संस्कृति ने अच्छे-बुरे और सच-झूठ को मापने के तरीके पर लोगों के विचारों को गंभीर रूप से प्रभावित कर उनमें हस्तक्षेप किया है, और लोगों में कई भ्रामक धारणाएँ, विचार और नजरिए पैदा किए हैं। इस वजह से लोग सकारात्मक, सुंदर और अच्छी चीजों और परमेश्वर द्वारा बनाए गए सभी चीजों के नियमों और इस तथ्य को सकारात्मक रूप से समझने में असमर्थ हो गए हैं कि परमेश्वर सभी चीजों पर शासन करता है। इसके बजाय लोग धारणाओं और सभी प्रकार के अस्पष्ट और अवास्तविक विचारों से भरे हुए हैं। ये उन विभिन्न विचारों के परिणाम हैं जो शैतान लोगों के मन में बिठा देता है। दूसरे परिप्रेक्ष्य से, परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के बारे में सभी विभिन्न कहावतें झूठी हैं जो लोगों की सोच को भ्रष्ट करती हैं, उनका दिमाग खराब करती हैं, और उनकी सामान्य वैचारिक प्रक्रियाओं को नुकसान पहुँचाती हैं, जिससे सकारात्मक चीजों और सत्य को लेकर लोगों की स्वीकृति पर गंभीर प्रभाव पड़ता है, साथ ही इससे परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों की व्यवस्थाओं और नियमों के बारे में लोगों की विशुद्ध व्याख्या और समझ पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है।
एक मायने में परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों ने लोगों के सोचने के सही तरीकों में व्यवधान डाला है जिससे लोग सही-गलत में अंतर करते हैं; साथ ही उनकी स्वतंत्र इच्छा को भी बाधित कर दिया है। इसके अलावा नैतिक आचरण की इन विभिन्न कहावतों को स्वीकार कर लोग पाखंडी और नकली बन गए हैं। वे बहाने बनाने में अच्छे हैं—यहाँ तक कि हिरण को घोड़ा कहने, काले को सफेद और सफेद को काला कहने, और नकारात्मक, कुरूप और बुरी चीजों को सकारात्मक, सुंदर और अच्छी चीजें मानने और न मानने में सक्षम हैं—और वे पहले ही बुराई को पूजने की सीमा तक पहुँच चुके हैं। पूरे मानव समाज में चाहे कोई भी काल या राजवंश हो, लोग जिन चीजों का समर्थन करते हैं और जिनके प्रति उनकी श्रद्धा है, वे मूल रूप से परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की ये कहावतें ही हैं। नैतिक आचरण पर इन कहावतों के गंभीर प्रभाव के तहत यानी परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण पर इन कहावतों के लगातार अधिक गहन और पूर्ण यकीन के तहत लोग अनजाने ही इन कहावतों को अपने अस्तित्व की पूँजी और अस्तित्व के नियमों के रूप में अपना लेते हैं। लोग बिना विवेक के उन्हें पूरी तरह से स्वीकार लेते हैं, उन्हें सकारात्मक चीजें और एक मार्गदर्शक विचारधारा और मानदंड मानते हैं कि उन्हें दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए, लोगों और चीजों को कैसे देखना चाहिए, और कैसे आचरण और कार्य करना चाहिए। लोग समाज में अपनी जगह बनाने या शोहरत और प्रतिष्ठा पाने या सम्मान और श्रद्धा पाने के लिए इन्हें सर्वोच्च कानून मानते हैं। किसी भी काल में किसी भी समाज या राष्ट्र के किसी भी समूह को ले लो—जिन लोगों का वे आदर करते हैं, जिन पर श्रद्धा रखते हैं, और जिन्हें मानवजाति में सर्वोत्तम घोषित करते हैं, वे उन लोगों से अधिक कुछ नहीं हैं जिन्हें मनुष्य नैतिक प्रतिमान कहते हैं। ऐसे लोग चाहे पर्दे के पीछे कैसा भी जीवन जिएँ, उनके क्रियाकलापों के इरादे और मंशाएँ और उनका मानवता सार चाहे जैसा हो, चाहे वे वास्तव में कैसा भी आचरण करें और दूसरों से कैसे भी व्यवहार करें, और चाहे सुंदर और अच्छे नैतिक आचरण की आड़ में छिपे व्यक्ति का सार जैसा भी हो, इन चीजों की परवाह कोई नहीं करता और न आगे इनकी छानबीन करने की कोशिश करता है। जब तक वे