सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1) भाग दो
कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर मनमाने और लापरवाह ढंग से कार्य करते हैं। वे बेहद सनकी होते हैं : जब वे खुश होते हैं तो अपने कर्तव्य का थोड़ा-सा पालन करते हैं, और जब खुश नहीं होते तो रूठ जाते हैं और कहते हैं, “आज मेरा मूड खराब है। मैं कुछ नहीं खाऊँगा और अपना कर्तव्य नहीं निभाऊँगा।” तब दूसरों को उनसे बात करके कहना पड़ता है : “यह नहीं चलेगा। तुम इतने सनकी नहीं हो सकते।” और वे लोग इस पर क्या कहेंगे? “मुझे पता है कि यह नहीं चलेगा, लेकिन मैं एक धनी, विशिष्ट परिवार में पला-बढ़ा हूँ। मेरे दादा-दादी और चाची-ताई सबने मुझे लाड़-प्यार कर बिगाड़ दिया, और मेरे माता-पिता की तो पूछो ही मत। मैं उनका दुलारा था, उनकी आँख का तारा, और उन्होंने मेरी हर बात मानी और मुझे बिगाड़ा। मेरा यह सनकी मिजाज उसी परवरिश की देन है, इसलिए जब मैं परमेश्वर के घर में कोई कर्तव्य निभाता हूँ, तो मैं दूसरों के साथ चीजों पर चर्चा नहीं करता, या सत्य नहीं खोजता, या परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं होता। क्या इसके लिए मैं दोषी हूँ?” क्या उनकी समझ सही है? क्या उनका रवैया सत्य का अनुसरण करने वाला है? (नहीं।) जब भी कोई उनकी थोड़ी-सी भी गलती सामने लाता है, जैसे कि कैसे वे भोजन करते समय सबसे अच्छे खाद्य पदार्थ झटक लेते हैं, कैसे वे सिर्फ अपनी परवाह करते हैं और दूसरों के बारे में नहीं सोचते, तो वे कहते हैं, “मैं बचपन से ऐसा ही हूँ। मैं इसका आदी हूँ। मैंने कभी दूसरे लोगों के बारे में नहीं सोचा। मैंने हमेशा एक विशिष्ट जीवन जिया है, ऐसे माता-पिता के साथ जो मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसे दादा-दादी के साथ जो मुझसे लाड़-प्यार करते हैं। मैं अपने पूरे परिवार की आँख का तारा हूँ।” यह ढेर सारी बकवास और भ्रांति है। क्या यह बेशर्मी और सरेआम निर्लज्जता नहीं है? तुम्हारे माता-पिता तुमसे लाड़ करते हैं—क्या इसका मतलब यह है कि बाकी सभी को भी ऐसा करना चाहिए? तुम्हारे रिश्तेदार तुमसे प्रेम करते हैं और तुमसे लाड़ करते हैं—क्या यह तुम्हें परमेश्वर के घर में लापरवाही और मनमानी करने का कारण देता है? क्या यह वाजिब कारण है? क्या अपने भ्रष्ट स्वभाव के प्रति यह सही रवैया है? क्या यह सत्य का अनुसरण करने का दृष्टिकोण है? (नहीं।) जब इन लोगों पर कोई चीज आकर पड़ती है, जब उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव या अपने जीवन से संबंधित कोई समस्या होती है, तो वे उसका उत्तर देने के लिए, उसे समझाने के लिए, उसे सही ठहराने के लिए वस्तुगत कारण खोजते हैं। वे कभी सत्य नहीं खोजते या परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, और आत्मचिंतन करने के लिए परमेश्वर के सामने नहीं आते। आत्म-चिंतन के बिना क्या कोई अपनी समस्याएँ और भ्रष्टता जान सकता है? (नहीं।) और अपनी भ्रष्टता जाने बिना क्या वह पश्चात्ताप कर सकता है? (नहीं।) अगर कोई पश्चात्ताप नहीं कर सकता, तो वह कौन-सी स्थिति है जिसमें वह निरपवाद रूप से रह रहा होगा? क्या यह खुद को क्षमा करने की स्थिति नहीं होगी? यह महसूस करने की स्थिति नहीं होगी कि भले ही उन्होंने भ्रष्टता दिखाई है, पर उन्होंने बुराई नहीं की है या प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं किया है—कि भले ही ऐसा करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था, पर यह जानबूझकर नहीं किया गया था, और यह क्षम्य है? (हाँ।) अच्छा, क्या सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति की इस तरह की स्थिति होनी चाहिए? (नहीं।) अगर कोई वास्तव में कभी पश्चात्ताप नहीं करता और हमेशा इसी तरह की स्थिति में रहता है, तो क्या वह खुद को बदलने में सक्षम होगा? नहीं, वह कभी सक्षम नहीं होगा। और अगर व्यक्ति खुद को नहीं बदलता, तो वह वास्तव में अपनी बुराई छोड़ने में असमर्थ होगा। वास्तव में अपनी बुराई छोड़ने में असमर्थ होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि व्यक्ति वास्तव में सत्य का अभ्यास कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकता। यह परिणाम स्पष्ट है। अगर तुम अपनी बुराई नहीं छोड़ सकते या सत्य का अभ्यास कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते, फिर भी चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन बदल ले, तुम्हें पवित्र आत्मा का कार्य हासिल हो जाए, परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त हो जाए, और परमेश्वर तुम्हारे अपराध क्षमा कर तुम्हारी भ्रष्टता दूर कर दे, तो क्या यह संभव है? (नहीं।) अगर यह संभव नहीं, तो क्या परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास तुम्हारे उद्धार में परिणत हो सकता है? (नहीं।) अगर व्यक्ति खुद को क्षमा करने और सराहने की स्थिति में जीता है, तो वह सत्य का अनुसरण करने में मीलों पीछे रह जाता है। जिन चीजों में वह खुद को व्यस्त रखता है, जिन्हें देखने, सुनने और करने के लिए दौड़ता है, वे कुछ हद तक परमेश्वर में विश्वास करने से संबंधित हो सकती हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण या उसका अभ्यास करने से उनका कोई लेना-देना नहीं है। यह परिणाम स्पष्ट है। और चूँकि वे सत्य का अनुसरण या अभ्यास करने से संबंधित नहीं हैं, इसलिए उस व्यक्ति ने आत्मचिंतन नहीं किया होगा, न ही उसे आत्मज्ञान होगा। वह नहीं जान पाएगा कि वह किस हद तक भ्रष्ट हो चुका है, और वह नहीं जान पाएगा कि पश्चात्ताप का अभ्यास कैसे किया जाए, इसलिए इस बात की संभावना और भी कम है कि उसे सच्चा पश्चात्ताप हासिल होगा या परमेश्वर उसके बारे में अपना मन बदल लेगा। अगर तुम ऐसी स्थिति में रहते हो और चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन बदल ले, तुम्हें क्षमा कर दे या तुम्हारा अनुमोदन करे, तो यह वास्तव में कठिन होगा। यहाँ “अनुमोदन” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि तुम जो करते हो, परमेश्वर उसे स्वीकारता है, उसका अनुमोदन करता है और उसे याद रखता है। अगर तुम इनमें से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते, तो यह साबित करता है कि तुम जो कुछ भी करते हो उसमें, अपने परिश्रम में, अपने उद्गारों और व्यवहार में सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे। चाहे तुम कुछ भी सोचो, यहाँ तक कि चाहे तुम कुछ अच्छे व्यवहार करने में भी सक्षम रहो, ये व्यवहार सिर्फ यह दर्शाते हैं कि तुम्हारी मानवता के भीतर थोड़ा जमीर और विवेक है। लेकिन ये अच्छे व्यवहार सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति नहीं हैं, क्योंकि तुम्हारा आरंभ-बिंदु, इरादे और मंशाएँ सत्य का अनुसरण करने वाले नहीं हैं। ऐसा कहने के क्या आधार हैं? आधार ये हैं कि तुम्हारा कोई भी विचार, क्रियाकलाप या कर्म सत्य के अनुसरण के लिए नहीं है, और उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। व्यक्ति जो कुछ भी करता है, अगर वह परमेश्वर की स्वीकृति और मान्यता प्राप्त करने के लिए नहीं होता, तो वह जो कुछ भी करता है, वह परमेश्वर की स्वीकृति या मान्यता प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगा, और यह स्पष्ट है कि ये व्यवहार और अभ्यास सिर्फ अच्छे इंसानी व्यवहार ही कहे जा सकते हैं। वे इस बात के संकेत नहीं कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है, और इस बात के संकेत निश्चित रूप से नहीं कि वह सत्य का अनुसरण कर रहा है। जो लोग विशेष रूप से सनकी होते हैं और अक्सर लापरवाह और मनमाने ढंग से व्यवहार करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना नहीं स्वीकारते, न ही वे अपनी काट-छाँट स्वीकारते हैं। वे अक्सर सत्य का अनुसरण न कर पाने और अपनी काट-छाँट न स्वीकार पाने के लिए बहाने भी बनाते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? जाहिर है, यह सत्य-विमुख स्वभाव है—शैतान का स्वभाव है। मनुष्य में शैतान की प्रकृति और उसका स्वभाव है, इसलिए निस्संदेह लोग शैतान के हैं। वे दानव हैं, शैतान के वंशज हैं और बड़े लाल अजगर की संतान हैं। कुछ लोग इस बात को स्वीकार कर पाते हैं कि वे दानव हैं, शैतान हैं, और बड़े लाल अजगर की संतान हैं, वे आत्म-ज्ञान के बारे में बहुत सुंदर ढंग से बोलते हैं। लेकिन जब वे कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और कोई उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट करता है, तो वे पूरी ताकत से खुद को सही ठहराने की कोशिश करेंगे और वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे। यहाँ मुद्दा क्या है? इसमें, ये लोग पूरी तरह उजागर हो जाते हैं। खुद को जानने की बात