सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1) भाग एक

आज की संगति एक ऐसे विषय पर है जिससे हर व्यक्ति परिचित है। यह परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास और उसके अनुसरण से निकटता से जुड़ा है, और यह एक ऐसा विषय है जिससे लोग रोज रूबरू होते और सुनते हैं। तो वह विषय क्या है? वह विषय है सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। इस विषय के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? क्या यह तुम्हारे लिए नया है? क्या यह दमदार है? चाहे यह विषय कितना भी दमदार हो, मुझे पता है कि यह तुम लोगों में से प्रत्येक के लिए प्रासंगिक है; यह लोगों के उद्धार, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में उनके प्रवेश और उनके स्वभावगत परिवर्तन, और उनके भावी परिणाम और मंजिल के लिए प्रासंगिक है। तुममें से ज्यादातर लोग अब सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हैं और जागने लगे हैं, लेकिन तुम इस बारे में बहुत निश्चित नहीं हो कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है या सत्य का अनुसरण कैसे किया जाना चाहिए। इसलिए आज इस विषय पर संगति करना हमारे लिए आवश्यक है। सत्य का अनुसरण एक ऐसा विषय है, जिससे लोग अक्सर अपने दैनिक जीवन में रूबरू होते हैं; यह एक व्यावहारिक समस्या है, जिसका सामना लोग तब करते हैं जब उनके दैनिक जीवन के दौरान, अपने कर्तव्यों का पालन आदि करते हुए चीजें उन पर पड़ती हैं। जब ज्यादातर लोगों पर कुछ आ पड़ता है, तो वे केवल परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए स्व-प्रेरित प्रयास करते हैं, और वे अपने विचार नकारात्मक होने से रोकते हैं, इस आशा से कि ऐसा करके वे नकारात्मकता या परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों में डूबने से खुद को रोकेंगे, और खुद को उसके कार्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम करेंगे। बेहतर क्षमता वाले लोग परमेश्वर के वचनों के भीतर सकारात्मक और सक्रिय रूप से सत्य के सभी पहलुओं की खोज करने में सक्षम होते हैं; वे सिद्धांतों, परमेश्वर की अपेक्षाओं और अभ्यास के मार्गों की तलाश करते हैं। या वे अपने पर आन पड़ने वाली चीजों के माध्यम से खुद को जाँचने, चिंतन करने और ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होते हैं और इस तरह सत्य सिद्धांतों को समझ कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लेते हैं। लेकिन यह ज्यादातर लोगों के लिए एक बड़ी बाधा बनी हुई है, और वे ये चीजें कर सकते हैं या नहीं, यह अनिश्चित है। ज्यादातर लोगों ने अभी तक वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश नहीं किया है। इसलिए, भले ही तुम लोगों को इस पर चिंतन करने का समय दिया जाए, पर तुम्हारे लिए इस साधारण, सामान्य और विशिष्ट विषय की व्यावहारिक, वस्तुनिष्ठ और सच्ची समझ तक पहुँचना आसान नहीं होगा। इसलिए, अपने मुख्य विषय पर लौटते हुए, आओ सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, इस पर संगति करें। तुम लोग चिंतन करने में कुशल नहीं हो, लेकिन मुझे उम्मीद है कि तुम लोग सुनने में अच्छे हो—न केवल अपने कानों से, बल्कि अपने दिल से भी। मुझे उम्मीद है कि तुम पूरे दिल से इसे समझोगे-बूझोगे, और तुम इसे गंभीरता से लोगे, एक महत्वपूर्ण चीज की तरह, वह सब जिसे तुम समझने में सक्षम हो, और वह सब जो तुम्हारी अवस्था, तुम्हारे स्वभाव और तुम्हारी स्थिति के प्रत्येक पहलू से मेल खाता हो। उसके बाद, मुझे उम्मीद है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए निकल पड़ोगे, और अभ्यास के सभी सिद्धांतों को गंभीरता से लेने का प्रयास करोगे, ताकि जब संबंधित मुद्दे उठें, तो तुम्हारे पास अनुसरण करने के लिए एक मार्ग हो, और तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास के मार्ग के रूप में लेने और उन्हें इस रूप में कार्यान्वित कर उनका पालन करने में सक्षम रहो। यह सबसे अच्छा होगा।

सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? यह एक अवधारणात्मक प्रश्न हो सकता है, लेकिन यह परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में सबसे व्यावहारिक प्रश्न भी है। लोग सत्य का अनुसरण कर सकते हैं या नहीं, यह सीधे तौर पर उनकी प्राथमिकताओं, उनकी क्षमता और उनके अनुसरण से संबंधित है। सत्य के अनुसरण में कई व्यावहारिक तत्त्व शामिल हैं। हमें एक-एक करके उन पर संगति करनी चाहिए, ताकि तुम लोग सत्य को जितनी जल्दी हो सके समझ सको, और जान सको कि वास्तव में उसका अनुसरण करने का क्या अर्थ है और इससे कौन-से मुद्दे संबंधित हैं। इस तरह, तुम अंततः यह समझने में सक्षम होगे कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। पहले, आओ इस पर चर्चा करें : क्या तुम लोग इस उपदेश को सुनकर सत्य का अनुसरण कर रहे हो? (नहीं।) उपदेश सुनना केवल सत्य का अनुसरण करने की तैयारी की एक पूर्व-अपेक्षा और क्रिया है। सत्य का अनुसरण करने में कौन-से तत्त्व शामिल हैं? कई विषय हैं जो सत्य के अनुसरण से संबंध रखते हैं, और स्वाभाविक रूप से ऐसी कई समस्याएँ भी हैं जो लोगों में मौजूद हैं, जिन पर हमें यहाँ चर्चा करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं, “अगर व्यक्ति प्रतिदिन परमेश्वर के वचन खाता-पीता और सत्य के बारे में संगति करता है, सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम है, कलीसिया जो भी व्यवस्था करती है वो सब करता है और कभी विघ्न नहीं डालता या गड़बड़ी पैदा नहीं करता है—और भले ही वह कभी-कभी सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर देता है लेकिन ऐसा जानबूझकर या इरादतन नहीं करता—तो क्या यह ये नहीं दर्शाता कि वह सत्य का अनुसरण करता है?” यह अच्छा प्रश्न है। कई लोगों का यही ख्याल होता है। सबसे पहले, तुम्हें यह समझना चाहिए कि क्या व्यक्ति लगातार इस तरह का अभ्यास करके सत्य और सत्य की समझ हासिल करने में सक्षम हो सकता है। तुम लोग अपने विचार साझा करो। (भले ही इस तरह का अभ्यास सही है, यह धार्मिक अनुष्ठान के समान ज्यादा लगता है—यह नियम का पालन करना है। इसके द्वारा सत्य की समझ या सत्य हासिल नहीं हो सकता।) तो, असल में ये किस तरह के व्यवहार हैं? (ये सतही रूप से अच्छे व्यवहार हैं।) मुझे यह उत्तर पसंद आया। ये केवल ऐसे अच्छे व्यवहार हैं, जो व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, विभिन्न अच्छी और सकारात्मक शिक्षा द्वारा प्रभावित होने के बाद उसके अंतःकरण और विवेक की नींव पर उत्पन्न होते हैं। लेकिन ये अच्छे व्यवहारों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, और वे सत्य का अनुसरण तो बिल्कुल नहीं हैं। तो फिर, इन अच्छे व्यवहारों का मूल क्या है? उन्हें क्या चीज जन्म देती है? ये व्यक्ति के अंतःकरण और विवेक, उसकी नैतिकता, परमेश्वर में विश्वास करने के प्रति उसकी अनुकूल भावनाओं और उसके आत्म-संयम से उत्पन्न होते हैं। चूँकि वे अच्छे व्यवहार हैं, इसलिए सत्य से उनका कोई संबंध नहीं है, और निश्चित रूप से वे एक ही चीज नहीं हैं। अच्छे व्यवहारों का होना सत्य का अभ्यास करने के समान नहीं है, और अगर कोई व्यक्ति अच्छा व्यवहार करता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त है। अच्छे व्यवहार और सत्य का अभ्यास दो अलग-अलग चीजें हैं—और उनका एक-दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सत्य का अभ्यास करना परमेश्वर की अपेक्षा है और यह पूरी तरह से उसके इरादों के अनुरूप है; अच्छा व्यवहार मनुष्य की इच्छा से उपजता है और इसमें मनुष्य के इरादे और उद्देश्य समाए होते हैं—यह ऐसी चीज है, जिसे मनुष्य अच्छा समझता है। भले ही अच्छे व्यवहार दुष्ट कर्म नहीं हैं, फिर भी वे सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता। ये व्यवहार चाहे जितने भी अच्छे हों, मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के कितने भी अनुरूप हों, इनका सत्य से कोई संबंध नहीं होता। इसलिए अच्छे व्यवहार की मात्रा कितनी भी हो, उसे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल सकती। चूँकि अच्छे व्यवहार को इस तरह से परिभाषित किया