सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10) भाग तीन
आओ अब नैतिक आचरण के बारे में अगली कहावत पर संगति करें—मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा। यह एक शानदार कथन प्रतीत होता है, जो मानवजाति के बीच बहुत ही व्यापक रूप से फैला हुआ है। विशेष रूप से, जो लोग भावनाओं और भाईचारे को अहमियत देते हैं वे इस कहावत को बहुत सारे दोस्त बनाने के लिए अपनाते हैं। जिस किसी भी युग या जातीय समूह में इसका उपयोग किया जाता है, नैतिक आचरण की यह कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” बहुत सटीक बैठती है। कहने का तात्पर्य है कि यह मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक के साथ अपेक्षाकृत अच्छी तरह मेल खाती है। और भी सटीक होकर कहें, तो यह कहावत “भाईचारे” की अवधारणा से मेल खाती है जिसका लोग अपनी अंतरात्मा में पालन करते हैं। जो लोग भाईचारे को अहमियत देते हैं वे दोस्त के लिए गोली खाने को तैयार होंगे। चाहे उनका दोस्त कितनी भी कठिन और खतरनाक स्थिति में क्यों न हो, वे आगे बढ़कर उसके लिए गोली खा लेंगे। यह दूसरों की खातिर अपने हित त्याग करने की भावना है। नैतिक आचरण की यह कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” लोगों को भाईचारे को अहमियत देना सिखाती है। इसके अनुसार मानवता से जिस मानक को बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है वह यह है कि व्यक्ति को भाईचारे को अहमियत देनी चाहिए : यही इस कहावत का सार है। इस “भाईचारा” शब्द का क्या अर्थ है? भाईचारे का मानक क्या है? यह किसी दोस्त के लिए अपने हितों का त्याग करने और उसे संतुष्ट करने के लिए सब कुछ करने में सक्षम होना है। तुम्हारे दोस्त को जिस किसी चीज की जरूरत है, तुम उसे पूरा करने के लिए हर जरूरी मदद करने को बाध्य हो, भले ही इसके लिए अपनी जान जोखिम में क्यों न डालनी पड़े। सच्चा दोस्त बनने का यही मतलब है और केवल इसे ही सच्चा भाईचारा माना जा सकता है। भाईचारे की एक अन्य व्याख्या जीने-मरने की परवाह किए बिना दोस्त के लिए अपने जीवन को जोखिम में डालने, अपने जीवन का बलिदान देने या जीवन दांव पर लगाने में सक्षम होना है। यह ऐसी दोस्ती है जो जीवन के लिए संकट बनने वाली परीक्षाओं में भी कायम रहती है, एक जीने-मरने वाली दोस्ती, और यही सच्चा भाईचारा है। नैतिक आचरण की अपेक्षाओं में एक दोस्त की यही परिभाषा है। एक सच्चा दोस्त माने जाने के लिए तुम्हें अपने दोस्तों की खातिर उनके आरोप अपने ऊपर लेने के लिए तैयार रहना होगा; अपने दोस्तों के साथ व्यवहार में व्यक्ति को नैतिक आचरण की इस कसौटी पर खरा उतरना ही होगा, और जब दोस्त बनाने की बात आती है, तो यही लोगों के नैतिक आचरण की अपेक्षा रहती है। नैतिक आचरण के बारे में यह कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” विशेष रूप से वीरतापूर्ण और उचित लगती है; यह खास तौर पर महान और उत्कृष्ट मालूम पड़ती है, और लोगों से प्रशंसा और स्वीकृति दिलाती है, और उन्हें यह महसूस कराती है कि जो लोग ऐसा कर सकते हैं वे दूसरी दुनिया के अमर लोगों जैसे हैं जो हर मुसीबत से बचकर निकल जाते हैं, और उन्हें यह सोचने पर मजबूर कराती है कि ये लोग शूरवीरों या तलवारबाजों की तरह विशेष रूप से धर्मी हैं। इसीलिए ऐसे सरल और स्पष्ट विचारों और दृष्टिकोणों को लोग आसानी से स्वीकार लेते हैं और ये आसानी से उनके दिलों में गहराई तक उतर जाते हैं। क्या तुम लोगों के मन में भी इस कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” को लेकर ऐसी ही भावनाएँ हैं? (हाँ।) हालाँकि आज के समय और युग में ऐसे बहुत से लोग नहीं हैं जो अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेंगे, ज्यादातर लोग यही उम्मीद करते हैं कि उनके दोस्त उनके आरोप अपने ऊपर लेने को तैयार होंगे, और वे वफादार लोग हैं, अच्छे दोस्त हैं, और मुसीबत के समय में उनके दोस्त बिना सोचे-समझे और बिना कोई शर्त रखे मदद के लिए अपने हाथ बढ़ा देंगे, और यह कि उनके दोस्त सभी कठिनाइयों को चुनौती देते हुए और खतरे से निडर होकर उनके लिए कुछ भी करेंगे। यदि तुम अपने दोस्तों से यही अपेक्षाएं रखते हो, तो क्या इससे यह पता नहीं चलता है कि तुम अभी भी अपने दोस्त के लिए गोली खाने के विचार से प्रभावित और बंधे हुए हो? क्या तुम मानोगे कि तुम अभी भी इस पुरानी, पारंपरिक सोच के साथ जीते हो? (हाँ।) इन दिनों लोग अक्सर शिकायत करते हैं कि “आजकल लोगों की नैतिकता में गिरावट आ रही है, लोगों की मानसिकता अपने पुरखों जैसी नहीं रही, वक्त बदल गया है, दोस्त अब पहले जैसे नहीं रहे, लोग अब भाईचारे को अहमियत नहीं देते, लोग मानवीय स्नेह खो चुके हैं, और आपसी संबंधों में अधिक से अधिक दूरी बनती जा रही है।” हालाँकि आजकल बहुत कम लोग दोस्तों में भाईचारे को अहमियत देते हैं, फिर भी लोग दोस्त के लिए जान देने को तैयार रहने वाले पुराने जमाने के उदार और दयावान लोगों को बहुत प्यार से याद करते हैं और उनकी शैली को पूजते हैं। उदाहरण के लिए, पुराने जमाने में अपने