सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1) भाग तीन
खुद को जानना कोई सरल कार्य नहीं है। यह सत्य स्वीकारने के साथ-साथ परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने से प्राप्त होता है, और सच्चा आत्म-ज्ञान सिर्फ परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार करके ही प्राप्त किया जा सकता है। जिन लोगों ने न्याय और ताड़ना का अनुभव नहीं किया है, वे ज्यादा से ज्यादा अपनी गलतियाँ और स्वयं द्वारा गलत की गई चीजें स्वीकार सकते हैं। उनके लिए अपना प्रकृति सार स्पष्ट रूप से देखना बहुत कठिन होगा। ऐसा क्यों था कि जब अनुग्रह के युग में विश्वासियों ने कुछ पाप करने बंद कर दिए और अपना व्यवहार सुधार लिया, तब भी उन्होंने कभी अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव हासिल नहीं किया? भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करते थे, फिर भी उन्होंने उसका विरोध, यहाँ तक कि उसके साथ विश्वासघात क्यों किया? भ्रष्ट मानवजाति के लिए इस मुद्दे का स्रोत पहचानना कठिन है। सभी लोगों में शैतानी स्वभाव क्यों होते हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि शैतान ने मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया है, और लोगों ने उसके दानवी शब्दों और फलसफे स्वीकार लिए हैं। इसी ने भ्रष्ट स्वभावों को जन्म दिया, और इसी तरह शैतान का स्वभाव मनुष्य द्वारा परमेश्वर के प्रतिरोध का स्रोत बन गया। लोगों के लिए इसे पहचानना सबसे मुश्किल काम है। मानवजाति को शैतान के प्रभाव से बचाने और मानवजाति के पाप और परमेश्वर के प्रति विरोध का स्रोत हल करने के लिए परमेश्वर अंत के दिनों में अपना न्याय का कार्य कर रहा है। शैतान ने हजारों वर्षों से मानवजाति को भ्रष्ट किया है, और उसकी प्रकृति ने मनुष्य के हृदयों में जड़ें जमा ली हैं। इसलिए, आत्मचिंतन और आत्मज्ञान के सिर्फ एक-दो प्रयासों से किसी भी प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव सुलझाया या हटाया नहीं जा सकता। भ्रष्ट स्वभाव लगातार और बार-बार बाहर आते रहते हैं, इसलिए लोगों को सत्य स्वीकारने और अपने शैतानी स्वभावों के साथ एक लंबी लड़ाई लड़ने की जरूरत है, जब तक कि वे शैतान पर काबू नहीं पा लेते। सिर्फ तभी वे अपने भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से दूर कर सकते हैं। इसलिए, लोगों को निरंतर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए, खुद को जानना चाहिए और सत्य का अभ्यास करना चाहिए, जब तक कि उनमें से भ्रष्टता निकलनी बंद न हो जाए, उनके जीवन-स्वभाव बदल न जाएँ, और वे परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त न कर लें। तभी वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करेंगे। हो सकता है, प्रत्येक लड़ाई के परिणाम तुरंत स्पष्ट न हों, और तुम बाद में भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर सकते हो। तुम थोड़ा निराश और हतोत्साहित महसूस कर सकते हो, लेकिन हार मानने को तैयार नहीं हो, और तुम अभी भी परमेश्वर से उम्मीद करते हुए और उस पर भरोसा करते हुए कड़ी मेहनत कर सकते हो। अगर तुम दो-तीन वर्षों तक इसी तरह से जुटे रहे, तो तुम वास्तव में सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होगे, और तुम्हारे हृदय में शांति और आनंद होगा। तब तुम स्पष्ट रूप से देखोगे कि तुम्हारी हर विफलता, हर प्रयास और हर प्राप्ति इस बात का एक अच्छा संकेत था कि तुम अपने स्वभाव में बदलाव की ओर बढ़ रहे थे और अपने बारे में परमेश्वर का मन बदल रहे थे। भले ही प्रत्येक बदलाव मानव-चेतना के लिए अगोचर है, फिर भी प्रत्येक मोड़ के साथ आने वाला स्वभावगत बदलाव किसी अन्य क्रिया या वस्तु से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपने स्वभावगत बदलाव और जीवन प्रवेश में व्यक्ति को यही मार्ग अपनाना चाहिए। स्वभावगत बदलाव के अनुसरण का अभ्यास इसी तरह किया जाना चाहिए। बेशक, लोगों को इस बात की सटीक समझ होनी चाहिए कि स्वभावगत बदलाव कैसे होता है : यह कोई चकित और प्रसन्न करने वाला आकस्मिक, धरती हिला देने वाला बदलाव नहीं होता, जैसा कि वे कल्पना करते हैं। यह इस तरह से नहीं होता। अनजाने, धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा करके बदलाव होता है। जब कोई सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होता है, तो वह कुछ प्राप्त करेगा। जब तुम तीन, पाँच, दस वर्षों तक इस मार्ग पर चलने के बाद पीछे मुड़कर देखते हो, तो तुम यह जानकर चकित होगे कि उन दस वर्षों में तुम्हारा स्वभाव बहुत बदल गया है, कि तुम पूरी तरह से भिन्न हो। हो सकता है, तुम्हारा व्यक्तित्व और मिजाज न बदला हो, या तुम्हारी जीवन-शैली और ऐसी अन्य चीजें न बदली हों, लेकिन तुम जो स्वभाव, अवस्थाएँ और व्यवहार दिखाते हो, वे बहुत अलग होंगे, मानो तुम वास्तव में एक अलग व्यक्ति बन गए हो। ऐसा बदलाव क्यों होगा? क्योंकि उन दस वर्षों में परमेश्वर के वचनों से कई बार तुम्हारा न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, परीक्षण और शोधन हो चुका होगा, और तुम बहुत-से सत्य समझ चुके होगे। यह चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों में बदलाव, जीवन और मूल्यों के बारे में तुम्हारे दृष्टिकोण में बदलाव के साथ शुरू होगा, जिसके बाद तुम्हारे जीवन-स्वभाव में बदलाव आएगा, उस नींव में बदलाव आएगा जिस पर तुम जीवित रहने के लिए निर्भर करते हो—और जब ये बदलाव होते हैं, तुम धीरे-धीरे दूसरे व्यक्ति, एक नए व्यक्ति बन जाओगे। तुम्हारा व्यक्तित्व, मिजाज, जीवन-शैली, यहाँ तक कि तुम्हारी वाणी और आचार-व्यवहार अपरिवर्तित रह सकते हैं, लेकिन तुमने अपना जीवन-स्वभाव बदल लिया होगा, और यह अकेले ही एक मौलिक, अनिवार्य बदलाव है। स्वभावगत बदलाव के क्या लक्षण हैं? यह विशेष रूप से कैसे अभिव्यक्त होता है? यह चीजों के बारे में व्यक्ति के विचारों में बदलाव के साथ शुरू होता है—यह तब होता है, जब गैर-विश्वासियों की चीजों को लेकर व्यक्ति के मन में जो अनगिनत विचार हैं वे वैसे-वैसे बदलने लग जाते हैं, जैसे-जैसे वह सत्य की समझ प्राप्त करने लगता है, और वे विचार परमेश्वर के वचनों के सत्य के करीब आने लगते हैं। यह स्वभावगत बदलाव का पहला चरण है। इसके अलावा, आत्मचिंतन और आत्मज्ञान के जरिये लोग सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। अपने भीतर पैदा होने वाले विभिन्न इरादों, उद्देश्यों, विचारों और भावों, धारणाओं, दृष्टिकोणों और रवैयों पर चिंतन करके वे अपनी समस्याओं का पता लगा सकते हैं और उनके लिए पश्चात्ताप महसूस करना शुरू कर सकते हैं। फिर, वे दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं। और ऐसा करके वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को और भी ज्यादा सँजोने लगेंगे, और स्वीकारेंगे कि मसीह सत्य, मार्ग और जीवन है। वे मसीह का अनुसरण करने और उसके प्रति समर्पित होने के ज्यादा इच्छुक होंगे, और महसूस करेंगे कि परमेश्वर मनुष्य को उजागर करने, उसका न्याय कर उसे ताड़ना देने और लोगों के भ्रष्ट स्वभाव बदलने के लिए सत्य व्यक्त करता है, और ऐसा करके परमेश्वर मनुष्य को एक वास्तव में व्यावहारिक तरीके से बचाता और पूर्ण करता है। वे महसूस करेंगे कि परमेश्वर के न्याय और ताड़ना या उसके वचनों के पोषण और मार्गदर्शन के बिना लोगों के पास उद्धार प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं होता, न ही वे इस तरह के पुरस्कार प्राप्त कर सकते थे। वे परमेश्वर के वचनों से प्रेम करने लगेंगे, और महसूस करेंगे कि वे अपने वास्तविक जीवन में उन पर निर्भर हैं, कि पोषण और मार्गदर्शन पाने और अपने लिए रास्ता साफ करवाने की खातिर उन्हें परमेश्वर के वचनों की आवश्यकता है। उनके हृदय शांति से भर जाएँगे, और जब उन पर कुछ आ पड़ेगा, तो वे अनजाने ही आधार के रूप में इस्तेमाल करने के लिए परमेश्वर के वचन खोजेंगे, और उनके भीतर सिद्धांतों और अभ्यास के मार्ग की तलाश करेंगे। यह खुद को जानने से प्राप्त होने वाला एक परिणाम है। एक और परिणाम है : लोग अब अपने भ्रष्ट स्वभावों के उद्गार को हठधर्मिता के दृष्टिकोण से नहीं लेंगे, जैसा कि वे कभी किया करते थे। इसके बजाय, वे अपना हृदय शांत कर ईमानदारी के रवैये के साथ परमेश्वर के वचन सुन सकेंगे, और वे सत्य और सकारात्मक चीजें स्वीकार सकेंगे। इसका अर्थ यह है कि अब जब वे कोई भ्रष्ट स्वभाव दिखाएँगे, तो पहले जैसे नहीं रहेंगे—हठधर्मी, मुश्किल से वश में आने वाले, बेहद आक्रामक, अहंकारी, ढीठ और शातिर नहीं रहेंगे—बल्कि वे सक्रिय रूप से आत्मचिंतन करेंगे और अपनी वास्तविक समस्याओं के बारे में ज्ञान प्राप्त करेंगे। हो सकता है, वे न जान पाएँ कि उनके भ्रष्ट स्वभाव का सार क्या है, लेकिन वे खुद को शांत करने, परमेश्वर से प्रार्थना करने और सत्य खोजने में सक्षम