करते हुए वे बहुत ही सुंदर ढंग से बात करते हैं, तो फिर ऐसा क्यों है कि जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे सत्य स्वीकार नहीं पाते? यहाँ एक समस्या है। क्या इस तरह की बात काफी सामान्य नहीं है? क्या इसे समझना आसान है? हाँ, वास्तव में आसान है। काफी लोग ऐसे होते हैं जो आत्मज्ञान की बात करते समय यह मानते हैं कि वे दानव और शैतान हैं, लेकिन बाद में न तो वे पश्चात्ताप करते हैं और न ही बदलते हैं। तो जिस आत्मज्ञान की वे बात करते हैं, वह सच है या झूठ? क्या उन्हें अपने बारे में सच्चा ज्ञान है या यह दूसरों को बरगलाने के लिए बस एक चाल है? उत्तर स्वतः स्पष्ट है। तो यह देखने के लिए कि क्या व्यक्ति के पास सच्चा आत्मज्ञान है, तुम्हें केवल उसके बारे में उसे बात करते नहीं सुनना चाहिए—तुम्हें काट-छाँट के प्रति उसका रवैया देखना चाहिए, और यह भी कि वह सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। जो व्यक्ति अपनी काट-छाँट स्वीकार नहीं करता, उसमें सत्य न स्वीकारने और उसे स्वीकार करने से इंकार करने का सार होता है, और उसका स्वभाव सत्य-विमुख होता है। इसमें कोई संदेह नहीं है। कुछ लोगों ने चाहे कितनी भी भ्रष्टता दिखाई हो, वे दूसरों को अपने साथ काट-छाँट करने की अनुमति नहीं देते—कोई भी उनकी काट-छाँट नहीं कर सकता। वे अपने आत्मज्ञान के बारे में, जैसे चाहें वैसे बोल सकते हैं, लेकिन यदि कोई और उन्हें उजागर करे, उनकी आलोचना करे या उनकी काट-छाँट करे, तो चाहे वह कितना भी निष्पक्ष या तथ्यों के अनुरूप क्यों न हो, वे उसे नहीं स्वीकारेंगे। दूसरा व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव के उनके किसी भी तरह के उद्गार को उजागर करे, वे अत्यंत विरोधी बने रहेंगे और लेशमात्र भी सच्चे समर्पण के बिना, अपने लिए सुनने में अच्छे लगने वाले तर्क देते रहते हैं। अगर ऐसे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो संकट आ पड़ेगा। कलीसिया में उन्हें छू नहीं सकते और वे आलोचना से परे होते हैं। जब लोग उनके बारे में कुछ अच्छा कहते हैं, तो इससे उन्हें खुशी मिलती है; जब लोग उनकी बुराई सामने लाते हैं, तो वे गुस्सा हो जाते हैं। अगर कोई उन्हें उजागर करते हुए कहता है : “तुम एक अच्छे इंसान हो, पर बहुत सनकी हो। तुम हमेशा मनमाने और लापरवाह ढंग से काम करते हो। तुम्हें अपनी काट-छाँट स्वीकारने की जरूरत है। क्या तुम्हारे लिए इन कमियों और भ्रष्ट स्वभावों से छुटकारा पाना बेहतर नहीं होगा?” तो उत्तर में वे कहेंगे, “मैंने कुछ बुरा नहीं किया है। मैंने पाप नहीं किया है। तुम मेरी काट-छाँट क्यों कर रहे हो? जब मैं बच्चा था, तभी से घर पर मेरे माता-पिता और दादा-दादी दोनों ने मुझसे लाड़-प्यार किया है। मैं उनका दुलारा हूँ, उनकी आँखों का तारा हूँ। अब, यहाँ परमेश्वर के घर में, कोई मुझसे बिल्कुल भी लाड़ नहीं करता—यहाँ रहने में कोई मजा नहीं! तुम लोग हमेशा मेरी कोई न कोई गलती पकड़कर मेरी काट-छाँट करने की कोशिश करते हो। मैं इस तरह कैसे जी सकता हूँ?” यहाँ क्या समस्या है? स्पष्ट-दृष्टि वाला व्यक्ति फौरन तुम्हें बता सकता है कि इन लोगों को उनके माता-पिता और परिवार ने बिगाड़ दिया है, और ये अभी भी नहीं जानते कि कैसे खुद को ढालना है या कैसे स्वतंत्र रूप से जीना है। तुम्हारे परिवार ने तुमसे ऐसे प्रेम किया है मानो तुम कोई आदर्श हो और तुम ब्रह्मांड में अपनी जगह नहीं जानते। तुमने अहंकार, आत्म-तुष्टि और अत्यधिक सनकीपन के अवगुण विकसित कर लिए हैं, जिनका तुम्हें नहीं पता और जिन पर चिंतन करना तुम्हें नहीं आता। तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, पर उसके वचन नहीं सुनते या सत्य का अभ्यास नहीं करते। क्या तुम परमेश्वर में इस तरह के विश्वास के साथ सत्य प्राप्त कर सकते हो? क्या तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो? क्या तुम सच्ची इंसानियत को जी सकते हो? हरगिज नहीं। परमेश्वर का विश्वासी होने के नाते तुम्हें कम से कम सत्य स्वीकारना चाहिए और खुद को जानना चाहिए। केवल इसी तरह तुम बदल पाओगे। अगर तुम अपनी आस्था में हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर निर्भर रहते हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के बजाय केवल शांति और सुख खोजते हो, अगर तुम सच्चा पश्चात्ताप करने में असमर्थ हो और अपने जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं लाते, तो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास व्यर्थ है। परमेश्वर का विश्वासी होने के नाते तुम्हें सत्य अवश्य समझना चाहिए। तुम्हें खुद को जानने का प्रयास करना चाहिए। चाहे तुम पर कुछ भी आ पड़े, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और तुम्हारे भीतर से जो भी भ्रष्ट स्वभाव निकलता है, परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य पर संगति करके तुम्हें उसका समाधान करना चाहिए। अगर कोई तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के बारे में बताता है, या तुम खुद उसकी जाँच करने की पहल करते हो, अगर तुम सचेत रूप से उसे परमेश्वर के वचनों के समक्ष तुलना करने के लिए रख सकते हो, आत्म-निरीक्षण कर सकते हो, अपनी जाँच कर सकते और खुद को जान सकते हो, फिर अपनी समस्या दूर कर सकते हो और पश्चात्ताप का अभ्यास कर सकते हो, तो तुम एक इंसान के रूप में जीने में सक्षम हो जाओगे। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सत्य स्वीकारना चाहिए। अगर तुम हमेशा अपने परिवार के लाड़-प्यार की भावना का आनंद लेते रहते हो, हमेशा उनकी आँखों का तारा, उनका दुलारा होने से प्रसन्न रहते हो, तो तुम क्या हासिल कर पाओगे? चाहे तुम अपने परिवार के कितने भी प्यारे हो और उनके कितने भी दुलारे हो, अगर तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है, तो तुम कचरा हो। परमेश्वर में विश्वास करने का मूल्य तभी है, जब तुम सत्य का अनुसरण करते हो। जब तुम सत्य समझ जाते हो, तब तुम्हें पता चलता है कि कैसे आचरण करना है, और तब तुम जानोगे कि सच्ची खुशी का अनुभव करने और परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला व्यक्ति बनने के लिए कैसे जीना है। कोई भी पारिवारिक परिवेश, और कोई भी व्यक्तिगत खूबी, योग्यता या गुण सत्य वास्तविकता की जगह नहीं ले सकता, और न ही ऐसी कोई चीज तुम्हारे लिए सत्य का अनुसरण न करने का बहाना बन सकती है। सत्य प्राप्त करना ही एकमात्र चीज है, जो लोगों को सच्ची खुशी दिला सकती है, उन्हें एक सार्थक जीवन जीने दे सकती है, और उन्हें एक खूबसूरत मंजिल प्रदान कर सकती है। यही मामले का सच है।
कलीसिया में अगुआ और कार्यकर्ता बनने के बाद कुछ लोग खुद को मूल्यवान मानते हैं और सोचते हैं कि अंततः उन्हें चमकने का अवसर मिल गया है। वे अपने बारे में अच्छा महसूस करते हैं और अपनी खूबियों का उपयोग करना शुरू कर देते हैं; वे अपनी महत्वाकांक्षाओं को खुली छूट दे देते हैं और अपनी पूरी क्षमताओं का प्रदर्शन करते हैं। इन लोगों के पास अच्छा दर्जा और शिक्षा, संगठनात्मक कौशल और अगुआ के तौर-तरीके होते हैं। वे अपनी कक्षा में शीर्ष पर थे और स्कूल में छात्र संघ के प्रमुख थे, वे जिस कंपनी में काम करते थे, उसके प्रबंधक या अध्यक्ष थे, और जब वे परमेश्वर में विश्वास करने लगे और उसके घर आए, तो वे अगुआ के रूप में चुन लिए गए, इसलिए वे मन ही मन सोचते हैं, “स्वर्ग मुझे कभी निराश नहीं करता। मुझ जैसे सक्षम व्यक्ति के लिए ध्यान आकर्षित न करना कठिन होगा। जैसे ही मैंने कंपनी-अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दिया, मैं परमेश्वर के घर आ गया और एक अगुआ की भूमिका ग्रहण कर ली। कोशिश करके भी मैं एक साधारण व्यक्ति नहीं बन सकता। यह परमेश्वर द्वारा मेरा उत्कर्ष है, उसने मेरे लिए यही करने की व्यवस्था की है, इसलिए मैं इसके प्रति समर्पित हो जाऊँगा।” अगुआ बनने के बाद वे अपना अनुभव, ज्ञान, संगठनात्मक कौशल और अगुआई-शैली उपयोग में लाते हैं। वे सोचते हैं कि वे सक्षम और निर्भीक, और वास्तव में निपुण और प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। तो, अफसोस की बात है कि यहाँ एक समस्या है। ये निपुण, प्रतिभाशाली अगुआ, जो अगुआई करने की क्षमता के साथ पैदा हुए थे—कलीसिया में क्या करने में सबसे अच्छे हैं? एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने, सारी सत्ता अपने हाथ में लेने और चर्चाओं पर हावी होने में। अगुआ बनने के बाद वे काम करने, इधर-उधर दौड़ने-भागने, कठिनाइयों से गुजरने, और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर कीमत चुकाने के अलावा कुछ नहीं करते हैं। वे और किसी चीज की परवाह नहीं करते। वे मानते हैं कि उनकी व्यस्तता और कार्य परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, उनमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, कलीसिया को उनकी हमेशा आवश्यकता रहती है, और भाई-बहनों को भी उनकी आवश्यकता है। वे मानते हैं कि उनके बिना कोई काम नहीं हो सकता, वे सब-कुछ अपने ऊपर ले सकते हैं और सत्ता पर एकाधिकार कर सकते हैं। और उनके पास अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का अच्छा तरीका होता है। वे सभी तरह की खोजपूर्ण, नई चीजों में सक्षम होते हैं, वे खास तौर पर अधिकारियों की तरह काम करने और शान बघारने में कुशल होते हैं, और दूसरों को ऊँचे स्तर से भाषण देने के अभ्यस्त होते हैं। सिर्फ एक ही महत्वपूर्ण चीज है, जो वे नहीं कर सकते : अगुआ बनने के बाद, वे दूसरों से दिल से बात करने, खुद को जानने, अपनी भ्रष्टता पर ध्यान देने या भाई-बहनों के सुझाव सुनने में सक्षम नहीं होते। अगर कोई कार्य-चर्चा के दौरान कुछ अलग विचार पेश करता है, तो ये अगुआ न केवल उन्हें नकार देंगे—बल्कि यह कहकर ऐसा करने को उचित भी ठहराएँगे, “तुम लोगों ने इस प्रस्ताव को लेकर पूरी तरह नहीं सोचा है। मैं कलीसिया का अगुआ हूँ—अगर मैं तुम लोगों के कहे अनुसार करता हूँ और कुछ गलत नहीं होता, तब तो ठीक है, लेकिन अगर कुछ बुरा होता है, तो जिम्मेदारी अकेले मुझ पर आएगी। इसलिए, ज्यादातर समय तुम लोग अपनी राय व्यक्त कर सकते हो—हम वह औपचारिकता निभा सकते हैं—लेकिन अंत में, मुझे ही चुनाव करना चाहिए और तय करना चाहिए कि चीजें कैसे की जानी हैं।” समय के साथ ज्यादातर भाई-बहन काम के बारे में चर्चाओं में भाग लेना या संगति करना बंद कर देते हैं, और ये अगुआ काम में आने वाली किसी भी समस्या के बारे में उनसे संगति करने की जहमत नहीं उठाते। वे बिना किसी से एक शब्द भी बोले निर्णय लेते और फैसले सुनाते रहेंगे, और फिर भी अपने औचित्यों से भरे रहेंगे। वे मानते हैं, “कलीसिया, अगुआ की कलीसिया है, अगुआ योजना बनाते हैं। भाई-बहन किस दिशा में जाते हैं और किस मार्ग पर चलते हैं, इस पर अंतिम निर्णय अगुआ का ही होता है।” स्वाभाविक रूप से, ये अगुआ भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश, उनके चलने के मार्ग और उनके अनुसरण की दिशा को नियंत्रित करते हैं। जब उन्हें “कप्तान” बना दिया जाता है, तो वे सत्ता पर एकाधिकार करके एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लेते हैं। उनके कार्यों में कोई पारदर्शिता नहीं होती और इसका एहसास किए बिना ही वे सत्य का अनुसरण करने वाले और समझने की क्षमता रखने वाले कुछ लोगों का दमन कर देते हैं और कुछ भाई-बहनों को बाहर कर देते हैं। इस पूरे समय, वे फिर भी यही सोचते हैं कि ऐसा करके वे कलीसिया के काम और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों की रक्षा कर रहे हैं। वे सब-कुछ इतने सटीक तर्क, इतने अधिक औचित्यों और बहानों के साथ करते हैं—और अंत में, इसका उद्देश्य क्या है? वे जो कुछ भी करते हैं, अपनी हैसियत और सत्ता पर अपने एकाधिकार की रक्षा के लिए करते हैं। वे लौकिक समाज और पारिवारिक जीवन से व्यवहार के सिद्धांत, तौर-तरीके और साधन परमेश्वर के घर में लाते हैं, और सोचते हैं कि ऐसा करके वे उसके हितों की रक्षा कर रहे हैं। फिर भी वे खुद को कभी नहीं जानते या आत्मचिंतन नहीं करते। भले ही कोई यह बताए कि वे सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, भले ही उन्हें परमेश्वर की प्रबुद्धता, अनुशासन और ताड़ना का सामना करना पड़े, उन्हें इसका कोई बोध नहीं होगा। समस्या कहाँ है? जिस दिन से उन्होंने अगुआ का पद सँभाला है, अपने कर्तव्य को एक करियर की तरह माना है, और यही बात उनका मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना नियत कर देती है और यह सुनिश्चित करती है कि वे सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ रहें। और फिर भी, इस “करियर” के दौरान, वे मानते हैं कि वे जो कुछ भी करते हैं, वह सत्य का अनुसरण करना है। वे सत्य के अनुसरण को कैसे देखते हैं? वे भाई-बहनों और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने की आड़ में अपनी हैसियत और अधिकार की रक्षा करते हैं और मानते हैं कि यह उनकी सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति है। जब वे इस पद पर होते हैं, तो वे उस भ्रष्ट स्वभाव के बारे में बिल्कुल नहीं जानते जो उनसे अभिव्यक्त और प्रवाहित होता है। यहाँ तक कि अगर उन्हें कभी-कभी हल्का-सा आभास होता भी है कि यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, परमेश्वर इससे नफरत करता है, यह एक शातिर, अड़ियल स्वभाव है, तो वे यह सोचते हुए जल्दी से अपना मन बदल लेते हैं : “यह नहीं चलेगा। मैं अगुआ हूँ, और मुझमें अगुआ की गरिमा होनी आवश्यक है। मैं भाई-बहनों को अपने भ्रष्ट स्वभाव का उद्गार नहीं देखने दे सकता।” और इसलिए, हालाँकि वे महसूस करते हैं कि उन्होंने बहुत अधिक भ्रष्ट स्वभाव दिखाया है और अपनी हैसियत और अधिकार सुरक्षित रखने के लिए कई ऐसी चीजें की हैं जो सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं, फिर भी जब कोई उन्हें उजागर करता है, तो वे कुतर्क का सहारा लेते हैं या उसे अवरुद्ध करने की कोशिश करते हैं, ताकि कोई और उसके बारे में न जान सके। जैसे ही वे अधिकार और हैसियत हासिल कर लेते हैं, वे खुद को महान, सही, आलोचना से परे और संदेहातीत समझते हुए एक पवित्र और अनुल्लंघनीय स्थिति में रख लेते हैं। और इस तरह के पद पर आसीन होने के बाद, वे समान रूप से ऐसी किसी भी विरोधी आवाज, सुझाव या सलाह का विरोध कर उसे नकार देते हैं, जो भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश और कलीसिया के कार्य के लिए लाभकारी हो सकती है। सत्य का अनुसरण न करने के लिए वे क्या बहाना बनाते हैं? वे कहते हैं, “मेरे पास हैसियत है, मैं प्रतिष्ठित व्यक्ति हूँ—इसका मतलब है कि मेरी गरिमा है और मैं पवित्र और अनुल्लंघनीय हूँ।” क्या वे ऐसे कारण देकर और ऐसे बहाने बनाकर सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? (नहीं।) वे ऐसा नहीं कर सकते। वे हमेशा अपने रुतबे के फायदे उठाते हुए अपने उच्च आसन से बोलते और कार्य करते हैं। ऐसा करके वे खुद को आग में झोंक लेते हैं और खुद को उजागर किया जाना जरूरी बना देते हैं। क्या ऐसे लोग दयनीय नहीं होते? वे दयनीय और घृणित होते हैं, और वीभत्स भी—वे अत्यधिक घिनौने होते हैं! अगुआ के रूप में वे खुद को एक संत की छवि में तैयार करते हैं। एक संत, एक महान, गौरवशाली और सही व्यक्ति—ये उपाधियाँ क्या हैं? ये बेड़ियाँ हैं, और जो भी इन्हें धारण करता है, वह फिर सत्य का अनुसरण नहीं कर सकता। अगर कोई ये बेड़ियाँ धारण करता है, तो इसका मतलब है कि उसका अब सत्य का अनुसरण करने से कोई संबंध नहीं रहा। इन लोगों के सत्य का अनुसरण न करने का मुख्य कारण क्या है? वास्तव में, कारण यह है कि उन्हें हैसियत द्वारा विवश कर दिया गया है। वे हमेशा मन ही मन सोचते हैं : “मैं अगुआ हूँ। मैं यहाँ का प्रभारी हूँ। मैं प्रतिष्ठित और हैसियतदार व्यक्ति हूँ। मैं एक गौरवशाली व्यक्ति हूँ। मुझमें अहंकारी या दुष्ट स्वभाव नहीं हो सकता। मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में खुलकर बात नहीं कर सकता—मुझे अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा की रक्षा करनी है। मुझे लोगों से अपना आदर और आराधना करवानी है।” वे हमेशा इन चीजों से विवश रहते हैं, इसलिए वे खुलकर बोलने या आत्मचिंतन कर खुद को जानने में असमर्थ रहते हैं। इन चीजों से वे बरबाद हो जाते हैं। क्या उनके विचार और मानसिकता सत्य के अनुरूप होते हैं? बिल्कुल स्पष्ट है कि नहीं होते। क्या वे व्यवहार, जो वे आम तौर पर अपने कर्तव्यों में प्रदर्शित करते हैं—अहंकार और आत्मतुष्टि, इस तरह काम करना जैसे वे अपने आप में कानून हों, ढोंग, छल-कपट, इत्यादि—क्या ये अभ्यास सत्य का अनुसरण हैं? (नहीं।) बिल्कुल स्पष्ट है, इनमें से कुछ भी सत्य का अनुसरण नहीं है। और सत्य का अनुसरण न करने का वे क्या औचित्य बताते या क्या कारण देते हैं? (वे मानते हैं कि अगुआ हैसियत और प्रतिष्ठा वाले लोग होते हैं, और अगर उनका स्वभाव भ्रष्ट हो भी, तो भी उसे उजागर नहीं किया जा सकता।) क्या यह एक बेतुका दृष्टिकोण नहीं है? अगर व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव होने की बात स्वीकारता तो है पर उसे उजागर नहीं होने देता, तो क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य स्वीकारता है? अगर तुम अगुआ होकर सत्य नहीं स्वीकार सकते, तो तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करोगे? तुम्हारी भ्रष्टता कैसे साफ होगी? और अगर तुम्हारी भ्रष्टता साफ नहीं की जा सकती और तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते रहते हो, तो तुम ऐसे अगुआ हो जो व्यावहारिक कार्य नहीं कर सकता—तुम एक नकली अगुआ हो। अगुआ होने के नाते तुम्हारे पास हैसियत जरूर है, लेकिन यह सिर्फ एक अलग काम, एक अलग कर्तव्य होने का मामला है—इसका मतलब यह नहीं कि तुम एक प्रतिष्ठित व्यक्ति बन गए हो। तुम इसलिए दूसरों की तुलना में अधिक गौरवशाली या विशिष्ट प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति नहीं बन जाते, कि तुमने यह हैसियत प्राप्त की है और एक अलग कर्तव्य निभाया है। अगर वास्तव में ऐसे लोग हैं जो इस तरह सोचते हैं, तो क्या वे बेशर्म नहीं हैं? (वे, हैं।) इसे कहने का आम बोलचाल का तरीका क्या है? वे खुलेआम निर्लज्ज हैं, है न? जब वे अगुआ नहीं होते, तो लोगों के साथ ईमानदारी से पेश आते हैं; वे अपने भ्रष्टता के उद्गार के बारे में खुलकर बात करने और अपने भ्रष्ट स्वभावों का विश्लेषण करने में सक्षम रहते हैं। जब वे अगुआ के रूप में पद ग्रहण कर लेते हैं, तो वे पूरी तरह से दूसरे व्यक्ति बन जाते हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वे दूसरे व्यक्ति बन जाते हैं? क्योंकि वे मुखौटा लगा लेते हैं और असली व्यक्ति उसके पीछे रहता है। मुखौटा कोई भाव प्रकट नहीं करता, कोई रोना, हँसना, खुशी या गुस्सा नहीं, कोई दुःख या आनंद नहीं, कोई भावनाएँ और इच्छाएँ नहीं—और निश्चित रूप से कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं। हर समय उसकी अभिव्यक्ति और स्थिति समान रहती है, जबकि अगुआ की सभी वास्तविक अवस्थाएँ, व्यक्तिगत विचार और भाव मुखौटे के पीछे छिपे रहते हैं, जहाँ उन्हें कोई नहीं देख सकता। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता ऐसे होते हैं, जो हमेशा खुद को प्रतिष्ठित और हैसियतदार समझते हैं। वे डरते हैं कि अगर कोई उनकी काट-छाँट करेगा, तो वे अपनी गरिमा खो बैठेंगे, इसलिए वे सत्य नहीं स्वीकारते। मधुर, झूठे वचन बोलने और अपने भ्रष्ट स्वभाव पर पर्दा डालने की क्षमता वे अपने रुतबे और अधिकार से प्राप्त करते हैं। साथ ही, वे यह मानने की गलती भी करते हैं कि वे अपनी हैसियत के कारण दूसरों की तुलना में अधिक प्रतिष्ठित और पवित्र हैं, और इसलिए उन्हें सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं—कि सत्य का अनुसरण करना दूसरों का काम है। सोचने का यह तरीका गलत और कुछ हद तक बेशर्म और बेहूदा है। इस तरह का व्यक्ति इसी तरह व्यवहार करता है। ऐसे लोगों के व्यवहार के सार से यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि वे सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे। इसके बजाय वे हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ रहे हैं। जब वे काम करते हैं, तो वे अपने रुतबे और अधिकार की रक्षा कर रहे होते हैं, और यह सोचकर खुद को भुलावा दे रहे होते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं। वे पौलुस की ही तरह हैं, और जो कार्य उन्होंने किया है और जो कर्तव्य निभाए हैं, कलीसिया का कार्य करने में जो काम उन्होंने किए हैं, और परमेश्वर के घर का काम करते हुए उन्होंने जो उपलब्धियाँ हासिल की हैं, उनका लगातार सारांश बनाते हैं। वे लगातार इन चीजों की गणना करते हैं, जैसे कि जब पौलुस ने कहा था, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। इससे उसका मतलब था कि अपनी दौड़ पूरी करने और अच्छी कुश्ती लड़ने के बाद यह समय था इस बात की गणना करने का कि उसके पास उद्धार का कितना बड़ा अवसर है, उसका योगदान कितना बड़ा रहा है, उसका पुरस्कार कितना बड़ा होगा, और यह परमेश्वर से अपने योगदान का पुरस्कार माँगने का समय था। उसका मतलब था कि अगर परमेश्वर ने उसे मुकुट पुरस्कार में नहीं दिया, तो वह परमेश्वर को धार्मिक परमेश्वर नहीं समझेगा, वह समर्पण करने से इनकार कर देगा, यहाँ तक कि परमेश्वर की अधार्मिकता के बारे में शिकायत भी करेगा। क्या इस तरह की मानसिकता और स्वभाव वाला ऐसा व्यक्ति, सत्य का अनुसरण कर रहा है? क्या वह ऐसा व्यक्ति है, जो वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है? क्या वह खुद को परमेश्वर के आयोजनों पर छोड़ सकता है? क्या यह एक ही नजर में स्पष्ट नहीं है? वह सोचता है कि उसका दौड़ना-भागना और लड़ाइयाँ लड़ना सत्य का अनुसरण, वह सत्य बिल्कुल नहीं खोजता और उसमें वास्तव में उसका अनुसरण करने की अभिव्यक्तियाँ नहीं होतीं—इसलिए वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो सत्य का अनुसरण करता है।
हमारी संगति ने अभी-अभी मुख्य रूप से मनुष्य की कौन-सी समस्याएँ उजागर की हैं? विशेष रूप से, इसने मनुष्य के कौन-से भ्रष्ट स्वभाव मुख्य रूप से उजागर किए? एक मूलभूत स्वभाव है मनुष्य का सत्य से विमुख होना और उसे स्वीकारने से मना करना; यह एक बहुत ही विशिष्ट प्रकार का व्यवहार है। एक और मुख्य चीज है, जो हर व्यक्ति के स्वभाव सार में मौजूद होती है : हठधर्मिता। यह भी काफी ठोस और स्पष्ट रूप से प्रकट होती है, है न? (हाँ, होती है।) ये दो मुख्य तरीके हैं, जिनसे मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभिव्यक्त और प्रकट होता है। ये विशिष्ट व्यवहार, ये विशिष्ट विचार, दृष्टिकोण इत्यादि, वास्तव में और सटीक रूप से दर्शाते हैं कि मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के भीतर सत्य से विमुख होने का एक तत्त्व है। निस्संदेह, मनुष्य के स्वभाव में जो अधिक प्रमुख है, वह हठधर्मिता की अभिव्यक्तियाँ हैं : परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, और परमेश्वर के कार्य के दौरान मनुष्य के जो भी भ्रष्ट स्वभाव उजागर होते हैं, लोग हठपूर्वक उसे स्वीकारने से मना करते हैं और उसका विरोध करते हैं। स्पष्ट प्रतिरोध या तिरस्कारपूर्ण अस्वीकृति के अतिरिक्त, निश्चित रूप से, एक अन्य प्रकार का व्यवहार है, जो तब प्रकट होता है जब लोग परमेश्वर के कार्य से कोई सरोकार नहीं रखते, जैसे कि परमेश्वर के कार्य का उनसे कोई लेना-देना न हो। परमेश्वर से सरोकार न रखने का क्या अर्थ है? यह तब होता है, जब व्यक्ति कहता है, “तुम्हें जो कहना है, कहो—इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे किसी न्याय या खुलासे का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मैं इसे स्वीकारता या मानता नहीं।” क्या हम इस तरह के रवैये को “हठधर्मी” कह सकते हैं? (हाँ।) यह हठधर्मिता की अभिव्यक्ति है। ये लोग कहते हैं, “मैं वैसे ही जीता हूँ, जैसे मैं चाहता हूँ, जिस तरह से मुझे आराम मिलता है, और जिस तरह से मुझे खुशी मिलती है। तुम जिन व्यवहारों के बारे में बात करते हो, जैसे कि अहंकार, छल, सत्य-विमुख होना, दुष्टता, क्रूरता, इत्यादि—अगर वे मुझमें हैं भी, तो क्या? मैं उनकी जाँच नहीं करूँगा, या उन्हें नहीं जानूँगा, या उन्हें नहीं स्वीकारूँगा। मैं ऐसे ही परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, तुम क्या कर लोगे?” यह हठधर्मिता का रवैया है। जब लोग परमेश्वर के वचनों से सरोकार नहीं रखते या उन पर ध्यान नहीं देते, जिसका अर्थ है कि वे समान रूप से परमेश्वर की उपेक्षा करते हैं, चाहे वह कुछ भी कहे, चाहे वह अनुस्मारकों के रूप में बोले या चेतावनियों या उपदेशों के रूप में—चाहे वह बोलने का कोई भी तरीका इस्तेमाल करे, या चाहे उसके भाषण का स्रोत और लक्ष्य कुछ भी हों—तो उनका हठधर्मी रवैया होता है। इसका मतलब यह है कि वे परमेश्वर के अत्यावश्यक इरादे पर कोई ध्यान नहीं देते, मनुष्य को बचाने की उसकी ईमानदार, नेकनीयत इच्छा पर तो बिल्कुल भी नहीं। परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, लोगों में सहयोग करने का संकल्प नहीं होता और वे सत्य की दिशा में प्रयास करने के इच्छुक नहीं होते। यहाँ तक कि अगर वे मानते भी हों कि परमेश्वर का न्याय और प्रकाशन पूरी तरह से तथ्यात्मक है, तो भी उनके दिलों में कोई पछतावा नहीं होता, और वे पहले की तरह ही विश्वास करते रहते हैं। अंत में, जब वे अनेक उपदेश सुन लेते हैं, तो भी वे यही बात कहते हैं : “मैं एक सच्चा विश्वासी हूँ, किसी भी स्थिति में, मेरी मानवता खराब नहीं है, मैं जानबूझकर बुराई नहीं करूँगा, मैं चीजें त्यागने में सक्षम हूँ, मैं कठिनाई झेल सकता हूँ, और मैं अपनी आस्था के लिए कीमत चुकाने को तैयार हूँ। परमेश्वर मुझे नहीं त्यागेगा।” क्या यह वैसा ही नहीं है, जैसा पौलुस ने कहा था : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है”? लोगों का इसी तरह का रवैया होता है। ऐसे रवैये के पीछे कौन-सा स्वभाव है? हठधर्मिता। क्या हठधर्मी स्वभाव बदलना मुश्किल है? क्या ऐसा करने का कोई मार्ग है? सबसे सरल और सबसे सीधा तरीका है परमेश्वर के वचनों और स्वयं परमेश्वर के प्रति अपना रवैया बदलना। तुम ये चीजें कैसे बदल सकते