सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (12) भाग तीन
अब जब हमने “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” वाली कहावत का विश्लेषण और इस पर विस्तार से संगति कर ली है, तो क्या तुम लोग वह सब कुछ समझते हो जो कहा गया है? (हाँ।) संक्षेप में, अब हम यकीन कर सकते हैं कि यह कहावत सकारात्मक नहीं है, और इसका कोई सकारात्मक या व्यावहारिक अर्थ नहीं है। तो इसका लोगों पर कैसा प्रभाव पड़ता है? क्या यह कहावत घातक है? क्या यह लोगों की जिंदगी माँगती है? क्या इसे “घातक कहावत” कहना उचित है? (हाँ।) सच तो यह है कि यह कहावत तुम्हारी जान ले लेती है। यह तुम्हें ऐसा महसूस कराने के लिए अच्छे-अच्छे शब्दों का उपयोग करती है कि कार्य स्वीकार करने और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने के प्रयास में अपना जीवन खपा देने में सक्षम होना कितना महान और गौरवशाली है और इससे तुम कितने बड़े दिलवाले बन जाते हो। इतना बड़ा दिल होने का मतलब है कि अब तुम्हारे मन में जलावन की लकड़ी, चावल, तेल, नमक, सोया सॉस, सिरका, चाय और घरेलू जीवन की ऐसी अन्य चीजों के बारे में सोचने के लिए कोई जगह नहीं है, फिर अपनी पत्नी और बच्चों की देखभाल या आरामदायक बिस्तर की चाह रखना तो दूर की बात है। किसी बड़े दिल वाले व्यक्ति के लिए कुछ विशेष चीजों के बिना काम करना ठीक कैसे हो सकता है? क्या अपने दिल में केवल जलावन की लकड़ी, चावल, तेल, नमक, सोया सॉस, सिरका और चाय जैसी चीजों के लिए जगह रखना बहुत सांसारिक बात है? तुम्हें अपने दिल में उन चीजों के लिए जगह बनानी चाहिए जो एक औसत व्यक्ति नहीं बना सकता, जैसे कि राष्ट्र, तुम्हारी जन्मभूमि के महान उद्यम, मानवजाति की नियति वगैरह—यह होता है “जब स्वर्ग किसी व्यक्ति को बड़ी जिम्मेदारी देने वाला होता है।” एक बार जब लोगों के मन में ऐसा खयाल आता है, तो वे कार्य स्वीकार कर अपने मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करते हैं; वे नैतिक आचरण की इस कहावत का उपयोग कर लगातार खुद को प्रेरित करेंगे, और सोचेंगे, “मुझे अपनी जन्मभूमि और मानवजाति की नियति की सेवा करने के कार्य को स्वीकारना चाहिए और मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करना चाहिए, यही मेरा आजीवन प्रयास और आकांक्षा है।” लेकिन फिर मालूम पड़ता है कि वे अपनी जन्मभूमि और राष्ट्र के महान ध्येय को पूरा करने का बोझ अपने कंधों पर उठाने में सक्षम नहीं हैं, और फिर वे इतने थक जाते हैं कि कार्य स्वीकार करने और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करते हुए खून की उल्टियाँ करने लगते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि लोगों को कैसे जीना चाहिए, या मानवता क्या है, या मानवीय भावनाएँ क्या हैं, या प्रेम क्या है, या नफरत क्या है, और यहाँ तक कि देश और लोगों के बारे में चिंता करते हुए इतना अधिक रोते हैं कि उनकी आँखों से आँसुओं की धार बहने लगती है, और आखिरी साँस तक वे अपनी जन्मभूमि और राष्ट्र के महान उपक्रम को नहीं छोड़ पाते। क्या “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” एक घातक कहावत है जो लोगों की जिंदगी माँगती है? क्या ऐसे लोग दयनीय मौत नहीं मरते? (हाँ।) यहाँ तक कि मृत्यु के समय भी ऐसे लोग अपने खोखले विचारों और आदर्शों को त्यागने से इनकार कर देते हैं, और अंत में वे अपने अंदर शिकायतें और नफरत लिए ही मर जाते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि वे अपने अंदर शिकायतें और नफरत लेकर मरते हैं? क्योंकि वे राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि, मानवजाति की नियति और शासकों द्वारा उन्हें सौंपे गए लक्ष्य को छोड़ नहीं पाते। वे सोचते हैं, “आह, मेरा जीवन कितना छोटा है। अगर मैं कुछ हजार साल और जीवित रह पाता, तो मैं देख पाता कि मानवजाति का भविष्य किस ओर जा रहा है।” वे अपनी पूरी जिंदगी स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिल में रखकर बिताते हैं, और अंत में भी इसे नहीं छोड़ पाते। यहाँ तक कि मृत्यु के समय भी वे अपनी पहचान को, या उन्हें क्या करना चाहिए या क्या नहीं करना चाहिए, नहीं जान पाते। सच तो यह है कि वे साधारण लोग हैं, और उन्हें साधारण लोगों का जीवन जीना चाहिए, लेकिन उन्होंने शैतान के गुमराह करने और परंपरागत संस्कृति के विष को स्वीकार कर लिया है, और खुद को संसार का उद्धारकर्ता मान बैठे हैं। क्या यह दयनीय नहीं है? (हाँ।) यह अत्यंत दयनीय है! मुझे बताओ, अगर कू युआन राष्ट्र की महान धार्मिकता के इस परंपरागत विचार से प्रभावित न होता, तो क्या वह खुद नदी में कूदकर आत्महत्या करता? क्या उसने अपना जीवन त्यागने का इतना बड़ा कदम उठाया होता? (नहीं।) यकीनन उसने ऐसा न किया होता। वह परंपरागत संस्कृति का एक शिकार था, जिसने अंत तक जीने से पहले ही जल्दबाजी में अपना जीवन त्याग दिया। अगर वह इन चीजों से प्रभावित नहीं होता, देश और लोगों की चिंता न करता, बल्कि अपना जीवन जीने पर ध्यान देता, तो क्या वह बूढ़ा होकर एक स्वाभाविक मौत मर पाता? क्या उसकी सामान्य मौत हो सकती थी? अगर उसने कार्य स्वीकार कर मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने की आकांक्षा नहीं रखी होती, तो क्या वह जीवन में अधिक खुश, स्वतंत्र और अधिक शांति से रह पाता? (हाँ।) यही कारण है कि “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” एक घातक कहावत है जो लोगों की