होंगे, जिसके बाद वे अपनी समस्याएँ और अपना भ्रष्ट स्वभाव स्वीकार कर परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करेंगे, और भविष्य में अलग तरह से आचरण करने का संकल्प लेंगे। यह पूरी तरह समर्पण का रवैया है। इस तरह, वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला हृदय प्राप्त कर लेंगे। परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, जो कुछ भी वह उनसे अपेक्षा करता है, जो भी कार्य वह करता है या जो भी परिवेश वह उनके लिए व्यवस्थित करता है, लोगों के लिए उसके प्रति समर्पण करना आसान होगा। उनके भ्रष्ट स्वभाव उनके लिए उतनी बड़ी बाधा नहीं पेश करेंगे, उन्हें सुलझाना और उन पर विजय पाना आसान होगा। उस समय, सत्य को अभ्यास में लाना उनके लिए सरल होगा, और वे परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने में सक्षम होंगे। ये स्वभावगत बदलाव के संकेत हैं। जब कोई सत्य को अभ्यास में ला सकता है और परमेश्वर के प्रति वास्तव में समर्पण कर सकता है, तो यह कहना उचित होगा कि उसके जीवन-स्वभाव में पहले ही बदलाव आ चुका है—एक सच्चा बदलाव, जिसे पूरी तरह से सत्य के अनुसरण के जरिये प्राप्त किया जाता है। और इस प्रक्रिया के दौरान लोगों में उत्पन्न होने वाले सभी व्यवहार, चाहे वे सकारात्मक व्यवहार हों या सामान्य नकारात्मकता और कमजोरी, अनिवार्य और अपरिहार्य होते हैं। सकारात्मक व्यवहार हैं, तो नकारात्मकता और कमजोरी के व्यवहार भी अवश्य होंगे—लेकिन नकारात्मकता और कमजोरी अस्थायी होती है। जब व्यक्ति का एक निश्चित आध्यात्मिक कद हो जाता है, तो उसकी नकारात्मक, कमजोर मनोदशाएँ पहले से कम होंगी और सकारात्मक व्यवहार और प्रवेश ज्यादा होगा, और उसके क्रियाकलाप अधिकाधिक सैद्धांतिक होते जाएँगे। ऐसा व्यक्ति वो है जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है और जिसका जीवन-स्वभाव उसके भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध होने के बाद बदल गया है। कहा जा सकता है कि यही वे नतीजे हैं जिन्हें सत्य का अनुसरण करने वाले लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करके, और बार-बार अपनी काट-छाँट, परीक्षण और शोधन करवाकर प्राप्त करते हैं।
चूँकि अब सभी लोगों ने सत्य का अनुसरण करने की विशिष्ट, सामान्य प्रक्रियाएँ सुन और समझ ली हैं, इसलिए उन्हें अब सत्य से विमुख होने या उसका विरोध करने या उसका अनुसरण न करने के लिए एक-एक से औचित्य या बहाने नहीं गढ़ने चाहिए। इन सत्यों को समझने और इस मुद्दे को स्पष्ट रूप से देखने के बाद, क्या अब तुम्हें सत्य का अनुसरण न करने के जो कारण और बहाने लोग देते हैं, उनकी समझ है? अगर कोई वृद्ध व्यक्ति कहता है, “मैं बूढ़ा हूँ। मैं किसी युवा व्यक्ति की तरह प्रेरित या उत्साहित नहीं हूँ। उम्र के साथ मैंने युवावस्था की आक्रामकता और महत्वाकांक्षा खो दी है, और मैं अब अहंकार नहीं दिखाता। इसलिए तुम्हारा यह कहना कि मैं अहंकारी हूँ, बकवास है—मैं अहंकारी नहीं हूँ!” क्या वह व्यक्ति सही है? (नहीं।) स्पष्ट रूप से नहीं। तुम सभी को अब ऐसे शब्दों की समझ है। तुम उस व्यक्ति को उजागर करने में सक्षम होगे और कहोगे, “भले ही आप बूढ़े हैं, आपका स्वभाव अभी भी अहंकारी है। आप जीवन भर अहंकारी रहे हैं और कभी इसका समाधान नहीं किया। क्या आप अहंकारी बने रहना चाहते हैं?” कुछ युवा लोग कहते हैं, “मैं बहुत छोटा हूँ, मैंने समाज के अराजक हिस्सों का अनुभव या अलग-अलग समूहों के भीतर संघर्ष और आवाजाही नहीं की है। मेरे पास वे अनुभव नहीं हैं, जो दुनिया भर में घूम चुके लोगों के पास हैं—और बेशक, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मैं उन चंट बुड्ढों की तरह धूर्त या विश्वासघाती नहीं हूँ। एक युवा व्यक्ति के नाते मेरा थोड़ा अहंकारी स्वभाव होना सामान्य है; कम-से-कम मैं किसी बूढ़े व्यक्ति की तरह मतलबी, कपटी और दुष्ट नहीं हूँ।” क्या यह कहना उचित है? (नहीं।) हर व्यक्ति में भ्रष्ट स्वभाव होता है। इसका उम्र या लिंग से कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे पास वही है, जो दूसरों के पास है और उनके पास वही है जो तुम्हारे पास है। किसी पर उँगली उठाने की जरूरत नहीं है। बेशक, यह मान लेना ही काफी नहीं है कि हर किसी का स्वभाव भ्रष्ट है। चूँकि तुमने स्वीकारा है कि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, इसलिए तुम्हें उसका समाधान करने के लिए सत्य खोजना चाहिए—जब तक तुम सत्य प्राप्त नहीं कर लेते और तुम्हारा स्वभाव बदल नहीं जाता, तब तक तुम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाओगे। भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना अंततः तुम्हारे सत्य स्वीकारने, अपने कारण और बहाने छोड़ने और अपने भ्रष्ट स्वभाव का ठीक से सामना कर पाने पर निर्भर करता है। तुम्हें इससे बचना या बहाने बनाकर टालना नहीं चाहिए, और तुम्हें निश्चित रूप से इसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए। ये चीजें हासिल करना आसान है। क्या करना सबसे कठिन है? एक चीज है जो दिमाग में आती है। ऐसे लोग हैं जो कहते हैं, “तुम चाहे कहो कि मैं सत्य का अनुसरण करता हूँ या नहीं करता, चाहे कहो कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करता या मैं उससे विमुख हो चुका हूँ, चाहे मुझे मेरा स्वभाव भ्रष्ट होने के लिए उजागर करो—मैं तुम्हें नजरअंदाज कर दूँगा। जो कुछ परमेश्वर का घर मुझसे करने को कहता है या जो भी काम करने की आवश्यकता होती है, मैं वह करता हूँ। मैं प्रवचनों और सभाओं के दौरान सुनता हूँ, जब हर कोई परमेश्वर के वचन खा-पी रहा होता है तो मैं भी साथ में पढ़ता हूँ, मैं तुम लोगों के साथ बैठकर अनुभवात्मक गवाही के वीडियो देखता हूँ, और मैं तभी खाता हूँ जब तुम लोग खाते हो। मैं तुम लोगों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलता हूँ। तुम लोगों में से कौन कह सकता है कि मैं सत्य का अनुसरण नहीं करता? मैं इसी तरह विश्वास करता हूँ, इसलिए तुम जो चाहे कर या कह सकते हो, मेरी बला से!” इस प्रकार का व्यक्ति बहाने न बनाने या औचित्य न बताने का दिखावा करता है, लेकिन सत्य का अनुसरण करने का भी उसका कोई इरादा नहीं होता। यह ऐसा है, मानो परमेश्वर के उद्धार-कार्य का उससे कोई लेना-देना न हो, मानो उसे उसकी कोई आवश्यकता न हो। इस तरह के लोग स्पष्ट रूप से नहीं कहते, “मेरी मानवता अच्छी है, मैं सच में परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, मैं चीजें त्यागने के लिए तैयार हूँ, मैं कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हूँ। इसके बावजूद क्या मुझे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारने की आवश्यकता है?” वे इसे स्पष्ट रूप से नहीं कहते, उनका सत्य के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं होता, और वे बाहरी तौर पर परमेश्वर के कार्य की निंदा नहीं करते। लेकिन परमेश्वर ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है? अगर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, अगर वे परमेश्वर के वचनों के प्रति बहुत उदासीन रहते हैं और उनकी अवहेलना करते हैं, तो उनके प्रति परमेश्वर का रवैया बहुत स्पष्ट है। वह बाइबल की इस पंक्ति की तरह है, “इसलिये कि तू गुनगुना है, और न ठंडा है और न गर्म, मैं तुझे अपने मुँह में से उगलने पर हूँ” (प्रकाशितवाक्य 3:16)। परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, और यह एक परेशानी की बात है। क्या कलीसिया में ऐसे लोग हैं? (हाँ।) तो, उन्हें कैसे छाँटा जाए? उन्हें छाँटकर कहाँ रखना चाहिए? उन्हें छाँटने की जरूरत नहीं। संक्षेप में, ऐसे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे सत्य नहीं स्वीकारते, न आत्मचिंतन करते और न खुद को जानते हैं, और उनके पास पश्चात्ताप का हृदय नहीं होता—इसके बजाय परमेश्वर में उनकी एक उलझी हुई और भ्रांत आस्था होती है। परमेश्वर का घर उनसे जो कुछ भी करने को कहता है, वे उसे बिना कोई गड़बड़ी या व्यवधान पैदा किए करते हैं। उनसे पूछो, “क्या तुम्हारी कोई धारणा है?” “नहीं।” “क्या तुम्हारा कोई भ्रष्ट स्वभाव है?” “नहीं।” “क्या तुम उद्धार प्राप्त करना चाहते हो?” “पता नहीं।” “क्या तुम स्वीकारते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं?” “पता नहीं।” उनसे कुछ भी पूछो, वे यही कहते हैं कि उन्हें पता नहीं। क्या ऐसे लोगों के साथ कोई समस्या है? (हाँ।) समस्या है, फिर भी उन्हें लगता है कि यह कोई समस्या नहीं, और इसे हल करने की आवश्यकता नहीं। बाइबल कहती है : “इसलिये कि तू गुनगुना है, और न ठंडा है और न गर्म, मैं तुझे अपने मुँह में से उगलने पर हूँ।” यह वाक्यांश—“मैं तुझे अपने मुँह में से उगलने पर हूँ”—ऐसे लोगों से निपटने का सिद्धांत है; उन्हें यही परिणाम मिलता है। न ठंडे न गर्म होने का अर्थ है कि इन लोगों के पास