सत्य वास्तविकता क्या है? (भाग तीन)

सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयासरत होने और उसे प्राप्त करने की बात आने पर पहली प्राथमिकता क्या होती है? इसमें सबसे पहले अब तक सही मानी जाती रही उन ऊपर से सही लगने वाली भ्रांतियों और सुनी-सुनाई बातों की चीरफाड़ करनी होती है जिनका संबंध पारंपरिक धारणाओं से होता है। जब तुम उनका सार पूरी तरह से समझ लो, तो उन्हें निकाल फेंको। ये चीजें लोगों को बाँधने वाले बंधनों की पहली परत होती हैं। तुम लोगों के दिल में इनमें से कितनी चीजें अब भी मौजूद हैं? क्या तुम लोगों ने उन्हें पूरी तरह से निकाल फेंका है? (पूरी तरह से नहीं।) क्या इन चीजों को निकाल फेंकना आसान है? उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहते हैं लेकिन भावनाओं से संबंधित होने के कारण वे यह भी महसूस करते हैं कि उन्हें अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए। यदि तुम केवल अपनी भावनाओं की काट-छाँट करते रहते हो, अपने आप से कहते हो कि माता-पिता तथा परिवार के बारे में न सोचकर केवल परमेश्वर के बारे में सोचना और सत्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, फिर भी अपने माता-पिता के बारे में सोचना बंद नहीं कर पाते तो इससे मूलभूत समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इस समस्या के समाधान के लिए तुम्हें उन चीजों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है जिन्हें तुम अब तक सही मानते थे, साथ ही तुम्हें उन कहावतों, ज्ञान और सिद्धांतों का भी विश्लेषण करना होगा जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप हैं और तुम्हें विरासत में मिले हैं। इसके अलावा, अपने माता-पिता से पेश आते समय एक संतान के रूप में उनकी देखभाल के दायित्वों को पूरा करने या न करने का फैसला पूरी तरह से तुम्हारी व्यक्तिगत स्थितियों और परमेश्वर के आयोजनों के आधार पर होना चाहिए। क्या यह बात मामले को बिल्कुल ठीक तरीके से स्पष्ट नहीं करती? जब कुछ लोग अपने माता-पिता से अलग होते हैं तो उन्हें लगता है कि उनके माता-पिता का उन पर बहुत कर्ज है लेकिन वे उनके लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। लेकिन, वे जब माता-पिता के साथ रह रहे होते हैं तो संतानोचित तरीके से बिल्कुल नहीं रहते और माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं करते। क्या ऐसा आदमी वास्तव में संतानोचित दायित्वों का निर्वाह करने वाला व्यक्ति है? वह केवल खोखली बातें करने वाला है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो, क्या सोचते हो, या क्या योजना बनाते हो, वे सब महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि क्या तुम यह समझ सकते हो और सचमुच विश्वास कर सकते हो कि सभी सृजित प्राणी परमेश्वर के हाथों में हैं। कुछ माता-पिताओं को ऐसा आशीष मिला होता है और ऐसी नियति होती है कि वे घर-परिवार का आनंद लेते हुए एक बड़े और समृद्ध परिवार की खुशियाँ भोगें। यह परमेश्वर की संप्रभुता है और परमेश्वर से मिला आशीष है। कुछ माता-पिताओं की नियति ऐसी नहीं होती; परमेश्वर ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था नहीं की होती। उन्हें एक खुशहाल परिवार का आनंद लेने, या अपने बच्चों को अपने साथ रखने का आनंद लेने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। यह परमेश्वर का आयोजन है और लोग इसे जबरदस्ती हासिल नहीं कर सकते। चाहे कुछ भी हो, अंततः जब संतानोचित शील की बात आती है, तो लोगों को कम से कम समर्पण की मानसिकता रखनी चाहिए। यदि वातावरण अनुमति दे और तुम्हारे पास ऐसा करने के साधन हों, तो तुम अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्व निर्वाह दिखा सकते हो। अगर वातावरण उपयुक्त न हो और तुम्हारे पास साधन न हों, तो तुम्हें जबरन ऐसा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इसे क्या कहते हैं? (समर्पण।) इसे समर्पण कहा जाता है। यह समर्पण कैसे आता है? समर्पण का आधार क्या है? यह परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और परमेश्वर द्वारा शासित इन सभी चीजों पर आधारित है। यद्यपि लोग चुनना चाह सकते हैं, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते, उन्हें चुनने का अधिकार नहीं है, और उन्हें समर्पण करना चाहिए। जब तुम महसूस करते हो कि लोगों को समर्पण करना चाहिए और सब कुछ परमेश्वर द्वारा आयोजित है, तो क्या तुम्हें अपने हृदय में शांति महसूस नहीं होती? (हाँ।) क्या तुम्हारी अंतरात्मा तब भी धिक्कार का अनुभव करती रहेगी? उसे अब लगातार धिक्कार की अनुभूति नहीं होगी, और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्वों का निर्वाह न कर पाने का विचार अब तुम पर हावी नहीं होगा। इतने पर भी कभी-कभी तुम्हें ऐसा महसूस हो सकता है क्योंकि मानवता में ये एक तरह से सामान्य विचार या सहज प्रवृत्ति है और कोई भी इससे बच नहीं सकता। उदाहरण के लिए, अपनी माँ को बीमार देखकर साधारण लोग व्यथित महसूस करते हैं और चाहते हैं कि काश माँ की जगह उसका कष्ट वे खुद भोग लेते। कुछ लोग कहते हैं, “काश मेरी माँ ठीक हो जाए, भले इसके लिए मेरी जिंदगी के कुछ साल कम हो जाएँ!” यह मानवता का सकारात्मक पक्ष है; यह मानवीय मूल प्रवृत्ति है। तो, जब तुम अपनी माँ को बीमार देखकर व्यथित महसूस करते हो, तो क्या पीड़ा का वह भाव किसी तरह की समस्या है? नहीं, यह कोई समस्या नहीं है, क्योंकि यह एक ऐसी चीज है जो सामान्यतः मानवता में होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में व्यथित होना अच्छी बात है; इससे साबित होता है कि तुम्हारे पास दिल है और तुममें मानवता है। इस दुनिया में तुम्हारी माँ वह व्यक्ति है जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे सर्वाधिक निकट बनाया है। यदि वह बीमार है और पीड़ा में है और तुम उससे बेअसर हो, तो क्या तुम मनुष्य हो? यदि तुम कहो कि “मुझमें उसके लिए कोई भावनाएँ नहीं हैं, उसकी पीड़ा के लिए कोई भावनाएँ नहीं हैं और मैं केवल तब पीड़ा महसूस करता हूँ जब परमेश्वर को पीड़ा होती है!” तो क्या यह कथन सत्य है? यह सत्य नहीं है; यह झूठ है। तुम्हारी माँ ने तुम्हें जन्म दिया, इतने सालों तक तुम्हें पाला है, वह तुम्हारे सबसे करीब है और वह तुम्हें सबसे ज्यादा प्यार करती है। जब वह बीमार होती है और पीड़ा में होती है, तब यदि तुम्हें अपने दिल में कोई कष्ट महसूस नहीं होता है, तो तुम्हारा दिल बहुत कठोर हो चुका होगा! यह सामान्य