सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (12) भाग एक

पिछली सभा में मैंने किस बारे में संगति की थी, कोई बता सकता है? (पिछली बार परमेश्वर ने दो पहलुओं के बारे में संगति की थी। एक पहलू यह था कि जब कलीसिया में अलग-अलग अवधियों या अलग-अलग चरणों में कुछ विशेष घटनाएँ घटती हैं—उदाहरण के लिए, कुछ लोग बड़े लाल अजगर द्वारा गिरफ्तार कर लिए जाते हैं, कुछ अगुआओं और कर्मियों को बदल दिया जाता है, कुछ लोग बीमार हो जाते हैं, और कुछ लोगों को जिंदगी और मौत की समस्याओं का सामना करना पड़ता है—ये घटनाएँ कोई संयोग नहीं हैं, इसलिए हमें उनके बारे में सत्य खोजना चाहिए। परमेश्वर ने अभ्यास के कुछ मार्ग भी दिए हैं। इन परिस्थितियों का सामना करते समय, हमें दो चीजों का पालन करना चाहिए : पहला, एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण करना; दूसरा, एक ईमानदार और समर्पित दिल रखना—बात चाहे न्याय और ताड़ना, परीक्षण और शोधन का सामना करने की हो, या अनुग्रह और आशीष पाने की, हमें इन सभी चीजों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए। इसके अलावा, परमेश्वर की संगति ने परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की एक कहावत का विश्लेषण किया था, जो यह है कि “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए।”) नैतिक आचरण की कहावतों से जुड़ी समस्याएँ, पिछली संगति का मुख्य विषय भी थीं। मैंने परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कुछ आम कहावतों, अपेक्षाओं और परिभाषाओं को उजागर करते हुए, इस विषय पर लंबे समय तक संगति की है। इन विषयों पर संगति करने से, क्या तुम लोगों को नैतिक आचरण की इन कहावतों की कोई नई समझ या नई परिभाषा मिली है? क्या तुम इन कथनों की वास्तविकता समझ गए हो और क्या तुमने इनका सार स्पष्ट रूप से देख लिया है? क्या तुम इन चीजों को अपने दिल की गहराई से निकाल सकते हो, उन्हें त्याग सकते हो, उन्हें सत्य मानना बंद कर सकते हो, उन्हें सकारात्मक चीजों के रूप में देखना और सत्य समझकर उनका अनुसरण और पालन करना बंद कर सकते हो? खास तौर पर दैनिक जीवन में नैतिक आचरण की कहावतों से संबंधित कुछ बातों का सामना करते समय, क्या तुम्हारे भीतर जागरूकता होती है, और क्या तुम विचारपूर्वक इस बात पर चिंतन कर सकते हो कि तुम अभी भी नैतिक आचरण की इन कहावतों से प्रभावित होते हो या नहीं? क्या तुम इन चीजों से लाचार, बाधित, और नियंत्रित हो? क्या तुम मन में अभी भी नैतिक आचरण की कहावतों का उपयोग खुद को बाधित करने और अपनी बातों और व्यवहार के साथ-साथ चीजों के प्रति अपने रवैये को प्रभावित करने के लिए कर सकते हो? अपने विचार बताओ। (परमेश्वर द्वारा संगति में परंपरागत संस्कृति का विश्लेषण करने से पहले, मुझे यह नहीं पता था कि नैतिक आचरण के ये विचार और नजरिये गलत थे, या वो मुझे कितना नुकसान पहुँचा सकते थे, लेकिन अब मैं थोड़ा-बहुत जान गया हूँ।) अच्छी बात है कि तुममें थोड़ी जागरूकता आ गई है। यकीनन, कुछ समय बाद, तुम नैतिक आचरण की इन कहावतों की गलतियों को पहचान पाओगे। व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से, तुम्हें उन्हें त्यागने और उन्हें सकारात्मक चीजें न मानने में भी सक्षम होना चाहिए, लेकिन निष्पक्ष दृष्टिकोण से, तुम्हें अभी भी दैनिक जीवन में नैतिक आचरण की ऐसी कहावतों को सावधानीपूर्वक समझना, खोजकर निकालना, और पहचानना होगा, ताकि तुम उनकी वास्तविकता को स्पष्ट रूप से देखकर उन्हें त्याग सको। व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से जागरूक होने का मतलब यह नहीं है कि तुम अपने दैनिक जीवन में परंपरागत संस्कृति के इन गलत विचारों और नजरियों को त्यागने में सक्षम हो। इन चीजों का सामना करते समय, तुम्हें अचानक महसूस हो सकता है कि ये कहावतें उचित हैं, और शायद तुम उन्हें पूरी तरह से त्याग न पाओ। ऐसे मामलों में, तुम्हें अपने अनुभवों में सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों के अनुसार परंपरागत संस्कृति के इन गलत विचारों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करना चाहिए, और उस मुकाम पर पहुँचना चाहिए जहाँ तुम स्पष्ट रूप से यह देखने में सक्षम हो जाओ कि परंपरागत संस्कृति की उन कहावतों का सार सत्य के विपरीत, अवास्तविक, गुमराह करने वाले और लोगों के लिए हानिकारक है। केवल इसी तरह से इन बेतुके विचारों का विष तुम्हारे दिल से हमेशा के लिए साफ हो सकता है। अब तुम लोगों ने धर्म-सिद्धांत के संदर्भ में परंपरागत संस्कृति की विभिन्न कहावतों की खामियों को पहचान लिया है, और यह अच्छी बात है, लेकिन यह केवल एक शुरुआत है। परंपरागत संस्कृति का विषैला प्रभाव भविष्य में पूरी तरह से खत्म होगा या नहीं, यह लोगों के सत्य का अनुसरण करने के तरीके पर निर्भर करता है।