दोस्त के लिए जान देने के बारे में इतिहास में बताई गई कुछ लोगों की कहानियों को लेते हैं, खास तौर पर मार्शल आर्ट की दुनिया में भाईचारे को कायम रखने वाले लोगों की कहानियां। आज भी लोग जब इन कहानियों को फिल्मों और टेलीविजन नाटकों में देखते हैं, तो वे अपने दिलों में भावनाओं की लहर उठती महसूस करते हैं, और मानवीय स्नेह से भरे उस युग में लौटने की आशा रखते हैं जब लोग भाईचारे को अहमियत देते थे। ये बातें क्या दर्शाती हैं? क्या वे यह दर्शाती हैं कि अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेने के इस विचार का लोग एक सकारात्मक चीज के रूप में सम्मान करते हैं, और यह उन लोगों के लिए एक उच्च नैतिक मानक बन गया है जो अच्छे इंसान बनना चाहते हैं? (हाँ।) हालाँकि आजकल लोग खुद से ऐसी किसी चीज की अपेक्षा रखने की हिम्मत नहीं करते, और खुद भी ऐसा नहीं कर सकते, फिर भी वे अपने समुदाय में ऐसे लोगों से मिलने, उनके साथ जुड़ने और उनसे दोस्ती करने की उम्मीद करते हैं, ताकि जब उन्हें खुद किसी कठिनाई का सामना करना पड़े तो उनका दोस्त उनके लिए गोली भी खा लेगा। इस नैतिक आचरण की कहावत के बारे में लोगों के रवैये और विचार देखने से यह स्पष्ट होता है कि लोग ऐसे विचारों और नजरिये से गहराई से प्रभावित हैं जो भाईचारे को अहमियत देते हैं। यह देखते हुए कि लोग ऐसे विचारों और नजरिये से प्रभावित होते हैं जो उन्हें भाईचारे की भावना की आकांक्षा रखने और उसका पालन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जाहिर है कि वे भी इन विचारों के अनुसार ही जीवन जीते होंगे। नतीजतन, लोग ऐसे विचारों और नजरिये से नियंत्रित और मजबूर हो जाते हैं, और संभावना है कि वे इन्हीं विचारों और नजरिये के अनुसार लोगों और चीजों को देखेंगे और आचरण और कार्य करेंगे, और साथ ही वे इन्हीं विचारों और नजरिये का उपयोग लोगों को आँकने के लिए करते हैं, खुद से यह पूछकर कि “क्या यह व्यक्ति भाईचारे को अहमियत देता है? यदि वह भाईचारे को अहमियत देता है तो अच्छा इंसान है; जबकि अगर वह अहमियत नहीं देता है तो वह उसके साथ जुड़ने लायक नहीं है और वह अच्छा इंसान भी नहीं है।” बेशक, तुम भी अपने व्यवहार को नियंत्रित करने, और अपने व्यवहार को संयमित करने और उसकी आलोचना करने के मामले में भाईचारे के इन विचारों से प्रभावित होते हो और दूसरों के साथ मेलजोल करते समय उन्हें कसौटी और सही दिशा के रूप में लेते हो। उदाहरण के लिए, ऐसे विचारों और नजरिये के गहरे प्रभाव में, जब तुम भाई-बहनों के साथ जुड़ते हो, तो तुम अपने हर काम को आँकने के लिए अपनी अंतरात्मा का उपयोग करते हो। इस “अंतरात्मा” शब्द का क्या अर्थ है? सच तो यह है कि लोगों के दिलों की गहराई में इसका मतलब भाईचारे के अलावा और कुछ नहीं है। कभी-कभी लोग भाईचारे के कारण अपने भाई-बहनों की मदद करते हैं, कभी-कभी वे भाईचारे के कारण ही उनसे सहानुभूति भी रखते हैं। कभी-कभी, अपना कर्तव्य निभाना और परमेश्वर के परिवार में थोड़ी मेहनत करना या खुद को खपाना या कोई क्षणिक संकल्प लेना, यह सब वास्तव में ऐसे विचारों के नियंत्रण में आता है जो भाईचारे को अहमियत देते हैं। क्या ये घटनाएँ स्पष्ट और निर्विवाद रूप से यह नहीं दिखाती हैं कि लोग ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों से गहराई से प्रभावित हैं, और पहले ही उनसे बंधे हुए हैं और उन्हें आत्मसात कर चुके हैं? यहाँ “बंधे हुए” और “आत्मसात” से मेरा क्या मतलब है? क्या यह कहा जा सकता है कि भाईचारे को अहमियत देने वाले विचार और दृष्टिकोण न केवल लोगों के व्यवहार को नियंत्रित करने में सक्षम हैं, बल्कि इसके अलावा वे पहले ही लोगों के अस्तित्व और उनके जीवन का फलसफा बन चुके हैं, और लोग उनसे बंधे रहते हैं और उन्हें सकारात्मक चीजें मानते हैं? मैं यह क्यों कहता हूँ कि वे उन्हें सकारात्मक चीजें मानते हैं? इसका मतलब यह है कि जब लोग परमेश्वर के वचन सुनते हैं, उसके वचनों को अभ्यास में लाते हैं और उसकी आज्ञा मानते हैं, लापरवाह और अनमने हुए बिना कर्तव्य निभाते हैं, अधिक कीमत चुकाते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार होते हैं, तो यह सब व्यवहार काफी हद तक भाईचारे के विचार से नियंत्रित होता है, और इसमें इस भाईचारे के तत्व की मिलावट होती है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं : “हमें अपने आचरण में कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए, हम अपने कर्तव्य में लापरवाही नहीं कर सकते हैं! परमेश्वर ने हम पर बहुत अनुग्रह किया है। बड़े लाल अजगर द्वारा इस बड़े पैमाने पर दमन और उत्पीड़न के खतरनाक माहौल में परमेश्वर हमारी रक्षा करता है और हमें शैतान के प्रभाव से बचाता है। हमें अपना विवेक नहीं खोना चाहिए, हमें परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए! हमारा जीवन परमेश्वर की देन है, इसलिए उसके प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए हमें उसके प्रति वफादार रहना चाहिए। हम एहसानफरामोश नहीं हो सकते!” ऐसे लोग भी