गया है, इसलिए स्पष्टतः अच्छे व्यवहार का सत्य के अभ्यास से कोई संबंध नहीं है। अगर लोगों को उनके व्यवहार के अनुसार प्रकारों में बाँटा जाए, तो ये अच्छे व्यवहार, ज्यादा से ज्यादा, वफादार श्रमिकों के कार्य होंगे, इससे ज्यादा कुछ नहीं। उनका सत्य के अभ्यास या परमेश्वर के प्रति सच्चे समर्पण से कोई संबंध नहीं है। वे सिर्फ एक प्रकार का व्यवहार हैं और वे लोगों के स्वभावगत परिवर्तन, सत्य के प्रति उनके समर्पण और स्वीकृति, परमेश्वर के भय और बुराई से दूर रहने, या ऐसे किसी भी अन्य व्यावहारिक तत्त्व से पूरी तरह से अप्रासंगिक हैं, जो वास्तव में सत्य से जुड़ा होता है। तो फिर उन्हें अच्छे व्यवहार क्यों कहा जाता है? यहाँ एक व्याख्या है, और स्वाभाविक रूप से यह इस प्रश्न के सार की भी व्याख्या है। वह यह है कि ये व्यवहार केवल लोगों की धारणाओं, उनकी प्राथमिकताओं, उनकी इच्छा और उनके स्व-प्रेरित प्रयासों से उत्पन्न होते हैं। वे पश्चात्ताप की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं जो सत्य और परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारने के द्वारा सच्चा आत्म-ज्ञान पाने से आता है, न ही ये सत्य का अभ्यास करने के व्यवहार या कार्य हैं, जो तब उत्पन्न होते हैं जब लोग परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का प्रयास करते हैं। क्या तुम इसे समझते हो? इसका अर्थ है कि इन अच्छे व्यवहारों में व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन, या परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से गुजरने का परिणाम, या अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने से उत्पन्न होने वाला सच्चा पश्चात्ताप किसी भी तरह शामिल नहीं है। वे निश्चित रूप से परमेश्वर और सत्य के प्रति मनुष्य के सच्चे समर्पण से जुड़े नहीं होते हैं; और परमेश्वर के प्रति भय और प्रेम से भरा हृदय होने से तो और भी संबंधित नहीं हैं। अच्छे व्यवहारों का इन चीजों से बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है; वे केवल ऐसी चीज हैं जो मनुष्य से आती हैं और जिसे मनुष्य अच्छा समझता है। फिर भी ऐसे बहुत-से लोग हैं जो इन अच्छे व्यवहारों को किसी व्यक्ति के सत्य के अभ्यास का चिह्न समझते हैं। यह एक गंभीर गलती है, एक बेतुका दृष्टिकोण और समझ है। ये अच्छे व्यवहार सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान करना है, और यंत्रवत ढंग से काम करना है। ये सत्य का अभ्यास करने से जरा-सा भी संबंधित नहीं हैं। परमेश्वर शायद सीधे इनकी निंदा न करे, पर वह इन्हें कतई स्वीकृति नहीं देता; यह निश्चित है। तुम लोगों को यह जानना चाहिए कि ये बाहरी क्रियाएँ, जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप हैं, और ये अच्छे व्यवहार सत्य का अभ्यास नहीं हैं, न ही ये सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति हैं। इस संगति को सुनने के बाद तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, इसका महज थोड़ा-सा अवधारणात्मक ज्ञान मिला है, सत्य का अनुसरण करने की एक सरल अवधारणा की प्रारंभिक समझ मिली है। अगर तुम वाकई सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, इसे समझना चाहते हो, तो और भी बहुत-कुछ है जिस पर हमें संगति करनी चाहिए।

सत्य का अनुसरण करने के लिए व्यक्ति को उसे समझना चाहिए; केवल सत्य को समझकर ही व्यक्ति उसका अभ्यास कर सकता है। क्या लोगों के अच्छे व्यवहार सत्य के अभ्यास से संबंधित होते हैं? क्या अच्छे व्यवहार सत्य के अनुसरण से उपजे हैं? कौन-सी अभिव्यक्तियाँ और कार्य सत्य के अभ्यास से संबंधित हैं? सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों में कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं? तुम्हें इन सवालों को समझने की जरूरत है। सत्य के अनुसरण पर संगति करने के लिए हमें पहले लोगों की कठिनाइयों और इसके प्रति उनके गलत दृष्टिकोणों के बारे में बात करनी चाहिए। पहले इनका समाधान जरूरी है। शुद्ध समझ वाले कुछ लोग हैं, जो इस बारे में अपेक्षाकृत स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हैं कि सत्य क्या है। उनके पास सत्य का अनुसरण करने का एक मार्ग है। ऐसे अन्य लोग हैं, जो यह नहीं समझते कि सत्य क्या है, और हालाँकि उनकी इसमें रुचि है, पर वे नहीं जानते कि इसका अभ्यास कैसे किया जाए। वे मानते है कि अच्छे काम करना और अच्छा व्यवहार करना और सत्य का अभ्यास करना एक समान है—कि सत्य का अभ्यास करना अच्छे काम करना है। परमेश्वर के बहुत-से वचन पढ़े बिना, उन्हें यह समझ नहीं आता कि अच्छे काम करना और अच्छा व्यवहार करना, सत्य का अभ्यास करने से पूरी तरह अलग है। तुम देख सकते हो कि लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ कितनी बेतुकी हैं—जो लोग सत्य नहीं समझते, वे कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते! बहुत-से लोगों ने वर्षों तक अपने कर्तव्य निभाए हैं, वे रोज खुद को व्यस्त रखते हैं और काफी कठिनाइयों से गुजर चुके हैं, इसलिए वे खुद को ऐसे लोग समझते हैं जो सत्य का अभ्यास करते हैं और जिनमें सत्य वास्तविकता है। लेकिन वे कोई अनुभवात्मक गवाही नहीं दे सकते। यहाँ समस्या क्या है? अगर वे सत्य समझते हैं, तो वे अपने वास्तविक अनुभवों के बारे में क्यों नहीं बोल सकते? क्या यह एक विरोधाभासी बात नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “जब मैं पहले अपना कर्तव्य निभा रहा था, तब मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, और मैंने परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पठन नहीं किया। मैंने बहुत समय नष्ट किया। मैं अपने काम में बहुत तल्लीन रहता था, यह सोचते हुए कि अपने कर्तव्य में व्यस्त रहना सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने के समान है—पर मैं बस अपना समय नष्ट कर रहा था।” यहाँ निहितार्थ क्या है? यह कि उन्होंने सत्य का अनुसरण इसलिए टाल दिया, क्योंकि वे अपना कर्तव्य निभाने में बहुत व्यस्त थे। क्या वास्तव में यही मामला है? कुछ बेतुके लोग मानते हैं कि अगर वे अपने कर्तव्य में व्यस्त रहेंगे, तो उनके भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट होने का समय नहीं मिलेगा, वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं करेंगे या भ्रष्ट स्थिति में नहीं रहेंगे, और इसलिए, उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए परमेश्वर के वचन खाने-पीने की जरूरत नहीं। क्या यह विचार सही है? जब लोग अपने कर्तव्यों में व्यस्त होते हैं, तो क्या वे वास्तव में भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं करते? यह एक बेतुका विचार है—यह एक सफेद झूठ है। वे कहते हैं कि उनके पास सत्य का अनुसरण करने का समय नहीं है, क्योंकि वे अपने कर्तव्य में व्यस्त रहते हैं। यह विशुद्ध भ्रांति है; वे व्यस्तता को बहाने की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। हमने जीवन-प्रवेश और कर्तव्य निभाने से संबंधित सत्यों पर कई बार संगति की है : कर्तव्य निभाते हुए समस्याएँ हल करने के लिए सत्य की खोज करके ही लोग जीवन में आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए, अगर व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते समय सिर्फ खुद को कार्यों में व्यस्त रखता है, अगर वह समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजने में विफल रहता है, तो वह कभी सत्य नहीं समझ पाएगा। कुछ लोग, जो सत्य से प्रेम नहीं करते, सिर्फ श्रम करने से संतुष्ट रहते हैं और उसके बदले में स्वर्ग के राज्य के आशीष पाने की आशा करते हैं। वे यह बहाना बनाकर मामला समेट लेते हैं कि वे अपना कर्तव्य निभाने में इतने व्यस्त हैं कि उनके पास सत्य का अनुसरण करने का समय नहीं है; वे यह तक कहते हैं कि वे अपना कर्तव्य निभाने में इतने व्यस्त हैं कि वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं करते। इसका तात्पर्य यह है कि चूँकि वे अपने कर्तव्य में व्यस्त हैं, इसलिए उनका भ्रष्ट स्वभाव गायब हो गया है, वह अब मौजूद ही नहीं है। यह झूठ है, है न? क्या उनका दावा तथ्यों के अनुरूप है? बिल्कुल