हो? अपने हठधर्मी रवैये से उत्पन्न होने वाली अवस्थाओं और मनोदशाओं का विश्लेषण करके और उन्हें जानकर, और यह देखकर कि तुम्हारे कौन-से कार्य और शब्द, तुम्हारे कौन-से दृष्टिकोण और इरादे जिनसे तुम चिपके रहते हो, यहाँ तक कि विशेष रूप से तुम्हारे कौन-से विचार और भाव जिन्हें तुम प्रकट करते हो, तुम्हारे हठधर्मी स्वभाव के प्रभाव में हैं। एक-एक करके इन व्यवहारों, उद्गारों और अवस्थाओं की जाँच कर उन्हें हल करो, और फिर, उन्हें बदल दो—जैसे ही तुम किसी चीज की जाँच कर उसका पता लगा लो, जल्दी से उसे बदल दो। उदाहरण के लिए, हम अभी अपनी पसंद और मूड के आधार पर कार्य करने के बारे में बात कर रहे थे, जो कि सनक है। सनकी स्वभाव के साथ में सत्य विमुख होने का लक्षण भी होता है। अगर तुम्हें पता चले कि तुम उस तरह के व्यक्ति हो, उस तरह के भ्रष्ट स्वभाव के हो, और तुम आत्मचिंतन नहीं करते या उसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, हठपूर्वक सोचते हो कि तुम बिल्कुल ठीक हो, तो यह हठधर्मिता है। इस प्रवचन के बाद तुम अचानक महसूस कर सकते हो, “मैंने इस तरह की बातें कही हैं, और मेरे इस तरह के विचार हैं। मेरा यह स्वभाव ऐसा है जो सत्य विमुख है। चूँकि मामला ऐसा है, तो मैं इस स्वभाव को हल करना शुरू करूँगा।” तो तुम इसे हल करना शुरू कैसे करोगे? अपनी श्रेष्ठता की भावना, अपनी सनक और अपनी मनमानी छोड़ने से शुरू करो; चाहे तुम अच्छे मूड में हो या बुरे, यह देखो कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं। अगर तुम दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप अभ्यास कर पाओ, तो वह तुम्हें कैसे देखेगा? अगर तुम वास्तव में ये भ्रष्ट व्यवहार दूर करना शुरू कर पाओ, तो यह इस बात का संकेत है कि तुम सकारात्मक और सक्रिय रूप से परमेश्वर के कार्य में सहयोग कर रहे हो। तुम अपने सत्य-विमुख स्वभाव से सचेत होकर विद्रोह कर इसका समाधान कर रहे होगे, और साथ ही तुम अपने हठधर्मी स्वभाव का समाधान भी कर रहे होगे। जब तुम इन दोनों भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर लोगे, तो तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसे संतुष्ट करने में सक्षम होगे, और यह उसे प्रसन्न करेगा। अगर तुम लोग इस संगति की विषयवस्तु समझ गए हो और इस तरह से दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने का अभ्यास करते हो, तो मुझे बहुत खुशी होगी। तब मेरे कहे ये वचन व्यर्थ नहीं जाएँगे।
हठधर्मिता भ्रष्ट स्वभाव की समस्या है; यह व्यक्ति की प्रकृति में होती है, और इसे सुलझाना आसान नहीं। जब किसी का हठधर्मी स्वभाव होता है, तो वह मुख्य रूप से औचित्य और सुनने में अच्छे लगने वाले तर्क देने, अपने ही विचारों से चिपके रहने और नई चीजें आसानी से स्वीकार न करने की प्रवृत्ति के रूप में अभिव्यक्त होता है। कई बार ऐसा होता है कि लोग जानते हैं कि उनके विचार गलत हैं, फिर भी वे अपने घमंड और गर्व की खातिर उनसे चिपके रहते हैं, अंत तक अड़े रहते हैं। इस तरह का हठधर्मी स्वभाव बदलना मुश्किल है, भले ही व्यक्ति उसके बारे में जानता हो। हठधर्मिता की समस्या हल करने के लिए मनुष्य के अहंकार, छल, क्रूरता, सत्य-विमुखता और ऐसे अन्य स्वभावों को जानना आवश्यक है। जब व्यक्ति अपने ही अहंकार, छल, क्रूरता को जान लेता है, यह भी जान लेता है कि वह सत्य विमुख हो चुका है, कि वह सत्य का अभ्यास करने की इच्छा रखते हुए भी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने को तैयार नहीं है, कि वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहते हुए भी हमेशा बहाने बनाता है और अपनी कठिनाइयाँ समझाता है, तो वह आसानी से पहचान लेगा कि उसमें हठधर्मिता की समस्या है। यह समस्या हल करने के लिए व्यक्ति में पहले सामान्य इंसानी समझ होनी चाहिए और उसे परमेश्वर के वचन सुनना सीखने से शुरुआत करनी चाहिए। अगर तुम परमेश्वर की भेड़ बनना चाहते हो, तो तुम्हें उसके वचन सुनना सीखना चाहिए। और तुम्हें उन्हें कैसे सुनना चाहिए? कोई भी ऐसी समस्या सुनने के द्वारा, जिसे परमेश्वर अपने वचनों में उजागर करता है, जो तुम्हारे लिए प्रासंगिक है। अगर तुम्हें कोई समस्या मिलती है, तो तुम्हें उसे स्वीकारना चाहिए; तुम्हें यह नहीं मानना चाहिए कि यह समस्या दूसरे लोगों की है, कि यह हर किसी की या मानव-जाति की समस्या है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं। तुम्हारा ऐसा विश्वास रखना गलत होगा। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या तुम में ऐसी भ्रष्ट दशाएँ या विकृत विचार हैं जिन्हें परमेश्वर उजागर कर रहा है। उदाहरण के लिए, जब तुम किसी के भीतर से अहंकारी स्वभाव के प्रकट होने की अभिव्यक्तियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन सुनते हो, तो तुम्हें अपने मन में सोचना चाहिए : “क्या मैं अहंकार की अभिव्यक्तियाँ दिखाता हूँ? मैं एक भ्रष्ट मानव हूँ, तो मैं अवश्य ही उनमें से कुछ अभिव्यक्तियाँ दिखाता होऊँगा; मुझे इस बात पर विचार करना चाहिए कि मैं ऐसा कहाँ करता हूँ। लोग कहते हैं कि मैं अहंकारी हूँ, कि मैं हमेशा खुद को दूसरों से ज्यादा महत्वपूर्ण मानकर चलता हूँ, कि जब मैं बोलता हूँ तो लोगों को विवश कर देता हूँ। क्या वास्तव में यही मेरा स्वभाव है?” चिंतन के माध्यम से, तुम अंततः जान जाओगे कि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन पूरी तरह से सटीक है—कि तुम एक अहंकारी व्यक्ति हो। और चूँकि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन पूरी तरह से सटीक है, चूँकि वह बिना किसी विसंगति के तुम्हारी स्थिति से पूरी तरह मेल खाता है, और आगे विचार करने पर और भी सटीक प्रतीत होता है, तो तुम्हें उसके वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारनी चाहिए, और उनके अनुसार अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार को पहचानना और जानना चाहिए। तब तुम सच्चा पछतावा महसूस कर पाओगे। परमेश्वर में विश्वास करते हुए, केवल इस तरह से उसके वचन खाने-पीने से ही तुम खुद को जान सकते हो। अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों का न्याय और खुलासा स्वीकारना चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो तुम्हारे पास अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने का कोई उपाय नहीं होगा। अगर तुम एक चतुर व्यक्ति हो, जो देखता है कि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन आम तौर पर सटीक होता है, या अगर तुम स्वीकार सकते हो कि उसका आधा हिस्सा सही है, तो तुम्हें फौरन उसे स्वीकार लेना चाहिए और परमेश्वर के सामने समर्पण कर देना चाहिए। तुम्हें उससे प्रार्थना कर आत्मचिंतन भी करना चाहिए। तभी तुम समझ पाओगे कि परमेश्वर के प्रकाशन के सभी वचन सटीक होते हैं, कि वे सभी तथ्य हैं, उससे कम कुछ नहीं हैं। परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय के साथ उसके सामने समर्पण करके ही लोग वास्तव में आत्मचिंतन कर सकते हैं। तभी वे अपने भीतर मौजूद विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव देख पाएँगे, और यह भी कि वे वास्तव में अहंकारी और आत्मतुष्ट हैं, जिनमें जरा-सी भी समझ नहीं है। अगर कोई सत्य से प्रेम करता है, तो वह परमेश्वर के सामने दंडवत होने में भी सक्षम होगा, उसके सामने स्वीकारेगा कि वह गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, और उसका न्याय और ताड़ना स्वीकारने की इच्छा रखता है। इस तरह, वह पछतावे से भरा दिल विकसित कर सकता है, खुद को नकारना और खुद से नफरत करना शुरू कर सकता है, और पहले सत्य का अनुसरण न करने पर पछताते हुए सोच सकता है, “जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने शुरू किए थे, तो मैं उनका न्याय और ताड़ना स्वीकारने में असमर्थ क्यों था? उसके वचनों के प्रति मेरा यह रवैया अहंकारी था, है न? मैं इतना अहंकारी कैसे हो सकता हूँ?” कुछ समय तक इस तरह बार-बार आत्मचिंतन करने के बाद, वह पहचान लेगा कि वह वास्तव में अहंकारी है, कि वह यह स्वीकारने में पूरी तरह से सक्षम नहीं है कि परमेश्वर के वचन सत्य और तथ्य हैं, और उसमें वास्तव में रत्ती भर भी समझ नहीं है। लेकिन खुद को जानना एक कठिन चीज है। हर बार जब व्यक्ति चिंतन करता है, तो वह अपने बारे में सिर्फ थोड़ा अधिक और थोड़ा ज्यादा गहरा ज्ञान प्राप्त कर पाता है। भ्रष्ट स्वभाव का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करना कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे थोड़े समय में पूरा किया जा सकता हो; व्यक्ति को परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ने चाहिए, अधिक प्रार्थना करनी चाहिए और अधिक आत्मचिंतन करना चाहिए। सिर्फ इसी तरह