हैं जो जोखिम उठाने और कीमत चुकाने वाला कर्तव्य सामने आने पर कहते हैं : “यदि कोई और आगे नहीं बढ़ेगा, तो मैं आगे जाऊँगा। मैं खतरे से नहीं डरता!” लोग उनसे पूछते हैं, “तुम खतरे से क्यों नहीं डरते?” तो वे जवाब देते हैं, “क्या आपके आचरण में थोड़ी-सी भी नैतिक ईमानदारी नहीं है? परमेश्वर का परिवार मेरे साथ अच्छा व्यवहार करता है, और परमेश्वर मुझसे अच्छी तरह पेश आता है। चूँकि मैंने उसका अनुसरण करने का संकल्प लिया है, तो मुझे अपना योगदान देना चाहिए और ये जोखिम उठाने चाहिए। मुझमें भाईचारे की यह भावना होनी चाहिए और मुझे इसे अहमियत देनी चाहिए।” वे ऐसी ही बहुत सी बातें करते हैं। क्या ये घटनाएँ और लोगों के ये खुलासे कुछ हद तक ऐसे विचारों और नजरिये से नियंत्रित हैं जो भाईचारे को अहमियत देते हैं? ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों के प्रभाव में लोगों के किए गए फैसलों, चुने गए विकल्पों और अधिकांश समय दिखाए गए कुछ व्यवहारों का सत्य के अभ्यास से कोई लेना-देना नहीं है। वे महज क्षणिक आवेग हैं, एक अस्थायी मनःस्थिति या क्षणिक इच्छा है। लोगों के बीच यह भाईचारा क्योंकि सत्य सिद्धांतों का पालन करना नहीं होता, यह किसी व्यक्ति की अपना कर्तव्य निभाने की व्यक्तिपरक इच्छा से उत्पन्न नहीं होता, और यह सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति प्रेम से नहीं किया जाता है, इसलिए यह भाईचारा अक्सर कायम नहीं रह सकता, यह कुछ बार से अधिक नहीं टिक सकता, न ही बहुत लंबे समय तक चल सकता है। कुछ समय के बाद लोगों का जोश इस तरह ठंडा पड़ जाता है, जैसे गेंद से सारी हवा निकल गई हो। कुछ लोग कहते हैं, “मैं पहले इतना जोशीला कैसे रहता था? परमेश्वर के घर के लिए ऐसे खतरनाक काम करने को तैयार क्यों रहता था? वह सारा जोश अब क्यों खत्म हो गया?” उस समय यह तुम्हारी ओर से केवल एक क्षणिक आवेग, इच्छा या संकल्प था, और बेशक इसमें भाईचारे के तत्व की मिलावट थी। इस बारे में बात करें, तो “भाईचारे” का वास्तव में क्या अर्थ है? सरल शब्दों में कहें, तो यह लोगों की एक अस्थायी मनोदशा या मनःस्थिति है, यानी ऐसी मनोदशा जो विशेष माहौल और स्थितियों में विकसित होती है। ऐसी मनोदशा बहुत उत्साही, बहुत जोशीली और बहुत सकारात्मक होती है, जो तुम्हें सकारात्मक निर्णय लेने और विकल्प चुनने या कोई शानदार बात कहने के लिए प्रेरित करती है, और कड़ी मेहनत करने की इच्छा पैदा करती है, लेकिन इस तरह की इच्छा सत्य से प्रेम करने, सत्य को समझने या सत्य का अभ्यास करने के लिए वास्तविक स्थिति नहीं है। यह केवल ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों के अधीन उत्पन्न एक मनोदशा है जो भाईचारे को अहमियत देती है। सरल शब्दों में इसका यही अर्थ है। गहराई में जाएँ तो मेरे दृष्टिकोण से भाईचारा वास्तव में उतावलेपन का उफान है। “उतावलेपन के उफान” से मेरा क्या तात्पर्य है? उदाहरण के लिए, जब लोग पल भर के लिए खुश होते हैं, तो वे पूरे दिन और पूरी रात बिना कुछ खाए-सोए रह सकते हैं, फिर भी उन्हें भूख या थकान नहीं लगती है। क्या यह सामान्य बात है? सामान्य परिस्थिति में अगर लोग खाना नहीं खाते हैं तो उन्हें भूख लगेगी और अगर वे पूरी रात अच्छी तरह नहीं सोएंगे तो वे सुस्त और थके-माँदे रहेंगे। लेकिन अगर अचानक उन्हें कोई क्षणिक खुशी मिल जाए और उन्हें भूख, नींद या थकान महसूस न हो, तो क्या यह असामान्य नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) क्या यह जीवन स्वभाव का स्वाभाविक प्रकाशन है? (नहीं।) यदि यह सामान्य प्रकाशन नहीं है तो फिर क्या है? यह उतावलापन है। उतावलेपन का और क्या मतलब है? इसका मतलब है कि पल भर की खुशी या क्रोध जैसी असामान्य भावनाओं के कारण लोग बेतुकी मनोदशा में कुछ चरम व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। ये चरम व्यवहार क्या हैं? कभी-कभी जब लोग खुश होते हैं तो अपने घर की सबसे कीमती चीजें दूसरों को दे देते हैं या कभी-कभी गुस्से में आकर चाकू से किसी की हत्या कर देते हैं। क्या यह उतावलापन नहीं है? ये अतिवादी व्यवहार हैं जो तब प्रदर्शित होते हैं जब लोग तर्कहीन स्थिति में होते हैं : यह उतावलापन है। कुछ लोग विशेष रूप से पहली बार अपना कर्तव्य निभाना शुरू करने पर खुश होते हैं। ऐसे में जब खाने का समय होता है तो उन्हें भूख नहीं लगती और जब आराम करने का समय होता है तो उन्हें नींद नहीं आती। इसके बजाय वे चिल्लाते हैं, “परमेश्वर के लिए खुद को खपाओ, परमेश्वर के लिए कीमत चुकाओ, और किसी भी कठिनाई को सहन करो!” लेकिन जब वे दुखी होते हैं तो कुछ भी नहीं करना चाहते हैं, वे जिसे भी देखते हैं उसे नापसंद करते हैं, और यहाँ तक कि वे किसी पर भी विश्वास न करने के बारे में भी सोचते हैं। यह सब उतावलापन है। यह उतावलापन कैसे आया? क्या यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के कारण आया? इसकी जड़ है, लोगों का सत्य को समझने और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होना। जब लोग सत्य को नहीं समझते तो वे