सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (12) भाग दो

हमने पिछली बार नैतिक आचरण की जिन कहावतों और उनके सार पर संगति की थी, उसके आधार पर इसे देखा जाए तो, परंपरागत संस्कृति की ऐसी कहावतें मानवजाति के भ्रष्ट स्वभाव और सार को छिपाए हुए हैं, और यकीनन वे इस तथ्य को भी छिपाए हुए हैं कि शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है। परंपरागत संस्कृति में पुरुषों और महिलाओं की जिन परिभाषाओं पर हमने आज संगति की है, वे नैतिक आचरण की कहावतों के एक और आवश्यक पहलू को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं। वह कौन-सा सार है? नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें न केवल लोगों की सोच को गुमराह करती, गलत रास्ते ले जाती और सीमित करती हैं, बल्कि यकीनन वे विभिन्न लोगों, मसलों और चीजों के बारे में अन्य लोगों के मन में गलत अवधारणाएँ और विचार भी पैदा करती हैं। यह एक तथ्य है, और नैतिक आचरण की कहावतों का एक और आवश्यक पहलू भी है जिसका शैतान समर्थन करता है। इस दावे को कैसे साबित किया जा सकता है? क्या नैतिक आचरण की कहावतों में पुरुषों और महिलाओं की परिभाषाएँ, जिनके बारे में हमने अभी संगति की है, इस बात को साबित करने के लिए काफी नहीं हैं? (काफी हैं।) वे वाकई इस बात को साबित करने के लिए काफी हैं। नैतिक आचरण की कहावतें केवल सही और गलत व्यवहार, अच्छे और बुरे अभ्यास की बात करती हैं, और वे अच्छाई और बुराई, सही और गलत के बारे में केवल सतही तौर पर बात करती हैं। जब लोगों, मसलों और चीजों की बात आती है, तो वे लोगों को यह नहीं जानने देती हैं कि सकारात्मक और नकारात्मक, अच्छा और बुरा, सही और गलत क्या है। वे लोगों से जिन चीजों का पालन कराती हैं, वे आचरण और व्यवहार के लिए ऐसे सही मानदंड या सिद्धांत नहीं हैं जो मानवता के अनुरूप हों या लोगों के लिए फायदेमंद हों। चाहे नैतिक आचरण की ये कहावतें मानवता के प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करती हों या नहीं, या लोग उनका पालन करने को तैयार हों या नहीं, वे लोगों को सही और गलत, अच्छे और बुरे के बीच अंतर किए बिना सख्ती से इस कुरीति से चिपके रहने के लिए मजबूर करती हैं। अगर तुम उनका पालन नहीं कर पाते हो, तो समाज तुम्हें धिक्कारेगा और तुम्हारी निंदा करेगा, और यहाँ तक कि तुम भी खुद को धिक्कारोगे। क्या यह इस बात का सच्चा प्रतिबिंब है कि परंपरागत संस्कृति मनुष्य की सोच को किस प्रकार सीमित करती है? यह वास्तव में इस बात का सच्चा प्रतिबिंब है कि कैसे परंपरागत संस्कृति मनुष्य की सोच को सीमित करती है। जब परंपरागत संस्कृति नई कहावतों, अपेक्षाओं और नियमों को जन्म देती है, या जनमत को आकार देती है, या समाज में एक प्रवृत्ति या परंपरा स्थापित करती है, तो तुम निस्संदेह इस प्रवृत्ति या परंपरा के साथ चल पड़ोगे, और “ना” कहने या इसे ठुकराने की हिम्मत नहीं करोगे, कोई संदेह और अलग राय सामने रखना तो दूर की बात है। तुम्हें इसके सामने समर्पण करना ही होगा, नहीं तो समाज तुम्हारा तिरस्कार और तुमसे घृणा करेगा, और यहाँ तक कि जनमत तुम्हें धिक्कारेगा और मानवजाति तुम्हारी निंदा करेगी। धिक्कारे और निंदा किए जाने के क्या नतीजे होते हैं? अब तुम लोगों के बीच नहीं रह पाओगे, क्योंकि तुम्हारी कोई गरिमा नहीं होगी, क्योंकि तुम सामाजिक नीतियों का पालन नहीं कर सकते, तुममें कोई नैतिकता नहीं है, और वह नैतिक आचरण भी नहीं है जिसकी परंपरागत संस्कृति अपेक्षा करती है, इसलिए समाज में तुम्हारी कोई हैसियत नहीं होगी। समाज में कोई हैसियत न होने के क्या परिणाम होते हैं? यह कि तुम इस समाज में रहने योग्य नहीं होगे, और तुम्हारे मानव अधिकारों के सभी पहलू छीन लिए जाएँगे, यहाँ तक कि तुम्हारे जीने के अधिकार, बोलने के अधिकार, और अपने दायित्वों को पूरा करने के अधिकार पर भी अंकुश और प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। परंपरागत संस्कृति मानवजाति पर इसी प्रकार प्रभाव डालती और उसे धमकाती है। हर कोई इसका शिकार है, और बेशक हर कोई इसे लागू करने वाला भी है। तुम ऐसे जनमत के शिकार हो जाते हो, तुम स्वाभाविक रूप से समाज के सभी विभिन्न लोगों के शिकार बन जाते हो, और साथ ही तुम परंपरागत संस्कृति पर अपनी स्वीकृति के भी शिकार हो जाते हो। अंतिम विश्लेषण में, तुम परंपरागत संस्कृति की इन चीजों का शिकार बन जाते हो। क्या परंपरागत संस्कृति की इन चीजों का मानवजाति पर बड़ा प्रभाव पड़ता है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, यदि किसी महिला के बारे में यह अफवाह फैलती है कि वह सच्चरित्र, दयालु, विनम्र, और नैतिक नहीं है, और वह एक अच्छी महिला नहीं है, तो बाद में जब भी वह कोई नया काम शुरू करने या किसी समूह से जुड़ने जाएगी, और जैसे ही लोगों को उससे जुड़ी कहानियों के बारे में पता लगेगा और वे अफवाह फैलाने वालों की बात सुनकर उसकी निंदा करेंगे, तो वह किसी की नजर में अच्छी महिला नहीं मानी जाएगी। एक बार यह स्थिति उत्पन्न हो गई, तो उसके लिए समाज में अपना रास्ता बनाना या जीना कठिन हो जाएगा। कुछ लोगों के पास अपनी पहचान छुपाने और किसी दूसरे शहर या परिवेश में जाकर बस जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता। क्या जनमत शक्तिशाली है? (हाँ।) यह अदृश्य शक्ति किसी को भी बर्बाद और तहस-नहस कर सकती है और उसे पैरों तले रौंद सकती है। उदाहरण के लिए, यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करती हो, तो जाहिर है कि चीन के सामाजिक माहौल में तुम्हारा जीवित रहना कठिन है। जीवित रहना इतना कठिन क्यों है? क्योंकि एक बार जब तुम परमेश्वर में विश्वास कर लेती हो, अपना कर्तव्य निभाती हो और उसके लिए खुद को खपाती हो, तो कभी-कभी तुम अपने परिवार की देखभाल को प्राथमिकता नहीं दे पाओगी, और वे अविश्वासी राक्षस तुम्हारे बारे में अफवाहें फैलाएँगे कि “तुम सामान्य जीवन