नहीं—इसे सबसे बड़ा झूठ कहा जा सकता है। यह कैसे हो सकता है कि किसी व्यक्ति के कर्तव्य में व्यस्त होने के कारण भ्रष्ट स्वभाव खुद को प्रकट न करे? क्या ऐसे लोगों का अस्तित्व है? क्या ऐसी अनुभवात्मक गवाही मौजूद है? हरगिज नहीं। लोग शैतान द्वारा बुरी तरह से भ्रष्ट किए जा चुके हैं; उन सभी की शैतानी प्रकृति है, और वे सभी शैतानी स्वभावों में रहते हैं। क्या मनुष्य के भीतर कुछ भी सकारात्मक है, भ्रष्टता के अलावा भी कुछ है? क्या कोई है, जो बिना भ्रष्ट स्वभाव के पैदा हुआ हो? क्या कोई जन्म से ही वफादारी से कर्तव्य निभाने के काबिल है? क्या कोई जन्म से ही परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उससे प्रेम करने में सक्षम है? बिल्कुल नहीं। चूँकि सभी लोगों की शैतानी प्रकृतियाँ हैं और वे भ्रष्ट स्वभावों से भरे हैं, इसलिए अगर वे सत्य समझने और उसका अभ्यास करने में सक्षम नहीं हैं, तो वे सिर्फ अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार ही जी सकते हैं। इसलिए, यह कहना बेतुकापन और भ्रांति है कि अगर व्यक्ति अपने कर्तव्य में व्यस्त रहता है, तो वह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं करेगा। यह लोगों को गुमराह करने के लिए गढ़ा गया सफेद झूठ है। चाहे लोग अपना कर्तव्य निभाने में व्यस्त हो या नहीं, चाहे उनके पास परमेश्वर के वचन पढ़ने का समय हो या नहीं, जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे उसका अनुसरण न करने के कारण और बहाने खोज ही लेंगे। ये लोग स्पष्ट रूप से श्रमिक हैं। अगर कोई श्रमिक परमेश्वर के वचन नहीं खाता-पीता और सत्य नहीं स्वीकारता, तो क्या वह अच्छी तरह श्रम कर पाएगा? हरगिज नहीं। वे सभी, जो सत्य नहीं स्वीकारते, जमीर और विवेक से रहित होते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं और बहुत सारी बुराइयाँ करते हैं। वे किसी भी तरह से निष्ठावान श्रमिक नहीं हैं, और भले ही वे श्रम करते हों, उनमें कुछ भी अच्छा नहीं है। इसके बारे में तुम सुनिश्चित हो सकते हो।

कुछ लोग अपने परिवारों में बहुत ज्यादा उलझे रहते हैं और अक्सर चिंता में डूबे रहते हैं। जब वे उन छोटे भाई-बहनों को देखते हैं, जिन्होंने परमेश्वर का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार और करियर त्याग दिए हैं, तो वे उनसे ईर्ष्या करते हुए कहते हैं, “परमेश्वर इन युवाओं पर मेहरबान रहा है। इन्होंने शादी करने और बच्चे पैदा करने से पहले, छोटी उम्र में ही उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया; इनके कोई पारिवारिक बंधन नहीं हैं और इन्हें इस बात की चिंता करने की जरूरत नहीं कि ये कैसे गुजारा करेंगे। इन्हें ऐसी कोई चिंता नहीं है, जो इन्हें परमेश्वर का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य निभाने से रोकती हो। वे ठीक परमेश्वर के कार्य और अंत के दिनों में उसके सुसमाचार के विस्तार के समय पर आए—परमेश्वर ने इन्हें ये अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान की हैं। वे अपने कर्तव्य निभाने के लिए शरीर और आत्मा से खुद को समर्पित कर सकते हैं। वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं है। परमेश्वर ने मेरे लिए उपयुक्त परिवेश की व्यवस्था नहीं की है—मेरे पारिवारिक झंझट बहुत ज्यादा हैं और मुझे उन्हें सुलझाने के लिए पैसा कमाना है। यहीं मेरी असली समस्याएँ हैं। इसलिए मेरे पास सत्य का अनुसरण करने का समय नहीं है। सत्य का अनुसरण उन लोगों के लिए है, जो पूरे समय अपना कर्तव्य निभाते हैं और जो ऐसे बंधनों में नहीं बंधे हैं। मैं पारिवारिक झंझटों से घिरा हूँ और मेरा दिल गुजारा चलाने की ओछी बातों से भरा है, इसलिए मेरे पास परमेश्वर के वचन खाने-पीने या अपना कर्तव्य निभाने के लिए समय या ऊर्जा नहीं है। तुम चाहे मेरी परिस्थितियों के जिस भी पहलू को देखो, मेरे पास सत्य का अनुसरण करने का कोई उपाय नहीं है। तुम इसके लिए मुझे दोष नहीं दे सकते। सत्य का अनुसरण करना मेरी नियति है ही नहीं, और मेरी परिस्थितियाँ मुझे कर्तव्य निभाने नहीं देतीं। मैं बस इतना ही कर सकता हूँ कि अपने पारिवारिक झंझट खत्म होने, अपने बच्चों के आत्मनिर्भर होने और अपने सेवानिवृत्त होकर भौतिक चिंताओं से मुक्त होने की प्रतीक्षा करूँ—फिर मैं सत्य का अनुसरण करूँगा।” इस तरह के लोग अपने दैनिक जीवन में कठिनाई का अनुभव करते हैं, और वे कभी-कभी अपने दैनिक जीवन के छोटे-मोटे मामलों में अपना भ्रष्ट स्वभाव उमड़ता महसूस कर सकते हैं। वे इन चीजों का पता लगा सकते हैं, लेकिन चूँकि वे धर्मनिरपेक्ष दुनिया के जाल में फँस गए हैं, इसलिए वे मानते हैं कि इस तरह जीकर, परमेश्वर में विश्वास करके, उपदेश सुनकर और आराम से गुजारा करके वे अच्छा कर रहे हैं। वे मानते हैं कि सत्य का अनुसरण प्रतीक्षा कर सकता है, और उनके जो भी भ्रष्ट स्वभाव हैं, उन्हें आने वाले कुछ वर्षों में दूर करें तो बहुत देर नहीं होगी। सत्य का अनुसरण करने के बड़े मामले को वे इस तरह टाल देते हैं और उसे बार-बार स्थगित कर देते हैं। वे हमेशा क्या कहते हैं? “सत्य का अनुसरण करने के लिए कभी देर नहीं होती। मैं इसे कुछ साल दूँगा। जब तक परमेश्वर का कार्य समाप्त नहीं हो जाता, तब तक मेरे पास समय है—मेरे पास अभी भी अवसर है।” तुम इस विचार के बारे में क्या सोचते हो? (यह गलत है।) क्या उन्होंने सत्य का अनुसरण करने का दायित्व उठाया है? (नहीं।) तो फिर उन्होंने कौन-सा दायित्व उठाया है? क्या यह गुजारा चलाने, अपने परिवार का भरण-पोषण करने, अपने बच्चे पालने का दायित्व नहीं है? वे अपनी सारी ऊर्जा अपने बच्चों, अपने परिवारों, अपने दिनों और जीवन को समर्पित कर देते हैं, और केवल इन चीजों का इंतजाम करने के बाद ही वे सत्य का अनुसरण शुरू करने की योजनाएँ बनाते हैं। तो क्या उनके ये बहाने वाजिब हैं? क्या वे उनके सत्य के अनुसरण की बाधाएँ नहीं हैं? (वे हैं।) ये लोग परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं में विश्वास तो करते हैं, लेकिन साथ ही उस परिवेश के बारे में शिकायत भी करते हैं जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने उनके लिए की है। वे परमेश्वर की अपेक्षाओं की अवहेलना करते हैं और उनके साथ सक्रिय रूप से बिल्कुल भी सहयोग नहीं करते। इसके बजाय, वे केवल अपनी देह, परिवार और रिश्तेदारों को संतुष्ट करने की परवाह करते हैं। सत्य का अनुसरण न करने का वे क्या कारण देते हैं? “हम बस जिंदा रहने की कोशिश में ही बहुत व्यस्त हैं और थक गए हैं। हमारे पास सत्य का अनुसरण करने का समय नहीं है; हमारे पास सत्य का अनुसरण करने के लिए सही परिवेश नहीं है।” वे क्या दृष्टिकोण रखते हैं? (सत्य का अनुसरण करने के लिए कभी देर नहीं होती।) “सत्य का अनुसरण करने के लिए कभी देर नहीं होती। मैं इसे कुछ वर्षों में करूँगा।” क्या यह मूर्खता नहीं है? (है।) यह मूर्खता है—वे अपने बहानों से खुद को मूर्ख बना रहे हैं। क्या परमेश्वर का कार्य तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा? (नहीं।) “मैं इसे कुछ वर्षों में करूँगा”—उन “कुछ वर्षों” का क्या अर्थ है? उनका अर्थ है कि तुम्हें बचाए जाने की उम्मीद कम है और तुम्हारे पास परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए कम वर्ष होंगे। कुछ वर्ष ऐसे ही बीतेंगे, फिर कुछ और वर्ष ऐसे ही बीत जाएँगे और इससे पहले कि तुम जान पाओ, दस वर्ष बीत चुके होंगे, और तुमने बिल्कुल भी सत्य नहीं समझा होगा, न ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश किया होगा, और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का एक कतरा भी दूर नहीं हुआ होगा। एक ईमानदार शब्द बोलना भी तुम्हारे लिए ऐसा संघर्षपूर्ण है। क्या यह खतरनाक नहीं है? क्या यह दुख की बात नहीं है? (है।) जब लोग सत्य का अनुसरण न करने को सही ठहराने के लिए ये सब बहाने और कारण पेश करते हैं, तो अंत में वे किसे नुकसान पहुँचाते हैं? (खुद को।) यह सही है—अंत में वे खुद को ही नुकसान पहुँचाते हैं। और जब वे अपनी मृत्यु-शय्या पर होंगे, तो वे परमेश्वर में अपने विश्वास के वर्षों में सत्य प्राप्त न करने के लिए खुद से घृणा करेंगे, और वे अपने पूरे जीवन पछताएँगे!

