अपने कर्तव्‍य का मानक स्तर का निर्वहन क्‍या है? (भाग दो)

हम कर्तव्य निभाने और सांसारिक कार्य करने में अंतर होने के विषय पर संगति क्यों कर रहे हैं? क्या यह महत्वपूर्ण है? (हाँ।) इसका महत्व कहाँ निहित है? यह अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति लोगों के रवैये से संबंधित है। अपने सांसारिक कार्यों के प्रति अपने रवैये और सिद्धांतों को कर्तव्य निर्वहन के क्षेत्र में लागू मत करो। यदि तुम ऐसा करते हो तो दुष्परिणाम क्या होंगे? (अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना।) अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करना एक आम मसला है; इसका मतलब है कार्य करते समय दूसरों से विचार-विमर्श न करना चाहना, यह चाहना कि अपनी बात निर्णायक हो और जो मन में आए वही करना, यह महसूस करना कि इस तरह से कार्य करने से दमन या दुःख के भाव से मुक्त होकर सुकून और संतोष मिलता है। इसके अतिरिक्त इससे व्यक्ति अक्सर साजिश, ईर्ष्या, विवादों और गुटबाजी के साथ-साथ पुरस्कार और मान्यता तलाशने, दिखावा करने, अनमने होकर पेश आने, गैर-जिम्मेदारी, अपने से ऊपर और नीचे के लोगों को धोखा देने और स्वयं का राज्य स्थापित करने की ओर बढ़ता है। संक्षेप में कहें तो कर्तव्य निर्वहन सांसारिक कार्य करने से अलग है; कर्तव्य निर्वहन परमेश्वर की एक अपेक्षा और परमेश्वर की एक व्यवस्था है—कर्तव्य निर्वहन और सांसारिक कार्य करने के बीच यह सबसे बड़ा अंतर है। कर्तव्य निर्वहन परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार और सत्य सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए। यह किसी का व्यक्तिगत उद्यम नहीं है, न ही किसी का निजी व्यवसाय है और यह किसी का निजी मामला तो कतई नहीं है। इसका संबंध निजी हितों, गुरूर, रुतबे, रसूख या भविष्य की संभावनाओं से कतई नहीं है; यह केवल लोगों के जीवन प्रवेश और स्वभाव परिवर्तन से संबंधित है और यह परमेश्वर के प्रबंधन कार्य से संबंधित है। इसके विपरीत जब तुम सांसारिक कार्यों में संलग्न होते हो तो तुम पूरी तरह से अपना व्यक्तिगत उद्यम चला रहे हो। चाहे तुम नौकरी कर रहे हो या व्यवसाय, चाहे तुम कितनी ही बड़ी कीमत चुकाते हो, चाहे तुम कितना ही त्याग करते हो या कितना ही कष्ट सहते हो—ये चाहे भावनात्मक हों या शारीरिक पहलू—या चाहे तुम धमकाए और अपमानित किए गए हो या गलत समझे गए हो, या तुम्हें जबरदस्त सार्वजनिक दबाव का सामना करना पड़ा हो, तुम जो कुछ भी करते हो वह तुम्हारी व्यक्तिगत इच्छा, आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं और अभिलाषाओं के इर्द-गिर्द घूमता है। यह केवल इसी प्रकृति का है। यह प्रकृति बस अपना उद्यम चलाना और एक व्यक्तिगत उपक्रम में भाग लेना है। मानवजाति में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो आगे बढ़कर कहे कि “मैं मानवजाति के लिए सार्वजनिक सेवा कर रहा हूँ; मैं स्वर्ग से प्राप्त दैवीय नीतियों और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहता हूँ।” ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है। यदि कोई आगे बढ़कर यह कहता भी है कि “मैं मानवजाति के लिए सबसे परोपकारी और महानतम प्रयास करना चाहता हूँ, लोगों का कल्याण और उनके लिए कुछ अच्छी चीजें करना चाहता हूँ” तो उसका लक्ष्य इतना शुद्ध नहीं है; वह प्रसिद्धि के लिए ऐसा कर रहा है। क्या यह अपना खुद का उद्यम चलाना नहीं है? यह सब कुछ अपने खुद के उद्यम की खातिर है। ऐसे व्यक्ति के शब्द चाहे कितने ही अच्छे लगते हों, उसने कितने ही कष्ट सहे हों, उसने कितनी ही बड़ी कीमत चुकाई हो, उसने कितना ही बड़ा योगदान दिया हो या चाहे उसने मानवजाति को बदल दिया हो, एक युग बदल दिया हो या एक नया युग शुरू किया हो, ऐसा व्यक्ति जो कुछ भी करता है उसका प्रयोजन दूसरों के लिए नहीं बल्कि अपने लिए होता है। सभी भ्रष्ट मनुष्य इसी तरह कार्य करते हैं। चाहे कोई कुछ बड़ा करे या छोटा, उसका इरादा या तो प्रसिद्धि पाना होता है या लाभ कमाना। ऐसे लोगों के कार्यों की प्रकृति क्या होती है? यह अपना खुद का उद्यम चलाना है। क्या किसी के अपने उद्यम का परमेश्वर के प्रबंधन से कोई लेना-देना है? इसका उससे बिल्कुल संबंध नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “यह सच नहीं है। कुछ लोग इस दुनिया में आकर एक युग बदल देते हैं; क्या यह भी परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत नहीं है? क्या इसका भी उसके प्रबंधन से कोई लेना-देना नहीं है?” क्या ये बातें आपस में संबंधित हैं? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि इनमें कोई संबंध नहीं है? (क्योंकि इसका मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के प्रबंधन कार्य से कोई लेना-देना नहीं है।) सही कहा; यदि इसका मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के कार्य से कोई लेना-देना नहीं है तो इसका परमेश्वर के प्रबंधन से कोई संबंध नहीं है। लेकिन यह कथन केवल आधा ही सही है; यहाँ एक और पूर्व शर्त है, सार का प्रश्न। यदि इसका परमेश्वर की प्रबंधन योजना से कोई संबंध नहीं है, तो यह सब केवल मानव उद्यम हैं। यह तो रहा एक पहलू, लेकिन तुम लोगों के लिए मुझे कुछ और भी कहना है : वे जो कर रहे हैं उसकी प्रकृति व्यक्तिगत प्रसिद्धि और लाभ के लिए है; अंतिम लाभार्थी वे स्वयं हैं। वे जो कुछ भी करते हैं उसकी प्रकृति, सिद्धांत और अंतिम परिणाम किसके लिए होते हैं? (स्वयं के लिए।) ये उनके स्वयं के लिए होते हैं—और थोड़े और दबे-छिपे अर्थ में पूछूँ तो किसके लिए होते हैं? (शैतान के लिए।) सही कहा, ये शैतान के लिए होते हैं। शैतान के लिए कार्य करने की प्रकृति क्या है? (परमेश्वर का शत्रु होना।) और परमेश्वर का शत्रु होने के पीछे अंतर्निहित सार क्या है? हम यह क्यों कहते हैं कि यह परमेश्वर का शत्रु होना है? (उनके कार्यों के प्रारंभिक बिंदु, उद्गम और सिद्धांत सब कुछ परमेश्वर के वचनों के विरुद्ध होते हैं।) यह एक पहलू है, और यह एक बुनियादी समस्या है। वे जो कार्य कर रहे हैं उनके प्रारंभिक बिंदु, उद्गम और सिद्धांत सब कुछ शैतान के हैं और ये दुष्ट हैं, तो अंतिम नतीजा क्या निकलता है? वे किसकी गवाही दे रहे होते हैं? (शैतान की।) सही कहा, वे शैतान की गवाही दे रहे होते हैं। संपूर्ण मानव इतिहास में क्या कोई ऐसा इतिहासकार या लेखक हुआ है जिसने प्रत्येक युग में मनुष्यों की उपलब्धियों का श्रेय सृष्टिकर्ता को दिया हो? (नहीं।) वे केवल यही कहेंगे कि ये मानवजाति के भव्य उपक्रमों से छोड़ी गई विरासतें या महान उपलब्धियाँ हैं। जो ये चीजें पीछे छोड़ जाते हैं वे प्रसिद्ध हस्तियाँ और महान लोग मानवजाति की नजर में किसका प्रतिनिधित्व करते हैं? किसी भी प्रसिद्ध या महान व्यक्ति की, या जिसने भी मानवजाति के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है, उन सभी की पूजा भ्रष्ट मनुष्य करते हैं। लोगों के दिलों में उनके लिए जो जगह है उसे लोग परमेश्वर का स्थान मानते हैं। क्या यह इस समस्या का सार नहीं है? (हाँ, है।) हमने अभी-अभी चर्चा की कि लोगों के कार्यों के उद्गम, उद्देश्य, प्रारंभिक बिंदु और सिद्धांत सभी की जड़ें शैतानी तर्क में हैं और ये सत्य के अनुरूप नहीं हैं। लोग मानवीय साधनों या अपने गुणों के माध्यम से कुछ हासिल करते हैं और दूसरों के बीच प्रसिद्ध हो जाते हैं, और अंतिम परिणाम यह होता है कि मानवजाति इन सबका श्रेय शैतान को देती है; ठीक उसी तरह जैसे बहुत-से लोग अब कन्फ्यूशियस और गुआन यू जैसी इतिहास की प्रसिद्ध हस्तियों और महान लोगों की पूजा करते हैं। इन लोगों ने चाहे जितने महान कार्य किए हों, मूल रूप से कहूँ तो इन विभिन्न चरित्रों के लिए इस दुनिया में आने और विभिन्न युगों में विशिष्ट कार्य करने की व्यवस्था दरअसल परमेश्वर ने ही की। लेकिन समूचे लिखित मानव इतिहास में, चाहे वह प्राचीन हो या आधुनिक, एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जो सृष्टिकर्ता के कार्यों की गवाही देता हो। केवल बाइबल ही व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य के दो चरणों के कुछ तत्व दर्ज करती है, लेकिन वहाँ भी परमेश्वर के काफी सीमित वचन ही दर्ज हैं। वास्तव में परमेश्वर ने बहुत-से वचन कहे हैं और असंख्य कार्य किए हैं, लेकिन मनुष्यों ने जो दर्ज किया है वह बेहद सीमित है। इसके विपरीत, अनगिनत किताबें हैं जो प्रसिद्ध और महान लोगों के बारे में लिखी गई हैं, उनकी गवाही देती हैं या उनकी प्रशंसा करती हैं। क्या यह उस समस्या का सार स्पष्ट नहीं करता जिस पर हमने अभी-अभी चर्चा की? अभी हमने उल्लेख किया कि पूरे इतिहास में प्रसिद्ध और महान लोगों ने अपने लिए कार्य किया है; सारतः, शैतान के लिए कार्य किया है। इससे पता चलता है कि वे अपने कर्तव्य नहीं निभा रहे थे, बल्कि अपना खुद का उद्यम चला रहे थे या अपने खुद के उपक्रमों में भाग ले रहे थे। दुनिया में लोग जो भी कार्य करते हैं उसकी प्रकृति, सार क्या है? (अपना खुद का उद्यम चलाना।) इसे अपना खुद का उद्यम चलाना क्यों माना जाता है? इसका मूल कारण क्या है? क्योंकि वह शैतान ही है जिसकी वे गवाही देते हैं; उनके सिद्धांत हों या कार्य करने की प्रेरणाएँ, सब कुछ शैतान से आता है और सत्य या परमेश्वर की अपेक्षाओं से उनका कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन कर्तव्य की प्रकृति क्या है? इसका अर्थ परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार किए गए कार्य से है, यानी कार्य सत्य पर आधारित होना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार किया जाना चाहिए और परमेश्वर की माँगों के अनुरूप होना चाहिए। इसके फलस्वरूप लोग परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं, उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं और उसे जान सकते हैं; उनके पास सृष्टिकर्ता की गहरी समझ और उसके प्रति अधिक सच्चा समर्पण है, और इससे कहीं अधिक, वे वह कर सकते हैं जो सृजित प्राणियों को करना चाहिए। दोनों के बीच यही सबसे बड़ा अंतर है। जब लोग परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं तो परमेश्वर के साथ उनका संबंध उत्तरोत्तर सामान्य होता जाता है। और, लोग दुनिया में जो भी काम करते हैं क्या उससे ऐसा प्रभाव प्राप्त किया जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं, परिणाम ठीक उलटा है। कोई व्यक्ति सांसारिक कार्य करने में जितने अधिक वर्ष बिताता है, उतना ही अधिक वह परमेश्वर से विद्रोह करता जाता है और उससे दूर होता जाता है। व्यक्ति का अपना खुद का उद्यम जितना बेहतर होता जाता है, वह परमेश्वर से उतना ही दूर होता जाता है; व्यक्ति का अपना उद्यम जितना अधिक सफल होता जाता है, वह परमेश्वर की अपेक्षाओं से उतना ही दूर भटकता जाता है। इसलिए कर्तव्य निभाना और सांसारिक कार्य में लगे रहना, पूरी तरह से दो भिन्न प्रकृतियाँ हैं।

अभी-अभी यह चर्चा की गई कि व्यक्ति के कर्तव्य और उसके सांसारिक कार्य में लगे रहने में क्या अंतर है। इस चर्चा का उद्देश्य लोगों को सत्य का कौन-सा पहलू समझने में मदद करना है? तुम्हें चाहे जो भी कर्तव्य मिले, तुम्हें उसे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार निभाना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब तुम्हें किसी कलीसिया का अगुआ चुना जाता है तो तुम्हारा कर्तव्य कलीसिया के अगुआ का कार्य करना है। और जब तुमने इस कार्य को अपना कर्तव्य मान लिया तो तुम्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, यह जान लो कि एक अगुआ के रूप में अपना कार्य पूरा करना ही तुम्हारे कर्तव्य का निर्वहन है। तुम बाहरी दुनिया के किसी अधिकारी के रूप में सेवा नहीं कर रहे हो; यदि तुम अगुआ बनकर स्वयं को एक अधिकारी समझते हो, तो यह एक विचलन है। लेकिन अगर तुम कहते हो कि “अब जब मैं कलीसिया का अगुआ बन गया हूँ तो मुझे सरपरस्त नहीं बन जाना चाहिए, मुझे खुद को औरों से नीचे रखना चाहिए, उन्हें अपने से ऊँचा और अधिक महत्वपूर्ण बनाना चाहिए” तो यह मानसिकता भी गलत है; यदि तुम सत्य को नहीं समझते तो कोई भी ढोंग करना बेकार है। अपने कर्तव्य की सही समझ के अलावा कुछ भी काम नहीं आएगा। सबसे पहले तुम्हें कलीसिया के अगुआ के कार्य के महत्व की सराहना करनी चाहिए : एक कलीसिया में कई दर्जन सदस्य हो सकते हैं और तुम्हें यह सोचना चाहिए कि इन लोगों को परमेश्वर के सामने कैसे लाया जाए, उनमें से ज्यादातर लोगों को किस प्रकार सत्य को समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने दिया जाए। तुम्हें नकारात्मक और कमजोर लोगों के सिंचन-पोषण में भी अधिक समय देना चाहिए ताकि उन्हें नकारात्मक और कमजोर पड़ने से रोककर कर्तव्य निर्वहन में सक्षम बनाया जा सके। जिन लोगों में अपना कर्तव्य निभाने की काबिलियत है, तुम्हें उन सबका भी मार्गदर्शन सत्य को समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और अपना कर्तव्य ठीक ढंग से और इस प्रकार अधिक प्रभावी ढंग से निभाने में करना चाहिए। कुछ लोग वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन वे काफी बुरी मानवता के हैं, वे हमेशा कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा कर बाधा डालते हैं—इन लोगों की अपेक्षित ढंग से काट-छाँट की जानी चाहिए; जो लोग पश्चात्ताप करने से हठपूर्वक इनकार करते हैं उन्हें हटा देना चाहिए। सिद्धांत के अनुसार निपटकर उनके लिए उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात ये भी है : कलीसिया में कुछ लोगों के पास अपेक्षाकृत अच्छी मानवता और थोड़ी-सी काबिलियत होती है और वे कार्य के किसी खास पहलू को करने में सक्षम होते हैं; ऐसे सभी लोगों का बिना किसी देरी के, जितनी जल्दी हो सके विकसित किया जाना चाहिए; उन्हें सक्षम बनने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ेगी और यदि उन्हें कभी कोई प्रशिक्षण न मिला तो वे कुछ भी अच्छा नहीं कर पाएँगे। क्या ये ऐसे काम नहीं हैं जिन्हें किसी अगुआ या कार्यकर्ता को अच्छा प्रदर्शन करने के लिए तत्काल करने की आवश्यकता है? यदि तुम अगुआ बन गए हो और ये बातें ध्यान में नहीं रखते, और इस तरह कार्य नहीं करते तो क्या तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो? (नहीं।) एक अगुआ के रूप में कलीसिया के कार्य के एक-एक पहलू को सुलझाना आवश्यक है : पहला, सबसे महत्वपूर्ण मामला प्रतिभाशाली लोगों को विकसित करना है। उन लोगों को ऊपर उठाओ जो अच्छी मानवता वाले हैं और जिनके पास काबिलियत है, और उन्हें विकसित और प्रशिक्षित करो। दूसरा, भाई-बहनों को सत्य वास्तविकता में प्रवेश कराओ और उन्हें आत्म-चिंतन करने, स्वयं को जानने, मतांतरों और भ्रांतियों को पहचानने, लोगों को पहचानने और अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में सक्षम बनाओ—यह जीवन प्रवेश का एक हिस्सा है। तीसरा, जो अपने कर्तव्य निभा सकते हैं उनमें से (घटिया मानवता वाले लोगों को छोड़कर) ज्यादातर लोगों को वास्तव में कर्तव्य निभा पाने में सक्षम बनाओ, और यह सुनिश्चित करो कि वे अनमने ढंग से कार्य करने के बजाय अपने कर्तव्य निर्वहन में नतीजे हासिल कर सकें। चौथा, कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा करने और बाधा डालने वालों से तुरंत निपटो। यदि वे संगति के बाद भी सत्य को नकारते हैं, तो उनकी काट-छाँट की जानी चाहिए। फिर भी उन्हें पश्चात्ताप न हो तो उन्हें चिंतन के लिए अलग-थलग कर देना चाहिए, यहाँ तक कि हटा या निष्कासित कर देना चाहिए। पाँचवाँ, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को छद्म-विश्वासियों, झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने में सक्षम बनाओ, यह सुनिश्चित करो कि वे गुमराह न हों और जितनी जल्दी हो सके परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग पर प्रवेश कर सकें। ये पाँचों बिंदु महत्वपूर्ण हैं और अगुआ के मूल काम हैं। कार्य के इन पाँच पहलुओं को पूरा करना ही व्यक्ति को कलीसिया का मानक-स्तरीय अगुआ बनाता है। साथ ही, विशेष परिस्थितियाँ भी ठीक से सँभालनी चाहिए। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि कुछ लोगों की नकारात्मकता और कमजोरी अस्थायी हो और ऐसे में तुम्हें उनके साथ उचित ढंग से पेश आना चाहिए। सबको एक ही लपेटे में नहीं लेना चाहिए; यदि कोई अस्थायी रूप से नकारात्मक है और तुम उसे “नकारात्मक व्यक्ति” या “दीर्घकालिक नकारात्मक व्यक्ति” के रूप में निरूपित कर कहो कि परमेश्वर अब उसे नहीं चाहता तो यह उचित नहीं है। यही नहीं, सभी को अपनी व्यक्तिगत भूमिका निभानी चाहिए और अपनी क्षमताओं के अनुसार योगदान देना चाहिए। व्यक्तियों के गुणों, प्रतिभा, काबिलियत, उम्र और उनके परमेश्वर में विश्वास की अवधि को ध्यान में रखते हुए उचित रूप से कर्तव्य पालन की व्यवस्था की जानी चाहिए। इस तरीके को विभिन्न प्रकार के लोगों के अनुकूल ढालना चाहिए ताकि वे परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभा सकें और अपना सर्वश्रेष्ठ कार्य कर सकें। यदि तुम ये बातें ध्यान में रखते हो तो तुममें एक जिम्मेदारी की भावना आएगी और तुम्हें हमेशा अवलोकन पर ध्यान केंद्रित करना होगा। किस चीज का अवलोकन? इस बात का नहीं कि कौन अच्छा दिखता है ताकि उसके साथ तुम ज्यादा मिल-जुल सको; इस बात का नहीं कि जिसे तुम बदसूरत समझते हो उसे अपनी संगत से बाहर कर सको; इस बात का नहीं कि किसके पास काबिलियत और रुतबा है ताकि तुम उसके कृपापात्र बन सको; और निश्चित रूप से इस बात का अवलोकन भी नहीं कि कौन तुम्हारे सामने नहीं झुकता ताकि तुम उसे सताने का प्रयास कर सको। इनमें से किसी भी चीज का अवलोकन नहीं करना चाहिए। तो तुम्हें किस चीज का अवलोकन करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर विभिन्न प्रकार के लोगों के प्रति उसके रवैये और उनसे उसकी अपेक्षाओं के आधार पर लोगों का भेद पहचानना चाहिए और सिद्धांतों के आधार पर उनके साथ व्यवहार करना चाहिए; यह सत्य के अनुरूप है। सबसे पहले कलीसिया में तमाम लोगों को वर्गीकृत करो : जिनमें खूब काबिलियत और सत्य स्वीकारने की क्षमता है उन्हें एक श्रेणी में रखो, जो कम काबिल हैं और सत्य नहीं स्वीकार सकते उन्हें अलग श्रेणी में रखो; जो अपने कर्तव्य निभा सकते हैं उनकी अलग श्रेणी बनाओ और जो नहीं निभा सकते उनकी अलग श्रेणी बनाओ। अंत में ऐसे छद्म-विश्वासियों को किसी दूसरी श्रेणी में रखा जाना चाहिए जो हमेशा शिकायतें करते रहते हैं, धारणाएँ फैलाते हैं, नकारात्मकता से घिरे रहते हैं और विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। एक बार जब तुमने सबको वर्गीकृत कर लिया और परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्रत्येक समूह की वास्तविक दशा को अच्छी तरह से समझ लिया, स्पष्ट रूप से जान लिया कि किसे बचाया जा सकता है और किसे नहीं, तो तुम तमाम लोगों की असलियत जान लोगे; तुम परमेश्वर के