वफादार, देशभक्त हैं और शासकों के प्रति निष्ठा दिखाते हैं, लोग उन्हें अपना आदर्श मानते हैं और उनका गुणगान करते हैं, और यहाँ तक कि नायकों के रूप में उनका अनुकरण करते हैं, क्योंकि यह देखने के लिए कि व्यक्ति दयालु है या दुष्ट, अच्छा है या बुरा और उसकी प्रतिष्ठा मापने के लिए सभी उसके बाहरी नैतिक आचरण को ही आधार मानते हैं। हालाँकि बाइबल में नूह, अब्राहम, मूसा, अय्यूब और पतरस जैसे कई प्राचीन संतों और साधुओं की कहानियाँ और कई पैगंबरों वगैरह की कहानियाँ साफ तौर पर दर्ज हैं, और हालाँकि कई लोग ऐसी कहानियों से परिचित हैं, फिर भी ऐसा कोई भी देश, राष्ट्र या समूह नहीं है जो इन प्राचीन संतों और साधुओं की मानवता और नैतिक चरित्र को व्यापक रूप से बढ़ावा देता हो—या उनके परमेश्वर की आराधना करने के उदाहरण या यहाँ तक कि उनके द्वारा प्रकट किए गए परमेश्वर के भय को—चाहे समाज, पूरे राष्ट्र या लोगों के बीच प्रचारित करता हो। कोई भी एक देश, राष्ट्र या समूह ऐसा नहीं करता। यहाँ तक कि ऐसे देशों में जहाँ ईसाई धर्म राज्य धर्म है, या मुख्य रूप से धार्मिक आबादी वाले देशों में अभी भी इन प्राचीन संतों और साधुओं के मानव चरित्र पर या परमेश्वर का भय मानने और उसके प्रति समर्पण करने को लेकर बाइबल में दर्ज उनकी कहानियों पर कोई ध्यान नहीं देता और उनमें श्रद्धा नहीं रखता। यह किस समस्या की ओर संकेत करता है? भ्रष्ट मानवजाति इस हद तक गिर गई है कि लोग सत्य से विमुख हो चुके हैं, सकारात्मक चीजों से विमुख हो चुके हैं और बुराई को पूजते हैं। यदि परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से लोगों के बीच वचन नहीं बोलता और कार्य नहीं करता, लोगों को स्पष्ट रूप से नहीं बताता कि क्या सकारात्मक है और क्या नकारात्मक, क्या सही है और क्या गलत, क्या सुंदर और अच्छा है, और क्या कुरूप है वगैरह, तो मानवजाति कभी भी अच्छे-बुरे और सकारात्मक-नकारात्मक चीजों के बीच अंतर करने में सक्षम नहीं होती। मानवजाति की शुरुआत से ही और यहाँ तक कि मानव विकास के दौरान भी परमेश्वर के प्रकटन और कार्य के ये कर्म और ऐतिहासिक रिकॉर्ड आज तक यूरोप और अमेरिका के कुछ देशों और जातीय समूहों में दिए जाते रहे हैं। हालाँकि मनुष्य अभी भी सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच या सुंदर अच्छी चीजों और कुरूप बुरी चीजों के बीच अंतर करने में असमर्थ है। न केवल लोग इनमें अंतर करने में असमर्थ हैं, बल्कि वे सक्रिय रूप से और अपनी इच्छा से शैतान के सभी प्रकार के दावों को भी स्वीकार कर लेते हैं, जैसे कि नैतिक आचरण की कहावतें और विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों के बारे में शैतान की गलत परिभाषाएँ और अवधारणाएँ। यह क्या दर्शाता है? क्या यह दिखा सकता है कि मानवजाति के पास स्वतंत्र रूप से सकारात्मक चीजों को स्वीकारने की सहज बुद्धि नहीं है, न ही वह सकारात्मक और नकारात्मक चीजों, अच्छाई और बुराई, सही और गलत, और सच और झूठ के बीच अंतर कर सकती है? (हाँ।) मानवजाति के बीच एक ही समय में दो प्रकार की चीजें प्रचलित होती हैं, जिनमें से एक शैतान से आती है, जबकि दूसरी परमेश्वर से आती है। लेकिन अंत में संपूर्ण मानव समाज में और मानवजाति के विकास के संपूर्ण इतिहास में परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन और वे सभी सकारात्मक बातें जो वह मानवजाति को सिखाता और समझाता है, संपूर्ण मानवजाति उसके प्रति श्रद्धा नहीं रख सकती, और यहाँ तक कि वे मानवजाति के बीच मुख्यधारा भी नहीं बन सकतीं, न ही वे लोगों में सही विचार लाती हैं, और न ही परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजों के बीच सामान्य रूप से जीने के लिए मार्गदर्शन देती हैं। लोग अनजाने में ही शैतान की विभिन्न टिप्पणियों, विचारों, अवधारणाओं के मार्गदर्शन में रहते हैं और इन गलत नजरियों के मार्गदर्शन में जीते रहते हैं। इस तरह जीवन जीने में वे ऐसा निष्क्रिय रूप से नहीं बल्कि सक्रिय रूप से करते हैं। परमेश्वर ने जो कुछ किया है, सभी चीजों को सृजित कर उन पर शासन करने में उसकी सफलता, कुछ देशों में परमेश्वर के कार्य द्वारा छोड़े गए कई वचन, और साथ ही विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों की परिभाषाएँ जो आज तक चली आ रही हैं, इन सबके बावजूद मनुष्य अभी भी अनजाने में उन विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों के अधीन जीते हैं जो शैतान लोगों के मन में बिठाता है। शैतान द्वारा समर्थित और लोगों के मन में डाले गए ये विभिन्न विचार और दृष्टिकोण पूरे मानव समाज में मुख्यधारा के विचार और दृष्टिकोण हैं, यहाँ तक कि उन देशों में भी जहाँ ईसाई धर्म व्यापक रूप से फैला है। वहीं परमेश्वर अपना कार्य करके मानवजाति के लिए चाहे जितने सकारात्मक कथन, सकारात्मक विचार और नजरिए, और लोगों, मामलों और चीजों की सकारात्मक परिभाषाएँ छोड़ जाए, वे केवल संसार के कुछ कोनों में ही मौजूद होते हैं, या इससे भी बदतर बस अल्पसंख्यक जातीय समूहों में कुछ गिने-चुने लोगों के पास ही होते हैं, और केवल कुछ लोगों के होठों पर ही रहते हैं, लेकिन जीवन में मार्गदर्शन और अगुआई के लिए सकारात्मक चीजों के रूप में लोगों द्वारा सक्रियता से स्वीकार नहीं किए जा सकते। इन दो प्रकार की चीजों की तुलना करने और शैतान की ओर से नकारात्मक चीजों के प्रति और परमेश्वर की विभिन्न सकारात्मक चीजों के प्रति मानवजाति के विभिन्न रवैयों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि संपूर्ण मानवजाति बुराई वाली चीज के हाथों में है। यह एक तथ्य है और यकीनन इसकी पुष्टि की जा सकती है। इस तथ्य का मुख्य रूप से अर्थ यह है कि लोगों के विचार, सोचने के तरीके, और लोगों, मामलों और चीजों से व्यवहार के तरीके, सभी शैतान के विभिन्न विचारों और नजरियों से नियंत्रित, प्रभावित और इस्तेमाल किए जाते हैं, और यहाँ तक कि उन्हीं के द्वारा सीमित भी होते हैं। मानव विकास के पूरे इतिहास में चाहे वह कोई भी चरण या काल रहा हो—चाहे वह अपेक्षाकृत पिछड़ा युग हो या आज का आर्थिक रूप से विकसित युग—और चाहे जो क्षेत्र, राष्ट्रीयता या लोगों का समूह हो, मानवजाति के अस्तित्व के साधन, अस्तित्व की नींव, और लोगों, मामलों और चीजों से व्यवहार के तरीके को लेकर उनके विचार हों, सभी परमेश्वर के वचनों के बजाय शैतान द्वारा लोगों के मन में बिठाए गए विभिन्न विचारों पर आधारित हैं। यह बहुत ही शोचनीय बात है। परमेश्वर अपना कार्य करने और मानवजाति को बचाने उस स्थिति में आता है जिसमें मनुष्य शैतान द्वारा बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिए गए हैं, और जिसमें उनके विचारों और दृष्टिकोणों के साथ-साथ सभी प्रकार के लोगों, मामलों और चीजों को देखने के उनके तरीके, जीवन जीने और दुनिया के साथ पेश आने के उनके तरीके पूरी तरह से शैतान के विचारों द्वारा सीमित कर दिए गए हैं। इस संदर्भ में कोई भी कल्पना कर सकता है कि मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य कितना कठिन और मुश्किल है। यह कैसा संदर्भ है? जिस संदर्भ में परमेश्वर अपना कार्य करने आता है, वह ऐसा है जिसमें लोगों के दिल और दिमाग लंबे समय से पूरी तरह से शैतानी फलसफों और जहर से भरे हुए और सीमित होते हैं। वह उस संदर्भ में अपना कार्य