सत्य वास्तविकता क्या है? (भाग दो)

तुम सब लोगों ने अब परमेश्वर में विश्वास के क्रम में सत्य के अनुसरण पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया है तो तुम लोग अपने स्व-आचरण को किस चीज पर आधारित करते हो? मनुष्य के आचरण की आधार रेखा, अंतरात्मा और नैतिकता। ये चीजें सत्य से कितनी दूर हैं? क्या अंतःकरण, स्व-आचरण की आधार रेखा और नैतिकता का संबंध सत्य से है? वे इससे दूर हैं। अपना आचरण अंतरात्मा पर आधारित करना तुम्हें हद से हद एक अच्छा आदमी बना सकता है लेकिन यह परमेश्वर की अपेक्षा से बहुत दूर है। परमेश्वर की लोगों से अपेक्षा है कि वे अपना आचरण सत्य पर आधारित रखें और उसके वचनों के अनुसार जीवन जिएँ। जब परमेश्वर में विश्वास करने वाला कोई व्यक्ति सत्य को ग्रहण कर पाता है, समझ कर अभ्यास में ला पाता है और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अपने को संयमित रख पाता है, तो वह सयाना हो जाएगा। यदि वह सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो वह कभी सयाना नहीं होगा। कुछ लोगों ने सत्य का अनुसरण करना शुरू कर दिया है, और उनका संकल्प यह कहता है, “मुझे सत्य की ओर बढ़ने के प्रयास में अपनी पूरी शक्ति लगानी चाहिए और परमेश्वर के वचनों तथा सत्य के अनुसार अभ्यास करने का कड़ा प्रयत्न करना चाहिए, नियमों के अनुसार काम करना चाहिए, सिद्धांतों और सीमाओं के भीतर कार्य करना चाहिए एवं उन चीजों को करने से बचना चाहिए जो परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करती हों या परमेश्वर के विरुद्ध पाप करती हों और ऐसा करने में किसी को मुझे प्रबंधित करने, संयमित करने या पर्यवेक्षण करने की आवश्यकता नहीं होगी। यद्यपि कोई मेरी निगरानी नहीं कर रहा है, किंतु अगर कुछ करने से परमेश्वर का स्वभाव नाराज हो, हृदय में परमेश्वर का भय न रहे, और परमेश्वर को नाराजगी हो, तो मैं वह चीज बिल्कुल नहीं करूँगा। यदि मेरे मन में वैसा विचार हुआ भी तो भी मैं स्वयं को संयमित रख सकूँगा—मैं उसे कार्यान्वित नहीं करूँगा।” यह अवस्था सक्रिय एवं सकारात्मक है। उदाहरण के लिए, मान लें कि परमेश्वर का घर किसी को किसी बहुमूल्य वस्तु की सुरक्षा करने के लिए कहता है, और इसके बारे में केवल कुछ ही लोग जानते हैं। जब अन्य लोगों को इस मामले का पता चलता है, तो वह व्यक्ति उस वस्तु की अच्छी तरह से देखभाल करने, उसकी चिंता करने और उसके खोने, क्षतिग्रस्त होने, चोरी होने या बर्बाद होने से बचाने में सक्षम होता है। साथ ही वह लालच और स्वामित्व के भाव से भी दूर रहने और अपने दिल में उस वस्तु को पूरी तरह से पवित्र मानकर अलग रखने में सक्षम होता है। क्या वह अच्छा इंसान नहीं है? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि वह अच्छा व्यक्ति है क्योंकि उसके मन में उस वस्तु का गबन करने की कोई योजना या विचार नहीं हैं। इससे भी एक कदम आगे वह अपने पद के प्रति पूरी निष्ठा के साथ इस वस्तु की रक्षा करने में सक्षम है और इस जिम्मेदारी को पूरे मन से और अपनी सर्वोत्तम क्षमता के साथ निभाता है, और कहा जा सकता है कि वह इसे पूरे हृदय से अपना काम अच्छी तरह से कर रहा है। लेकिन एक दिन चीजें बदल जाती हैं। इस मामले की जानकारी रखने वाले कुछ लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाता है, और कुछ को अलग-अलग स्थानों पर स्थानांतरित कर दिया जाता है। अब वही एकमात्र व्यक्ति बचा है जो उस वस्तु के बारे में जानता है। इन परिस्थितियों में क्या उसका परिवेश नहीं बदल गया है? हाँ, उसका परिवेश बदल गया है, और परीक्षा आ चुकी है। शुरू में उनका मन स्थिर रहता है, और वह अभी भी गंभीरता से और जिम्मेदारी से बिना किसी अन्य विचार के वस्तु की रक्षा करता है। बाद में उसे पता चलता है कि जिन लोगों को इस बारे में पता था वे गायब हो गए हैं। तब भी वह सोचता है, “मैं इस वस्तु के बारे में कोई बुरे विचार नहीं रख सकता; मैं इसे अच्छी तरह से सुरक्षित रखे रहूँगा। भले ही लोग इसके बारे में नहीं जानते, परमेश्वर तो जानता है!” क्या वह अच्छा व्यक्ति नहीं है? (वर्तमान में भी वह अच्छा प्रतीत होता है।) ऐसा क्यों है? क्योंकि जब अच्छा इंसान होने के मानकों से मापा जाता है, तो इस स्तर तक पहुँचा हुआ व्यक्ति पहले से ही बहुत अच्छा होता है। लेकिन एक दिन उसके परिवार में एक बड़ा संकट आ जाता है, उसे तत्काल धन की आवश्यकता होती है, और उसके पास पर्याप्त धन नहीं होता। उसका परिवेश फिर बदल गया है और जब परिवेश बदलता है तो एक बार फिर उसकी परीक्षा का समय आ गया है। पहले तो वह किसी से पैसा उधार लेने का विचार करता है, लेकिन दो-तीन असफल प्रयासों के बाद उसके दिल में हलचल होने लगती है : “मेरे पास क्या यह कीमती वस्तु नहीं रखी है? जब यह वस्तु ठीक मेरे सामने है तो क्या पैसा उधार लेना मूर्खता की बात नहीं होगी? कोई नहीं जानता कि यह वस्तु मेरी सुरक्षा में है। इसके अलावा यह वस्तु यहाँ धूल खा रही है। क्या मेरे लिए इसका उपयोग करना उचित नहीं होगा? मैं यह कर सकता हूँ!” तब उसे एक बेहतर तार्किक विचार सूझता है, “क्या यह परमेश्वर द्वारा मेरे लिए तैयार नहीं किया गया था? परमेश्वर मुझ पर कृपालु है, परमेश्वर को धन्यवाद!” वह इसके बारे में जितना अधिक सोचता है, उसे उतना ही अधिक लगता है कि यह करना उचित है। दो-तीन दिनों के सोच-विचार के बाद वह अपने हृदय में शांति महसूस करता है और उसकी अंतरात्मा उसे नहीं फटकारती। अंततः वह निर्णय लेता है, “मैं तो इस धन का प्रयोग करूँगा!” क्या हुआ? (उसकी सोच में बदलाव आना शुरू हुआ।) उसकी सोच में यह बदलाव कैसे आया? (यह परिवेश के कारण हुआ।) तो क्या समस्या परिवेश की है? क्या परिवेश ने उसे बदल दिया? (नहीं।) तो हम इसकी सटीक व्याख्या कैसे कर सकते हैं? जब पहले भी दो बार उसका परिवेश बदला था, तब उसका मन क्यों नहीं डगमगाया था? (वह अत्यधिक गरीबी और हताशा का दौर नहीं था।) इस बिंदु तक पहुँचने से पहले किसी व्यक्ति के सच्चे आंतरिक विचार और सच्चे स्वभाव उजागर नहीं होते। क्या हम उस समय कह सकते हैं कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति निष्ठावान है? या कि वह सत्य से प्रेम करता है? हम ऐसा कह सकते हैं क्योंकि जब उसने बिना किसी अन्य खयाल या सक्रिय विचार के दी गई भेंट की रक्षा की, तो वह उसे पूरे दिल और क्षमता से निभाने में सफल रहा। उसने उस वस्तु के बारे में कभी कोई बुरी योजना नहीं बनाई—कितना महान व्यक्ति है! लेकिन जब उसका जीवन परिवेश बदला और उसे लगा कि वह इस तरह फँसा है जिससे निकलने का कोई रास्ता नहीं है तो उसके सक्रिय विचार उभरे और उसने भेंट के बारे में मंसूबे पालने शुरू कर दिए। वास्तव में ऐसा नहीं है कि उसके मन में ये विचार पहले नहीं थे, लेकिन उसने उन्हें अपने मन में छिपा लिया था। उपयुक्त परिवेश मिलने पर उसके विचार स्वाभाविक रूप से झरने के पानी की तरह सामने आ गए। अंत में उसने यह कहते हुए अपने विचारों के लिए “आधार” भी ढूँढ़ लिया कि परमेश्वर ने यह वस्तु उसके लिए ही तैयार की थी। जब ये “आधार” मिले, तो क्या उसकी दुष्ट प्रकृति उजागर नहीं हुई? उसकी निष्ठा, अच्छाई और न्याय की भावना कहाँ गए? (वे गायब हो गए।) तो क्या उसकी पिछली अभिव्यक्तियाँ सिर्फ दिखावा थीं? वे कोई दिखावा नहीं थीं; वे भी प्राकृतिक खुलासे थे, लेकिन वे गहरे नहीं थे। वे सबसे सतही खुलासे थे, वे सतही परिघटनाएँ थीं। मानवता की ऊपरी सतह के स्तर की परिघटनाओं में कुछ भ्रम होते हैं, और कभी-कभी लोग