नैतिक आचरण की कहावत चाहे जो भी हो, यह नैतिक आचरण पर एक प्रकार का वैचारिक दृष्टिकोण है जिसका मानवजाति समर्थन करती है। हमने पहले नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों में से कुछ का सार उजागर किया था, लेकिन जिन पहलुओं पर हमने पहले संगति की थी, उनके अलावा भी यकीनन नैतिक आचरण की कुछ और कहावतें हैं जिन्हें उजागर किया जाना चाहिए, ताकि नैतिक आचरण की उन अनगिनत कहावतों को, जिनका लोग समर्थन करते हैं, गहराई से समझा और पहचाना जा सके। तुम लोगों को यह जरूर करना चाहिए। नैतिक आचरण पर इस कहावत के संबंध में, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए,” जिस पर हमने पिछली बार संगति की थी, इस वाक्य के अर्थ को देखा जाए तो, यह मुख्य रूप से पुरुषों के लिए है। यह पुरुषों से की गई अपेक्षा है, और यह उन लोगों के लिए एक मानक भी है जिन्हें मानवजाति “मर्दाना, साहसी पुरुष” कहती है। हमने पुरुषों से संबंधित इस मानक को उजागर कर इसका विश्लेषण किया। पुरुषों से इस अपेक्षा के अलावा, यह कहावत भी है, “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” जिस पर हमने पहले संगति की थी, और जो महिलाओं के संदर्भ में है। इन दोनों कहावतों से यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि मानवजाति की परंपरागत संस्कृति न केवल महिलाओं से ऐसी अवास्तविक, अमानवीय अपेक्षाएँ करती है जो मानव प्रकृति से मेल नहीं खाती, बल्कि पुरुषों को भी नहीं बख्शती है, उनसे ऐसी माँगें और अपेक्षाएँ रखती है जो अनैतिक, अमानवीय और मानव प्रकृति के विपरीत हैं, जिससे न केवल महिलाएँ बल्कि पुरुष भी अपने मानव अधिकारों से वंचित हो जाते हैं। इस दृष्टिकोण से, निष्पक्ष रहना उचित मालूम पड़ता है, यानी न तो महिलाओं से नरमी बरतना और न ही पुरुषों को बख्शना। जो भी हो, महिलाओं और पुरुषों के प्रति परंपरागत संस्कृति की अपेक्षाओं और मानकों को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि इस दृष्टिकोण में गंभीर समस्याएँ हैं। जहाँ एक ओर, परंपरागत संस्कृति महिलाओं के लिए नैतिक आचरण के मानक सामने रखती है वहीं दूसरी ओर, मर्दाना, साहसी पुरुषों के लिए भी आचरण के मानदंड निर्धारित करती है, इन अपेक्षाओं और मानकों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि यहाँ निष्पक्षता नहीं है। क्या ऐसा नहीं कहा जा सकता? (हाँ।) महिलाओं के नैतिक आचरण के लिए ये अपेक्षाएँ और मानक महिलाओं की आजादी को गंभीर रूप से सीमित करते हैं, ये न केवल महिलाओं के विचारों को, बल्कि उनके पैरों को भी जंजीरों में जकड़ देते हैं, उनसे घर पर रहने और अकेला जीवन जीने, कभी घर नहीं छोड़ने और बाहरी दुनिया से कम से कम संपर्क रखने की अपेक्षा की जाती है। महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होने की शिक्षा देने के अलावा, महिलाओं से सार्वजनिक जगहों पर न जाने, दूर की यात्रा न करने, और कोई करियर न बनाने की अपेक्षा करके, वे उनके कार्यक्षेत्र और जीवन के दायरे पर भी सख्त नियम लागू करते हैं, कोई बड़ी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और आदर्श रखना तो दूर की बात है, और यहाँ तक कि वे ऐसा अमानवीय दावा भी करते हैं—महिला का अकुशल होना उसका सद्गुण है। यह सुनकर तुम लोगों को कैसा महसूस होता है? क्या यह दावा वास्तव में सही है कि “महिला का अकुशल होना उसका सद्गुण है।” किसी महिला में कोई कौशल न होना उसका सद्गुण कैसे हो सकता है? इस “सद्गुण” शब्द का अर्थ क्या है? इसका मतलब सद्गुणों की कमी होना है या सद्गुणी होना? अगर बिना कौशल वाली सभी महिलाओं को सद्गुणी माना जाता है, तो क्या कौशल वाली सभी महिलाओं में सद्गुणों की कमी है और उनमें कोई नैतिकता नहीं है? क्या यह कुशल महिलाओं की आलोचना और निंदा है? क्या यह महिलाओं के मानव अधिकारों का गंभीर हनन है? क्या यह महिलाओं की गरिमा का अपमान है? (हाँ।) यह न केवल महिलाओं के अस्तित्व को अनदेखा करता है, बल्कि उनके अस्तित्व की उपेक्षा भी करता है, जो महिलाओं के प्रति अन्याय और अनैतिक है। तो, “महिला का अकुशल होना उसका सद्गुण है,” इस कहावत के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? क्या यह अमानवीय है? (हाँ।) “अमानवीय” शब्द को कैसे समझना चाहिए? क्या इसमें सद्गुण की कमी है? (हाँ।) इसमें जरा भी सद्गुण नहीं है। एक चीनी कहावत का उपयोग करें, तो इसमें आठ जन्मों के सद्गुण का अभाव है। इस प्रकार का दावा यकीनन अमानवीय है! जो लोग इस दावे का ढिंढोरा पीटते हैं कि “महिला का अकुशल होना उसका सद्गुण है,” उनकी कुछ परोक्ष मंशाएँ और इरादे होते हैं : वे नहीं चाहते कि महिलाएँ कुशल हों, और वे नहीं चाहते कि महिलाएँ समाज के काम में हिस्सा लेकर पुरुषों से बराबरी करें। वे केवल यही चाहते हैं कि महिलाएँ पुरुषों की सेवा में साधन बनें और घर पर रहते हुए दब्बू बनकर पुरुषों की सेवाटहल करने के अलावा कुछ और न करें—उन्हें लगता है कि “सद्गुण” का यही अर्थ है। वे महिलाओं को बेकार साबित करना और उनकी अहमियत को ठुकराना चाहते हैं, उन्हें पुरुषों की गुलाम मात्र बनाकर हमेशा के लिए उनसे पुरुषों की सेवा कराते हैं, उन्हें कभी भी पुरुषों के साथ बराबरी के स्तर पर खड़े होकर समान व्यवहार का आनंद लेने नहीं देते। यह दृष्टिकोण सामान्य मनुष्य की सोच से आता है या फिर शैतान की? (शैतान की।) सही कहा, यह शैतान की ही सोच है। महिलाओं में चाहे कोई भी सहज या शारीरिक कमजोरियाँ हों, इनमें से कोई भी समस्या नहीं है और यह पुरुषों के लिए महिलाओं की निंदा करने, महिलाओं की गरिमा का अपमान करने और महिलाओं को उनकी आजादी या मानव अधिकारों से वंचित करने का बहाना या कारण नहीं बनना चाहिए। जिन कमजोरियों और स्वाभाविक नाजुकता को लोग महिलाओं के साथ जोड़ते हैं, परमेश्वर की नजरों में वह कोई समस्या नहीं है। और ऐसा क्यों है? क्योंकि महिलाओं को परमेश्वर ने बनाया है, जिन चीजों को लोग कमजोरियाँ और समस्याएँ मानते हैं वे परमेश्वर की दी हुई हैं। वे परमेश्वर द्वारा बनाई और पूर्व निर्धारित की गई हैं, और वास्तव में खामियाँ या समस्याएँ नहीं हैं। ये चीजें जो मनुष्यों और शैतान की नजरों में कमजोरियाँ और खामियाँ लगती हैं, वास्तव में प्राकृतिक और सकारात्मक चीजें हैं, और वे परमेश्वर के बनाए उन प्राकृतिक नियमों के अनुरूप भी हैं जो उसने मानवजाति का सृजन करते समय बनाए थे। जो चीजें मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, उन्हें खामियाँ, कमजोरियाँ, और सहज कमियों की समस्याएँ बताकर, केवल शैतान ही परमेश्वर के बनाए प्राणियों की इस तरह बदनामी कर सकता है, और तिल का ताड़ बनाता है, और उन चीजों का उपयोग करके लोगों पर लांछन लगाता है, उनका मजाक बनाता है, उनकी बदनामी करता है, और उन्हें समाज से बहिष्कृत करने के साथ-साथ महिलाओं को उनके जीवन जीने के अधिकार से वंचित करता है; साथ ही, उन्हें मानवजाति के बीच अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने के अधिकार और अपने कौशल और विशेष प्रतिभाओं को प्रदर्शित करने के अधिकार से भी वंचित करता है। उदाहरण के लिए, महिलाओं का विवरण देने और उनकी अहमियत कम कर उन्हें बेकार बताने के लिए समाज में अक्सर “छुईमुई” या “नारी सुलभ” जैसे शब्दों का उपयोग किया जाता है। ऐसे और कौन से शब्द हैं? “डरपोक,” “लंबे बाल पर छोटे दिमाग वाली,” “बड़े वक्षों वाली कमअक्ल युवती” वगैरह, ये सभी महिलाओं का अपमान करने वाले शब्द हैं। जैसा कि तुम बता सकते हो, इन शब्दों का उपयोग महिलाओं की अलग खासियतों या महिला से जुड़े उपनामों का उल्लेख करके उनका अपमान करने के लिए किया जाता है। स्पष्ट है कि समाज और मानवजाति महिलाओं को पुरुषों से बिल्कुल अलग दृष्टिकोण से देखते हैं, ऐसा दृष्टिकोण जो असमान भी है। क्या यह अनुचित नहीं है? यह पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता के आधार से बात करना या मामलों को देखना नहीं है, बल्कि यह पुरुष की प्रधानता और पुरुषों और महिलाओं के बीच पूर्ण असमानता के दृष्टिकोण से महिलाओं को नीची नजर से देखना है। इसलिए, समाज में या मनुष्यों के बीच, ऐसे कई शब्द उभरे हैं जो लोगों, घटनाओं और चीजों से जुड़ी विभिन्न समस्याओं का वर्णन करने के लिए महिलाओं की खासियतों और महिलाओं के उपनामों का इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के लिए, “छुईमुई,” “नारी सुलभ,” “डरपोक,” “लंबे बाल पर छोटे दिमाग वाली,” “बड़े वक्षों वाली कमअक्ल युवती,” जैसे शब्द जिनका अभी हमने उल्लेख किया था, इनका इस्तेमाल लोग न केवल महिलाओं को परिभाषित करने और उन्हें निशाना बनाने के लिए करते हैं, बल्कि महिलाओं की खासियतों और महिला से जुड़े शब्दों का इस्तेमाल करके ऐसे लोगों, घटनाओं, और चीजों का मजाक बनाने, नीचा दिखाने, और बेनकाब करने के लिए भी करते हैं जिनसे वे घृणा करते हैं। यह वैसा ही है जैसे किसी को अमानवीय बताते हुए, कोई कहे कि इस व्यक्ति के पास भेड़िये का दिल और कुत्ते के फेफड़े हैं, क्योंकि लोग सोचते हैं कि न तो भेड़िये का दिल और न ही कुत्ते के फेफड़े अच्छी चीजें हैं, इसलिए वे ऐसे व्यक्ति की नीचता का वर्णन करने के लिए इन दोनों चीजों का एक साथ इस्तेमाल करते हैं जिसने अपनी मानवता खो दी है। इसी तरह, चूँकि मनुष्य महिलाओं से घृणा करते हैं और उनके अस्तित्व की उपेक्षा करते हैं, इसलिए वे उन लोगों, घटनाओं और चीजों का वर्णन करने के लिए महिला से जुड़े शब्दों का उपयोग करते हैं जिनसे वे घृणा