नहीं जी रही,” “अपने परिवार को अकेला छोड़ दिया है,” “किसी के साथ भाग गई हो,” वगैरह। भले ही ये दावे तथ्यों के अनुरूप नहीं हैं, बल्कि सिर्फ अटकलें और झूठी अफवाहें हैं, लेकिन इन आरोपों का निशाना बनते ही तुम बहुत कठिन परिस्थिति में फँस जाओगी। जब भी तुम बाहर खरीदारी करने जाओगी, तो लोग तुम्हें देखकर मुँह बनाएँगे, और तुम्हारे पीठ-पीछे बड़बड़ाते हुए ऐसी टिप्पणी करेंगे, “यह धार्मिक व्यक्ति है, इसमें महिला के सद्गुण नहीं हैं, यह घृणित जीवन जीती है, और सारा दिन इधर-उधर भागती रहती है। यह महिला उनमें से है जो सामान्य जीवन जीने का प्रयास नहीं करती। वह इधर-उधर भाग-दौड़ क्यों कर रही है? महिलाओं को तीन आज्ञाकारिताओं और चार सद्गुणों वाली कन्फ्यूशियन संहिता का पालन करना चाहिए, और अपने पतियों की सेवा-टहल करते हुए अपने बच्चों को बड़ा करना चाहिए।” यह सुनकर तुम्हें कैसा महसूस होगा? क्या तुम्हें बहुत गुस्सा आएगा? तुम्हारा परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने से उन्हें क्या लेना-देना? इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है, फिर भी वे इस बात को रात के खाने के बाद की गपशप का विषय बना देते हैं, और इस पर टिप्पणी करते हुए ऐसे बात करते हैं मानो यह कोई जरूरी मसला हो। क्या समाज में ऐसा ही नहीं होता? क्या हर जगह ऐसा होता नहीं दिखता? मान लो, तुम्हारी कोई सहकर्मी है जिसके साथ पहले तुम्हारी अच्छी बनती थी, लेकिन जब उसे पता चला कि तुम परमेश्वर में विश्वास करती हो, तो वह तुम्हारे पीठ-पीछे हर तरह की अफवाहें फैलाने लगी, जिससे अब कई लोग तुमसे दूर रहने लगे हैं और अब तुम्हारे साथ उनके अच्छे संबंध नहीं हैं। भले ही अपने काम के प्रति तुम्हारा रवैया पहले जैसा ही है, मगर जैसे ही लोग इस अफवाह को सुनेंगे, क्या तब भी तुम्हारे लिए इस काम में आगे बढ़ते रहना आसान होगा? (नहीं, यह आसान नहीं होगा।) क्या तुम्हारे प्रति लोगों का रवैया पहले से अलग होगा? (हाँ।) वे सभी किस बारे में बात करेंगे? “यह महिला सामान्य जीवन जीने का प्रयास नहीं करती है। धर्म में विश्वास करने से उसे क्या मिलेगा?” और “पुरुष धर्म में विश्वास क्यों करते हैं? केवल हारे हुए लोग ही धर्म में विश्वास करते हैं! यह काम महिलाओं का है, जबकि मर्दाना, साहसी पुरुषों को अपने करियर पर ध्यान देना चाहिए!” क्या किसी ने ये बातें कही हैं? (हाँ।) ये शब्द कहाँ से आते हैं? तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास करने से उन्हें क्या लेना-देना? लोग जिसमें चाहे उसमें विश्वास करने के लिए स्वतंत्र हैं, और दूसरों को दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। तो वे तुम्हारे बारे में क्यों बात करते हैं? जैसे ही तुम परमेश्वर में विश्वास करने लगते हो, वे तुम्हारी अंधाधुंध आलोचना क्यों करते हैं? कुछ हद तक, उनकी टिप्पणियों का संदर्भ यकीनन परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों और आस्था के प्रति राष्ट्रीय सरकार के रवैये पर आधारित होता है। भले ही, सतही तौर पर वे तुम्हारे बारे में बात करते हैं, पर वास्तव में वे अंधाधुंध तुम्हारी आलोचना करते हैं, तुम्हारे बारे में झूठी कहानियाँ सुनाते हैं, और मनमाने ढंग से तुम्हारी निंदा करते हैं। बात चाहे जो हो, लोगों की टिप्पणियों और आलोचनाओं का आधार, और साथ ही तुम्हारी आस्था के प्रति उनके विचार और दृष्टिकोण, परंपरागत संस्कृति और नास्तिक विचारधारा से काफी हद तक प्रभावित होते हैं। महिला कैसे बनना है और पुरुष कैसे बनना है यह सिखाने के अलावा, परंपरागत संस्कृति के अन्य मूलभूत विचार क्या हैं? यह कि कोई स्वर्ग या परमेश्वर नहीं है। दूसरे शब्दों में, ये नास्तिक विचार और दृष्टिकोण हैं। इसलिए, वे आस्था रखने वालों को अस्वीकार करते हैं, खास तौर से उन्हें जो एकमात्र सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। अगर तुम अंधविश्वासी चीजों में शामिल हो, किसी कुपंथ से संबंधित हो, या किन्हीं धार्मिक गतिविधियों में शामिल होते हो, तो वे तुम्हें नजरंदाज कर सकते हैं। अगर तुम अंधविश्वासी हो, तो वे अभी भी तुम्हारे साथ जुड़े रह सकते हैं, लेकिन जैसे ही तुम परमेश्वर में विश्वास करने लगोगे, हर दिन उसके वचन पढ़ने, सुसमाचार फैलाने, अपना कर्तव्य निभाने, और परमेश्वर का अनुसरण करने लगोगे, तो वे तुम्हारे विरोधी बन जाएँगे। तुम्हारे प्रति उनके विरोध का स्रोत क्या है? सटीक रूप से कहें, तो एक पहलू यह है कि वे अविश्वासी हैं और सभी शैतान का अनुसरण करते हैं और शैतान के हैं; दूसरा पहलू यह है कि वे चीजों को परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों और बड़े लाल अजगर की नीतियों और कानूनों के अनुसार देखते हैं—ये निष्पक्ष तथ्य हैं। जब भी वे ऐसे लोगों, घटनाओं और चीजों को देखते हैं जो परंपरागत संस्कृति के विचारों के अनुरूप नहीं हैं, और जब वे देखते हैं कि विश्वासी राज्य के दमन का निशाना हैं और उन्हें घेरा जा रहा है, तो वे उनसे घृणा करते हैं, अंधाधुंध उन पर उँगली उठाते हैं, उनकी आलोचना और निंदा करते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों पर निगरानी रखने और उनकी रिपोर्ट करने में सरकार का सहयोग करते हैं। उनके ऐसा करने का आधार क्या है? यह मुख्य रूप से परंपरागत संस्कृति, नास्तिक विचारधारा और बड़े लाल अजगर की बुरी नीतियों पर आधारित है। उदाहरण के लिए, वे परमेश्वर में विश्वास करने वालों की आलोचना करते हुए कहते हैं : “यह एक ऐसी महिला है जो सामान्य जीवन जीने का प्रयास नहीं करती। वह इधर-उधर भाग-दौड़ क्यों कर रही है?” और “यह एक ऐसा पुरुष है जो सही करियर बनाने पर ध्यान नहीं देता। वह धर्म में विश्वास करके क्या करना चाहता है? योग्य पुरुषों की दूरगामी महत्वाकांक्षाएँ होती हैं। मर्दाना, साहसी पुरुषों को अपने करियर पर ध्यान देना चाहिए!” इसके बारे में सोचो, क्या ये सभी घिसे-पिटे कथन साफ तौर पर परंपरागत संस्कृति से नहीं लिए गए हैं? (हाँ।) वे सभी परंपरागत संस्कृति से ही लिए गए हैं। ये साधारण और सांसारिक लोग किसी विश्वास का अनुसरण नहीं करते हैं, बल्कि सिर्फ खाने, पीने, और शारीरिक सुखों के पीछे भागते हैं। उनके मन न केवल बुरी प्रवृत्तियों से भरे हुए हैं, बल्कि वे परंपरागत संस्कृति की इन चीजों से भी गहराई से बंधे हुए और सीमित हैं, जिनके प्रभाव में वे अनजाने में जीते हैं, इसलिए किसी भी व्यक्ति या चीज से निपटते हुए इन दृष्टिकोणों को अपनाना उनके लिए स्वाभाविक है। यह कुछ ऐसा है जो आधुनिक समाज के किसी भी कोने में हो सकता है, और यह एकदम सामान्य है। शैतान द्वारा नियंत्रित दुनिया में, और बुराई और व्यभिचार के युग में चीजें ऐसी ही हैं।