कोई विचार नहीं है; इसका अर्थ है कि चाहे तुम उनके साथ स्वभावगत बदलाव या उद्धार के मामलों पर कैसे भी संगति करो, वे उदासीन रहते हैं। यहाँ “उदासीन” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि वे ऐसे मामलों में रुचि नहीं रखते और उनके बारे में सुनने को तैयार नहीं होते। कुछ लोग कह सकते हैं, “कोई विचार न होने या भ्रष्टता की अभिव्यक्तियाँ होने में क्या गलत है?” क्या निरी बकवास है! ये निष्प्राण, मृत लोग हैं, न ठंडे और न गर्म, और परमेश्वर के पास इन पर कार्य करने का कोई उपाय नहीं है। जब उन लोगों की बात आती है जिन्हें बचाया नहीं जा सकता, तो परमेश्वर उन्हें उगल देता है और उनसे सरोकार नहीं रखता। वह उन पर कार्य नहीं करता, और हम ऐसे लोगों का किसी प्रकार का मूल्यांकन नहीं करेंगे, हम उन्हें सिर्फ नजरअंदाज करेंगे। अगर कलीसिया में ऐसे लोग हैं, तो वे तब तक रह सकते हैं जब तक वे कोई गड़बड़ी नहीं करते—अगर वे गड़बड़ी करते हैं, तो उन्हें निकाल देना चाहिए। इस चीज का समाधान करना आसान है। मेरे वचन उन लोगों की ओर निर्देशित हैं, जो सत्य स्वीकार सकते हैं, जो उसका अनुसरण करना चाहते हैं और उसके बारे में एक स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हैं, जो स्वीकारते हैं कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं और उन्हें बचाया जा सकता है; उनका लक्ष्य वे लोग हैं जो परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं और उसकी वाणी सुन सकते हैं, उनका लक्ष्य परमेश्वर की भेड़ें हैं—वे लोग ही हैं, जिनकी ओर परमेश्वर के वचन निर्देशित हैं। परमेश्वर के वचन उन लोगों की ओर निर्देशित नहीं हैं, जो उसके प्रति न तो ठंडे हैं न गर्म। ऐसे लोगों की सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती, और वे परमेश्वर के वचनों और कार्य के प्रति न तो ठंडे होते हैं न गर्म। ऐसे लोगों से निपटने का तरीका यह कहना कि “छोड़ो। तुम कैसे हो, इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं”—उन्हें अनदेखा करना और उन पर ऊर्जा बरबाद न करना है।
हमने अभी सत्य का अनुसरण करने के विषय से संबंधित कुछ नकारात्मक उदाहरणों पर संगति की है। लोग अक्सर अनजाने ही अपने भ्रष्ट स्वभावों के उद्गारों को नकारने के लिए विभिन्न औचित्य, बहाने और कारण सोचते हैं—बेशक, वे अक्सर खुद को और दूसरों को धोखा देते हुए अपने भ्रष्ट स्वभावों की मौजूदगी भी छिपाते हैं। ये मनुष्य के मूर्खतापूर्ण और बुद्धिहीन तरीके हैं। एक ओर लोग स्वीकारते हैं कि मनुष्य का न्याय करने वाले परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं; दूसरी ओर वे अपने भ्रष्ट स्वभावों की मौजूदगी, और साथ ही सत्य का उल्लंघन करने वाले अपने गलत व्यवहारों से इनकार करते हैं। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि वे सत्य नहीं स्वीकारते। तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, इसे चाहे तुम नकारो या स्वीकारो या चाहे अपने भ्रष्ट व्यवहार के उद्गारों के लिए बहाने, औचित्य या सही लगने वाले तर्क पेश करो—संक्षेप में, अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तो तुम परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते। यह निर्विवाद है। जो कोई भी सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करता, उसे अंततः उजागर कर हटा दिया जाएगा, चाहे वह कितने भी वर्षों से विश्वासी क्यों न हो। यह परिणाम भयानक है। आपदाएँ आने और तुम्हारे उजागर होने में देर नहीं लगेगी, और जब आपदाएँ आएँगी, तब तुम भयभीत महसूस करोगे। तुम्हारे पास कई औचित्य और पर्याप्त बहाने हो सकते हैं, या हो सकता है कि तुमने अच्छी तरह भेष बदलकर खुद को पूरी तरह से छिपा लिया हो, लेकिन एक तथ्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता : तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव ज्यों का त्यों है, वह बिल्कुल नहीं बदला। तुम वास्तव में खुद को जानने में असमर्थ हो, तुम सच्चा पश्चात्ताप करने में सक्षम नहीं हो, और अंत में, तुम वास्तव में खुद को बदलने या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम नहीं होगे, और परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन नहीं बदलेगा। तब क्या तुम बड़ी मुसीबत में नहीं पड़ोगे? तुम हटाए जाने के खतरे में होगे। इसीलिए चतुर व्यक्ति ये नासमझी भरे बहाने और मूर्खतापूर्ण औचित्य छोड़ देगा और अपना छद्म वेश और आवरण उतार देगा। वह उस भ्रष्ट स्वभाव का ठीक से सामना करेगा, जिसे वह दिखाता है और उसे सँभालने और हल करने के लिए सही तरीकों का उपयोग करेगा, और वह जो कुछ भी करता है उसे सत्कर्म बनाने का प्रयास करेगा, ताकि परमेश्वर उसके बारे में अपना मन बदल ले। अगर परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन बदलता है, तो यह साबित करता है कि उसने वास्तव में तुम्हें तुम्हारे पिछले विद्रोह और प्रतिरोध से दोषमुक्त कर दिया है। तुम शांति और आनंद महसूस करोगे, और अब ऐसे दबे हुए महसूस नहीं करोगे, जैसे कोई बोझ उठा लिया हो। यह भावना तुम्हारी आत्मा की पुष्टि है; तुम्हें अब उद्धार की आशा है। यह वह आशा है, जिसका विनिमय तुमने सत्य के अनुसरण और अपने अच्छे कर्मों के लिए चुकाई गई कीमतों से किया था। यह वह परिणाम है, जिसे तुमने सत्य का अनुसरण करके और अच्छे कर्म तैयार करके प्राप्त किया है। इसके विपरीत, तुम खुद को पहले ही काफी चतुर समझ सकते हो, और हर बार भ्रष्टता जाहिर करने पर खुद को बचाने और दोषमुक्त करने के लिए पर्याप्त औचित्य खोजने में सक्षम हो सकते हो। तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव छिपा सकते हो और उस पर बढ़िया आवरण चढ़ा सकते हो, और इस प्रकार चतुराई से उस पर चिंतन करने और उसे जानने से बच सकते हो, मानो तुमने कोई भ्रष्टता दिखाई ही न हो। परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न परिवेशों द्वारा उजागर होने पर तुम उससे बार-बार बचकर खुद को काफी चतुर समझ सकते हो। तुमने आत्मचिंतन कर खुद को जाना नहीं होगा, तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया होगा, और तुमने परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने के कई अवसर खो दिए होंगे। इसके क्या परिणाम होंगे? आओ इसे फिलहाल एक तरफ रख दें कि तुम पश्चात्ताप करने और उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हो या नहीं, और सिर्फ यह कहें कि अगर परमेश्वर तुम्हें बार-बार पश्चात्ताप करने के मौके देता है, और उनमें से कोई भी तुम्हें कभी भी अपना मन बदलने के लिए मजबूर नहीं करता, तो तुम बड़ी मुसीबत में होगे। तुम कितनी अच्छी तरह से अपना बचाव करते हो, खुद को कितनी अच्छी तरह पेश करते हो, खुद को कितनी अच्छी तरह से छिपाते हो, कितनी अच्छी तरह से बहाना बनाते और खुद को सही ठहराते हो, इससे क्या लाभ होगा? अगर परमेश्वर ने तुम्हें बार-बार अवसर दिए हैं, और इसने तुम्हें अपना मन बदलने के लिए भी मजबूर नहीं किया, तो तुम खतरे में हो। क्या तुम जानते हो कि वह खतरा क्या है? तुम हठपूर्वक अपने भ्रष्ट स्वभाव के लिए बहाने बनाते रहते हो, सत्य का अनुसरण न करने के लिए बहाने और औचित्य पेश करते हो, और परमेश्वर के न्याय और कार्य का विरोध कर उसे नकारते हो, और फिर भी, तुम खुद को बहुत अच्छा समझते हो और मानते हो कि तुम्हारा अंतःकरण साफ है। तुम परमेश्वर के घर के हाथों अपनी निगरानी और काट-छाँट स्वीकारने से मना करते हो, परमेश्वर के प्रति विद्रोह से भरे दिल के साथ उसके न्याय, ताड़ना और उद्धार से बार-बार बचते हो—परमेश्वर पहले से ही तुमसे घृणा करता है और वह तुम्हें पहले ही छोड़ चुका है, और फिर भी, तुम सोचते हो कि तुम अभी भी बचाए जा सकते हो। क्या तुम नहीं जानते कि तुम पहले ही गलत मार्ग पर बहुत आगे तक जा चुके हो और तुम पहले ही छुटकारे से परे हो? परमेश्वर के घर में परमेश्वर राज करता है। क्या तुम्हें लगता है कि जब तुम उसका विरोध और तरह-तरह की बुराइयाँ करते हो, तो तुम परमेश्वर के अधिकार से बाहर हो? तुम परमेश्वर का न्याय और ताड़ना नहीं स्वीकारते, तुमने सत्य और जीवन प्राप्त नहीं किया है, और तुम्हारे पास कोई भी अनुभवात्मक गवाही नहीं है। इसके लिए परमेश्वर तुम्हारी निंदा करता है। तुम अपने ऊपर विपदा ला रहे हो। इसमें चतुराई की कोई बात नहीं—यह मूर्खता है, अत्यधिक मूर्खता! यह विनाशकारी है! हमने यहाँ यह बता दिया है—अगर तुम्हें यकीन न हो, तो बस प्रतीक्षा करो और देखो। बेहतर होगा, तुम यह न सोचो कि अगर तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण न करने के लिए औचित्यों का पुलिंदा है, और तुम्हारे पास तुम्हारी वाक्पटुता और षड्यंत्र है, कि अगर कोई तुम्हें बहस में मात नहीं दे सकता और भाई-बहन तुम्हें उजागर नहीं कर सकते, और अगर कलीसिया के पास तुम्हें बाहर निकालने का कोई कारण नहीं है, तो परमेश्वर का घर तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। तुम इस बारे में गलत हो। तुम परमेश्वर से लड़ते रहो; मैं देखूँगा कि तुम कब तक उसका मुकाबला कर पाते हो! क्या तुम उस दिन तक उसका मुकाबला कर पाओगे, जब परमेश्वर अपना कार्य पूरा करने के बाद अच्छे लोगों को पुरस्कार और दुष्टों को दंड नहीं देगा? क्या तुम यह सुनिश्चित कर सकते हो कि तुम आपदाओं में नहीं मरोगे—कि तुम उनसे बचे रहोगे? क्या तुम वाकई अपने भाग्य पर संप्रभुता रखते हो? अपने औचित्यों और बहानों से तुम कुछ समय के लिए परमेश्वर के घर की जाँच-पड़ताल से बच सकते हो; वे तुम्हें कुछ समय के लिए अपना अधम अस्तित्व घसीटने में सक्षम कर सकते हैं। तुम अस्थायी रूप से लोगों की आँखों में धूल झोंकने में सक्षम हो सकते हो, और कलीसिया में भेष बदलकर दूसरों को धोखा देते रह सकते हो और वहाँ एक स्थान भर सकते हो—लेकिन तुम परमेश्वर के निरीक्षण या जाँच से बच नहीं सकते। परमेश्वर व्यक्ति का परिणाम इस आधार पर तय करता है कि उसके पास सत्य है या नहीं; वह अपना काम और मड़ाई स्वयं करता है। चाहे तुम किसी भी प्रकार के व्यक्ति या कोई भी शैतान हो, तुम परमेश्वर के न्याय और दंड से बच नहीं सकते। जैसे ही परमेश्वर के चुने हुए लोग सत्य समझेंगे और विवेक प्राप्त करेंगे, कोई नहीं बच पाएगा, तभी तुम कलीसिया से बाहर निकाल दिए जाओगे। हो सकता है, कुछ लोगों को यकीन न आए और वे भुनभुनाएँ, “मैंने परमेश्वर के लिए इतनी भाग-दौड़ की है, उसके लिए इतना काम किया है और इतनी कीमत चुकाई है। मैंने अपना परिवार और शादी त्याग दी; मैंने परमेश्वर और उसके काम के लिए अपनी जवानी झोंक दी। मैंने अपना करियर छोड़ दिया और अपने जीवन की आधी ऊर्जा यह सोचते हुए खर्च कर दी कि मुझे निश्चित तौर पर वे आशीष मिलेंगे, जो वह प्रदान करता है। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि सत्य का अनुसरण और उसका अभ्यास न करने के कारण मुझे हटा दिया जाएगा!” क्या तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के घर में सत्य राज करता है? क्या तुम्हें यह स्पष्ट नहीं कि परमेश्वर किसे पुरस्कार देता है और किसे आशीष प्रदान करता है? अगर तुम्हारा त्याग और व्यय सच्ची अनुभवात्मक गवाही में परिणत होता है, और वे परमेश्वर के कार्य की गवाही भी देते हैं, तो परमेश्वर तुम्हें पुरस्कार और आशीष देगा। अगर तुम्हारा त्याग और व्यय सच्ची अनुभवात्मक गवाही नहीं हैं, और परमेश्वर के कार्य की गवाही तो बिल्कुल भी नहीं हैं, अगर इसके बजाय वे तुम्हारे बारे में गवाही हैं, तुम्हारी उपलब्धियों को मान्यता देने के लिए परमेश्वर से एक अनुरोध हैं, तो तुम उसी रास्ते पर चल रहे हो जिस पर पौलुस चला था। तुम जो कर रहे हो, वह बुराई है और यह परमेश्वर का विरोध करना है, और परमेश्वर तुमसे कहेगा, “मुझसे दूर हो जाओ, कुकर्मी!” और इसका क्या अर्थ होगा? यह इस बात का सबूत होगा कि तुम सड़ चुके हो, आपदाओं में गिरने और दंडित होने के लिए अभिशप्त हो। तुम पर विपदा आएगी। पौलुस, रुतबा, स्वयं द्वारा किए गए काम, अपनी योग्यता और अपने गुणों के मामले में अपने समय के औसत व्यक्ति से श्रेष्ठ था—लेकिन इससे क्या हुआ? परमेश्वर में अपने विश्वास में शुरू से अंत तक पौलुस परमेश्वर के साथ सौदा करने, शर्तें तय करने की कोशिश कर रहा था; उसने परमेश्वर से पुरस्कार और मुकुट माँगा। अंत में, उसने वास्तव में पश्चात्ताप नहीं किया, न ही बहुत-से अच्छे कर्म तैयार किए—और स्वाभाविक रूप से, उसके पास ज्यादा सच्ची अनुभवात्मक गवाही भी नहीं थी। क्या वह वास्तव में पश्चात्ताप किए बिना भी परमेश्वर की क्षमा प्राप्त कर सकता था? क्या वह परमेश्वर को अपने बारे में मन बदलने के लिए राजी कर सकता था? यह असंभव होता। पौलुस ने अपना पूरा जीवन प्रभु के लिए बिताया, पर चूँकि वह एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चला था और उसने पश्चात्ताप करने से बिल्कुल इनकार कर दिया था, इसलिए उसे न सिर्फ पुरस्कृत नहीं किया गया—उसे परमेश्वर द्वारा दंडित भी किया गया। कहने की जरूरत नहीं कि उसे जो परिणाम भुगतने पड़े, वे विनाशकारी थे। इसलिए, मैं अब तुम्हें स्पष्ट रूप से बता रहा हूँ कि अगर तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो तुम्हें कम से कम थोड़ी समझ होनी चाहिए और परमेश्वर के साथ बहस नहीं करनी चाहिए या अपना परिणाम और मंजिल को दाँव में जीतने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, जैसे कि तुम जुआ खेल रहे हो। यह परमेश्वर के साथ सौदा करने का प्रयास है, जो उसका विरोध करने का एक तरीका है। उन लोगों का क्या अच्छा अंत हो सकता है, जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी उसका विरोध करते हैं? मृत्यु के सामने लोग शिष्ट बन जाते हैं; जिन्हें विवेक छू नहीं पाता, वे तब तक अपना रास्ता नहीं छोड़ते जब तक कि वे मृत्यु के द्वार पर न पहुँच जाएँ। बचाए जाने का सबसे अच्छा, सरल और समझदारी भरा तरीका है अपने सभी बहाने, औचित्य और शर्तें छोड़ना, और अपने पैर मजबूती से जमीन पर रखते हुए सत्य स्वीकारना और उसका अनुसरण करना, जिससे परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन बदल सके। जब परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन बदलता है, तो तुम्हें बचाए जाने की आशा होती है। मनुष्य के उद्धार की आशा परमेश्वर द्वारा दी जाती है, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें यह आशा देने की पूर्व-शर्त यह है कि तुम वह सब-कुछ छोड़ दो जिसे तुम सँजोते हो और उसके साथ सौदेबाजी की कोशिश किए बिना उसका और सत्य का अनुसरण करने के लिए सब-कुछ त्याग दो। यह महत्व नहीं रखता कि तुम बूढ़े हो या जवान, पुरुष हो या महिला, शिक्षित हो या अशिक्षित, और न यही महत्व रखता है कि तुम कहाँ पैदा हुए थे। परमेश्वर इनमें से कोई चीज नहीं देखता। तुम कह सकते हो, “मेरा मिजाज अच्छा है। मैं धैर्यवान, सहिष्णु और दयालु हूँ। अगर मैं अंत तक धैर्य रखे रहूँगा, तो इससे परमेश्वर मेरे बारे में अपना मन बदल लेगा।” ये चीजें बेकार हैं। परमेश्वर तुम्हारा मिजाज या तुम्हारा व्यक्तित्व या तुम्हारी शिक्षा या तुम्हारी उम्र नहीं देखता, और न ही यह कोई महत्व रखता है कि तुमने कितना कष्ट उठाया है या कितना काम किया है। परमेश्वर तुमसे पूछेगा, “आस्था के तमाम वर्षों में क्या तुम्हारा स्वभाव बदला है? वह क्या है जिसके अनुसार तुम जीते हो? क्या तुमने सत्य का अनुसरण किया है? क्या तुमने परमेश्वर के वचन स्वीकार किए हैं?” तुम कह सकते हो, “मैंने उन्हें सुना और स्वीकारा है।” तब परमेश्वर तुमसे पूछेगा, “चूँकि तुमने उन्हें सुना और स्वीकारा है, तो क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव हल हो गया है? क्या तुमने वास्तव में पश्चात्ताप किया है? क्या तुमने वास्तव में परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण किया और उन्हें स्वीकारा है?” तुम कहते हो, “मैंने कष्ट सहा है और कीमत चुकाई है; मैंने खुद को खपाया है और चीजें त्यागी हैं, और मैंने भेंटें चढ़ाई हैं—मैंने अपने बच्चे भी परमेश्वर को अर्पित किए हैं।” तुम्हारी तमाम भेंटें व्यर्थ हैं। इस तरह की चीजों का स्वर्ग के राज्य के आशीषों के लिए विनिमय नहीं किया जा सकता या परमेश्वर द्वारा तुम्हारे बारे में मन बदलने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। अपने बारे में परमेश्वर का मन बदलवाने का एकमात्र तरीका है सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पड़ना। कोई दूसरा विकल्प नहीं है। जब उद्धार की बात आती है, तो मनुष्य को अवसरवादी या धूर्त नहीं होना चाहिए, और यहाँ बेईमानी का कोई रास्ता नहीं है। क्या तुम समझ रहे हो? तुम्हें इस पर स्पष्ट होना चाहिए। इस बारे में भ्रमित न होना—अगर तुम होगे भी, तो परमेश्वर नहीं होगा। तो अब से तुम्हें क्या करना चाहिए? अपना रवैया उलट लो और नजरिया बदल डालो, और चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, परमेश्वर के वचनों को अपनी नींव बनने दो। न तो कोई मानव-निर्मित “अच्छाई,” कोई इंसानी बहाना, कोई इंसानी फलसफा, ज्ञान, नैतिकता, आचार-विचार या जमीर, और न ही मनुष्य की तथाकथित सत्यनिष्ठा और गरिमा सत्य का स्थान ले सकती है। इन चीजों को एक तरफ रख दो, अपना हृदय मौन कर लो, और अपने समस्त आचरण और कार्यों की नींव परमेश्वर के वचनों के भीतर खोजो। और ऐसा करते हुए परमेश्वर के वचनों के भीतर मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के विभिन्न पहलुओं का उसका प्रकाशन खोजो। उनसे अपनी तुलना करो और अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करो। जितनी जल्दी हो सके, खुद को जानने का प्रयास करो, भ्रष्टता दूर करो और पश्चात्ताप करके खुद को पूरा बदल डालने की जल्दी करो। अपनी बुराई त्याग दो और अपने आचरण और कार्यों में सत्य सिद्धांत खोजो, उन सभी को परमेश्वर के वचनों पर आधारित करो—तुम्हें इन चीजों को इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं पर बिल्कुल भी आधारित नहीं करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के साथ सौदा करने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं करनी चाहिए; तुम्हें अपने महत्वहीन कष्टों और बलिदानों का परमेश्वर के पुरस्कारों और आशीषों के लिए विनिमय करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। ऐसी मूर्खतापूर्ण चीजें करना बंद करो, कहीं ऐसा न हो कि परमेश्वर तुम पर क्रोधित हो जाए और तुम्हें शाप देकर मिटा दे। क्या यह स्पष्ट है? क्या तुम लोग इसे समझ गए हो? (हाँ।) तो ठीक है, आगे बढ़ते हुए इस पर सावधानी से विचार करो।