नहीं है; तुम इस प्रकार का व्यक्ति बनने का प्रयास न करो। ऐसी स्थिति पर कष्ट महसूस करना बहुत सामान्य है, लेकिन यदि तुम संताप की इस भावना के कारण अपना कर्तव्य निभाना बंद कर दो और परमेश्वर को लेकर शिकायतें करने लगो, तो क्या यह सामान्य बात है? (नहीं, यह सामान्य नहीं है।) यह सामान्य क्यों नहीं है? क्योंकि तुम्हारी सोच सत्य के अनुरूप नहीं है और वह वैसी नहीं है जैसी सामान्य मानवता में होनी चाहिए, इसलिए वह सामान्य नहीं है। लोगों का स्वभाव शैतानी है, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार ही जीते हैं, इसलिए वे सत्य का अतिक्रमण कर सकते हैं और अपनी अंतश्चेतना और विवेक वैसे ही खो सकते हैं जैसे वे अचानक मानसिक रूप से बीमार हो गए हों। यह सामान्य नहीं है, तो ऐसा कैसे हुआ? यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के कारण होता है। एक बार जब उनका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाता है तो वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकते हैं, और वे अचानक बिना सोचे कुछ ऐसे विचार उत्पन्न कर सकते हैं जो कहीं भी और कभी भी सत्य के अनुरूप न हों और जो परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर दें। यह ऐसे ही होता है।

सभी भ्रष्ट मनुष्यों में भावनाएँ होती हैं और वे अक्सर उनसे बाधित होते हैं जिसके कारण वे परमेश्वर को समर्पण करने या सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए हर व्यक्ति को भावनाओं का मुद्दा हल करना होता है। किस प्रकार की भावनाएँ लोगों को सत्य का अभ्यास करने में सबसे अधिक बाधित करती हैं, जिन्हें त्याग ही देना चाहिए? वे किस प्रकार की भावनाएँ हैं, जिन्हें सामान्य मानवता का हिस्सा होना चाहिए, न कि कोई समस्या? किस प्रकार की भावनाएँ भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित हैं? इन बातों का भेद स्पष्ट रूप से पहचानना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे बच्चे को डराया-धमकाया गया है और उसकी माँ के रूप में तुम उसकी रक्षा करती हो और उस परिवार की तलाश करती हो जिसने तुम्हारे बच्चे के साथ दुर्व्यवहार किया है ताकि उनसे इस मसले पर बात कर सको—क्या यह सामान्य है? चूँकि तुम्हारे बच्चे का मामला है, इसलिए उसकी रक्षा करना तुम्हारे लिए उचित और सामान्य है। लेकिन यदि तुम्हारा बच्चा दूसरे बच्चों को डराता-धमकाता है, यदि वह अच्छे व्यवहार वाले बच्चों के साथ भी आक्रामकता से पेश आता है, और तुम यह देखते हुए भी इसकी परवाह नहीं करती और विश्वास करती हो कि तुम्हारा बच्चा बहुत अच्छा है, और तुम उसे गुपचुप तरीके से दूसरों के साथ मारपीट करना भी सिखाती हो, और जब दूसरे लोग तुमसे इस बारे में बात करने आएँ, तब भी तुम अपने बच्चे का बचाव करती हो, तो क्या यह व्यवहार सही है? नहीं, यह सही नहीं है। ऐसे व्यवहार में क्या समस्या है? यह भावनाओं से संचालित व्यवहार है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि यह भावनाओं से संचालित है? तुम्हें लगता है कि दूसरे लोग तुम्हारे बच्चे को धमकाएँ यह अस्वीकार्य है, और यदि तुम्हारे बच्चे को थोड़ा-सा भी कष्ट होता है, तो तुम तुरंत समस्या के समाधान के लिए निकल पड़ती हो और दूसरों से सफाई माँगती हो, तो तुम तब क्यों अंधी हो जाती हो जब तुम्हारा बच्चा दूसरों के बच्चों को धमकाता है? तुम अपने बच्चे को दूसरों के साथ मार-पीट के लिए भी प्रोत्साहित करती हो, क्या यह दुर्भावनापूर्ण नहीं है? जो लोग ऐसा करते हैं वे स्वभाव से दुर्भावनापूर्ण होते हैं। इसे भावनाओं के संदर्भ में कैसे समझाया जा सकता है? किन लक्षणों से भावनाओं का पता चलता है? निश्चित रूप से वह कोई सकारात्मक चीज नहीं है। यह दैहिक संबंधों और देह की पसंद की संतुष्टि पर ध्यान केंद्रित करना है। पक्षपात करना, गलत काम का बचाव करना, अत्यधिक स्नेह करना, लाड़-दुलार करना और मनमानी करने देना आदि सब भावनाओं में शामिल हैं। कुछ लोग भावनाओं के बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं, वे अपने साथ होने वाली हर चीज के बारे में अपनी भावनाओं के आधार पर ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं; अपने दिलों में वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह गलत है, फिर भी वे वस्तुनिष्ठ होने में असमर्थ रहते हैं, सिद्धांत के अनुसार कार्य करना तो दूर की बात है। जब लोग हमेशा भावनाओं से बेबस रहते हैं तो क्या वे सत्य का अभ्यास कर पाते हैं? यह अत्यंत कठिन है। सत्य का अभ्यास करने में बहुत-से लोगों की असमर्थता भावनाओं के कारण होती है; वे भावनाओं को विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं, वे उन्हें सबसे आगे रखते हैं। क्या वे सत्य से प्रेम करने वाले लोग हैं? हरगिज नहीं। सार में, भावनाएँ क्या होती हैं? वे एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव हैं। भावनाओं की अभिव्यक्तियों को कई शब्दों का उपयोग करते हुए बताया जा सकता है : भेदभाव, सिद्धांतहीन तरीके से दूसरों की रक्षा करने की प्रवृत्ति, दैहिक संबंध बनाए रखना, और पक्षपात; ये ही भावनाएँ हैं। लोगों में भावनाएँ होने और उन्हीं भावनाओं के अनुसार जीवन जीने के क्या संभावित दुष्परिणाम हो सकते हैं? परमेश्वर लोगों की भावनाओं से सर्वाधिक घृणा क्यों करता है? कुछ लोग हमेशा अपनी भावनाओं से विवश रहते हैं और सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, और यद्यपि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहते हैं किंतु ऐसा नहीं कर पाते, इसलिए वे अपनी भावनाओं से त्रस्त महसूस करते हैं। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो सत्य को समझते हैं लेकिन उसे अभ्यास में नहीं ला सकते; ऐसा भी इसलिए है कि वे भावनाओं से विवश हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए घर छोड़ देते हैं, लेकिन वे दिन-रात, हर समय, अपने परिवार के बारे में सोचते रहते हैं और अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह से निर्वाह नहीं कर पाते। क्या यह कोई समस्या नहीं है? कुछ लोगों के गुप्त आकर्षण होते हैं, और उनके दिल में केवल उस प्रेमपात्र व्यक्ति के लिए जगह होती है, इससे उनका कर्तव्य निर्वहन प्रभावित होता है। क्या यह कोई समस्या नहीं है? कुछ लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं और उन्हें अपना आदर्श मानते हैं; वे उस व्यक्ति के अलावा किसी की भी बात नहीं सुनते, इस हद तक कि वे परमेश्वर की कही बातें भी नहीं सुनते हैं। भले ही कोई उनके साथ सत्य पर सहभागिता करे, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करते; वे केवल उस व्यक्ति की बातें सुनते हैं जो उनका आदर्श होता है। कुछ लोगों के हृदय में एक आदर्श छवि होती है, और वे दूसरों को अपने आदर्श के बारे में बोलने या उसे स्पर्श करने की अनुमति नहीं देते। यदि कोई उनके आदर्श से जुड़ी समस्याओं के बारे में बात करता है, तो वे क्रोधित हो जाते हैं और अपने आदर्श का बचाव करते हुए उस व्यक्ति की बातों को उलटने लग जाते हैं। वे अपने आदर्श की सभी अन्यायों से सुरक्षा करते हैं और अपने आदर्श की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए वह सब कुछ करते हैं जो उनकी सामर्थ्य में है; अपने शब्दों के माध्यम से वे अपने आदर्श की गलतियों को सही ठहराते हैं, और वे लोगों को अपने आदर्श के बारे में सच्ची बात बोलने नहीं देते, उन्हें उजागर नहीं करने देते। यह पक्षपात है; इन्हें भावनाएँ कहा जाता है। क्या भावनाएँ केवल किसी के परिवार की ओर ही निर्दिष्ट होती हैं? (नहीं।) भावनाएँ काफी व्यापक होती हैं; वे एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव होती हैं, वे केवल परिवार के सदस्यों के बीच दैहिक संबंधों से जुड़ी नहीं होतीं, वे उस दायरे तक ही सीमित नहीं होतीं। उनका संबंध तुम्हारे किसी वरिष्ठ या किसी ऐसे व्यक्ति से भी हो सकता है जिसने तुम्हारे हित में कुछ किया हो या तुम्हारी मदद की हो, या जिसका तुम्हारे साथ बहुत करीबी रिश्ता हो या जिसका तुम्हारे साथ मेलजोल हो, या कोई तुम्हारे ही शहर का रहने वाला या मित्र, यहाँ तक कि कोई ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जिसके तुम प्रशंसक हो—यह कुछ निश्चित नहीं है। तो क्या भावनाओं को त्याग देना अपने माता-पिता या परिवार के बारे में न सोचने जितना ही सरल है? (नहीं।) क्या भावनाओं को निकाल फेंकना इतना आसान है? ज्यादातर लोग जब 30 साल से आगे की उम्र में पहुँचते हैं और स्वतंत्र रूप से रहने लगते हैं, तो उन्हें घर की बहुत ज्यादा याद नहीं आती, और उम्र 40 की दहाई में पहुँचने तक यह पूरी तरह से सामान्य बात हो जाती है। जब लोग अवयस्क होते हैं, तो उन्हें घर की बहुत याद आती है और वे अपने माता-पिता को नहीं छोड़ पाते क्योंकि उनमें तब तक स्वतंत्र रूप से जीवन बिताने की क्षमता नहीं होती। अपने परिवार और माता-पिता की याद आना सामान्य बात है। यह भावनाओं का मामला नहीं है। भावनाओं से जुड़ा मामला तो यह तब बनता है जब किसी चीज को करने के बारे में तुम्हारे रवैये और नजरिये में भावनाओं का अपमिश्रण हो जाता है। क्योंकि शारीरिक स्तर पर तुम और तुम्हारे माता-पिता के बीच खून का बंधन है, और तुम इतने सालों तक साथ-साथ रहे हो इसलिए तुम्हारा अपने माता-पिता को याद करना सामान्य बात है। कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें अपने माता-पिता की बिल्कुल भी याद नहीं आती। लेकिन शायद उन लोगों ने हाल ही में घर छोड़ा होता है और हर एक जगह उन्हें अछूती और नई दिखती है, उन्हें लगता है कि अंततः वे माता-पिता की नुक्ताचीनी से बच गए हैं और कोई उन्हें नियंत्रण में रखने की कोशिश करने वाला नहीं है, इसलिए उन्हें खुशी महसूस होती है। लेकिन क्या प्रसन्नता का अनुभव करने का अर्थ यह है कि उनमें कोई भावना नहीं है? नहीं, ऐसा नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता हूँ और कुछ सत्यों को समझने लगा हूँ। मैं अपना कर्तव्य निभाने में भावनाओं से विवश नहीं होता और अब मुझमें कोई भावना नहीं है।” क्या यह कथन व्यावहारिक है? स्पष्टतः ये शब्द किसी ऐसे व्यक्ति के हैं जिसे सत्य की समझ नहीं है। जब लोग कई उपदेश सुनते हैं, कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझते हैं और कुछ आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात करने लायक हो जाते हैं, तो वे सोचते हैं कि मेरा आध्यात्मिक कद बड़ा हो गया है और मैंने बहुत-से सत्य समझ लिए हैं। यदि मुझे गिरफ्तार किया गया, तो मैं यहूदा जैसा नहीं होऊँगा। मुझमें कम से कम यह विश्वास और संकल्प है। क्या यह आध्यात्मिक कद नहीं है? जब मैं परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के दिनों का उत्साह याद करता हूँ, तो याद आता है कि मैं अपना पूरा जीवन परमेश्वर को समर्पित करना चाहता था। मेरा वह उत्साह और मेरी वह प्रतिज्ञा जरा भी न बदली है और न ही धुंधलाई है। क्या यह प्रगति नहीं है? क्या यह एक सतही परिघटना है? (हाँ।) ये सभी सतही परिघटनाएँ हैं। यदि कोई वास्तविक प्रगति करना चाहता है, तो उसे सत्य को समझना होगा। क्या सिद्धांतों और आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात करने में सक्षम होने से वास्तविक परिवर्तन आ सकता है? (नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।) यदि तुम अपनी स्वयं की समस्याओं को भी हल नहीं कर सकते और किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो क्या तुम दूसरों के लिए हितकारी हो सकते हो? केवल उपदेश सुनना और सिद्धांतों को समझना निरर्थक है; तुम्हें परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना चाहिए। जब तुम सत्य को समझ जाते हो, तो तुम्हें उसका अभ्यास अवश्य करना चाहिए; केवल तभी तुम्हारे पास वास्तविकता होगी। तुम केवल सत्य का अभ्यास करके ही उसे अधिक गहराई से समझ सकते हो, तुम सत्य को केवल तभी प्राप्त कर सकते हो जब उसे सचमुच समझ लो, और केवल सत्य को प्राप्त करके ही तुम बड़े हो सकते हो।

अब जब मैं तुम्हारे साथ संगति कर चुका हूँ और तुम्हें यह पहचानने में मदद की है कि सत्य क्या है और सही वचन क्या हैं, तो इससे तुम क्या समझे? (कि हमें चीजों को सत्य सिद्धांतों के आधार पर देखना होता है, और हम आम बाहरी सद्व्यवहार या आध्यात्मिक सिद्धांतों को सत्य नहीं मान सकते।) सद्व्यवहार और सही कहावतें बोलने से कोई व्यक्ति बदल नहीं सकता। वे बातें अपने आप में कितनी भी सच्ची क्यों न हों, वे सत्य बिल्कुल नहीं हैं और उनका सत्य से कोई लेना-देना भी नहीं है। यदि तुम हमेशा उनसे चिपके रहते हो और उन्हें सत्य मानते हो, तो तुम सत्य को कभी नहीं समझ पाओगे और कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं कर पाओगे। यह एक पक्ष है। इसका एक दूसरा पक्ष यह है कि क्या आध्यात्मिक सिद्धांत किसी व्यक्ति को सत्य समझने योग्य बना सकते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते।) क्यों? यद्यपि सभी आध्यात्मिक सिद्धांतों को सही शब्द माना जा सकता है, लेकिन