करने नहीं आता जिसमें लोगों की कोई विचारधारा नहीं होती, या लोगों, मामलों और चीजों पर उनके कोई विचार नहीं होते, बल्कि वह ऐसे संदर्भ में कार्य करने आता है जिसमें लोगों के पास विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों को देखने के तरीके होते हैं, और जिसमें देखने, सोचने और जीने के इन तरीकों को शैतान ने गंभीर रूप से गुमराह और पथभ्रष्ट कर दिया है। कहने का मतलब यह है कि परमेश्वर कार्य करने और मानवजाति को बचाने एक ऐसे संदर्भ में आता है जिसमें लोगों ने शैतान के विचारों और दृष्टिकोणों को पूरी तरह से स्वीकार लिया है, और वे शैतानी विचारों से भरे, प्रभावित, बंधे हुए और नियंत्रित होते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचा रहा है, जो दर्शाता है कि उसका कार्य कितना कठिन है। परमेश्वर चाहता है कि ऐसे लोग जो शैतानी विचारों से ओत-प्रोत और उनके द्वारा सीमित किए गए हैं, वे सकारात्मक और नकारात्मक चीजों, सुंदरता और कुरूपता, सही और गलत, सत्य और बुरी भ्रांति को पहचानकर उनके बीच अंतर करें, और अंत में उस लक्ष्य तक पहुँचें जहाँ वे शैतान द्वारा उनके दिलों की गहराई में बिठाए गए सभी विभिन्न विचारों और भ्रांतियों से घृणा कर उन्हें ठुकरा सकें, और इस प्रकार जीवन जीने के सभी सही विचारों और सही तरीकों को स्वीकारें, जो परमेश्वर से आते हैं। यही परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उद्धार का विशेष अर्थ है।
भले ही मानवता जिस भी काल या समाज विकास के किसी भी चरण में पहुँची हो, या शासकों का शासन करने का जो भी तरीका हो—चाहे वह सामंती तानाशाही हो या लोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था—इनमें से कोई भी चीज इस तथ्य को नहीं बदलती कि विभिन्न वैचारिक सिद्धांतों और नैतिक आचरण की जिन कहावतों का शैतान समर्थन करता है वे मानव समाज में व्याप्त हैं। सामंती समाज से लेकर आधुनिक समाज तक भले ही शासकों के शासन का दायरा, मार्गदर्शक सिद्धांत और तरीके बार-बार बदलते हैं, और विभिन्न जातीय समूहों, नस्लों और विभिन्न विश्वासी समुदायों की संख्या भी लगातार बदल रही है, शैतान द्वारा लोगों के मन में बिठाई गई परंपरागत संस्कृति की विभिन्न कहावतों का जहर अभी भी प्रचलित है और फैल रहा है, यह लोगों के विचारों और उनकी आत्मा की अंतरतम गहराइयों में अंदर तक जड़ें जमा रहा है, उनके अस्तित्व के तरीकों को नियंत्रित कर रहा है, और लोगों, मामलों और चीजों पर उनके विचारों और नजरिए को प्रभावित कर रहा है। बेशक यह जहर परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैयों को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है, और सत्य और सृष्टिकर्ता के उद्धार को स्वीकारने के लिए मानवजाति की इच्छा और लालसा को बुरी तरह से नष्ट कर देता है। इसलिए परंपरागत संस्कृति से निकली नैतिक आचरण की प्रतिनिधि बातों ने हमेशा से पूरी मानवजाति में लोगों की सोच को नियंत्रित किया है, और मानवजाति के बीच उनकी प्रभावशाली स्थिति और भूमिका किसी भी काल या सामाजिक संदर्भ में कभी नहीं बदली है। भले ही कोई शासक किसी भी काल में शासन करे, या चाहे वे मेहनती या पिछड़ी सोच वाले हों, या चाहे उनका शासन करने का तरीका लोकतांत्रिक हो या तानाशाहीपूर्ण, इनमें से कोई भी परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों से मनुष्यों में डाले गए भ्रम और नियंत्रण को रोक या खत्म नहीं कर सकता। चाहे कोई भी ऐतिहासिक काल हो, या कोई भी जातीय समूह हो, या मानव आस्था का कितना भी विकास हुआ हो या उसमें बदलाव आया हो, और भले ही जीवन और सामाजिक प्रवृत्तियों के बारे में