विभिन्न विकृत विचारों से प्रभावित हो जाते हैं। विभिन्न विकृत और नकारात्मक विचारों के प्रभाव में उनमें तमाम बेतुकी और असामान्य मनोदशाएँ विकसित हो जाती हैं। इन मनोदशाओं में रहते हुए वे सभी प्रकार के उग्र निर्णय लेते हैं और ऐसा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। ऐसा ही होता है, है ना? इस वैचारिक दृष्टिकोण का सार क्या है, “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा?” (यह उतावलापन है।) सही कहा, यह उतावलापन है। तो क्या इस कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” में कोई तुक है? क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या यह कोई सकारात्मक बात है जिसका लोगों को पालन करना चाहिए? बिल्कुल भी नहीं। अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेना अतार्किक बात है, इसमें आवेग और उतावलापन है। इस बात को तर्क के साथ देखना चाहिए। अगर तुम भाईचारे को इतनी भी अहमियत नहीं देते कि अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लो, तो क्या यह बात ठीक है? क्या सिर्फ अपनी क्षमता के दायरे में रहकर अपने दोस्तों की मदद करना ठीक है? चीजों को सही तरीके से कैसे करें? मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा जैसे विचार और नजरिये जो विशेष रूप से भाईचारे को अहमियत देते हैं, गलत क्यों हैं? उनमें गलत क्या है? इस बात को स्पष्ट करना जरूरी है। एक बार यह बात स्पष्ट हो जाए तो लोग ऐसे विचारों और नजरिये को पूरी तरह से त्याग देंगे। सच तो यह है कि यह बात बहुत आसान है। क्या तुम लोग इसे स्पष्ट रूप से समझा सकते हो? तुम लोगों का इस मामले में कोई विचार नहीं है, कहने को कुछ नहीं है। इससे एक बात की पुष्टि होती है कि मेरे इस कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” का गहन-विश्लेषण करने से पहले, तुम सब इस कहावत का पालन करते थे या विशेष रूप से इसे पूजते थे, साथ ही, तुम सब ऐसे लोगों से ईर्ष्या करते थे जो अपने दोस्त के लिए गोली भी खा सकते हैं, और तुम ऐसे लोगों से भी ईर्ष्या करते थे जो उनके जैसे लोगों के साथ दोस्ती कर सकते हैं, और तुम्हें यह भी लगता था कि ऐसे दोस्त होना खुशी और सम्मान की बात है। यही बात है ना? तुम लोग इसे किस नजरिये से देखते हो? (मुझे लगता है कि “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” वाली कहावत के अनुसार लोगों के साथ व्यवहार करना सिद्धांतों के बिना व्यवहार करना है और यह सत्य के अनुरूप नहीं है।) इस जवाब के बारे में तुम्हारा क्या कहना है? क्या यह उन बंधनों और बेड़ियों को तोड़ सकता है जो ऐसे विचार और नजरिये तुम पर थोपते हैं? क्या यह उन तरीकों और सिद्धांतों को बदल सकता है जिनका उपयोग करके तुम ऐसे मामलों से निपटते हो? क्या यह ऐसे मामलों के बारे में तुम्हारे भ्रामक विचारों को सुधार सकता है? यदि नहीं सुधार सकता तो यह जवाब क्या है? (धर्म-सिद्धांत।) धर्म-सिद्धांत की बातें बोलने का क्या मतलब है? धर्म-सिद्धांत के बारे में मत बोलो। धर्म-सिद्धांत कहाँ से आता है? इसका मतलब यह है कि तुम ऐसे विचारों और नजरिये के सार को स्पष्ट रूप से नहीं देखते, लोगों और चीजों को देखने के संबंध में और अपने आचरण और कार्य के मामले में तुम ऐसे विचारों और नजरिये के नकारात्मक प्रभाव और नुकसान को पूरी तरह से नहीं समझते हो। तुम नहीं जानते कि उनमें क्या गलत है, इसलिए तुम बस उथले धर्म-सिद्धांतों का उपयोग करके इस समस्या का उत्तर और हल निकालने की कोशिश करते हो। अंतिम परिणाम यही निकलता है कि धर्म-सिद्धांत तुम्हारी समस्या हल नहीं कर सकते, और तुम अभी भी ऐसे विचारों और नजरिये के नियंत्रण और प्रभाव में जीते हो।
“अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेना” जैसे विचारों और नजरिये में क्या गलत है? यह सवाल वास्तव में मुश्किल नहीं है, बल्कि बहुत आसान है। संसार में रहने वाला कोई भी व्यक्ति परेशानियों से बचकर नहीं निकल सकता। सभी के अपने माता-पिता और बच्चे हैं, सभी के रिश्तेदार हैं, इस मानव संसार में कोई भी अकेला नहीं रहता है। इससे मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि तुम इस मानव संसार में रहते हो और तुम्हारे पास अपने उत्तरदायित्व हैं जो तुम्हें पूरे करने हैं। सबसे पहले तुम्हें अपने माता-पिता का सहारा बनना होगा, और दूसरा, तुम्हें अपने बच्चों का पालन-पोषण करना होगा। परिवार में ये तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं। समाज में भी तुम्हें सामाजिक जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने होते हैं। समाज में तुम्हें श्रमिक, किसान, व्यवसायी, छात्र या बुद्धिजीवी जैसी भूमिका निभानी होती है। परिवार से लेकर समाज तक कई जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं जो तुम्हें पूरे करने चाहिए। यानी, अपने खाने, कपड़े, घर और गाड़ी का इंतजाम करने के अलावा तुम्हें कई और चीजें करनी होंगी; साथ ही तुम्हें और भी कई चीजें करनी चाहिए और कई दायित्व भी पूरे करने चाहिए। परमेश्वर