उनसे किसी व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला जा सकता। तो, किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के लिए वास्तव में किस चीज पर भरोसा किया जा सकता है? कुछ लोग कहते हैं कि सत्य पर निर्भर रहो, कुछ लोग सत्य को समझने और स्वीकार करने पर निर्भर रहने को कहते हैं, और कुछ अन्य लोग सत्य का अभ्यास करने पर निर्भर करने को कहते हैं। क्या ये सही शब्द हैं? शाब्दिक दृष्टिकोण से इन सबमें एक सही पक्ष है, लेकिन वे सभी बहुत छिछले सिद्धांत हैं; ये सिद्धांत तुम्हें नहीं बचा सकते और न ही तुम्हारी कठिनाइयों का समाधान कर सकते हैं। जब तुम किसी स्थिति में फँसे होते हो और लोग तुमसे कहते हैं कि तुम्हें सत्य स्वीकार करना चाहिए, तो तुम कहते हो, “मैं इसे कैसे स्वीकार कर सकता हूँ? मैं कठिनाइयों में हूँ और मैं इसे नहीं छोड़ सकता!” क्या ये सिद्धांत तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करने का मार्ग बन सकते हैं? (नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।) कुछ लोग कहते हैं कि जब तुम किसी स्थिति में फँसे होते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों को ज्यादा खाना और पीना चाहिए। तुमने यह बात कई बार सुनी होगी, लेकिन इससे तुम्हारी कौन-सी कठिनाई हल हुई है? परमेश्वर के वचनों को अधिक खाना और पीना सही है, लेकिन तुम्हें परमेश्वर के वचनों के कौन-से पक्ष को खाना और पीना चाहिए? उन वचनों को अपनी कठिनाइयों से कैसे जोड़ना चाहिए? जब तुम उन्हें कठिनाइयों से जोड़ लेते हो, तो तुम उनका समाधान कैसे करते हो? अभ्यास का मार्ग क्या है? अपनी कठिनाइयों को हल करने के लिए तुम्हें सत्य के किस पहलू का इस्तेमाल करना चाहिए? क्या ये वास्तविक समस्याएँ नहीं हैं? (हाँ।) ये वास्तविक समस्याएँ हैं। इसलिए, सही सिद्धांत लोगों की व्यावहारिक कठिनाइयों को भी हल नहीं कर सकते, उनके भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करना तो दूर की बात है। लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का ठीक-ठीक समाधान क्या हो सकता है? सभी लोग जानते हैं कि केवल सत्य ही लोगों के भ्रष्ट स्वभावों की समस्या का समाधान कर सकता है, लेकिन अगर लोग यह नहीं समझते कि सत्य क्या है, या अगर वे सत्य की खोज नहीं करते हैं या स्वीकार नहीं करते हैं तो क्या उनके भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो सकता है? (नहीं।) इसलिए, किसी के भ्रष्ट स्वभाव के निराकरण के लिए उसे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना चाहिए। कहने का मतलब यह है कि केवल परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करके ही किसी का भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध किया जा सकता है। इस हेतु नतीजे हासिल करने के लिए लोगों को सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के कार्य में सहयोग करने की आवश्यकता होगी। यदि तुम सत्य के लिए प्रयत्नशील नहीं होते और केवल आध्यात्मिक सिद्धांतों को समझने पर ध्यान केंद्रित करते हो और बिना यह जाने कि वे सत्य हैं या नहीं, उन्हें सत्य के रूप में स्वीकार करते हो, तो क्या इससे तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान हो सकता है? इसके अलावा यदि तुम सत्य को नहीं समझते, तो क्या जब तुम अपना कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करोगे, तब उसका भेद पहचान पाओगे? क्या तुम परमेश्वर के वचनों से इसकी तुलनात्मक जाँच कर सकते हो? तुम ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकते। तुम आँख मूँद कर विनियम लागू कर सकते हो, जो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने में और भी असमर्थ है। भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने में सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों को सत्य समझना चाहिए। अभी, अधिकांश लोग सिद्धांतों को सत्य मानते हैं और यह नहीं समझते कि सत्य क्या है। वैसे ही, जैसे कि मैंने अभी भावनाओं वाले उदाहरण में उल्लेख किया था, माँ ने जो पहला रास्ता अपनाया, वह अपने बच्चे को दुर्व्यवहार से बचाना था, जो उचित है। तुम लोगों के दृष्टिकोण से, “ये भावनाएँ हैं; तुम ऐसा नहीं कर सकते। इस तरह के व्यवहार की आलोचना और निंदा की जानी चाहिए।” तुम लोग उन चीजों का निरूपण करते हो जिनमें सत्य शामिल नहीं है, जो सत्य से असंबंधित हैं, और वास्तव में कुछ ऐसी चीजें जो लोगों को स्वाभाविक रूप से करनी चाहिए, उन्हें सत्य का उल्लंघन करने वाली बातों के रूप में परिभाषित करते हो, और फिर उन चीजों को नकार देते हो। तुम लोग सोचते हो कि इस सिद्धांत का पालन करना सत्य का अभ्यास करना है। और जहाँ तक अपने बच्चे द्वारा दूसरे के बच्चों को डराने-धमकाने की बात को नजरअंदाज करने वाले माँ के दूसरे दृष्टिकोण की बात है, तो जब वास्तव में भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने और सत्य का अभ्यास करने का कोई मामला होता है, तो तुम सोचते हो, “जब तक वह बुरा काम नहीं कर रहा है, तब तक यह कोई बड़ी समस्या नहीं है।” तुम लोगों के विचार और समझ ऐसे क्यों हैं? (क्योंकि हम सत्य को नहीं समझते हैं।) समस्या इसमें है! तो, चूँकि वे सत्य को नहीं समझते, इसलिए बहुत बार लोग वही दृष्टिकोण अपनाते हैं जिसे वे सही मानते हैं, और सोचते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। सत्य को नहीं समझने के कारण कई बार लोग केवल विनियमों को अपना सकते हैं और उनका पालन कर सकते हैं, पर जब किसी मामले का सामना करना पड़े तो वे नहीं जानते कि इसे कैसे सँभालें, इसलिए वे विनियमों का पालन करने को सत्य का अभ्यास करने के समान मानते हैं। क्या परमेश्वर में इस तरह से आस्था रखने वाले लोग जीवन में प्रगति कर सकते हैं? क्या उन्हें सत्य की समझ हासिल हो सकती है और वे वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? बहुत-से लोग मानते हैं कि शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करने में सक्षम होने का अर्थ सत्य को समझना और परमेश्वर के विश्वासी के रूप में मानक स्तर का होना है। फिर, वे अभी भी कई मामलों में भ्रष्ट स्वभाव क्यों प्रकट करते हैं? वे अपने सामने आने वाली व्यावहारिक समस्याओं का समाधान क्यों नहीं कर पाते? इससे साबित होता है कि शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करने में सक्षम होना सत्य को समझना बिल्कुल नहीं है। तुम कितने ही सिद्धांतों के बारे में बात कर लो, इससे