जिस भी चीज पर हमने अभी-अभी संगति की, वह सत्य के अनुसरण से संबंधित थी, और हालाँकि हमने इस वैचारिक प्रश्न का कोई विशिष्ट उत्तर नहीं दिया कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, फिर भी हम कुछ ऐसी संगति में शामिल हुए जो सत्य के अनुसरण को लेकर मनुष्य की विभिन्न गलतफहमियों और विकृत ज्ञान के साथ ही व्यक्ति द्वारा सत्य का अनुसरण करते समय मौजूद रहने वाली विभिन्न कठिनाइयों और समस्याओं को लक्षित करती थी। समापन करते हुए मैं सारांश प्रस्तुत करना चाहूँगा कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, वे तरीके जिनसे सत्य का अनुसरण प्रकट होता है, और सत्य का अनुसरण करने के लिए अभ्यास का मार्ग वास्तव में क्या है। तो, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? सत्य का अनुसरण करना परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव शुरू करना है, और फिर सत्य की समझ प्राप्त करना और परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने की प्रक्रिया के माध्यम से सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना है, और ऐसा व्यक्ति बनना है जो वास्तव में परमेश्वर को जानता है और उसके प्रति समर्पण करता है। यही वह अंतिम परिणाम है जो सत्य का अनुसरण करने से प्राप्त होता है। निस्संदेह, सत्य का अनुसरण अनेक कदमों वाली प्रक्रिया है, और उसे कई चरणों में विभाजित किया गया है। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद जब तुम पाते हो कि वे सत्य और वास्तविकता हैं, तो तुम परमेश्वर के वचनों के भीतर आत्मचिंतन करना शुरू करोगे और आत्म-ज्ञान प्राप्त करोगे। तुम देखोगे कि तुम बहुत विद्रोही हो और बहुत सारी भ्रष्टता दिखाते हो। तुम सत्य को अभ्यास में लाने और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए तरसोगे और सत्य की दिशा में प्रयास करना शुरू कर दोगे। यही वह परिणाम है, जो आत्मचिंतन और आत्मज्ञान से आता है। उसी क्षण से तुम्हारे जीवन के अनुभव शुरू हो जाते हैं। जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होने वाली अवस्थाओं और समस्याओं की जाँच-पड़ताल करना शुरू कर देते हो, तो यह साबित करता है कि तुमने सत्य का अनुसरण करना शुरू कर दिया है। तुम घटित होने वाली किसी भी समस्या या स्वयं द्वारा दिखाई जाने वाली किसी भी भ्रष्टता पर सक्रिय रूप से चिंतन और उसकी जाँच करने में सक्षम होगे। और जब तुम यह जान जाते हो कि वे वास्तव में भ्रष्टता के उद्गार और भ्रष्ट स्वभाव हैं, तो तुम स्वाभाविक रूप से सत्य खोजकर उन समस्याओं को हल करना शुरू करोगे। जीवन-प्रवेश आत्मचिंतन से शुरू होता है; यह सत्य का अनुसरण करने का पहला कदम है। इसके ठीक बाद, आत्मचिंतन और आत्मज्ञान के माध्यम से तुम देखोगे कि परमेश्वर के खुलासे के सभी वचन तथ्यों के अनुरूप हैं। तब तुम उनके प्रति हृदय से समर्पित हो पाओगे, और परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकार पाओगे। यह सत्य का अनुसरण करने का दूसरा कदम है। ज्यादातर लोग परमेश्वर के उन वचनों को स्वीकारने में सक्षम होते हैं, जो मनुष्य के भ्रष्ट व्यवहारों को प्रकट करते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के उन वचनों को आसानी से नहीं स्वीकार पाते, जो मनुष्य के भ्रष्ट सार को उजागर करते हैं। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद वे अपनी अत्यधिक गहरी भ्रष्टता को नहीं स्वीकारते; वे सिर्फ परमेश्वर के उन वचनों को स्वीकारते हैं जो मनुष्य के भ्रष्ट व्यवहारों को प्रकट करते हैं। इस वजह से, वे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना दिल से नहीं स्वीकार पाते। इसके बजाय, वे उसे एक तरफ कर देते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मुझमें बस कुछ ही भ्रष्ट व्यवहार हैं, लेकिन मैं कुछ अच्छी चीजें कर सकता हूँ। मैं एक अच्छा इंसान हूँ, मैं शैतान का नहीं हूँ। मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, इसलिए मुझे परमेश्वर का होना चाहिए।” क्या यह बकवास नहीं है? तुम मानव-संसार में पैदा हुए हो, तुम शैतान की सत्ता में रहे हो, और तुमने परंपरागत संस्कृति की शिक्षा प्राप्त की है। तुम्हारी जन्मजात विरासत और वह ज्ञान जो तुमने सीखा है, शैतान से आया है। तुम जिन महान और प्रसिद्ध लोगों की पूजा करते हो, वे सभी शैतान के हैं। क्या यह कहना कि तुम शैतान के नहीं हो, तुम्हें उसकी भ्रष्टता से बच निकलने देगा? यह ठीक उसी तरह है, जैसे छोटे बच्चे जिस क्षण से अपना मुँह खोलते हैं, उसी क्षण से झूठ बोलने और दूसरों का अपमान करने में सक्षम होते हैं। उन्हें ऐसा करना कौन सिखाता है? कोई नहीं। वह शैतान की भ्रष्टता के परिणाम के अलावा और क्या हो सकता है? ये तथ्य हैं। लोग आध्यात्मिक जगत के शैतान और दुष्ट आत्माओं को नहीं देख सकते, लेकिन जीवित राक्षस और दानवों के राजा मानव-संसार में हर जगह हैं। ये सभी शैतान के अवतार हैं। यह एक ऐसा तथ्य है, जिसे सभी लोगों को स्वीकारना चाहिए। जो लोग सत्य समझते हैं, वे ये चीजें समझ सकते हैं, और वे स्वीकार सकते हैं कि परमेश्वर के खुलासे के सभी वचन तथ्य हैं। कुछ लोग खुद को जानने की बात कर सकते हैं, लेकिन वे कभी यह नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर के वचनों द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टताएँ तथ्यात्मक हैं, या उसके वचन सत्य हैं। यह सत्य स्वीकारने में असमर्थ होने के बराबर है। अगर व्यक्ति इस तथ्य को नहीं स्वीकारता कि उसका स्वभाव भ्रष्ट है, तो वह सच्चा पश्चात्ताप नहीं कर पाएगा। निस्संदेह, इस तथ्य को मानने और स्वीकारने के लिए कि सभी लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है, व्यक्ति को कुछ समय के लिए परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना आवश्यक है। कई भ्रष्ट स्वभावों के उद्गार के बाद वह स्वाभाविक रूप से उस तथ्य के सामने अपना सिर झुका लेगा। उसके पास यह मानने के अलावा कि मनुष्य को उजागर करने वाले, उसका न्याय और निंदा करने वाले परमेश्वर के सभी वचन तथ्य और सत्य हैं, और उन्हें पूरी तरह से स्वीकारने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। परमेश्वर के वचनों द्वारा जीते जाने का यही अर्थ है। जब लोग परमेश्वर के वचनों के आधार पर अपने भ्रष्ट स्वभावों और भ्रष्ट सार को जानने में सक्षम होते हैं, और यह स्वीकारते हैं कि उनमें शैतानी स्वभाव है और उनकी भ्रष्टता गहरी है, तब वे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना पूरी तरह से स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित होने के इच्छुक होंगे, जो मानव-जाति को प्रकट कर उसका न्याय करते हैं, चाहे वे कितने भी कठोर या चुभने वाले क्यों न हों। जब तुम यह समझ और थोड़ा जान जाते हो कि परमेश्वर के वचन भ्रष्ट मानवजाति को कैसे परिभाषित, वर्गीकृत और निंदित करते हैं, साथ ही वे भ्रष्ट मानवजाति का कैसे न्याय और खुलासा करते हैं, जब तुम वास्तव में परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकार लेते हो और अपने भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार को जानना शुरू कर देते हो, जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव, शैतान और अपनी देह से घृणा करना शुरू कर देते हो—और जब तुम सत्य प्राप्त करने, एक मनुष्य के रूप में जीने और ऐसा व्यक्ति बनने के लिए लालायित रहते हो, जो वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है—तभी तुम अपने स्वभाव में बदलाव लाने पर ध्यान देना शुरू करते हो। यह सत्य का अनुसरण करने का तीसरा कदम है।