में विश्वास के इस सही मार्ग को छोड़कर, जिस मार्ग पर लोग चलते हैं, एक व्यक्ति के रूप में तुम्हें कई पारिवारिक जिम्मेदारियाँ और सामाजिक दायित्व पूरे करने होते हैं। तुम स्वतंत्र रूप से नहीं जी सकते। तुम्हारे कंधों पर जिम्मेदारी सिर्फ दोस्त बनाने और अच्छा समय बिताने या किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ने की नहीं है जिससे तुम बात कर सको या जो तुम्हारी मदद कर सके। तुम्हारी ज्यादातर जिम्मेदारियाँ—और सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ—तुम्हारे परिवार और समाज से जुड़ी हैं। यदि तुम अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों और सामाजिक दायित्वों को अच्छी तरह से पूरा करते हो, तभी एक व्यक्ति के रूप में तुम्हारा जीवन पूर्ण और सही माना जाएगा। तो, परिवार में तुम्हें कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए? एक बच्चे के रूप में तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार कर उनकी मदद करनी चाहिए। जब भी तुम्हारे माता-पिता बीमार हों या कठिनाई में हों, तो तुमसे जो बन पड़े वह करना चाहिए। माता-पिता होने के नाते तुम्हें पूरे परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पसीना बहाना और परिश्रम करना होगा, कड़ी मेहनत करनी होगी और कठिनाइयाँ सहनी होंगी ताकि पूरे परिवार के लिए सारी व्यवस्था की जा सके; साथ ही, तुम्हें माता-पिता होने की भारी जिम्मेदारी उठानी होगी, अपने बच्चों का पालन-पोषण करना होगा, उन्हें सही मार्ग पर चलने के लिए शिक्षित करना होगा और उन्हें आचरण के सिद्धांत समझाने होंगे। इस प्रकार परिवार में तुम्हारी बहुत-सी जिम्मेदारियाँ हैं। तुम्हें अपने माता-पिता का सहयोग करना चाहिए और अपने बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। ऐसे बहुत से काम हैं जो करने चाहिए। और समाज में तुम्हारी क्या जिम्मेदारियाँ हैं? तुम्हें नियम-कानूनों का पालन करना चाहिए, सिद्धांतों के अनुसार दूसरों के साथ व्यवहार करना चाहिए, काम में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाहिए और अपना करियर अच्छी तरह सँभालना चाहिए। तुम्हारा अस्सी-नब्बे प्रतिशत समय और ऊर्जा इन्हीं चीजों पर खर्च होनी चाहिए। कहने का मतलब है कि परिवार या समाज में चाहे तुम्हारी जो कोई भी भूमिका हो, तुम जिस किसी मार्ग पर चलो, तुम्हारी कोई भी आकांक्षा-महत्वाकांक्षा हो, हरेक व्यक्ति को जिम्मेदारियाँ उठानी होती हैं जो व्यक्तिगत रूप से उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, और जिसमें उसका लगभग सारा समय और ऊर्जा लग जाती है। पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों के नजरिये से एक व्यक्ति के नाते इस मानव संसार में आने की तुम्हारी और तुम्हारे जीवन की क्या अहमियत है? यह स्वर्ग से तुम्हें दी गई जिम्मेदारियों और लक्ष्यों को पूरा करना है। तुम्हारा जीवन केवल तुम्हारा नहीं है, और यह दूसरों का तो बिल्कुल भी नहीं है। तुम्हारा जीवन तुम्हारे लक्ष्यों और जिम्मेदारियों के लिए, और उन जिम्मेदारियों, दायित्वों और उद्देश्यों के लिए है जो तुम्हें इस मानव संसार में पूरे करने चाहिए। तुम्हारा जीवन न तो तुम्हारे माता-पिता का है, न ही तुम्हारी पत्नी (पति) का है, और हाँ यह तुम्हारे बच्चों का भी नहीं है। यह तुम्हारे वंशजों का तो कतई नहीं है। तो तुम्हारा जीवन किसका है? संसार के एक व्यक्ति के दृष्टिकोण से कहें तो तुम्हारा जीवन तुम्हें परमेश्वर से प्राप्त जिम्मेदारियों और लक्ष्यों को पूरा करने के लिए है। लेकिन एक विश्वासी के दृष्टिकोण से, तुम्हारा जीवन परमेश्वर का होना चाहिए, क्योंकि एक वही है जो तुम्हारे लिए हर चीज की व्यवस्था करता है और तुम्हारी हर चीज पर उसकी संप्रभुता है। इसलिए एक व्यक्ति के नाते दुनिया में रहते हुए तुम्हें मनमाने ढंग से दूसरों को अपना जीवन सौंप देने का वादा नहीं करना चाहिए, और तुम्हें भाईचारे की खातिर मनमाने ढंग से किसी के लिए भी अपना जीवन नहीं त्यागना चाहिए। कहने का मतलब है कि तुम्हें अपने जीवन को छोटा नहीं समझना चाहिए। तुम्हारा जीवन किसी और के लिए, विशेष रूप से शैतान के लिए, इस समाज के लिए और इस भ्रष्ट मानवजाति के लिए निरर्थक है, लेकिन तुम्हारे माता-पिता और रिश्तेदारों के लिए तुम्हारा जीवन बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि तुम्हारी जिम्मेदारियों और उनके अस्तित्व के बीच एक अटूट संबंध है। बेशक, इससे भी जरूरी बात यह है कि तुम्हारे जीवन और इस तथ्य के बीच एक अटूट संबंध है कि परमेश्वर सभी चीजों और संपूर्ण मानवजाति का संप्रभु है। तुम्हारा जीवन उन अनेक जिंदगियों में अत्यावश्यक है जिन पर परमेश्वर की संप्रभुता है। शायद तुम अपने जीवन को इतना अधिक महत्व नहीं देते हो, और शायद तुम्हें अपने जीवन को इतना अधिक महत्व देना भी नहीं चाहिए, लेकिन सच तो यह है कि तुम्हारा जीवन तुम्हारे माता-पिता और रिश्तेदारों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, जिनके साथ तुम्हारे गहरे और