सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10) भाग दो

आगे हम नैतिक आचरण की इस कहावत “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए” पर संगति करेंगे। जैसा कि तुम सब बता सकते हो, नैतिक आचरण के बारे में इनमें से हरेक कहावत इतनी अतिशयोक्तिपूर्ण और जबरदस्त है, मानो ये सभी एक प्रकार से नायक की भावना और महान लोगों के गुणों से ओत-प्रोत हों और किसी साधारण या सामान्य व्यक्ति के लिए इन्हें हासिल करना नामुमकिन हो। “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए”—इसके लिए कितनी ज्यादा खुली मानसिकता की आवश्यकता होगी! ऐसा करने के लिए तुम्हारे पास कितना दयालु, परोपकारी और महान व्यक्तित्व होना चाहिए! “एक बूँद पानी” का संबंध “झरने” से है लेकिन वहीं, यह संबंध यह आभास भी देता है कि दोनों के बीच एक गहरी खाई और बहुत बड़ा अंतर है। इसका मतलब है कि तुम्हें पानी की एक बूँद की दयालुता का भी बदला चुकाना होगा, लेकिन किस चीज से? इसे भुला देने के बजाय इसका बदला इतनी बड़ी संख्या में कार्यों या व्यवहारों के साथ या इतनी ईमानदारी और इतनी बड़ी इच्छा के साथ, झरने से चुकाया जाना चाहिए। पानी की एक बूँद की दयालुता की कीमत चुकाने में इतना सब कुछ लगता है, और यदि तुम इसकी कीमत इससे कुछ कम देकर चुकाते हो, तो इसका मतलब तुम्हारे पास अंतरात्मा नहीं है। इस तर्क के अनुसार, क्या दयालुता दिखाने वाला व्यक्ति ही अंत में गलत फायदा उठाने वाला व्यक्ति भी नहीं है? यह परोपकारी व्यक्ति यकीनन अपनी दयालुता का बखूबी फायदा उठाता है! वह पानी की एक बूँद देकर दया दिखाता है और बदले में उसे एक झरना मिलता है। यह एक बहुत ही लुभावना सौदा है और दूसरों की कीमत पर अच्छा लाभ उठाने का तरीका है। यही बात है न? इस जीवन में हर व्यक्ति पानी की एक बूँद की दयालुता को स्वीकारेगा। यदि उन सभी को इसका बदला बहुत बड़ी कीमत यानी झरना देकर चुकाना होगा, तो इसका बदला चुकाने में उनका पूरा जीवन ही खप जाएगा, जिससे वे अपने किसी भी पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करने में असमर्थ रहेंगे, और जीवन में अपने मार्ग पर विचार करना तो दूर की बात है। यदि तुम पानी की एक बूँद की दयालुता का आनंद लेते हो, पर झरना देकर इसका बदला चुकाने में असफल रहते हो, तो तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें धिक्कारेगी और समाज तुम्हारी निंदा करेगा, और तुम्हें विद्रोही, खलनायक और एहसानफरामोश मानेगा, और मनुष्य नहीं मानेगा। लेकिन अगर किसी ने बड़ी कीमत यानी झरना देकर इसका बदला चुका दिया, तो क्या होगा? तो वह कहेगा, “मुझसे अधिक कर्तव्यनिष्ठ कोई नहीं है, क्योंकि मैं ‘एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुका सकता हूँ’। इस तरह जिस व्यक्ति ने कभी मेरी मदद की थी और मुझ पर दया दिखाई थी, देख सकेगा कि मैं कैसा इंसान हूँ और मेरी मदद करके उसने कुछ गलत किया या नहीं, और क्या मेरी मदद करना उसके समय का सही उपयोग था। इस तरह वह इसे कभी नहीं भूलेगा और शर्मिंदा भी महसूस करेगा। इतना ही नहीं, मैं उसकी दयालुता का बदला चुकाता रहूँगा। चूँकि मैं ‘एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुका सकता हूँ’, तो क्या मैं उत्तम नैतिक आचरण और चरित्र वाला व्यक्ति नहीं हूँ? क्या मैं सज्जन नहीं हूँ? क्या मैं एक महान व्यक्ति नहीं हूँ? क्या मैं प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ?” हर कोई उसकी प्रशंसा करता है और उसकी सराहना करता है, और यह उसकी भावनाओं में हलचल मचा देता है, इसलिए वह कहता है, “चूँकि तुम लोग एक दयालु व्यक्ति, एक महान चरित्र वाले व्यक्ति, लोगों के बीच एक मिसाल और मनुष्य की नैतिकता का एक प्रतिमान मानकर मेरी प्रशंसा करते हो, तो मेरी मृत्यु के बाद तुम्हें मेरे लिए एक स्मारक बनवाना चाहिए और उस पर यह स्मृति-लेख लिखना चाहिए, ‘यह व्यक्ति इस आदर्श की मिसाल था, “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए”, और इसे मनुष्य की नैतिकता की मिसाल कहा जा सकता है।’” लेकिन स्मारक स्थापित होने के बाद भी, वह सोचता है कि उन्हें उसकी मिट्टी की मूरत बनाकर उसे