नैतिक आचरण की कहावतें न केवल लोगों में गलत अवधारणाएँ और विचार पैदा करती हैं, बल्कि उन्हें कुछ अतिवादी विचारों को अपनाने और उनका पालन करने के साथ-साथ विशेष संदर्भों और परिस्थितियों में कुछ अतिवादी व्यवहार अपनाने के लिए प्रोत्साहित करती और उकसाती भी हैं। उदाहरण के लिए, जैसा कि पहले बताया गया है, “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” ऐसी अपेक्षा है जो शैतान दोस्तों से व्यवहार करने के मामले में लोगों के नैतिक आचरण को नियंत्रित करने के लिए सामने रखता है। जाहिर है, नैतिक आचरण के इस पहलू की कहावतों का उद्देश्य लोगों को अपने दोस्तों के साथ व्यवहार करते समय तर्कहीन और अनुचित विचार और दृष्टिकोण रखने के लिए बाध्य करना, और यहाँ तक कि उन्हें अपने दोस्तों के लिए लापरवाही से अपना जीवन दाँव पर लगाने के लिए प्रेरित करना भी है। नैतिक आचरण के संबंध में शैतान मनुष्य से ऐसे चरम और अतिवादी अपेक्षाएँ रखता है। सच तो यह है कि नैतिक आचरण की कुछ अन्य कहावतें भी हैं जो “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” के समान हैं और वे इसी तरह लोगों से चरम व्यवहार अपनाने की अपेक्षा रखती हैं। ये सब अमानवीय और तर्कहीन कहावतें हैं। लोगों के मन में परंपरागत संस्कृति के विचार और दृष्टिकोण भरने के साथ-साथ, शैतान लोगों से इन तर्कहीन विचारों और अमानवीय कहावतों का पालन करने की भी अपेक्षा करता है, और उन्हें इन विचारों और प्रथाओं का कठोरता से पालन करने को मजबूर भी करता है। ऐसा कहा जा सकता है कि यह मानवजाति के साथ खिलवाड़ करने और उसे बर्बाद करने के समान है! ये कौन-सी कहावतें हैं? उदाहरण के लिए, दो कहावतें “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” और “वसंत के रेशम के कीड़े मरते दम तक बुनते रहेंगे, और मोमबत्तियाँ बाती खत्म होने तक जलती रहेंगी” लोगों को—“मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा”—से भी ज्यादा स्पष्ट तरीके से बताती हैं कि जीवन को संजोना नहीं है और उसे इसी तरह से बर्बाद करना है। जब लोगों से अपेक्षित है कि वे अपने जीवन का त्याग करें, तो इसे इतना अधिक संजोना नहीं चाहिए, बल्कि इन कहावतों का पालन करना चाहिए, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” और “वसंत के रेशम के कीड़े मरते दम तक बुनते रहेंगे, और मोमबत्तियाँ बाती खत्म होने तक जलती रहेंगी।” तुम सभी कमोबेश नैतिक आचरण की इन दो कहावतों का शाब्दिक अर्थ समझते हो, लेकिन वे वास्तव में क्या घोषणा कर रहे हैं और किस तरह भड़का रहे हैं? तुम्हें किसके लिए “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो”? किसके लिए “वसंत के रेशम के कीड़े मरते दम तक बुनते रहेंगे, और मोमबत्तियाँ बाती खत्म होने तक जलती रहेंगी”? लोगों को खुद से सवाल और आत्मचिंतन करना चाहिए : क्या ये कहावतें जो सुझाव देती हैं वैसा करना सार्थक है? ऐसी कहावतें पहले तुम्हारे दिमाग को गुमराह और सुन्न कर देती हैं, तुम्हारे दर्शन में बाधा डालती हैं, फिर तुम्हें गलत दिशा दिखाकर, गलत परिभाषाएँ और गलत दृष्टिकोण देकर तुमसे तुम्हारे मानव अधिकार छीन लेती हैं, और फिर इस देश, समाज और राष्ट्र के लिए या करियर और प्रेम के लिए तुम्हें अपनी जवानी और जीवन त्यागने पर मजबूर करती हैं। इस तरह, मनुष्य अनजाने में ही उलझन भरी, भ्रमित अवस्था में शैतान को अपना जीवन सौंप देते हैं, और यहाँ तक कि वे ऐसा अपनी इच्छा से और बिना किसी शिकायत या पछतावे के करते हैं। फिर जिस पल वे अपना जीवन त्यागते हैं, तब जाकर उन्हें सब कुछ समझ में आने लगता है, और वे ठगा हुआ महसूस करते हैं कि वे निरर्थक कारणों से ऐसा कर रहे हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, और पछतावे के लिए कोई समय नहीं बचता। इस प्रकार, वे अपना जीवन गुमराह होने, मूर्ख बनाए जाने, नष्ट किए जाने, बरबाद होने और शैतान के पैरों तले रौंदे जाने में बिताते हैं, और अंत में, उनके पास जो सबसे कीमती चीज होता है—जीवन—वह भी उनसे छीन लिया जाता है। परंपरागत संस्कृति में मनुष्यों को नैतिक आचरण की कहावतों से शिक्षित किए जाने का यही परिणाम होता है, और यह पूरी तरह से साबित करता है कि शैतान की सत्ता में रहने वाले और उससे गुमराह किए और मूर्ख बनाए जाने वाले लोगों के लिए कैसा दुर्भाग्य इंतजार कर रहा है। मानवजाति के साथ व्यवहार करने में शैतान जिन विभिन्न युक्तियों का उपयोग करता है, उनका वर्णन किन शब्दों से किया जा सकता है? सबसे पहले, “सुन्न” “गुमराह” जैसे शब्द आते हैं, इनके बाद और क्या है? कुछ बताओ। (मूर्ख बनाना, बर्बाद करना, रौंदना, तबाह करना।) इनके अलावा “उकसाना”, “लुभाना”, “किसी का जीवन माँगना” और अंत में, “लोगों के साथ खिलवाड़ करना और उन्हें निगल जाना” भी शामिल है। यह शैतान द्वारा लोगों को भ्रष्ट करने का परिणाम है। लोग शैतान की सत्ता के अधीन और शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हैं। अगर परमेश्वर ने सत्य व्यक्त नहीं किया होता और लोगों को बचाने के लिए न्याय और ताड़ना का कार्य नहीं किया होता, तो क्या संपूर्ण मानवजाति को शैतान तबाह कर, निगलकर, नष्ट नहीं कर देता?