जिंदगी माँगती है। जब कोई व्यक्ति इस तरह की सोच से संक्रमित हो जाता है, तो वह पूरा दिन देश और लोगों की चिंता करने में बिताना शुरू कर देता है, और वर्तमान स्थिति को बदलने में सक्षम हुए बिना ही अंत में चिंता कर-करके मर जाता है। क्या कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो के विचार और दृष्टिकोण ने उसका जीवन नहीं छीन लिया? ऐसे विचार और दृष्टिकोण वास्तव में घातक हैं और लोगों की जिंदगी माँगते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? देश या राष्ट्र के भाग्य के लिए कौन अपने दिल में जगह बना सकता है? कौन अपने कंधों पर इतना बड़ा बोझ उठा सकता है? क्या यह किसी की क्षमताओं को बढ़ा-चढ़ाकर आँकना नहीं है? लोग अपनी क्षमताओं को इतना बढ़ा-चढ़ाकर क्यों आँकते हैं? क्या कुछ लोग खुद ही यह सब अपने ऊपर ले लेते हैं? क्या ऐसा है कि वे अपने आप ही ऐसा करने को तैयार होते हैं? सच तो यह है कि वे शिकार हैं, लेकिन किस चीज के? (उन विचारों और दृष्टिकोणों के जो शैतान लोगों में डालता है।) सही सुना, वे शैतान के शिकार हैं। शैतान लोगों के मन में ये विचार डालता है, उन्हें बताता है कि “तुम्हें एक साधारण जीवन जीने के बजाय स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिलों में रखना चाहिए, आम जनता को अपने दिलों में रखना चाहिए, देश और लोगों की चिंता करनी चाहिए, एक घुमंतू शूरवीर बनना चाहिए, अमीरों को लूटकर गरीबों की मदद करने वाला धार्मिक व्यक्ति बनना चाहिए, मानवजाति के भाग्य में योगदान देना चाहिए, और कार्य स्वीकार कर मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए। पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियाँ क्यों निभाएँ? उन चीजों का जिक्र करने का कोई मतलब नहीं है, जो लोग ये काम करते हैं वे चींटियों जैसे हैं। तुम कोई चींटी नहीं हो और न ही तुम्हें गौरैया बनना चाहिए। बल्कि तुम्हें बाज बनना चाहिए, अपने पंख फैलाकर उड़ना चाहिए, और बड़ी आकांक्षाएँ रखनी चाहिए।” इस तरह की उत्तेजना और प्रेरणा लोगों को इस सोच में उलझा देती है, “बिल्कुल सही बात है! मैं गौरैया नहीं बन सकता, मुझे ऊँची उड़ान भरने वाला बाज बनना चाहिए।” हालाँकि चाहे वे कितनी भी कोशिश कर लें, ऊँची उड़ान नहीं भर पाते और आखिर में थक कर अचानक मर जाते हैं, और अपनी बनाई चीजों को खुद ही बर्बाद कर लेते हैं। सच तो यह है कि तुम कुछ भी नहीं हो। तुम न तो गौरैया हो, और न ही बाज हो। तो तुम हो क्या? (एक सृजित प्राणी।) सही सुना, तुम एक साधारण व्यक्ति हो, एक साधारण सृजित प्राणी हो। दिन में अपने तीन बार के भोजन में से एक बार के भोजन को छोड़ना तो ठीक है, लेकिन कई दिनों तक बिना खाए रहना ठीक नहीं है। तुम बूढ़े होगे, बीमार पड़ोगे, और फिर मर जाओगे, तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो। जिन लोगों में थोड़ी सी प्रतिभा और क्षमता होती है वे अत्यधिक अहंकारी हो सकते हैं, और शैतान द्वारा इस तरह से प्रोत्साहन, प्रलोभन दिए जाने, उकसाए और गुमराह किए जाने के बाद भ्रमित होकर दरअसल यह सोच बैठते हैं कि वे इस संसार के उद्धारकर्ता हैं। वे पूरे भरोसे के साथ उद्धारकर्ता के स्थान पर बैठ जाते हैं, देश और राष्ट्र की सेवा करने के कार्य को स्वीकार कर अपने मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने के प्रयास में लग जाते हैं, और वे मानवजाति के लक्ष्य, जिम्मेदारियों, दायित्वों या जीवन के बारे में कुछ भी नहीं सोचते, जो परमेश्वर द्वारा लोगों को दी गई सबसे कीमती चीज है। इस वजह से उन्हें लगता है कि जीवन महत्वपूर्ण या कीमती नहीं है, बल्कि उनकी जन्मभूमि का हित सबसे कीमती चीज है, और उन्हें स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिल में रखना चाहिए, देश और लोगों की चिंता करनी चाहिए, कि ऐसा करके उनके पास सबसे मूल्यवान चरित्र और सर्वोत्तम नैतिकता होगी, और सभी लोगों को इसी तरह रहना चाहिए। शैतान लोगों के मन में ये विचार बिठा देता है, उन्हें गुमराह करके सृजित प्राणियों और साधारण लोगों के रूप में अपनी पहचान त्यागने और कुछ ऐसे काम करने के लिए प्रोत्साहित करता है जो वास्तविकता से मेल नहीं खाते। इसका परिणाम क्या होता है? वे खुद को अपने विनाश के रास्ते पर ले जाते हैं, और अनजाने में चरम सीमा तक चले जाते हैं। “चरम सीमा तक जाने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ मनुष्य के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं से और उन प्रवृत्तियों से दूर बहुत दूर भटक जाना है जो परमेश्वर ने मानवजाति के लिए पूर्वनिर्धारित की हैं। आखिर में ऐसे लोगों के लिए आगे बढ़ने का रास्ता बंद हो जाता है, जो उनके ही विनाश का मार्ग भी होता है।