कुछ लोग कुछ हद तक सुशिक्षित होते हैं, लेकिन उनकी क्षमता कम होती है और उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं होती। वे कितने भी उपदेश सुन लें, सत्य नहीं समझ पाते। उनकी हमेशा अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं, और वे हमेशा हैसियत के लिए संघर्ष करते रहते हैं। अगर उनके पास हैसियत न हो, तो वे सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे। वे कहते हैं, “परमेश्वर का घर कभी मेरे लिए ऐसा कर्तव्य निभाने की व्यवस्था नहीं करता, जो मेरा महत्व दर्शाता हो, जैसे पाठ-आधारित कार्य, ए.वी. कार्य, कलीसिया का अगुआ होना, या किसी समूह का निरीक्षक होना। वे मुझे ऐसा कोई महत्वपूर्ण काम करने के लिए नहीं देते। परमेश्वर का घर मुझे उन्नत या विकसित नहीं करता, और हर बार जब कलीसिया में चुनाव होता है, कोई मुझे वोट नहीं देता, और कोई मुझे पसंद नहीं करता। क्या वाकई मुझमें वांछनीय गुण नहीं हैं? मैं एक बुद्धिजीवी हूँ, सुशिक्षित हूँ, लेकिन परमेश्वर का घर मुझे कभी उन्नत या विकसित नहीं करता, इसलिए मुझमें सत्य का अनुसरण करने की कोई प्रेरणा नहीं है। जिन भाई-बहनों ने परमेश्वर में उसी समय विश्वास करना शुरू किया था जब मैंने किया था, वे सभी महत्वपूर्ण कर्तव्य निभा रहे हैं, और अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में काम कर रहे हैं—ऐसा क्यों है कि मुझे बेकार छोड़ दिया गया है? मुझे सिर्फ समय-समय पर सुसमाचार फैलाने की एक सहायक भूमिका निभाने को मिलती है, और वे मुझे गवाही भी नहीं देने देते। जब भी परमेश्वर का घर लोगों को महत्वपूर्ण कार्यों के लिए उन्नत करता है, तो वहाँ मेरे लिए कुछ नहीं होता; मुझे सभाओं की अगुआई तक नहीं करने दी जाती, और वे मुझे कोई जिम्मेदारी नहीं देते। मुझे महसूस होता है कि मेरे साथ बहुत अन्याय हो रहा है। यह वह परिवेश है, जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने मेरे लिए की है। मैं अपने अस्तित्व का मूल्य महसूस क्यों नहीं कर सकता? क्यों परमेश्वर दूसरों से तो प्यार करता है, पर मुझसे नहीं? क्यों वह दूसरों को तो विकसित करता है, पर मुझे नहीं? परमेश्वर के घर को मुझे और ज्यादा दायित्व देना चाहिए, और मुझे निरीक्षक या ऐसा ही कुछ बनाना चाहिए। इस तरह मुझमें सत्य का अनुसरण करने की थोड़ी प्रेरणा होगी। बिना प्रेरणा के मैं सत्य का अनुसरण कैसे कर सकता हूँ? सत्य का अनुसरण करने के लिए लोगों को हमेशा थोड़ी प्रेरणा की आवश्यकता होती है; हमें उसका अनुसरण करने के लाभ देखने में सक्षम होने की आवश्यकता है। मैं जानता हूँ कि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं जिन्हें बदलने की आवश्यकता है, और मैं जानता हूँ कि सत्य का अनुसरण करना एक अच्छी बात है, वह हमें बचाए जाने और पूर्ण किए जाने देता है—लेकिन मेरा कभी किसी महत्वपूर्ण चीज के लिए उपयोग नहीं किया जाता, और मुझे सत्य का अनुसरण करने के लिए कोई प्रोत्साहन महसूस नहीं होता! जब भाई-बहन मेरा सम्मान और समर्थन करेंगे, तब मैं सत्य का अनुसरण करने लगूँगा—तब तक बहुत देर नहीं हुई होगी।” क्या इस तरह के लोग नहीं हैं? (हैं।) उनके साथ क्या समस्या है? समस्या यह है कि वे हैसियत और प्रतिष्ठा चाहते हैं। स्पष्ट रूप से, वे सत्य के प्रेमी नहीं हैं, फिर भी वे परमेश्वर के घर में प्रतिष्ठा और पद पाना चाहते हैं। क्या यह बेशर्मी नहीं है? तुम्हारा एक श्रमिक होना काफी है; तुम एक निष्ठावान श्रमिक बन सकते हो या नहीं, यह देखना बाकी है। यह तुम्हें स्पष्ट क्यों नहीं है? क्या तुम समझते हो कि अगर तुम्हारे पास हैसियत और प्रतिष्ठा होगी, तो तुम बचा लिए जाओगे? कि तुम ऐसे व्यक्ति होगे, जो सत्य का अनुसरण करता है? क्या तुम्हारी ये भावनाएँ सही हैं? (नहीं।) ये लोग अलग दिखना चाहते हैं, अपनी उपस्थिति महसूस कराना चाहते हैं, और जब उनकी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं तो शिकायत करते हैं कि परमेश्वर अन्यायी है, लोगों के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार करता है, उसका घर उन्हें बढ़ावा नहीं देता, भाई-बहन उन्हें नहीं चुनते—निश्चित रूप से ये चीजें सत्य का अनुसरण करने के लिए आवश्यक नींव नहीं हैं। क्या परमेश्वर के वचनों में कहीं भी यह कहा गया है कि सत्य का अनुसरण करने वाले को सभी के द्वारा अपनाया जाना चाहिए और भाई-बहनों द्वारा उसे सम्मान दिया जाना चाहिए? या उन्हें कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाने और महत्वपूर्ण कार्य करने में सक्षम होना चाहिए और परमेश्वर के घर में बड़ा योगदान भी करना चाहिए? क्या परमेश्वर के वचन कहते हैं कि केवल ऐसे लोग ही सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, केवल वे ही सत्य का अनुसरण करने योग्य हैं? क्या उसके वचन कहते हैं कि केवल वे लोग ही सत्य का अनुसरण करने के मानदंड पूरे करते हैं, केवल वे ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं, या अंत में, केवल उन्हें ही बचाया जा सकता है? क्या यह परमेश्वर के वचनों में कहीं लिखा है? (नहीं।) यह स्पष्ट है कि इस प्रकार के व्यक्ति द्वारा किए गए दावे गलत हैं। तो, वे ऐसी बातें क्यों कहते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण न करने का बहाना नहीं बना रहे? (बना रहे हैं।) वे हैसियत और प्रतिष्ठा से प्रेम करते हैं। उन्हें सिर्फ प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत लाभ के पीछे भागने और परमेश्वर में अपने विश्वास में हैसियत के पीछे दौड़ने से मतलब है। उन्हें लगता है कि इसे जोर से कहना शर्मनाक होगा, इसलिए वे सत्य का अनुसरण न करने के ढेरों कारण पेश कर अपना बचाव करते हुए कलीसिया, भाई-बहनों और परमेश्वर पर दोष मढ़ते हैं। क्या यह भयावह नहीं है? क्या वे निर्दोष पक्ष पर उँगली उठाने वाले दुष्ट लोग नहीं हैं? (हैं।) वे अकारण परेशानी पैदा कर रहे हैं और दूसरों को अतार्किक माँगों से तंग कर रहे हैं; वे पूरी तरह जमीर या विवेक से रहित हैं! सत्य का अनुसरण न करना अपने आप में एक पर्याप्त गंभीर समस्या है, ऊपर से वे बहस करने का प्रयास करते और हठी हो जाते हैं—यह वास्तव में अनुचित है, है न? सत्य का अनुसरण स्वैच्छिक होता है। यदि तुम सत्य से प्रेम करते हो, तो पवित्र आत्मा तुममें कार्य करेगा। यदि तुम सत्य से प्रेम करते हो, यदि तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर निर्भर होते हो, तुम पर चाहे जो भी अत्याचार या क्लेश आन पड़े तुम आत्मचिंतन कर स्वयं को जानने का प्रयास करते हो और यदि तुम पता चली समस्याओं का समाधान करने के लिए सक्रिय रूप से सत्य खोजते हो और मानव-स्तर के तरीके से अपना कर्तव्य करने में समर्थ हो, तो तुम अपनी गवाही में दृढ़ रहने में सक्षम रहोगे। यदि लोग सत्य से प्रेम करते हैं, तो ये अभिव्यक्तियाँ उनमें सहज ही दिखती हैं। वे स्वतः, खुशी से, बिना किसी दबाव और बिना किसी अतिरिक्त शर्त के घटित होती हैं। अगर लोग परमेश्वर का इस तरह अनुसरण कर सकें, तो अंततः वे सत्य और जीवन प्राप्त कर पाएंगे और वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करेंगे, और मनुष्य की छवि जिएंगे। क्या सत्य का अनुसरण करने के लिए तुम्हें कोई अतिरिक्त शर्त पूरी किए जाने की आवश्यकता है? नहीं। परमेश्वर में विश्वास स्वैच्छिक है, यह ऐसी चीज है जिसे व्यक्ति अपने लिए चुनता है और सत्य का अनुसरण करना पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है; परमेश्वर इसका अनुमोदन करता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे दैहिक सुख त्यागने के इच्छुक नहीं हैं और फिर भी परमेश्वर के आशीष प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन जब उनका सामना कुछ क्लेशों और उत्पीड़न या थोड़े-से उपहास और बदनामी से होता है, तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, और फिर परमेश्वर में विश्वास या उसका अनुसरण नहीं करना चाहते। वे उसे दोष तक दे सकते हैं और नकार सकते हैं। क्या यह अनुचित नहीं है? वे आशीष पाना चाहते हैं और फिर भी दैहिक सुखों के पीछे भागते हैं, और जब उन्हें कोई क्लेश या उत्पीड़न होता है, तो वे परमेश्वर को दोष देते हैं। सत्य से प्रेम न करने वाले ये लोग इतने अविवेकी होते हैं। उनके लिए अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना कठिन होगा; जैसे ही वे कुछ क्लेशों या उत्पीड़न का सामना करेंगे, उन्हें प्रकट कर दिया जाएगा और हटा दिया जाएगा। ऐसे बहुत लोग हैं। परमेश्वर पर विश्वास करने का तुम्हारा जो भी कारण हो, अंततः परमेश्वर तुम्हारे परिणाम का निर्धारण इस आधार पर करेगा कि तुमने सत्य प्राप्त किया है या नहीं। अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तो तुम्हारे द्वारा दिए गए किसी भी औचित्य या बहाने में दम नहीं होगा। तुम चाहे जैसे तर्क करने का प्रयास