अटूट संबंध हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं, उनकी भी तुम्हारे प्रति जिम्मेदारियाँ हैं, इस समाज के प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं, और समाज के प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ इस समाज में तुम्हारी भूमिका से संबंधित हैं। हरेक व्यक्ति की भूमिका और हरेक जीवित प्राणी परमेश्वर के लिए अत्यावश्यक है, और ये सभी मानवजाति पर, इस संसार पर, इस पृथ्वी और इस ब्रह्मांड पर परमेश्वर की संप्रभुता के अत्यावश्यक तत्व हैं। परमेश्वर की नजरों में हरेक जीवन रेत के एक कण से भी अधिक महत्वहीन है, एक चींटी से भी अधिक तुच्छ है; फिर भी चूँकि हरेक व्यक्ति एक जीवन है, एक सजीव और सांस लेने वाला जीवन है, इसलिए परमेश्वर की संप्रभुता में भले ही उस व्यक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण न हो, पर वह भी अत्यावश्यक है। तो इन पहलुओं से देखने पर यदि कोई व्यक्ति अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेने को तैयार है और ऐसा करने के बारे में सिर्फ सोचता ही नहीं है, बल्कि किसी भी पल ऐसा करने को तैयार रहता है, अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों, सामाजिक जिम्मेदारियों और यहाँ तक कि परमेश्वर से मिले लक्ष्यों और कर्तव्यों की परवाह किए बिना अपनी जान दे देता है, तो क्या यह गलत नहीं है! (बिल्कुल है।) यह विश्वासघात है! परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी गई सबसे कीमती चीज यह सांस है जिसे जीवन कहते हैं। यदि तुम लापरवाही से किसी ऐसे दोस्त के लिए अपना जीवन दाँव पर लगाने का वादा करते हो, जिसके बारे में तुम्हें लगता है कि तुम भरोसा कर सकते हो, तो क्या यह परमेश्वर से विश्वासघात नहीं है? क्या यह जीवन का अपमान नहीं है? क्या यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह वाला व्यवहार नहीं है? क्या यह परमेश्वर के प्रति विश्वासघात वाला कृत्य नहीं है? (बिल्कुल है।) यह साफ तौर पर उन जिम्मेदारियों से भागना है जो तुम्हें अपने परिवार और समाज में पूरी करनी चाहिए, और यह उन लक्ष्यों से दूर भागना है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं। यह विश्वासघात है। किसी व्यक्ति के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीजें उन जिम्मेदारियों से ज्यादा कुछ नहीं हैं जो उसे इस जीवन में पूरी करनी चाहिए—पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, सामाजिक जिम्मेदारियाँ और वे लक्ष्य जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं। सबसे महत्वपूर्ण चीजें ये जिम्मेदारियाँ और लक्ष्य हैं। यदि तुम पल भर के भाईचारे की भावना और क्षणिक उतावलेपन के कारण लापरवाही से किसी दूसरे व्यक्ति के लिए अपना जीवन गँवा देते हो, तो क्या तुम्हारी जिम्मेदारियाँ अभी भी मौजूद रहेंगी? फिर तुम लक्ष्य की बात कैसे कर सकते हो? जाहिर है कि तुम परमेश्वर के दिए जीवन को सबसे कीमती चीज मानकर नहीं संजोते, बल्कि लापरवाही से दूसरों की खातिर इसे दांव पर लगाने का वादा करते हो, दूसरों के लिए अपना जीवन त्याग देते हो, अपनी जिम्मेदारियों की पूरी तरह से उपेक्षा करते हो या उन्हें अपने परिवार और समाज पर छोड़ देते हो, जो अनैतिक और अनुचित है। तो, मैं तुम सबको क्या बताना चाह रहा हूँ? लापरवाही से अपना जीवन मत त्यागो और दूसरों के लिए इसे दांव पर लगाने का वादा मत करो। कुछ लोग कहते हैं, “क्या मैं अपने माता-पिता को अपना जीवन देने का वादा कर सकता हूँ? अपने प्रेमी से इसका वादा करने के बारे में क्या खयाल है, क्या यह ठीक है?” यह ठीक नहीं है। यह ठीक क्यों नहीं है? परमेश्वर तुम्हें जीवन देता है और उसे आगे बढ़ने देता है ताकि तुम अपने परिवार और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभा सको और परमेश्वर के सौंपे हुए लक्ष्य पूरे करो। तुम अपने जीवन को मजाक समझकर इसे दूसरों को देने का वादा नहीं कर सकते, इसे दूसरों को नहीं सौंप सकते, इसे उनके लिए नहीं खपा सकते और इसे उन्हें भी समर्पित नहीं कर सकते। यदि कोई व्यक्ति अपना जीवन खो दे तो क्या वह फिर भी अपनी पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियाँ और अपने लक्ष्य पूरे कर सकता है? क्या यह तब भी मुमकिन है? (नहीं।) और जब किसी व्यक्ति की पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियाँ खत्म हो जाती हैं, तो क्या उसके द्वारा निभाई गई सामाजिक भूमिकाएँ अभी भी मौजूद रहती हैं? (नहीं।) जब किसी व्यक्ति द्वारा निभाई गई सामाजिक भूमिकाएँ समाप्त हो जाती हैं, तो क्या उस व्यक्ति के लक्ष्य अभी भी मौजूद होते हैं? नहीं, वे मौजूद नहीं होते। जब किसी व्यक्ति के लक्ष्य और सामाजिक भूमिकाएँ नहीं रह जाती हैं, तो जिस चीज पर परमेश्वर का प्रभुत्व था क्या वह अभी भी अस्तित्व में रहता है? परमेश्वर जीवित चीजों और जीवित मनुष्यों पर प्रभुत्व रखता है, और जब उनकी सामाजिक जिम्मेदारियाँ और जीवन समाप्त हो जाता है और उनकी सामाजिक भूमिकाएँ शून्य हो जाती हैं, तो क्या यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना और उस मानवजाति को निरर्थक बनाने का प्रयास है जिस पर परमेश्वर का प्रभुत्व है? क्या तुम्हारा ऐसा करना विश्वासघात नहीं है? (हाँ।) यह वास्तव में विश्वासघात है। तुम्हारा जीवन केवल तुम्हारी जिम्मेदारियों और लक्ष्यों के लिए मौजूद है, और तुम्हारे जीवन का मूल्य केवल तुम्हारी जिम्मेदारियों और लक्ष्यों में दिख सकता है। यही नहीं, अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेना तुम्हारी जिम्मेदारी और लक्ष्य नहीं है। परमेश्वर से मिले जीवन से संपन्न व्यक्ति के नाते तुम्हें उससे प्राप्त जिम्मेदारियों और लक्ष्यों को पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए। वहीं, अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेना कोई ऐसी जिम्मेदारी या लक्ष्य नहीं है जो तुम्हें परमेश्वर ने दिया हो। बल्कि, यह भाईचारे की भावना, अपनी मनमानी सोच, जीवन के बारे में गैर-जिम्मेदार सोच के अनुसार कार्य करना है, और यह बेशक एक ऐसी सोच भी है जिसे शैतान लोगों को तिरस्कृत करने और उनके जीवन को रौंदने के लिए उनके अंदर बैठाता है। इसलिए समय जब भी आए, चाहे तुम्हारा कितना ही जिगरी दोस्त हो, भले ही उसके साथ तुम्हारी दोस्ती जीवन को खतरे में डालने वाली परिस्थितियों से गुजरी हो, उसके आरोप अपने ऊपर लेने का वादा मनमाने ढंग से मत करो और ऐसे विचारों को हल्के में भी मत लो; अपना पूरा जीवन, अपनी जान उसके लिए समर्पित करने के बारे में मत सोचो। उसके प्रति तुम्हारी कोई जिम्मेदारी या दायित्व नहीं है। यदि तुम्हारी समान रुचियाँ हैं, समान व्यक्तित्व हैं और तुम दोनों एक ही मार्ग पर चलते हो, तो तुम एक-दूसरे की मदद कर सकते हो, एक-दूसरे से मनचाहे विषय पर बात कर सकते हो और तुम करीबी दोस्त बन सकते हो, लेकिन इस करीबी दोस्ती की बुनियाद एक-दूसरे के आरोप अपने ऊपर लेने पर आधारित नहीं है, और न ही भाईचारे को महत्व देने पर आधारित है। तुम्हें उसके आरोप अपने ऊपर लेने, उसके लिए अपनी जान देने या खून की एक बूँद भी बहाने की जरूरत नहीं है। कुछ लोग कहते हैं : “तो मेरी भाईचारे की भावना किस काम की? अपनी मानवता में और अपने दिल से मैं हमेशा भाईचारा दिखाना चाहता हूँ, तो मुझे क्या करना चाहिए?” यदि तुम वास्तव में भाईचारा दिखाना चाहते हो तो तुम्हें दूसरे व्यक्ति को वे सत्य बताने चाहिए जो तुम समझ चुके हो। जब तुम्हें दूसरा व्यक्ति कमजोर दिखे तो उसकी मदद करो। कोने में खड़े होकर देखते मत रहो; जब वह गलत मार्ग पर जाए तो उसे चेताओ और सलाह देकर उसकी मदद करो। जब तुम्हें दूसरे व्यक्ति की समस्याएँ दिखें, तो उसकी मदद करना तुम्हारा दायित्व है, लेकिन तुम्हें उसके आरोप अपने ऊपर लेने और उसे अपना जीवन देने का वादा करने की कोई जरूरत नहीं है। उसके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ केवल मदद करना, उसका समर्थन करना, उसे चेताना, सलाह देना या कभी-कभी थोड़ी माफी और सहनशीलता दिखाना है, लेकिन उसके लिए अपना जीवन देना बिल्कुल नहीं है, उसके प्रति तथाकथित भाईचारे की भावना दिखाना तो दूर की बात है। मेरे लिए तो भाईचारा सिर्फ उतावलापन है और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं। परमेश्वर जो जीवन लोगों को देता है उसकी तुलना में लोगों के बीच भाईचारा बस कचरा भर है। यह लोगों में शैतान का पैदा किया गया एक प्रकार का उतावलापन है, एक कपटी साजिश है जो लोगों को भाईचारे की खातिर आवेग में कई चीजें करने के लिए मजबूर करती है, ऐसी चीजें जिन्हें भुला पाना मुश्किल होगा और उन्हें अपने जीवन के बाकी दिनों के लिए पछताना पड़ेगा। यह अनुचित है। इसलिए बेहतर होगा कि तुम भाईचारे के इस विचार को त्याग दो। भाईचारे के अनुसार मत जियो, बल्कि सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जियो। कम से कम तुम्हें अपनी मानवता, अंतरात्मा और विवेक के अनुसार जीना चाहिए, हर व्यक्ति और हर चीज के साथ तर्कपूर्ण व्यवहार करना चाहिए, और हर काम अपनी अंतरात्मा और विवेक के अनुसार ठीक से करना चाहिए।
जिम्मेदारी और जीवन के बारे में इतनी सारी कहावतों और विचारों पर संगति करने के बाद क्या अब तुम लोग अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेने की इस नैतिक अपेक्षा को पहचान पाए हो? अब जब तुमने पहचान लिया है तो क्या तुम्हारे पास ऐसी चीज से निपटने के लिए सही सिद्धांत हैं? (हाँ।) यदि कोई वाकई अपने आरोप तुम्हें अपने ऊपर लेने को कहे तो तुम क्या करोगे? तुम क्या जवाब दोगे? तुम कहोगे, “यदि तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे आरोप अपने ऊपर ले लूँ तो तुम ही मेरी जान लेना चाहते हो। यदि तुम मेरी जान लेना चाहते हो, यदि मुझसे ऐसी चीज की मांग करते हो, तो तुम मुझे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के अधिकार से वंचित कर रहे हो। यह मुझे मेरे मानवाधिकारों से वंचित करना, और इससे भी बढ़कर यह मुझे परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पित