वह धीरे-धीरे खुद को जान सकता है। वे सभी जो वाकई खुद को जानते हैं, अतीत में कुछ बार असफल हुए और लड़खड़ाए हैं, जिसके बाद, उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़े, उससे प्रार्थना की, और आत्मचिंतन किया, और इस तरह वे अपनी भ्रष्टता का सत्य स्पष्ट रूप से देख पाए, और यह महसूस कर पाए कि वे वाकई अत्यधिक भ्रष्ट और सत्य वास्तविकता से सर्वथा वंचित थे। अगर तुम इस प्रकार परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हो, और जब तुम पर चीजें आ पड़ती हैं, तो उससे प्रार्थना करते और सत्य खोजते हो, तो तुम धीरे-धीरे स्वयं को जान जाओगे। फिर एक दिन, अंततः तुम्हारे हृदय में स्पष्ट समझ आ जाएगी : “मैं दूसरों की तुलना में थोड़ी बेहतर क्षमता का हो सकता हूँ, लेकिन यह मुझे परमेश्वर द्वारा दी गई थी। मैं हमेशा शेखी बघारता हूँ, जब बोलता हूँ तो दूसरों से आगे निकलने का प्रयास करता हूँ, कोशिश करता हूँ कि लोग मेरे तरीके से काम करें। मुझमें वाकई समझ नहीं है—यह अहंकार और आत्मतुष्टि है! आत्मचिंतन से मैंने अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में जान लिया है। यह परमेश्वर का प्रबोधन और अनुग्रह है, और मैं इसके लिए उसका धन्यवाद करता हूँ!” अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में जानना अच्छी बात है या बुरी? (अच्छी बात है।) यहाँ से, तुम्हें खोजना चाहिए कि समझदारी और आज्ञाकारिता के साथ कैसे बोलना और कार्य करना है, दूसरों के साथ बराबरी पर कैसे खड़े होना है, दूसरों को बाधित किए बिना उनके साथ उचित व्यवहार कैसे करना है, अपनी क्षमता, गुणों और खूबियों आदि पर सही तरीके से विचार कैसे करना है। इस तरह, जैसे एक बार में एक प्रहार करने से पहाड़ धूल में बदल जाता है, वैसी ही तुम्हारे अहंकारी स्वभाव का समाधान हो जाएगा। उसके बाद, जब तुम दूसरों के साथ बातचीत करोगे या कोई कर्तव्य निभाने के लिए उनके साथ काम करोगे, तो तुम उनके विचारों पर सही तरह से विचार कर पाओगे और उन्हें सुनते हुए उन पर सावधानी और करीब से ध्यान दे पाओगे। और जब तुम उन्हें सही राय देते हुए सुनोगे, तो तुम्हें पता चलेगा, “ऐसा लगता है कि मेरी काबिलियत सबसे अच्छी नहीं है। बात तो यह है कि सभी की अपनी खूबियाँ हैं; वे मुझसे बिल्कुल भी हीन नहीं हैं। पहले मैं सोचता था कि मेरी काबिलियत दूसरों से बेहतर है। वह आत्म-प्रशंसा और संकीर्ण सोच वाली अज्ञानता थी। किसी कूपमंडूक की तरह मेरा दृष्टिकोण बहुत ही सीमित था। ऐसी सोच समझ से पूरी तरह रहित थी—यह बेशर्मी थी! अपने अहंकारी स्वभाव द्वारा मैं अंधा और बहरा हो गया था। दूसरे लोगों की बातें मैं समझ नहीं पाता था, और मैं सोचता कि मैं उनसे बेहतर हूँ, कि मैं सही हूँ, जबकि वास्तव में मैं उनमें से किसी से भी बेहतर नहीं हूँ!” तब से, तुम्हें अपनी कमियों और छोटे आध्यात्मिक कद की सच्ची समझ और ज्ञान होगा। इसके बाद, जब तुम दूसरों के साथ संगति करोगे, तो उनके विचार ध्यान से सुनोगे, और तुम्हें पता चलेगा, “बहुत-से लोग मुझसे बेहतर हैं। मेरी काबिलियत और समझने की क्षमता, दोनों ही हद-से-हद औसत दर्जे की हैं।” यह बोध होने पर क्या तुम अपने बारे में कुछ जान नहीं जाओगे? यह अनुभव करके और बार-बार परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्म-चिंतन करके तुम ऐसा सच्चा आत्मज्ञान पा लोगे जो गहराता जाता है। तब तुम अपनी भ्रष्टता, दरिद्रता और दयनीयता, अपनी शोचनीय कुरूपता का सत्य समझने लगोगे, और उस समय तुम्हें खुद से अरुचि और अपने भ्रष्ट स्वभाव से नफरत होने लगेगी। फिर तुम्हारे लिए दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करना आसान हो जाएगा। परमेश्वर के कार्य का अनुभव इसी तरह किया जाता है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपनी भ्रष्टता के उद्गार पर चिंतन करना चाहिए। खास तौर से, किसी भी तरह के हालात भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने के बाद, तुम्हें बार-बार आत्मचिंतन करना और खुद को जानना चाहिए। तब तुम्हारे लिए अपना भ्रष्ट सार स्पष्ट रूप से देखना आसान हो जाएगा, और तुम अपनी भ्रष्टता, अपनी देह और शैतान से हृदय से घृणा करने में सक्षम हो जाओगे। और तुम दिल से सत्य से प्रेम करने और उसके लिए प्रयास करने में सक्षम होगे। इस तरह, तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कम होता जाएगा और धीरे-धीरे तुम उसे त्याग दोगे। तुम अधिक से अधिक समझ प्राप्त करोगे, और तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाएगा। दूसरों की नजरों में, तुम पहले से ज्यादा स्थिर और व्यावहारिक प्रतीत होगे और तुम अधिक निष्पक्षता से बोलते हुए प्रतीत होगे। तुम दूसरों को सुनने में सक्षम होगे और उन्हें बोलने का समय दोगे। दूसरों के सही होने पर तुम्हारे लिए उनकी बातें स्वीकार करना आसान होगा, और लोगों के साथ तुम्हारी बातचीत उतनी कठिन नहीं होगी। तुम किसी के भी साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करने में सक्षम होगे। अगर इस तरह तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, तो क्या तब तुममें समझ और मानवता नहीं होगी? इस प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव के समाधान का वही तरीका है।
आओ अब उस हठधर्मी स्वभाव के मुद्दे के माध्यम से भ्रष्ट स्वभाव हल करने के तरीके पर थोड़ी संगति करें, जिसका मैंने अभी उल्लेख किया है। भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए व्यक्ति को पहले सत्य स्वीकारने में सक्षम होना चाहिए। सत्य स्वीकारना परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारना है; यह उसके उन वचनों को स्वीकारना है जो मनुष्य की भ्रष्टता का सार उजागर करते हैं। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के आधार पर अपने भ्रष्टता के उद्गार, अपनी भ्रष्ट अवस्थाएँ, और अपने भ्रष्ट इरादे और व्यवहार जानकर उनका विश्लेषण कर लेते हो, और अपनी समस्याओं के सार से पर्दा हटाने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कर लोगे, और उसे हल करने की प्रक्रिया शुरू कर दोगे। दूसरी ओर, अगर तुम इस तरह से अभ्यास नहीं करते, तो न सिर्फ तुम अपना हठधर्मी स्वभाव हल करने में असमर्थ होगे, बल्कि तुम्हारे पास अपने भ्रष्ट स्वभाव को मिटाने का भी कोई उपाय नहीं होगा। प्रत्येक व्यक्ति में अनेक भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। व्यक्ति को उन्हें कहाँ से सुलझाना शुरू करना चाहिए? पहले, व्यक्ति को अपनी हठधर्मिता का समाधान करना चाहिए, क्योंकि हठधर्मी स्वभाव लोगों को परमेश्वर के करीब आने, सत्य खोजने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने से रोकता है। हठधर्मिता मनुष्य के परमेश्वर से प्रार्थना और संगति करने में सबसे बड़ी बाधा है; परमेश्वर के साथ मनुष्य के सामान्य संबंध में सबसे अधिक हस्तक्षेप यही करती है। जब तुम अपने हठधर्मी स्वभाव का समाधान कर लेते हो, तो दूसरों का समाधान करना आसान हो जाएगा। भ्रष्ट स्वभाव का समाधान आत्मचिंतन और आत्मज्ञान से शुरू होता है। तुम जिन भी भ्रष्ट स्वभावों के बारे में जानते हो, उनका समाधान करो—जितना अधिक तुम उनका ज्ञान प्राप्त करोगे, उतना ही तुम समाधान कर पाओगे; उनके बारे में तुम्हारा ज्ञान जितना गहरा होगा, उतनी ही अच्छी तरह से उनका समाधान कर सकोगे। यह भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने की प्रक्रिया है; यह परमेश्वर से प्रार्थना करके, आत्मचिंतन करके और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से खुद को जानकर और अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार का विश्लेषण करके किया जाता है, तब तक जब तक कि व्यक्ति अपनी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह और सत्य का अभ्यास करने में सक्षम नहीं हो जाता। अपने भ्रष्ट स्वभाव का सार जानना कोई आसान काम नहीं है। खुद को जानना मोटे तौर पर यह कहना नहीं है, “मैं एक भ्रष्ट व्यक्ति हूँ; मैं दानव हूँ; मैं शैतान की संतान, बड़े लाल अजगर का वंशज हूँ; मैं परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी और शत्रुतापूर्ण हूँ; मैं उसका दुश्मन हूँ।” जरूरी नहीं कि ऐसी बातों का मतलब है कि तुम्हें अपनी भ्रष्टता का सही ज्ञान है। हो सकता है कि तुमने ये शब्द किसी और से सीख लिए हों और अपने बारे में ज्यादा न जानते हो। सच्चा आत्म-ज्ञान मनुष्य के सीखने या आलोचनाओं पर आधारित नहीं होता, यह परमेश्वर के वचनों पर आधारित होता है—यह भ्रष्ट स्वभावों के परिणाम और उनके परिणामस्वरूप अनुभव की गई पीड़ा को देखना है यह महसूस करना है कि भ्रष्ट स्वभाव न केवल तुम्हें, बल्कि दूसरे लोगों को भी नुकसान पहुँचाता है। यह तथ्य समझना है भ्रष्ट स्वभाव शैतान से