यह साबित नहीं होता कि तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है। तुम्हें व्यावहारिक समस्याओं को हल करने और अभ्यास के सिद्धांतों को खोजने में सक्षम होना चाहिए। केवल यही सत्य को वास्तव में समझना है। बहुत-से लोग सोचते हैं कि जब तक वे अपने कर्तव्यों का पालन करने में, कष्ट सहने में और कीमत चुकाने में सक्षम हैं, तब तक वे चाहे कोई भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, वह कोई बड़ी समस्या नहीं है। वे सोचते हैं कि जब तक वे अपने कर्तव्य निभाते हैं, कष्ट सहते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करते, तब तक वे परमेश्वर से प्रेम कर रहे हैं और उसके प्रति अपना समर्पण अर्पित कर रहे हैं। लोगों में सत्य की समझ न होने के कारण कई बार ऐसा होता है कि वे कुछ नेक इरादे दिखाते हैं, लेकिन वास्तव में वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी और बाधा डाल रहे होते हैं, फिर भी उन्हें लगता है कि वे परमेश्वर और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर रहे हैं। यह क्या हो रहा है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लोग सत्य को नहीं समझते और उनके पास सत्य का व्यावहारिक ज्ञान नहीं होता, जिसके कारण वे लगातार ऐसे काम करने की ओर खिंचते जाते हैं जो सत्य के विपरीत होते हैं। इस दौरान वे सोचते हैं कि वे सही काम कर रहे हैं, कि उन्होंने सत्य का अभ्यास किया है और कि उन्होंने परमेश्वर के इरादे पूरे किए हैं। यही उनकी सबसे बड़ी कठिनाई है। यद्यपि यह एक कठिनाई है, पर हमेशा इसे हल करने का एक तरीका होता है। इसका एकमात्र तरीका यह है कि जब किसी समस्या का सामना करते हुए भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो, तो आत्ममंथन जरूर करो और सत्य की खोज करो ताकि उसे समझ सको। जब तक तुम्हारे भीतर भ्रष्ट स्वभाव हैं, तब तक तुम्हारे भीतर तरह-तरह की दशाएँ उत्पन्न होती रहेंगी। जब लोग अलग-अलग वातावरण और दशाओं में रहते हैं, तो वे कुछ विचार, दृष्टिकोण और इरादे प्रकट करते हैं—ये उनकी सच्ची आंतरिक दशाएँ हैं। लोगों के विचारों, दृष्टिकोणों और इरादों का प्रेक्षण करके तुम उनके स्वभाव को देख सकते हो और जान सकते हो कि उनकी प्रकृति क्या है। आत्ममंथन करने और इस तरह से दूसरों का भेद पहचानने के माध्यम से नतीजे हासिल करना आसान होता है। केवल अपने स्वयं के भ्रष्ट स्वभावों को जानने और उनके सार को अच्छी तरह से समझने पर ही तुम अपने आप को जानने के विषय में पूरे परिणाम प्राप्त कर सकते हो। उस स्थिति में तुम्हारे पास स्वाभाविक रूप से एक रास्ता होगा कि तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों के समाधान के लिए सत्य की खोज कैसे करनी चाहिए। लोग जब तक सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, तब तक उनके भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध किया जा सकता है, और उनके भ्रष्टाचार की समस्या को आसानी से हल किया जा सकता है। यदि लोग सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते, तो वे कभी भी अपने जीवन के स्वभाव में बदलाव नहीं कर पाएँगे। अब, तुम सब सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हो, इसलिए तुम्हें अपना ध्यान सत्य पर केंद्रित करना चाहिए।

लोगों की प्रकृति का समाधान करने के लिए हमें इसे लोगों के काम करने के तरीकों के बजाय उसकी जड़, उनके स्वभावों की तह में जाना होगा। हमें वस्तुनिष्ठ कारणों और स्थितियों पर भी जोर नहीं देना चाहिए, बल्कि हमें इसकी तुलना सत्य से करनी चाहिए। परमेश्वर के वचनों में व्यक्त सत्य लोगों के भ्रष्ट स्वभावों पर केंद्रित होता है। भावनाओं का उदाहरण लें जिनका जिक्र पहले किया जा चुका है : लोग सोचते हैं कि कभी-कभी अपने माता-पिता की याद आना या घर की याद आना भावनाएँ हैं। क्या ये वही बातें हैं जिन्हें परमेश्वर भावनाओं के रूप में संदर्भित करता है? (नहीं।) तब जिन भावनाओं को तुम समझते हो, उनकी तुलना उन भावनाओं से की ही नहीं जा सकती, जिनके बारे में परमेश्वर बात करता है। तुम जिन भावनाओं के बारे में बात करते हो, वे सामान्य मानवीय अवस्थाओं से संबंधित हैं, उनका संबंध किसी भ्रष्ट स्वभाव से नहीं है। यदि तुम अपने दैहिक संबंधियों के साथ मूर्तियों जैसा व्यवहार करते हो और यह तुम्हारे परमेश्वर का अनुसरण या उसे समर्पण न करने का कारण बनता है, तो तुम्हारी भावनाएँ बहुत प्रबल हैं और इसका संबंध भ्रष्ट स्वभाव से है। इसलिए इसमें यह मुद्दा शामिल है कि क्या तुम्हें सत्य की शुद्ध समझ है। तुम जिस बात को घर की याद या किसी के माता-पिता के प्रति थोड़ी दयालुता को भावनाओं के रूप में देखते हो, तो क्या यह सत्य की विकृत समझ नहीं है? वास्तव में तुम जो समझते हो वह सत्य नहीं है और सत्य के अनुरूप भी नहीं है; यह मात्र एक बाहरी परिघटना है। परमेश्वर किन भावनाओं की बात करता है? वह दूसरा दृष्टिकोण है जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है कि एक माँ अपने बच्चे से किस तरह का व्यवहार करती है, जो कि पक्षपात की दशा है और किसी को सिद्धांतहीन संरक्षण देना है। ये वे भावनाएँ हैं जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है, जो इस मामले में माँ द्वारा भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा करता है। क्या वे दोनों दृष्टिकोण सिरे से ही भिन्न नहीं हैं? पहला दृष्टिकोण एक सामान्य घटना है और उसकी काट-छाँट करने की कोई आवश्यकता नहीं है, न ही उसकी गहराई में जाने, उसका विश्लेषण करने की आवश्यकता है, सत्य से उसकी तुलना करने या सत्य के किसी निश्चित पहलू का अभ्यास करने या किसी चीज को छोड़ने की तो और भी आवश्यकता नहीं है। तो फिर क्या यह दृष्टिकोण उचित है? क्या इस तरह से कार्य करना आवश्यक है? यह आवश्यक नहीं है; इस दृष्टिकोण में कुछ भी सही या गलत नहीं है। दूसरे दृष्टिकोण में एक स्वभाव शामिल है। भावनाओं की किस प्रकार की अभिव्यक्ति में भ्रष्ट स्वभाव शामिल होते हैं? (पक्षपात, दूसरों की सिद्धांतहीन सुरक्षा, देह के रिश्तों को बनाए रखना और न्याय का अभाव।) ये वो चीजें हैं जो परमेश्वर द्वारा कहे जाने वाले “भावनाएँ” शब्द में शामिल होती हैं। यदि तुम इतना समझ सकते हो और सचमुच इन चीजों से खुद को जोड़ सकते हो, तो तुम्हें इन भ्रष्ट स्वभावों को हल करने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हारे सभी कार्य केवल तभी सत्य का अभ्यास हो सकते हैं जब तुम इन भावनाओं से विवश नहीं होते। तब तुम जिन दशाओं को