करो, खुद के लिए जैसी मर्जी हो वैसी मुसीबत खड़ी करो—क्या परमेश्वर परवाह करेगा? क्या परमेश्वर तुमसे बात करेगा? क्या वह तुमसे बहस और बातचीत करेगा? क्या वह तुमसे परामर्श लेगा? जवाब क्या है? नहीं। वह बिल्कुल नहीं करेगा। तुम्हारा तर्क चाहे जितना भी मजबूत हो, वह टिक नहीं पाएगा। तुम्हें परमेश्वर के इरादों को गलत नहीं समझना चाहिए और ये नहीं सोचना चाहिए कि अगर तुम तमाम कारण दो और बहाने बनाओ तो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं। परमेश्वर चाहता है कि तुम हर तरह के परिवेश में और खुद पर पड़ने वाले हर मामले में सत्य खोजने में सक्षम बनो, और अंततः सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सत्य प्राप्त करो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए चाहे जिन परिस्थितियों की व्यवस्था की हो, चाहे जिन लोगों और घटनाओं से तुम्हारा सामना हो और चाहे जिस परिवेश में तुम खुद को पाओ, तुम्हें उनका सामना करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए। ये ही वे सबक हैं, जो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने में सीखने चाहिए। यदि तुम हमेशा इन परिस्थितियों से निकल भागने के लिए बहाने खोजोगे, इनसे बचोगे, नकारोगे, विरोध करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा। तर्क करने, हठी या टेढ़ा होने का कोई अर्थ नहीं है—अगर परमेश्वर तुमसे सरोकार नहीं रखता, तो तुम उद्धार का अवसर खो दोगे। परमेश्वर के लिए, ऐसी कोई समस्या नहीं जिसे हल नहीं किया जा सकता; उसने प्रत्येक व्यक्ति के लिए व्यवस्था की है, और उसके पास उन्हें सँभालने का तरीका है। परमेश्वर तुमसे इस बात की चर्चा नहीं करेगा कि तुम्हारे कारणों और बहानों का औचित्य है या नहीं। परमेश्वर यह नहीं सुनेगा कि अपने बचाव में तुम जो तर्क दे रहे हो, वह विवेकपूर्ण है या नहीं। वह तुमसे केवल यही पूछेगा, “क्या परमेश्वर के वचन सत्य हैं? क्या तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है? क्या तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए?” तुम्हें बस एक ही तथ्य के बारे में स्पष्ट होने की आवश्यकता है : परमेश्वर सत्य है, तुम एक भ्रष्ट मनुष्य हो, इसलिए तुम्हें खुद ही सत्य तलाशने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। कोई भी समस्या या कठिनाई, कोई भी कारण या बहाना नहीं चलेगा—अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तो तुम नष्ट हो जाओगे। सत्य का अनुसरण करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति जो भी कीमत चुकाता है, वह सार्थक है। लोगों को सत्य स्वीकारने और जीवन प्राप्त करने के लिए अपने सभी बहाने, औचित्य और परेशानियाँ छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर के वचन और सत्य ही वह जीवन है जिसे उन्हें प्राप्त करना चाहिए, और यह ऐसा जीवन है जिसे किसी भी चीज से बदला नहीं जा सकता। अगर तुम इस अवसर को खो देते हो, तो तुम न केवल अपने शेष जीवन में पछताओगे—यह महज खेद की बात नहीं है—बल्कि तुमने खुद को लगभग पूरी तरह से नष्ट कर लिया होगा। फिर तुम्हारे लिए कोई परिणाम या कोई गंतव्य नहीं होगा, और एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारा मार्ग अवरुद्ध हो चुका होगा। तुम्हें फिर कभी बचाए जाने का अवसर नहीं मिलेगा। क्या तुम लोग समझ रहे हो? (हाँ, समझ रहे हैं।) सत्य का अनुसरण न करने के बहाने या कारण न ढूँढ़ो। वे किसी काम के नहीं; तुम सिर्फ खुद को बेवकूफ बना रहे हो।

कुछ अगुआ कभी सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करते, वे अपने आप में कानून होते हैं, मनमाने और अविवेकी होते हैं। संभव है भाई-बहन इसका उल्लेख करते हुए कहें, “तुम कार्य करने से पहले कभी-कभार ही किसी से परामर्श करते हो। हमें तुम्हारे फैसले और निर्णय तब तक पता नहीं चलते, जब तक कि तुम उन्हें ले नहीं लेते। तुम किसी से चर्चा क्यों नहीं करते? जब तुम कोई निर्णय लेते हो, तो हमें पहले बताते क्यों नहीं? भले ही तुम जो कर रहे हो वह सही हो, और तुम्हारी क्षमता हमसे ज्यादा हो, फिर भी तुम्हें पहले हमें उसके बारे में सूचित करना चाहिए। कम से कम, हमें यह जानने का अधिकार है कि क्या हो रहा है। हमेशा खुद को ही कानून मानकर काम करने के द्वारा तुम मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहे हो!” और इस पर तुम अगुआ को क्या कहते सुनते हो? “मेरे घर में, मैं मालिक हूँ। छोटे-बड़े सभी मामले मैं ही तय करता हूँ। मैं इसी का आदी हूँ। जब मेरे विस्तारित परिवार में किसी को कोई समस्या होती है, तो वह मेरे पास आता है और क्या करना है इसका निर्णय मुझे लेने को कहता है। वे जानते हैं कि में समस्याएँ सुलझाने में अच्छा हूँ। इसलिए अपने परिवार के मामलों का मैं ही कर्ता-धर्ता हूँ। जब मैं कलीसिया से जुड़ा, तो मैंने सोचा था कि मुझे चीजों को लेकर और झंझट मोल नहीं लेनी होगी, लेकिन फिर मुझे अगुआ चुन लिया गया। मैं कुछ नहीं कर सकता—मैं पैदा ही इसके लिए हुआ था। परमेश्वर ने मुझे यह हुनर दिया। मैं फैसले करने और दूसरे लोगों के लिए निर्णय लेने को ही पैदा हुआ हूँ।” यहाँ निहितार्थ यह है कि अधिकारी होना उनकी किस्मत में है, और दूसरे लोग पैदल सैनिक और गुलाम बनने के लिए पैदा हुए हैं। उन्हें लगता है कि उनकी बात ही अंतिम होनी चाहिए और दूसरे लोगों को उनकी बात सुननी चाहिए। यहाँ तक कि जब भाई-बहन इस अगुआ की समस्या देखकर उसे बताते हैं, तो वह इसे स्वीकारेगा नहीं, और न ही अपनी काट-छाँट स्वीकारेगा। वह तब तक लड़ता और विरोध करता रहेगा, जब तक कि भाई-बहन जोरों से उसे हटाने की माँग नहीं करते। हर समय, वह अगुआ यही सोचेगा कि, “मेरी क्षमता ही ऐसी है कि मैं जहाँ भी जाता हूँ, वहीं मेरी किस्मत में प्रभारी होना बदा होता है। जैसी तुम लोगों की क्षमता है, तुम हमेशा गुलाम और नौकर ही बनोगे। दूसरों से आदेश पाना तुम्हारा भाग्य है।” अकसर ऐसी बातें कहकर वे किस तरह का स्वभाव प्रकट कर रहे हैं? स्पष्ट रूप से, यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, यह अहंकार, दंभ, और अत्यधिक अहंभाव रखना है, फिर भी वे बेशर्मी से इसका प्रदर्शन करते और दिखाते हैं मानो यह उनकी खूबी और गुण हो। जब कोई व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, तो उसे आत्मचिंतन करना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना, पश्चात्ताप करना और इससे विद्रोह करना चाहिए और उसे तब तक सत्य का अनुसरण करना चाहिए, जब तक कि वह सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करने लगे। लेकिन यह अगुआ इस तरह से अभ्यास नहीं करता। बल्कि वह अपने विचारों और तरीकों पर अड़े रहकर सुधरता नहीं। इन व्यवहारों से, तुम देख सकते हो कि वह जरा भी सत्य नहीं स्वीकारता और सत्य का अनुसरण करने वाला इंसान तो बिल्कुल नहीं है। वह ऐसे किसी भी व्यक्ति की नहीं सुनता जो उसे उजागर कर उसकी काट-छाँट करता है, इसके बजाय वह अपनी सफाई देता रहता है : “हम्म—मैं ऐसा ही हूँ! इसे कहते हैं क्षमता और प्रतिभा—क्या तुम लोगों में से किसी में हैं ये चीजें? मेरी किस्मत में प्रभारी होना बदा है। मैं जहाँ भी जाता हूँ, अगुआ रहता हूँ। मैं अपनी बात मनवाने का और बिना दूसरों से परामर्श किए सभी चीजों को लेकर फैसले करने का आदी हूँ। मैं ऐसा ही हूँ, यह मेरा अपना आकर्षण है।” क्या यह हद दर्जे की बेशर्मी नहीं है? वे यह स्वीकार नहीं करते कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है, और वे स्पष्ट रूप से परमेश्वर के वचन नहीं स्वीकारते, जो मनुष्य का न्याय कर उसे उजागर करते हैं। इसके विपरीत, वे अपने विधर्म और भ्रांतियों को सत्य मानते हैं, और बाकी सबसे उन्हें स्वीकार करवाने, उनका आदर करवाने की कोशिश करते हैं। दिल ही दिल में वे मानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के घर में राज करना चाहिए सत्य को नहीं, उन्हें ही सारे निर्णय लेने चाहिए। क्या यह खुल्लमखुल्ला बेशर्मी नहीं है? वे कहते हैं कि वे सत्य का अनुसरण करना चाहते हैं, लेकिन उनका व्यवहार इसके बिल्कुल विपरीत होता है। वे कहते हैं कि वे परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण करते हैं, लेकिन वे हमेशा सत्ता का उपयोग करना चाहते हैं, अपनी बात मनवाना चाहते हैं, और सभी भाई-बहनों से अपने प्रति समर्पण और अपना आज्ञापालन करवाना चाहते हैं। वे दूसरों को अपना निरीक्षण नहीं करने देते या खुद को सलाह नहीं देने देते, भले ही वे जो कर रहे होते हैं, वह उचित या सिद्धांतों के अनुसार हो या नहीं। इसके बजाय, वे मानते हैं कि बाकी सभी लोगों को उनकी बातें और फैसले मानने चाहिए और उनका पालन करना चाहिए। वे अपने कार्यों पर बिल्कुल भी विचार नहीं करते। चाहे भाई-बहन उन्हें कैसे भी सलाह दें और उनकी मदद करें, चाहे परमेश्वर का घर उनकी कैसे भी