मंदिर में रखना चाहिए और उस पर उसका विशेष नाम लिखना चाहिए : “फलाने परमेश्वर का मंदिर,” और उसके नीचे एक धूपवेदी बनानी चाहिए, जहाँ लोग उसके लिए धूप-अगरबत्ती जलाएं ताकि इससे लगातार उसका नाम होता रहे। यही नहीं, लोगों को अपने घरों में उसकी प्रतिमा रखनी चाहिए, उसके सामने अगरबत्ती जलानी चाहिए, दिन में तीन बार उसे प्रणाम करना चाहिए, अपने बच्चों और पोते-पोतियों और युवा पीढ़ी को उसके जैसा बनने के लिए शिक्षित करना चाहिए, और अपने बेटे-बेटियों को उसके जैसे किसी ऐसे व्यक्ति से शादी करने को कहना चाहिए जो उसकी तरह “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुका सके”—जो मनुष्य की नैतिकता का आदर्श और प्रतिमान है। चीनी लोगों का अपने बच्चों को शिक्षा देने का पारंपरिक दृष्टिकोण उन्हें एक नेक इंसान बनना सिखाना है, और दया को स्वीकारने और उसका बदला चुकाने की कोशिश करने पर जोर देता है। यदि तुम पानी की एक बूँद की दयालुता प्राप्त करते हो, तो तुम्हें इसका बदला कड़ी मेहनत भरे जीवन से, यानी झरने से चुकाना होगा। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, तो वे अगली पीढ़ियों को भी उसी तरह सिखाते हैं और इसी तरह यह सिलसिला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहता है। जब ऐसा व्यक्ति “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाने” में सक्षम हो जाता है, तो उसने अपना अंतिम लक्ष्य भी प्राप्त कर लिया होता है। उसने कौन सा लक्ष्य प्राप्त किया है? सांसारिक लोगों और समाज द्वारा पहचाने और स्वीकारे जाने का लक्ष्य। बेशक, यह गौण है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग अपनी दीवारों पर उसकी तस्वीर लटकाते हैं, उसकी प्रतिमा पर प्रसाद चढ़ाते हैं, और वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस दुनिया में जलती हुई धूपबत्ती का आनंद ले सकता है, और उसकी भावना और विचारों को दुनिया में प्रसारित किया जा सकता है और आने वाली पीढ़ियों में भी लोग उसकी प्रसंशा करते रहेंगे। अंत में, इस संसार की जलती हुई धूपबत्ती में खुद को झोंकने के बाद वह क्या बन जाता है? वह एक शैतान राजा बन जाता है और आखिरकार उसका लक्ष्य पूरा हो जाता है। यह शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किए जाने का अंतिम परिणाम है। शुरुआत में लोग नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति में परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता जैसे केवल एक विचार को स्वीकारते हैं। बाद में वे इस विचार की शर्तों का पालन करते हैं, इस विचार और इस शर्त को कठोरता से व्यवहार में लाकर और उनका पालन करके दूसरों के लिए एक मिसाल कायम करते हैं, और बाकी मानवता के लिए नैतिकता का एक प्रतिमान और आदर्श बनने का लक्ष्य हासिल करते हैं। फिर मरने के बाद वे अपने पीछे अपनी शोहरत छोड़ जाते हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। आखिरकार उन्हें जो चाहिए था वह मिल जाता है, जो कि कई वर्षों तक इस दुनिया की जलती हुई धूपबत्ती में सांस लेना और राक्षसों का राजा बनना है। क्या यह अच्छी चीज है? (नहीं।) यह अच्छी चीज क्यों नहीं है? यही वह अंतिम लक्ष्य है जिसकी आकांक्षा एक अविश्वासी व्यक्ति अपने जीवन में करता है। ऐसे लोग एक खास नैतिक आचरण के विचारों को मंजूरी देते हैं, फिर मिसाल के साथ आगे बढ़ते हैं, इस नैतिक आचरण की शर्तों को लागू करने की कोशिश करते हैं, जब तक कि आखिरकार उस बिंदु तक नहीं पहुँच जाते जहाँ हर कोई एक नेक, दयालु, प्रतिष्ठित व्यक्ति और एक आदर्श चरित्र के व्यक्ति के रूप में उनकी प्रशंसा करता है। उनके व्यवहार और कर्मों की चर्चा पूरी मानवता में फैल जाती है, उनके व्यवहार और कर्मों का पीढ़ियों तक लोग अध्ययन करते हैं और उनका सम्मान करते हैं, आखिर में वह व्यक्ति पूरी पीढ़ी के लिए आदर्श और यकीनन पूरी पीढ़ी के लिए राक्षसों का राजा बन जाता है। क्या सांसारिक लोग इसी मार्ग पर नहीं चलते हैं? क्या यही वह परिणाम नहीं है जिसकी सांसारिक लोग आकांक्षा करते हैं? क्या इसका सत्य से कोई संबंध है? परमेश्वर के उद्धार से कोई संबंध है? किसी भी