करते हैं। यह साफ तौर पर महिलाओं का अपमान है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) जो भी हो, जिस तरह से मानवजाति और समाज महिलाओं को देखता और उन्हें परिभाषित करता है वह अनुचित और तथ्यों के विपरीत है। संक्षेप में, महिलाओं के प्रति मानवजाति के रवैये को दो शब्दों में बताया जा सकता है, जो हैं “अपमानजनक” और “दमनकारी”। महिलाओं को अपने पैरों पर खड़े होकर कोई काम करने की अनुमति नहीं है, और न ही कोई सामाजिक दायित्व और जिम्मेदारियाँ निभाने की अनुमति है, समाज में कोई भूमिका निभाना तो दूर की बात है। संक्षेप में, महिलाओं को समाज में किसी भी काम में हिस्सा लेने के लिए घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं है—यह महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करना है। महिलाओं को न तो स्वतंत्र रूप से कल्पना करने की अनुमति है, न ही खुलकर बोलने की, स्वतंत्र रूप से काम करना तो दूर की बात है, उन्हें वैसा कुछ भी करने की अनुमति नहीं है जो उन्हें करना चाहिए। क्या यह महिलाओं का उत्पीड़न नहीं है? (हाँ, है।) परंपरागत संस्कृति द्वारा महिलाओं का उत्पीड़न उन पर थोपी गई नैतिक आचरण की अपेक्षाओं से स्पष्ट है। परिवार, समाज और समुदाय द्वारा महिलाओं से की गई विभिन्न अपेक्षाओं को देखते हुए, महिलाओं का उत्पीड़न आधिकारिक तौर पर तब शुरू हुआ जब पहली बार समुदायों का गठन हुआ और लोगों ने पुरुषों और महिलाओं के बीच स्पष्ट विभाजन कर दिया। यह अपने चरम पर कब पहुँचा? परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों और अपेक्षाओं के क्रमिक उद्भव के बाद महिलाओं का उत्पीड़न अपने चरम पर पहुँच गया। क्योंकि लिखित नियम और स्पष्ट कहावतें मौजूद हैं, तो समाज में इन लिखित नियमों और स्पष्ट कहावतों ने जनमत को आकार दिया और यह एक प्रकार का दबाव भी बन गया। यह जनमत और दबाव पहले से ही महिलाओं के लिए एक प्रकार की कठोर बंदिश और बेड़ियाँ बन गए हैं, जो केवल अपनी नियति को स्वीकार सकती हैं, क्योंकि मानवजाति के बीच और समाज के विभिन्न कालावधियों में जीते हुए, महिलाओं के पास अन्याय और अपमान सहने, अपना अनादर कराने, और समाज के साथ-साथ पुरुषों का गुलाम बनने के अलावा और कोई चारा नहीं है। आज तक, नैतिक आचरण के विषय पर बने लंबे समय से चले आ रहे और प्राचीन विचार और कहावतें आज भी पुरुषों और बेशक महिलाओं सहित आधुनिक मानव समाज को गहराई से प्रभावित करती हैं। महिलाएँ न चाहते हुए भी और अनजाने में नैतिक आचरण की इन कहावतों और बड़े पैमाने पर समाज की राय का इस्तेमाल खुद को बाँधने के लिए करती हैं, और यकीनन वे इन बंधनों और बंदिशों से मुक्त होने के लिए अवचेतन रूप से संघर्ष भी कर रही हैं। क्योंकि लोग समाज में जनमत की इस मजबूत शक्ति का प्रतिरोध नहीं कर सकते—या अधिक सटीक रूप से कहें, तो मनुष्य परंपरागत संस्कृति की विभिन्न कहावतों के सार को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हैं, न ही उनकी वास्तविकता पहचान सकते हैं—इसलिए वे इन बंधनों और बंदिशों को तोड़कर बाहर निकलने में असमर्थ हैं, भले ही वे ऐसा करना चाहते हों। व्यक्तिपरक स्तर पर, ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग इन समस्याओं को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते हैं; निष्पक्ष स्तर पर, ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग न तो सत्य समझते हैं, न ही सृष्टिकर्ता द्वारा लोगों को बनाने का असल अर्थ समझते हैं, न ही यह समझ पाते हैं कि उसने पुरुष और महिला प्रकृति क्यों बनाई। इसलिए, पुरुष और महिला दोनों सामाजिक नैतिकता के इस विशाल ढांचे के भीतर रहकर जीवन जीते हैं, और इस विशाल सामाजिक परिवेश के अंदर चाहे वे कितना भी कठिन संघर्ष करें, फिर भी वे परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों की बेड़ियों से बच नहीं सकते, ऐसी कहावतें जो हरेक व्यक्ति के दिमाग में अदृश्य बेड़ियाँ बन गई हैं।

परंपरागत संस्कृति की वे कहावतें जो महिलाओं का उत्पीड़न करती हैं, न केवल महिलाओं के लिए, बल्कि यकीनन पुरुषों के लिए भी अदृश्य बेड़ियों की तरह हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि मानवजाति के बीच पैदा होने, और इस समाज के समान रूप से महत्वपूर्ण सदस्य होने के नाते, पुरुष के मन में नैतिकता की इन परंपरागत संस्कृतियों को समान रूप से बैठाया जाता है और वे इससे प्रभावित होते हैं। ये बातें हर पुरुष के मन में गहराई से जड़ें जमा चुकी हैं, और सभी पुरुष अनजाने में ही परंपरागत संस्कृति से प्रभावित और जकड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए, पुरुष भी “छुईमुई,” “महिला का अकुशल होना उसका सद्गुण है,” “महिलाओं