उनकी असलियत नहीं पहचान पाते और आसानी से धोखा खा जाते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग छह महीने या एक साल तक अपना कर्तव्य बहुत अच्छे से निभाते दिखते हैं, लेकिन एक साल के बाद वे नकारात्मक हो जाते हैं। दो साल के बाद वे भाग सकते हैं और धर्मनिरपेक्ष दुनिया में लौट सकते हैं—कुछ पैसा कमाने के लिए और कुछ अपना जीवन जीने के लिए। तो उनके छह महीने या एक वर्ष के प्रदर्शन के आधार पर तुम्हारे लिए यह तय करना गलत होगा कि वे परमेश्वर के लिए खुद को ईमानदारी से खपाने वाले लोग हैं। उन छह महीनों या एक साल के दौरान का उनका व्यवहार वास्तव में एक भ्रम होता है, अस्थायी उत्साह होता है। उनके असली चेहरे और परमेश्वर में उनके विश्वास के पीछे के इरादों में घालमेल तब उजागर होती है जब उनका कुछ परिवेशों और प्रलोभनों से सामना होता है। क्या यह तथ्य नहीं है? वे बिल्कुल भी नहीं बदले हैं। परमेश्वर लोगों में ठीक-ठीक क्या बदलाव करना चाहता है? लोगों से सत्य स्वीकार करवा कर परमेश्वर किन समस्याओं का समाधान करना चाहता है? (मनुष्य की प्रकृति के भीतर की चीजों का समाधान चाहता है।) यह सही है, मनुष्य की प्रकृति के भीतर की ही चीजें हैं जिनका समाधान किया जाना चाहिए। जब तक लोगों के साथ कुछ नहीं होता, तब तक उनके पास एक बुनियादी नैतिक आधार होता है और वे दूसरों का फायदा नहीं उठाते। खास तौर पर उम्रदराज लोग अक्सर कहते हैं, “न दूसरों के माल पर नीयत बुरी रखो, न अपना माल गँवाओ।” कहने का मतलब यह है कि अपनी चीजें यूँ ही किसी को न दो, और दूसरों की चीजों के प्रति लालच या लोभपूर्ण विचार न रखो। यह ठीक वही बात है जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए और यह सत्य तक नहीं पहुँचती। तो क्या लोग इसे हासिल कर सकते हैं? (वे नहीं कर सकते।) लोग इसे प्राप्त भी नहीं कर सकते, और फिर भी वे कहते हैं कि लोभपूर्ण विचार न रखो। अपने भीतर लोभपूर्ण विचार आने का इंतजार किए बिना दूसरों का सामान हड़प लेना व्यक्ति की प्रकृति के वर्चस्व का परिणाम होता है। जब तक परिवेश इसकी अनुमति देता है, लोगों को इस बारे में सोचने की भी जरूरत नहीं होती और वे अपने भीतर की दुष्ट प्रकृति, और अपने क्रूर, लालची और धोखेबाज स्वभावों को प्रकट करते रहते हैं। सुरक्षा के लिए दी गई भेंट का गबन करने वाले जिस व्यक्ति का उदाहरण अभी मैंने दिया था—उसके कौन-से विचार और अभिव्यक्तियाँ कपटपूर्ण थीं? (उसने यह दावा करते हुए परमेश्वर की भेंट हड़प ली थी कि परमेश्वर ने ही उसे तैयार करके उसके लिए रास्ता बनाया था।) यह धोखेबाजी है, यह अपने साथ-साथ दूसरों को भी धोखा देना है। उसने खुद को धोखा दिया और उसने परमेश्वर को भी धोखा देने की कोशिश की। उसने सुनने में अच्छे लगने वाले शब्दों का प्रयोग अपने आपको छलने और अपनी अंतरात्मा को सांत्वना देने के लिए किया ताकि वह इसके आरोपों से बच सके। इतना ही नहीं, उसने अपने लिए एक सुंदर झूठ गढ़ा, और इस झूठ का उपयोग परमेश्वर को मूर्ख बनाने और जाल में फँसाने के लिए करना चाहा। क्या यह धोखेबाजी नहीं है? (हाँ।) यह धोखेबाजी है। जब तुम्हारा ऐसे परिवेशों से सामना होता है, और तुम्हारी प्रकृति विचारों को जन्म देती है और तुम्हें कुछ करने को प्रेरित करती है, तो इसका असर सबसे पहले तुम्हारे भीतर अंतरात्मा पर पड़ता है, उसके बाद उन सत्य पर पड़ता है जिन्हें तुम समझते हो, वह तुम्हें एहसास कराता है कि इस तरह से सोचने से तुम कहीं नहीं पहुँचोगे, कि यह घृणा योग्य और दुष्टता है, और तुम जो सोचते हो और जिस पर विश्वास करते हो, वह सत्य नहीं है। यद्यपि तुम्हारे भीतर अस्थायी रूप से ऐसा कार्य करने का मनोवेग होता है, फिर भी परमेश्वर से प्रार्थना करने के बाद तुम सोचते हो, “मैं यह नहीं कर सकता; इससे परमेश्वर नाराज होगा। यह दुष्टता है! ऐसा करना सत्य के साथ असंगत है, और क्या यह परमेश्वर को धोखा देने जैसा नहीं होगा? मैं इसे कभी नहीं कर सकता। यह कुछ ऐसा है जिसे पवित्र मानकर अलग किया गया है, यह परमेश्वर का है, और इसे बिल्कुल भी नहीं छुआ जाना चाहिए। यद्यपि इस चीज के बारे में कोई नहीं जानता, और केवल परमेश्वर इसके बारे में जानता है, और चूँकि केवल परमेश्वर ही इसके बारे में जानता है, मैं इसे बिल्कुल नहीं छू सकता।” यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार सोच सकता है, तो उसमें वास्तविक आध्यात्मिक कद होता है। यदि वह अपने अच्छे इरादों और नैतिक आधार रेखा पर भरोसा करता, तो क्या वह खुद पर संयम रख पाता? क्या वह गारंटी दे सकता था कि वह उस भेंट की चोरी नहीं करेगा? (वह यह नहीं कर पाता।) इसे प्राप्त करने के लिए किसी व्यक्ति के पास क्या होना चाहिए? (उसके हृदय में परमेश्वर का भय होना चाहिए।) केवल वे सत्य जिन्हें तुम समझते हो, परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान और तुम्हारे हृदय में परमेश्वर का भय ही तुम्हारे हृदय और कार्यों को संयम में रख सकता है और निर्धारित कर सकता है कि तुम कौन-सा मार्ग चुनोगे और तुम परमेश्वर के इरादों के अनुसार कैसे आचरण करोगे। सत्य और परमेश्वर के वचनों के अलावा क्या कोई दूसरी चीज है जो लोगों को इसे पाने में मदद कर सकती है? नहीं, ऐसी कोई चीज नहीं है। यही एकमात्र रास्ता है; यह तुम्हें परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने में सक्षम बना सकता है। तुम्हारे सामने चाहे जैसे भी परिवेश हों, चाहे वे परीक्षण हों या प्रलोभन, वे परमेश्वर के प्रति तुम्हारी निष्ठा और समर्पण को नहीं बदल सकते। एक बार जब तुम अपना संकल्प दृढ़ कर लोगे, तो वह कभी नहीं बदलेगा। तुम कितने ही कठिन परिवेश का सामना करो, चाहे वह तुम्हारे लिए विशेष रूप से बड़ा प्रलोभन हो, तुम्हारा संकल्प अपरिवर्तित रहेगा, और चीजों को करने के तुम्हारे सिद्धांत अपरिवर्तित रहेंगे। इस प्रकार तुम अपनी गवाही पर दृढ़ रहोगे, और सत्य प्राप्त कर लोगे। इस मामले में परमेश्वर दोबारा तुम्हारा परीक्षण नहीं करेगा। तुम इस पर काबू पा चुके होगे और मजबूती से खड़े रहोगे। बिल्कुल अभी क्या अधिकांश लोग इस आध्यात्मिक कद तक पहुँच सकते हैं? (वे नहीं पहुँच सकते।) वे अभी भी उस तक नहीं पहुँच सकते, जिससे साबित होता है कि सत्य उनका जीवन नहीं बन पाया है। तो अब उनके जीवन में कौन-सी चीजें हैं? दुनियावी चीजों से निपटने के शैतान के फलसफे, शैतान के जहर, और कुछ मानवीय मूल प्रवृत्तियाँ, यानी नैतिकता और स्व-आचरण की आधार रेखा को पकड़े रहना, साथ ही कुछ आध्यात्मिक सिद्धांत और अभिव्यक्तियाँ जो उन्होंने परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद हासिल कीं। इन चीजों पर पकड़ बना लेने के बाद लोग हमेशा सोचते हैं, “मैंने सत्य हासिल कर लिया है। मैं परमेश्वर में अपने विश्वास के बारे में बहुत कुछ समझ चुका हूँ। मैं बदल गया हूँ और मैंने कुछ हासिल कर लिया है।” वह क्या है जो उन्होंने हासिल किया है? दरअसल ये सिर्फ सतही स्तर की चीजें हैं। यह बस उनके व्यवहार को कुछ संयम में रखना होता है और उनके व्यवहार को कुछ हद तक अधिक विनियमित करना भर होता है। इसके अलावा वे अपने दिमाग और दिल में अधिक सकारात्मक तरीके से विचार कर सकते हैं और सकारात्मक चीजों के बारे में अधिक सोच सकते हैं। अपने परिवेश के प्रभाव के कारण, अक्सर धर्मोपदेश सुनने के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का पालन करने और अधिक से अधिक सकारात्मक चीजों के संपर्क में रहने के कारण वे कुछ सकारात्मक तरीकों