इरादे समझ लोगे और जान लोगे कि परमेश्वर किसे बचाना चाहता है और किसे निकाल देना चाहता है। क्या यह सब तुम्हारी जिम्मेदारी की भावना के कारण नहीं होता है? क्या यह कर्तव्य के प्रति सही रवैया नहीं है? यदि तुम्हारे पास यह सही रवैया है और तुम्हारे अंदर एक जिम्मेदारी की भावना आती है, तो तुम अपना काम अच्छी तरह कर सकते हो। यदि तुम अपने कर्तव्यों के साथ इस तरह पेश नहीं आते और इसके बजाय अपने कर्तव्य निर्वहन को ऐसे देखते हो जैसे कि तुम एक आधिकारिक पद पर हो और हमेशा यही सोचते हो कि “अगुआ होना पद धारण करने जैसा है; यह परमेश्वर का आशीष है! अब जब मेरे पास रुतबा है तो लोगों को मेरी बात सुननी होगी और यह अच्छी बात है!”—अगर तुम सोचते हो कि अगुआ होना अधिकारी होने के समान है, तो तुम मुसीबत में हो। तुम निश्चित रूप से एक अधिकारी की तरह और जिस तरीके से अधिकारी काम करते हैं उस आधार पर नेतृत्व करोगे; तो फिर तुम कलीसिया का कार्य क्या ठीक से कर सकते हो? इस तरह का दृष्टिकोण होने के कारण तुम्हें यकीनन प्रकट कर और निकाल दिया जाएगा। तुम अपनी कल्पना हमेशा एक अधिकारी के रूप में करते रहोगे, जिसमें तुम जहाँ भी जाते हो लोगों से घिरे रहते हो और तुम जो भी कहते हो लोग उसका पालन करते हैं। इसके अलावा, कलीसिया में होने वाले किसी भी फायदे पर पहला दावा तुम्हारा होगा। कलीसिया का कोई भी काम हो, तुम्हें केवल आदेश देना होगा और स्वयं कुछ भी नहीं करना होगा। ये कैसी मानसिकता है? क्या यह रुतबे के फायदों में लिप्त होना नहीं है? क्या यह भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? वे सभी लोग जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, शैतानी स्वभाव के आधार पर अपने कर्तव्य निभाते हैं। बहुत-से अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बेनकाब करके निकाल दिया गया है क्योंकि उन्होंने हमेशा शैतानी स्वभाव के आधार पर अपने कर्तव्य निभाए और सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया। अब भी कुछ अगुआ इसी तरह का आचरण करते हैं। अगुआ बनने के बाद वे अंदर से थोड़े-से उत्साहित और थोड़े-से आत्म-संतुष्ट महसूस करते हैं। इस अनुभूति का वर्णन करना कठिन है, लेकिन हर हाल में उन्हें लगता है कि उन्होंने काफी अच्छा काम किया है। लेकिन फिर वे सोचते हैं, “मैं इतना घमंड़ी नहीं हो सकता। घमंड़ी होना अहंकार का प्रतीक है और अहंकार विफलता का अग्रदूत है। मुझे विनम्र रहना चाहिए।” ऊपरी तौर पर वे विनम्र व्यवहार करते हैं और हर किसी को बताते हैं कि यह परमेश्वर की ओर से एक उत्थान और आदेश है, और उनके पास ऐसा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन अंदर ही अंदर वे खुश होते हैं : “आखिरकार, मुझे ही चुना गया! कौन कहता है कि मेरी काबिलियत अच्छी नहीं है? खराब होती तो मुझे कैसे चुना जाता? किसी और को क्यों नहीं चुना गया? ऐसा लगता है कि दूसरों की तुलना में मैं बेहतर हूँ।” जब यह कर्तव्य उन पर आन पड़ता है तो सबसे पहले वे अपने हृदय में इन्हीं चीजों के बारे में सोचते हैं। वे यह नहीं सोचते, “अब जबकि यह कर्तव्य मेरे ऊपर आन पड़ा है तो मैं इसे कैसे निभाऊँ? अतीत में किसने अच्छा काम किया होगा जिससे मैं कुछ सीख लूँ? इस कर्तव्य को निभाने के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? क्या कलीसिया की कार्य व्यवस्था में ऐसी कोई अपेक्षाएँ हैं? मैं कलीसिया के कार्य के इन पहलुओं के बारे में कभी चिंता नहीं करता था, लेकिन अब जबकि मुझे अगुआ चुन लिया गया है तो मुझे क्या करना चाहिए?” दरअसल, जब तक तुममें संकल्प है और तुम सत्य खोज सकते हो, तब तक एक रास्ता है। यदि तुम कार्य को अपना कर्तव्य मानते हो तो इसे अच्छी तरह से करना आसान होगा। कुछ लोग अगुआ बन जाते हैं और कहते हैं, “ये लोग अब मुझे सौंप दिए गए हैं? वे कैसे सभा करते हैं और उनके लिए कार्य की क्या व्यवस्था की जानी है इस बारे में अंतिम निर्णय मेरा होगा? हे परमेश्वर, मैं इस वक्त अपने दिल पर बहुत भार महसूस कर रहा हूँ।” ये शब्द क्या दर्शाते हैं? यही कि मानो वे महान कार्य पूरे कर सकते हैं; ये सब खोखली बातें और सिद्धांत हैं। क्या इस प्रकार का व्यक्ति थोड़ा-सा पाखंडी नहीं है? क्या तुम लोगों में से किसी ने कभी ऐसी बातें कही हैं? (बिल्कुल।) तो फिर तुम सब भी बड़े पाखंडी हो। वैसे, लोगों का ऐसा व्यवहार सामान्य है। जो छोटे अधिकारी बनते हैं उन्हें भी थोड़ा दिखावा करना पड़ता है। उन्हें अचानक महसूस होता है कि उनकी अपनी अहमियत बढ़ गई है और कुछ रुतबे और प्रसिद्धि का स्वाद चखते ही उनके दिल उफनते समुद्र की तरह हिलोरें मारने लगते हैं, और वे एक अलग ही व्यक्ति बन जाते हैं। उनके भ्रष्ट स्वभाव हों या असंयमित इच्छाएँ, सब