काट-छाँट करें या भले ही उन्हें कई बार बर्खास्त कर दिया जाए, वे अपनी समस्याओं पर विचार नहीं करते। वे हमेशा अपनी इसी बात पर कायम रहते हैं : “अपने घर में मैं ही मालिक हूँ। मैं ही सारे फैसले करता हूँ। सारे मामलों में मेरी ही चलती है। इसी का मैं अभ्यस्त हो चुका हूँ और इसका कोई विकल्प नहीं है।” वे वास्तव में अविवेकी हैं और कभी सुधर नहीं सकते! वे इन नकारात्मक अभ्यासों का इस तरह प्रचार करते हैं, जैसे कि वे सकारात्मक चीजें हों, और खुद को हमेशा बहुत ऊँचा समझते हैं। वे कितने बेशर्म हैं! ये लोग सत्य बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते और कभी सुधर नहीं सकते—इसलिए तुम निश्चित हो सकते हो कि वे उससे प्रेम नहीं करते या उसका अनुसरण नहीं करते। वे दिल से सत्य विमुख हो चुके हैं और उससे शत्रुता रखते हैं। अपनी इच्छाएँ पूरी करने और हैसियत हासिल करने के लिए वे जो कीमत चुकाते हैं और जिन कठिनाइयों से गुजरते हैं, वे सब व्यर्थ हैं। परमेश्वर उनमें से किसी का भी अनुमोदन नहीं करता, वह उनसे घृणा करता है। यह सत्य के प्रति उनके विरोध और परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध की अभिव्यक्ति है। इसके बारे में पूरी तरह से निश्चित हुआ जा सकता है, और जो लोग सत्य समझते हैं, वे सभी इसे समझ सकते हैं।

कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, पर उनमें कोई सत्य वास्तविकता नहीं है; वे वर्षों उपदेश सुन चुके हैं, पर वे सत्य नहीं समझते। भले ही उनकी काबिलियत अच्छी नहीं है, पर उनमें ऐसी बेजोड़ “प्रतिभाएँ” जरूर हैं : झूठ बोलकर उस पर लीपापोती करना और दूसरों को अलंकारिक शब्दों से धोखा देकर बहकाना। अगर वे एक दर्जन वाक्य कहें, तो उनके भीतर एक दर्जन मिलावटें होंगी—उनमें से हरेक में कुछ हद तक अशुद्धता होगी। सटीकता से कहें तो, वे जो कुछ भी कहते हैं, वह सच नहीं होता। लेकिन चूँकि उनकी क्षमता खराब है और वे काफी शिष्ट दिखाई देते हैं, इसलिए वे सोचते हैं, “मैं प्रकृति से एक डरपोक, भोला व्यक्ति हूँ, और मेरी क्षमता खराब है। मैं जहाँ भी जाता हूँ, मुझे धौंस दी जाती है, और जब लोग मुझे धौंस देते हैं, तो मुझे बस उसे सहना और भुगतना पड़ता है। मैं पलटकर उन्हें जवाब देने या उनसे लड़ने की हिम्मत नहीं करता—मैं बस इतना कर पाता हूँ कि छिप जाऊँ, झुक जाऊँ और सह लूँ। मैं वह ‘ईमानदार लेकिन अज्ञानी आदमी’ हूँ, जिसके बारे में परमेश्वर के वचन बताते हैं, मैं उसके लोगों में से एक हूँ।” अगर कोई उनसे पूछे, “फिर तुम झूठ कैसे बोलते हो?” वे कहेंगे, “मैंने कब झूठ बोला? मैंने किसे धोखा दिया? मैंने झूठ नहीं बोला! मैं इतना भोला व्यक्ति हूँ, झूठ कैसे बोल सकता हूँ? मेरा दिमाग चीजों पर प्रतिक्रिया करने में धीमा है, और मैं बहुत पढ़ा-लिखा नहीं हूँ—मैं झूठ बोलना नहीं जानता! जो लोग धोखेबाज हैं, वे पलक झपकते ही कुछ दुष्ट विचार और षड्यंत्र रच सकते हैं। मैं उस तरह चालाक नहीं हूँ, और मुझे हमेशा धौंस दी जाती है। तो मैं वह ईमानदार व्यक्ति हूँ, जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है, और मुझे झूठा या चालबाज कहने का तुम लोगों के पास कोई आधार नहीं है। इस बात में कोई दम नहीं है—तुम लोग बस मुझे बदनाम करने की कोशिश कर रहे हो। मुझे पता है, तुम सभी लोग मुझे हेय दृष्टि से देखते हो : तुम सोचते हो कि मैं मूर्ख हूँ और मेरी क्षमता खराब है, इसलिए तुम सभी मुझे धौंस देना चाहते हो। अकेला परमेश्वर ही है जो मुझे धौंस नहीं देता, वह मेरे साथ अनुग्रह से पेश आता है।” इस तरह का व्यक्ति यह तक नहीं स्वीकारता कि वह झूठ बोलता है, और वह यह कहने की जुर्रत करता है कि वह वो ईमानदार व्यक्ति है, जिसके बारे में परमेश्वर बात करता है, और इस कथन के साथ वह खुद को सीधे सिंहासन पर आरूढ़ कर लेता है। उसका मानना है कि वह प्रकृति से ईमानदार लेकिन अज्ञानी व्यक्ति है और परमेश्वर उससे प्रेम करता है। वह सोचता है कि उसे सत्य का अनुसरण या आत्मचिंतन करने की जरूरत नहीं। उसे लगता है कि जब से वह पैदा हुआ है, तभी से उसके मुँह से कोई झूठ नहीं निकला। चाहे कोई कुछ भी कहे, वह झूठ बोलने की बात नहीं स्वीकारता, इसके बजाय वह बहस और अपना बचाव करने के लिए वही पुराने बहाने बनाता है। क्या उसने आत्मचिंतन किया है? एक तरह से किया है। उस “आत्मचिंतन” से उसे क्या मिला? “मैं वह ईमानदार लेकिन अज्ञानी व्यक्ति हूँ, जिसकी परमेश्वर बात करता है। मैं थोड़ा अज्ञानी हो सकता हूँ, लेकिन मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूँ।” क्या वह अपने मुँह मियाँ मिट्ठू नहीं बन रहा? उसे यह स्पष्ट नहीं है कि वह क्या है, एक अज्ञानी व्यक्ति या एक ईमानदार व्यक्ति, लेकिन वह खुद को एक ईमानदार व्यक्ति मानता है। क्या वह खुद को जानता है? अगर कोई मूर्ख है जिस पर लोग धौंस जमाते है और वह कायरतापूर्ण जीवन जीता है, तो क्या इसका मतलब यह है कि वह अनिवार्य रूप से अच्छा व्यक्ति है? और अगर दूसरे लोग किसी को अच्छा व्यक्ति समझते हैं, तो क्या इसका मतलब यह है कि उसे सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं? क्या ऐसे लोगों के पास स्वाभाविक रूप से सत्य होता है? कुछ लोग कहते हैं, “मैं बहुत ही भोला आदमी हूँ, मैं हमेशा सच बोलने की कोशिश करता हूँ, बस मैं थोड़ा-सा अज्ञानी हूँ। मुझे सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं, मैं पहले से ही एक अच्छा और ईमानदार व्यक्ति हूँ।” ऐसा कहकर क्या वे यह नहीं कह रहे कि उनके पास सत्य है और उनका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है? पूरी मानव-जाति शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी है। सभी लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं, और जब किसी में भ्रष्ट स्वभाव होता है, तो वह जब चाहे झूठ बोल सकता है, छल कर सकता है और धोखा दे सकता है। यहाँ तक कि वह अहंकारी स्वभाव प्रकट करते हुए अपनी किसी तुच्छ उपलब्धि या योगदान का दिखावा भी कर सकता है। इस पूरे समय में वह परमेश्वर के बारे में धारणाओं से भरा रहता है और उससे असंयमित माँगें करता रहता है, और उससे बहस करने की कोशिश करता है। क्या ये समस्याएँ नहीं हैं? क्या यह भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? क्या इसके जाँच की आवश्यकता नहीं है? है। लेकिन इन लोगों ने पहले ही ऐसे ईमानदार लोगों के रूप में अपना अभिषेक कर लिया है, जो कभी झूठ नहीं बोलते या दूसरों को धोखा नहीं देते; वे ढिंढोरा पीटते हैं कि उनमें कपटपूर्ण स्वभाव नहीं है, इसलिए उन्हें सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए, इस तरह का व्यवहार करने वाला कोई भी व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा, और उनमें से किसी ने भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है। जब वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, तो वे अक्सर अपनी मूर्खता, कैसे उन्हें हमेशा धौंस दी जाती है, और अपनी विशेष रूप से कमजोर क्षमता को लेकर फूट-फूटकर रोते हैं : “परमेश्वर, केवल तुम्हीं मुझसे प्रेम करते हो; केवल तुम्हीं मुझ पर दया करते हो और मेरे साथ अनुग्रह से पेश आते हो। सभी लोग मुझे धौंस देते हैं, और कहते हैं कि मैं झूठा हूँ—लेकिन मैं झूठा नहीं हूँ!” फिर, वे अपने आँसू पोंछकर खड़े हो जाते हैं, और जब दूसरे लोगों को देखते हैं तो सोचते हैं, “तुम लोगों में से किसी से भी परमेश्वर प्रेम नहीं करता। केवल मुझी से करता है।” ये लोग खुद को ऊँचा समझते हैं और यह नहीं स्वीकारते कि वे परमेश्वर द्वारा बताए गए भ्रष्ट स्वभावों के विभिन्न व्यवहारों और उद्गारों में से किसी को भी प्रदर्शित करते हैं। यहाँ तक कि जब उन पर कोई विशेष समस्या आती है और उनके भीतर एक भ्रष्ट अवस्था या उद्गार उत्पन्न करती है, तो वे बस पल भर के विचार के बाद उसे मौखिक रूप से स्वीकार लेते हैं, और फिर मामला खत्म कर देते हैं। वे सत्य बिल्कुल भी नहीं खोजते, न ही यह तथ्य स्वीकारते हैं कि उनमें भ्रष्टता है और वे एक भ्रष्ट इंसान हैं। बेशक, किसी विशेष मामले में भ्रष्ट स्वभाव दिखाने की बात तो वे बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते। चाहे वे कितनी भी समस्याएँ उत्पन्न करें और कितने ही भ्रष्ट स्वभाव प्रदर्शित करें, वे हमेशा यही बात कहते हैं : “मैं वह ईमानदार लेकिन अज्ञानी मनुष्य हूँ, जिसके बारे में परमेश्वर बात करता है। मैं उसकी दया का पात्र हूँ, और वह मुझे बहुत आशीष देगा।” और इसलिए, इन शब्दों से उन्हें लगता है कि उन्हें सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं; ऐसे लोग सत्य का अनुसरण न करने के लिए ऐसी बातें करके बहाने बनाते हैं। क्या ऐसे लोग बेतुके नहीं हैं? (हैं।) वे बेतुके और अज्ञानी हैं। वे कितने बेतुके हैं? इतने कि वे परमेश्वर के वचनों में से अपने फायदे का कोई वाक्यांश पकड़ लेते हैं और उसे उस मुहर के रूप में इस्तेमाल करते हैं, जिससे परमेश्वर को मजबूर किया जा सके और खुद को सत्य का अनुसरण न करने से दोषमुक्त किया जा सके, और मनुष्य को उजागर कर उसका न्याय करने वाले परमेश्वर के वचनों से इस तरह पेश आते हैं जैसे उनका उनसे कुछ लेना-देना न हो। उन्हें लगता है कि उन्हें उनको सुनने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वे पहले से ही ईमानदार व्यक्ति हैं। सीधे शब्दों में कहें तो, ऐसे लोग दयनीय रूप से अभागे होते हैं। उनकी काबिलियत कम होती है, उन्हें कोई समझ नहीं होती और उनमें बहुत कम शर्म होती है, फिर भी वे आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। भले ही उनमें कम काबिलियत होती है, और उनमें न तो समझ होती है और न ही शर्म, फिर भी वे बहुत घमंडी होते हैं और साधारण लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं। उनमें उन खूब काबिल लोगों के लिए कोई सम्मान नहीं होता, जो सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं और सत्य वास्तविकता पर संगति कर सकते हैं। वे सोचते हैं, “वैसे भी तुम लोगों की ये खूबियाँ किस काम की हैं? तुम सभी सत्य का अनुसरण करते रहो और खुद को जानते रहो—मुझे यह सब करने की आवश्यकता नहीं। मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूँ; मैं थोड़ा अज्ञानी हो सकता हूँ, लेकिन वास्तव में यह कोई मुद्दा नहीं है। और मैं जो भ्रष्ट स्वभाव दिखाता हूँ, उसके बारे में भी चिंता करने की कोई बात नहीं। जब तक मैं खुद को कुछ अच्छे व्यवहारों से लैस किए रहता हूँ, तब तक मैं ठीक रहूँगा।” वे खुद से क्या अपेक्षा करते हैं? “हर हाल में, परमेश्वर मेरे दिल को जानता है, और उसमें मेरी आस्था सच्ची है। यह काफी है। अनुभवात्मक गवाही और परमेश्वर के वचनों के ज्ञान के बारे में दिन-रात बात करना—इस सारी बातचीत का क्या काम है? कुल मिलाकर, परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास करना ही काफी है।” क्या इससे बढ़कर भी कोई मूर्खता हो सकती है? पहली बात, ऐसे लोगों की सत्य में बिल्कुल भी रुचि नहीं होती; दूसरे, यह कहना उचित है कि उनमें सत्य या परमेश्वर के वचनों को समझने की कोई क्षमता नहीं है। और फिर भी, वे खुद को बहुत ऊँचा और ऐसा दिखाते हैं मानो वे दूसरों से महत्वपूर्ण हों। वे सत्य का अनुसरण न करने का औचित्य या अनुसरण का कोई तरीका या कोई ऐसी चीज तलाशते हैं, जिसे वे खूबी के रूप में देखते हैं ताकि सत्य के अनुसरण का स्थान इसे दे सकें। क्या यह मूर्खता नहीं है? (है।)

सत्य का अनुसरण न करने वाले कुछ लोगों में मानवता के संबंध में कोई बड़ी समस्या नहीं होती। वे नियमों से चिपके रहते हैं और अच्छा व्यवहार करते हैं। ऐसी महिलाएँ भद्र और गुणी, प्रतिष्ठित और शालीन होती हैं, और फालतू के काम नहीं करतीं। वे अपने माता-पिता के सामने अच्छी लड़कियाँ होती हैं, अपने पारिवारिक जीवन में अच्छी पत्नियाँ और माताएँ होती हैं, और कर्तव्यपरायणता से अपने घरों की देखभाल करते हुए अपने दिन बिताती हैं। ऐसे पुरुष भोले और कर्तव्यपरायण होते हैं और अच्छा व्यवहार करते हैं; वे संतान का कर्तव्य निभाने वाले पुत्र होते हैं, शराब या सिगरेट-बीड़ी नहीं पीते, चोरी या लूटमार नहीं करते, जुआ नहीं खेलते या वेश्याओं से संबंध नहीं रखते—वे आदर्श पति होते हैं, और घर के बाहर शायद ही कभी दूसरों से झगड़ते या इस बारे में तकरार करते हैं कि कौन सही या गलत है। कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर के एक विश्वासी के रूप में ये चीजें हासिल करना काफी है, और जो ऐसा करते हैं, वे मानक, स्वीकार्य रूप से अच्छे लोग हैं। वे मानते हैं कि अगर वे परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद से परोपकारी और मददगार, विनम्र और धैर्यवान, और सहिष्णु हो जाते हैं, और अगर वे कलीसिया द्वारा व्यवस्थित कार्य को बिना अनमने हुए लगन से और अच्छी तरह से करते हैं, तो उन्होंने सत्य वास्तविकता प्राप्त कर ली है और वे परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के करीब हैं। वे सोचते हैं कि अगर वे काम में जुट जाते हैं और थोड़ा और प्रयास करते हैं, अगर वे परमेश्वर के ज्यादा वचन पढ़ते हैं, अगर वे उनके ज्यादा वाक्यांश याद करते हैं और उनका दूसरों को ज्यादा उपदेश देते हैं, तो वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं। लेकिन वे अपनी भ्रष्टता के उद्गार को नहीं पहचानते, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को नहीं जानते, और यह तो वे बिल्कुल भी नहीं जानते कि भ्रष्ट स्वभाव कैसे उत्पन्न होता है, या उसे कैसे जानना और हल करना चाहिए। वे इनमें से कुछ नहीं जानते। क्या ऐसे लोग हैं? (हाँ।) वे अपनी स्वाभाविक “अच्छाई” को ऐसा मानक मानते हैं, जिसे सत्य का अनुसरण करने वालों को प्राप्त करना चाहिए। अगर कोई उन्हें घमंडी, धोखेबाज और दुष्ट कहता है तो वे इस पर खुले तौर पर विवाद नहीं करेंगे और विनम्रता, धैर्य और स्वीकृति का रवैया दिखाएँगे। लेकिन मन ही मन, इसे गंभीरता से लेने के बजाय वे इसका विरोध करेंगे : “मैं अहंकारी हूँ? अगर मैं अहंकारी हूँ, तो पृथ्वी पर एक भी अच्छा व्यक्ति नहीं है! अगर मैं धोखेबाज हूँ, तो दुनिया में कोई भी ईमानदार नहीं है! अगर मैं दुष्ट हूँ तो दुनिया में कोई भी शालीन नहीं है! क्या आजकल मेरे जैसा अच्छा व्यक्ति मिलना आसान है? नहीं—यह असंभव है!” उन्हें धोखेबाज या अहंकारी कहना या यह कहना कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, नहीं चलेगा, और उन्हें छद्म-विश्वासी कहना तो निश्चित रूप से नहीं चलेगा। वे मेज पर हाथ मारते हुए बहस करेंगे : “तो, तुम कहते हो, मैं एक छद्म-विश्वासी हूँ? अगर मुझे नहीं बचाया जा सकता, तो तुम लोगों में से किसी को नहीं बचाया जा सकता!” कोई उन्हें यह कहकर उजागर कर सकता है, “तुम सत्य नहीं स्वीकारते। जब लोग तुम्हारी समस्याएँ बताते हैं, तो तुम काफी विनम्र और धैर्यवान दिखाई देते हो, लेकिन मन ही मन तुम वास्तव में प्रतिरोधी होते हो। सत्य पर संगति करते हुए तुम जो उपदेश देते हो, वह सही होता है, लेकिन तथ्य यह है कि तुम परमेश्वर का ऐसा एक भी वचन नहीं स्वीकारते, जो मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव सार उजागर कर उसका न्याय करता है। तुम उनका विरोध करते हो और उनसे विमुख हो। तुम्हारा स्वभाव दुष्ट है।” अगर तुम उन्हें “दुष्ट” कहते हो, तो वे इसे स्वीकार ही नहीं सकते। “दुष्ट, और मैं? अगर मैं दुष्ट होता, तो तुम लोगों को बहुत पहले ही पैरों तले रौंद चुका होता! अगर मैं दुष्ट होता, तो तुम लोगों को पहले ही नष्ट कर चुका होता!” तुम उनके बारे में जो कुछ भी उजागर करते हो या उनके साथ जो कुछ भी संगति करते हो, वे उसे सही ढंग से समझ नहीं पाते। चीजों को सही ढंग से समझने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि कोई चाहे जो भी समस्याएँ तुम में उजागर करे, तुम यह जाँचने के लिए उनकी तुलना परमेश्वर के वचनों से करते हो कि तुम्हारे इरादों और विचारों में वाकई कोई त्रुटि थी या नहीं, और चाहे तुम में वे समस्याएँ वास्तव में किसी भी हद तक मौजूद हों, तुम उन सभी को स्वीकृति और समर्पण के दृष्टिकोण से लेते हो। वास्तव में इसी तरह अपनी समस्याओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्ञान अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार प्राप्त नहीं किया जा सकता, यह परमेश्वर के वचनों के आधार पर किया जाना चाहिए। तो, आत्म-ज्ञान के लिए क्या पूर्व-अपेक्षा है? तुम्हें यह तथ्य स्वीकारना चाहिए कि शैतान ने मानवजाति को गुमराह कर भ्रष्ट कर दिया है और सभी लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है। यह तथ्य स्वीकारकर ही तुम परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के अनुसार आत्म-चिंतन कर सकते हो, और इस आत्म-चिंतन की प्रक्रिया में धीरे-धीरे अपनी समस्याओं पर से पर्दा हटा सकते हो। बिना तुम्हारे जाने ही, तुम्हारी समस्याएँ थोड़ी-थोड़ी करके सतह पर आ जाएँगी, और तब तुम स्पष्ट रूप से समझ जाओगे कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव क्या है। और इस आधार पर तुम यह ज्ञान प्राप्त कर सकते हो कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो और तुम्हारा सार क्या है। इस तरह तुम परमेश्वर द्वारा कही और उजागर की गई सभी चीजें स्वीकारने लगोगे, और फिर परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का वह मार्ग खोजोगे जो उसने मनुष्य के लिए निर्धारित किया है, और उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करोगे और जियोगे। सत्य का अनुसरण करने का यही अर्थ है। लेकिन क्या इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर के वचन इसी तरह ग्रहण करता है? नहीं—वह यह स्वीकारने का दिखावा कर सकता