अपनी सोच के संदर्भ में मनुष्यों ने कितनी भी प्रगति की हो और कितना भी बदलाव किया हो, परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों का जो प्रभाव मनुष्यों की सोच पर है वह कभी नहीं बदला है, और लोगों पर उनका असर कभी खत्म नहीं हुआ है। इस दृष्टिकोण से नैतिक आचरण की कहावतों ने लोगों की सोच को बहुत गहराई तक सीमित कर दिया है, जिससे न केवल मनुष्यों के बीच के संबंधों पर बल्कि सत्य के प्रति लोगों के दृष्टिकोण पर भी गंभीर प्रभाव पड़ रहा है, और सृजित मनुष्यों और सृष्टिकर्ता के बीच संबंधों को बुरी तरह से प्रभावित और क्षतिग्रस्त कर रहा है। बेशक यह भी कहा जा सकता है कि परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति को लुभाने, गुमराह करने, शक्तिहीन और सीमित करने के लिए शैतान परंपरागत संस्कृति के विचारों का उपयोग करता है, और वह इन तरीकों का उपयोग मनुष्यों को परमेश्वर से छीनने के लिए करता है। परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के विचार जितना अधिक व्यापक रूप से मानवजाति के बीच प्रसारित होंगे, और जितनी गहराई से वे लोगों के दिलों में जड़ें जमाएँगे, उतना ही मनुष्य परमेश्वर से दूर होते जाएँगे, और उनके उद्धार की आशा भी उतनी ही क्षीण होती जाएगी। जरा इस बारे में सोचो, आदम और हव्वा साँप के बहकावे में आकर अच्छे और बुरे के ज्ञान के पेड़ का फल खाने से पहले यह मानते थे कि यहोवा परमेश्वर उनका प्रभु और उनका पिता है। लेकिन जब साँप ने हव्वा को यह कहकर बहकाया, “क्या परमेश्वर ने कहा है कि तुम इस वाटिका के किसी वृक्ष का फल न खाना?” (उत्पत्ति 3:1), और “निश्चित नहीं कि तुम मरोगे! वरन् परमेश्वर आप जानता है कि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे उसी दिन तुम्हारी आँखें खुल जाएँगी, और तुम भले बुरे का ज्ञान पाकर परमेश्वर के तुल्य हो जाओगे” (उत्पत्ति 3:4-5)। आदम और हव्वा साँप के बहकावे में आ गए, और परमेश्वर के साथ उनके संबंध में तुरंत बदलाव आ गया। कैसा बदलाव आया? वे अब परमेश्वर के सामने नग्न होकर नहीं आते थे, बल्कि खुद को ढकने और छुपाने के लिए चीजें खोजते थे, और परमेश्वर की उपस्थिति के प्रकाश से बचते थे; जब परमेश्वर ने उन्हें ढूँढ़ा, तो वे उससे छिप गए और अब पहले की तरह उससे आमने-सामने बात नहीं करते थे। परमेश्वर के साथ आदम और हव्वा के संबंध में यह बदलाव इसलिए नहीं आया था कि उन्होंने अच्छे-बुरे के ज्ञान के पेड़ का फल खा लिया था, बल्कि इसलिए आया था कि साँप—शैतान—द्वारा बोले गए शब्दों ने लोगों के मन में गलत तरह की सोच पैदा कर दी थी, परमेश्वर पर संदेह करने, उससे दूर जाने और उससे छिपने के लिए उन्हें बहकाया और पथभ्रष्ट किया था। इस प्रकार लोग अब परमेश्वर की उपस्थिति के प्रकाश को सीधे नहीं देखना चाहते थे, और उसके सामने पूरी तरह से बेपर्दा होकर नहीं आना चाहते थे, इससे लोगों और परमेश्वर के बीच एक अलगाव पैदा हो गया। यह अलगाव कैसे आया? यह अलगाव माहौल बदलने या समय बीतने के कारण नहीं, बल्कि इसलिए आया क्योंकि लोगों के दिल बदल गए थे। लोगों के दिल कैसे बदल गए? लोगों ने खुद तो बदलाव की पहल नहीं की। बल्कि यह बदलाव साँप के कहे शब्दों के कारण आया, जिसने परमेश्वर के साथ लोगों के संबंधों में कलह पैदा की, उन्हें परमेश्वर और उसकी उपस्थिति के प्रकाश से दूर कर दिया और उसकी देखभाल को ठुकराकर उसके वचनों पर संदेह करने के लिए बहकाया। इस बदलाव के परिणाम क्या हुए? लोग अब वैसे नहीं रहे जैसे वे हुआ करते थे, उनके दिल और विचार अब उतने शुद्ध नहीं रहे, वे अब परमेश्वर को परमेश्वर और अपने सबसे करीब नहीं मानते थे, बल्कि उस