को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” और “महिलाओं को पवित्र होना चाहिए” जैसी अभिव्यक्तियों में दृढ़ता से विश्वास करते हैं और वे भी परंपरागत संस्कृति की इन चीजों से उतनी ही गहराई तक सीमित हैं जितनी कि महिलाएँ हैं। एक ओर, महिलाओं का उत्पीड़न करने वाली ये कहावतें पुरुषों का रुतबा बढ़ाने में बहुत फायदेमंद और सहायक हैं, और इससे यह देखा जा सकता है कि समाज में पुरुषों को इस संबंध में जनमत से बहुत मदद मिली है। इसलिए, वे महिलाओं का उत्पीड़न करने वाले इन विचारों और अभिव्यक्तियों को आसानी से स्वीकार लेते हैं। दूसरी ओर, पुरुष भी नैतिकता की परंपरागत संस्कृति की इन बातों से गुमराह और प्रभावित होते हैं, तो यह भी कहा जा सकता है कि महिलाओं के अलावा—पुरुष—परंपरागत संस्कृति के ज्वार का अन्य शिकार हैं। कुछ लोग कहते हैं : “समाज व्यापक रूप से पुरुषों के अधिकारों की श्रेष्ठता का समर्थन करता है, तो पुरुषों के पीड़ितों में शामिल होने की बात क्यों कहना?” इसे इस दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए कि मानवजाति नैतिकता की परंपरागत संस्कृति से प्रलोभित, गलत दिशा दिखाई गई, गुमराह, सुन्न और सीमित है। परंपरागत संस्कृति में नैतिकता के विचारों से महिलाओं को गहरा नुकसान पहुँचाया गया है, और पुरुषों को भी इसी तरह गहराई से गुमराह और पीड़ित किया गया है। “गुमराह” का दूसरा अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि लोगों के पास पुरुषों का आकलन करने और महिलाओं को परिभाषित करने का कोई सही दृष्टिकोण नहीं है। चाहे वे इन चीजों को किसी भी कोण से देखें, यह सब परंपरागत संस्कृति पर आधारित है, न कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य या मानवजाति के लिए परमेश्वर द्वारा बनाए विभिन्न नियमों और व्यवस्थाओं पर, और न ही यह उन सकारात्मक चीजों पर आधारित है जो परमेश्वर ने मानवजाति के सामने उजागर किए हैं। इस दृष्टिकोण से, पुरुष भी उन पीड़ितों में शामिल हैं जिन्हें परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रलोभित किया, गलत दिशा दिखाई, गुमराह, सुन्न और सीमित किया गया है। तो सिर्फ इसलिए कि महिलाओं का समाज में कोई दर्जा नहीं है, पुरुषों को उन्हें अत्यंत दयनीय नहीं समझना चाहिए, और सिर्फ इसलिए संतुष्ट नहीं होना चाहिए क्योंकि उनका सामाजिक दर्जा महिलाओं की तुलना में ऊँचा है। इतनी जल्दी खुश मत हो; दरअसल पुरुष भी बहुत दयनीय स्थिति में हैं। यदि तुम उनकी तुलना महिलाओं से करो, तो वे भी उतने ही दयनीय हैं। मैं यह क्यों कहता हूँ कि वे सभी समान रूप से दयनीय हैं? आओ, पुरुषों के लिए समाज और मानवजाति की परिभाषा और मूल्यांकन और उन्हें सौंपी गई कुछ जिम्मेदारियों पर फिर से नजर डालें। पुरुषों से मानवजाति की जिस अपेक्षा के बारे में हमने पिछली बार संगति की थी—“धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए”—इसके मद्देनजर, इस अपेक्षा का अंतिम लक्ष्य पुरुषों को मर्दाना और साहसी पुरुषों के रूप में परिभाषित करना है, जो पुरुषों के लिए एक आदर्श उपाधि है। एक बार जब किसी व्यक्ति को “मर्दाना, साहसी पुरुष” की आदर्श उपाधि से नवाज दिया जाता है, तो वह इस उपाधि पर खरा उतरने के लिए बाध्य होता है, और अगर वह इस पर खरा उतरना चाहता है, तो उसे कई निरर्थक त्याग करने और इस तरह से कई काम करने होंगे जो सामान्य मानवता के खिलाफ हों। उदाहरण के लिए, अगर तुम पुरुष हो और चाहते हो कि समाज तुम्हें एक मर्दाना, साहसी पुरुष के रूप में पहचाने, तो तुममें कोई कमजोरी नहीं होनी चाहिए, तुम किसी भी तरह से डरपोक नहीं हो सकते, तुम्हारे पास दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए, तुम थके होने की शिकायत नहीं कर सकते, तुम आँसू नहीं बहा सकते या कोई मानवीय कमजोरी नहीं दिखा सकते, यहाँ तक कि तुम दुखी नहीं हो सकते और ढीले भी नहीं पड़ सकते। हर समय तुम्हारी आँखों में चमक, दृढ़ निश्चय और निडरता होनी चाहिए, और “मर्दाना, साहसी पुरुष” की उपाधि के अनुसार खरा उतरने के लिए तुम्हें अपने दुश्मनों पर गुस्सा दिखाने में भी सक्षम होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम्हें इस जीवन में साहस जुटाना होगा और अपनी रीढ़ सीधी करनी होगी। तुम एक औसत दर्जे का, साधारण, आम या सामान्य व्यक्ति नहीं हो सकते। “मर्दाना, साहसी पुरुष” कहलाने के योग्य होने के लिए तुम्हें नश्वर प्राणी मात्र की सीमा से परे जाना होगा और असाधारण इच्छाशक्ति, असाधारण दृढ़ता, सहनशीलता और अटलता रखने वाला असाधारण मनुष्य बनना होगा। यह पुरुषों के प्रति परंपरागत संस्कृति की अनेक अपेक्षाओं में से एक है। कहने का तात्पर्य यह है कि पुरुष शराब पी सकते हैं, वेश्याओं से संबंध बना सकते हैं और जुआ खेल सकते हैं, बस उन्हें