लोगों को कैसे जीना चाहिए, इस संबंध में मानवजाति से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? सच तो यह है कि वे बहुत सरल हैं। ये अपेक्षाएँ एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण करना और उस कर्तव्य को पूरा करना है जो किसी व्यक्ति को पूरा करना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हें अतिमानवीय या प्रख्यात व्यक्ति बनने के लिए नहीं कहा है, न ही उसने तुम्हें आकाश में उड़ने के लिए पंख दिए हैं। उसने तुम्हें केवल दो हाथ और दो पैर दिए, जिनसे तुम कदम-दर-कदम जमीन पर चल सकते हो और जरूरत पड़ने पर दौड़ सकते हो। परमेश्वर ने तुम्हारे जो आंतरिक अंग बनाए हैं, वे भोजन को पचाते और अवशोषित करते हैं, और तुम्हारे पूरे शरीर को पोषण देते हैं, इसलिए तुम्हें दिन में तीन बार भोजन करने की दिनचर्या का पालन करना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हें स्वतंत्र इच्छा, सामान्य मानवता की बुद्धि, विवेक और समझ दी है जो एक इंसान के पास होनी चाहिए। अगर तुम इन चीजों का अच्छी तरह से और सही ढंग से उपयोग करते हो, शरीर को जीवित रखने के नियमों का पालन करते हो, अपने स्वास्थ्य की उचित देखभाल करते हो, दृढ़ता से वह सब करते हो जो परमेश्वर तुमसे चाहता है, और वह सब हासिल करते हो जिसकी परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है, तो इतना काफी है, और यह बहुत आसान भी है। क्या परमेश्वर ने तुमसे कार्य स्वीकार करने और मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने को कहा है? क्या उसने तुम्हें खुद को कष्ट देने के लिए कहा है? (नहीं।) परमेश्वर ऐसी चीजों की अपेक्षा नहीं करता। लोगों को खुद को कष्ट नहीं देना चाहिए, बल्कि व्यावहारिक ज्ञान से शरीर की विभिन्न आवश्यकताओं को ठीक से पूरा करना चाहिए। प्यास लगने पर पानी पियो, भूख लगने पर खाना खाओ, थके होने पर आराम करो, देर तक बैठे रहने के बाद व्यायाम करो, बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास जाओ, दिन में तीन बार भोजन करो और सामान्य मानवता का जीवन जीते रहो। बेशक तुम्हें अपने सामान्य कर्तव्य भी निभाते रहना चाहिए। अगर तुम्हारे कर्तव्यों में कुछ विशेषज्ञ ज्ञान शामिल है जिसे तुम नहीं समझते, तो तुम्हें अध्ययन करके उसका अभ्यास करना चाहिए। यह सामान्य जीवन है। अभ्यास के विभिन्न सिद्धांत जिन्हें परमेश्वर लोगों के लिए सामने रखता है, वे सभी चीजें हैं जिन्हें सामान्य मानवता की बुद्धि समझ सकती है, ऐसी चीजें जिन्हें लोग समझ और स्वीकार सकते हैं, और जो सामान्य मानवता के दायरे से जरा भी बाहर नहीं हैं। वे सभी मनुष्यों की प्राप्ति के दायरे में हैं, और किसी भी तरह से जो उचित है उसकी सीमा का उल्लंघन नहीं करते। परमेश्वर लोगों से अतिमानवीय या प्रख्यात व्यक्ति बनने की अपेक्षा नहीं रखता, जबकि नैतिक आचरण की कहावतें लोगों को अतिमानवीय या प्रख्यात व्यक्ति बनने की आकांक्षा रखने के लिए मजबूर करती हैं। उन्हें न केवल अपने देश और राष्ट्र के महान हित का ख्याल रखना होगा, बल्कि उन्हें इस कार्य को स्वीकार कर मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास भी करना होगा। यह उन्हें अपना जीवन छोड़ने के लिए मजबूर करता है, जो पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के विपरीत है। लोगों के जीवन के प्रति परमेश्वर का रवैया क्या होता है? परमेश्वर लोगों को हर परिस्थिति में सुरक्षित रखता है, उन्हें प्रलोभन और अन्य खतरनाक परिस्थितियों में पड़ने से बचाता है, और उनके जीवन की रक्षा करता है। ऐसा करने में परमेश्वर का उद्देश्य क्या होता है? इसका उद्देश्य लोगों को अपना जीवन सही ढंग से जीने देना है। लोगों को अपना जीवन सही ढंग से जीने देने का उद्देश्य क्या है? परमेश्वर तुम्हें अतिमानव बनने के लिए मजबूर नहीं करता, और न ही वह तुम्हें स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिल में रखने को कहता है और न ही देश और लोगों के बारे में चिंता करने को कहता है; सभी चीजों पर शासन करने, सभी चीजों का आयोजन करने और मानवजाति पर शासन करने के लिए परमेश्वर की जगह लेना तो दूर की बात है। बल्कि वह तुमसे अपेक्षा करता है कि तुम एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण करो, एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को पूरा करो और उन कर्तव्यों का पालन करो जो लोगों को करने चाहिए और वह करना चाहिए जो लोगों को करना चाहिए। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए, और उनमें मानवजाति के भाग्य पर शासन करना, स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिल में रखना, या मानवजाति, अपनी जन्मभूमि, कलीसिया, परमेश्वर की इच्छा, या मानवजाति को बचाने के उसके महान उपक्रम को पूरा करना शामिल नहीं है। ये चीजें शामिल नहीं हैं। तो तुम्हें जो चीजें करनी चाहिए उनमें क्या शामिल है? इनमें वह आदेश शामिल है जो परमेश्वर तुम्हें देता है, वे कर्तव्य जो परमेश्वर तुम्हें सौंपता है, और ऐसी हर अपेक्षा जो परमेश्वर का घर प्रत्येक अवधि में तुमसे करता है। क्या यह सरल नहीं है? क्या इसे करना आसान नहीं है? इसे करना बहुत ही सरल और आसान है। लेकिन लोग हमेशा परमेश्वर को ही गलत समझते हैं, और सोचते हैं कि वह उन्हें गंभीरता से नहीं लेता है। ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं, “जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें खुद को इतना महत्वपूर्ण नहीं समझना चाहिए, उन्हें अपने शरीर के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिए, अधिक कष्ट सहना चाहिए और रात को जल्दी नहीं सोना चाहिए, क्योंकि अगर वे जल्दी सो गए तो परमेश्वर उनसे नाराज हो सकता है। उन्हें जल्दी उठना चाहिए और देर से सोना चाहिए, और रात भर मेहनत करके अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। भले ही वे परिणाम न दें, फिर भी उन्हें सुबह दो या तीन बजे तक जगे रहना चाहिए।” नतीजा यह कि ऐसे लोग अपने आप ही खुद को इतना ज्यादा थका देते हैं कि उन्हें चलने में भी बहुत मेहनत करनी पड़ती है, और फिर भी कहते हैं कि अपना कर्तव्य निभाने से उन्हें थकावट होती