होने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के अवसर से भी वंचित करना हुआ। तुम्हारा इस तरह मुझे मेरे मानवाधिकारों से वंचित करना मेरा अंत होगा! तुम मुझे बहुत सारे अधिकारों से वंचित कर तुम्हारे लिए अपना जीवन त्यागने पर मजबूर कर रहे हो। तुम और कितने स्वार्थी और नीच बनोगे? और तुम अब भी मेरे दोस्त हो? जाहिर है कि तुम मेरे दोस्त नहीं, दुश्मन हो।” क्या ऐसा कहना सही है? (हाँ।) वास्तव में यही कहना सही है। क्या तुममें यह कहने का साहस है? क्या तुम सचमुच इसे समझते हो? यदि तुम्हारा कोई दोस्त तुम्हें उसके आरोप अपने ऊपर लेने को कहता रहता है और तुम्हारी जान मांगता है, तो तुम्हें पहले मौके पर ही उससे दूर हो जाना चाहिए क्योंकि वह एक अच्छा इंसान नहीं है। यह मत सोचो कि वे तुम्हारे आरोप अपने ऊपर ले सकते हैं तो सिर्फ इस वजह से उन्हें तुम्हारा दोस्त होना चाहिए। तुम कहते हो : “मैंने तुम्हें मेरे आरोप अपने ऊपर लेने को नहीं कहा, तुम खुद ही ऐसा करना चाहते हो। चाहे तुम मेरे आरोप अपने ऊपर ले लो, पर मुझे तुम्हारे आरोप अपने ऊपर लेने के लिए कहने के बारे में सोचना भी मत। तुममें तर्क-शक्ति नहीं है, पर मैं सत्य समझता हूँ, मुझमें तर्क-शक्ति है, और मैं इस मामले को अपनी तर्क-शक्ति से देखूंगा। चाहे तुमने कितनी ही बार मेरे आरोप अपने ऊपर लिए हों, मैं आवेग में आकर तुम्हारे आरोप अपने ऊपर नहीं लूँगा। यदि तुम कठिनाई में हो तो मैं तुम्हारी मदद करने की पूरी कोशिश करूँगा, लेकिन सिर्फ तुम्हारी खातिर जीने के लिए मैं परमेश्वर से मिलीं जिम्मेदारियों और लक्ष्यों को नहीं त्यागूँगा। मेरी दुनिया में जिम्मेदारियों, दायित्वों और लक्ष्यों के अलावा कुछ भी नहीं है। यदि तुम मुझसे दोस्ती करना चाहते हो, तो मेरी मदद करो, मेरी जिम्मेदारियों और अपने लक्ष्यों को साथ-साथ पूरा करने में मेरी सहायता करो। तभी तुम मेरे सच्चे दोस्त होगे। यदि तुम मुझे तुम्हारे आरोप अपने ऊपर लेने के लिए कहते रहे, और मुझसे इस तरह का वादा करवाते रहे कि मैं तुम्हारे लिए अपना जीवन त्याग दूँ, तुम्हें अपना जीवन देने का वादा करूँ, तो तुम्हें तुरंत मुझसे दूर हो जाना चाहिए, तुम मेरे दोस्त नहीं हो, मैं तुम्हारे जैसे किसी व्यक्ति से दोस्ती नहीं करना चाहता और तुम्हारे जैसे किसी इंसान का दोस्त नहीं बनना चाहता।” कुछ ऐसा कहने के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? (यह अच्छा है।) यह अच्छा कैसे है? ऐसा दोस्त न होने से तुम दबाव, चिंता और विचारों के किसी भी बोझ से मुक्त हो जाते हो, और भाईचारे को महत्व देने जैसे विचारों से बंधे नहीं रहते। यदि कोई वास्तव में यह कहता है, “तुम्हारे जैसे लोग जो अपने दोस्त के लिए गोली नहीं खाते, संबंध जोड़ने के लायक नहीं हैं, और किसी के दोस्त नहीं बन सकते हैं,” क्या यह सुनकर तुम्हें दुख होगा? क्या तुम इन शब्दों से प्रभावित होगे? क्या तुम लोगों द्वारा त्यागे जाने से उदास और नकारात्मक महसूस करोगे, तुम्हें अपने अस्तित्व का एहसास और जीवन की कोई उम्मीद नहीं होगी? यह संभव है, लेकिन जब तुम सत्य समझोगे, तो तुम इस बात को अच्छी तरह से समझ पाओगे, और इन शब्दों से बेबस नहीं होगे। आज से ही, तुम्हें ऐसे बोझ को उठाए बिना, परंपरागत संस्कृति की इन चीजों को छोड़ना सीखना होगा। केवल इसी तरह से तुम जीवन में सही मार्ग पर चल सकते हो। क्या तुम इसे अभ्यास में लाओगे? (हाँ।) बेशक, इसे इतनी जल्दी नहीं छोड़ा जा सकता है। लोगों को पहले अपना मन बनाना चाहिए, थोड़ा-थोड़ा करके चिंतन करना चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, सत्य को समझना चाहिए और फिर सत्य सिद्धांतों के अनुसार इसे थोड़ा-थोड़ा करके अभ्यास में लाना चाहिए। यह लोगों के साथ संबंधों और उनके साथ जुड़ाव से निपटने और उन्हें संभालने के लिए सत्य सिद्धांतों का उपयोग करना है। सारांश के तौर पर, मैं तुम लोगों से कुछ अंतिम शब्द कहना चाहूंगा : अपने जीवन और अपनी जिम्मेदारियों को संजोओ; उस अवसर को संजोओ जो परमेश्वर ने अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें दिया है, और उन लक्ष्यों को संजोओ जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं। तुम समझ रहे हो, है ना? (हाँ।) क्या यह खुशी की बात नहीं है कि तुमने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया है? (हाँ।) यदि तुम इन भ्रामक विचारों और नजरिये से बाधित और बंधे नहीं हुए, तो तुम सहज महसूस करोगे। लेकिन अभी तुम वास्तव में सहज नहीं हो। केवल जब भविष्य में तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलोगे, और इन चीजों को अपनी रुकावट नहीं बनने दोगे, तभी तुम वास्तव में सहज होगे। जो लोग पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखते हैं, आचरण और कार्य करते हैं, केवल वे ही वास्तव में निश्चिंत और सहज रहते हैं, उनके पास सुख-शांति होती है, वे सत्य के अनुसार जीते हैं और आचरण करते हैं और वे कभी नहीं पछताएँगे। आज की संगति को यहीं विराम देते हैं।
7 मई 2022
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