से प्रभावित होते हैं। ये वे लाभ और परिवर्तन हैं जो कलीसिया के परिवेश में लोगों को मिलते हैं। लेकिन सत्य लोगों में कितने बड़े और कितने सारे परिवर्तन लाता है? यह उनके अनुसरण पर निर्भर करता है। यदि तुम वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो सत्य के व्यावहारिक पहलुओं के संबंध में तुम्हें हमेशा कुछ न कुछ हासिल होगा और प्रत्येक चरण में तुम थोड़ा-सा इसे हासिल करोगे और थोड़ा-सा समझोगे। अपने हृदय में लोग समझते हैं और इस बात की अनुभूति रखते हैं कि उन्होंने कुछ हासिल किया है या नहीं। अधिकांश लोग अब क्या महसूस करते हैं? यह कि अच्छे इरादों के आधार पर वे अक्सर लगन के साथ और जानबूझकर कुछ अच्छी चीजें करते हैं, ऐसी चीजें जिनके बारे में लोग मानेंगे कि उनमें अंतरात्मा और विवेक है, और ऐसी चीजें जिनके कारण दूसरे उन पर आरोप नहीं लगा सकेंगे या आलोचना नहीं करेंगे। यद्यपि वे अच्छी चीजें हैं, फिर भी उन्हें सत्य का अभ्यास करना नहीं कहा जा सकता। क्या ऐसा मामला नहीं है? (हाँ।) अधिकांश लोगों के कार्यों का एक मौलिक सिद्धांत होता है, जो अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करने का होता है। उन्हें लगता है कि सत्य अगाध है, बहुत अमूर्त है और लोगों से बहुत दूर प्रतीत होता है। लोग सत्य को अच्छी तरह से नहीं समझते और वे इसे स्पष्ट रूप से समझा नहीं सकते, इसलिए वे केवल अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करते हैं और दिन-ब-दिन भ्रमित बने रहते हैं। कुछ लोग अंतरात्मा के बारे में जरा भी जागरूक नहीं होते और वे अंतरात्मा के मानकों के अनुसार कार्य नहीं करते। कुछ लोग बिना कोई परिणाम पाए अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं; वे बस मुफ्तखोरी कर रहे हैं और परमेश्वर की कृपा का आनंद ले रहे हैं, लेकिन बदले में कुछ नहीं दे रहे हैं, और उनके दिल में कोई अपराध बोध भी नहीं है। क्या इन लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक है? तुम यदि उनसे पूछो कि “इस तरह जीने के बारे में तुम कैसा महसूस करते हो?” तो वे कहते हैं, “परमेश्वर के इरादे बहुत ही महान हैं, मैं उन तक नहीं पहुँच सकता। जो भी हो, मैं ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति हूँ, और मैंने बुराई नहीं की है। मैं अपने हृदय में शांति महसूस करता हूँ।” क्या ऐसे लोग सत्य का अभ्यास करते हैं? यद्यपि वे अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं, पर क्या वे ईमानदारी से स्वयं को परमेश्वर के लिए खपा रहे हैं? मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से लगता है कि वे अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं, लेकिन उन्हें इसमें कोई परिणाम नहीं मिलता। क्या परमेश्वर उन्हें अनुमति दे सकता है? वे कह सकते हैं, “मैं अपने कर्तव्य अपनी अंतरात्मा के आधार पर करता हूँ, मैं निष्क्रिय नहीं रहता हूँ, आलसी नहीं हूँ और मैं इसकी कीमत चुकाता हूँ।” लेकिन क्या अंतरात्मा का यह मानक इस बात का सूचक है कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? तुम लोगों के पास जब समय हो, तब तुम्हें इस पर विचार करना चाहिए, संगति करने के लिए कोई विषय लेकर आना चाहिए, और देखना चाहिए कि सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम्हें कैसे काम करना चाहिए। केवल अंतरात्मा के मानक या अच्छा मनुष्य होने और अच्छा व्यवहार करने के मानकों पर मत रुको। चापलूस बनकर संतुष्ट न रहो। तुम्हें सत्य की ऊँचाई का अनुसरण और उसमें प्रवेश करना चाहिए। केवल इसी तरह से तुम परमेश्वर के इरादे पूरे कर सकते हो और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो। यदि तुम हमेशा अपनी अंतरात्मा को संतुष्ट करना चाहते हो, और सोचते हो कि तब तक सब ठीक है जब तक कि तुम नैतिक आधार रेखा का उल्लंघन नहीं करते, तो तुम जब कोई चीज करोगे तब हमेशा इसी दायरे में बँधे रहोगे, और इस दायरे से आगे नहीं जा सकोगे, जिसका मतलब है कि सत्य का तुमसे कभी कोई लेना-देना नहीं होगा। यदि तुम्हारे कार्यों और शब्दों का सत्य से कभी कोई लेना-देना ही नहीं होगा, तब भी क्या तुम सत्य को प्राप्त कर सकोगे? तुम्हारे लिए सत्य को पाना कठिन होगा।

प्राचीन काल में, विद्वान लोग अक्सर “कन्फ्यूशियस का साहित्य संग्रह,” “ताओ ते चिंग,” और “तीन चरित्रों वाला शास्त्रीय साहित्य” का अध्ययन करते थे। शास्त्रीय कथन बुदबुदाते हुए वे पूरे दिन सिर हिलाते रहते थे, मानो धर्मग्रंथों का जाप कर रहे हों और उनके होठों पर शास्त्रीय कथन हों। कुछ किताबें पढ़ने और कुछ टैंग और सॉन्ग कविताओं को याद करने के बाद वे खुद को जानकार मानने लगते थे और पूरा दिन खुद को बहुत प्रभावशाली समझते हुए दूसरों को व्याख्यान देने में बिताते थे। अपने पूरे जीवन में वे कोई भी उचित उपलब्धि अर्जित नहीं कर पाते थे और केवल संतों की लिखी उन कुछ पुस्तकों के आधार पर आचरण करते थे, जिनको उन्होंने पढ़ा होता था। वे कुछ भी नहीं समझते थे और वे कुछ जान भी नहीं पाते थे। वे जीवन भर उलझे रहते थे और कुछ भी हासिल नहीं कर पाते थे। और फिर भी वे अपने हृदय में अपने आप से प्रसन्न रहते थे, सोचते थे कि वे बहुत कुछ समझते हैं और दूसरे सभी लोगों से श्रेष्ठ हैं। एक मुहावरा है “तुमसे भी ज्यादा पवित्र मैं”—यह बहुत सही बैठता है और तुम लोगों को इस स्थिति में बिल्कुल नहीं रहना चाहिए। कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि उनके पास ज्ञान है, और उनके हृदय में दयालुता तथा धार्मिकता है। परिणामस्वरूप उन सभी को लगता है कि वे दूसरों से भी अधिक पवित्र हैं, और सोचते हैं कि वे अच्छा आदमी और सज्जन कहलाने के पूरी तरह योग्य हैं। कुछ लोग वफादारी को विशेष महत्व देते हैं और अपने दोस्तों के लिए गोली भी खा सकते हैं। कुछ लोग विशेष रूप से अंतरात्मा को महत्व देते हैं और इन शब्दों पर खरे उतरते हैं कि : “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए।” कुछ लोग विवाह नहीं करते, आत्म-चिंतन के माध्यम से अपने मस्तिष्क और शरीर का विकास करते हैं और अमरता का अनुसरण करते हैं। कुछ लोग पूरी तरह से संतों की पुस्तकों का अध्ययन करने में समर्पित हो जाते हैं और बाहरी मामलों पर कोई ध्यान नहीं देते। क्या ये तथाकथित अच्छे लोग सचमुच अच्छे लोग हैं? वे अपने ज्ञान के आधार पर जीते हैं, और वे थोड़ी अंतरात्मा के आधार पर बोलते और कार्य करते हैं, तो क्या इन लोगों को सत्य वास्तविकता प्राप्त माना जा सकता है? क्या सचमुच गारंटी दी जा सकती है कि वे कोई बुराई नहीं करेंगे? कुछ लोग दूसरों के प्रति अच्छे इरादे रखते हैं और अक्सर दान और सहायता देते रहते हैं, इसलिए वे खुद को महान परोपकारी मानते हैं। लेकिन क्या हमेशा पारंपरिक संस्कृति के दावों पर विश्वास करते हुए यह तय करना उपयुक्त है कि कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा? दूसरों का मूल्यांकन करने और अपना दिखावा करने के लिए हमेशा नैतिक मानकों का उपयोग करना दूसरों से अधिक पवित्र होना होता है। क्या खुद को दूसरों से ज्यादा पवित्र मानने वाले इन लोगों के पास सत्य है? क्या वे सत्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। यदि उन्हें शक्ति और रुतबा हासिल हो जाता, तो क्या वे परमेश्वर का विरोध और परमेश्वर पर विश्वास करने वाले लोगों पर क्रूरता से अत्याचार कर सकते थे? वे ऐसा करने में बहुत सक्षम होते हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि उनकी प्रकृति में अभी भी दुर्भावना है, और उनकी प्रकृति शैतान की है। इसके आधार पर यह तय किया जा सकता है कि हमेशा ज्ञान और पारंपरिक संस्कृति के आधार पर जीवन जीने वाले सभी लोग पाखंडी होते हैं, जो बुराई कर सकते हैं और परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकते हैं। कुछ लोगों का कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास है, फिर भी आश्चर्य की बात है कि उन्हें पारंपरिक संस्कृति और ज्ञान के भेद की कोई पहचान नहीं है। वे पूरी तरह से यह नहीं समझ पाते कि सार रूप में ये चीजें शैतानी फलसफे, तर्क और कानून हैं, और ऐसा ज्ञान और संस्कृति हैं जिससे लोगों को नुकसान होता है। क्या ऐसे लोगों के पास सत्य वास्तविकता है? जो लोग पारंपरिक संस्कृति और ज्ञान की असलियत नहीं जान सकते और उनके बारे में भेद की कोई पहचान नहीं रखते, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य को जरा भी नहीं समझते, और जिनके पास थोड़ी-सी भी सत्य वास्तविकता नहीं है। ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि कुछ तरह का ज्ञान भी लोगों को अच्छा बनने में मदद कर सकता है और इस प्रकार का ज्ञान लोगों को अच्छा करने के लिए निर्देशित करता है। ये बहुत गलत बात है। ज्ञान जीवन नहीं है; यह एक प्रकार का विनियम है, यह सत्य के विपरीत है और यह एक भ्रांति है। किसी व्यक्ति का ज्ञान कितना भी ऊँचा या गहरा हो, वह मानवजाति के भ्रष्ट सार, या अपनी प्रकृति, या मानवजाति की भ्रष्टता की असलियत नहीं जान सकता। फिर उसके ज्ञान का क्या उपयोग है? क्या यह सबसे सतही और भ्रामक सिद्धांत नहीं है? कन्फ्यूशियसवादी सिद्धांत और “ताओ ते चिंग” की तरह—इन तथाकथित शास्त्रीय चीनी संतों की पुस्तकों में सत्य प्रतीत होते झूठे शब्द हैं, वे शैतानी शब्द हैं जो लोगों को गुमराह करते हैं, वे आडंबरपूर्ण पाखंड और भ्रांतियाँ हैं और वे शैतानी जहर और तर्क हैं। कुछ लोग इन चीजों की सत्य के रूप में पूजा करते हैं—क्या वे अभी भी परमेश्वर में विश्वास रखते हैं? यदि तुम अपने हृदय में परमेश्वर पर विश्वास करते हो और प्रतिदिन प्रवचन सुनते हो और परमेश्वर के वचनों का पाठ करते हो, तो तुम सत्य को क्यों नहीं समझ पाते? तुम सत्य को अपने अनुसरण का लक्ष्य क्यों नहीं बना पाते? ये लोग सबसे मूर्ख और पूरी तरह से अज्ञानी लोग हैं, वे मानव रूप में जंगली जानवर हैं, और वे मनुष्य नहीं हैं।

सत्य क्या है? सबसे पहले यह तय किया जाना चाहिए कि सांसारिक आचरण के फलसफे निश्चित रूप से सत्य नहीं हैं, और मशहूर हस्तियों और महान हस्तियों के ध्येय वाक्य सत्य नहीं हैं। कन्फ्यूशीवाद और ताओवाद की बातें, वे व्यवहार और कार्य-कलाप जो अच्छे हैं, विरासत में मिले हैं और जिन्हें भ्रष्ट मानवजाति सामान्यतः पहचानती है, वे सिद्धांत और बातें जो लोगों के मन को निर्देशित करती हैं, इत्यादि—इनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है। क्या दूसरों की मदद करके खुशी पाना सत्य है? (नहीं।) दूसरों की मदद करने से खुशी पाना और परोपकारी होना अच्छे काम हैं, और एक सहृदय व्यक्ति कम से कम दयालु होता है और दूसरों पर दया करने में सक्षम होता है—यह सत्य के अनुरूप क्यों नहीं है? (लोगों की मदद कैसे करनी है इसका उनके पास कोई सिद्धांत नहीं हैं।) क्या सिद्धांतों के बिना लोगों की मदद करना अच्छा इंसान होना है? यह खुशामदी होना और सभी के साथ अच्छे संबंध रखने की कोशिश करना है। क्या अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित प्रेम दिखाना सत्य है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना एक सही और सकारात्मक बात है, लेकिन हम यह क्यों कहते हैं कि यह सत्य नहीं है? (क्योंकि लोग अपने माता-पिता के साथ संतानोचित व्यवहार करने में किसी सिद्धांत का पालन नहीं करते और वे यह भेद नहीं कर पाते कि उनके माता-पिता वास्तव में किस प्रकार के लोग हैं।) एक व्यक्ति को अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका संबंध सत्य से है। यदि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते हैं और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, तो क्या तुम्हें उनके प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए? (हाँ।) तुम संतानोचित कैसे होते हो? तुम उनके साथ अपने भाई-बहनों से अलग व्यवहार करते हो। तुम उनके द्वारा बताए गए हर काम को करते हो, और यदि वे बूढ़े हों, तो तुम्हें हर हाल में उनकी देखभाल के लिए उनके पास रहना होता है, जो तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए बाहर जाने से रोकता है। क्या ऐसा करना सही है? (नहीं।) ऐसे समय में तुम्हें क्या करना चाहिए? यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि तुम अपने घर के आस-पास ही कहीं अपना कर्तव्य निभाते हुए भी उनकी देखभाल कर पा रहे हो, और तुम्हारे माता-पिता को परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था पर आपत्ति नहीं है, तो तुम्हें एक पुत्र या पुत्री के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए और अपने माता-पिता के कुछ काम करते हुए उनकी मदद करनी चाहिए। यदि वे बीमार हों, तो उनकी देखभाल करो; अगर उन्हें कोई परेशानी हो, तो उन्हें दिलासा दो; यदि तुम्हारी वित्तीय परिस्थितियाँ अनुमति दें, तो अपने बजट के अनुरूप उनके लिए पोषक पूरक तत्व खरीदो। परंतु, यदि तुम अपने कर्तव्य में व्यस्त रहते हो, जबकि तुम्हारे माता-पिता की देखभाल करने वाला और कोई न हो, और वे भी परमेश्वर में विश्वास करते हों, तो तुम्हें क्या करने का फैसला करना चाहिए? तुम्हें कौन-से सत्य का अभ्यास करना चाहिए? चूँकि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सत्य नहीं, बल्कि केवल एक मानवीय जिम्मेदारी और दायित्व है, तो तुम्हें तब क्या करना चाहिए जब तुम्हारा दायित्व तुम्हारे कर्तव्य से टकराता हो? (अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए; कर्तव्य को पहले रखना चाहिए।) दायित्व अनिवार्य रूप से व्यक्ति का कर्तव्य नहीं है। अपना कर्तव्य निभाने का चुनाव करना सत्य का अभ्यास करना है, जबकि दायित्व पूरा करना सत्य का अभ्यास करना नहीं है। अगर तुम्हारी स्थिति ऐसी हो, तो तुम यह जिम्मेदारी या दायित्व पूरा कर सकते हो, लेकिन अगर वर्तमान परिवेश इसकी अनुमति न दे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, “मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए—यही सत्य का अभ्यास करना है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना अपने जमीर से जीना है और यह सत्य का अभ्यास करने के मानक के अनुरूप नहीं है।” इसलिए, तुम्हें अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और उस पर कायम रहना चाहिए। अगर अभी तुम्हारे पास कोई कर्तव्य नहीं है और तुम घर से दूर रहकर काम नहीं करते, और अपने माता-पिता के पास रहते हो, तो उनकी देखभाल करने के तरीके खोजो। उन्हें थोड़ा बेहतर जीने और उनके कष्ट कम करने में मदद करने की पूरी कोशिश करो। लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि तुम्हारे माता-पिता किस तरह के लोग हैं। अगर तुम्हारे माता-पिता खराब मानवता के हैं, यदि वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने से लगातार रोकते हैं, और अगर वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने से दूर खींचते रहते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें किस सत्य का अभ्यास करना चाहिए? (अस्वीकार।) उस समय तुम्हें उन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए। तुमने अपना दायित्व पूरा किया है। तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, इसलिए उनके प्रति संतानोचित आदर प्रदर्शित करने का तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परिवार हैं, तुम्हारे माता-पिता हैं। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो तुम लोग अलग-अलग मार्ग पर चल रहे हो : वे शैतान में विश्वास करते हैं और दानव राजा की पूजा करते हैं और वे शैतान के मार्ग पर चलते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करने वालों से भिन्न मार्गों पर चल रहे हैं। अब तुम एक परिवार नहीं हो। वे परमेश्वर में विश्वास करने वालों को अपना विरोधी और शत्रु मानते हैं, इसलिए उनकी देखभाल करने का तुम्हारा दायित्व नहीं रह गया है और तुम्हें उनसे पूरी तरह से संबंध तोड़ लेना चाहिए। सत्य क्या है : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना या अपना कर्तव्य निभाना? बेशक, अपना कर्तव्य निभाना सत्य है। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना केवल अपना दायित्व पूरा करना और वह करना नहीं है जो व्यक्ति को करना चाहिए। यह सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है। यहाँ परमेश्वर का आदेश है; यह तुम्हारा दायित्व है, तुम्हारी जिम्मेदारी है। यह सच्ची जिम्मेदारी है, जो सृष्टिकर्ता के समक्ष अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना है। यह सृष्टिकर्ता की लोगों से अपेक्षा है और यह जीवन का बड़ा मामला है। लेकिन अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित सम्मान दिखाना किसी पुत्र या पुत्री की जिम्मेदारी और दायित्व मात्र है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा आदेशित नहीं है और यह परमेश्वर की माँगों के अनुरूप तो और भी कम है। इसलिए अपने माता-पिता का संतानोचित सम्मान करने और अपना कर्तव्य निभाने के बीच, इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपना कर्तव्य निभाना और केवल वही करना सत्य का अभ्यास करना है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य और एक अनिवार्य कर्तव्य है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित सम्मान प्रदर्शित करने का मतलब लोगों के प्रति संतानोचित व्यवहार करने से है। इसका मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है, न ही इसका मतलब यह है कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है। इस तरह से इन चीजों के बारे में संगति करने के बाद तुम लोगों को स्वयं इन चीजों में अंतर करने में सक्षम होना चाहिए, और जानना चाहिए कि क्या सत्य है और क्या सत्य नहीं है। अब इस बारे में सोचो कि लोग किन दूसरी चीजों का सम्मान करते हैं जिन्हें सत्य माना जाता है? (समाज में अक्सर “सकारात्मक ऊर्जा” शब्द का प्रयोग किया जाता है; यह भी एक नकारात्मक बात है और सत्य नहीं है।) गैर-विश्वासी लोग जिन शब्दों के बारे में बात करते हैं उनमें से अधिकांश शैतानी बातें हैं। “सकारात्मक ऊर्जा” शब्द किस पृष्ठभूमि से निकला? समाज में जो लोकप्रिय कहावतें, अजीब सिद्धांत, या प्रचलित शब्द बनते हैं उन सभी की एक पृष्ठभूमि होती है। क्या तुम लोग उस पृष्ठभूमि को जानते हो जिससे यह प्रचलित शब्द निकला है? चीन में सामाजिक माहौल तेजी से दुष्टतापूर्ण होता जा रहा है, और लोग दुष्टता की वकालत करते हैं। दानव चाहे जो कहें या करें, लोग उसका अनुसरण करते हैं। हालाँकि कुछ लोग इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते और इस पर टिप्पणी करते हैं, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं होता, और कोई भी प्रतिक्रिया नहीं देता। चीन में दुष्टता एक प्रवृत्ति बन गई है और लोगों का कोई समूह इस दुष्ट प्रवृत्ति को नहीं रोक सकता। हर किसी को लगता है कि दिन-ब-दिन देश का नैतिक स्तर और गिरता जा रहा है। सारी शक्ति दुष्ट राक्षसों के पास है, और वे देश और उसके लोगों को पूरी तरह से नियंत्रित करते हैं। दानव जो चाहते हैं वही करते हैं और कोई उन्हें रोक नहीं सकता। जनता को मूर्ख बनाने के लिए सत्तासीन लोगों ने जनता को गुमराह करने और धोखा देने वाली कई सत्याभासी चीजें की हैं, यहाँ तक कि यह दावा भी किया है कि ये सभी कार्य सकारात्मक ऊर्जा की श्रेणी में हैं। यही वह पृष्ठभूमि है जहाँ से “सकारात्मक ऊर्जा” का उदय हुआ है। गैर-विश्वासियों का “सकारात्मक ऊर्जा” से क्या तात्पर्य है? इसे वे खरापन या एक प्रकार का अच्छा व्यवहार कहते हैं। वास्तव में क्या यह सकारात्मक ऊर्जा समाज में प्रभाव डाल सकती है? क्या यह दुष्ट प्रवृत्तियों की बाढ़ का समाधान कर सकती है? क्या यह दुष्ट प्रवृत्तियों को बढ़ने से रोक सकती है? यह नहीं कर सकती; यह कुछ भी नहीं बदल सकती। यह क्यों कुछ नहीं बदल सकती? “सकारात्मक ऊर्जा” शब्द बहुत शक्तिशाली लगता है, तो फिर यह कुछ भी बदल क्यों नहीं सकता या किसी समस्या का समाधान क्यों नहीं कर सकता? यह बच्चों की दिन भर इंटरनेट की लत की समस्या तक को बदल या हल नहीं कर सकती। अतीत में लोगों के बीच तब भी थोड़ा-बहुत स्नेह, थोड़ी अंतरात्मा और तर्क हुआ करता था, और पड़ोसियों के बीच भी थोड़ी शिष्टता होती थी, लेकिन अब बात अलग है। मानवीय रिश्ते ढुलमुल और अस्थिर हो गए हैं, और सभी लोग एक-दूसरे के लिए अजनबी की तरह हैं। जब लोग अपने पड़ोसियों के साथ दुर्घटनाएँ होते देखते हैं, तब भी परवाह नहीं करते, और न ही किसी को मदद के लिए पुकारते देखकर वे आगे आने का साहस करते हैं। यहाँ समस्या क्या है? क्या कोई सकारात्मक ऊर्जा न होने के कारण लोग ऐसे बन जाते हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि समाज में पहले सकारात्मक ऊर्जा थी? नहीं, यह ऐसा ही था। “सकारात्मक ऊर्जा” केवल सुनने में अच्छा लगने वाला शब्द है, इसमें कुछ भी व्यावहारिक नहीं है। यह एक खोखला सिद्धांत है जो पूरी तरह से अप्रभावी है।

मुझे बताओ कौन बदतर है : अतीत के लोग या आज के लोग? (आज के लोग बदतर हैं।) तुम लोगों ने यह अंदाजा कैसे लगाया? तुम लोगों का दृष्टिकोण यह है कि आजकल लोग कठोर दिल वाले हैं, और उनमें पारिवारिक प्रेम और वास्तविक मित्रता नहीं होती, कि किसी को भी वफादारी या अंतरात्मा की परवाह नहीं है, और लोग हमेशा कहते रहते हैं, “अंतरात्मा का मूल्य कितना है?” “अंतरात्मा का क्या है? सबसे पहले है पैसा कमाना!” तुम सोचते हो कि लोगों ने अपनी अंतरात्मा खो दी है और अब लोगों के लिए सामान बेचते समय दूसरों के साथ रकम में धोखाधड़ी करना और गंदी कमाई करना सामान्य हो गया है और जिसे भी वे ठग सकते और धोखा दे सकते हैं, उसे ठगते और धोखा देते हैं। इसके विपरीत तुम्हें लगता है कि पुराने जमाने में कुशल व्यापारियों के सामान बेचने के सिद्धांत होते थे, कि वे अपना सामान निश्चित कीमतों पर बेचते थे, अपने सभी ग्राहकों, युवा हों या बूढ़े, सभी के साथ ईमानदार बने रहते थे और किसी को धोखा नहीं देते थे। इसलिए तुम सोचते हो कि अतीत में लोग अब की तुलना में बेहतर थे। तो यह “बेहतर” किसके बारे में बता रहा है? यह वास्तव में अंतरात्मा और उनके जिए जाने वाले व्यवहार पर आधारित है। यदि तुम इसके आधार पर लोगों को आँकते हो, तो अतीत में लोग अब की तुलना में बेहतर थे। अतीत में लोग अधिक सरल और निष्कपट थे, और उनमें अंतरात्मा और शर्म की भावना होती