कुछ उभर कर सामने आ जाता है। ऐसे नकारात्मक व्यवहार हर किसी में होते हैं। यह भ्रष्ट मानवजाति के चरित्र की समानता है। हर भ्रष्ट मनुष्य ऐसा व्यवहार करता है। कुछ लोग अगुआ बनने के बाद आश्वस्त नहीं होते कि उन्हें अब कैसे चलना चाहिए; कुछ लोग आश्वस्त नहीं होते कि उन्हें लोगों से कैसे बात करनी चाहिए। उन्हें कैसे बात करनी चाहिए इसके बारे में आश्वस्त न होने का कारण बेशक कायरता नहीं है, बल्कि एक अगुआ को कैसा आचरण करना चाहिए इसके बारे में अनिश्चितता के कारण ऐसा है। अन्य लोग अगुआ बनने के बाद इस बात को लेकर अनिश्चित होते हैं कि क्या खाएँ या क्या पहनें। ऐसे तमाम व्यवहार हैं। क्या तुम लोगों में से कोई भी इस तरह का व्यवहार दिखाता है? तुम सभी लोग निश्चित रूप से अलग-अलग मात्रा में ऐसा करते हो। तो इन मनोदशाओं और व्यवहारों को छोड़ने में कितना समय लगेगा? एक-दो साल, चार-पाँच साल या दस साल? यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति में सत्य का अनुसरण करने का कितना संकल्प है और वह किस हद तक सत्य का अनुसरण करता है।

सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया में कुछ लोगों की सत्य की समझ उनके प्रवेश के समानुपात में होती है; दोनों समतुल्य हैं। वे उतने ही सत्य में प्रवेश कर सकते हैं जितना सत्य वे समझने में सक्षम हैं; सत्य की उनकी समझ की गहराई उनके प्रवेश की गहराई भी है, साथ ही उनकी समझ-बूझ, अनुभूतियों और अनुभवों की गहराई भी है। फिर भी कुछ लोग बहुत सारे सिद्धांत समझते हैं, लेकिन उनका अभ्यास और प्रवेश शून्य है। इसलिए उन्होंने चाहे कितने ही उपदेश सुने हों, वे अपनी आंतरिक कठिनाइयों का समाधान कभी नहीं कर पाते। जब किसी मामूली समस्या से सामना होता है तो उनका बदसूरत पहलू तुरंत सामने आ जाता है और वे चाहे जितनी कोशिश कर लें, इसे नियंत्रित नहीं कर सकते; वे चाहे इस पर कैसे भी मुखौटा लगा लें, फिर भी उनकी भ्रष्टता प्रकट हो जाती है। वे समाधान के लिए सत्य स्वीकारने या सत्य खोजने में असमर्थ रहते हैं। यहाँ तक कि वे मुखौटा लगाना, धोखा देना और ढोंग करना भी सीख लेते हैं। उनके भ्रष्ट स्वभाव बरकरार और अपरिवर्तित रहते हैं; यह सत्य पाने का प्रयास न करने का परिणाम है। इसलिए सब कुछ विचार करने के बाद अब बात घूम-फिरकर वापस उसी कथन पर आ जाती है : सत्य का अनुसरण बहुत महत्वपूर्ण है। यही बात अपना कर्तव्य निभाने पर भी लागू होती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें क्या कर्तव्य मिला है, या तुम पर कौन-सा कर्तव्य आन पड़ा है, चाहे यह कोई बहुत बड़ी जिम्मेदारी वाला कर्तव्य हो या कोई आसान कर्तव्य हो या भले ही यह बहुत प्रमुख न हो, यदि तुम सत्य खोजने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य के साथ पेश आने में सक्षम हो तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा लोगे। यही नहीं, अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में तुम अपने जीवन प्रवेश और स्वभाव परिवर्तन दोनों में अलग-अलग मात्रा में वृद्धि का अनुभव करोगे। लेकिन, यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और अपने कर्तव्य को केवल अपना खुद का उद्यम, अपना निजी काम मानते हो या इसे निजी पसंद या निजी कार्य मानते हो तो तुम्हें परेशानी होगी। कर्तव्य को अपना खुद का उपक्रम मानना और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य के साथ पेश आना अलग-अलग बातें हैं। जब तुम अपने कर्तव्य को अपना खुद का उद्यम मानते हो, तो तुम किस चीज का अनुसरण कर रहे हो? तुम प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का पीछा कर रहे हो और अपनी माँगें पूरी करने की औरों से उम्मीद कर रहे हो। अपना कर्तव्य इस तरीके से निभाने का अंतिम नतीजा क्या होगा? एक लिहाज से, इस तरीके से अपना कर्तव्य निभाना मानक स्तर का नहीं होगा; यह बेकार की मेहनत है। भले ही तुमने सतह पर बहुत प्रयास किए हों, फिर भी तुमने सत्य नहीं तलाशा, इसलिए तुम्हारे कर्तव्य के नतीजे खराब निकलेंगे और परमेश्वर प्रसन्न नहीं होगा। दूसरे लिहाज से, तुम अक्सर अपराध करोगे, अक्सर गड़बड़ी कर बाधा डालोगे और अक्सर गलतियाँ करोगे जिनके प्रतिकूल नतीजे निकलेंगे। अब बहुत-से लोग अपने कर्तव्य निभाने में खरे नहीं उतरते। वे अपनी मनमर्जी से और स्वेच्छाचारी ढंग से कार्य करते हैं और वास्तव में कोई नतीजा हासिल नहीं कर पाते और कभी-कभी कलीसिया के कार्य को नुकसान भी पहुँचाते हैं। इस तरह कर्तव्य निभाना वास्तव में कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करना और बाधा डालना है; यह एक कतई बुरे व्यक्ति का व्यवहार है। जो लोग अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमना रवैया अपनाते हैं उन्हें उजागर किया जाना चाहिए, ताकि वे आत्मचिंतन कर सकें। यदि वे वास्तव में आत्म-चिंतन कर अपनी गलतियाँ पहचान सकें और खुद से नफरत कर सकें तो वे यहाँ रुके रह सकते हैं और अपने कर्तव्य निभाना जारी रख सकते हैं। लेकिन अगर वे अपनी गलतियाँ कभी न स्वीकारें और अपना बचाव कर खुद को सही ठहराएँ, यह दावा करें कि परमेश्वर के घर में कोई प्रेम नहीं है और उनके साथ अनुचित व्यवहार किया जा रहा है, तो यह हठपूर्वक पश्चात्ताप न करने का एक संकेत है, और उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। इन लोगों के गड़बड़ी करने और बाधा पहुँचाने का मूल कारण क्या है? क्या ऐसा इसलिए है कि उन्होंने जानबूझकर गड़बड़ी करने और बाधा डालने की योजना बनाई है? नहीं, इसका मुख्य कारण यह है कि उन्हें सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं है और उनकी मानवता बहुत बुरी है। इनमें से कुछ व्यक्तियों में थोड़ी-सी काबिलियत होती है और वे सत्य को समझ सकते हैं, लेकिन वे सत्य को तनिक भी नहीं स्वीकारते, इसका अभ्यास करना तो दूर की बात है। उनकी मानवता अत्यंत अधम है। वे चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे हमेशा गड़बड़ियाँ पैदा कर बाधा डाल रहे होते हैं, कलीसिया के कार्य को छिन्न-भिन्न कर रहे होते हैं और भयंकर प्रभाव वाले कई प्रतिकूल परिणाम ला रहे होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये लोग छद्म-विश्वासी हैं, ये सभी बुरे लोग हैं। मुख्यतः यही कारण है कि उन्हें निकाल दिया जाता है। अब ज्यादातर लोग छद्म-विश्वासियों को पहचान सकते हैं। इन व्यक्तियों के विभिन्न व्यवहार देखकर उन्हें गुस्सा आता है। इन लोगों को परमेश्वर में विश्वास करने वाला कैसे माना जा सकता है? वे शैतान के सेवक हैं जिन्हें कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करने और बाधा डालने के लिए भेजा गया है। कुछ लोग निपट मुफ्तखोर हैं, वे आरामतलब और काम से जी चुराने वाले लोगों में से होते हैं; वे कोई काम नहीं करना चाहते, फिर भी रोजाना अच्छे से खाना चाहते हैं। क्या वे परजीवी नहीं हैं? वे पहरेदार कुत्तों से भी घटिया हैं। इस तरह इन लोगों को निकाल दिया गया है। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्य निभाने के इच्छुक और उत्सुक होते हैं। भले ही ज्यादातर लोग यह नहीं जानते कि वास्तव में कर्तव्य का क्या अर्थ है, वे अपने हृदय में कम-से-कम इतना तो जानते ही हैं कि लोगों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और वे इसके इच्छुक होते हैं। लेकिन क्या अपने कर्तव्य निभाने का इच्छुक होने का यह मतलब है कि व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर रहा है? क्या इस आंतरिक इच्छा का मतलब यह है कि उसने अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाए हैं? कदापि नहीं। यह माने जाने के लिए कि उसने अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभा लिए हैं, व्यक्ति को सत्य व्यवहार में लाना होगा और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के मानक पूरे करने होंगे। इससे पहले कि तुम सत्य को अमल में ला चुके हो, तुम चाहे अपने में कितनी ही आस्था होने का दावा करो, या तुम अपने को कितना भी उत्सुक और इच्छुक बताओ—जैसे कि तुम अपनी जान जोखिम में डालने में सक्षम हो, आग और पानी से गुजरने से भी नहीं झिझकते हो—ये सब सिर्फ नारे हैं और इनसे कोई मकसद हल नहीं होता। इस इच्छा के आधार पर तुम्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार भी कार्य करना चाहिए। तुम कहते हो, “सत्य मुझे वास्तव में पसंद नहीं है, न ही मैं इसका अनुसरण करता हूँ, और अपने कर्तव्य निभाते हुए मेरे स्वभाव में बहुत बदलाव नहीं आया है। लेकिन एक बात पर मैं कायम रहता हूँ : मुझे जो भी करने को कहा जाता है, वह करता हूँ। मैं गड़बड़ी नहीं करता, बाधा नहीं डालता; हो सकता है कि मैं समर्पण न कर पाऊँ, लेकिन मैं सुनता अवश्य हूँ।” जो ऐसा कर सकता है क्या उसे कलीसिया में बने रहने और सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभाने का मौका नहीं मिलेगा? लेकिन जिन बुरे लोगों और छद्म-विश्वासियों को हटा दिया गया, वे इस न्यूनतम अपेक्षा को भी पूरा नहीं कर सके, और उन्होंने गड़बड़ियाँ भी फैलाई। ऐसे छद्म-विश्वासियों या बुरे लोगों को अपने कर्तव्य निभाने के लिए कलीसिया में बने रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को छद्म-विश्वासियों और बुरे लोगों का भेद पहचानना आना चाहिए; अन्यथा, वे आसानी से उनसे गुमराह हो जाएँगे। हर विवेकशील और तार्किक व्यक्ति को छद्म-विश्वासियों और बुरे लोगों को नकारने का रवैया अपनाना चाहिए।