पर संदेह करते और उससे डरते थे, और इस प्रकार वे उससे दूर हो गए और उनमें परमेश्वर से छिपने और उससे दूर रहने की चाहत वाली मानसिकता विकसित हुई, और यही मानवजाति के पतन की शुरुआत थी। मानवजाति के पतन की शुरुआत शैतान के कहे गए शब्दों से हुई, ऐसे शब्द जो जहरीले, बहकाने और पथभ्रष्ट करने वाले थे। इन शब्दों से लोगों में जो विचार पैदा हुए, उन्होंने उन्हें परमेश्वर पर संदेह करने, उसे गलत समझने, और उस पर संदेह करने को मजबूर कर दिया, उन्हें परमेश्वर से अलग कर दिया जिससे वे अब न केवल परमेश्वर का सामना नहीं करना चाहते थे, बल्कि उससे छिपना चाहते थे, और यहाँ तक कि अब उसकी बातों में विश्वास भी नहीं करते थे। परमेश्वर ने इस बारे में क्या कहा? परमेश्वर ने कहा : “तू वाटिका के सब वृक्षों का फल बिना खटके खा सकता है; पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना : क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाएगा उसी दिन अवश्य मर जाएगा” (उत्पत्ति 2:16-17)। जबकि शैतान ने कहा कि जिन लोगों ने अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खाया है, जरूरी नहीं कि वे मरें। शैतान के कहे भ्रामक शब्दों के कारण लोगों ने परमेश्वर के वचनों पर संदेह करना और उन्हें नकारना शुरू कर दिया, यानी लोगों ने अपने दिलों में परमेश्वर के बारे में अलग राय बना ली, और वे अब पहले की तरह शुद्ध नहीं रहे। लोगों की इन राय और शंकाओं के कारण अब वे परमेश्वर के वचनों में विश्वास नहीं करते थे, और उन्होंने यह विश्वास रखना भी छोड़ दिया कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और लोगों और परमेश्वर के बीच एक अपरिहार्य संबंध है, और यहाँ तक कि उन्होंने यह विश्वास करना भी बंद कर दिया कि परमेश्वर लोगों की रक्षा और देखभाल कर सकता है। जिस पल से लोगों ने इन चीजों पर विश्वास करना बंद किया, तभी से वे परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा के इच्छुक नहीं रहे, और बेशक अब वे परमेश्वर के मुँह से निकले किसी भी वचन को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थे। मानवजाति का पतन शैतान के बहकाने वाले शब्दों के कारण शुरू हुआ, और उस विचार और दृष्टिकोण से शुरू हुआ जिसे शैतान ने लोगों के मन में बिठाया था। बेशक इसकी शुरुआत शैतान द्वारा लोगों को बहकाने, पथभ्रष्ट करने और गुमराह करने के कारण भी हुई। शैतान ने लोगों के मन में जो विचार और दृष्टिकोण डाले उनकी वजह से उन्होंने परमेश्वर या उसके वचनों में विश्वास करना बंद कर दिया, और वे परमेश्वर पर संदेह करने लगे, उसे गलत समझने लगे, उससे आशंकित रहने लगे, छिपने लगे, उससे दूरी बनाने लगे, उसकी बातों को नकारने लगे, उसकी पहचान तक को ठुकराने लगे, और इस बात से भी इनकार करने लगे कि लोग परमेश्वर से आए हैं। शैतान इसी तरह कदम-दर-कदम लोगों को बहकाता और भ्रष्ट करता है, परमेश्वर के साथ उसके संबंधों को बिगाड़ कर खराब कर देता है, और लोगों को परमेश्वर के समक्ष आने और उसके मुख से निकले वचनों को स्वीकारने से भी रोकता है। शैतान लगातार सत्य खोजने और परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने की लोगों की इच्छा में बाधक बन रहा है। विरोध करने की क्षमता से हीन लोग अनजाने में शैतान की विभिन्न टिप्पणियों से कट जाते हैं और उसके रंग में रंग जाते हैं, और अंत में इस हद तक गिर जाते हैं कि परमेश्वर के शत्रु और विरोधी बन जाते हैं। यह बुनियादी तौर पर नैतिक आचरण की कहावतों का मानवजाति पर पड़ने वाला असर और नुकसान है। बेशक इन चीजों पर संगति करके हम जड़ से उनका गहन विश्लेषण भी कर रहे हैं, ताकि लोग इस