वास्तव में खुद को जानने का अर्थ है परमेश्वर के वचनों के आधार पर अपने भ्रष्ट स्वभाव पर चिंतन कर उसे जानना और उससे अपने भ्रष्ट सार और अपनी भ्रष्टता के तथ्य का ज्ञान प्राप्त करना। जब व्यक्ति ऐसा करता है, तो वह पूरी स्पष्टता के साथ मानवजाति की भ्रष्टता की अत्यधिक गहराई देखेगा—वह देखेगा कि लोग उस तरह से नहीं जीते, जैसा कि उनसे अपेक्षित है, और मानवता सिर्फ भ्रष्ट स्वभावों को जीती है, और मनुष्य में जरा-सा भी जमीर या विवेक नहीं है। वह देखेगा कि चीजों के बारे में लोगों के सभी विचार शैतान के हैं, और यह कि उनमें से कोई भी सही या सत्य के अनुरूप नहीं है, और लोगों की प्राथमिकताएँ, अनुसरण, और वे रास्ते जो वे चुनते हैं, उन सबमें शैतान के विषों की मिलावट होती है, और इन सबमें मनुष्य की असंयमित इच्छाएँ और आशीष प्राप्त करने का इरादा रहता है। वह देखेगा कि मनुष्य जो स्वभाव प्रकट करता है वह हूबहू शैतान का स्वभाव और प्रकृति सार होता है। खुद को इस हद तक जानना कोई साधारण बात नहीं है; इसे सिर्फ परमेश्वर के वचनों के आधार पर ही प्राप्त किया जा सकता है। अगर यह परंपरागत संस्कृति के नैतिक सिद्धांतों, कथनों और विचारों के आधार पर किया जाए, तो क्या कोई सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त कर पाएगा? बिल्कुल नहीं। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव इन शैतानी फलसफों और सिद्धांतों के भीतर से आया है। क्या अपना आत्मज्ञान शैतान की इन चीजों पर आधारित करना बेतुका नहीं होगा? क्या यह कोरी बकवास नहीं होगी? इसलिए, आत्मज्ञान को परमेश्वर के वचनों पर आधारित होना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं, और केवल परमेश्वर के वचन ही वह मानदंड हैं जिसके द्वारा सभी लोगों, मामलों और चीजों को मापा जाता है। अगर तुम वास्तव में देखते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और वे ही एकमात्र सही आधार हैं जिस पर सभी लोगों, मामलों और चीजों को मापा जा सकता है, तो तुम्हारे पास आगे बढ़ने का मार्ग है। तब तुम प्रकाश में जी सकते हो, जो कि परमेश्वर के सामने जीना है। जब लोग परमेश्वर के वचनों के भीतर अपने भ्रष्ट सार का सच्चा ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो वे बाद में कैसे व्यवहार और अभ्यास करेंगे? (वे प्रायश्चित करेंगे।) यह सही है। जब व्यक्ति अपने प्रकृति सार को जान लेता है तो उसके दिल में सहज रूप से ग्लानि पैदा होगी और वह पश्चात्ताप करने लगेगा। इसका मतलब यह है कि वह अपने भ्रष्ट स्वभावों से छुटकारा पाने की कोशिश करेगा, और अब शैतानी स्वभावों के अनुसार नहीं जिएगा। इसके बजाय वह परमेश्वर के वचनों के अनुसार जिएगा और आचरण करेगा, और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में सक्षम होगा। यही सच्चा पश्चात्ताप है। यह सत्य के अनुसरण का चौथा चरण है। तुम सभी लोगों को स्पष्ट है कि सच्चा पश्चात्ताप क्या होता है, तो अब, तुम्हें इसका अभ्यास कैसे करना चाहिए? खुद को बदलने का अभ्यास करो। इसका अर्थ है उन चीजों को छोड़ देना, जिनसे तुम चिपके हो और जिन्हें तुम सही समझते हो, शैतानी स्वभाव के अनुसार न जीना, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार होना। खुद को बदलने का यही मतलब है। विशेष रूप से, तुम्हें पहले खुद को नकारना चाहिए और परमेश्वर के वचनों के आधार पर यह विवरण देना चाहिए कि तुम्हारे विचार, मत, कार्य और कर्म सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, और वे कैसे उत्पन्न हुए। अगर तुम यह निर्धारित करते हो कि ये चीजें भ्रष्ट स्वभाव की देन हैं और शैतानी फलसफों से पैदा हुई हैं, तो तुम्हें उनके प्रति निंदा और धिक्कार का रवैया अपनाना चाहिए। ऐसा करना दैहिक इच्छाओं और शैतान से विद्रोह करने में मददगार है। यह किस प्रकार का व्यवहार है? क्या यह अपने भ्रष्ट स्वभाव को नकारना, परित्याग करना, छोड़ना और उससे विद्रोह करना नहीं है? जिन चीजों को तुम सही मानते हो उन्हें नकारना, अपने स्वार्थ त्यागना, अपने गलत इरादों से विद्रोह करना और इस प्रकार अपनी राह में बदलाव करना इतना सरल नहीं है, और इससे जुड़े कई महीन ब्योरे हैं। अगर तुम पश्चात्ताप करने के इच्छुक हो लेकिन तुम बस मुँहजुबानी यह कहते हो और अपने भ्रष्ट स्वभाव को नकारते, त्यागते, छोड़ते नहीं या उससे विद्रोह नहीं करते तो यह पश्चात्ताप की निशानी नहीं है, और तुमने व्यावहारिक रूप से अभी तक पश्चात्ताप शुरू नहीं किया है। सच्चे पश्चात्ताप की निशानी क्या है? पहले, तुम उन चीजों से इनकार करते हो जिन्हें तुम सही मानते हो, उदाहरण के लिए : परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएँ और उससे की जाने वाली माँगें, साथ ही चीजों पर तुम्हारे विचार, समस्याओं से निपटने के तुम्हारे तरीके और उपाय, तुम्हारा इंसानी अनुभव, आदि। इन सभी चीजों से इनकार करना हृदय से पश्चात्ताप करने और परमेश्वर की ओर मुड़ने का एक ठोस अभ्यास है। तुम गलत चीजें तभी छोड़ सकते हो, जब तुम उनकी असलियत देखकर उन्हें नकार देते हो। अगर तुम इन चीजों को नहीं नकारते, और अभी भी उन्हें अच्छा और सही मानते हो, तो तुम उन्हें नहीं छोड़ पाओगे, तब भी नहीं जब दूसरे तुमसे ऐसा करने को कहेंगे। तुम कहोगे, “मैं अत्यधिक सुशिक्षित हूँ, और मेरे पास अनुभव का खजाना है। मेरा मानना है कि ये चीजें सही हैं, मैं इन्हें क्यों छोड़ दूँ?” अगर तुम अपने तरीकों से चिपके रहते हो और ऐसा करने में लगे रहते हो, तो क्या तुम सत्य स्वीकार पाओगे? यह कतई आसान नहीं होगा। अगर तुम सत्य प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले उन चीजों से इनकार करना चाहिए जो तुम्हें सही और सकारात्मक लगती हैं, फिर स्पष्ट रूप से देखो कि ये चीजें सार रूप में नकारात्मक हैं, कि ये शैतान द्वारा उत्पन्न होती हैं, कि ये सभी ऊपर से अच्छी दिखने वाली भ्रांतियाँ हैं—और कि शैतानी चीजें थामे रहना तुम्हें केवल बुराई करने, परमेश्वर का विरोध करने और अंततः दंडित और नष्ट किए जाने की ओर ले जाएगा। अगर तुम स्पष्ट रूप से देख पाओ कि जिन विचारों और विषों से शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करता है, वे मनुष्य को बरबादी की ओर ले जाने में सक्षम हैं, तो तुम उन्हें पूरी तरह से त्याग पाओगे। बेशक नकारना, त्यागना, छोड़ना, विद्रोह करना आदि सभी वे रवैये और तरीके हैं जिन्हें व्यक्ति शैतान की ताकतों और प्रकृति के साथ ही उन फलसफों, तर्क, विचारों और दृष्टिकोणों के खिलाफ अपनाता है, जिनका उपयोग शैतान लोगों को गुमराह करने के लिए करता है। जैसे कि अपनी देह के हित छोड़ना; अपनी देह की प्राथमिकताएँ और अनुसरण त्यागना; शैतान के फलसफे, विचारों, पाखंड और भ्रांतियों को त्यागना; शैतान के प्रभाव और उसकी दुष्ट शक्तियों से विद्रोह करना। अभ्यासों की यह पूरी शृंखला, वे सभी तरीके और मार्ग हैं, जिनके द्वारा लोग पश्चात्ताप का अभ्यास कर सकते हैं। सच्चे पश्चात्ताप में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति को बहुत-से सत्य समझने चाहिए, तभी वह खुद को पूरी तरह से नकार कर अपनी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर सकता है। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम मानते हो कि तुम जानकार और अनुभव में समृद्ध हो, और तुम्हें परमेश्वर के घर की परिसंपत्ति और बहुत उपयोगी होना चाहिए। और फिर भी, सत्य के बारे में कई वर्षों तक उपदेश सुनने और कुछ सत्य समझने के बाद, तुम्हें लगता है कि तुम्हारा ज्ञान और सीख बेकार हैं और परमेश्वर के घर के लिए जरा भी काम के नहीं है। तुम महसूस करते हो कि यह सत्य और परमेश्वर के वचन ही हैं जो लोगों को बचा सकते हैं, और यह सत्य ही है जो व्यक्ति का जीवन हो सकता है। तुम्हें यह महसूस होने लगता है कि किसी व्यक्ति के पास कितना भी ज्ञान या अनुभव हो, इसका मतलब यह नहीं कि उसके पास सत्य है, और इंसानी चीजें इंसानी धारणाओं के चाहे कितने भी समनुरूप हों, वे सत्य नहीं हैं। तुम महसूस करते हो कि ये सभी चीजें शैतान से आती हैं, और ये सभी नकारात्मक चीजें हैं जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं है। तुम कितने भी शिक्षित, ज्ञानी और अनुभवी क्यों न हो, अगर तुम्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है और तुम सत्य को नहीं समझ सकते, तो इसका कोई फायदा नहीं। अगर तुम्हें अगुआ के रूप में सेवा करनी हो, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं होगी और तुम समस्याएँ हल करने में सक्षम नहीं होगे। अगर तुम्हें एक अनुभवजन्य गवाही लिखनी हो, तो तुम्हारे मुँह से शब्द न निकलेगा। अगर तुम्हें परमेश्वर के लिए गवाही देनी हो, तो तुम्हें उसके बारे में ज्ञान नहीं होगा। अगर तुम्हें सुसमाचार फैलाना हो, तो तुम लोगों की धारणाओं का समाधान करने के लिए सत्य पर संगति करने में असमर्थ होगे। अगर तुम्हें नवागतों का सिंचन करना हो, तो तुम्हें दर्शनों के सत्य के बारे में स्पष्टता नहीं होगी और तुम केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कर पाओगे। अगर तुम अपनी धारणाएँ दूर नहीं कर सकते तो तुम नए विश्वासियों की धारणाओं का समाधान कैसे कर सकते हो? तुम इनमें से कोई काम नहीं कर सकते—तो तुम क्या कर सकते हो? अगर तुमसे मेहनत-मजदूरी करने के लिए कहा जाए, तो तुम इसे अपनी प्रतिभा की बरबादी समझोगे। तुम कहते हो कि तुम प्रतिभाशाली हो, फिर भी तुम कोई कार्य नहीं कर सकते और न ही कोई कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो—तो तुम आखिर क्या कर सकते हो? ऐसा नहीं है कि परमेश्वर का घर तुम्हें उपयोग में लाना नहीं चाहता, बात तो यह है कि जो कर्तव्य तुम्हें निभाना था, उसे तुमने निभाया नहीं। तुम इसके लिए कलीसिया को दोष नहीं दे सकते। फिर भी, तुम अपने मन में सोच सकते हो, “क्या परमेश्वर मनुष्य से बहुत अधिक अपेक्षा नहीं करता? ये अपेक्षाएँ पूरी करना मेरे बस के बाहर है। मुझसे इतनी माँग क्यों की जाती है?” अगर कोई परमेश्वर के बारे में इतनी बड़ी गलतफहमी पालता है, तो यह साबित करता है कि उसे परमेश्वर का कोई ज्ञान नहीं और वह सत्य लेशमात्र भी नहीं समझता। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे विचार सही हैं और उन्हें पलटने की आवश्यकता नहीं है, और अगर तुम सैद्धांतिक रूप से स्वीकार करते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, लेकिन तुम जिस कचरे से चिपके हुए हो उसे नहीं छोड़ पाते, तो यह दर्शाता है कि तुम अभी तक सत्य नहीं समझते। तुम्हें परमेश्वर के सामने आकर सत्य पर और अधिक खोज करनी चाहिए, और तुम्हें उसके वचन और अधिक पढ़ने चाहिए और अधिक उपदेश सुनने चाहिए और संगति करनी चाहिए, तब तुम धीरे-धीरे समझ जाओगे कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। एक व्यक्ति के रूप में सत्य और परमेश्वर के साथ पेश आने का तुम्हारा पहला तरीका समर्पण का होना चाहिए। यह मनुष्य का अपरिहार्य कर्तव्य है। अगर तुम इन चीजों को समझने में सक्षम हो, तो इसका अर्थ है कि तुम अपनी राह बदल रहे हो। अपनी राह बदलना ही पश्चात्ताप के लिए अभ्यास का मार्ग है; यह उन चीजों को पूरी तरह से त्यागना है जिन्हें तुमने कभी सही समझा था, जो शैतान से आती हैं, और उस मार्ग को नए सिरे से चुनना है जिस पर तुम चलोगे। यह परमेश्वर के वचनों को उसकी अपेक्षाओं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अमल में लाना और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलना है। अपनी राह बदलने का यही अर्थ है। यह वास्तव में परमेश्वर के सामने आना और पश्चात्ताप की वास्तविकता में प्रवेश करना है। जब व्यक्ति सत्य को अमल में ला सकता है, तो यह कहने की जरूरत नहीं होती कि उसने सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर सच्चा पश्चात्ताप कर लिया है। जब मनुष्य वास्तव में पश्चात्ताप करता है, तभी कहा जा सकता है कि वह उद्धार के मार्ग पर चल पड़ा है। ऐसा करना सत्य का अनुसरण करने के चौथे कदम में संलग्न होना है।
जब व्यक्ति वास्तव में पश्चात्ताप कर लेता है, तो वह सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल चुका होगा, वह मूल रूप से परमेश्वर के कार्य के बारे में कोई धारणा या गलतफहमी नहीं पालेगा, वह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार होगा, और वह परमेश्वर के कार्य का औपचारिक रूप से अनुभव करना शुरू कर देगा। व्यक्ति के परमेश्वर में पहली बार विश्वास करने लगने और उसके औपचारिक रूप से परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने के बीच परिवर्तन की एक लंबी अवधि होती है। परिवर्तन की यह अवधि वह चरण है, जो व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने से लेकर तब तक चलता है, जब तक वह वास्तव में पश्चात्ताप नहीं कर लेता। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह परमेश्वर की न्याय और ताड़ना को लेशमात्र भी नहीं स्वीकारेगा, न ही थोड़ा-भी सत्य स्वीकारेगा, और वह कभी खुद को जानने में सक्षम नहीं होगा। ऐसे लोगों को हटा दिया जाएगा। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, तो परमेश्वर के वचन पढ़ने और उपदेश सुनने के द्वारा वह समान रूप से वास्तव में कुछ हासिल करने में सक्षम होगा, और यह जानेगा कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य को बचाने का है, और आत्मचिंतन कर जिन सत्यों को वह समझता है उनमें खुद को जानेगा; वह अपने भ्रष्ट स्वभावों से ज्यादा से ज्यादा घृणा करने लगेगा और सत्य में और ज्यादा रुचि लेने लगेगा, वह अनजाने ही सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त कर लेगा, और वह वास्तव में पछताएगा और पश्चात्ताप करेगा। जब सत्य से प्रेम करने वाले लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते या उपदेश सुनते हैं, तो वे स्वाभाविक रूप से ऐसे परिणाम प्राप्त करते हैं। वे धीरे-धीरे खुद को जानने लगते हैं और सच्चा पश्चात्ताप हासिल कर लेते हैं। जब व्यक्ति वास्तव में पश्चात्ताप कर लेता है, तो उसे कैसे अभ्यास करना चाहिए? उसे सभी चीजों में सत्य खोजना चाहिए; उस पर चाहे जो भी विपत्ति आए, उसे परमेश्वर के वचनों के आधार पर सिद्धांत और अभ्यास के मार्ग खोजने में सक्षम होना चाहिए, और फिर सत्य का अभ्यास शुरू कर देना चाहिए। यह सत्य का अनुसरण करने का पाँचवाँ कदम है। सत्य खोजने का क्या उद्देश्य है? सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करना। पर सत्य का अभ्यास व्यक्ति को सत्य सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए। सिर्फ यही सत्य का सटीक अभ्यास है; सिर्फ यही व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति दिलाता है। इसीलिए सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाना ही वह उद्देश्य है जिसे सत्य का अनुसरण करने से हासिल किया जाना है। इस कदम तक पहुँचने का अर्थ है कि व्यक्ति सत्य का अभ्यास करने की वास्तविकता में प्रवेश कर चुका है। सत्य की खोज मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए की जाती है। जब व्यक्ति सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होता है, तो उसके भ्रष्ट स्वभाव स्वाभाविक रूप से दूर हो जाएँगे, और उसके सत्य का अभ्यास करने से वह परिणाम प्राप्त होता है जिसकी परमेश्वर माँग करता है। यही वह प्रक्रिया है, जो सच्चे पश्चात्ताप से सत्य का अभ्यास करने तक ले जाती है। भ्रष्ट स्वभावों के बीच रहना शैतान की शक्ति के अधीन रहना था, अपने सभी कार्यों और व्यवहारों की परमेश्वर द्वारा निंदा और तिरस्कार किया जाना था; अब, सत्य स्वीकारने में सक्षम होना, वास्तव में पश्चात्ताप कर लेना, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना, और उसके वचनों के अनुसार जीना—बेशक, इसे परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। सत्य का अनुसरण करने वालों को अक्सर आत्मचिंतन करना चाहिए। उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव स्वीकारने चाहिए और परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारनी चाहिए, उन्हें अपने भ्रष्ट सार का सच्चा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और पश्चात्ताप करने वाला हृदय विकसित करना चाहिए; पश्चात्ताप करने के बाद उन्हें सभी चीजों में सत्य खोजना शुरू करना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करना चाहिए। सत्य का अनुसरण करना और व्यक्ति के जीवन-प्रवेश का धीरे-धीरे गहरा होना यही हासिल कर सकता है। अगर व्यक्ति वास्तव में खुद को नहीं जानता, तो उसके लिए परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के प्रति समर्पण करना या वास्तव में पश्चात्ताप करना असंभव है। और अगर व्यक्ति वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करता, तो वह शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता रहेगा। उसमें सच्चा बदलाव नहीं आएगा, चाहे वह कितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास कर ले। बस, उसका व्यवहार थोड़ा बदल जाएगा। सत्य का अनुसरण न करने वालों के लिए सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करना असंभव है, इसलिए यह निश्चित है कि उनके कार्य और व्यवहार अभी भी भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन ही होंगे, ये चीजें सत्य के साथ असंगत और परमेश्वर की विरोधी ही होंगी। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकार सकते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्याग सकते हैं, सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं, और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण हासिल कर सकते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे तब सत्य खोजेंगे, जब ऐसी चीजें होंगी जो उन्हें अस्पष्ट होंगी। वे अब अपने लिए साजिश नहीं करेंगे और परमेश्वर के प्रति सुसंगत हृदय के साथ सभी बुराइयों से दूर रहेंगे। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे परमेश्वर के प्रति और ज्यादा समर्पित हो जाते हैं, और वे परमेश्वर का भय मान सकते हैं और बुराई से दूर रह सकते हैं, और पहले से भी ज्यादा उस तरह रह सकते हैं जैसा मनुष्य से अपेक्षित है। ऐसे बदलाव उन लोगों के लिए असंभव हैं, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे किसका अनुसरण करते हैं? वे प्रतिष्ठा, लाभ और रुतबे का अनुसरण करते हैं; वे आशीषों और पुरस्कारों का अनुसरण करते हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ लगातार बढ़ती जाती हैं, और जीवन में उनके पास सही लक्ष्य नहीं होता। वे चाहे किसी भी चीज का अनुसरण करना चाहते हों, अगर वे अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते तो वे हार नहीं मानते, और अपना विचार तो वे बिल्कुल भी नहीं बदलते। जैसे ही परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं और हालात सही होते हैं, वे बुराई करने और परमेश्वर का विरोध करने में सक्षम हो जाते हैं, और वे एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास कर सकते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला या उसके प्रति समर्पण करने वाला दिल नहीं होता, और अंत में तमाम बुराइयाँ करने और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने के लिए वह उन्हें सिर्फ मिटा ही सकता है। सत्य का अनुसरण न करने वाले सभी लोग सत्य-विमुख होते हैं और सभी सत्य-विमुख लोग बुराई-प्रेमी होते हैं। अपनी आत्माओं और हड्डी और रक्त में वे सिर्फ प्रतिष्ठा, लाभ, रुतबे और प्रभाव का सम्मान करते हैं; वे शैतानी स्वभावों के अनुसार जीने और अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए स्वर्ग, पृथ्वी और मनुष्य के खिलाफ लड़ने में खुश रहते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा जीवन आनंदपूर्ण है; वे एक उत्कृष्ट व्यक्ति के रूप में जीना और एक नायक के रूप में मरना चाहते हैं। जाहिर है, वे विनाश के शैतानी मार्ग पर चल रहे हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले जितना ज्यादा उसे समझते हैं, उतना ही ज्यादा वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं और महसूस करते हैं कि सत्य कितना मूल्यवान है। वे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारने के इच्छुक होते हैं, और चाहे वे कितनी भी कठिनाइयाँ सहें, वे सत्य का अनुसरण करने और उसे प्राप्त करने के लिए संकल्पित होते हैं। इसका अर्थ है कि वे उद्धार और पूर्णता के मार्ग पर चल पड़े हैं, और वे परमेश्वर के साथ सुसंगत होने में सक्षम हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हैं, वे सृजित प्राणी के रूप में अपने मूल आसन पर लौट आए हैं और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है। वे उचित रूप से परमेश्वर की अगुआई, मार्गदर्शन और आशीष प्राप्त कर सकते हैं, और परमेश्वर अब उनका तिरस्कार नहीं करता। यह कैसी अद्भुत बात है! जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ सकते, इसलिए उनका हृदय परमेश्वर से और भी दूर हो जाता है, और वे सत्य से विमुख होकर उसे नकार देते हैं। नतीजतन, वे परमेश्वर के प्रति अधिकाधिक प्रतिरोधी होते जाते हैं और उसके विरोध के मार्ग पर चल पड़ते हैं। वे बिल्कुल पौलुस की तरह होते हैं, खुले तौर पर परमेश्वर से अपना इनाम माँगते हैं। अगर वह उन्हें नहीं मिलता, तो वे परमेश्वर के साथ बहस करने और उसका विरोध करने का प्रयास करते हैं, और अंत में, मसीह-विरोधी बनकर शैतान का घृणित चेहरा पूरी तरह से उजागर कर देते हैं, जिसके बाद परमेश्वर उन्हें शाप देकर नष्ट कर देता है। दूसरी ओर, जो सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हैं, वे सत्य स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित हो सकते हैं। वे अपना शैतानी भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकते हैं, वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर के प्रेम का प्रतिफल देने के लिए सब-कुछ त्यागने को तैयार रहते हैं, और वे ऐसे लोग बनने में सक्षम हैं, जो परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसकी आराधना करते हैं। जो व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार है, और जो पूरी तरह से ऐसा करता है, वह एक सृजित प्राणी के मूल आसन पर पूरी तरह से वापस आ गया है, और वह हर चीज में परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम है। इसका अर्थ है कि उसमें मूलभूत इंसानी सदृशता है। सच्चे रूप से मानव के समान होने का क्या अर्थ होता है? ऐसा तब होता है जब व्यक्ति अय्यूब और पतरस की तरह सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण कर उसका भय मानता है। ऐसे ही लोगों पर परमेश्वर वास्तव में आशीष बरसाता है।
आज हमने सत्य का अनुसरण करने के जिन प्रमुख कदमों के बारे में संगति की है, वे इतने सरल हैं। उन कदमों को मेरे सामने दोहराओ। (पहला, परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्मचिंतन करो; दूसरा, उन तथ्यों को मानो और स्वीकारो जिन्हें परमेश्वर के वचन प्रकट करते हैं; तीसरा, अपने भ्रष्ट स्वभाव और सार को जानो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव और शैतान से घृणा करना शुरू करो; चौथा, पश्चात्ताप का अभ्यास करो और अपने सभी बुरे कर्म एक तरफ कर दो; पाँचवाँ, सत्य सिद्धांत खोजो और सत्य पर अमल करो।) यही वो पाँच कदम हैं। भ्रष्ट स्वभावों के बीच रहने वाले लोगों के लिए इनमें से प्रत्येक कदम का अभ्यास करना बहुत कठिन है, प्रत्येक कदम में कई बाधाएँ और कठिनाइयाँ शामिल हैं, और इन सभी का अभ्यास कर उन्हें प्राप्त करने के लिए कठिन श्रम करना आवश्यक है, और निश्चित रूप से, व्यक्ति मार्ग में कुछ असफलताएँ और नाकामियाँ अनुभव करने से नहीं बच सकता—लेकिन मैं तुम लोगों से यही कहूँगा : हिम्मत मत हारो। हालाँकि दूसरे लोग यह कहते हुए तुम्हारी निंदा कर सकते हैं, “तुम तो गए काम से,” “तुम बेकार हो,” “तुम ऐसे ही हो—तुम इसे नहीं बदल सकते”—उनके शब्द कितने भी अप्रिय क्यों न हों, तुम्हें अपनी सूझ-बूझ में स्पष्ट होना चाहिए। हिम्मत मत हारो, और हार मत मानो, क्योंकि सिर्फ सत्य का अनुसरण करने का मार्ग, सिर्फ इन कदमों का प्रवेश और अभ्यास ही वास्तव में तुम्हें अपनी विपदा से बचने में सक्षम बनाएगा। चतुर लोग अपनी सारी कठिनाइयाँ एक ओर रख देना पसंद करेंगे; वे असफलताओं और नाकामियों से बचने की कोशिश नहीं करेंगे, और वे आगे बढ़ते रहेंगे, चाहे यह कितना भी कठिन क्यों न हो। भले ही तुम तीन या पाँच वर्षों तक खुद को जानने-परखने के चरण पर ही रहते हो या आठ-दस वर्ष बाद भी तुम सिर्फ यही जान पाते हो कि तुममें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं लेकिन तुम सत्य को नहीं समझ पाते या अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ पाते, तो भी मैं तुम लोगों से एक ही बात कहूँगा : हिम्मत न हारो। भले ही तुम अभी तक असल बदलाव ला पाने में सक्षम नहीं हो, लेकिन तुम पहले तीन कदमों में पहले ही प्रवेश कर चुके हो, तो बाकी बचे दो कदमों में प्रवेश न कर पाने की चिंता क्यों करते हो? चिंता मत करो; कड़ी मेहनत करो, ज्यादा जोर लगाओ और तुम वहाँ पहुँच ही जाओगे। कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो चौथे कदम—पश्चात्ताप पर आ जाते हैं, लेकिन वे सत्य सिद्धांत खोजने से पीछे रह जाते हैं और इस कदम में प्रवेश नहीं कर पाते। तब क्या करना चाहिए? तुम्हें भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। जब तक तुममें ऐसा करने की इच्छा है, तब तक तुम्हें सभी चीजों में सत्य खोजने के अनुसरण में लगे रहना चाहिए, और परमेश्वर से ज्यादा प्रार्थना करनी चाहिए—ऐसा करना अक्सर फलदायी होता है। अपनी क्षमता और परिस्थितियों के आधार पर जितनी अच्छी तरह तुम कर सकते हो, उतनी अच्छी तरह से कोशिश करो, और जो तुम हासिल कर सकते हो, उसे हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करो। जब तक तुम वह सब करते रहते हो जो तुम कर सकते हो, तुम्हारा जमीर साफ रहता है और तुम निश्चित रूप से ज्यादा लाभ प्राप्त करने में सक्षम होगे। एक भी और सत्य समझ सको तो यह अच्छी बात है—तुम्हारा जीवन इससे थोड़ा ज्यादा सुखी और थोड़ा ज्यादा आनंदमय हो जाएगा। संक्षेप में, सत्य का अनुसरण कोई खोखली चीज नहीं है; इसके प्रत्येक कदम के लिए अभ्यास का एक विशिष्ट मार्ग है, और इसके लिए लोगों को कुछ दर्द सहने और एक निश्चित कीमत चुकाने की आवश्यकता होती है। सत्य अकादमिक अध्ययन का क्षेत्र या कोई सिद्धांत या नारा या तर्क नहीं है; यह खोखला नहीं है। प्रत्येक सत्य को समझने और जानने से पहले लोगों को कई वर्षों तक उसका अनुभव और अभ्यास करने की आवश्यकता होती है। लेकिन चाहे तुम कोई भी कीमत चुकाओ या कोई भी प्रयास करो, अगर तुम्हारा दृष्टिकोण, तरीका, मार्ग और दिशा सही हैं, तो देर-सवेर वह दिन आएगा जब तुम एक बड़ा इनाम पाओगे, सत्य प्राप्त करोगे, और परमेश्वर को जानने और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम होगे—और इस तरह तुम पूरी तरह से संतुष्ट होगे।
8 जनवरी 2022
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