परंपरागत संस्कृति में मानवजाति किन बातों का ढिंढोरा पीटती है? “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” का क्या अर्थ है? इस कहावत की मुख्य अपेक्षा यह है कि जब भी लोग कुछ करें, उन्हें ईमानदार और मेहनती होना चाहिए, अपना सब कुछ झोंक देना चाहिए और मरते दम तक भरसक कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करके वास्तव में लोग किसकी सेवा कर रहे हैं? जाहिर है कि वे अपने समाज, अपनी जन्मभूमि और राष्ट्र की सेवा कर रहे हैं। तो इस समाज, इस जन्मभूमि और इस राष्ट्र पर किसका नियंत्रण है? यकीनन शैतान और दुष्ट राजाओं का है। तो शैतान और दुष्ट राजा परंपरागत संस्कृति के जरिये लोगों को गुमराह करके क्या हासिल करना चाहते हैं? एक तो वे देश को शक्तिशाली और राष्ट्र को समृद्ध बनाना चाहते हैं, और दूसरा वे लोगों से अपने पूर्वजों को मान-सम्मान दिलाना और पीढ़ियों तक याद रखवाना चाहते हैं। इस तरह लोगों को लगेगा कि इन सभी चीजों को करने से बड़ा कोई सम्मान नहीं है, वे दुष्ट राजाओं के एहसानमंद होकर राष्ट्र, समाज और मातृभूमि के लिए अपना जीवन न्योछावर करने को तैयार रहेंगे। वास्तव में ऐसा करके वे केवल शैतान और दुष्ट राजाओं की सेवा कर रहे हैं, शैतान और दुष्ट राजाओं के प्रभावशाली पदों की सेवा में लगे हैं, और उनकी खातिर अपना बहुमूल्य जीवन त्याग रहे हैं। अगर परंपरागत संस्कृति की कहावतें लोगों को एक सृजित प्राणी के रूप में अपने पूरे दिल, दिमाग और ताकत से अपना कर्तव्य पूरा करने और एक मनुष्य के समान जीने के लिए कहने के बजाय राष्ट्र की खातिर, दुष्ट राजाओं की खातिर या किसी अन्य उद्देश्य के लिए लोगों को मरने के लिए कहती हैं तो वे उन्हें गुमराह कर रही हैं। ऊपरी तौर पर वे आडंबरपूर्ण और सुखद शब्दों में लोगों को देश और राष्ट्र के लिए अपना योगदान देने के लिए कहती हैं, लेकिन सच तो यह है कि वे शैतान और दुष्ट राजाओं के प्रभावशाली पदों की सेवा करने के लिए लोगों को जीवन भर कोशिश करते रहने, और यहाँ तक कि अपने जीवन का बलिदान करने के लिए मजबूर करती हैं। क्या यह लोगों को गुमराह करना, मूर्ख बनाना और नुकसान पहुँचाना नहीं है? परंपरागत संस्कृति द्वारा विकसित विभिन्न कहावतें लोगों से यह अपेक्षा नहीं रखतीं कि उन्हें वास्तविक जीवन में सामान्य मानवता कैसे जीनी चाहिए, न ही यह अपेक्षा रखती हैं कि वे अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को कैसे पूरा करें, बल्कि वे लोगों से यह अपेक्षा रखती हैं कि उन्हें व्यापक समाज में यानी शैतान की सत्ता में किस तरह का नैतिक आचरण करना चाहिए। इसी तरह नैतिक आचरण की कहावत, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” भी मनुष्य को समाज, राष्ट्र और विशेष रूप से अपनी जन्मभूमि के प्रति वफादार रहने के लिए मजबूर करने का सिद्धांत है। इस प्रकार का सिद्धांत लोगों से राष्ट्र, जन्मभूमि और समाज की सेवा करने के लिए मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने की अपेक्षा रखता है। जो मेहनती होते हैं और मरते दम तक अपना सब कुछ झोंक देते हैं, सिर्फ वही लोग महान, गुणी और आने वाली पीढ़ियों के लिए पूजनीय और स्मरणीय माने जाते हैं। इस कहावत के पहले भाग, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” का अर्थ है मेहनती बनना और अपना सब कुछ झोंक देना। क्या इस वाक्यांश में कोई समस्या है? अगर हम इसे मानवीय प्रवृत्ति के परिप्रेक्ष्य से और मानवता क्या हासिल कर सकती है इसके नजरिए से देखें, तो इस वाक्यांश में कोई बड़ी समस्या नहीं है। इसमें लोगों से मेहनती होने और कोई काम करते समय या किसी उद्देश्य को पूरा करते समय अपना सब कुछ झोंक देने की अपेक्षा की जाती है। इस रवैये में मूल रूप से कुछ भी गलत नहीं है, यह काफी हद तक सामान्य मानवता के मानक के अनुरूप ही है और कार्य करते समय लोगों का इस तरह का रवैया होना चाहिए। इस संदर्भ में यह अपेक्षाकृत सकारात्मक बात है। यानी कुछ करते समय तुम्हें बस मेहनती होने, अपना सब कुछ झोंक देने, अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने और अपनी अंतरात्मा के अनुसार जीने की जरूरत है। सामान्य मानवता, विवेक और समझ वाले किसी भी व्यक्ति के लिए इससे अधिक सामान्य कुछ भी नहीं है, और यह कोई अतिवादी अपेक्षा भी नहीं है। लेकिन अतिवादी क्या है? यह इस कहावत का वह हिस्सा है जो लोगों से “मरते दम तक” न रुकने की अपेक्षा रखता है। “मरते दम तक” वाक्यांश में एक समस्या है, जो यह है कि तुम्हें न केवल मेहनती होना चाहिए और अपना सब कुछ झोंक देना चाहिए, बल्कि तुम्हें अपना जीवन भी त्यागना होगा और केवल तभी रुक सकते हो जब तुम मर जाओगे, नहीं तो तुम रुक नहीं सकते। इसका मतलब है कि तुम्हें अपनी जिंदगी और जिंदगीभर की मेहनत झोंकनी होगी। तुम स्वार्थी मंशाएँ नहीं पाल सकते और जब तक जीवित हो, छोड़कर जा नहीं सकते। अगर तुम मरते दम तक डटे रहने के बजाय बीच में ही छोड़कर चले जाते हो, तो यह अच्छा नैतिक आचरण नहीं माना जाता। यह परंपरागत संस्कृति में लोगों के नैतिक आचरण को मापने का एक मानक है। अगर किसी कार्य को करने में कोई व्यक्ति पहले से ही मेहनती था और जो कुछ हासिल कर सकता था या जब तक वो इसे करना चाहता था, उसने अपना सब कुछ इसमें झोंक दिया, बस मरते दम तक इसे नहीं किया और बीच में ही इसे छोड़कर उसने कोई दूसरा उद्देश्य अपने हाथ में लेने या अपने बाद के सालों में आराम करने और अपना ख्याल रखने का फैसला किया, तो यह “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” नहीं है, इसलिए इस व्यक्ति के पास अच्छा नैतिक आचरण नहीं है। यह कैसा मानक है? यह सही है या गलत? (गलत है।) जाहिर है, यह मानक सामान्य मानवता की प्रवृत्ति और सामान्य लोगों के अधिकारों के अनुरूप नहीं है। यह लोगों से केवल मेहनती होने और अपना सब कुछ झोंक देने की अपेक्षा ही नहीं करता, बल्कि उन्हें निरंतर कोशिश करते रहने और मरते दम तक न रुकने को मजबूर करता है—लोगों से उसकी यही अपेक्षा रहती है। तुम चाहे कितने ही मेहनती क्यों न हो या कोई काम करते हुए उसमें अपना सब कुछ झोंक देने के लिए