थी। उनके स्व-आचरण की एक आधार रेखा थी और वे कम से कम ऐसा कुछ भी नहीं करते थे जिसमें अंतरात्मा ही न हो, न ही वे ऐसा कुछ करते थे जिससे लोग उनकी पीठ पीछे उनकी आलोचना करें या जिससे उनकी बदनामी हो। आज लोग उन चीजों की परवाह नहीं करते; उन्हें शर्म का एहसास नहीं होता। वे केवल पैसा और अपना नाम कमाना चाहते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि आजकल के लोग पूर्णतः बुरे हैं। तो आज के पूर्णतः बुरे लोग इस तरह से विकसित कैसे हुए? क्या वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी, प्राचीन काल से लेकर आज तक बढ़ते नहीं गए हैं? आज के लोग प्राचीन काल के लोगों से भिन्न नहीं हैं। उनका डीएनए नहीं बदला है और न ही उनकी शक्ल बदली है। बात सिर्फ इतनी है कि पुराने जमाने के मुकाबले रहने की स्थितियाँ बेहतर हैं। आज लोग अधिक जटिल चीजें सीखते हैं और अधिक क्षेत्रों में कुशल होते हैं, उनका ज्ञान प्राचीन लोगों की तुलना में अधिक है, उनके पास प्राचीन लोगों की तुलना में अधिक कौशल हैं, और उनके पास अहंकार की पूँजी है। अगर हम इसे इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो क्या यह कहना सही है कि आज के लोग अतीत के लोगों से भी बदतर हैं? हम कैसे मूल्यांकन करें कि यह कथन सटीक है और सत्य के अनुरूप है? आओ इसे इस तरह विस्तार से समझाएँ : यदि तुम ऐतिहासिक नाटक देखते हो, चाहे वे शाही दरबार से संबंधित हों, जांगहू[क] के बारे में हों या आम लोगों के जीवन के बारे में हों, उनके कथानक संघर्ष से भरे होंगे। यही मानवता का सच्चा पक्ष है। सत्ता और अपनी लालसाओं के लिए मनुष्य एक दूसरे से जीवन-मृत्यु का संघर्ष करते हैं। इसमें मानव स्वभाव बहुत गहनता और सजीवता से उजागर होता है और यह बिल्कुल शैतान जैसा होता है। तो क्या यह सच है कि वे सभी चीजें जिन्हें तुम अभी घटित होते देख रहे हो, वे केवल एक ही समयावधि में घटित हुई हैं? क्या पृथ्वी पर कुछ स्थानों पर लोग इतनी भयंकर लड़ाई इसलिए करते हैं कि वहाँ फेंगशुई खराब है, और क्योंकि वहाँ गंदे राक्षसों के झुंड रहते हैं? या फिर ऐसा है कि उन लोगों के गुणसूत्र खराब हैं, जो उन्हें प्रकृति से आक्रामक बनाते हैं? (दोनों में से कोई बात नहीं है।) फिर ये संघर्ष कैसे उत्पन्न होते हैं? वे सभी सत्ता, रुतबे और स्वार्थ के लिए लड़े जाते हैं। इसमें सामाजिक स्तर से कोई फर्क नहीं पड़ता, ऊँचे से लेकर निचले स्तर तक लोग हमेशा लड़ते और प्रतिस्पर्धा करते रहे हैं, तब तक लड़ते रहे हैं जब तक वे पस्त नहीं हो जाते और अपनी मृत्यु के कगार तक प्रतिस्पर्धा करते रहते हैं। इन परिघटनाओं से हम क्या देख सकते हैं? पूरे मानव इतिहास के संपूर्ण विकास के इन सूक्ष्म ब्रह्मांडों और ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य से निर्णय करें, तो मानवजाति की प्रकृति कभी नहीं बदली है। जब तक लोग शैतान की शक्ति के अधीन रहते हैं, तब तक प्रत्येक युग और प्रत्येक चरण में जीवन की सामग्री वही रहती है, जैसे उसका सार भी वही रहता है। ऐसा इसलिए है कि मानव संघर्ष के लक्ष्य, कारण और उसकी जड़ें हमेशा एक जैसी ही रहती हैं—वे सभी संघर्ष सत्ता, हैसियत और अंतिम रूप से अपने स्वार्थ के लिए किए जाते हैं। संघर्ष के सभी साधन एक ही स्रोत से निकलते हैं—शैतान की प्रकृति और स्वभाव से। मनुष्य के संघर्ष के साधन और तरीके अपरिवर्तित क्यों रहे हैं? यह पूरी तरह से मानव की प्रकृति के कारण है। लोग अपने दिमाग पर जोर देते हैं और एक दूसरे को लड़कर नुकसान पहुँचाने, छल करने, धोखा देने, और कपट करने के साधन तलाशते रहते हैं—वे सभी प्रकार के धूर्त तरीकों का उपयोग करते हैं। चाहे प्रमुख राजनीतिक संघर्ष हों या साधारण परिवारों के बीच के संघर्ष, वे हमेशा अपने हितों के लिए लड़ते रहते हैं। यह मानवता का असली चेहरा है, मानवजाति का असली रंग है। जो मानवजाति आज तक विकसित हुई है वह अभी भी वही मानवजाति है और वह अभी भी वही शैतान है जो मानवजाति को भ्रष्ट करता है। यद्यपि बाहरी वातावरण धीरे-धीरे बदल रहा है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि मानव प्रकृति बदल गई है। हालाँकि मानव के संघर्षों के तरीके और साधन थोड़े बदले हुए हो सकते हैं, पर मनुष्य की लड़ने की प्रकृति और इन संघर्षों की शुरुआत का बिंदु बिल्कुल नहीं बदला है। मनुष्य की अब भी एक प्रकृति होती है, और अभी भी इन संघर्षों का एक लक्ष्य और एक ही स्रोत होता है—ये चीजें बिल्कुल भी नहीं बदली हैं। तुम लोगों ने कहा था कि अतीत में लोग बेहतर थे। वे किस प्रकार बेहतर थे? वे पारंपरिक संस्कृति से थोड़ा सीमित थे, इसलिए वे कुछ अच्छी चीजें करने में कमोबेश सक्षम थे। अब मानवजाति आज के दौर तक विकसित हो चुकी है, और जीवन की गुणवत्ता चाहे जितनी ऊँची हो, लोग चाहे जितना ज्ञान और शिक्षा प्राप्त कर लें, या उनके अनुभव का विस्तार हो जाए, परंतु मानव प्रकृति नहीं बदली है। इसके अलावा समाज के विकास के साथ, मानव प्रकृति के प्रकाशन पहले से ज्यादा दुष्ट, खुल्लम-खुल्ला और निर्लज्ज होते जा रहे हैं। चाहे परमेश्वर जितने भी वचन बोले या वह कितने भी सत्य व्यक्त करे, लोग उसे अनदेखा करते हैं। लोग सत्य को बिल्कुल प्रेम नहीं करते, इसके बजाय वे सत्य से और भी अधिक विमुख हो गए हैं और उसके प्रति पहले से भी अधिक घृणा महसूस करते हैं। क्या अब भी समाज में अच्छे काम करने वाले लोग बचे हैं? (हाँ, लेकिन पहले से कम हैं।) तो क्या तुम कह सकते हो कि ये लोग अच्छे हैं, और कि वे बुरे नहीं बने हैं? (नहीं।) निश्चित रूप से वे किसी निर्वात में नहीं रह रहे हैं? वे किस तरह के अच्छे काम करते हैं? वे केवल अच्छा व्यवहार करते हैं और अच्छे इरादे रखते हैं। यदि तुम उनसे परमेश्वर में विश्वास के मामलों में बात करो, जैसे कि अच्छा इंसान बनने के लिए परमेश्वर में विश्वास करना और परमेश्वर की आराधना करना, तो उनकी प्रतिक्रियाओं पर ध्यान देना। यदि उन्हें सुनाई पड़े कि परमेश्वर में विश्वास करने पर सरकार लोगों को सताएगी, तो वे तुम्हारे साथ शत्रुवत व्यवहार करेंगे और तुम्हारा मजाक उड़ाएँगे। यदि तुम्हारा पीछा किया जा रहा है और तुम्हें सताया जा रहा है, और तुम कुछ देर के लिए उनके घरों में छिपने की कोशिश करो, तो वे तुम्हारी सूचना दे देंगे और तुम्हें सरकार को सौंप देंगे। वे किसी कार दुर्घटना के शिकार व्यक्ति की जान बचाने के लिए उसे अस्पताल ले जाएँगे, पर वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले एक भले व्यक्ति को बुरे राक्षसों के हाथों भी सौंप देंगे, ताकि वे उसके साथ दुर्व्यवहार करें या यहाँ तक कि उसे उसके मरने तक सताएँ। तुम इसकी व्याख्या कैसे करोगे? कौन-सा व्यवहार उनकी प्रकृति को दर्शाता है? बाद वाला काम उनकी प्रकृति को दर्शाता है। वे दूसरे लोगों को बचाते हैं, और वे दूसरे लोगों को घातक स्थितियों में भी डालते हैं। ऐसे लोग इंसान हैं या राक्षस? अगर कोई व्यक्ति एक दिन भी अपनी शैतानी प्रकृति को न छोड़े, तो वह बुरा काम करने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने में सक्षम हो जाएगा। जब तक कोई परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है, वह अच्छा इंसान नहीं है। क्या यह कथन सही है? (हाँ।) इसके बारे में क्या सही है? (वे जिसका अभ्यास करते हैं वह सत्य नहीं है। चाहे उनके बाहरी कार्य और आचरण कितने भी अच्छे हों, उनकी प्रकृति अभी भी परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होती है।) उनकी प्रकृति परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है। यह कथन सत्य है। हम इस कथन की व्याख्या कैसे करते हैं? हम ऐसा क्यों कहते हैं कि जो व्यक्ति परमेश्वर के प्रति शत्रुता रखता है, वह अच्छा व्यक्ति नहीं है? (परमेश्वर सभी सकारात्मक चीजों का प्रतीक है। यदि कोई परमेश्वर के प्रति शत्रु भाव रख सकता है, तो उसके अंदर जो कुछ है वह सब नकारात्मक है।) सिद्धांत रूप में यह ऐसा ही है, और वह कथन सत्य है। कोई व्यक्ति बाहर से चाहे जितना अच्छा या धर्मपरायण दिखे, उसे दूसरों की मदद करने में चाहे जितनी खुशी मिलती हो या वह दूसरों के प्रति कितना ही दयालु हो, अगर वह सकारात्मक बातें सुनकर विमुखता और विकर्षण महसूस करता है और अगर वह सत्य को सुनने पर स्वीकार नहीं कर पाता और उससे विमुख महसूस करता है, तो वह किस तरह का व्यक्ति है? वह अच्छा व्यक्ति नहीं है। जो लोग सकारात्मक चीजों और सत्य के शत्रु हैं, वे अच्छे लोग नहीं हैं। सामान्य तौर पर तुम ऐसा कह सकते हो। निःसंदेह, इसके भीतर बहुत विस्तार की बातें हैं। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ जिससे तुम समझ जाओगे कि यह कथन सत्य क्यों है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने परिवारों को त्याग देते हैं क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। वे इस वजह से प्रसिद्ध हो जाते हैं और सरकार अक्सर उनके घर की तलाशी लेती है, उनके माता-पिता को परेशान करती है और यहाँ तक कि उनके माता-पिता को उन्हें सौंपने के लिए धमकाती भी है। उनके सभी पड़ोसी उनके बारे में बात करते हुए कहते हैं, “इस आदमी में जरा भी अंतरात्मा नहीं है। वह अपने बुजुर्ग माता-पिता की परवाह नहीं करता। न केवल वह संतानोचित आचरण नहीं करता, बल्कि वह अपने माता-पिता के लिए बहुत परेशानी का कारण भी है। वह माता-पिता के प्रति अनुचित आचरण करने वाली संतान है!” क्या इनमें से एक भी शब्द सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) लेकिन क्या ये सभी शब्द गैर-विश्वासियों की नजर में सही नहीं माने जाते? गैर-विश्वासियों के बीच उन्हें लगता है कि इसे देखने का यह सबसे वैध और तर्कसंगत तरीका है, यह मानवीय नैतिकता के अनुरूप है और स्व-आचरण के मानकों के अनुरूप है। इन मानकों में चाहे कितनी ही चीजें शामिल हों, जैसे माता-पिता के प्रति संतानवत सम्मान कैसे दिखाया जाए, बुढ़ापे में उनकी देखभाल कैसे की जाए और उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था कैसे की जाए, या उनका कितना ऋण चुकाया जाए और बेशक ये मानक सत्य के अनुरूप हों या नहीं, गैर-विश्वासियों की नजर में वे सकारात्मक चीजें होती हैं, वे सकारात्मक ऊर्जा हैं, वे सही चीजें हैं, और लोगों के सभी लोगों के समूहों में उन्हें अनिंद्य माना जाता है। गैर-विश्वासियों में लोगों के लिए जीवन का यही मानक है और तुम्हें उनके दिलों में मानक स्तर का एक अच्छा इंसान बनने के लिए ये चीजें करनी होंगी। तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास करने तथा सत्य को समझने के पहले क्या तुम्हारा भी दृढ़ विश्वास नहीं था कि इस तरह का आचरण करने का मतलब ही अच्छा इंसान होना है? (हाँ।) इसके अलावा तुम स्वयं अपना मूल्यांकन करने और स्वयं को सीमित करने के लिए भी इन चीजों का उपयोग करते थे और तुम खुद को इसी प्रकार का व्यक्ति बनाना चाहते थे। यदि तुम अच्छा इंसान बनना चाहते थे तो तुमने निश्चित रूप से इन चीजों को स्व-आचरण के मानकों में शामिल किया होगा : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित आचरण कैसे करें, उनकी चिंताएँ कम कैसे करें, उन्हें सम्मान और श्रेय कैसे दिलाएँ, और अपने पूर्वजों को गौरवान्वित कैसे करें। तुम्हारे दिल में स्व-आचरण के यही मानक थे और तुम्हारे स्व-आचरण की दिशा यही थी। हालाँकि जब तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों और उसके उपदेशों को सुना तो तुम्हारा दृष्टिकोण बदलना शुरू हो गया और तुम समझ गए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तुम्हें सब कुछ त्यागना होगा और कि परमेश्वर की अपेक्षा है कि लोग इस तरह का आचरण करें। यह निश्चित करने से पहले कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य है, तुम सोचते थे कि तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए, लेकिन तुम्हें यह भी लगता था कि एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए और तुम्हें अपने अंदर इनके बीच संघर्ष की स्थिति महसूस होती थी। परमेश्वर के वचनों के निरंतर सिंचन और परिपोषण के माध्यम से तुम धीरे-धीरे सत्य को समझने लगे और तब तुम्हें एहसास हुआ कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना पूरी तरह से प्राकृतिक और उचित है। आज तक बहुत-से लोग सत्य को स्वीकार करने और मनुष्य की पारंपरिक धारणाओं और कल्पनाओं से स्व-आचरण के मानकों को पूरी तरह से त्यागने में सक्षम हुए हैं। जब तुम इन चीजों को पूरी तरह से छोड़ देते हो, तो जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम गैर-विश्वासियों की आलोचना और उनकी निंदा से सीमित नहीं रह जाते, और तुम उन्हें आसानी से त्याग सकते हो। तो तुम्हारे हृदय से वे पुरानी पारंपरिक धारणाएँ क्यों गायब हो गईं? क्या ऐसा है कि तुम बुरे हो गए हो? क्या तुम्हारा हृदय कठोर हो गया है और तुम्हारी अंतरात्मा गुम हो गई है? (नहीं।) वास्तव में तुम्हारी अंतरात्मा नहीं बदली है, तुम अब भी वही व्यक्ति हो और तुम्हारा व्यक्तित्व, प्राथमिकताएँ, अंतरात्मा और नैतिकता के मानक नहीं बदले हैं। तो जब गैर-विश्वासी तुम्हारी आलोचना करते हैं और निंदा करते हैं, तो तुम दुःखी या पीड़ित महसूस क्यों नहीं करते और इसके बजाय अपने हृदय में शांति और आनंद क्यों महसूस करते हो? यह बिल्कुल रूपांतरण है, तुम ऐसे कैसे बन गए? (परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और कुछ सत्यों को समझना शुरू करके मैंने मूल्यांकन के सही मानक हासिल कर लिए हैं, और यह अंतर करने में सक्षम हो गई हूँ कि उनके शब्द सिर्फ भ्रांतियाँ हैं।) गैर-विश्वासी हमारे बारे में निराधार अफवाहें गढ़ते हुए कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद वे अपने परिवारों की देखभाल नहीं करते, उन्हें अपने परिवारों से कोई प्यार नहीं है और वे विशेष रूप से उदासीन हैं—वे ठंडे खून वाले जानवरों जैसे बन जाते हैं।” बाहर से ऐसा लग सकता है लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। यहाँ एक आवश्यक समस्या यह है कि दृष्टिहीन लोगों के पास देखने का कोई तरीका नहीं होता। क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है लोग जब परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं उसके बाद सत्य लोगों को दयाहीन हृदय वाला बना देता है? (नहीं।) तो, वास्तव में क्या हो रहा है? (विभिन्न चीजों के बारे में विश्वासियों के दृष्टिकोण बदल गए हैं; वे सत्य को समझ गए हैं और उनमें नीर-क्षीर विवेक आ गया है।) यह परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के माध्यम से प्राप्त हुआ परिणाम है। यह परिणाम कैसे प्राप्त होता है? चीजों पर तुम्हारा दृष्टिकोण किस बात से बदल गया? यह बदलाव कब शुरू हुआ? यह परमेश्वर के वचन हैं जो लोगों का नजरिया बदलते हैं, जीवन और विभिन्न मामलों पर उनके सभी नजरिए बदलते हैं, और उन्हें गैर-विश्वासियों से अलग करते हैं।

अतीत में, लोग हमेशा अपनी-अपनी अंतश्चेतनाओं के अनुसार कार्य करते थे और सभी को मापने के लिए उनका उपयोग करते थे। लोगों को हमेशा जमीर का इम्तिहान पास करना पड़ता था, उन्हें हमेशा लगता था कि गपशप डराने वाली चीज है, और खुद पर हँसे जाने या बदनाम होने अथवा “बिना अंतश्चेतना वाला और बुरा व्यक्ति” कहे जाने से डरते थे। इसलिए, उन्हें परिवेश से निपटने के लिए अनिच्छापूर्वक कुछ चीजें कहनी और करनी पड़ती थीं। अब इन चीजों का मापन कैसे किया जाना चाहिए? (सत्य सिद्धांतों से।) उस समय चीजें कैसी थीं, जब लोगों का जीवन गैर-विश्वासियों की धारणाओं और भ्रांतियों से बँधा हुआ था? उदाहरण के तौर पर, जब से तुम छोटे थे, तुम्हारे माता-पिता तुम्हें इस तरह के शब्दों से समझाते रहते थे : “बड़े होकर तुम्हें हमें गौरवान्वित करना चाहिए; तुम्हें हमारे परिवार का नाम रोशन करना चाहिए!” ये शब्द तुम्हारे लिए क्या रहे हैं? प्रोत्साहन या अंकुश? सकारात्मक प्रभाव या एक प्रकार का नकारात्मक नियंत्रण? तथ्य यह है कि ये एक प्रकार का नियंत्रण हैं। तुम्हारे माता-पिता ऐसे किसी कथन या सिद्धांत के आधार पर, जिसे लोग सही और अच्छा मानते हैं, तुम्हारे लिए एक लक्ष्य निर्धारित कर देते हैं, जिससे तुम उस लक्ष्य की पूर्ति में अपना जीवन व्यतीत करते हो और अंततः अपनी स्वतंत्रता खो देते हो। आखिर तुम अपनी स्वतंत्रता खोकर उसके नियंत्रण में क्यों आ जाते हो? क्योंकि लोग सोचते हैं कि अपने परिवार का नाम रोशन करना एक अच्छी चीज है, जिसे किया जाना चाहिए। अगर तुम्हारे विचार वैसे नहीं हैं या तुम वे चीजें करने का प्रयास नहीं करते जो तुम्हारे परिवार का नाम रोशन करती हैं, तो तुम्हें धरती का बोझ, निकम्मा, नाकारा समझा जाता है, और लोग तुम्हें हेय दृष्टि से देखेंगे। सफल होने के लिए तुम्हें कड़ी मेहनत से अध्ययन करना चाहिए, और अधिक कौशल प्राप्त करने चाहिए और अपने परिवार का नाम रोशन करना चाहिए। इस तरह, लोग भविष्य में तुम्हें धौंस नहीं देंगे। क्या इस लक्ष्य के लिए तुम जो कुछ भी करते हो, वे वास्तव में बेड़ियाँ नहीं हैं जो तुम्हें बाँधती हैं? (हैं।) चूँकि सफलता के पीछे दौड़ना और परिवार का नाम रोशन करना तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षा है, और चूँकि वे तुम्हारा भला चाहते हैं ताकि तुम एक अच्छा जीवन जी सको और अपने परिवार को गौरवान्वित कर सको, इसलिए तुम्हारा ऐसी जीवन-शैली पाने का प्रयास करना एकदम स्वाभाविक है। लेकिन वास्तव में, ये चीजें एक तरह की परेशानियाँ और बेड़ियाँ हैं। जब लोग सत्य नहीं समझते, तो वे सोचते हैं कि ये चीजें सकारात्मक हैं, सत्य हैं, सही मार्ग हैं और इसलिए वे उन्हें बिना प्रश्न किए ले लेते हैं और उनका पालन या अनुसरण करते हैं और जब वे शब्द और अपेक्षाएँ उनके माता-पिता की हों, तो वे उनका पूरी तरह से पालन करते हैं। अगर तुम इन शब्दों के अनुसार जीते हो, कड़ी मेहनत करते हो और अपनी युवावस्था और अपना पूरा जीवन उन्हें समर्पित कर देते हो, और अंत में शीर्ष पर पहुँच जाते हो, एक अच्छा जीवन जीते हो, और अपने परिवार को गौरवान्वित करते हो, तो तुम अन्य लोगों के लिए प्रतिभाशाली हो सकते हो, लेकिन अंदर से तुम धीरे-धीरे खोखले होते जाते हो। तुम नहीं जानते कि जीवन का क्या अर्थ है, या भविष्य क्या मंजिल सँजोए है, या लोगों को जीवन में किस तरह का मार्ग अपनाना चाहिए। तुमने जीवन के उन रहस्यों के बारे में कुछ भी समझा या प्राप्त नहीं किया होता जिनके उत्तर तुम पाना, जानना और समझना चाहते हो। क्या तुम अपने माता-पिता के अच्छे इरादों से प्रभावी रूप से बरबाद नहीं हो गए हो? क्या तुम्हारी जवानी और तुम्हारा पूरा जीवन तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाओं से बरबाद नहीं हो गए हैं, जो उनके शब्दों में “तुम्हारे भले के लिए” है? (हो गए हैं।) तो, क्या तुम्हारे माता-पिता का “तुम्हारे भले के लिए” अपेक्षाएँ करना सही है या गलत? हो सकता है, तुम्हारे माता-पिता वास्तव में सोचते हों कि वे तुम्हारे भले के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन क्या वे ऐसे लोग हैं जो सत्य समझते हैं? क्या उनके पास सत्य है? (नहीं है।) बहुत-से लोग अपना पूरा जीवन अपने माता-पिता के इन शब्दों से चिपके हुए बिता देते हैं, “तुम्हें हमें गौरवान्वित करना चाहिए, तुम्हें परिवार का नाम रोशन करना चाहिए”—शब्द जो उन्हें प्रेरित और जीवन भर प्रभावित करते हैं। जब माता-पिता कहते हैं, “यह तुम्हारे भले के लिए है,” तो यह व्यक्ति के जीवन के पीछे का आवेग बन जाता है, जो काम करने के लिए एक दिशा और लक्ष्य प्रदान करता है। नतीजतन, उस व्यक्ति का जीवन कितना भी मोहक क्यों न हो, कितना भी गरिमापूर्ण और सफल क्यों न हो, वह वास्तव में बरबाद हो जाता है। क्या ऐसा नहीं है? (है।) क्या इसका मतलब यह है कि अगर व्यक्ति अपने माता-पिता की अपेक्षाओं के अनुसार नहीं जीता, तो वह बरबाद नहीं होता? नहीं; उसका भी अपना एक लक्ष्य होता है। वह कौन-सा लक्ष्य होता है? वह अभी भी वही होता है, अर्थात् “एक अच्छा जीवन जीना और अपने माता-पिता को गौरवान्वित करना,” इसलिए नहीं कि उसके माता-पिता ने उसे ऐसा करने के लिए कहा है, बल्कि इसलिए कि उसने यह लक्ष्य कहीं और से स्वीकार लिया है। वह अभी भी इन शब्दों के अनुसार जीना चाहता है और अपने परिवार को गौरवान्वित करना चाहता है, और शीर्ष पर पहुँचना चाहता है, और एक सम्मानित, प्रतिष्ठित व्यक्ति बनना चाहता है। उसका लक्ष्य नहीं बदला है; वह अभी भी ये चीजें हासिल करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देता है, और पूरा जीवन इन चीजों को हासिल करने के प्रयास में लगा देता है। तो, जब लोग सत्य नहीं समझते और कई तथाकथित सही सिद्धांतों, सही कथनों और समाज में प्रचलित सही विचारों को स्वीकार लेते हैं, तो वे उन्ही सही चीजों को अपने जीवन के प्रयासों की दिशा, नींव और प्रेरणा में बदल देते हैं। अंत में, लोग इन लक्ष्यों की खातिर पूरी तरह से और जमकर जीते हैं, जीवन भर तब तक संघर्ष करते हैं जब तक कि मर नहीं जाते, कुछ लोग तो अब भी छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते। कितना दयनीय जीवन जीते हैं लोग! लेकिन जब तुम सत्य समझ जाते हो, तो क्या तुम धीरे-धीरे ये तथाकथित सही चीजें, सही शिक्षाएँ और सही कथन, और साथ ही खुद से अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ भी पीछे नहीं छोड़ देते? जब तुम धीरे-धीरे ये तथाकथित सही चीजें पीछे छोड़ देते हो, और वह मानक जिससे तुम चीजें मापते हो, अब परंपरागत संस्कृति के कथनों पर आधारित नहीं रहता, तो क्या तुम अब उन कथनों से मुक्त नहीं हो जाते? और अगर तुम उन चीजों से बँधे नहीं रहते, तो क्या तुम मुक्त होकर जीते हो? हो सकता है, तब तुम पूरी तरह से मुक्त न हुए हो, लेकिन कम से कम बेड़ियाँ ढीली तो हो ही गई होती हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी लोगों की बहुत-सी धारणाएँ, कल्पनाएँ, इरादे और अशुद्धियाँ तथा सांसारिक आचरण के फलसफे, धोखाधड़ी वाले विचार, भ्रष्ट प्रकृति आदि अस्तित्व में बने रहते हैं। जब ये चीजें हल हो जाती हैं और लोग पूरी तरह से सत्य के साथ जीने में सक्षम हो जाते हैं, तभी वे परमेश्वर के सामने जी सकेंगे और उनकी वास्तव में पूर्ण मुक्ति तथा स्वतंत्रता होगी।

फुटनोट :

क. जांगहू चीनी शब्द है जो प्राचीन चीन की युद्ध कलाओं के पेशेवरों और अपराधियों की विलक्षण दुनिया के बारे में बताता है।

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