है। क्या यह लोगों की मूर्खता और अज्ञानता के कारण नहीं है? कुछ अन्य लोग भी हैं जो सोचते हैं, “जब हम थोड़े विशेष और अच्छे कपड़े पहनते हैं तो इससे परमेश्वर खुश नहीं होता है, न ही वह इस बात से खुश होता है कि हम हर दिन मांस और अच्छा खाना खाते हैं। परमेश्वर के घर में हम केवल कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास ही कर सकते हैं,” और उन्हें लगता है कि परमेश्वर के विश्वासी होने के नाते उन्हें मरते दम तक अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, नहीं तो परमेश्वर उन्हें नहीं छोड़ेगा। क्या वास्तव में ऐसा है? (नहीं।) परमेश्वर चाहता है कि लोग अपना कर्तव्य जिम्मेदारी और वफादारी के साथ पूरा करें, लेकिन वह उन्हें अपने शरीर को कष्ट देने के लिए मजबूर नहीं करता, और वह उन्हें बेपरवाह होने या समय बर्बाद करने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं कहता। मैं देखता हूँ कि कुछ अगुआ और कर्मी लोगों को इस तरह से अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए व्यवस्थित करते हैं, वे दक्षता की अपेक्षा नहीं करते, बल्कि केवल लोगों का समय और ऊर्जा बर्बाद करते हैं। सच तो यह है कि वे लोगों का जीवन बर्बाद कर रहे हैं। अंत में, लंबे समय में कुछ लोगों को स्वास्थ्य समस्याएँ, पीठ दर्द की समस्या, और घुटनों में दर्द की शिकायत रहने लगती है, और कंप्यूटर की स्क्रीन देखते ही उन्हें चक्कर आने लगता है। यह कैसे हो सकता है? यह किसने किया? (वे खुद ही इसका कारण थे।) परमेश्वर के घर की अपेक्षा होती है कि हर कोई अधिक से अधिक रात 10 बजे तक आराम करने चला जाए, लेकिन कुछ लोग रात 11 या 12 बजे तक नहीं सोते, जिसका असर दूसरे लोगों के आराम पर पड़ता है। कुछ लोग जीवन की सुख-सुविधाओं का लालच रखने और सामान्य रूप से आराम करने वालों को भी धिक्कारते हैं। यह गलत है। अगर तुम्हारे शरीर को पर्याप्त आराम नहीं मिलता तो तुम अच्छा काम कैसे कर सकते हो? परमेश्वर इस बारे में क्या कहता है? परमेश्वर का घर इसे कैसे नियंत्रित करता है? सब कुछ परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के घर के नियमों के अनुसार किया जाना चाहिए, और केवल यही सही है। कुछ लोग बेतुकी समझ रखते हैं, वे हमेशा चरम सीमा तक चले जाते हैं और यहाँ तक कि दूसरों को बाध्य भी करते हैं। यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। कुछ लोग बस बेतुके और मूर्ख होते हैं जिनके पास कोई विवेक नहीं होता, और उन्हें लगता है कि अपने कर्तव्य निभाने के लिए देर रात तक जागना जरूरी है; चाहे वे काम में व्यस्त हों या नहीं, वे थके होने पर भी खुद को आराम नहीं करने देते, बीमार होने पर किसी से कुछ नहीं कहते, और इससे भी बढ़कर डॉक्टर के पास नहीं जाते हैं, जो उन्हें समय की बर्बादी लगती है जिससे उनके कर्तव्य निर्वहन में देरी हो सकती है। क्या यह दृष्टिकोण सही है? इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बाद भी विश्वासी ऐसे बेतुके विचार लेकर क्यों आते हैं? परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाएँ कैसे नियंत्रित होती हैं? तुम्हें नियमित रूप से रात 10 बजे तक आराम करने चले जाना चाहिए और सुबह 6 बजे उठ जाना चाहिए, और यह ध्यान रखना चाहिए कि तुम्हें आठ घंटे की अच्छी नींद मिले। इसके अलावा इस बात पर भी बार-बार जोर दिया जाता है कि तुम्हें काम के बाद व्यायाम करके अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए, स्वस्थ आहार और दिनचर्या का पालन करना चाहिए, ताकि तुम अपना कर्तव्य निभाते समय स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से बचे रहो। लेकिन कुछ लोग इसे समझ नहीं पाते हैं, वे सिद्धांतों या नियमों का पालन नहीं कर पाते, बेवजह देर तक जागते हैं और गलत तरह की चीजें खाते हैं। जब वे बीमार पड़ जाते हैं, तो अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते, और तब पछतावा करने से कुछ नहीं बदलता। मैंने हाल ही में सुना कि कुछ लोग बीमार पड़ गए हैं। क्या यह उनके द्वारा सिद्धांतों का पालन किए बिना अपना कर्तव्य निभाने और लापरवाही से कार्य करने के कारण नहीं हुआ है? यह सच है कि तुम अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाते हो, लेकिन तुम अपने शरीर के प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते। यदि तुम उनका उल्लंघन करते हो, तो बीमार पड़ जाओगे। तुम्हें अपने स्वास्थ्य की देखभाल कैसे करनी है इसकी सामान्य समझ अवश्य होनी चाहिए। तुम्हें उचित समय पर व्यायाम और नियमित समय पर भोजन करना चाहिए। तुम बहुत ज्यादा शराब नहीं पी सकते और न ही ज्यादा खाना खा सकते हो, तुम केवल अपनी पसंद की चीजें और अस्वास्थ्यकर आहार नहीं ले सकते। इसके अलावा तुम्हें अपनी मनोदशा नियंत्रित रखने, परमेश्वर के सामने रहने और सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की आवश्यकता है। इस तरह तुम्हारे दिल में शांति और खुशी होगी, और तुम खोखला या उदास महसूस नहीं करोगे। विशेष रूप से अगर लोग भ्रष्ट स्वभावों को त्याग दें और सामान्य मानवता को जिएँ, तो उनकी मानसिक स्थिति पूरी तरह से सामान्य रहेगी और उनका शरीर स्वस्थ रहेगा। मैंने तुम लोगों से कभी देर से सोने और जल्दी उठने या दिन में दस घंटे से ज्यादा काम करने के लिए नहीं कहा। यह सब इसलिए है क्योंकि लोग नियमों के अनुसार व्यवहार और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते। आखिरकार