उत्पन्न होते हैं, वे शैतान के जहर और फलसफे हैं, और वे पूरी तरह से सत्य और परमेश्वर के शत्रु हैं। जब तुम इस समस्या को समझ लोगे, तो तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का पता चल जाएगा। कुछ लोग यह मान लेने के बाद कि वे दुष्ट और शैतान हैं, अपनी काट-छाँट स्वीकार नहीं करते। वे यह स्वीकार नहीं करते कि उन्होंने कुछ गलत किया है या सत्य का उल्लंघन किया है। उनकी समस्या क्या है? वे अभी भी खुद को नहीं जानते। कुछ लोग कहते हैं कि वे दुष्ट और शैतान हैं, फिर भी अगर तुम उनसे पूछो कि “तुम खुद को दुष्ट और शैतान क्यों बताते हो?” तो वे उत्तर नहीं दे पाएँगे। इससे साबित होता है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव या प्रकृति सार को नहीं जानते। अगर वे यह देख पाते कि उनकी प्रकृति शैतान की प्रकृति है, कि उनका भ्रष्ट स्वभाव शैतान का स्वभाव है, और वे यह स्वीकार पाते कि इसीलिए वे दुष्ट और शैतान हैं, तो वे अपने प्रकृति सार को जान चुके होते। सच्चा आत्म-ज्ञान परमेश्वर के वचनों के खुलासे, न्याय, अभ्यास और अनुभव के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। यह सत्य समझने से प्राप्त होता है। अगर कोई सत्य नहीं समझता, तो वह अपने आत्मज्ञान के बारे में चाहे जो कुछ भी कहे, वह खोखला और अव्यावहारिक होता है, क्योंकि वे उन चीजों को खोज या समझ नहीं पाते हैं, जो मूल में हैं और आवश्यक हैं। स्वयं को जानने के लिए व्यक्ति को यह स्वीकारना होगा कि उसने किसी विशिष्ट परिस्थिति में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए, उसका इरादा क्या था, उसने कैसे व्यवहार किया, उसमें किस चीज की मिलावट थी, और वह सत्य क्यों नहीं स्वीकार सका। उसे ये चीजें स्पष्ट रूप से बताने में सक्षम होना चाहिए, तभी वह खुद को जान सकता है। जब कुछ लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो वे स्वीकार करते हैं कि वे सत्य-विमुख हो चुके हैं, कि उन्हें परमेश्वर के बारे में संदेह और गलतफहमियाँ हैं, और वे उससे सतर्क रहते हैं। वे यह भी स्वीकारते हैं कि मनुष्य का न्याय करने और उसे उजागर करने वाले परमेश्वर के सभी वचन तथ्यपरक हैं। यह दर्शाता है कि उन्हें थोड़ा आत्म-ज्ञान है। लेकिन चूँकि उन्हें परमेश्वर या उसके कार्य का ज्ञान नहीं है, चूँकि वे उसके इरादे नहीं समझते, इसलिए उनका यह आत्म-ज्ञान काफी उथला होता है। अगर कोई सिर्फ अपनी भ्रष्टता स्वीकारता है लेकिन समस्या की जड़ नहीं खोज पाया, तो क्या परमेश्वर के प्रति उसके संदेहों, गलतफहमियों और सतर्कता का समाधान किया जा सकता है? नहीं, वे नहीं कर सकते। यही कारण है कि आत्म-ज्ञान व्यक्ति द्वारा अपनी भ्रष्टता और समस्याओं की स्वीकृति मात्र से बढ़कर है—उसे सत्य भी समझना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का जड़ से समाधान करना चाहिए। अपनी भ्रष्टता के सत्य को देखने और सच्चा पश्चात्ताप करने का यही तरीका है। जब सत्य से प्रेम करने वाले स्वयं को जान जाते हैं, तो वे सत्य खोजने और समझने और अपनी समस्याओं का समाधान करने में भी सक्षम हो जाते हैं। केवल इसी तरह का आत्म-ज्ञान परिणाम देता है। जब भी सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति परमेश्वर के वचनों का ऐसा वाक्यांश पढ़ता है जो मनुष्य को उजागर करता है और उसका न्याय करता है, तो सबसे पहले वह विश्वास करता है कि मनुष्य को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन वास्तविक और तथ्यपरक हैं, कि मनुष्य का न्याय करने वाले परमेश्वर के वचन सत्य हैं और वे परमेश्वर की धार्मिकता दर्शाते हैं। सत्य के प्रेमियों को कम से कम इतना तो पहचान पाना चाहिए। अगर कोई परमेश्वर के वचन पर विश्वास ही नहीं करता, और यह नहीं मानता कि इंसान को उजागर और उसका न्याय करने वाले परमेश्वर के वचन, तथ्य और सत्य हैं, तो क्या वह उसके वचनों के आधार पर स्वयं को जान सकता है? निश्चित रूप से नहीं—वह चाहे तो भी ऐसा नहीं कर सकता। अगर तुम अपने विश्वास में दृढ़ हो सकते हो कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और उन सभी पर विश्वास कर सकते हो, चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे या उसके बोलने का तरीका कैसा भी हो, अगर तुम परमेश्वर के वचनों को न समझने पर भी, उन पर विश्वास करने और उन्हें स्वीकार करने में सक्षम हो, तो तुम्हारे लिए उनके द्वारा आत्म-चिंतन करना और खुद को जानना आसान होगा। आत्मचिंतन सत्य पर आधारित होना चाहिए। यह संदेह से परे है। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं—मनुष्य का कोई भी शब्द और शैतान की कोई भी बात सत्य नहीं है। शैतान हजारों वर्षों से मानवजाति को तमाम तरह के ज्ञानार्जन, शिक्षाओं और सिद्धांतों से भ्रष्ट कर रहा है, और लोग इतने सुन्न और मंदबुद्धि हो गए हैं कि उन्हें न केवल जरा-सा भी आत्मज्ञान नहीं है, बल्कि वे पाखंडों और भ्रांतियों को भी मानते हैं और सत्य स्वीकारने से मना करते हैं। इस तरह के मनुष्य बचाए नहीं जा सकते। जो लोग परमेश्वर पर सच्ची आस्था रखते हैं, वे मानते हैं कि केवल उसके वचन ही सत्य हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर खुद को जानने में सक्षम होते हैं और इस तरह वे सच्चा पश्चात्ताप हासिल कर सकते हैं। कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते; वे केवल मनुष्य के सीखने के आधार पर आत्म-चिंतन करते हैं, और वे पापपूर्ण व्यवहार से अधिक कुछ भी स्वीकार नहीं करते, और इस दौरान, वे अपने भ्रष्ट सार की असलियत देखने में असमर्थ रहते हैं। ऐसा आत्म-ज्ञान एक निष्फल प्रयास होता है और यह कोई परिणाम नहीं देता। व्यक्ति को आत्म-चिंतन परमेश्वर के वचनों के आधार पर करना चाहिए, और चिंतन के बाद, धीरे-धीरे वे भ्रष्ट स्वभाव जानने चाहिए जिन्हें वह प्रकट करता है। व्यक्ति को अपनी कमियाँ, अपना मानवता सार, चीजों पर अपने विचार, अपना जीवन-दृष्टिकोण और मूल्य सत्य के आधार पर मापने और जानने में सक्षम होना चाहिए, और फिर इन सभी चीजों के बारे में सटीक मूल्यांकन और फैसले पर पहुँचना चाहिए। इस प्रकार वह धीरे-धीरे आत्म-ज्ञान प्राप्त कर सकता है। लेकिन आत्म-ज्ञान व्यक्ति द्वारा जीवन में अधिक अनुभव प्राप्त करने पर अधिक गहरा हो जाता है, और सत्य प्राप्त करने से पहले, व्यक्ति के लिए अपने प्रकृति सार की असलियत को पूरी तरह से जानना असंभव है। अगर कोई वास्तव में स्वयं को जानता है, तो वह देख सकता है कि भ्रष्ट मनुष्य वास्तव में शैतान की संतान और उसके मूर्त रूप हैं। वह महसूस करेगा कि वह परमेश्वर के सामने जीने लायक नहीं है और वह उसके प्रेम और उद्धार के अयोग्य है, और उसके सामने पूर्णतया दंडवत कर पाएगा। केवल इस स्तर का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम लोग ही वास्तव में खुद को जानते हैं। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए आत्म-ज्ञान एक पूर्व-शर्त है। अगर कोई सत्य का अभ्यास करना और वास्तविकता में प्रवेश करना चाहता है, तो उसे खुद को जानना होगा। सब लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और न चाहते हुए भी वे इन भ्रष्ट स्वभावों से बँधकर इनके काबू में रहते हैं। वे सत्य का अभ्यास करने या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ हैं। इसलिए अगर वे ये चीजें करना चाहते हैं, तो उन्हें पहले खुद को जानना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करना चाहिए। अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने की प्रक्रिया के माध्यम से ही व्यक्ति सत्य समझ सकता है और परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सकता है; केवल तभी व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है और उसकी गवाही दे सकता है। इसी तरह व्यक्ति सत्य प्राप्त करता है। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की प्रक्रिया अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने की प्रक्रिया है। तो, अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए व्यक्ति को क्या करना चाहिए? पहले, व्यक्ति को अपना भ्रष्ट सार जानना चाहिए। खास तौर से, इसका मतलब यह जानना है कि व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव कैसे उत्पन्न हुआ, और उनके द्वारा स्वीकार किए गए शैतान के किन दानवी शब्दों और भ्रांतियों ने इसे जन्म दिया। जब व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के आधार पर ये मूल कारण पूरी तरह से समझ और पहचान लेता है, तो वह फिर अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीने को तैयार नहीं होगा, और सिर्फ परमेश्वर के प्रति समर्पित होना और उसके वचनों के अनुसार जीना चाहेगा। जब भी कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करेगा, तो वह उसे पहचानने, नकारने और अपनी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने में सक्षम होगा। इस तरह अभ्यास और अनुभव करने से, वह धीरे-धीरे अपने सभी भ्रष्ट स्वभाव त्याग देगा।