कितना ही प्रयास क्यों न करते हो, अगर तुम इसे जारी रखने के इच्छुक नहीं हो और इसे बीच में ही छोड़ देते हो तो तुम अच्छे नैतिक आचरण वाले व्यक्ति नहीं कहलाओगे; जबकि अगर तुम औसत परिश्रम करते हो और अपना सब कुछ नहीं झोंकते, लेकिन मरते दम तक कोशिश करते रहते हो, तो तुम अच्छे नैतिक आचरण वाले व्यक्ति हो। क्या परंपरागत संस्कृति में लोगों के नैतिक आचरण को मापने का यही मानक है? (हाँ।) वास्तव में परंपरागत संस्कृति में लोगों के नैतिक आचरण को मापने का मानक यही है। इस तरह से देखें तो क्या “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” यह अपेक्षा सामान्य मानवता की जरूरतों को पूरा करती है? जहाँ तक लोगों का सवाल है, क्या यह उचित और मानवीय है? (नहीं, यह अनुचित और अमानवीय है।) तुम ऐसा क्यों कहते हो? (यह ऐसी अपेक्षा नहीं है जिसे सामान्य मानवता के दायरे में रखा गया है; यह कुछ ऐसा है जिसे लोग चुनने के लिए तैयार नहीं हैं, और यह विवेक और समझ के विपरीत भी है।) इस मानक का मुख्य अर्थ यह है कि यह लोगों से निजी पसंद, और निजी इच्छाओं और आदर्शों को त्यागने की अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारी काबिलियत और प्रतिभाओं को समाज, मानवजाति, राष्ट्र, तुम्हारी जन्मभूमि और शासकों की सेवा में लगाया जा सकता है, तो तुम्हें बिना शर्त आज्ञापालन करना चाहिए और तुम्हारी कोई और पसंद नहीं होनी चाहिए। तुम्हें मरते दम तक अपना जीवन समाज, राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि और यहाँ तक कि शासकों के लिए समर्पित कर देना चाहिए। इस जीवन में तुम्हें जो उद्देश्य सौंपा गया है, उसका कोई और विकल्प नहीं हो सकता—तुम अपने लिए कोई और ध्येय नहीं चुन सकते। तुम केवल राष्ट्र, मानवजाति, समाज, अपनी जन्मभूमि और यहाँ तक कि शासकों की खातिर जी सकते हो। तुम केवल उनकी सेवा कर सकते हो, और स्वार्थी मंशाएँ पालना तो दूर की बात है, तुम्हारी कोई व्यक्तिगत आकांक्षा भी नहीं होनी चाहिए। तुम्हें न केवल अपनी जवानी त्यागकर अपनी सारी ताकत लगानी होगी, बल्कि अपना जीवन भी न्योछावर करना होगा, और यही एकमात्र तरीका है जिससे तुम अच्छे नैतिक आचरण वाले व्यक्ति बन सकते हो। मानवजाति ऐसे अच्छे नैतिक आचरण को क्या कहती है? महान धार्मिकता। तो फिर “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” को व्यक्त करने का दूसरा तरीका क्या है? इस आम कहावत के बारे में क्या खयाल है, “महान शूरवीर अपने देश और लोगों के लिए अपनी भूमिका निभाते हैं”? यह कहती है कि तथाकथित महान शूरवीर नायकों को अपने देश और अपने लोगों के लिए सब कुछ न्योछावर कर देना चाहिए। क्या उन्हें यह अपने परिवार, माता-पिता, पत्नी-बच्चों और भाई-बहनों के लिए करना चाहिए? क्या उन्हें एक व्यक्ति के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को पूरा करने के लिए ऐसा करना चाहिए? नहीं। बल्कि उन्हें देश और राष्ट्र के प्रति वफादार और समर्पित होना चाहिए। यह “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” कहने का एक और तरीका है। “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” यह अपेक्षा जिस “मेहनती होने और अपना सब कुछ झोंकने” की बात करती है, वह केवल एक कहावत है जिसे लोग स्वीकार कर सकते हैं, और जिसका इस्तेमाल लोगों को अपनी इच्छा से “मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने” को प्रेरित करने के लिए किया जाता है। इस आजीवन समर्पण का लक्ष्य कौन है? (देश और राष्ट्र।) तो देश और राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कौन करता है? (शासक।) सही कहा, शासक करते हैं। कोई भी एक व्यक्ति या स्वतंत्र समूह देश और राष्ट्र का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। शासकों को ही देश और राष्ट्र का प्रवक्ता कहा जा सकता है। ऊपरी तौर पर यह कहावत “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” लोगों को यह नहीं बताती कि उन्हें देश, राष्ट्र और शासकों के लिए मेहनत से अपना कर्तव्य निभाना है और मरते दम तक अपना सब कुछ झोंक देना है। फिर भी सच यही है कि यह लोगों को मरते दम तक अपना जीवन शासकों और दुष्ट राजाओं को समर्पित करने के लिए मजबूर करती है। यह कहावत समाज में या मानवजाति के बीच किसी भी तुच्छ व्यक्ति के लिए नहीं है; यह उन सभी लोगों के लिए है जो समाज, मानवजाति, अपनी जन्मभूमि, राष्ट्र और खास तौर से शासकों के लिए बड़े योगदान दे सकते हैं। किसी भी राजवंश में, किसी भी युग में और किसी भी राष्ट्र में, हमेशा कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके पास विशेष खूबियाँ, योग्यताएँ और प्रतिभाएँ होती हैं जिन्हें समाज “बखूबी इस्तेमाल” करता है, और जिनका शासक फायदा उठाते और सम्मान करते हैं। उनकी विशेष प्रतिभाओं और क्षमताओं के कारण, और चूँकि वे अपनी प्रतिभाओं और शक्तियों का समाज, राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि और शासकों के प्रभुत्व के भीतर अच्छा उपयोग कर पाते हैं, इसलिए इन शासकों की नजरों में वे अक्सर ऐसे व्यक्ति माने जाते हैं, जो मानवजाति पर अधिक प्रभावी ढंग से शासन करने, समाज को बेहतर ढंग से स्थिर रखने और जन भावनाओं को शांत करने में उनकी सहायता कर सकते हैं। शासक इस प्रकार के व्यक्ति का अक्सर शोषण करते हैं, वे आशा करते हैं कि ऐसे लोगों का कोई “तुच्छ स्वार्थ” नहीं, बल्कि केवल “महान स्वार्थ” होता है और वे अपनी शूरवीर वाली भावना का सदुपयोग करके महान शूरवीर नायक बन सकते हैं, जिनके दिलों में केवल देश और देशवासी होते हैं, और वे लगातार देश और देशवासियों की चिंता करते हैं, और यहाँ तक कि कोई कार्य स्वीकार कर और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करते रहते हैं। अगर वे वास्तव में ऐसा कर सकते हैं, अगर वे अपनी पूरी मेहनत से और अपनी पूरी शक्ति से देश और देशवासियों की सेवा कर सकते हैं, और यहाँ तक कि मरते दम तक ऐसा करने के लिए तैयार रहते हैं, तो वे यकीनन किसी शासक के लिए सक्षम सहायक साबित होते हैं, और यहाँ तक कि उन्हें किसी खास युग में राष्ट्र या समाज या यहाँ तक कि संपूर्ण मानवजाति का गौरव माना जाता है। जब भी किसी युग में समाज में ऐसे लोगों का एक समूह होता है, या मुट्ठी भर धार्मिक वफादार लोग होते हैं, जिन्हें महान शूरवीर नायकों के रूप में सम्मानित किया जाता है, और जो समाज, मानवजाति, अपनी जन्मभूमि, राष्ट्र और शासक की सेवा में मरते दम तक अपना सब कुछ झोंक सकते हैं, तब मानवजाति इस युग को इतिहास का गौरवशाली युग मानती है।