महिलाओं की तुलना में अधिक मजबूत होना चाहिए और उनमें बेहद दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए। चाहे तुम पर कोई भी मुसीबत आए, तुम्हें झुकना नहीं चाहिए, झिझकना नहीं चाहिए, या “ना” नहीं कहना चाहिए; और घबराहट, भय या कायरता नहीं दिखानी चाहिए। तुम्हें सामान्य मानवता की इन अभिव्यक्तियों को छिपाना और उन पर पर्दा डालना चाहिए, और चाहे जो हो जाए उन्हें किसी भी तरह प्रकट नहीं होने देना चाहिए, न ही किसी को उन्हें देखने देना चाहिए, यहाँ तक कि अपने माता-पिता, अपने सबसे करीबी रिश्तेदारों या उन लोगों को भी नहीं जिन्हें तुम सबसे ज्यादा चाहते हो। ऐसा क्यों? क्योंकि तुम एक मर्दाना और साहसी पुरुष बनना चाहते हो। मर्दाना, साहसी पुरुषों की एक और विशेषता यह है कि कोई भी व्यक्ति, घटना या चीज उनके संकल्प को डिगा नहीं सकती है। जब भी कोई पुरुष कुछ करना चाहता है—जब उसकी कोई आकांक्षाएँ, आदर्श या इच्छाएँ हों, जैसे कि अपने देश की सेवा करना, अपने दोस्तों के प्रति वफादारी दिखाना या उनके लिए गोली खाना, या वह जो भी करियर बनाना चाहता है, या उसकी जो भी महत्वाकांक्षा हो, चाहे वह सही हो या गलत—कोई भी उसे रोक नहीं सकता, और न ही महिलाओं के प्रति उसका प्रेम, न ही उसके रिश्तेदार, परिवार या सामाजिक जिम्मेदारियाँ उसके संकल्प को बदल सकती हैं, और न ही उसे अपनी आकांक्षाओं, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने पर मजबूर कर सकती हैं। जिन लक्ष्यों को वह पाना चाहता है या जिस मार्ग पर वह चलना चाहता है, और उसके संकल्प को कोई भी नहीं बदल सकता। साथ ही, उसे कभी भी खुद को आराम नहीं करने देना चाहिए। जैसे ही वह आराम करेगा, ढीला पड़ने लगेगा, और फिर से अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करना, अपने माता-पिता के लिए एक अच्छा बेटा बनना, अपने बच्चों की देखभाल करना और एक सामान्य व्यक्ति बनना चाहेगा, और अपने आदर्शों, आकांक्षाओं, अपने लिए निर्धारित उन मार्ग और लक्ष्यों को त्याग देगा जिन्हें वह हासिल करना चाहता है, तब वह मर्दाना, साहसी पुरुष नहीं कहलाएगा। और अगर वह मर्दाना, साहसी पुरुष नहीं है, तो वह क्या है? वह एक बड़ा नरमदिल, निकम्मा व्यक्ति बन जाता है, जो ऐसे लक्षण हैं जिनसे पूरा समाज और वह खुद भी घृणा करता है। जब किसी पुरुष को एहसास होता है कि उसके कार्यों और आचरण में समस्याएँ और कमियाँ हैं जो एक मर्दाना, साहसी पुरुष होने के मानक को पूरा नहीं करती हैं, तो वह अंदर-ही-अंदर खुद से घृणा करेगा, और उसे लगेगा कि इस समाज में उसका कोई स्थान नहीं है, उसकी क्षमताओं का कोई उपयोग नहीं है और उसे एक मर्दाना, साहसी पुरुष, यहाँ तक कि एक सामान्य पुरुष तक नहीं कहा जा सकता है। मर्दाना, साहसी पुरुषों की एक और विशेषता यह है कि उन्हें ताकत से झुकाया नहीं जा सकता, जो एक प्रकार की भावना है जो उनका किसी भी प्रकार की शक्ति, हिंसा, धमकी या इस तरह की चीजों के काबू में आना नामुमकिन बना देती है। चाहे उन्हें किसी भी प्रकार की शक्ति, हिंसा, धमकी का सामना करना पड़े या उनकी जान पर भी बन आए, ऐसे पुरुष मौत से नहीं डरते हैं और कई विपत्तियों को पार कर सकते हैं। उन्हें फिरौती के लिए पकड़ना या उनसे समर्पण करने के लिए मजबूर करना बेकार है, वे केवल जीवित रहने के लिए किसी भी ताकत के आगे नहीं झुकेंगे, और न ही कोई समझौता करेंगे। अगर वे किसी जिम्मेदारी, दायित्व या अन्य कारण से ताकत या किसी भी प्रकार के दबाव के आगे झुक गए, तो भले ही वे जीवित रह पाएँ, उन्हें नैतिकता की उस परंपरागत संस्कृति के कारण अपने व्यवहार से घृणा होगी, जिसे वे अपना आदर्श मानते हैं। जापान में बुशिदो की भावना कुछ ऐसी ही है। एक बार जब तुम असफल या शर्मिंदा हो जाते हो, तो तुम्हें अपनी आँतें काटकर आत्महत्या कर लेनी चाहिए। क्या जीवन इतनी आसानी से मिलता है? लोग केवल एक बार जीते हैं। अगर एक छोटी-सी असफलता या झटका भी मृत्यु के विचारों को प्रेरित कर देता है, तो क्या यह परंपरागत संस्कृति के प्रभाव का नतीजा है? (हाँ।) जब कोई समस्या सामने आती है और वे तुरंत फैसला नहीं ले पाते या कोई ऐसा विकल्प नहीं चुन पाते हैं जो परंपरागत संस्कृति की अपेक्षाओं के अनुरूप हो, या वे अपनी गरिमा और चरित्र को साबित नहीं कर पाते या यह साबित नहीं कर पाते हैं कि वे एक मर्दाना, साहसी पुरुष हैं, तो वे मृत्यु की खोज में आत्महत्या कर लेते हैं। पुरुष परंपरागत संगति के गंभीर प्रभाव के कारण और इसके द्वारा अपनी सोच को सीमित करने के कारण ही ऐसे विचार और दृष्टिकोण रखते हैं। अगर लोग परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों से प्रभावित नहीं होते, तो इतने सारे पुरुष आत्महत्या नहीं कर रहे होते, अपनी आँतें नहीं काट रहे होते। जहाँ तक एक मर्दाना, साहसी पुरुष की परिभाषा का संबंध है, पुरुष बहुत सकारात्मकता से और आश्वस्त होकर परंपरागत संस्कृति के इन विचारों और नजरियों को स्वीकार करते हैं, और उन्हें सकारात्मक चीजें मानते हैं जिसके द्वारा वे खुद को और अन्य पुरुषों को आँकते और विवश करते हैं। पुरुषों के विचारों और नजरियों, आदर्शों, लक्ष्यों और उनके द्वारा चुने गए रास्तों को देखा जाए, तो इन सबसे यह साबित होता है कि सभी पुरुष परंपरागत संस्कृति से बहुत अधिक प्रभावित हैं और इसका विष उनमें गहराई तक फैल चुका है। वीरतापूर्ण कारनामों की अनेक कहानियाँ और खूबसूरत दंत कथाएँ इस बात की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं कि कैसे परंपरागत संस्कृति लोगों के दिमाग में गहराई तक जड़ें जमा चुकी है। इस दृष्टिकोण से, क्या पुरुषों में भी पारंपरिक संस्कृति का विष उतनी ही गहराई तक समाया है जितना कि महिलाओं में? परंपरागत संस्कृति पुरुषों और महिलाओं पर अपेक्षाओं के अलग-अलग मानक रखती है, महिलाओं का तिरस्कार करती है, उन्हें नीचा दिखाती है, प्रतिबंधित करती है और उन्हें बिना किसी रोक-टोक के नियंत्रित करती है, जबकि पुरुषों को कायर या सामान्य, साधारण व्यक्ति न बनने के लिए प्रबलता से प्रेरित करती, लुभाती, और भड़काती है। पुरुषों से यह अपेक्षा होती है कि वे जो भी करते हैं वह महिलाओं से अलग होना चाहिए, उनसे बढ़कर होना चाहिए, उनसे ऊपर होना चाहिए और उन पर हावी होना चाहिए। उन्हें समाज, मानवजाति, समाज की प्रवृत्तियों और दिशा और समाज में हर चीज पर अपना नियंत्रण रखना चाहिए। पुरुषों को समाज में सबसे शक्तिशाली होना चाहिए, उनके पास समाज और मनुष्यों को नियंत्रित करने की शक्ति होनी चाहिए, और इस शक्ति में महिलाओं पर शासन करना और उन्हें नियंत्रित करना भी शामिल है। पुरुषों को इसी का अनुसरण करना चाहिए, और यही एक मर्दाना, साहसी पुरुष बनने का वीरतापूर्ण तरीका भी है।

आज के दौर में, कई देश लोकतांत्रिक समाज बन गए हैं जिनमें महिलाओं और बच्चों के अधिकारों और हितों की कुछ हद तक गारंटी रहती है, और लोगों पर परंपरागत संस्कृति के इन विचारों और नजरियों का प्रभाव और बाध्यताएँ अब इतनी ज्यादा स्पष्ट नहीं हैं। आखिरकार, कई महिलाएँ समाज में आगे बढ़ चुकी हैं, और कई क्षेत्रों और कई पेशों में उनकी भागीदारी बढ़ रही है। हालाँकि, परंपरागत संस्कृति के विचारों ने लंबे समय से मनुष्यों के मन में गहराई तक जड़ें जमा रखी हैं—न केवल महिलाओं के मन में, बल्कि पुरुषों के मन में भी—इसलिए पुरुष और महिला दोनों विभिन्न चीजों को करने और उनके बारे में सोचते समय अनजाने में परंपरागत संस्कृति के दृष्टिकोण और सहूलियतों को अपनाते हैं। बेशक, वे परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों के मार्गदर्शन में विभिन्न प्रकार के करियर और काम भी चुनते हैं। आज के समाज में, भले ही पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता में कुछ हद तक सुधार हुआ है, परंपरागत संस्कृति में पुरुषों की श्रेष्ठता का विचार अभी भी लोगों के मन पर हावी है, और ज्यादातर देशों में, शिक्षा मूल रूप से परंपरागत संस्कृति के इन बुनियादी विचारों पर आधारित है। इस कारण, भले ही इस समाज में, मनुष्य विभिन्न मसलों पर बात करने के लिए परंपरागत संस्कृति की इन कहावतों का उपयोग शायद ही कभी करते हों, फिर भी वे परंपरागत संस्कृति के वैचारिक ढांचे के भीतर कैद हैं। आधुनिक समाज किसी महिला की प्रशंसा के लिए कैसे शब्दों का उपयोग करता है? “मर्दाना महिला” और “शक्तिशाली महिला” जैसे शब्दों का। संबोधन के ये शब्द सम्मान सूचक हैं या अपमानजनक? कुछ महिलाएँ कहती हैं : “किसी ने मुझे एक मर्दाना महिला कहा, जो मुझे बहुत प्रशंसात्मक बात लगी। कितना अच्छा है ना? मैं पुरुष समाज में घुल-मिल गई हूँ और मेरा दर्जा बढ़ गया है। भले ही मैं एक महिला हूँ, लेकिन ‘मर्दाना’ शब्द जोड़ने से मैं मर्दाना महिला बन जाती हूँ, फिर मैं पुरुषों के बराबर हो सकती हूँ, जो एक तरह का सम्मान है!” मानव समाज में कोई समुदाय या समूह किसी महिला को इस तरह पहचानता और स्वीकार करता है, तो यह बेहद सम्मान की बात है, है न? अगर किसी महिला को मर्दाना महिला कहा जाता है, तो इससे साबित होता है कि यह महिला बहुत सक्षम है, पुरुषों से कमतर नहीं बल्कि उनके समान है, और उसका करियर, प्रतिभा और यहाँ तक कि उसका सामाजिक दर्जा, उसकी बुद्धि और वह साधन जिससे वह समाज में एक मुकाम हासिल करती है, वे उसकी पुरुषों के साथ तुलना करने के लिए पर्याप्त हैं। मेरे हिसाब से, ज्यादातर महिलाओं के लिए “मर्दाना महिला” की उपाधि समाज की ओर से उनके लिए एक इनाम है, एक प्रकार के सामाजिक दर्जे की मान्यता है जो आधुनिक समाज महिलाओं को देता है। क्या