तरह का कोई संबंध नहीं है। नैतिक आचरण की कहावतों का लोगों के लिए यही अंतिम परिणाम होता है। यदि कोई व्यक्ति परंपरागत संस्कृति के सभी विभिन्न विचारों को पूरी तरह से स्वीकार लेता है और उनका पूरी तरह से पालन करता है, तो वह जिस मार्ग पर चलता है वह निस्संदेह राक्षसों का मार्ग है। यदि तुम हमेशा के लिए राक्षसों के मार्ग पर चल पड़े हो, तो तुम्हारा लोगों को बचाने के परमेश्वर के कार्य से कोई संबंध नहीं है और तुम्हारा उद्धार से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए सत्य को समझने की बुनियाद पर यदि तुम अभी भी परंपरागत संस्कृति के विचारों से सीमित और प्रभावित हो, और साथ ही इन विचारों के प्रभाव में हो, इन नियमों, शर्तों और कहावतों का पालन कर रहे हो, तुम उनके खिलाफ विद्रोह करने या उन्हें छोड़ पाने में असमर्थ हो, और परमेश्वर की अपेक्षाओं को स्वीकार नहीं सकते हो, तो तुम आखिर में राक्षसों के मार्ग पर चल पड़ोगे और राक्षसों के राजा बन जाओगे। तुम्हें यह बात समझ आती है? दुनिया का कोई भी सिद्धांत या कहावत परमेश्वर द्वारा मानवजाति को दिए गए उद्धार के मार्ग की जगह नहीं ले सकता, यहाँ तक कि दुनिया के उच्चतम नैतिक मानक भी नहीं। यदि लोग सही मार्ग पर चलना चाहते हैं, जो उद्धार का मार्ग है, तो केवल परमेश्वर के सामने आकर, विनम्रता और दृढ़ता से परमेश्वर के वचनों को स्वीकार कर, उसके सभी विभिन्न दावों और अपेक्षाओं को स्वीकार कर, और परमेश्वर के वचनों को मानक मानकर आचरण और कार्य करने से ही वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। वरना लोगों के पास जीवन में सही मार्ग पर चलने का कोई रास्ता नहीं है, और वे केवल विनाश के रास्ते पर शैतान के फलसफों का अनुसरण कर सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “क्या कोई बीच का मार्ग भी है?” नहीं, तुम या तो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो या शैतान के राक्षसी मार्ग का। केवल दो ही मार्ग हैं। यदि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करते, तो निस्संदेह तुम शैतान के बताए विभिन्न विचारों और ऐसे विचारों से उत्पन्न विभिन्न शैतानी तरीकों का पालन करोगे। यदि तुम बीच का मार्ग या कोई तीसरा मार्ग अपनाकर समझौता करना चाहते हो, तो यह नामुमकिन है। क्या यह बात समझ आई? (बिल्कुल।) मैं अब आगे “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए” कहावत के बारे में अधिक विस्तार से नहीं बताऊँगा क्योंकि यह कमोबेश इसी कहावत के समान है, “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” जिस पर हमने पहले संगति की थी। इन दोनों कहावतों का सार काफी हद तक एक ही है, इसलिए इस पर अधिक विस्तार से चर्चा करने की जरूरत नहीं है।

अब नैतिक आचरण पर अगली कहावत के बारे में बात करते हैं—दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। इसे पहचानना तो बहुत आसान होना चाहिए, है ना? नैतिक आचरण की जिन कहावतों के बारे में हमने पहले बात की थी, उनकी अपेक्षाओं से इसकी तुलना करने पर यह कहावत भी स्पष्ट रूप से एक कड़ा नियम है जो लोगों को बांधती है। भले ही कागज पर यह शानदार और प्रभावशाली दिखता है, इसमें कुछ गलत भी नहीं लगता और लोगों के साथ व्यवहार के लिए यह एक सरल सिद्धांत प्रतीत होता है, लेकिन जब अपने आचरण या लोगों से पेश आने की बात हो तो इस सरल सिद्धांत का कोई अर्थ नहीं निकलता और इससे किसी व्यक्ति के आचरण या जीवन की खोज में कोई मदद नहीं मिलती। यह ऐसा सिद्धांत नहीं है जिसका लोगों को अपने आचरण और व्यवहार में पालन करना चाहिए, न ही यह जीवन में सही दिशा और लक्ष्य की खोज करने का सिद्धांत है। यदि तुम इस अपेक्षा का पालन करते भी हो, तो यह बस तुम्हें लोगों के साथ व्यवहार करते समय कुछ भी अनुचित करने से रोकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास लोगों के लिए वास्तविक प्रेम है या तुम वास्तव में उनकी मदद करना चाहते हो, और इससे यह साबित तो बिल्कुल नहीं होता कि तुम जीवन में सही मार्ग पर हो। शाब्दिक अर्थ में, “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” का अर्थ है