बात की बुनियादी समझ हासिल कर सकें कि कैसे शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है और इसके लिए कौन से तरीके इस्तेमाल करता है। मानवजाति को भ्रष्ट करने की शैतान की प्रमुख चालों में लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों पर चोट करना, लोगों और परमेश्वर के बीच के संबंध को बिगाड़ना और फिर धीरे-धीरे, कदम-दर-कदम उन्हें परमेश्वर से दूर करना शामिल है। शुरुआत में परमेश्वर के वचन सुनकर लोग उन्हें सही मान लिया करते थे, और उनके अनुसार कार्य और अभ्यास करना चाहते थे। ऐसी परिस्थिति में ही शैतान ने लोगों की बची-खुची आस्था, संकल्प, और महत्वाकांक्षा को थोड़ा-थोड़ा करके खत्म करने और तार-तार करने के लिए सभी तरह के विचारों और शब्दों का उपयोग किया, साथ ही उसने लोगों की कुछ धुंधली सकारात्मक चीजों और सकारात्मक इच्छाओं जिन्हें वे पकड़े हुए थे, उनको छीनकर उनकी जगह अपनी विभिन्न चीजों से जुड़ी कहावतों, परिभाषाओं, मतों और धारणाओं को डाल दिया। इस तरह लोग अनजाने में ही शैतान के विचारों से नियंत्रित होने लगते हैं, और उसके कैदी और गुलाम बन जाते हैं। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।) मानवजाति के इतिहास में लोग जितनी अधिक गहराई से और दृढ़ता से शैतान के विचारों को स्वीकारते हैं, मानवजाति और परमेश्वर के बीच के संबंध में उतनी ही दूरी बढ़ती जाती है, इसलिए यह संदेश कि “मनुष्य सृजित प्राणी है और परमेश्वर सृष्टिकर्ता है,” लोगों से उतना ही दूर होता जाता है, और उतने ही ज्यादा लोग इसे स्वीकारना और इस पर विश्वास करना बंद कर देते हैं। इसके बजाय इस संदेश को एक मिथक और किंवदंती यानी अस्तित्वहीन तथ्य और बुरी भ्रांति मान लिया जाता है, और आज के समाज के कुछ लोग तो इसे पाखंड बताकर इसकी निंदा तक करते हैं। ऐसा कहा जाना चाहिए यह सब मानवजाति के बीच बड़े पैमाने पर प्रसारित हो रहे शैतान की विभिन्न बुरी भ्रांतियों का नतीजा और असर है। यह भी कहा जाना चाहिए कि मानव विकास के संपूर्ण इतिहास में लोगों को शिक्षित करने, उनकी कथनी-करनी को नियंत्रित करने जैसी सकारात्मक चीजों की आड़ में शैतान ने कदम-दर-कदम मानवजाति को पाप और मौत के कुंड में खींचा है; उसने मानवजाति को परमेश्वर की मौजूदगी की रोशनी से दूर, उसकी सुरक्षा और संरक्षण से दूर, और उसके उद्धार से दूर कर दिया है। बाइबल के पुराने नियम में परमेश्वर के दूतों के लोगों से बात करने और उनके बीच आकर रहने की बातें लिखीं हैं, मगर ऐसी चीजें 2,000 साल पहले ही होना बंद हो चुकी हैं। इसका कारण यह है कि संपूर्ण मानवजाति में उन प्राचीन संतों और साधुओं जैसा कोई भी नहीं है जिनका जिक्र बाइबल में किया गया है—जैसे कि नूह, अब्राहम, मूसा, अय्यूब या पतरस—और संपूर्ण मानवजाति शैतान के विचारों और टिप्पणियों के रंग में रंग चुकी है। यही इस मामले का सत्य है।
हमने अभी जिस विषय पर संगति की है वह परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों के सार का एक पहलू है, और यह शैतान द्वारा मानवजाति की भ्रष्टता को चिह्नित करता है, उसे साबित करता है, और उसका प्रतीक भी है। इन समस्याओं के सार के हिसाब से देखें, बिना किसी अपवाद के सभी मनुष्य—चाहे वे छोटे बच्चे हों या बुजुर्ग, या वे किसी भी सामाजिक वर्ग में रहते हों, या किसी भी सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हों—शैतान की विभिन्न टिप्पणियों द्वारा सीमित हैं, उन्हें इसकी गहराई की पहचान भी नहीं है, और वे पूरी तरह से अस्तित्व की एक ऐसी स्थिति के भीतर रहते हैं जो शैतानी विचारों से ओत-प्रोत है। बेशक निर्विवाद तथ्य क्या है? यह कि