कुछ लोग कहते हैं, “जब मैंने परमेश्वर के खुलासे और न्याय के वचन पढ़े, तो मैंने आत्म-चिंतन कर जाना कि मैं अहंकारी, धोखेबाज, स्वार्थी, दुष्ट, हठी हूँ और मुझमें इंसानियत नहीं है।” कुछ लोग हैं, जो यहाँ तक कहते हैं कि वे अत्यंत अहंकारी हैं, कि वे पशु हैं, कि वे दुष्ट और शैतान हैं। क्या यही सच्चा आत्मज्ञान है? अगर वे दिल से बोल रहे हैं, और किसी चीज की नकल मात्र नहीं कर रहे, तो यह दर्शाता है कि उन्हें कम से कम कुछ आत्म-ज्ञान है, एकमात्र प्रश्न यह है कि वह उथला है या गहरा। अगर वे किसी चीज की नकल कर रहे हैं, किसी और के शब्द दोहरा रहे हैं, तो यह सच्चा आत्म-ज्ञान नहीं है। अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्ञान ठोस होना चाहिए, जिसमें हर मामला और स्थिति शामिल हो—अर्थात ऐसी अवस्थाएँ, उद्गार, व्यवहार, विचार और मत जैसे विवरण, जिनका संबंध भ्रष्ट स्वभाव से है। तभी वास्तव में खुद को जाना जा सकता है। और जब व्यक्ति वास्तव में खुद को जान जाता है, तो उसके हृदय में पछतावा उत्पन्न होगा, और वह सच्चा पश्चात्ताप करने में सक्षम होगा। पश्चात्ताप करने के लिए सबसे पहले किस चीज का अभ्यास करना चाहिए? (अपनी गलतियाँ स्वीकारनी चाहिए।) “अपनी गलतियाँ स्वीकारना,” यह इसे व्यक्त करने का सही तरीका नहीं है; बल्कि, यह स्वीकार करने और जानने का मामला है कि व्यक्ति का एक भ्रष्ट स्वभाव है। अगर व्यक्ति कहता है कि उसका भ्रष्ट स्वभाव एक प्रकार की गलती है, तो वह गलत है। भ्रष्ट स्वभाव एक ऐसी चीज है, जो व्यक्ति की प्रकृति से संबंधित है, ऐसी चीज जो व्यक्ति को नियंत्रित करती है। यह एक बार होने वाली गलती जैसी चीज नहीं है। कुछ लोग, भ्रष्टता प्रकट करने के बाद, परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, मुझसे गलती हो गई। मुझे अफसोस है।” यह गलत है। इसे “पाप को स्वीकार करना” कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। जिस विशिष्ट तरीके से लोग पश्चात्ताप करते हैं, वह है खुद को जानना और अपनी समस्याएँ सुलझाना। जब कोई व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता या कोई अपराध करता है, और उसे एहसास होता है कि वह परमेश्वर का विरोध कर रहा है और उसकी नफरत को भड़का रहा है, तो उसे आत्मचिंतन करना और परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों के भीतर खुद को जानना चाहिए। परिणामस्वरूप, उसे अपने भ्रष्ट स्वभाव का कुछ ज्ञान प्राप्त होगा और वह यह स्वीकार करेगा कि यह शैतान के विषों और भ्रष्टता से आता है। इसके बाद, जब उसे सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत मिल जाएँगे, और वह सत्य को अमल में ला सकेगा, तब यह सच्चा पश्चात्ताप होगा। चाहे व्यक्ति कोई भी भ्रष्टता प्रकट करे, अगर वह पहले अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने में सक्षम होता है, उसका समाधान करने के लिए सत्य की तलाश कर पाता है, और सत्य का अभ्यास करने लगता है, तो यह सच्चा पश्चात्ताप है। कुछ लोग अपने बारे में थोड़ा-सा जानते हैं लेकिन उनमें न तो पश्चात्ताप के कोई चिह्न दिखते हैं, न ही सत्य का अभ्यास करने के प्रमाण दिखते हैं। आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी अगर वे खुद को बदलते नहीं हैं तो यह सच्चे पश्चात्ताप से कोसों दूर है। सच्चा पश्चात्ताप हासिल करने के लिए व्यक्ति को अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने चाहिए। तो अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए व्यक्ति को खास कर कैसे अभ्यास और प्रवेश करना चाहिए? एक उदाहरण पेश है। लोगों के कपटपूर्ण स्वभाव होते हैं, वे हमेशा झूठ बोलते और धोखा देते रहते हैं। अगर तुम यह बात मानते हो, तो अपने कपट का समाधान करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल और सबसे सीधा सिद्धांत एक ईमानदार व्यक्ति बनना, सच बोलना और ईमानदार चीजें करना है। प्रभु यीशु कहता है : “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो।” एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। यह सरल अभ्यास सबसे प्रभावी है, साथ ही इसे समझना और अमल में लाना भी आसान है। लेकिन, चूँकि लोग बहुत गहराई तक भ्रष्ट हैं, चूँकि उन सभी की शैतानी प्रकृति है और वे शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं, इसलिए उनके लिए सत्य का अभ्यास करना काफी कठिन है। वे ईमानदार होना चाहेंगे, लेकिन हो नहीं सकते। वे झूठ बोलने और छल-कपट में लिप्त रहने से खुद को रोक नहीं पाते, और हो सकता है इसका पता चलने के बाद उन्हें ग्लानि महसूस हो, फिर भी वे अपने भ्रष्ट स्वभाव की बाधाएँ दूर नहीं कर पाएंगे, और वे पहले की तरह झूठ बोलते और धोखा देते रहेंगे। इस समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? इसका एक हिस्सा यह जानना है कि व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव का सार बदसूरत और घिनौना होता है, और अपने दिल से इससे नफरत करने में सक्षम होना है; दूसरा भाग है खुद को इस सत्य सिद्धांत के अनुसार अभ्यास करने के लिए प्रशिक्षित करना, “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो।” जब तुम इस सिद्धांत का अभ्यास कर रहे होते हो, तो तुम अपने कपटी स्वभाव का समाधान करने की प्रक्रिया में होते हो। स्वाभाविक रूप से, अगर तुम अपना कपटपूर्ण स्वभाव दूर करते हुए सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर लेते हो, तो यह तुम्हारे खुद को बदलने और सच्चे पश्चात्ताप की शुरुआत की अभिव्यक्ति है, और परमेश्वर इसे मंजूरी देता है। इसका अर्थ यह है कि जब तुम खुद को बदलोगे, तो परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपने विचार बदलेगा। वास्तव में, परमेश्वर का ऐसा करना मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों और विद्रोहशीलता के लिए एक प्रकार की क्षमा है। वह लोगों को क्षमा कर देता है और उनके पाप या अपराध याद नहीं रखता। क्या यह पर्याप्त विशिष्ट है? क्या तुम लोग इसे समझ गए हो? एक उदाहरण और है। मान लो, तुम्हारा स्वभाव अहंकारी है, और तुम्हारे साथ चाहे कुछ भी हो जाए, तुम बहुत हठीले रहते हो—तुम हमेशा चाहते हो कि फैसले तुम करो, और दूसरे तुम्हारी बात मानें और वही करें जो तुम उनसे करवाना चाहते हो। फिर वह दिन आता है, जब तुम यह महसूस करते हो कि यह एक अहंकारी स्वभाव के कारण हुआ है। तुम्हारा यह स्वीकार करना कि यह एक अहंकारी स्वभाव है, आत्म-ज्ञान की ओर पहला कदम है। यहाँ से तुम्हें परमेश्वर के वचनों के उन कुछ अंशों की तलाश करनी चाहिए, जो अहंकारी स्वभाव का खुलासा करते हों, जिनसे तुम्हें अपनी तुलना करनी चाहिए, और आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए। अगर तुम पाते हो कि तुलना पूरी तरह से उपयुक्त है, और तुम स्वीकार करते हो कि परमेश्वर द्वारा उजागर किया गया अहंकारी स्वभाव तुममें मौजूद है, और फिर यह समझते और प्रकाश में लाते हो कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कहाँ से आता है, और यह क्यों उत्पन्न होता है, और शैतान के कौन-से जहर, विधर्म और भ्रांतियाँ इसे नियंत्रित करती हैं, तो, इन सभी प्रश्नों का मर्म देखने के बाद, तुम अपने अहंकार की जड़ तक पहुँच चुके होगे। यही सच्चा आत्म-ज्ञान है। जब तुम्हारे पास इसकी अधिक सटीक परिभाषा होगी कि कैसे तुम यह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तो यह तुम्हारे लिए अपने बारे में गहन और अधिक व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करना सुगम बनाएगा। तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के वचनों में सत्य सिद्धांतों की तलाश करनी चाहिए और समझना चाहिए कि किस प्रकार का मानवीय आचरण और बोली सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं। अभ्यास का मार्ग पा लेने के बाद तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, और जब तुम्हारा हृदय बदल जाएगा, तब तुम सच में पश्चात्ताप कर लोगे। न केवल तुम्हारे बोलने और कार्य करने में सिद्धांत होंगे, बल्कि तुम इंसानी सदृशता को भी जी रहे होगे और धीरे-धीरे अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ रहे होगे। दूसरे लोग तुम्हें एक नए व्यक्ति के रूप में देखेंगे : तुम वह पुराना, भ्रष्ट व्यक्ति नहीं रहोगे जो तुम कभी थे, बल्कि परमेश्वर के वचनों में पुनः जन्मा व्यक्ति होगे। ऐसा व्यक्ति वह होता है जिसका जीवन-स्वभाव बदल गया है।
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