कि अगर तुम कोई चीज पसंद नहीं करते, या कोई चीज करना पसंद नहीं करते, तो तुम्हें उसे अन्य लोगों पर भी नहीं थोपना चाहिए। यह चतुराई भरा और उचित लगता है, लेकिन अगर तुम हर स्थिति सँभालने के लिए यह शैतानी फलसफा इस्तेमाल करोगे, तो तुम कई गलतियाँ करोगे। इस बात की संभावना है कि तुम लोगों को चोट पहुँचाओगे, गुमराह करोगे, यहाँ तक कि लोगों को नुकसान भी पहुँचा दोगे। वैसे ही, जैसे कुछ माता-पिताओं को पढ़ने का शौक नहीं होता लेकिन वे चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ें, और उनसे मेहनत से पढ़ने का आग्रह करते हुए हमेशा बहस करने की कोशिश करते हैं। अगर यहाँ “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” की अपेक्षा लागू की जाए, तो इन माता-पिताओं को अपने बच्चों को पढ़ने पर मजबूर नहीं करना चाहिए, क्योंकि उन्हें खुद इसमें आनंद नहीं आता। कुछ लोग हैं जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते; फिर भी वे अपने हृदय में जानते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना ही जीवन का सही मार्ग है। अगर वे देखते हैं कि उनके बच्चे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते और सही रास्ते पर नहीं हैं, तो वे उनसे परमेश्वर पर विश्वास करने का आग्रह करते हैं। भले ही वे खुद सत्य का अनुसरण नहीं करते, फिर भी वे चाहते हैं कि उनके बच्चे सत्य का अनुसरण करें और आशीष पाएँ। इस स्थिति में, अगर उन्होंने “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” की कहावत का पालन किया, तो इन माता-पिताओं को अपने बच्चों से परमेश्वर पर विश्वास करने का आग्रह नहीं करना चाहिए। यह इस शैतानी फलसफे के अनुरूप होगा, लेकिन यह उनके बच्चों का उद्धार का अवसर भी नष्ट कर देगा। इस परिणाम के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या नैतिक आचरण की परंपरागत कहावत “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” लोगों को नुकसान नहीं पहुँचाती? एक और उदाहरण लेते हैं। कुछ माता-पिता कर्तव्यनिष्ठ और नियमों का पालन करने वाला जीवन जीने से संतुष्ट नहीं होते। वे अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए खेत में मेहनत करने या काम पर जाने को तैयार नहीं होते। बल्कि वे बेईमानी से किस्मत चमकाने के लिए अधर्मी तरीकों का इस्तेमाल करके धोखा देना, ठगी करना या जुआ खेलना पसंद करते हैं ताकि वे आलीशान जीवन जी सकें, मौज-मस्ती कर सकें और दैहिक सुखों का आनंद उठा सकें। इन्हें ईमानदारी से काम करना या सही मार्ग पर चलना पसंद नहीं होता। यही तो वे नहीं चाहते, है ना? उनका दिल जानता है कि यह अच्छा नहीं है। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने बच्चों को कैसी शिक्षा देनी चाहिए? सामान्य लोग अपने बच्चों को यह सिखाएंगे कि वे कड़ी मेहनत से पढ़कर किसी कौशल में महारत हासिल करें ताकि वे भविष्य में एक अच्छी नौकरी पा सकें और सही मार्ग पर चलें। माता-पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाना यही है, है ना? (हाँ, बिल्कुल।) यह सही है। लेकिन अगर वे इस कहावत का पालन करते हैं “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,” तो वे कहेंगे, “बेटा, मुझे देखो। मैं जीवन में हर तरह की चीजें कर सकता हूँ, जैसे कि अच्छा खाना-पीना, अक्सर वेश्याओं के पास जाना और जुआ खेलना। मैं जीवन में बिना पढ़ाई किए या कोई कौशल सीखे भी काम चला लेता हूँ। तुम भविष्य में मेरे साथ सब कुछ सीख जाओगे। तुम्हें स्कूल जाकर कड़ी मेहनत से पढ़ने की जरूरत नहीं है। चोरी करना, धोखा देना और जुआ खेलना सीखो। तुम इससे भी अपने जीवन के बाकी दिनों में आरामदायक जिंदगी जी सकते हो!” क्या ऐसा करना सही है? क्या किसी ने अपने बच्चों को इस तरह सिखाया है? (नहीं।) “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” का यही अर्थ है, है ना? क्या इन उदाहरणों ने इस कहावत का पूरी तरह से खंडन नहीं कर दिया? इसमें कुछ भी सही नहीं है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग सत्य से प्रेम नहीं करते; वे दैहिक सुखों के लिए लालायित