लोग इतने नासमझ होते हैं कि वे अपने स्वास्थ्य को हल्के में लेने लगते हैं। मैंने देखा कि कुछ स्थानों पर लोग हमेशा अपने कर्तव्यों को घर के अंदर रहकर ही निभा रहे थे, धूप सेंकने या सक्रिय रहने के लिए बाहर नहीं जा रहे थे, तो मैंने लोगों के लिए कुछ फिटनेस उपकरणों की व्यवस्था की और उन्हें हफ्ते में एक या दो बार व्यायाम करने के लिए कहा, जो एक स्वस्थ दिनचर्या के लिए होता है। जो लोग ठीक से व्यायाम नहीं करते वे स्वाभाविक रूप से बीमार हो जाएँगे और इसका असर उनके सामान्य जीवन पर भी पड़ता है। ऐसी व्यवस्था करके क्या मुझे इसका ध्यान रखने की जरूरत है कि कौन कितनी बार व्यायाम कर रहा है? (नहीं।) मुझे ऐसा करने की जरूरत नहीं है, मैंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी है, अपनी बात रख दी है, और बिना किसी झूठ के तुम सब को सच्चाई से बता दिया है कि क्या करना है, तुम्हें बस निर्देशानुसार इसे करते जाना है। लेकिन लोग इसे नहीं समझते, सोचते हैं कि वे अभी जवान और स्वस्थ हैं, तो वे मेरे शब्दों को गंभीरता से नहीं लेते। यदि तुम लोग अपने स्वास्थ्य को ही महत्व नहीं देते, तो मेरा इस बारे में चिंता करना बेकार है—बस बीमार पड़ने पर दूसरों को दोष मत देना। लोग व्यायाम करने पर ध्यान नहीं देते हैं। एक पहलू यह है कि उनके मन में कुछ गलत विचार और दृष्टिकोण होते हैं। दूसरा यह कि उनमें आलस्य की घातक समस्या होती है। यदि लोगों को कोई छोटी-मोटी शारीरिक बीमारी होती है, तो उन्हें बस अपने स्वास्थ्य की देखभाल पर ध्यान देना और अधिक सक्रिय रहना होगा। लेकिन कुछ लोग बीमार पड़ने पर व्यायाम करने और अपने स्वास्थ्य की देखभाल करने के बजाय जाकर इंजेक्शन लगवाना या कोई दवा लेना पसंद करते हैं। इसकी वजह आलस होता है। लोग आलसी हैं और व्यायाम करने में आनाकानी करते हैं, इसलिए उनसे कुछ भी कहना बेकार है। आखिर में बीमार पड़ने पर वे दूसरों को दोष नहीं दे सकते; वे अंदर से खुद जानते हैं कि वास्तविक कारण क्या है। हरेक व्यक्ति को रोज सामान्य मात्रा में व्यायाम करना चाहिए। हर दिन मुझे कम से कम एक या दो घंटे पैदल चलना और कुछ जरूरी व्यायाम करने होते हैं। यह न केवल मेरे शरीर को मजबूत रखने में मदद करता है, बल्कि बीमारी को रोकने और मुझे शारीरिक रूप से बेहतर महसूस कराने में भी मदद करता है। व्यायाम केवल बीमारी से बचाव के लिए नहीं होता, बल्कि यह एक सामान्य शारीरिक जरूरत भी है। इस मामले में मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षा यह है कि उनमें थोड़ी सी अंतर्दृष्टि हो। नासमझ मत बनो, और अपने शरीर को कष्ट मत दो, बल्कि इसके प्राकृतिक नियमों का पालन करो। अपनी देह का दुरुपयोग मत करो, और न ही इसके बारे में ज्यादा चिंता करो। क्या इस सिद्धांत को समझना आसान है? (हाँ।) वास्तव में इसे समझना बहुत आसान है, मुख्य बात यह है कि लोग इसे अभ्यास में लाते हैं या नहीं। लोगों की घातक कमजोरियों में से एक और क्या है? वे हमेशा अपनी कल्पना को अपने साथ उड़ने देते हैं, सोचते हैं, “अगर मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, तो मैं बीमार नहीं पड़ूँगा, मैं बूढ़ा नहीं होऊँगा, और यकीनन नहीं मरूँगा।” ये बिल्कुल बकवास है। परमेश्वर ऐसी अलौकिक चीजें नहीं करता। वह लोगों को बचाता है, उनसे वादे करता है, और उन्हें सत्य खोजने और समझने, अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने, उसका उद्धार प्राप्त करने, और मानवजाति की खूबसूरत मंजिल में प्रवेश करने के लिए कहता है। लेकिन परमेश्वर ने लोगों से कभी यह वादा नहीं किया है कि वे बीमार नहीं पड़ेंगे या बूढ़े नहीं होंगे, न ही उसने लोगों से यह वादा किया है कि वे मरेंगे नहीं। और बेशक परमेश्वर ने लोगों से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं रखी है कि उन्हें “कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करना चाहिए।” जब अपना कर्तव्य निभाने और कलीसिया का कार्य करने, कष्ट उठाने, त्याग करने, खुद को खपाने, और चीजों को छोड़ने की बात आती है, तो लोगों को सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। अपने जीवन और शारीरिक जरूरतों से निपटते समय लोगों में थोड़ी व्यावहारिक समझ होनी चाहिए, और उन्हें अपने शरीर की सामान्य जरूरतों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, उन कानूनों और नियमों का उल्लंघन करना तो दूर की बात है जो परमेश्वर ने लोगों के लिए बनाए हैं। बेशक यह कम-से-कम व्यावहारिक सामान्य समझ है जो लोगों में होनी चाहिए। यदि लोग अपने शरीर की जरूरतों और नियमों के हिसाब से चलना भी नहीं जानते, और उनके पास थोड़ी भी व्यावहारिक समझ नहीं है, बल्कि वे केवल कल्पनाओं और धारणाओं पर भरोसा करते हैं, और यहाँ तक कि अपने शरीर से व्यवहार के कुछ अतिवादी विचार और अतिवादी तरीके अपनाते हैं, तो ऐसे लोगों की समझ बेतुकी है। ऐसी काबिलियत वाले लोग किस प्रकार का सत्य समझ सकते हैं? इसे लेकर यहाँ सवाल खड़ा है। अपने शरीर के साथ व्यवहार को लेकर लोगों से परमेश्वर की क्या अपेक्षा है? जब परमेश्वर ने लोगों को सृजित किया, तो उसने उनके लिए कुछ नियम भी बनाए, तो वह तुमसे अपेक्षा करता है कि तुम अपने शरीर के साथ इन्हीं नियमों के अनुसार व्यवहार करो। यही वह अपेक्षा और मानक है जो परमेश्वर लोगों के लिए निर्धारित करता है। धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा मत करो। क्या तुम समझ रहे हो?