भावनाओं में शामिल मानते हो वे परमेश्वर द्वारा कहे गए “भावनाओं” शब्द के बिल्कुल अनुरूप होंगी। यही वह सत्य है जिसे तुम समझोगे। यदि तुमसे इस बारे में संगति करने के लिए कहा जाए कि भावनाएँ क्या हैं और तुम माँ के पहले दृष्टिकोण के बारे में बोलते हो, तो यह सत्य को न समझने की अभिव्यक्ति है। यदि तुम माँ के दूसरे दृष्टिकोण के बारे में संगति करते हो और उसके भ्रष्ट स्वभाव का विश्लेषण करते हो, तो तुम सत्य को समझते हो। यदि तुम जिन चीजों के बारे में संगति करते हो, जिनका अनुभव करते हो और समझते हो, वे परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुरूप हैं और उनमें कोई विरोधाभास या असंगति नहीं है, तो इससे साबित होता है कि तुम परमेश्वर के वचनों को समझते हो, कि तुमने उनका अर्थ पकड़ लिया है, कि तुमने उन्हें समझ लिया है और कि तुम उन्हें अभ्यास में ला सकते हो। तब तुमने सत्य और जीवन प्राप्त कर लिया होगा और इसका तात्पर्य यह है कि तुम पहले ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुके होगे। उस समय जब तुम इस प्रकार की चीज को दोबारा देखोगे, तो तुम इसे पहचानने में सक्षम होगे और तुम जान जाओगे कि किस प्रकार के खुलासे सामान्य हैं और किस प्रकार के खुलासे भ्रष्ट स्वभाव के हैं और तुम अपने हृदय में इस बारे में पूरी तरह स्पष्ट रहोगे। इस तरह क्या तुम्हारे कार्य सटीक नहीं होंगे? क्या तुम्हारे कार्य सत्य के अनुरूप नहीं होंगे? क्या तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं होगी? यदि तुम सटीकता से कार्य करते हो और सत्य को समझते हो, तो क्या तुम्हारी समझ और अनुभव जिस पर तुम संगति करते हो, दूसरों की मदद करने और उनकी कठिनाइयों को हल करने में सक्षम नहीं होंगे? (होंगे।) यही सत्य का व्यावहारिक पक्ष है।

कुछ लोग खराब काबिलियत के कारण अपने कर्तव्यों का भली-भाँति निर्वाह नहीं करते, लेकिन वे हमेशा दावा करते हैं कि ऐसा उनमें अंतरात्मा की कमी के कारण होता है। कौन-सी व्याख्या सटीक है? (यह कि उनकी काबिलियत खराब है।) कभी-कभी जब कोई व्यक्ति कोई कर्तव्य निभा रहा होता है, तो वह संबंधित पेशेगत ज्ञान की मूलभूत बातें जान सकता है, लेकिन वह उसके अधिक उन्नत पहलुओं को नहीं समझ पाता क्योंकि उसने उन बातों को पहले कभी नहीं सीखा होता। उनका अगुआ उन पर बेमन से काम करने वाला, धूर्त और काम से भागने वाला होने का ठप्पा लगाता है, लेकिन वास्तव में उनमें केवल पेशेवर ज्ञान की कमी होती है और उन्होंने अभी तक उन चीजों को नहीं सीखा है, लेकिन वे पहले से ही अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर रहे हैं। फिर भी उनका अगुआ कहता है कि वे बेमन से काम करने वाले हैं—यह बात तथ्यों के अनुरूप नहीं है। यह शब्दावली का अंधाधुंध प्रयोग और अंधाधुंध लेबलिंग है। लोग दूसरों के प्रति अंधाधुंध शब्दावली का प्रयोग और अंधाधुंध लेबलिंग क्यों करते हैं? क्या ऐसा इसलिए नहीं है कि वे सत्य को नहीं समझते? कुछ लोग निश्चित रूप से हाँ कहेंगे, कुछ लोग कहेंगे कि ऐसा इसलिए है कि उनकी काबिलियत खराब है और वे बहुत भ्रमित हैं और कुछ दूसरे लोग कहेंगे कि ऐसा इसलिए है क्योंकि उनकी मानवता बहुत बुरी है और उनके इरादे गलत हैं। कौन-सी व्याख्या सही है? वास्तव में ये तीनों दशाएँ मौजूद होती हैं और कोई निर्णय विशिष्ट मामले के अनुसार ही लिया जाना चाहिए। यदि ऐसा उनके सत्य को न समझने के कारण हुआ है, लेकिन कोई कहता है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनकी काबिलियत खराब है और वे बहुत भ्रमित हैं, तो ये शब्द सही नहीं हैं। यदि यह स्पष्ट रूप से उनकी दुष्ट मानवता और गुप्त उद्देश्यों के कारण हो, लेकिन कोई कहे कि ऐसा इसलिए है कि उनकी काबिलियत खराब है और वे बहुत भ्रमित हैं, तो यह तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना है और इससे बुरे लोगों को अपनी जिम्मेदारी से बचने में मदद मिलने की आशंका है। ऐसे दूसरे मामले भी हैं जो लोगों द्वारा सत्य को न समझने के कारण होते हैं, लेकिन दूसरे लोग कहते हैं कि ये उन लोगों की बुरी मानवता के कारण हुए हैं। चीजों को देखने का यह तरीका सही नहीं है और संभव है कि वे अच्छे लोगों के साथ बुरे लोगों जैसा व्यवहार करें, जिसके बुरे परिणाम होंगे। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो इन चीजों में भेद नहीं कर पाते और समस्या के सार को पूरी तरह से नहीं समझ पाते। वे आँख मूँद कर विनियम लागू करते हैं और अपने विचारों के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं और तब महसूस करते हैं कि उनमें विवेक है और वे चीजों को साफ-साफ देख सकते हैं। क्या यह अहंकार और आत्मतुष्टता नहीं है? यदि किसी की मानवता खराब है और वह अपने गुप्त इरादों के आधार पर लोगों पर अंधाधुंध ढंग से ठप्पे लगाता है और उनकी निंदा करता है, तो यह बुरे व्यक्ति की प्रकृति है। ऐसे लोग कम हैं; अधिकांश लोग इस प्रकार का कार्य इसलिए करते हैं क्योंकि वे सत्य को नहीं समझते। जो लोग सत्य को नहीं समझते वे अंधाधुंध ढंग से विनियम लागू करते हैं और अंधाधुंध ढंग से आध्यात्मिक वचनों का प्रयोग करते हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोगों की मानवता में स्पष्ट रूप से समस्या होती है, वे हमेशा काम में ढील देने के तरीकों की तलाश में रहते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते समय कोई कोशिश नहीं करते, लेकिन नासमझ लोग इसे खराब काबिलियत का मामला बताते हैं। कुछ लोगों में स्पष्ट रूप से न्याय की भावना होती है और जब वे सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाली कोई चीज देखते हैं, तो वे उसे सामने लाते हैं और कलीसिया के हितों की रक्षा करते हैं, लेकिन सत्य को न समझने वाले लोग उन्हें अक्सर अहंकारी और आत्मतुष्ट करार देते हैं और यहाँ तक कि उनके साथ बुरे लोगों जैसा व्यवहार किया जाता है, जो वास्तव में अच्छे लोगों के प्रति अन्याय है। कुछ लोगों का आध्यात्मिक कद स्पष्ट रूप से छोटा होता है और वे अपनी भावनाओं से विवश होकर क्षणिक रूप से कमजोर हो जाते हैं और जो लोग सत्य को नहीं समझते, वे उन लोगों को बहुत गहरी भावनाओं वाले और परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हृदय न रखने वाले व्यक्तियों के रूप में निरूपित करते हैं। जिन लोगों में सत्य का अभाव होता है वे ऐसे ही होते हैं—पृष्ठभूमि या वास्तविक स्थिति पर विचार किए बिना वे अंधाधुंध ढंग से विनियम लागू करते रहते हैं, एक पल में एक बात तो अगले ही पल दूसरी बात