रहते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय ढीले पड़ने के तरीके ढूँढ़ते हैं। वे कष्ट उठाने या कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं हैं। वे सोचते हैं कि “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” कहावत अच्छी तरह से बात को कहती है, और वे लोगों को बताते हैं, “तुम लोगों को सीखना चाहिए कि आनंद कैसे लिया जाए। तुम्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने या कठिनाई झेलने या कोई कीमत चुकाने की आवश्यकता नहीं है। अगर तुम ढीले पड़ सकते हो, तो ढीले पड़ जाओ; अगर तुम कोई चीज जैसे-तैसे निपटा सकते हो, तो निपटा दो। अपने लिए चीजें इतनी कठिन मत बनाओ। देखो, मैं इसी तरह जीता हूँ—क्या यह बहुत अच्छा नहीं है? मेरा जीवन एकदम उत्तम है! तुम लोग उस तरह जीकर खुद को थका रहे हो! तुम लोगों को मुझसे सीखना चाहिए।” क्या यह “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” की अपेक्षा पूरी नहीं करता? अगर तुम इस तरह से कार्य करते हो, तो क्या तुम जमीर और विवेक वाले व्यक्ति हो? (नहीं।) अगर व्यक्ति अपना जमीर और विवेक खो देता है, तो क्या उसमें सद्गुण की कमी नहीं है? इसे ही सद्गुण की कमी कहा जाता है। हम इसे ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि वह आराम की लालसा रखता है, अपना कर्तव्य जैसे-तैसे निपटाता है, और दूसरों को अनमना होने और आराम की लालसा रखने में अपने साथ शामिल होने के लिए उकसाता और प्रभावित करता है। इसमें क्या समस्या है? अपने कर्तव्य में अनमना और गैर-जिम्मेदार होना चालाकी बरतने और परमेश्वर का विरोध करने का कार्य है। अगर तुम अनमने बने रहते हो और पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम उजागर कर बाहर निकाल दिए जाओगे। कलीसिया में कई लोगों को इसी तरह से हटा दिया जाता है। क्या यह सच नहीं है? (हाँ, सच है।) तो इस कहावत का पालन करना और हर किसी को उनके जैसा बनने के लिए उकसाना, ताकि लोग निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों को न निभाएं, बल्कि परमेश्वर को ठगें और धोखा दें, तो क्या यह लोगों को नुकसान पहुँचाना और उन्हें बर्बादी की ओर धकेलना नहीं हुआ? वे खुद तो आलसी और कामचोर हैं ही, दूसरों के कर्तव्य पालन में भी रोड़े अटकाते हैं। क्या यह कलीसिया के कार्य में बाधा डालना और गड़बड़ी पैदा करना नहीं है? क्या यह परमेश्वर से दुश्मनी मोल लेना नहीं है? क्या परमेश्वर का घर ऐसे लोगों को रख सकता है? मान लो कि अविश्वासियों के साथ काम करने वाला कोई व्यक्ति अन्य कर्मचारियों को अपना काम ठीक से न करने के लिए उकसाता है। अगर उसकी बॉस को पता चला तो क्या वह उसे नौकरी से नहीं निकाल देगी? वह उसे जरूर बाहर निकाल देगी। तो यदि वह परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाते हुए भी ऐसा कर सकता है, तो क्या वह परमेश्वर में विश्वास रखने वाला व्यक्ति है? यह एक बुरा और छद्म-विश्वासी व्यक्ति है जिसने परमेश्वर के घर में घुसपैठ कर ली है। उसे बहिष्कृत कर हटा देना चाहिए! ये उदाहरण सुनकर क्या तुम लोग नैतिक आचरण की इस कहावत “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” का सार पहचान पाए हो? (हाँ, हम पहचान पाए हैं।) तुमने अंतिम निष्कर्ष क्या निकाला है? क्या यह अपेक्षा एक सत्य सिद्धांत है? (नहीं।) बिल्कुल भी नहीं है। तो यह क्या है? यह बस एक उलझी हुई कहावत है जो सतही तौर पर अच्छी लगती है, पर वास्तव में इसका कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है।

क्या तुम नैतिक आचरण की इस कहावत के समर्थक हो, “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते”? अगर कोई इस कहावत का समर्थक हो, तो क्या तुम लोग सोचोगे कि वह महान और सज्जन है? कुछ लोग हैं जो कहेंगे, “देखो, वह चीजें थोपता नहीं, वह दूसरों के लिए चीजें मुश्किल नहीं बनाता, न ही उन्हें कठिन स्थितियों में रखता है। क्या वह अद्भुत नहीं है? वह हमेशा अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु रहता है; वह कभी किसी को ऐसा कुछ करने के लिए नहीं कहता, जो वह खुद नहीं करता। वह दूसरों को बहुत ज्यादा स्वतंत्रता देता है, और