चीनी इतिहास में कितने महान शूरवीर नायक अपने देश और लोगों की सेवा करने में सब कुछ न्योछावर करने में सक्षम थे, और वे मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करते रहे? क्या तुम लोग उनमें से कुछ के नाम बता सकते हो? (चू यान, झुग लियांग, और यू फेई वगैरह।) चीनी इतिहास में वास्तव में बस मुट्ठी भर मशहूर हस्तियाँ ही हैं जो देश और लोगों के बारे में चिंता कर पाए, जो अपने देश और राष्ट्र की सेवा करने के कार्य को स्वीकारने, लोगों के जीवन की रक्षा करने और मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने में सक्षम थे। इतिहास के हर युग में चीन में और उसके बाहर भी, चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र की बात हो या सामान्य आबादी में, ऐसे लोग मौजूद हैं—चाहे वे राजनेता हों या घुमंतु योद्धा—जो परंपरागत सांस्कृतिक की ऐसी कहावतों का पालन करते हैं, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो।” ऐसे लोग इस अपेक्षा का निष्ठापूर्वक पालन करने में सक्षम होते हैं, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” और वे देश और लोगों की सेवा करने और उनके बारे में चिंता करने के इस विचार का भी कठोरता से पालन करने में सक्षम होते हैं। वे नैतिक आचरण की ऐसी कहावतों का पालन करने में सक्षम हैं, और खुद से सख्ती से ये चीजें करने की अपेक्षा करते हैं। बेशक वे ऐसा अपनी प्रसिद्धि के लिए करते हैं, ताकि भविष्य में लोग उन्हें याद रखें। यह एक पहलू है। दूसरा पहलू, यह कहा जाना चाहिए कि ऐसे व्यवहार इन लोगों के परंपरागत संस्कृति के विचार मन में बैठने और उनसे प्रभावित होने के कारण उभरते हैं। तो क्या ये अपेक्षाएँ जो परंपरागत संस्कृति लोगों पर थोपती है, मानवता के दृष्टिकोण से उचित हैं? (नहीं।) वे उचित क्यों नहीं हैं? कोई व्यक्ति चाहे कितना भी सक्षम क्यों न हो, या वह कितना ही गुणी, प्रतिभाशाली या ज्ञानी क्यों न हो, उसकी पहचान और प्रवृत्ति एक मनुष्य की होती है, तो उसके लिए इस दायरे से परे जाना नामुमकिन होता है। वे दूसरों की तुलना में बस थोड़े अधिक गुणी होते हैं और उनमें दूसरों से थोड़ी अधिक काबिलियत होती है, और चीजों पर उनके दृष्टिकोण औसत व्यक्ति से उच्च स्तर के होते हैं, उनके पास चीजों को करने के अधिक विविध और लचीले तरीके होते हैं, वे अधिक कुशल होते हैं और बेहतर परिणाम हासिल करते हैं—बस इतना ही है। लेकिन वे चाहे कितने भी कुशल हों या उनके परिणाम कितने भी अच्छे हों, फिर भी वे अपनी पहचान और दर्जे के मामले में सामान्य लोगों की तरह ही होते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि वे अभी भी सामान्य लोग हैं? क्योंकि जो व्यक्ति देह में जीता है, चाहे उसका दिमाग कितना भी तेज क्यों न हो, या वह कितना भी प्रतिभाशाली या ऊँची काबिलियत वाला क्यों न हो, केवल सृजित मनुष्यों के जीवन जीने के नियमों का ही पालन करता है, और इससे अधिक कुछ नहीं। उदाहरण के लिए कुत्तों को देखो। चाहे वे कितने भी लंबे, छोटे, मोटे या पतले हों, या वे किसी भी नस्ल के हों, या चाहे वे किसी भी उम्र के हों, जब भी वे किसी अन्य कुत्ते के संपर्क में आते हैं, तो वे आम तौर पर उसकी गंध को सूंघकर उस कुत्ते के लिंग, व्यक्तित्व और अपने प्रति उनके रवैये को जान जाते हैं। संचार का यह तरीका कुत्तों के लिए जीवन जीने की प्रवृत्ति है, और यह कुत्तों के जीवित रहने की व्यवस्थाओं और नियमों में से एक है, जिन्हें परमेश्वर ने बनाया है। इसी प्रकार लोग भी परमेश्वर के बनाए गए नियमों के भीतर जीते हैं। चाहे तुम कितने भी तेज-तर्रार या जानकार क्यों न हो, चाहे तुम कितनी भी ऊँची काबिलियत के और प्रतिभाशाली व्यक्ति क्यों न हो, चाहे तुम कितने भी सक्षम क्यों न हो या तुम्हारे प्रयास कितने भी महान क्यों न हों, तुम्हारे लिए हर दिन छह से आठ घंटों की नींद लेना और तीन बार भोजन करना जरूरी है। अगर तुमने एक बार भी भोजन करना छोड़ दिया तो तुम्हें भूख लगेगी और पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं पिया तो तुम्हें प्यास लगेगी। स्वस्थ रहने के लिए तुम्हें नियमित रूप से व्यायाम भी करना होगा। जैसे-जैसे तुम्हारी उम्र बढ़ती जाएगी, तुम्हारी दृष्टि धुंधली होती जाएगी और तुम्हें सभी प्रकार की बीमारियाँ हो सकती हैं। यह जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु का सामान्य प्राकृतिक नियम है और यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। इस नियम को न तो कोई तोड़ सकता है, न ही इससे बच सकता है। इसके आधार पर चाहे तुम कितने भी सक्षम क्यों न हो, और तुम्हारी काबिलियत और प्रतिभा कुछ भी हो, तुम अभी भी एक सामान्य व्यक्ति ही हो। यहाँ तक कि अगर तुम पंख लगाकर आकाश के चारों ओर दो चक्कर लगा लो, फिर भी अंत में तुम्हें धरती पर वापस आकर अपने दो पैरों पर ही चलना होगा, थकने पर आराम करना होगा, भूख लगने पर खाना होगा और प्यास लगने पर पानी पीना होगा। यह मानवीय प्रवृत्ति है, और परमेश्वर ने तुम्हारे लिए यही प्रवृत्ति निर्धारित की है। तुम न ही इसे कभी बदल सकते हो और न ही इससे बच सकते हो। चाहे तुम्हारी क्षमताएँ कितनी भी महान हों, तुम इस नियम का उल्लंघन नहीं कर सकते, और इस दायरे से आगे नहीं जा सकते हो। इसलिए चाहे लोग कितने भी सक्षम क्यों न हों, लोगों के नाते उनकी पहचान और दर्जा नहीं बदलता और न ही सृजित प्राणियों के रूप में उनकी पहचान और दर्जा कभी बदलता है। अगर तुम मानवजाति के लिए कुछ विशेष और महान योगदान दे सको, तब भी तुम एक इंसान ही रहोगे, और जब भी तुम्हारा सामना किसी खतरे से होगा, तुम भयभीत और घबराए हुए महसूस करोगे, तुम्हारा दम निकल