कहते हैं। क्या ऐसे लोग समस्याओं के हल के लिए सत्य का उपयोग कर सकते हैं? (वे नहीं कर सकते।) जब सत्य को न समझने वाले लोग समस्याओं को हल करने का प्रयास करते हैं, तो वे सही उपाय नहीं कर पाते। उनके प्रयास ऐसे होते हैं जैसे वे पेट दर्द से पीड़ित व्यक्ति के इलाज की कोशिश में उसके सिर का इलाज कर रहे हों; वे समस्या की जड़ ही नहीं तलाश पाते। वे नहीं समझते कि समस्या की जड़ कहाँ है या परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं और क्या संदर्भित करते हैं। यह सत्य को समझना नहीं है। क्या अब तुम लोग सत्य को बहुत ज्यादा या थोड़ा बहुत समझते हो? (थोड़ा-सा।) उदाहरण के लिए मान लो कि कोई पूछता है, “जब यह मामला तुम पर पड़ता है, तो तुम समर्पण क्यों नहीं करते?” लोग अक्सर जवाब में कहते हैं, “क्योंकि मैं परमेश्वर को नहीं जानता!” क्या यह स्पष्टीकरण सही है? कभी-कभी यह सही होता है और कभी-कभी नहीं। अधिकांश मौकों पर यह सही नहीं होता और यह केवल अंधाधुंध ठप्पेबाजी करना होता है। लोग आध्यात्मिक शब्दावली को थोड़ा-सा समझ लेते हैं और फिर उसे लागू करके उसका अंधाधुंध प्रयोग करते हैं और परिणामस्वरूप अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कुछ गलत व्याख्याएँ होती हैं और कुछ आलोचनाएँ होती हैं और इसके हानिकारक परिणाम उत्पन्न होते हैं और यहाँ तक कि अराजकता भी पैदा होती है। जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं होती, जब वे कुछ सीख जाते हैं तो उसे लागू करके उसका अंधाधुंध उपयोग करते हैं। उनमें गलतियाँ करने की संभावना सबसे अधिक होती है और वे बार-बार सैद्धांतिक गलतियाँ करने में प्रवृत्त होते हैं। वहीं जिन लोगों में समझने की क्षमता है, वे कुछ गलतियाँ कर सकते हैं, लेकिन वे गलतियाँ सिद्धांत का मसला नहीं होतीं और वे उन गलतियों से सबक सीख सकते हैं। यदि लोगों की समझ बेतुकी है, यदि वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय उनकी गलत व्याख्या करते हैं, यदि धर्मोपदेश सुनते समय उनकी समझ में विचलन होता है और यदि वे गलतियाँ निकालने और छोटे-छोटे दोष गिनाने वाले हैं, तो यह बहुत परेशान करने वाली बात है। उनके लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना न केवल असंभव है, बल्कि समय के साथ वे बेतहाशा ढंग से कुकर्म करने लगेंगे और कलीसिया के काम में व्यवधान पैदा करेंगे। यह एक गंभीर परिणाम होता है।

अब तुम लोगों को विचार करना चाहिए : तुम अक्सर जिन वचनों, सिद्धांतों और आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात करते हो, क्या वे सत्य हैं? क्या तुम लोग सत्य को समझते हो या तुम केवल धर्म-सिद्धांतों को समझते हो? कितनी सत्य वास्तविकताएँ तुम लोगों की समझ के दायरे में हैं? एक बार जब तुम इन बातों को समझ लोगे तो तुममें वास्तव में आत्म-जागरूकता होगी और तुम्हें अपना माप स्वयं पता चल जाएगा। उदाहरण के लिए, तुम लोगों ने ईमानदार व्यक्ति कैसे बनें के सत्य पर बहुत सारी संगति की है, लेकिन क्या तुमने वास्तव में उन्हें समझा है? संभव है कि तुम लोग कुछ वचनों पर संगति कर सकते हो और कुछ समझ के बारे में बात कर सकते हो, लेकिन तुम लोगों ने इनमें से कितनी वास्तविकताओं में प्रवेश किया है? क्या अब तुम लोग वास्तव में ईमानदार व्यक्ति हो? क्या तुम इस बारे में स्पष्ट रूप से बोल सकते हो? कुछ लोग कहते हैं, “ईमानदार व्यक्ति होने का अर्थ है झूठ न बोलना, जो तुम्हारे दिल में हो वही कहना, कुछ भी न छिपाना और किसी चीज से न बचना। यह ईमानदार व्यक्ति होने का मानक है।” तुम इस कथन के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) तुम शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोल सकते हो, लेकिन जब अभ्यास के विवरणों या विशिष्ट समस्याओं की बात आती है, तो तुम्हारे पास शब्द नहीं होते। यह सत्य को समझना नहीं है। लोग सत्य को नहीं समझते, लेकिन वे हमेशा सोचते हैं, “मैं पहले से ही बहुत कुछ समझता हूँ, लेकिन परमेश्वर मेरा उपयोग नहीं करता। यदि परमेश्वर मेरा उपयोग करे और मैं कलीसिया का अगुआ बन जाऊँ, तो मैं यह सुनिश्चित कर सकता हूँ कि हर भाई-बहन की समझ में सत्य आ जाए।” क्या यह बहुत ज्यादा डींग हाँकना नहीं है? क्या तुममें सचमुच वह क्षमता है? क्या डींगें हाँकने और शेखी मारने वाले ईमानदार लोग हैं? ये लोग सत्य को नहीं समझते, फिर भी डींगें हाँकते और शेखी बघारते हैं—क्या वे दयनीय नहीं हैं? (हाँ, वे दयनीय हैं।) तुम लोग अब कई धर्मोपदेश सुन रहे हो, लेकिन यदि तुम लोग सत्य को कभी नहीं समझते, तो देर-सबेर तुम फरीसियों के समान मार्ग पर चलोगे और तब तुम लोग आधुनिक फरीसी बन जाओगे। क्या यह संभावना नहीं है? (हाँ।) इसकी पूरी संभावना है। लोगों की शैतानी प्रकृतियों की जड़ें बहुत गहरी हैं। यदि वे थोड़ा ज्ञान या शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं और कुछ सही सिद्धांतों और ऊँचे धर्मोपदेशों का उपदेश दे सकते हैं, तो बहुत संभावना है कि वे फरीसी बन जाएँगे। यदि तुम फरीसी नहीं बनना चाहते या फरीसी के मार्ग पर नहीं चलना चाहते, तो इससे बचने का एकमात्र तरीका है सत्य को समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रयास करना, और जिन सिद्धांतों को तुम समझते हो उन्हें सत्य की वास्तविकता में बदलना। तो एक ईमानदार व्यक्ति होने के सत्य को वास्तव में समझना क्या माना जाता है? तुम लोगों को स्वयं इस पर विचार करना चाहिए और जब तुम्हारे पास कुछ खाली समय हो तो इस पर संगति करनी चाहिए। एक ईमानदार व्यक्ति ठीक-ठीक क्या होता है? परमेश्वर के वचनों में वह जिन ईमानदार लोगों की बात करता है, उन लोगों से कौन-से मानक अपेक्षित हैं? परमेश्वर द्वारा वांछित इन मानकों में से किनका लोग अभ्यास कर सकते हैं? परमेश्वर जिस ईमानदार व्यक्ति की बात करता है, वह कैसा होता है? एक ईमानदार व्यक्ति होना लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के किस पहलू को लक्षित करता है? क्या ये प्रश्न गहराई से विचार करने लायक नहीं हैं? परमेश्वर लोगों से जिन वचनों और सत्यों का अभ्यास करने की अपेक्षा करता है, उनका लक्ष्य लोगों के काम करने के तरीकों या व्यवहार पर केंद्रित नहीं है। वे लोगों की शैतानी प्रकृति और स्वभावों पर लक्षित हैं। इसीलिए ये वचन सत्य कहे जाते हैं। यदि उनका एकमात्र उद्देश्य लोगों के व्यवहार को बदलना और लोगों को सोचना सिखाना होता, तो वे सत्य नहीं होते, केवल एक प्रकार का सिद्धांत होते। यह कहा जा सकता है कि कोई भी शिक्षक लोगों पर थोड़ा प्रभाव डालकर उनके व्यवहार में थोड़ा बदलाव ला सकता है, और इन शिक्षाओं को व्यवहार में लाकर और उनका सारांश देकर लोगों के व्यवहार को धीरे-धीरे नियंत्रित किया जा सकता है। इस प्रकार का ज्ञान बहुत सारा है, लेकिन ये बातें सत्य नहीं हैं, क्योंकि ये लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं कर सकती हैं, न ही वे उनके पापों की जड़ की समस्या का समाधान कर सकती हैं। केवल परमेश्वर के वचन ही लोगों को शुद्ध कर सकते हैं और उनकी भ्रष्टता का निवारण कर सकते हैं, केवल परमेश्वर के वचन ही लोगों की शैतानी प्रकृति का पूरी तरह से समाधान कर सकते हैं, और इसलिए केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। परमेश्वर के वचनों के सत्य का वास्तविक महत्व क्या है? यह मनन करने, विचार करने और अक्सर औरों के साथ मिलकर संगति करने लायक बात है। इसे कभी न भूलो : जो चीजें केवल लोगों का व्यवहार बदल सकती हैं वे सत्य नहीं हैं; वे केवल ज्ञान और नियम हैं। सत्य न केवल लोगों के व्यवहार को बदल सकता है बल्कि उनके भ्रष्ट स्वभावों को भी बदल सकता है। इसके अलावा यह उनके विचारों और धारणाओं को बदल सकता है और किसी व्यक्ति का जीवन बन सकता है। वह सत्य है। अब ऐसे बहुत कम लोग हैं जो इस मामले को साफ तौर पर देख सकते हों। कई लोगों को कभी एहसास ही नहीं होता कि जो चीजें व्यवहार को नियंत्रित करती हैं और लोगों को बाहरी रूप से अच्छा जीवन जीने लायक बनाती हैं, वे सत्य नहीं होतीं, और वे सभी ज्ञान, सिद्धांत और शैतानी फलसफे हैं। जब लोग उन चीजों को स्वीकार करते हैं, तो यद्यपि उनका बाहरी व्यवहार अधिक से अधिक श्रेष्ठ, सम्मानजनक और परिष्कृत होता जाता है, परंतु उनके हृदय कपट और दुष्टता से भर जाते हैं और काले से काले होते जाते हैं। ये चीजें शैतान के जहर और सिद्धांत हैं, ऐसी चीजें हैं जिनका उपयोग शैतान लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए करता है। वे बिल्कुल भी सत्य नहीं हैं और वे परमेश्वर की ओर से नहीं आतीं। केवल सत्य ही वह चीज है जो लोगों को ईमानदार, मुक्त और स्वतंत्र बनने में सक्षम बनाता है, जो उन्हें सृष्टिकर्ता को जानने में सक्षम बनाता है, परमेश्वर का भय मानने वाले दिल से युक्त बनाता है और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित बनाता है। चाहे तुम जिस दृष्टिकोण को स्वीकार करो और चाहे तुम जिस रास्ते पर चलो, अगर तुम्हारा व्यवहार सुधरता है और तुम लोकप्रियता हासिल करते हो, लेकिन तुम्हारा हृदय परमेश्वर से बहुत कम डरता है, और परमेश्वर में सच्चा विश्वास बहुत कम है, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता बहुत खराब है, और तुम्हारा दिल परमेश्वर से और दूर चला जाता है, तो जिन चीजों से तुम चिपके हो, वे सकारात्मक चीजें नहीं हैं और वे निश्चित रूप से सत्य नहीं हैं। यदि तुम कोई रास्ता या जीवन मार्ग चुनते हो और तुम कुछ चीजों को स्वीकार करते हो और ये चीजें तुम्हें वास्तविक और ईमानदार बनाती हैं और तुम्हें सकारात्मक चीजों से प्यार करने वाला और दुष्ट तथा नकारात्मक चीजों से नफरत करने वाला बनाती हैं, और तुममें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय विकसित करती हैं, और तुम्हें स्वेच्छा से सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करने वाला बनाती हैं, तो वे चीजें सत्य हैं और वे वास्तव में परमेश्वर की ओर से आई हैं। तुम लोग इन मानकों के अनुसार चीजों को माप सकते हो। कुछ धर्म-सिद्धांत ऐसे हैं जिन्हें कहने में बहुत-से लोग सक्षम हैं और वर्षों से कहते आ रहे हैं। हालाँकि इन बातों को कई बार कहने के बाद भी लोगों के आंतरिक स्वभाव नहीं बदले हैं, उनकी अवस्थाएँ जरा भी नहीं बदली हैं और लोगों के दृष्टिकोण, सोचने के तरीके और उनके कार्यों के पीछे के शुरुआती बिंदु और इरादों में किसी भी तरह का बदलाव नहीं आया है। तो तुम्हें जल्दी से उन चीजों को छोड़ना चाहिए और उनसे चिपकना बंद कर देना चाहिए; वे निश्चित रूप से सत्य नहीं हैं। जब लोग पहली बार कुछ वचनों का अभ्यास करना शुरू करते हैं, तो ऐसा करना भारी और कठिन लगता है और वे सिद्धांतों को समझ नहीं पाते। हालाँकि कुछ समय तक उनका अनुभव और अभ्यास करने के बाद उन्हें लगता है कि उनकी आंतरिक स्थिति में सुधार हुआ है, कि उनके हृदय परमेश्वर के करीब आ गए हैं, कि उनके पास परमेश्वर से डरने वाला और परमेश्वर से खौफ खाने वाला हृदय है, कि वे ऐसे नहीं रहे कि कोई मुसीबत आने पर अड़ियल या विद्रोही हो जाएँ, कि उनके व्यक्तिगत इरादे और इच्छाएँ पहले जितनी दृढ़ नहीं रह गई हैं, और कि वे परमेश्वर को समर्पण कर सकते हैं। यह अवस्था सकारात्मक है; ये वचन सत्य हैं और ये सही मार्ग हैं। तुम लोग इन सिद्धांतों के आधार पर चीजों का भेद पहचान सकते हो। सत्य को एक वाक्य में परिभाषित करना आसान नहीं होगा। अगर मैं इसे एक वाक्य में परिभाषित करूँ और तुम इसे सुनने के बाद सत्य समझ सको, तो यह अच्छा होगा। लेकिन अगर तुमने इसे एक विनियम और पालन करने योग्य धर्म-सिद्धांत के रूप में देखा, तो यह परेशानी की बात होगी-वह आध्यात्मिक समझ का न होना है। इसलिए मैंने तुम लोगों को ये सिद्धांत दिए हैं और तुम लोगों को इन सिद्धांतों के अनुसार तुलना करना, अनुभव करना, अभ्यास करना और अनुभवात्मक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। बस केवल इन सिद्धांतों के अनुसार कार्यकलाप और आचरण न करो, बल्कि इन्हीं सिद्धांतों के अनुसार तुम्हें दूसरे लोगों और चीजों को देखना और लोगों का मूल्यांकन भी करना चाहिए। इस तरीके से अनुभव और अभ्यास करने से तुम्हें पता चल जाएगा कि सत्य क्या है। यदि लोग यह नहीं समझते कि सत्य क्या है, और यदि वे नहीं जानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, तो क्या वे जीवन प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे जीवन स्वभाव में परिवर्तन हासिल कर सकते हैं? यद्यपि बाहर से परमेश्वर अपने वचनों में लोगों से जो अपेक्षाएँ रखता है, वे बहुत ऊँचे मानकों की नहीं हैं और वे काफी सरल हैं, यदि तुम यह नहीं समझते कि सत्य का निहित अर्थ क्या है या सत्य में कितना व्यावहारिक तत्व शामिल है और तुम सत्य को केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के संदर्भ में समझते हो, तो तुम कभी भी सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं कर पाओगे जिनमें प्रवेश की परमेश्वर लोगों से अपेक्षा रखता है।

26 मई 2017

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