नैतिक आचरण की इस कहावत, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” की शिक्षा और प्रभाव में आकर लोग यह नहीं जानते कि अपने शरीर के साथ कैसा व्यवहार करें या सामान्य जीवन कैसे जिएँ। यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि लोग अपनी मृत्यु से निपटना नहीं जानते, और न ही सार्थक तरीके से जीना जानते हैं। तो चलो अब हम लोगों की मृत्यु से निपटने को लेकर परमेश्वर के रवैये को देखते हैं। चाहे कर्तव्य निर्वहन का कोई भी पहलू हो, लोगों के लिए अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में परमेश्वर का लक्ष्य सत्य को समझना, उसे अभ्यास में लाना, अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना, एक सामान्य मनुष्य की छवि को जीना, और सीधे मृत्यु की ओर भागने के बजाय उद्धार प्राप्त करने के मानक तक पहुँचना होता है। कुछ लोगों को गंभीर बीमारी या कैंसर हो जाता है और वे सोचते हैं, “परमेश्वर मुझसे मरने और अपना जीवन त्यागने के लिए कह रहा है, तो मैं ऐसा ही करूँगा!” वास्तव में परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा, न ही उसके मन में ऐसा कोई विचार आया। यह सिर्फ लोगों की गलतफहमी है। तो परमेश्वर क्या चाहता है? हरेक व्यक्ति कुछ वर्षों तक जीता है, लेकिन उनका जीवनकाल अलग-अलग होता है। हरेक इंसान तभी मरता है जब परमेश्वर इसे निर्धारित करता है, और यह सही समय और सही स्थान पर होता है। यह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। वह ऐसा उस व्यक्ति के जीवनकाल और उसकी मृत्यु के निर्धारित स्थान और तरीके के अनुसार करता है, न कि किसी को मनमाने तरीके से मरने देता है। परमेश्वर किसी व्यक्ति के जीवन को बहुत महत्वपूर्ण मानता है, वह उसकी मृत्यु और उसके भौतिक जीवन के अंत को भी बहुत महत्वपूर्ण मानता है। यह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। इस दृष्टिकोण से देखने पर चाहे परमेश्वर लोगों से अपने कर्तव्यों का पालन करने या उसका अनुसरण करने की अपेक्षा करता हो या नहीं, वह लोगों से मृत्यु की ओर तेजी से भागने के लिए तो नहीं ही कहता। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर तुमसे यह अपेक्षा नहीं करता कि तुम अपना कर्तव्य निभाने या परमेश्वर के लिए खुद को खपाने या उसके आदेश की खातिर किसी भी समय अपना जीवन त्यागने के लिए तैयार रहो। तुम्हें ऐसी तैयारी करने, ऐसी मानसिकता रखने, और यकीनन इस तरह से योजना बनाने या सोचने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि परमेश्वर तुम्हारी जान नहीं लेना चाहता। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? जाहिर है कि तुम्हारा जीवन परमेश्वर का है, उसी ने ही इसे तुम्हें दिया है, तो वह इसे वापस क्यों लेना चाहेगा? क्या तुम्हारा जीवन मूल्यवान है? परमेश्वर के दृष्टिकोण से सवाल इसके मूल्यवान होने या न होने का नहीं, बल्कि सवाल सिर्फ परमेश्वर की प्रबंधन योजना में तुम्हारी भूमिका का है। जहाँ तक तुम्हारे जीवन का सवाल है, यदि परमेश्वर इसे छीनना चाहता, तो वह इसे किसी भी समय, किसी भी स्थान पर और किसी भी पल छीन सकता था। इसलिए किसी भी व्यक्ति का जीवन उसके लिए महत्वपूर्ण है, और उसके कर्तव्यों, दायित्वों और जिम्मेदारियों के साथ-साथ परमेश्वर के आदेश के लिए भी महत्वपूर्ण है। बेशक यह परमेश्वर की संपूर्ण प्रबंधन योजना में उनकी भूमिका के लिए भी महत्वपूर्ण है। भले ही यह महत्वपूर्ण है, पर परमेश्वर को तुम्हारा जीवन छीनने की कोई जरूरत नहीं। क्यों? जब तुमसे तुम्हारा जीवन छीन लिया जाता है, तो तुम एक मृत व्यक्ति बन जाते हो, और तुम्हारा कोई इस्तेमाल नहीं रहता। केवल जब तुम जीवित रहते हो, उस मानवजाति के बीच होते हो जिस पर परमेश्वर शासन करता है, तभी तुम वह भूमिका निभा सकोगे जो तुम्हें इस जीवन में निभानी चाहिए, और उन जिम्मेदारियों, दायित्वों और कर्तव्यों को भी पूरा कर पाओगे जो तुम्हें इस जीवन में पूरे करने हैं, और वे कर्तव्य पूरे कर सकोगे, जिन्हें पूरा करने की अपेक्षा परमेश्वर तुमसे इस जीवन में करता है। इस तरह जीवित रहकर ही तुम्हारा जीवन मूल्यवान हो सकता है और उसके मूल्य का सही उपयोग हो सकता है। तो “परमेश्वर के लिए मरना” या “परमेश्वर के कार्य के लिए अपना जीवन त्यागना” जैसी बातों को लापरवाही से मत दोहराओ, न ही उन्हें अपने मन में या अपने दिल की गहराइयों में रखो; यह अनावश्यक है। जब कोई व्यक्ति लगातार परमेश्वर की खातिर मरना और अपने कर्तव्य के लिए खुद को अर्पित करना और अपना जीवन त्यागना चाहता है, तो यह सबसे घटिया, बेकार और घृणित बात होती है। क्यों? यदि तुम्हारा जीवन समाप्त हो जाएगा, और तुम देह में नहीं रहोगे, तो तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य कैसे पूरा कर पाओगे? यदि सभी लोग मर गए तो परमेश्वर अपने कार्य के जरिए किसे बचाएगा? यदि ऐसे मनुष्य ही नहीं होंगे जिन्हें बचाने की आवश्यकता है, तो परमेश्वर की प्रबंधन योजना का कार्यान्वयन कैसे होगा? क्या मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य अभी भी अस्तित्व में रहेगा? क्या यह तब भी जारी रहेगा? इन पहलुओं से गौर करें, तो क्या लोगों के लिए अपने शरीर की अच्छी देखभाल करना और स्वस्थ जीवन जीना महत्वपूर्ण बात नहीं है? क्या यह सार्थक नहीं है? यह यकीनन सार्थक है और लोगों को ऐसा ही करना चाहिए। जहाँ तक उन बेवकूफों की बात है जो लापरवाही से कहते हैं, “यदि बद से बदतर समय आया, तो मैं परमेश्वर के लिए जान दे दूँगा,” और जो लापरवाही से मृत्यु को महत्वहीन बना सकते हैं, अपना जीवन त्याग सकते हैं, अपने शरीर को हानि पहुँचा सकते हैं, वे किस तरह के लोग हैं? क्या वे विद्रोही लोग हैं? (हाँ।) ये सबसे विद्रोही लोग हैं, और इनका तिरस्कार कर इन्हें ठुकरा देना चाहिए। जब कोई व्यक्ति लापरवाही से यह कह पाता है कि वह परमेश्वर के लिए जान दे देगा, तो हो सकता है वह बिना सोचे अपना जीवन समाप्त करने, अपना कर्तव्य छोड़ने, परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए आदेश को छोड़ने, और अपने भीतर परमेश्वर के वचनों को पूरा नहीं होने देने के बारे में सोच रहा है। क्या यह चीजों को करने का मूर्खतापूर्ण तरीका नहीं है? तुम लापरवाही से और आसानी से अपना जीवन त्यागकर यह कह सकते हो कि तुम इसे परमेश्वर को अर्पित करना चाहते हो, लेकिन क्या