जाएगा, यहाँ तक कि तुम्हारा अपनी शारीरिक क्रियाओं पर भी नियंत्रण नहीं रहेगा। तुम ऐसा व्यवहार क्यों करोगे? क्योंकि तुम इंसान हो। चूँकि तुम इंसान हो, तुम में वो व्यवहार हैं जो इंसानों में होने चाहिए। ये प्रकृति के नियम हैं, और कोई भी इनसे नहीं बच सकता। सिर्फ इसलिए कि तुमने कई असाधारण योगदान दिए हैं, इसका यकीनन यह मतलब नहीं है कि तुम अतिमानवीय या असाधारण हो गए हो या अब एक सामान्य व्यक्ति नहीं रहे। यह सब नामुमकिन है। इसलिए यह सोचना भी कि तुम अपने देश और राष्ट्र की सेवा करने में अपना सब कुछ झोंक सकते हो, और मरते दम तक भरसक कोशिश कर सकते हो, तो चूँकि तुम सामान्य मानवता के दायरे में रहते हो तुम्हें अपने दिल की गहराई में एक बड़ा भारी बोझ उठाना होगा! तुम्हें सारे दिन देश और लोगों के बारे में चिंता करनी होगी और अपने दिल में पूरी आबादी और देश के लिए जगह बनानी होगी, इस विश्वास के साथ कि जितना बड़ा मंच उतना बड़ा तुम्हारा दिल—लेकिन क्या ऐसा ही होता है? (नहीं।) कोई व्यक्ति सिर्फ अलग सोच रखकर कभी भी साधारण लोगों से अलग नहीं हो जाएगा, न ही वह साधारण लोगों से अलग या श्रेष्ठ होगा, या न ही उसे सामान्य मानवता के नियमों और जीवन जीने के नियमों का उल्लंघन करने की अनुमति मिलेगी, सिर्फ इस कारण से कि उसके पास विशेष उपहार या प्रतिभाएँ हैं, या क्योंकि उसने मानवजाति के लिए महान योगदान दिया है। इसलिए मानवजाति से “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” की यह अपेक्षा बहुत अमानवीय है। भले ही किसी व्यक्ति में साधारण लोगों की तुलना में अधिक प्रतिभा और विचार हों, या उसके पास बेहतर दूरदर्शिता और परख हो, या वह मामलों से निपटने में साधारण लोगों की तुलना में बेहतर हो, या लोगों को देखने और पढ़ने में बेहतर हो—या वे साधारण लोगों से चाहे किसी भी तरह से अलग हों—वे देह में जीते हैं और उनके लिए सामान्य मानवता का जीवन जीने की व्यवस्थाओं और नियमों का पालन करना जरूरी है। चूँकि उनके लिए सामान्य मानवता का जीवन जीने की व्यवस्थाओं और नियमों का पालन करना जरूरी है, तो क्या उनसे ऐसी अवास्तविक अपेक्षाएँ रखना अमानवीय नहीं है जो मानवता के अनुरूप नहीं हैं? क्या यह एक तरह से उनकी मानवता को रौंदना नहीं है? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं : “स्वर्ग ने मुझे जो उपहार और प्रतिभाएँ दी हैं, उनके साथ मैं असाधारण हूँ, और कोई साधारण व्यक्ति नहीं हूँ। मुझे स्वर्ग के नीचे की हर चीज यानी लोग, राष्ट्र, मेरी जन्मभूमि और दुनिया को अपने दिल में रखना चाहिए।” मैं तुम को बता दूँ कि इन बातों को अपने दिल में रखना एक अतिरिक्त बोझ है, जो शासक वर्ग और शैतान ने तुम पर थोपा है, तो ऐसा करके तुम खुद को विनाश के मार्ग पर डाल रहे हो। अगर तुम दुनिया, लोग, राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि और शासकों के आदर्शों और इच्छाओं को अपने दिल में रखना चाहते हो, तो तुम जल्दी मरोगे। अगर तुम इन बातों को अपने दिल में रखते हो, तो यह बारूद के ढेर और विस्फोटकों की बोरी पर बैठने जैसा है। ऐसा करना बहुत खतरनाक है, और पूरी तरह से निरर्थक है। जब तुम इन बातों को अपने दिल में रखते हो, तो तुम यह सोचकर अपने आप से अपेक्षा करते हो, “मुझे कोई कार्य स्वीकार करना और मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करना चाहिए। मुझे राष्ट्र और मानवजाति के महान ध्येय में योगदान करना चाहिए और मानवजाति के लिए अपना जीवन अर्पित कर देना चाहिए।” ऐसी महान और ऊँची महत्वाकांक्षाएँ तुम्हें केवल असामयिक अंत, अप्राकृतिक मृत्यु या पूर्ण विनाश की ओर ही ले जाएँगी। जरा सोचो, दुनिया को अपने दिलों में बसाने वाली उन मशहूर ऐतिहासिक हस्तियों में से कितनों की मौत सुखद हुई है? कुछ ने नदी में कूदकर आत्महत्या की, कुछ को शासकों ने मार डाला, कुछ का सिर गिलोटिन पर धड़ से अलग कर दिया गया, और कुछ को रस्सी से गला घोंटकर मार डाला गया। क्या इंसानों के लिए पूरी दुनिया को अपने दिल में रखना संभव है? क्या किसी की जन्मभूमि के महान हित, किसी राष्ट्र की समृद्धि, देश की नियति और मानवजाति का भाग्य ऐसी चीजें हैं जिन्हें कोई अपने कंधों पर ले सकता है और अपने दिल में उनके लिए जगह बना सकता है? यदि तुम अपने माता-पिता और बच्चों, अपने करीबियों और प्रियजनों, अपनी जिम्मेदारियों और स्वर्ग द्वारा तुम्हें सौंपे गए लक्ष्य के लिए अपने दिल में जगह बना सकते हो, तो तुम पहले से ही बहुत अच्छा कर रहे हो और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रहे हो। तुम्हें देश और लोगों के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है, और एक महान शूरवीर नायक बनने की भी जरूरत नहीं है। वे कौन लोग हैं जो दुनिया, राष्ट्र और अपनी जन्मभूमि को सदैव अपने दिलों में रखना चाहते हैं? वे सभी अति महत्वाकांक्षी लोग हैं जो अपनी क्षमताओं को अधिक आंक लेते हैं। क्या तुम्हारा दिल सचमुच इतना बड़ा है? कहीं तुम अति महत्वाकांक्षी तो नहीं हो? वास्तव में तुम्हारी महत्वाकांक्षा का स्रोत क्या है? इन चीजों को अपने दिल में रखकर तुम क्या हासिल कर सकते हो? तुम किसके भाग्य में फेरबदल और नियंत्रण कर सकते हो? तुम तो खुद के भाग्य को भी नियंत्रित नहीं कर सकते और फिर भी तुम दुनिया, राष्ट्र और मानवजाति को अपने दिल में रखना चाहते हो। क्या यह शैतान की महत्वाकांक्षा नहीं है? तो जो लोग खुद को सक्षम व्यक्ति मानते हैं, ईमानदारी से “कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने” की अपेक्षा पूरी करना चाहते हैं, वे बर्बादी के रास्ते पर चल रहे हैं, यह मौत की तलाश करना है! जो कोई भी देश और लोगों के बारे में चिंता करना चाहता है, जो लोगों और अपनी जन्मभूमि की सेवा करने के कार्य को स्वीकारना चाहता है, और अपने मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करता है, वह अपने विनाश की ओर बढ़ रहा है। क्या ये लोग प्रेम के लायक हैं? (नहीं, वे प्रेम के लायक नहीं हैं।) न केवल ये लोग प्रेम के लायक नहीं हैं, बल्कि थोड़े दयनीय और हँसी के पात्र भी हैं, और वाकई बेहद मूर्ख भी हैं!