उन्हें भरपूर गर्मजोशी और स्वीकार्यता का एहसास कराता है। क्या महान व्यक्ति है!” क्या वाकई यही मामला है? “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” कहावत का निहितार्थ यह है कि तुम्हें दूसरों को सिर्फ वही चीजें देनी या उन्हीं चीजों की आपूर्ति करनी चाहिए, जिन्हें तुम पसंद करते हो और जिनमें तुम आनंद लेते हो। लेकिन भ्रष्ट लोग कौन-सी चीजें पसंद करते और उनमें आनंद लेते हैं? दूषित चीजें, बेतुकी चीजें और फालतू इच्छाएँ। अगर तुम लोगों को ये नकारात्मक चीजें देते और उनकी आपूर्ति करते हो, तो क्या समस्त मानवजाति ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट नहीं हो जाएगी? सकारात्मक चीजें कम से कम होंगी। क्या यह तथ्य नहीं है? यह एक तथ्य है कि मानवजाति गहराई से भ्रष्ट हो चुकी है। भ्रष्ट मनुष्य प्रसिद्धि, लाभ, हैसियत और दैहिक सुख के पीछे भागना पसंद करते हैं; वे मशहूर हस्ती बनना चाहते हैं, पराक्रमी और अतिमानव बनना चाहते हैं। वे एक आरामदायक जीवन चाहते हैं और कड़ी मेहनत के विरुद्ध हैं; वे चाहते हैं कि सब-कुछ उन्हें सौंप दिया जाए। उनमें से बहुत कम लोग सत्य या सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। अगर लोग दूसरों को अपनी भ्रष्टता और अभिरुचियाँ देते हैं और उनकी आपूर्ति करते हैं, तो क्या होगा? वही, जिसकी तुम कल्पना करते हो : मानवजाति ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट होती जाएगी। जो लोग, “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,” इस विचार के समर्थक हैं, वे चाहते हैं कि लोग दूसरों को अपनी भ्रष्टता, अभिरुचियां और फालतू इच्छाएं दें और उनकी आपूर्ति करें, जिससे दूसरे लोग बुराई, आराम, धन और उन्नति की तलाश करें। क्या यह जीवन का सही मार्ग है? यह स्पष्ट दिखाई देता है कि “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” एक बहुत ही समस्यात्मक कहावत है। इसमें कमियाँ और खामियाँ बिल्कुल स्पष्ट हैं; यह विश्लेषण करने और पहचानने लायक भी नहीं है। जरा-सी जाँच करने पर ही इसकी त्रुटियाँ और हास्यास्पदता स्पष्ट दिखाई दे जाती है। हालाँकि, तुममें से कई ऐसे हैं, जो इस कहावत से आसानी से सहमत और प्रभावित हो जाते हैं और बिना विचारे इसे स्वीकार लेते हैं। दूसरों के साथ बातचीत करते हुए तुम अक्सर इस कहावत का उपयोग खुद को धिक्कारने और दूसरों को प्रोत्साहन देने के लिए करते हो। ऐसा करने से, तुम सोचते हो कि तुम्हारा चरित्र विशेष रूप से श्रेष्ठ है, और तुम्हारा व्यवहार बहुत तर्कसंगत है। लेकिन अनजाने ही इन शब्दों ने उस सिद्धांत को, जिसके अनुसार तुम जीते हो, और मुद्दों पर तुम्हारे रुख को प्रकट कर दिया है। इसी के साथ, तुमने दूसरों को गुमराह कर गलत राह पर डाल दिया है जिससे लोगों और परिस्थितियों के प्रति उनके विचार और रुख भी तुम्हारे जैसे हो गए हैं। तुमने एक असली तटस्थ व्यक्ति की तरह काम किया है और पूरी तरह से बीच का रास्ता अपना लिया है। तुम कहते हो, “मामला चाहे जो भी हो, इसे गंभीरता से लेने की कोई जरूरत नहीं। अपने या दूसरों के लिए चीजें कठिन मत बनाओ। अगर तुम दूसरे लोगों के लिए चीजें कठिन बनाते हो, तो तुम उन्हें अपने लिए कठिन बना रहे हो। दूसरों के प्रति दयालु होना खुद के प्रति दयालु होना है। अगर तुम दूसरे लोगों के प्रति कठोर हो, तो तुम अपने प्रति कठोर होते हो। खुद को कठिन स्थिति में क्यों डाला जाए? दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, यह सबसे अच्छी बात है जो तुम अपने लिए कर सकते हो, और सबसे ज्यादा विचारशील भी।” यह रवैया स्पष्ट रूप से किसी भी चीज में सावधानी न बरतने का है। तुम्हारा किसी भी मुद्दे पर कोई सही रुख या दृष्टिकोण नहीं होता; हर चीज के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण उलझा हुआ होता है। तुम सावधान नहीं रहते और चीजों को नजरंदाज करते हो। जब तुम अंततः परमेश्वर के सामने खड़े होगे और अपना हिसाब दोगे, तो यह एक बड़ी उलझन होगी। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम हमेशा कहते हो कि तुम्हें दूसरों पर वह नहीं थोपना चाहिए जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। यह तुम्हें बहुत सूकून और सुख देता है, लेकिन साथ ही यह तुम्हारे लिए बहुत बड़ी परेशानी का कारण बनेगा, जिससे ऐसा हो जाएगा कि तुम कई मामलों में स्पष्ट दृष्टिकोण या रुख नहीं रख पाओगे। बेशक, यह तुम्हें स्पष्ट रूप से यह समझने में असमर्थ भी बनाता है कि इन परिस्थितियों का सामना करने की हालत में तुम्हारे लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक क्या हैं, या तुम्हें क्या परिणाम प्राप्त करना चाहिए। ये चीजें इसलिए होती हैं, क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो, उसमें तुम सावधानी नहीं बरतते; वे तुम्हारे उलझे हुए रवैये और सोच के कारण होती हैं। क्या “दूसरों पर वह नहीं थोपना जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,” सहिष्णु रवैया है, जो तुम्हारा लोगों और चीजों के प्रति होना चाहिए? नहीं, यह वह रवैया नहीं है। यह सिर्फ एक सिद्धांत है, जो बाहर से सही, महान और दयालु दिखता है, लेकिन वास्तव में यह पूरी तरह से नकारात्मक चीज है। स्पष्ट रूप से, यह वो सत्य सिद्धांत तो बिल्कुल भी नहीं है, जिसका लोगों को पालन करना चाहिए। परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि लोग दूसरों पर वह नहीं थोपें जो वे अपने लिए नहीं चाहते, इसके बजाय वह लोगों से उन सिद्धांतों पर स्पष्ट होने के लिए कहता है, जिनका पालन उन्हें विभिन्न स्थितियाँ सँभालते समय करना चाहिए। अगर यह सही है और परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुरूप है, तो तुम्हें इस पर दृढ़ रहना चाहिए। और न केवल तुम्हें इस पर दृढ़ रहना चाहिए, बल्कि तुम्हें दूसरों को सावधान करना, मनाना और उनके साथ संगति करनी चाहिए, ताकि वे समझ सकें कि परमेश्वर के इरादे असल में क्या हैं और सत्य सिद्धांत क्या हैं। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर तुमसे बीच का रास्ता अपनाने के लिए नहीं कहता, और यह दिखाने के लिए तो बिल्कुल नहीं कहता कि तुम्हारा दिल कितना बड़ा है। तुम्हें उन बातों पर दृढ़ रहना चाहिए, जिनके बारे में परमेश्वर ने तुम्हें चेताया है और जो तुम्हें सिखाई हैं, और जिनके बारे में परमेश्वर अपने वचनों में बात करता है : अपेक्षाएँ, कसौटी और सत्य सिद्धांत जिनका लोगों को पालन करना चाहिए। न केवल तुम्हें उनसे चिपके रहना चाहिए, और उन पर हमेशा के लिए कायम रहना चाहिए, बल्कि तुम्हें एक मिसाल बनकर इन सत्य सिद्धांतों पर अमल भी करना चाहिए; साथ ही साथ, तुम्हें अपनी ही तरह दूसरों को इनसे चिपके रहने, इनका पालन करने और अभ्यास करने के लिए समझाना, उनकी निगरानी करना, उनकी मदद करना और उनका मार्गदर्शन करना चाहिए। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि तुम ऐसा करो—वह यही काम तुम्हें सौंपता है। तुम केवल दूसरों को अनदेखा करके खुद से अपेक्षाएं नहीं रख सकते। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि तुम मुद्दों पर सही रुख अपनाओ, सही कसौटी से चिपके रहो, और ठीक-ठीक जान लो कि परमेश्वर के वचनों में क्या कसौटी है, और ठीक-ठीक समझ लो कि सत्य सिद्धांत क्या हैं। अगर तुम इसे पूरा न भी कर पाओ, अगर तुम अनिच्छुक भी हो, अगर तुम्हें यह पसंद न हो, अगर तुम्हारी धारणाएँ हों, या अगर तुम इसका विरोध करते हो, तो भी तुम्हें इसे अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व मानना चाहिए। तुम्हें लोगों के साथ उन सकारात्मक चीजों पर संगति करनी चाहिए जो परमेश्वर से आती हैं, उन चीजों पर जो सही और सटीक हैं, और उनका उपयोग दूसरों की मदद करने, उन्हें प्रभावित करने और उनका मार्गदर्शन करने के लिए करो, ताकि लोग उनसे लाभान्वित और शिक्षित हो सकें, और जीवन में सही मार्ग पर चल सकें। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, और तुम्हें हठपूर्वक “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” के विचार से नहीं चिपकना चाहिए, जिसे शैतान ने तुम्हारे दिमाग में डाल दिया है। परमेश्वर की दृष्टि में, यह कहावत सिर्फ सांसारिक आचरण का एक फलसफा है; यह एक ऐसी सोच है जिसमें शैतान की चाल निहित है; यह सही मार्ग तो बिल्कुल नहीं है, न ही यह कोई सकारात्मक चीज है। परमेश्वर तुमसे केवल इतना चाहता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनो, जो स्पष्ट रूप से समझता हो कि उसे क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। वह तुमसे चापलूस या तटस्थ बनने के लिए नहीं कहता; उसने तुम्हें बीच का रास्ता अपनाने के लिए नहीं कहा है। जब कोई मामला सत्य सिद्धांतों से संबंधित हो, तो तुम्हें वह कहना चाहिए जो कहने की आवश्यकता है, और वह समझना चाहिए जो समझने की आवश्यकता है। अगर कोई व्यक्ति कोई चीज नहीं समझता लेकिन तुम समझते हो, और तुम संकेत देकर उसकी मदद कर सकते हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से यह जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना चाहिए। तुम्हें एक किनारे खड़े होकर देखना भर नहीं चाहिए, और तुम्हें उन फलसफों से तो बिल्कुल भी नहीं चिपकना चाहिए जो शैतान ने तुम्हारे दिमाग में बैठा दिए हैं, जैसे कि दूसरों पर वह नहीं थोपना जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) जो सही और सकारात्मक है वह तब भी वैसा ही होगा जब तुम्हें यह पसंद न हो, तुम इसे करना न चाहो, इसे करने और हासिल करने में सक्षम न हो, इसके प्रतिरोधी हो और इसके विरुद्ध धारणाएँ रखते हो। परमेश्वर के वचनों और सत्य का सार सिर्फ इसलिए नहीं बदलेगा क्योंकि मानवजाति का स्वभाव भ्रष्ट है और उसमें कुछ भावनाएँ, एहसास, इच्छाएँ और धारणाएँ हैं। परमेश्वर के वचनों और सत्य का सार कभी भी नहीं बदलेगा। जैसे ही तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य को जानते हो, समझते हो, अनुभव करते और प्राप्त करते हो, यह तुम्हारा दायित्व बन जाता है कि तुम अपनी अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में दूसरों के साथ संगति करो। इससे और अधिक लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने, सत्य को समझने और प्राप्त करने, परमेश्वर की अपेक्षाओं और मानकों को समझने और सत्य सिद्धांतों को समझने में मदद मिलेगी। ऐसा करने से, जब ये लोग अपने दैनिक जीवन में समस्याओं का सामना करेंगे तो उन्हें अभ्यास का मार्ग प्राप्त होगा और वे शैतान के विभिन्न विचारों और नजरिये से भ्रमित नहीं होंगे या बंधन में नहीं फँसेंगे। नैतिक आचरण के बारे में यह कहावत “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” वास्तव में लोगों के मन पर काबू पाने की शैतान की कुटिल योजना है। अगर तुम हमेशा इसे कायम रखते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो शैतानी फलसफों के अनुसार जीता है; ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से शैतानी स्वभाव में रहता है। अगर तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करते, तो तुम सत्य से प्रेम या उसका अनुसरण नहीं करते। चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें जिस सिद्धांत का पालन करना चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है जितना हो सके लोगों की मदद करना। तुम्हें वैसा अभ्यास नहीं करना चाहिए जैसा शैतान कहता है, यानी “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” और एक “चतुर” खुशामदी इंसान बनना। जितना हो सके लोगों की मदद करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करना। जैसे ही तुम देखो कि कोई चीज तुम्हारी जिम्मेदारियों और दायित्वों का हिस्सा है, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य पर संगति करनी चाहिए। अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने का यही अर्थ है। क्या इस संगति ने मूल रूप से नैतिक आचरण के बारे में इस कहावत को स्पष्ट किया है “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते”? क्या तुम लोगों ने इसे समझ लिया है? (हाँ।) इस कहावत को समझना अपेक्षाकृत आसान है, और तुम बहुत अधिक विचार-विमर्श किए बिना पहचान सकते हो कि इसमें क्या गलत है। यह बिल्कुल बेतुकी है, इसलिए इस पर अधिक विस्तार से संगति करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

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