परमेश्वर को तुमसे ऐसा करवाने की जरूरत है? तुम्हारा जीवन परमेश्वर का ही है, और वह जब चाहे इसे छीन सकता है, तो फिर उसे अपना जीवन अर्पित करने का क्या मतलब? यदि तुम इसे अर्पित नहीं करते हो, मगर परमेश्वर को इसकी जरूरत है, तो क्या वह इसके लिए तुमसे विनती करेगा? क्या उसे इस बारे में तुमसे बात करनी होगी? नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। लेकिन परमेश्वर तुम्हारा जीवन किस लिए चाहेगा? यदि परमेश्वर ने तुम्हारा जीवन वापस ले लिया, तो तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा पाओगे, और परमेश्वर की प्रबंधन योजना से एक व्यक्ति गायब हो जाएगा। क्या वह इससे खुश और संतुष्ट होगा? वास्तव में इससे कौन खुश और संतुष्ट होगा? (शैतान।) अपना जीवन त्यागकर तुम क्या हासिल कर पाओगे? और तुम्हारा जीवन छीनकर परमेश्वर को क्या हासिल हो पाएगा? यदि तुम बचाए जाने का अवसर खो देते हो, तो इससे परमेश्वर का फायदा होगा या नुकसान? (नुकसान।) परमेश्वर के लिए यह कोई फायदा नहीं बल्कि नुकसान है। परमेश्वर तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने देने के लिए, एक सृजित प्राणी का जीवन जीने और इसका स्थान ग्रहण करने देता है, और ऐसा करके परमेश्वर तुम्हें सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने, उसके प्रति समर्पित होने, उसकी इच्छा समझने और उसे जानने, उसके इरादों के अनुसार चलने, मानवजाति को बचाने के उसके कार्य को पूरा करने में उसके साथ सहयोग करने और अंत तक उसका अनुसरण करने की अनुमति देता है। यही धार्मिकता है और यही तुम्हारे जीवन के अस्तित्व का मूल्य और अर्थ है। यदि तुम्हारा जीवन इसके लिए है, और तुम इसके लिए ही स्वस्थ जीवन जीते हो, तो यह सबसे सार्थक चीज है, और जहाँ तक परमेश्वर की बात है, यही सच्चा समर्पण और सहयोग है—उसके लिए यह सबसे संतोषजनक चीज है। परमेश्वर अपनी ताड़ना और न्याय के जरिए देह में रहने वाले सृजित प्राणी को अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागते, शैतान द्वारा उसमें डाले गए अनगिनत भ्रामक विचारों को ठुकराते, परमेश्वर के सत्यों और अपेक्षाओं को स्वीकारने में सक्षम होते, सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के प्रति पूरी तरह समर्पित होते, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते, और एक सच्चा सृजित प्राणी बनने में सक्षम होते देखना चाहता है। परमेश्वर यही देखना चाहता है, और यही मानव जीवन के अस्तित्व का मूल्य और अर्थ है। इसलिए किसी भी सृजित प्राणी के लिए मृत्यु अंतिम मंजिल नहीं है। मानव जीवन के अस्तित्व का मूल्य और अर्थ मरना नहीं है, बल्कि परमेश्वर के लिए जीना है, परमेश्वर के लिए और अपने कर्तव्य के लिए जीवित रहना है, एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए जीवित रहना है, परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलना और शैतान को नीचा दिखाना है। यही एक सृजित प्राणी के जीवन का मूल्य है, और यही उसके जीवन का अर्थ भी है।
जहाँ तक लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं का संबंध है, परमेश्वर लोगों के जीवन और मृत्यु के साथ जिस तरह का व्यवहार करता है वह परंपरागत संस्कृति में “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” वाली कहावत से पूरी तरह अलग है। शैतान लगातार चाहता है कि लोग मर जाएँ। लोगों को जीवित देखकर उसे असहज महसूस होता है, और वह लगातार यही सोचता रहता है कि उनकी जान कैसे ली जाए। एक बार जब लोग शैतान की परंपरागत संस्कृति के भ्रामक विचारों को स्वीकार लेते हैं, तो वे केवल अपने देश और राष्ट्र के लिए, या अपने करियर के लिए, प्यार के लिए, या अपने परिवार के लिए अपना जीवन त्याग देना चाहते हैं। वे लगातार अपने जीवन का तिरस्कार करते हैं, कहीं भी और किसी भी समय मरने और अपना जीवन त्यागने के लिए तैयार रहते हैं, और परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए जीवन को सबसे कीमती चीज और ऐसी चीज नहीं मानते जिसे संजोया जाना चाहिए। परमेश्वर द्वारा उन्हें मिले जीवन को जीते हुए भी वे अपने जीवनकाल के दौरान अपने कर्तव्यों और दायित्वों को पूरा करने में असमर्थ रहते हैं, बल्कि वे शैतान की भ्रांतियों और दानवी शब्दों को स्वीकारते हैं, हमेशा अपने कार्य को स्वीकारने और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने में लगे रहते हैं और किसी भी समय परमेश्वर की खातिर मरने के लिए खुद को तैयार करते रहते हैं। तथ्य यह है कि यदि तुम वाकई मर जाते हो, तो यह परमेश्वर के लिए नहीं बल्कि शैतान के लिए होगा, और परमेश्वर तुम्हें याद नहीं रखेगा। क्योंकि केवल जीवित व्यक्ति ही परमेश्वर का गुणगान कर सकते हैं और उसकी गवाही दे सकते हैं, और केवल जीवित व्यक्ति ही सृजित प्राणियों का उचित स्थान ग्रहण करके अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकते हैं, और इस तरह उन्हें कोई पछतावा नहीं होता, और वे शैतान को नीचा दिखाने में सक्षम होते हैं, और सृष्टिकर्ता के चमत्कारिक कर्मों और उसकी संप्रभुता की गवाही देते हैं—केवल जीवित लोग ही ये काम कर सकते हैं। यदि तुम्हारे पास जीवन ही नहीं है, तो इन सबका कोई अस्तित्व ही नहीं होगा। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) इसलिए नैतिक आचरण की इस कहावत को सामने रखकर, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” शैतान निस्संदेह मानव जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहा है और उसे रौंद रहा है। शैतान मानव जीवन का सम्मान नहीं करता, बल्कि लोगों से “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” जैसे विचारों को मनवाकर उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करता है। लोग ऐसे विचारों के अनुसार जीते हैं, और जीवन को नहीं संजोते या उसे मूल्यवान नहीं मानते हैं, तो वे लापरवाही से अपना जीवन त्याग देते हैं, जो परमेश्वर द्वारा लोगों को दी गई सबसे कीमती चीजों में से एक है। यह छल-कपट और अनैतिक बात है। जब तक परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए निर्धारित समय-सीमा पूरी नहीं होती, तब तक तुम्हें महत्वहीन ढंग से यूँ ही अपना जीवन त्यागने की बात नहीं करनी चाहिए। जब तक तुम में साँस बाकी है, तब तक हार मत मानो, अपना कर्तव्य मत त्यागो, और सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें सौंपा गया दायित्व और आदेश छोड़कर मत भागो। क्योंकि किसी भी सृजित प्राणी का जीवन केवल सृष्टिकर्ता के लिए और केवल उसकी संप्रभुता, आयोजन और व्यवस्थाओं के लिए होता है, और यह केवल सृष्टिकर्ता की गवाही देने और मानवजाति को बचाने के उसके कार्य को पूरा करने और उसका मूल्य चुकाने के लिए ही अस्तित्व में होता है। तुम देख सकते हो कि मानव जीवन के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण शैतान के नजरिये से बिल्कुल अलग है। तो वास्तव में मानव जीवन को कौन संजोता है? (परमेश्वर।) केवल परमेश्वर ऐसा करता है, जबकि लोग खुद अपने जीवन को संजोना नहीं जानते। केवल परमेश्वर ही मानव जीवन को संजोता है। हालाँकि मनुष्य प्यारे या प्यार करने के योग्य नहीं हैं, और वे गंदगी, विद्रोहीपन और शैतान द्वारा उनमें डाले गए कई प्रकार के बेतुके विचारों और नजरियों से भरे हुए हैं, और भले ही वे शैतान को आदर्श मानते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, यहाँ तक कि इसके लिए परमेश्वर का विरोध भी करते हैं, फिर भी क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर ने सृजित किया है, और वह उन्हें साँस और जीवन देता है, केवल वही मानव जीवन को संजोता है, केवल वही लोगों से प्रेम करता है, और केवल वही मानवजाति की निरंतर देखभाल करता और उसे संजोता है। परमेश्वर मनुष्यों को संजोता है—उनके शरीरों को नहीं बल्कि उनके जीवन को संजोता है, क्योंकि केवल वे मनुष्य जिन्हें परमेश्वर ने जीवन दिया है, आखिर में उसकी आराधना करने वाले सृजित प्राणी बन सकते हैं और उसके लिए गवाही दे सकते हैं। लोगों और इन सृजित प्राणियों के लिए परमेश्वर के पास कार्य, आदेश और अपेक्षाएँ होती हैं। इसलिए परमेश्वर उनके जीवन को संजोता और बचाकर रखता है। यह सत्य है। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) तो एक बार जब लोग सृष्टिकर्ता परमेश्वर के इरादों को समझ जाते हैं, तो उन्हें अपने शारीरिक जीवन के साथ कैसा व्यवहार करना है, और अपना जीवन जीने के नियमों और जरूरतों से कैसे निपटना है, इसके लिए सिद्धांत नहीं होने चाहिए? ये सिद्धांत किस पर आधारित हैं? वे परमेश्वर के वचनों पर आधारित हैं। इनका अभ्यास करने के सिद्धांत क्या हैं? निष्क्रिय रूप में लोगों को शैतान द्वारा उनमें डाले गए कई प्रकार के भ्रामक विचारों को त्याग देना चाहिए, शैतान के विचारों की भ्रामकता को उजागर करना और पहचानना चाहिए—जैसे कि यह कहावत “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो”—जो लोगों को शक्तिहीन कर देती है, उन्हें नुकसान पहुँचाती और सीमित करती है, उन्हें इन विचारों को त्याग देना चाहिए; इसके अलावा सक्रिय रूप में उन्हें सटीक रूप से समझना चाहिए कि मानवजाति के लिए सृष्टिकर्ता परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, और परमेश्वर के वचनों को अपने हर कार्य का आधार बनाना चाहिए। इस तरह लोग भटकाव के बिना सही तरीके से अभ्यास करने में सक्षम होंगे, और सही मायनों में सत्य का अनुसरण कर सकेंगे। सत्य का अनुसरण करना क्या है? (पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।) इन शब्दों में इसे सारांशित करना सही है।
आज हमने मुख्य रूप से इस बारे में संगति की है कि मृत्यु के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए और जीवन के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। शैतान लोगों को रौंदता है, तबाह करता है और उनका जीवन छीन लेता है। वह लोगों के मन में भ्रामक प्रकार के विचार और दृष्टिकोण डालकर उन्हें गुमराह और शक्तिहीन कर देता है, और लोगों को उनके पास मौजूद सबसे कीमती चीज—अपने जीवन—का तिरस्कार करने पर मजबूर करता है, जिससे परमेश्वर के कार्य में बाधा आती है और उसका नुकसान होता है। जरा सोचो, अगर पूरी दुनिया में सभी लोग मरना चाहेंगे, और लापरवाही से ऐसा कर पाएँगे, तो क्या समाज अराजकता में नहीं घिर जाएगा? क्या तब मनुष्य के लिए जीवन जीना और जीवित रहना कठिन हो जाएगा? (हाँ।) तो मानव जीवन के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण क्या होता है? वह इसे संजोता है। परमेश्वर मानव जीवन को संजोता और इसे बचाकर रखता है। परमेश्वर के इन वचनों से लोगों को अभ्यास का कौन सा मार्ग प्राप्त करना चाहिए? अपने जीवनकाल के दौरान जब उनके पास अभी भी जीवन और साँस है, जो कि परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई सबसे कीमती चीजें हैं, लोगों को सही ढंग से सत्य का अनुसरण और उसे समझना चाहिए, और परमेश्वर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों के अनुसार बिना किसी पछतावे के एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए, ताकि एक दिन वे सृजित प्राणियों का स्थान ग्रहण कर सकें, सृष्टिकर्ता की गवाही दे सकें और उसकी आराधना कर सकें। ऐसा करने पर वे शैतान के लिए नहीं बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता, उसके कार्य और उसकी गवाही के लिए जीकर अपने जीवन को मूल्य और अर्थ देंगे। लोगों के जीवन का मूल्य और अर्थ तभी है जब वे परमेश्वर के कर्मों और कार्य के बारे में गवाही दे सकें। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि मानव जीवन तब अपने सबसे गौरवशाली समय पर पहुँच जाएगा। ऐसा कहना बिल्कुल सही नहीं है, क्योंकि अभी वो समय नहीं आया है। जब तुम वास्तव में सत्य समझ लेते हो, सत्य प्राप्त कर लेते हो, परमेश्वर के बारे में जान लेते हो, और परमेश्वर की आराधना करने के लिए एक सृजित प्राणी का स्थान ग्रहण कर सकते हो, और परमेश्वर के साथ-साथ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, उसके कर्मों, उसके सार और उसकी पहचान के बारे में गवाही दे सकते हो, तब तुम्हारे जीवन का मूल्य अपने चरम पर और अपनी पूर्ण सीमा तक पहुँच जाएगा। यह सब कहने का उद्देश्य और अर्थ तुम लोगों को जीवन के अस्तित्व के मूल्य और अर्थ के साथ-साथ यह समझाना है कि तुम्हें अपने जीवन के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, ताकि तुम इसके आधार पर वह मार्ग चुन सको जिस पर तुम्हें चलना चाहिए। परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने का यही एकमात्र रास्ता है।
4 जून 2022
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