एक व्यक्ति के रूप में तुम्हें परिवार के भीतर अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए, किसी भी सामाजिक या जातीय समूह में अपनी भूमिका ठीक से निभानी चाहिए और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए, समाज की व्यवस्थाओं और नियमों का पालन करना चाहिए और बड़ी-बड़ी बातें कहने के बजाय तर्कसंगत रूप से काम करना चाहिए। वह करना जो लोग कर सकते हैं और जो उन्हें करना चाहिए—यही उचित है। जहाँ तक परिवार, समाज, देश और लोगों की बात है, तो तुम्हें उनकी सेवा के कार्य को स्वीकारने और मरते दम तक अपनी पूरी कोशिश करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें अपने पूरे दिल, दिमाग और ताकत से केवल परमेश्वर के परिवार में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की जरूरत है, कुछ और करने की नहीं। तो तुम्हें अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभाना चाहिए? परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करना और परमेश्वर की अपेक्षानुसार सत्य सिद्धांतों का पालन करना ही पर्याप्त है। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा, उसके चुने हुए लोगों, उसकी प्रबंधन योजना, उसके तीन चरणों के कार्य और मानवजाति को बचाने के उसके कार्य को पूरे दिन अपने दिल में रखने की जरूरत नहीं है। इन बातों को अपने दिल में रखना जरूरी नहीं है। यह जरूरी क्यों नहीं है? क्योंकि तुम एक साधारण व्यक्ति हो, तुच्छ प्राणी हो, और चूँकि तुम परमेश्वर के हाथों बने एक सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें केवल ईमानदारी से अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकारने और परमेश्वर के सभी आयोजनों के प्रति समर्पित होने का रुख अपनाना चाहिए और अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, इतना ही काफी है। क्या यह अपेक्षा अत्यधिक है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) क्या परमेश्वर तुमसे अपने जीवन का बलिदान करने को कहता है? (नहीं।) परमेश्वर तुमसे अपने जीवन का बलिदान करने को नहीं कहता, जबकि नैतिक आचरण की यह कहावत तुमसे अपेक्षा रखती है कि “अगर तुम्हारे पास थोड़ी-सी भी क्षमता, हृदय और उदात्त भावना है, तो तुम्हें आगे बढ़कर अपनी जन्मभूमि और राष्ट्र की सेवा करने के कार्य को स्वीकारना चाहिए। अपना जीवन, अपने परिवार और रिश्तेदारों और अपनी जिम्मेदारियों को त्याग दो। खुद को इस समाज, इस मानवजाति के बीच रखो, और देश के महान ध्येय, देश का पुनरुद्धार करने के महान ध्येय, और पूरी मानवजाति को बचाने के महान लक्ष्य को मरते दम तक अपने साथ लेकर चलो।” क्या यह अपेक्षा बहुत ज्यादा है? (हाँ।) एक बार जब लोग इस तरह के अतिवादी विचारों को स्वीकार कर लेते हैं, तो वे खुद को ऊँचा मानने लगते हैं। खास तौर पर विशेष प्रतिभा और विशेष रूप से बड़ी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं वाले कुछ लोगों की बात करें, तो वे इतिहास में अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें याद रखें, और वे इस जीवन में कुछ ध्येय पूरा करना चाहते हैं, इसलिए वे परंपरागत संस्कृति के विचारों को विशेष महत्व देते हैं और उनका सम्मान करते हैं। जैसे परंपरागत संस्कृति की ओर से आगे बढ़ाई गई ये कहावतें हैं, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” और “मृत्यु हिमालय से भारी या पंख से भी हल्की हो सकती है;” ऐसे लोग हिमालय से भी अधिक वजनदार होने के लिए कृतसंकल्प हैं। “मृत्यु हिमालय से भारी हो सकती है,” इस कहावत का क्या अर्थ है? यह छोटे-मोटे लाभों के लिए मरने की बात नहीं है, न ही यह एक साधारण व्यक्ति का जीवन जीने या सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने या प्रकृति की व्यवस्थाओं का पालन करने की बात है। बल्कि यह मानवजाति के महान ध्येय, राष्ट्र के पुनरुद्धार, देश की समृद्धि, समाज के विकास, और मानवजाति को मार्ग दिखाने के लिए मरने की बात है। इंसानों के इन अवास्तविक विचारों ने उन्हें संकट में डाल दिया है। क्या इस तरह लोग खुशी से रह पाएँगे? (नहीं।) वे खुशी से नहीं रह पाएँगे। एक बार जब लोग संकट में आ जाते हैं, तो वे साधारण लोगों से अलग सोचते और कार्य करते हैं, और अलग-अलग चीजों के पीछे भागने लगते हैं। वे अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं पर काम करना चाहते हैं, बड़े उपक्रमों और महान कारनामों को पूरा करना चाहते हैं, और पल भर में बड़ी-बड़ी चीजें हासिल करना चाहते हैं। धीरे-धीरे कुछ लोग राजनीति में आ जाते हैं, क्योंकि राजनीति का क्षेत्र ही उनकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं : “राजनीति का क्षेत्र बहुत गंदा है, मैं राजनीति में शामिल नहीं होऊँगा, लेकिन अभी भी मैं मानवजाति के हित में कुछ योगदान करना चाहता हूँ।” तो वे किसी गैर-राजनीतिक संगठन से जुड़ जाते हैं। कुछ अन्य लोग कहते हैं : “मैं किसी गैर-राजनीतिक संगठन में शामिल नहीं होऊँगा। मैं अकेला नायक बनूँगा, गरीबों की मदद करने के लिए अमीरों को लूटने और भ्रष्ट अधिकारियों, स्थानीय अत्याचारियों, बुरे लोगों, दुष्ट पुलिसवालों, डाकुओं और गुंडों को मारने के साथ-साथ आम लोगों और गरीबों की मदद करने में अपनी विशेषज्ञता का अच्छा उपयोग करूँगा।” वे चाहे कोई भी मार्ग अपनाएँ, वे परंपरागत संस्कृति के प्रभाव में आकर ही ऐसा करते हैं और इनमें से कोई भी मार्ग सही नहीं है। चाहे लोगों की अभिव्यक्तियाँ सामाजिक रुझानों और लोकप्रिय रुचियों के साथ कितनी भी मिलती हों, वे यकीनन परंपरागत संस्कृति से प्रभावित होती हैं, क्योंकि मानवजाति हमेशा “देश और लोगों के बारे में चिंता करो,” “स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिल में रखो,” “महान शूरवीर,” और “अपनी जन्मभूमि का हित” जैसी अभिव्यक्तियों को कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने के प्रति समर्पित होने और उनका अनुसरण करने का लक्ष्य मानती है। यही वास्तविक स्थिति है। क्या कभी किसी ने ऐसा कहा है, “मैं जीवन में कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने के लिए किसान बनना चाहता हूँ”? क्या कभी किसी ने ऐसा कहा है, “मैं जीवन भर कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने के लिए मवेशियों और भेड़ों को चराता रहूँगा”? क्या इन परिस्थितियों में किसी ने इस कहावत का इस्तेमाल किया है? (नहीं।) “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” इस कहावत के जरिए लोग एक प्रकार की महत्वाकांक्षा और अवास्तविक इच्छा के साथ अपने अंदर की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को छुपाने के लिए ऐसी सुखद लगने वाली वाक्पटुता का उपयोग करते हैं। जाहिर है कि “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” वाली कहावत ने देश और लोगों के बारे में चिंता करने और स्वर्ग के नीचे की सभी चीजों को अपने दिल में रखने जैसे अवास्तविक और विकृत विचारों और प्रथाओं को भी जन्म दिया है, जिससे बड़ी संख्या में आदर्शवादियों और दूरदर्शी लोगों को नुकसान पहुँचा है।

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