है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और भ्रष्ट मानवजाति को उजागर करने वाले उसके सभी वचन तथ्य हैं, लेकिन अगर तुम उससे अपना भ्रष्ट स्वभाव जानने के लिए कहो, तो वह इसे न तो स्वीकारेगा और न ही मानेगा। वह मानता है कि इससे उसका कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह खुद को प्रतिष्ठित और शालीन व्यक्ति समझता है—ईमानदार व्यक्ति, सच्चरित्र जन। क्या ईमानदार व्यक्ति होने का मतलब यह है कि उसके पास सत्य है? ईमानदार व्यक्ति होना किसी की मानवता की सकारात्मक अभिव्यक्ति मात्र है; यह सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता। तो, सिर्फ इसलिए कि तुममें सामान्य मानवता की एक विशेषता है, इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हें सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है, न ही इसका मतलब यह है कि तुम पहले ही सत्य प्राप्त कर चुके हो—और इसका यह मतलब तो बिल्कुल भी नहीं कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है। क्या यही मामला नहीं है? (यही है।) ये तथाकथित “सच्चरित्र लोग” मानते हैं कि उनका स्वभाव अहंकारी, धोखेबाज या सत्य-विमुख नहीं है, और उनका स्वभाव दुष्ट और शातिर तो निश्चित रूप से नहीं है। वे सोचते हैं कि इनमें से कोई भी भ्रष्ट स्वभाव उनके भीतर मौजूद नहीं है, क्योंकि वे सच्चरित्र लोग हैं, वे प्रकृति से ही ईमानदार और दयालु हैं, उन्हें हमेशा दूसरों द्वारा धौंस दी जाती है, और हालाँकि वे कम क्षमता वाले और अज्ञानी हैं, फिर भी वे ईमानदार हैं। यह “ईमानदारी” सच्ची ईमानदारी नहीं है, यह भोलापन, कायरता और अज्ञानता है। क्या ऐसे लोग महामूर्ख नहीं हैं? सभी उन्हें अच्छा इंसान समझते हैं। क्या यह नजरिया सही है? क्या जिन्हें लोग अच्छा समझते हैं, उनका स्वभाव भ्रष्ट है? उत्तर है “हाँ”—यह निश्चित है। क्या भोले लोग झूठ नहीं बोलते? क्या वे दूसरों को धोखा नहीं देते या छद्म वेश धारण नहीं करते? क्या वे स्वार्थी नहीं होते? क्या वे लालची नहीं होते? क्या वे उच्च पद की इच्छा नहीं रखते? क्या वे तमाम असंयमित इच्छाओं से मुक्त हैं? हरगिज नहीं। उनके कोई बुराई न करने का एकमात्र कारण यह है कि उन्हें सही अवसर नहीं मिला। और वे इस पर गर्व करते हैं—वे खुद को सच्चरित्र लोगों के रूप में अभिषिक्त करते हैं और मानते हैं कि उनका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है। इसलिए, अगर कोई उनमें किसी प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव, उद्गार या अवस्था की ओर इशारा करता है, तो वे यह कहते हुए उसका खंडन कर देते हैं, “मैं ऐसा नहीं करता! मैं ऐसा नहीं हूँ, और मैं इस तरह नहीं करता या ऐसा नहीं सोचता। तुम लोगों ने मुझे गलत समझा है। तुम सभी लोग देखते हो कि मैं भोला हूँ, मूर्ख हूँ, डरपोक हूँ, इसलिए तुम मुझे धौंस देते हो।” ऐसे लोगों का क्या किया जाए, जो इस तरह पलटवार करते हैं? अगर किसी ने ऐसे लोगों को गुस्सा दिलाने की हिम्मत की, तो वे हमेशा के लिए उस व्यक्ति के पीछे पड़ जाएँगे। वे इस बात को जाने नहीं देंगे; वह चाहे जितनी भी कोशिश कर ले, उनसे पीछा नहीं छुड़ा पाएगा। ये अविवेकी, लगातार तंग करने वाले लोग फिर भी यही सोचते हैं कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले हैं, कि वे भोले, अज्ञानी लोग हैं जिनमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। अक्सर, वे यह भी कहते हैं, “मैं अज्ञानी हो सकता हूँ, लेकिन मैं भोला हूँ—मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूँ, और परमेश्वर मुझसे प्रेम करता है!” उनके लिए ये चीजें पूँजी हैं। क्या यह बेशर्मी नहीं है? तुम कहते हो कि परमेश्वर तुमसे प्रेम करता है। क्या यह सही है? क्या तुम्हारे पास ऐसा कहने का आधार है? क्या तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य है? क्या परमेश्वर ने कहा है कि वह तुम्हें पूर्ण बनाएगा? क्या परमेश्वर की तुम्हारा उपयोग करने की योजना है? अगर परमेश्वर ने तुमसे ये बातें नहीं कही हैं, तो तुम यह नहीं कह सकते कि वह तुमसे प्रेम करता है—तुम केवल यह कह सकते हो कि वह तुम पर दया करता है, जो पहले ही एक बड़ी बात है। अगर तुम कहते हो कि परमेश्वर तुमसे प्रेम करता है, तो यह केवल तुम्हारी व्यक्तिगत समझ है; इससे यह साबित नहीं होता कि परमेश्वर वास्तव में तुमसे प्रेम करता है। क्या परमेश्वर ऐसे व्यक्ति से प्रेम करेगा, जो सत्य का अनुसरण नहीं करता? क्या परमेश्वर एक अज्ञानी, डरपोक व्यक्ति से प्रेम करेगा? अज्ञानी और डरपोक पर परमेश्वर दया करता है—इतना सच है। परमेश्वर उन लोगों से प्रेम करता है, जो वास्तव में ईमानदार हैं, जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो सत्य का अभ्यास कर सकते हैं और उसके प्रति समर्पित हो सकते हैं, जो उसका गुणगान कर सकते हैं और उसकी गवाही दे सकते हैं, जो उसके इरादों के प्रति विचारशील हो सकते हैं और उससे ईमानदारी से प्रेम कर सकते हैं। केवल उन्हें ही परमेश्वर का प्रेम मिलता है, जो वास्तव में परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकते हैं और निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य निभाते हैं; केवल उन्हें ही परमेश्वर का प्रेम मिलता है जो सत्य के साथ ही अपनी काट-छाँट भी स्वीकार सकते हैं। जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते, जो अपनी काट-छाँट नहीं स्वीकारते, वे ऐसे लोग होते हैं जिनका परमेश्वर तिरस्कार कर देता है। अगर तुम सत्य से विमुख हो गए हो और परमेश्वर के कहे सभी वचनों का विरोध करते हो, तो परमेश्वर भी तुमसे विमुख होकर तुम्हें ठुकरा देगा। अगर तुम हमेशा खुद को एक अच्छा व्यक्ति, एक दयनीय, सरल और भोला व्यक्ति समझते हो, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो क्या परमेश्वर तुमसे प्रेम करेगा? यह असंभव है; उसके वचनों में इसका कोई आधार नहीं है। परमेश्वर यह नहीं देखता कि तुम भोले हो या नहीं, न ही वह इसकी परवाह करता है कि तुम किस प्रकार की मानवता या क्षमता के साथ पैदा हुए हो—वह देखता है कि उसके वचन सुनकर तुम उन्हें स्वीकारते हो या उन्हें अनदेखा कर देते हो, उनके प्रति समर्पित होते हो या उनका विरोध करते हो। वह देखता है कि उसके वचन तुम पर प्रभाव डालते और तुममें फलीभूत होते हैं या नहीं, कि तुम उसके द्वारा बोले गए अनेक वचनों की सच्ची गवाही दे सकते हो या नहीं। अगर अंत में तुम्हारा अनुभव होता है कि, “मैं भोला हूँ, मैं डरपोक हूँ, मैं जिससे भी मिलता हूँ वही मुझे धौंस देता है। सब मुझे हेय दृष्टि से देखते हैं,” तो परमेश्वर कहेगा कि यह गवाही नहीं है। अगर तुम यह जोड़ते हो, “मैं वह ईमानदार लेकिन अज्ञानी व्यक्ति हूँ, जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है,” तो परमेश्वर कहेगा कि तुम झूठ से भरे हो और तुम्हारे मुँह से सत्य का एक भी शब्द नहीं निकल सकता। अगर परमेश्वर तुमसे अपेक्षाएँ करता है, और तुम न केवल पूरी तरह उनके प्रति समर्पण करने में विफल होते हो, बल्कि यह कहते हुए परमेश्वर से बहस करने और अपने लिए बहाने बनाने का प्रयास करते हो, “मैंने कष्ट उठाया है और कीमत चुकाई है, और मैं परमेश्वर से प्रेम करता हूँ,” तो यह स्वीकार्य नहीं होगा। क्या तुम सत्य का अनुसरण करते हो? तुम्हारी सच्ची अनुभवजन्य गवाही कहाँ है? परमेश्वर के प्रति तुम्हारा प्रेम कैसे प्रकट होता है? अगर तुम साक्ष्य प्रदान नहीं कर सकते, तो कोई भी आश्वस्त नहीं होगा। तुम कहते हो, “मैं एक सच्चरित्र व्यक्ति हूँ और शालीनता से काम करता हूँ। मैं व्यभिचार में लिप्त नहीं होता और अपने कार्यों में सभी नियमों का पालन करता हूँ। मैं एक शिष्ट व्यक्ति हूँ। मैं शराब पीने, वेश्या से संबंध बनाने और जुआ खेलने नहीं जाता। मैं परमेश्वर के घर में विघ्न नहीं डालता, गड़बड़ी नहीं करता या कलह नहीं बोता, मैं कष्ट सहता हूँ और कड़ी मेहनत करता हूँ। क्या ये इस बात के संकेत नहीं कि मैं सत्य का अनुसरण करता हूँ? मैं पहले से ही सत्य का अनुसरण कर रहा हूँ।” और परमेश्वर कहेगा : क्या तुमने अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल कर लिया है? तुम्हारी सत्य के अनुसरण की गवाही कहाँ है? क्या तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों की स्वीकृति और प्रशंसा प्राप्त कर सकते हो? अगर तुम कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं दे सकते, और फिर भी कहते हो कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो जो परमेश्वर से प्रेम करता है, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो झूठे शब्दों से दूसरों को गुमराह करता है—तुम एक अविवेकी दानव और शैतान हो, और तुम्हें शाप मिलना चाहिए। तुम्हारे लिए परमेश्वर द्वारा निंदित और हटाया जाना ही शेष है।

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें