सत्य वास्तविकता क्या है? (भाग एक)

ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन कुछ ही हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। तुम कैसे यह भेद पहचान सकते हो कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं? तुम कैसे आकलन कर सकते हो कि कोई सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है या नहीं? मान लो, कोई व्यक्ति है, जो सात-आठ वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता है। वह कई शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकता है, उसके मुँह से आध्यात्मिक शब्दावली झरती हो, वह अक्सर दूसरों की मदद कर सकता हो, वह बहुत उत्साही लगता है, वह चीजों को त्यागने में सक्षम है, और वह अपने कर्तव्य पूरे जोश से निभाता है। फिर भी, कोई उसे सत्य का बहुत अभ्यास करते नहीं देख पाता, न ही वह जीवन प्रवेश के वास्तविक अनुभवों पर चर्चा करने में सक्षम होता, और उसके जीवन स्वभाव में बदलाव तो और भी कम दिखता है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऐसा व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता। अगर कोई वास्तव में सत्य से प्रेम करता है, तो कुछ समय तक चीजों का अनुभव करने के बाद, वह अपनी समझ के बारे में बात करने में सक्षम होगा, और कम से कम कुछ चीजों में सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होगा; उसे जीवन प्रवेश का कुछ अनुभव होगा, और कम से कम उसके व्यवहार में कुछ बदलाव दिखेंगे। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, उनकी आध्यात्मिक अवस्था में लगातार सुधार होता है, धीरे-धीरे परमेश्वर में उनका विश्वास बढ़ता है, वे जो भी जाहिर करते हैं उन्हें उसकी और अपने भ्रष्ट स्वभावों की कुछ समझ होती है, और उन्हें इस बात का व्यक्तिगत अनुभव और वास्तविक अंतर्दृष्टि पैदा हो जाती है कि परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए कैसे कार्य करता है। ये सब चीजें उनमें धीरे-धीरे उन्नत हो जाती हैं। अगर तुम किसी व्यक्ति में ये अभिव्यक्तियाँ देखते हो, तो तुम निश्चित रूप से जान सकते हो कि वह सत्य का अनुसरण करने वाला इंसान है। लोग जब पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करते हैं तो वे काफी उत्साहित होते हैं, लेकिन वे परमेश्वर में विश्वास के बारे में कुछ भी नहीं जानते। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ है अच्छा इंसान बनना और सही रास्ते पर चलना। बाद में परमेश्वर के वचनों को खा और पी कर और धर्मोपदेशों तथा संगति को सुनकर वे तमाम मामलों का भेद पहचानने में सक्षम हो जाते हैं। उन्हें पता चलता है कि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं और उनके समाधान के लिए उन्हें सत्य की तलाश करनी चाहिए, और कि उन्हें परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करना चाहिए, और वे समझ जाते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है। धीरे-धीरे वे परमेश्वर के कार्य और मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के इरादों को थोड़ा-थोड़ा समझने लगते हैं। यह समझ थोड़ी-थोड़ी एकत्रित होती जाती है, और वे धीरे-धीरे परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते पर चल पड़ते हैं। सत्य वास्तविकताओं के बारे में उनकी समझ और अनुभव धीरे-धीरे उन्नत होते जाते हैं, और वे शाब्दिक व्याख्याओं या शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर नहीं अटकते। यदि किसी व्यक्ति ने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है और वह शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना जारी रखता है, तथा परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में अक्सर कुछ आकर्षक बातें कहता है, और ऐसा लगता है कि उसकी आस्था अच्छी तरह चल रही है, लेकिन वह जीवन अनुभव के बारे में या अपने आप को जानने के बारे में बात नहीं कर सकता, और छद्म-विश्वासियों और बुरे लोगों का भेद पहचानने में असमर्थ होने जैसी समस्याएँ उसमें मौजूद हैं, तो इसका मतलब है कि वह परमेश्वर के कार्य को नहीं जानता और यह निश्चित किया जा सकता है कि उसने परमेश्वर में विश्वास के अपने पिछले कुछ वर्षों के दौरान सत्य का अनुसरण नहीं किया है। यह बहुत स्पष्ट संकेत है।

यह जानने के लिए कि किसी अगुआ या कार्यकर्ता के पास सत्य वास्तविकता है या नहीं, पहले यह देखो कि क्या उसकी संगति में सच्ची गवाही और नई रोशनी होती है। जब तुमने कुछ लोगों को कुछ वर्षों से नहीं देखा होता, तो शुरू-शुरू में उनकी संगति नई और ताजा लग सकती है क्योंकि वे धर्मोपदेश सुनने के बाद एक नई रोशनी के साथ बोल सकते हैं। हालाँकि जब तुम उनके साथ दो-तीन दिन बिता लेते हो, तो वे फिर से अपने अतीत के छोटे-छोटे अनुभवों और गवाहियों के बारे में बात करना शुरू कर देते हैं कि कैसे परमेश्वर ने उन्हें बचाया और कैसे उसने उन पर अनुग्रह किया और उन्हें आशीष दिए। एक सप्ताह से भी कम समय में वे उस सतही अनुभवजन्य ज्ञान को दोहराने लगते हैं जिनके बारे में वे पहले बात कर चुके होते हैं। क्या यह प्रगति है? तब एक नजर में तुम देख सकते हो कि यह प्रगति नहीं है। कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद वे कई शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से लैस होते हैं और वे कुछ ऐसी बातें कह सकते हैं जो सही हैं, लेकिन जब उनके साथ चीजें होती हैं, तो वे तब भी भ्रमित हो जाते हैं और उन स्थितियों को सँभाल नहीं पाते। वे सत्य सिद्धांतों को नहीं ढूँढ़ पाते, न ही वे लोगों का भेद पहचान पाते हैं। क्या यही प्रगति है? (नहीं।) यह प्रगति नहीं है। हालाँकि कई वर्षों तक उन्होंने अपने कर्तव्य निभाए होते हैं, फिर भी यदि तुम उनसे पूछो कि क्या वे परमेश्वर के प्रति निष्ठा प्राप्त कर चुके हैं, तो वे इसे स्वयं ही नहीं समझ पाते। हर हाल में वे हर सभा में समय पर पहुँचते हैं और सामान्यतः अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते प्रतीत होते हैं, लेकिन अगर तुम उनसे पूछो कि क्या उनमें कोई वास्तविक परिवर्तन आया है, तो वे स्पष्ट उत्तर नहीं दे पाते। यह एक समस्या है। इससे पता चलता है कि वे सत्य को नहीं समझते। यदि वे सत्य को समझ पाते, तो वे इन समस्याओं को स्पष्ट रूप से देख पाते। कुछ लोगों को अपने कर्तव्य में कुछ परिणाम मिले होते हैं, लेकिन यदि तुम उनसे पूछो कि वे अपने कर्तव्यों का पालन क्यों करते हैं, तो वे केवल इतना कह पाते हैं कि सृजित प्राणियों को कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, लेकिन वे इसके विवरणों के बारे में स्पष्ट नहीं होते। यदि तुम उनसे पूछो कि क्या उनके पास अपने कर्तव्य-पालन में अभ्यास के सिद्धांत हैं, तो वे इस बारे में ठीक-ठीक आकलन नहीं कर सकते। ऐसे में क्या तुम कहोगे कि वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन मानक स्तर तक कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) यह प्रगति नहीं है। क्या प्रगति न करना परेशान करने वाली बात नहीं है? यदि तुम उनसे पूछो कि कर्तव्यों का पालन करते समय उनकी काट-छाँट को वे कैसे ग्रहण करते हैं तो वे कहेंगे कि वे सुनते हैं, आज्ञा पालन करते हैं, और विरोध नहीं करते। सालों पहले उनके पास यही सिद्धांत था, और उनके पास अब भी यही सिद्धांत है, यह नहीं बदला। जो भी हो, वे बस वही करते हैं, जो उन्हें बताया जाए। यदि तुम उनसे पूछो कि क्या अपने साथ होने वाली काट-छाँट से उन्हें कुछ समझ आई है, क्या उन्हें अपनी विद्रोही स्थिति और भ्रष्ट प्रकृति का पता चला है, या क्या उनका आत्म-ज्ञान अधिक गहरा हो गया है, तो वे उस बारे में कुछ नहीं जानते-समझते। हर कीमत पर वे एक नियम पर कायम रहते हैं : काट-छाँट का सामना करते समय उन्हें आज्ञा पालन करना चाहिए, अपनी मानसिकता को समायोजित करना चाहिए, विरोध नहीं करना चाहिए या सफाई नहीं देनी चाहिए, और सब कुछ सहन करते हुए चुपचाप आज्ञा माननी चाहिए। यह उनका दृष्टिकोण पहले भी था और अब तो और भी अधिक है। क्या यह सत्य को पा लेने की अभिव्यक्ति है? (नहीं।) परमेश्वर में विश्वास करने की प्रक्रिया में इन लोगों ने सत्य के किसी भी पहलू की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है और उन्होंने सत्य के किसी भी पहलू के सिद्धांतों पर अच्छी तरह से पकड़ नहीं बनाई है। भले ही उनसे कहा गया हो कि “जब तुम्हारे साथ चीजें हों, तो तुम्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए, सत्य सिद्धांतों पर अच्छी तरह पकड़ बनानी चाहिए और इस दायरे से बाहर नहीं जाना चाहिए,” फिर भी वे नहीं जानते कि चीजें होने पर सत्य सिद्धांतों की तलाश कैसे करें, वे बहुत सावधानी नहीं बरतते और अपने रास्ते पर भ्रमित हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि वे व्यापक दिशा को लेकर अडिग रहते हैं, कि वे आज्ञाकारी हैं और बात सुनते हैं, कि जो भी काम उनके हाथ में हो उसे वे लापरवाही से नहीं बल्कि अच्छी तरह से करते हैं और कि वे कलीसिया के हितों की रक्षा कर सकते हैं, लेकिन क्या वे सत्य के हर पहलू के विवरणों को समझते हैं? क्या वे उन्हें अभ्यास में ला सकते हैं? यह इस बात पर निर्भर करता है कि लोगों के पास सत्य के प्रत्येक पक्ष का सच्चा ज्ञान और अनुभव है या नहीं। वे सत्य के विभिन्न पक्षों के बीच के संबंध को नहीं जानते, न ही यह जानते हैं कि कुछ घटित होने की स्थिति में सत्य के कौन से पहलू और कौन सी स्थितियाँ विशेष रूप से शामिल होती हैं, या किस स्वभाव के कारण वह स्थिति उत्पन्न हुई है। दो लोग यदि एक ही बात कहते हों, तो वे उन दो लोगों की प्रकृति के बीच अंतर नहीं जानते, न ही यह जानते हैं कि उनके साथ कैसा व्यवहार करें। क्या यह सत्य को समझना है? यह सत्य को समझना नहीं है। यदि तुमने तीन से पाँच साल तक परमेश्वर में विश्वास किया है लेकिन इन सत्यों के व्यावहारिक पक्षों को नहीं जानते और यदि तुम आठ या दस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आ रहे हो और फिर भी इस बात को नहीं जानते, तो तुम्हें सत्य प्राप्त नहीं हुआ है। तुम लोगों में अब क्या कमी है? ज्यादातर लोग परमेश्वर में ऐसे विश्वास करते हैं जैसे कि वे किसी युद्ध के मोर्चे पर डटे हों और सोचते हैं कि यदि वे बिल्कुल अंत तक “परमेश्वर में विश्वास” वाक्यांश पर कायम रहे, तो वे सफल हो जाएँगे। हालाँकि वे सत्य को खोजने या उसे स्वीकार करने की पहल नहीं करते; वे अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने, अपनी गवाही पर दृढ़ रहने और दुश्मन शैतान को हराने में विफल रहते हैं; और उन्हें सत्य एवं जीवन नहीं मिला होता। यह कितनी गंभीर गलती है! कितनी दुःखद बात है कि बिना किसी जीवन अनुभव के कोई कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करता आया हो। जब लोग ऐसी स्थिति में पड़ते हैं, तो वे केवल ऊपरी तौर पर हर दिन व्यस्त रहते हैं, कुछ नियमों का पालन करते हैं, इस दायरे में प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं करते, और जो काम उनके हाथ में हो उसे पूरा करते हैं। मनुष्य की दृष्टि में यह उचित माना जाता है और यदि तुम सत्य का प्रयोग करते हुए इस दशा को मापोगे, तो पाओगे कि उन्होंने कोई भयावह भूल नहीं की है। विश्वास करने के इस तरीके के बारे में तुम क्या सोचते हो? (परमेश्वर को यह पसंद नहीं है।) ऐसा जवाब सिर्फ सैद्धांतिक होता है। तुम अपने परिप्रेक्ष्य से देखो तो इस प्रकार का विश्वास सत्य प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि तुम कभी प्रगति नहीं करते। जब कुछ समय के लिए परमेश्वर का घर परमेश्वर को जानने से संबंधित सत्य की बात करता है, तो तुम परमेश्वर को जानने पर ध्यान केंद्रित करते हो; जब वह स्वभावगत परिवर्तन की बात करता है, तो तुम स्वभावगत परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित करते हो; जब वह देहधारी परमेश्वर को जानने की बात करता है, तो तुम देहधारी परमेश्वर को जानने पर ध्यान केंद्रित करते हो; जब वह परमेश्वर के कार्य के दर्शन के बारे में बात करता है, तो तुम दर्शन से संबंधित सत्य पर ध्यान केंद्रित करते हो; जब वह सुसमाचार का प्रचार करने के बारे में सत्य की बात करता है, तो तुम सत्य के इस पहलू पर ध्यान केंद्रित करते हो। परमेश्वर का घर जो कुछ भी कहता है, तुम उसे सुनते और समझते हो, इसलिए जब कोई तुम्हारे पोषण के लिए धर्मोपदेश नहीं दे रहा होता, तो क्या तुम्हारा अपना रास्ता होगा? क्या तुम तब भी आगे बढ़ पाओगे? तुम कैसे चलोगे? उदाहरणार्थ, जब लोग सभाओं में इस बात पर संगति करते हैं कि परमेश्वर के आगे समर्पण क्या होता है, तो तुम कहते हो, “मुझे इसका बहुत गहरा अनुभव नहीं है, मुझे बस इतना लगता है कि परमेश्वर के प्रति समर्पण अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।” जब लोग तुमसे पूछते हैं कि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करते हो, तो तुम कहते हो, “परमेश्वर के प्रति समर्पण का अर्थ है यह विचार करना कि जब तुम पर चीजें हों तो परमेश्वर क्या कहता है और उसी के वचनों के अनुसार अभ्यास करना।” जब लोग ज्यादा विवरणों के बारे में संगति करने के लिए पूछते हैं, कि जब तुम पर कुछ चीजें हों तो समर्पण करने में असमर्थ होने पर क्या करें, या जब तुम्हारे व्यक्तिगत हित उसमें शामिल हों तो क्या करें, तो तुम कहते हो, “मैंने अभी तक उन चीजों का अनुभव नहीं किया है।” इसका मतलब है कि तुमने अभी तक प्रवेश प्राप्त नहीं किया है। कुछ समय के लिए परमेश्वर का घर परमेश्वर को जानने से संबंधित सत्य पर बात करता है। जब कोई व्यक्ति तुमसे पूछता है कि क्या तुमने अपने परमेश्वर संबंधी ज्ञान में प्रगति की है, तो तुम कहते हो, “मैंने प्रगति की है। मेरा मानना है कि परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर को जानना। यदि लोग परमेश्वर को नहीं जानेंगे, तो वे हमेशा परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करेंगे और यदि लोग हमेशा ऐसा करेंगे तो वे अंधकार में गिर जाएँगे, केवल सतही शब्द ही बोल पाएँगे और वे किसी भी सत्य को नहीं समझ पाएँगे, वे ठीक गैर-विश्वासियों जैसे होंगे—वे हमेशा ऐसे काम करेंगे जो सत्य के विरुद्ध जाते हैं और वे हमेशा ऐसे काम करेंगे जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हों।” वह व्यक्ति फिर पूछता है, “तो तुम परमेश्वर को कैसे जानते हो? जब तुम अपने दैनिक जीवन में परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर की संप्रभुता और परमेश्वर के मार्गदर्शन का अनुभव करते हो, तो किन चीजों की पहचान परमेश्वर के मार्गदर्शन के रूप में करते हो, और किन चीजों में तुम परमेश्वर की संप्रभुता को स्पष्ट रूप से महसूस कर पाते हो? तुम परमेश्वर की संप्रभुता को कैसे समझते हो? वास्तविक जीवन में तुम्हें जो अनुभव होता है और जो महसूस करते हो उसके आधार पर तुम परमेश्वर की संप्रभुता में उसके स्वभाव का कौन-सा पक्ष देखते हो?” इस पर यदि तुम कुछ भी कहने में असमर्थ हो, तो इससे साबित होता है कि तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं है। यदि तुम कहते हो कि “एक बात है जिसमें मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन मिलने का एहसास होता है,” तो यह बस थोड़ा सा एहसास करना है, और इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हें परमेश्वर के बारे में ज्ञान है। वस्तुतः वास्तविक जीवन में हर चीज परमेश्वर के शासन में है तथा उसी की व्यवस्था के अनुसार है और नियत है। यदि लोगों ने बहुत अनुभव कर लिया हो, तो वे महसूस कर सकते हैं कि कुछ भी सरल नहीं है, और सब कुछ इसलिए होता है ताकि लोग सबक सीख सकें, और परमेश्वर की संप्रभुता तथा उसकी सर्वशक्तिमत्ता को देख सकें, और अंततः परमेश्वर के स्वभाव को जान सकें। जब तुम इस परिणाम को प्राप्त कर लोगे केवल तभी तुम जान पाओगे कि परमेश्वर के इरादों के अनुसार उसके प्रति समर्पण कैसे करना है, और तभी तुम्हारे पास पूरी तरह अपने अभ्यास में आगे बढ़ने का मार्ग होगा। अनुभव के इस स्तर पर न केवल किसी व्यक्ति की आस्था दृढ़ से दृढ़तर होती है, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें परमेश्वर के स्वभाव की समझ हो जाती है, और वे जानते हैं कि परमेश्वर के सामने समर्पण कैसे करना है। यही सत्य प्राप्त होना है।

कुछ लोगों के सत्य के अनुसरण में सदैव विचलन होते हैं; दिखावा करने के लिए वे हर वक्त कुछ आध्यात्मिक सिद्धांतों और खोखले सिद्धांतों के बारे में थोथी बातों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे अनुसरण के बारे में तुम क्या सोचते हो? तुम लोग खुद को सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति मानो या न मानो, इस समय सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या तुमने कुछ व्यावहारिक चीजें हासिल की हैं, अर्थात व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया है? (मुझे थोड़ा सा हासिल हुआ है।) तुमने क्या हासिल किया है? क्या तुम इसका मूल्यांकन कर सकते हो? (मुझे इस बात की थोड़ी समझ और अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई है कि लोग शैतान द्वारा कैसे भ्रष्ट किए जाते हैं और इस बुरी दुनिया की भी कुछ समझ और अंतर्दृष्टि मिली है।) तुम्हें थोड़ा ज्ञान प्राप्त हो गया है। तो क्या यह ज्ञान तुम्हारे जीवन की दिशा, तुम्हारे जीवन के लक्ष्य और तुम्हारे वास्तविक जीवन में स्व-आचरण के सिद्धांतों को बदल सकता है? चाहे तुम जैसे भी लोगों के समूह में रहते हो, क्या यह ज्ञान या वे सत्य जिन्हें तुमने समझ लिया है, तुम्हारे जीवन और जीवन के लक्ष्य को प्रभावित कर पाते हैं? यदि वे तुम्हें पूरी तरह से नहीं बदल सकते, तो भी कम से कम कुछ बदलाव तो होना ही चाहिए और तुम्हारी कथनी-करनी में कुछ संयम होना चाहिए। फिलहाल क्या तुम लोगों में से ज्यादातर अभी भी अपने आध्यात्मिक कद के मामले में इसी स्तर पर अटके हुए नहीं हैं? (हाँ।) इसमें उन्नति की आवश्यकता है। यदि सत्य के बारे में तुम्हारी समझ बहुत सतही है, तो यह अच्छा नहीं है, साथ ही केवल थोड़े से सिद्धांत बोलने में सक्षम होना तथा थोड़ा संयम रखना भी कुछ अच्छा नहीं है। अभ्यास करने का मार्ग पाने और जीवन में अपना लक्ष्य बदलने में सक्षम होने के लिए तुम्हें सत्य को समझना ही होगा। यदि वे सभी सत्य जिन्हें तुम समझ चुके हो और वे सभी धर्मोपदेश जिन्हें तुमने सुना है, पहले ही तुम्हारे हृदय में स्वीकार किए जा चुके हैं और तुम्हारे जीवन को प्रभावित कर सकते हैं, तुम्हारे स्व-आचरण की दिशा और लक्ष्य बदल सकते हैं और स्व-आचरण के तुम्हारे सिद्धांतों को बदल सकते हैं, तो क्या यह थोड़ा सा संयम स्वीकार करने से मिलने वाले प्रभावों से कुछ बेहतर नहीं है? इस वक्त तुम लोग संयम स्वीकारने और विनियमों का पालन करने पर अटके हो—क्या यही सक्रिय अभ्यास करने और प्रवेश करने का मार्ग है? कदापि नहीं। यदि तुम हमेशा संयमों को स्वीकार करने या विनियमों का पालन करने पर अटके रहोगे, तो इसके क्या परिणाम होंगे? क्या तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे? क्या तुम वास्तविक परिवर्तन से गुजर पाओगे? इसके अलावा संयम रखते हुए और विनियमों का पालन करते हुए सत्य का अभ्यास करने से क्या तुम्हें कोई परिणाम मिला है? तनिक भी नहीं। इसलिए सत्य को समझने पर ध्यान केंद्रित करना अभी भी सबसे महत्वपूर्ण चीज है। संयम रखने और विनियमों का पालन करने का मतलब यह नहीं है कि तुम सत्य को समझते हो, अपने सत्य का अभ्यास करने की तो बात ही छोड़ दो। जीवन भर संयम रखने और विनियमों का पालन करने से सत्य को समझने और सत्य का अभ्यास करने का प्रभाव प्राप्त नहीं होगा। यह व्यर्थ है! इसलिए संयम रखने और विनियमों का पालन करने में कोई कितने भी कष्ट सह ले, उसका जरा सा भी मूल्य या अर्थ नहीं होता।

धर्मोपदेश सुनने और सत्य को समझने के बाद क्या तुम लोगों ने किसी वास्तविक परिवर्तन का अनुभव किया है? उदाहरण के लिए, यह सोचना कि सच लगने वाले पर असल में नकली ज्ञान और सिद्धांतों के तुम्हारे पिछले अनुसरण, और शोहरत, फायदे तथा हैसियत के तुम्हारे अनुसरण परमेश्वर में विश्वास नहीं है बल्कि इसका संबंध धार्मिक विश्वास से है, और यह कि शोहरत, फायदे और हैसियत का अनुसरण नीचतापूर्ण काम है, और यह कि यदि तुम इसी तरह जीते हो और अपना आचरण ऐसे ही बनाए रखते हो, तो तुम पूरी तरह से वह राक्षस बन जाओगे जिसे नरक में जाना चाहिए, और यह कि उस तरह का जीवन बहुत पीड़ादायक होता है। क्या तुम लोगों के पास यह अनुभव और ज्ञान है? तुम्हारे पास क्या व्यक्तिगत अनुभव है? कि ज्ञान और शोहरत, फायदे, और हैसियत के पीछे पड़े रहना बहुत थकाऊ होता है! तुम्हें लगता है कि वहाँ बहुत सारे विवाद हैं, बहुत अधिक परेशानी है, और गैर-विश्वासियों के बीच जीवन थकाने वाला और बहुत पीड़ादायक होता है। तुम कहते हो, “मैं इस तरह नहीं जी सकता। अगर मैं उनकी तरह जीने लगा तो मुझे भी उतनी ही पीड़ा होगी जितनी उन्हें होती है। मुझे जीवन जीने के उनके तरीके से दूर होना है।” क्या यह तुम्हारा निजी अनुभव है? तुमने गहराई से अनुभव किया है कि भ्रष्ट मानवजाति सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं करती, कि वे सब लड़ते रहते हैं, योजना बनाते हैं और एक-दूसरे को धोखा देने की कोशिश में लगे रहते हैं, कि वे गुप्त रूप से एक-दूसरे को कमजोर करते हैं, और बस थोड़े से लाभ के लिए वे एक-दूसरे को तब तक पीटते रहते हैं जब तक कि खून न बहने लगे। तुमने अनुभव किया है कि उनमें से कोई भी जीवन के सही रास्ते पर चलना नहीं चाहता और इसके बजाय अपना काम कराने के लिए उनका भरोसा युक्तियों और तिकड़मों पर रहता है। ऐसे वातावरण में रहते हुए तुम्हें सबसे अधिक क्या महसूस होता है? तुम्हें लगता है कि उस दुनिया में किसी तरह की निष्पक्षता या धार्मिकता नहीं है, कि यह बहुत दुष्ट और बहुत अंधकारमय है, और लोग वहाँ राक्षसों की तरह रहते हैं। तुम सोचते हो कि अगर तुम अच्छा इंसान बनने की कोशिश करो तो यह आसान नहीं होगा और तुम ऐसा नहीं कर पाओगे। तुम्हें लगता है कि यदि तुम उस दुनिया के अनुकूल होना चाहोगे, तो तुमको भी राक्षस बनना होगा और राक्षस की तरह रहना होगा ताकि तुम राक्षसों के समूहों के साथ घुल-मिल सको और सामाजिक रुझानों से जुड़ सको, भोजन के एक निवाले के लिए संघर्ष और अपनी आजीविका तथा अस्तित्व के लिए तुम्हें उनसे लड़ना होगा और ऐसी बातें कहनी और करनी होंगी जो तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध हों। हर दिन इस तरह जीना कितना पस्त कर देने वाला होगा, किंतु यदि तुम उस तरह नहीं रहोगे तो लोग तुम्हें अलग कर देंगे, और तुम्हारे पास जीने का कोई रास्ता नहीं बचेगा। इस प्रकार के जीवन परिवेश में तुमने क्या अनुभव किया है? दर्द, कष्ट और बेबसी। तुमने लोगों के बीच मौजूद दुष्टता, क्रूरता और अंधेरे का अनुभव किया है और तुम्हें मानव जीवन की रोशनी नहीं दिख पाती। जब तुमने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया और परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में मन लगाने लगे, तो तुमने क्या अनुभव किया? (मैंने अपने हृदय में सत्य को समझा, मुझे लगा कि परमेश्वर में विश्वास करना बेहतर है, और मुझे अपने मन में आराम महसूस हुआ।) परमेश्वर के घर में रहते हुए तुम आनंदित महसूस करते हो, तुम पर परमेश्वर का आशीष है, और तुम बहुत-से सत्य समझ सकते हो; जब तुम अपने भाई-बहनों के साथ होते हो, तो तुम एक-दूसरे की मदद और समर्थन कर सकते हो, एक-दूसरे से बराबरी का व्यवहार कर सकते हो और सद्भाव के साथ जी सकते हो। हर दिन तुम अपने हृदय में सहजता का बोध करते हो, स्वतंत्र और उन्मुक्त महसूस करते हो। तुम्हें धोखा मिलने की चिंता करने की जरूरत नहीं होती और अब तुम उत्पीड़ित और दूसरों के दुर्व्यवहार का शिकार नहीं होते। बुरे कर्म करने वालों को धीरे-धीरे प्रकट करके हटा दिया जाता है, और उनकी संख्या कम से कम रह जाती है। परमेश्वर के घर पर सत्य और परमेश्वर का शासन होता है। परमेश्वर के चुने हुए लोग स्वतंत्र रूप से बेरोक-टोक बोल सकते हैं, उन्हें चुनाव में मतदान करने और बुरे लोगों को उजागर करने का अधिकार होता है। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते और आगे भी बुरे कर्म करने में सक्षम हैं, उन्हें धीरे-धीरे बाहर निकाल दिया जाता है। परमेश्वर के घर में लोगों को सताए जाने या दबाए जाने की कोई परिघटना नहीं होती। कोई मुद्दा होता भी है तो हर कोई उस पर चर्चा करता है। यदि कोई समस्या होती है, तो उसे हल करने के लिए अगुआ और कार्यकर्ता सत्य पर संगति करते हैं। लोग धीरे-धीरे सत्य को समझने लगते हैं, और अराजक चीजों का घटित होना कम से कमतर होता जाता है। परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, सत्य द्वारा संयमित हो सकते हैं और अपने शब्दों और कार्यों के संदर्भ में कुछ बदलाव कर सकते हैं। यदि कोई बुरा काम करता है तो हर कोई उसे स्पष्ट रूप से देख सकता है और उसकी सूचना दे सकता है। इसलिए परमेश्वर के घर में बुरे लोग कम होते हैं। अब तुम पहले से अधिक महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर का वातावरण सचमुच अच्छा है—भाई-बहन एक-दूसरे से प्यार करते हैं और जिसे भी कोई कठिनाई या विचलन हो, वह सहायता प्राप्त कर सकता है; जिस किसी को भी कठिनाइयाँ हों, वह उन्हें हल करवा सकता है और यदि ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें हल नहीं किया जा सकता, तो लोग मदद के लिए परमेश्वर की ओर देख सकते हैं और उस पर भरोसा कर सकते हैं और उसके वचनों के अनुसार उनका समाधान कर सकते हैं। परमेश्वर के घर में रहते हुए तुम आह्लादित और आशावान रहते हो, तुम प्रकाश देख सकते हो, और तुम पूरी तरह से परमेश्वर के प्रेम और उद्धार का आनंद ले सकते हो। यह वातावरण लोगों के जीवन में प्रगति के लिए बहुत फायदेमंद होता है। कलीसिया में जहाँ वातावरण में सत्य होता है, वहाँ रहते हुए तुम धीरे-धीरे सत्य को समझ सकते हो, तुम्हारा हृदय धीरे-धीरे पहले से ज्यादा चमकदार हो जाएगा, और तुम स्वतंत्र एवं मुक्त महसूस करोगे। ये सत्य को समझने से प्राप्त होने वाले परिणाम हैं। जिन लोगों ने सत्य को प्राप्त कर लिया है उनकी एक स्पष्ट खूबी होती है : वे अपेक्षाकृत स्वतंत्र और मुक्त होते हैं। उन्हें संयम रखने की आवश्यकता नहीं होती, सत्य उनके शब्दों और कर्मों को प्रभावित करेगा और यह उनके जीवन के तरीके और उनके जीवन की दिशा को बदल देगा। जब तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रति भय मानने वाला हृदय उत्पन्न होता है और जब तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला ऐसा हृदय होता है जो तुम्हारा मार्गदर्शन करता है तो तुम जो चीजें करोगे उनकी प्रकृति उन चीजों की प्रकृति से बिल्कुल अलग होगी जो तुम आत्म-नियंत्रण और संयम अपनाने से पहले किया करते थे। इन परिस्थितियों में यदि तुम्हें कोई रुतबा दे दिया जाए और तुम्हारे पास दूसरों को सताने का मौका और सही स्थितियाँ हों तो भी क्या तुम ऐसा करोगे? (नहीं।) क्यों नहीं करोगे? क्या इसलिए कि लोगों को कष्ट पहुँचाने की तुम्हारी कोई योजना नहीं है, या इसलिए कि तुम्हारे पास लोगों को कष्ट पहुँचाने की क्षमता नहीं है? (ऐसा इसलिए है कि मेरा स्वभाव बदल चुका होगा।) यह सही है, तुममें परमेश्वर का भय रखने वाला हृदय होगा, और तुम्हारे कार्यों में सिद्धांत और आधार रेखा होगी। इस बिंदु पर तुम्हें चाहे जिस प्रलोभन का सामना करना पड़े, तुम अपने दिल से कह सकोगे कि “ऐसा करने से परमेश्वर प्रसन्न नहीं होता, और मैं ऐसे काम नहीं कर सकता जो परमेश्वर को नाराज करते हों।” तुम्हारा आध्यात्मिक कद स्वाभाविक रूप से इस स्तर तक पहुँच जाएगा, और तुम ऐसे शब्द कहने में सक्षम हो पाओगे। अभी क्या तुम लोग इस स्तर को इतने स्वाभाविक रूप से पा सकते हो? (अभी नहीं।) इससे साबित होता है कि सत्य का अभी तक तुम्हारे भीतर प्रभाव नहीं पड़ा है; यह केवल तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित कर रहा है, लेकिन यह तुम्हारे मन को दृढ़ता से नियंत्रित नहीं कर सकता, या तुम्हारे जीवन की दिशा नहीं बदल सकता और न ही तुम्हारे स्व-आचरण के सिद्धांतों और लक्ष्य को बदल रहा है।

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