कोई महिला मर्दाना महिला बनना चाहती है? परिस्थितियाँ चाहे जो भी हों और भले ही यह उपाधि अप्रिय हो, लेकिन किसी महिला को मर्दाना कहना यकीनन उसके बहुत सक्षम और काबिल होने की प्रशंसा करना, और पुरुषों की नजरों में उसे शाबाशी देना है। जहाँ तक पुरुषों की उपाधियों का सवाल है, लोग अब भी परंपरागत धारणाओं पर कायम हैं, जो कभी नहीं बदलतीं। उदाहरण के लिए, कुछ पुरुष करियर के बारे में ज्यादा नहीं सोचते और सत्ता या रुतबे के पीछे नहीं भागते हैं, बल्कि अपनी वर्तमान स्थिति को स्वीकारते हैं, और अपनी साधारण नौकरी और जीवन से संतुष्ट होते हैं, और अपने परिवार की बहुत देखभाल करते हैं। ऐसे पुरुषों को यह समाज कैसे नाम देता है? क्या ऐसे पुरुषों को निकम्मा कहा जाता है? (हाँ।) कुछ पुरुष अपने कामकाज को लेकर बहुत सावधान और काम को ध्यान से करने वाले होते हैं, चीजों को कदम-दर-कदम और बहुत सावधानी से करते हैं। कुछ लोग उन्हें क्या कहते हैं? “थोड़े महिलाओं जैसे” या “छुईमुई।” दरअसल, पुरुषों का अपमान गंदे शब्दों से नहीं, बल्कि महिलाओं से जुड़े शब्दों से किया जाता है। अगर लोग महिलाओं को ऊपर उठाना चाहते हैं, तो वे किसी महिला का दर्जा बढ़ाने और उसकी क्षमता की पुष्टि करने के लिए “मर्दाना महिला” और “शक्तिशाली महिला” जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं, जबकि “छुईमुई” जैसे शब्दों का उपयोग पुरुषों को नीचा दिखाने और उनके मर्दाना न होने पर उन्हें फटकारने के लिए किया जाता है। क्या समाज में बड़े पैमाने पर ऐसा ही नहीं होता है? (हाँ।) आधुनिक समाज में उभरी ये कहावतें इस समस्या को साबित करती हैं कि भले ही ऐसा लगे कि परंपरागत संस्कृति आधुनिक जीवन और लोगों के दिमाग से बहुत दूर जा चुकी है, और भले ही अब लोग इंटरनेट या विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के आदी हो गए हैं, या सभी प्रकार की आधुनिक जीवनशैली को अपनाने के पीछे पागल हैं, और भले ही लोग आधुनिक जीवन परिवेश में बेहद आराम से रहते हों, या उनके पास मानव अधिकार और आजादी हो, यह सब केवल एक मुखौटा भर है; सच तो यह है कि परंपरागत संस्कृति का काफी सारा जहर उनके दिमाग में अब भी घुला हुआ है। भले ही लोगों को थोड़ी भौतिक स्वतंत्रता मिली है, लोगों और चीजों के बारे में उनके कुछ प्रमुख विचार बदल गए हैं, और ऐसा लगता है कि वे कुछ हद तक खुली सोच रख सकते हैं, और संभवतः इस आधुनिक समाज में समाचारों के तेजी से प्रसार और उन्नत सूचना प्रौद्योगिकी की बदौलत उन्होंने नई अंतर्दृष्टि प्राप्त कर ली है, और भले ही वे बाहरी दुनिया को जानते हैं और उसमें बहुत-सी चीजों को देखा है, पर मनुष्य अभी भी नैतिक आचरण के असंख्य कहावतों की छाया में रहते हैं जिनका परंपरागत संस्कृति समर्थन करती है। भले ही कुछ लोग यह कहें, “मैं सबसे अपरंपरागत व्यक्ति हूँ, मैं बहुत आधुनिक हूँ, मैं आधुनिकतावादी हूँ,” और उन्होंने नाक में सोने की नथ और कान में बाली पहनी है, और उनके कपड़े ब्रांडेड और बहुत आधुनिक हैं, फिर भी लोगों और चीजों के बारे में और अपने आचरण और व्यवहार को लेकर उनके विचार परंपरागत संस्कृति से अलग नहीं हो सकते हैं। लोग परंपरागत संस्कृति के बिना क्यों नहीं चल सकते? क्योंकि उनका दिल और दिमाग परंपरागत संस्कृति में रच-बस गया है और उसमें कैद हो गया है। वह सब कुछ जो उनकी आत्मा की अंतरतम गहराइयों में उभरता है, और यहाँ तक कि वे विचार जो पल भर के लिए उनके मन में कौंधते हैं, सभी परंपरागत संस्कृति की शिक्षा और उपदेश से आते हैं और यह सब परंपरागत संस्कृति के इस विशाल ढांचे के भीतर उत्पन्न होता है, न कि उसके प्रभाव से अलग होकर। क्या ये तथ्य साबित करते हैं कि मनुष्य पहले से ही परंपरागत संस्कृति की कैद में है? (हाँ।) मनुष्य पहले से ही परंपरागत संस्कृति में कैद है। चाहे तुम पढ़े-लिखे हो या नहीं, तुमने उच्च शिक्षा प्राप्त की हो या नहीं, जब तक तुम मनुष्यों के बीच रहोगे, मानवजाति की नैतिकता की परंपरागत संस्कृति तुम्हारे दिमाग में चीजें भरती रहेगी और तुम उससे हर हाल में प्रभावित होगे, क्योंकि परंपरागत संस्कृति की चीजें एक प्रकार का अदृश्य दबाव और प्रभाव डालती हैं जो हर जगह मौजूद है, न केवल स्कूलों और लोगों की किताबों में, बल्कि खास तौर से उनके परिवारों में और बेशक समाज के हर कोने में भी। इस तरह, लोग अनजाने में ही इन चीजों से प्रेरित, प्रभावित, गुमराह और गलत रास्ते ले जाए गए होते हैं। इस तरह मनुष्य परंपरागत संस्कृति के बंधनों, बेड़ियों और नियंत्रण में रहते हैं, और चाहकर भी इससे छिप नहीं सकते या बच नहीं सकते। वे इस प्रकार के सामाजिक माहौल में जीते हैं। वर्तमान स्थिति यही है, और यही तथ्य भी हैं।

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