शैतान लोगों को भ्रष्ट कर रहा है। वह मनुष्य के विभिन्न अंगों को नहीं, बल्कि उनके विचारों को भ्रष्ट करता है। मनुष्यों के विचारों को भ्रष्ट करने से पूरी मानवजाति परमेश्वर के विरुद्ध हो जाती है, ताकि परमेश्वर द्वारा सृजित मनुष्य उसकी आराधना न कर सकें, बल्कि परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने, उसका विरोध करने, विश्वासघात करने और उसे ठुकराने के लिए शैतान के सभी प्रकार के विचारों और नजरियों का उपयोग करें। यह शैतान की महत्वाकांक्षा और धूर्त तरकीब है, और बेशक यही शैतान का असली चेहरा है, और इसी तरह शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है। हालाँकि भले ही शैतान ने कितने हजार वर्षों तक मानवजाति को भ्रष्ट किया हो, या कितने तथ्य शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने की ओर इशारा करते हों, या जिन विभिन्न विचारों और नजरियों से वह मानवजाति को भ्रष्ट करता है वो कितने ही बेतुके और विकृत हों, और उनसे मनुष्य की सोच कितनी भी गहराई तक सीमित हो गई हो—संक्षेप में इन सबके बावजूद जब परमेश्वर लोगों को बचाने का अपना कार्य करने आता है, और जब वह सत्य व्यक्त करता है, भले ही लोग ऐसे संदर्भ में रहते हों, तब भी परमेश्वर उन्हें शैतान की सत्ता से छीनकर वापस ला सकता है, उन्हें जीत सकता है। और बेशक परमेश्वर अभी भी अपनी ताड़ना और न्याय में लोगों को सत्य समझा सकता है, उनकी भ्रष्टता का सार और सत्य जान सकता है, उनसे अपने शैतानी स्वभाव दूर करा सकता है, परमेश्वर के प्रति समर्पण करवा सकता है और उसका भय मानकर बुराई छुड़वा सकता है। यही अंतिम परिणाम है जिसे अनिवार्य रूप से हासिल किया जाएगा, और यही वह प्रवृत्ति भी है जिसमें परमेश्वर की 6,000 साल की प्रबंधन योजना निश्चित रूप से फलदायी होगी, और जिसमें परमेश्वर अपनी महिमा के साथ सभी देशों और लोगों के सामने प्रकट होगा। जैसे कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, “परमेश्वर जो कहता है उसके मायने हैं, वह जो कहता है उसे पूरा करेगा, और जो वह करता है वह हमेशा के लिए बना रहेगा।” यह वाक्य सत्य है। क्या तुम लोगों को इस पर विश्वास है? (हाँ।) यह एक ऐसा तथ्य है जो हर हाल में पूरा होगा। क्योंकि परमेश्वर के कार्य का अंतिम चरण मानवजाति को सत्य और जीवन प्रदान करने का कार्य है। केवल तीस वर्षों से अधिक की छोटी सी अवधि में बहुत-से लोग परमेश्वर के समक्ष आए हैं, उसके द्वारा जीते गए हैं, और अब अटल संकल्प के साथ उसका अनुसरण करते हैं। वे शैतान से कोई लाभ नहीं चाहते, वे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय और उसके उद्धार को स्वीकारने के इच्छुक हैं, और हर कोई सृजित प्राणियों के रूप में अपने स्थान को फिर से ग्रहण करने और सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकारने का इच्छुक है। क्या यह परमेश्वर की योजना के फलीभूत होने का संकेत नहीं है? (हाँ।) यह एक स्थापित तथ्य है और ऐसा तथ्य भी है जो पहले ही घटित हो चुका है, और बेशक यह कुछ ऐसा है जो अभी घटित हो रहा है और जो पहले ही घटित हो चुका है। चाहे शैतान मानवजाति को कैसे भी भ्रष्ट करे, या वह चाहे जो भी तरीके अपनाए, परमेश्वर के पास हमेशा मनुष्यों को शैतान की सत्ता से वापस छीनने, उन्हें बचाने, उन्हें अपने समक्ष वापस लाने और मानवजाति और सृष्टिकर्ता के बीच के संबंध को बहाल करने के तरीके होंगे। यही परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और अधिकार है, और चाहे तुम इस पर विश्वास करो या न करो, देर-सबेर वह दिन जरूर आएगा।
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