अपने कर्तव्य निभाना परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। सबसे पहले, व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि कर्तव्य क्या है और फिर धीरे-धीरे इसका वास्तविक अनुभव और समझ हासिल करनी चाहिए। अपने कर्तव्य के प्रति किसी व्यक्ति का कम-से-कम क्या रवैया होना चाहिए? यदि तुम कहते हो कि “यह कर्तव्य मुझे परमेश्वर के घर ने दिया है, इसलिए यह मेरा कर्तव्य है। मैं इसे जैसे चाहूँ वैसे कर सकता हूँ, क्योंकि यह मेरा सरोकार है और इसमें कोई दखल नहीं दे सकता” तो क्या यह स्वीकार्य रवैया है? बिल्कुल भी नहीं। यदि अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा रवैया ऐसा है, तो तुम मुसीबत में हो, क्योंकि तुम्हारा रवैया सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। तुम्हारा रवैया सत्य खोजने के बजाय जो चाहो वो करने का है, परमेश्वर से भय मानने वाला हृदय होने की तो बात ही दूर है। यदि कोई व्यक्ति बहुत ही मनमौजी है तो वह अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने उचित कार्य के प्रति कुछ हद तक लापरवाह होगा। अपना कर्तव्य निभाते समय लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? उनमें परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसे संतुष्ट करने की इच्छा होनी चाहिए। यदि वे परमेश्वर का सौंपा आदेश पूरा नहीं करते हैं तो उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर को निराश किया है; और यदि उन्होंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया है, तो उन्हें लगता है कि वे मानव कहलाने योग्य नहीं हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय इस प्रकार का रवैया अपनाना तुम्हें वफादार बनाता है। अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए तुम्हें सबसे पहले यह जानना होगा कि परमेश्वर क्या माँग करता है, सत्य खोजना होगा और सिद्धांत खोजने होंगे। एक बार जब तुमने यह सुनिश्चित कर लिया कि परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश दिया है वही तुम्हारा कर्तव्य है तो तुम्हें यह सोचना और खोजना चाहिए, “मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह कैसे निभा सकता हूँ? मुझे किन सत्य सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए? परमेश्वर लोगों से क्या माँग करता है? मुझे क्या काम करना चाहिए? मुझे कार्य कैसे करना चाहिए ताकि मैं अपनी जिम्मेदारियाँ निभाऊँ और वफादार रहूँ?” तुम किसके प्रति वफादार हो? परमेश्वर के प्रति। तुम्हें परमेश्वर के प्रति वफादार रहना चाहिए और दूसरे लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से कायम रहना चाहिए। अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से कायम रहने का क्या मतलब है? उदाहरण के लिए, यदि तुम्हें एक-दो साल के लिए कोई कर्तव्य सौंपा गया है, लेकिन अभी तक किसी ने तुम्हारी जाँच नहीं की है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि कोई पूछताछ नहीं करता है तो क्या इसका मतलब है कि कर्तव्य खत्म हो गया है? नहीं। इस बात पर कोई ध्यान मत दो कि कोई तुम्हारी जाँच करता है या नहीं, कोई तुम्हारे काम का निरीक्षण करता है या नहीं; यह कार्य तुम्हें सौंपा गया था, इसलिए यह तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुम्हें यह सोचना चाहिए कि यह काम कैसे करना है और इस काम को कैसे बेहतर ढंग से किया जा सकता है और इसी तरह तुम्हें इसे करना चाहिए। यदि तुम हमेशा इसी इंतजार में रहते हो कि दूसरे तुमसे पूछताछ करें, वे तुम्हारा पर्यवेक्षण करें और तुम्हें कार्य करने को प्रेरित करें तो क्या इस तरह का रवैया तुम्हारे कर्तव्य में होना चाहिए? यह किस तरह का रवैया है? यह नकारात्मक रवैया है; तुम्हें अपने कर्तव्य में इस तरह का रवैया नहीं रखना चाहिए। यदि तुम यह रवैया अपनाते हो तो तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन निश्चित रूप से मानक स्तर का नहीं होगा। मानक-स्तरीय ढंग से कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास सबसे पहले एक उचित रवैया होना चाहिए और तुम्हारा रवैया सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की गारंटी देने का यही एकमात्र तरीका है।

कर्तव्य क्या होता है, कर्तव्य के प्रति व्यक्ति का रवैया क्या है, साथ ही अपना कर्तव्य निभाने और किसी भी प्रकार के सांसारिक कार्य में संलग्न होने में अंतर क्या होता है, इन विषयों पर हमारी संगति फिलहाल यहीं समाप्त होने वाली है। संगति के दौरान बताई गई बातों पर तुम सबको विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिए, अपना कर्तव्य निभाने और अपना खुद का उद्यम चलाने के संबंध पर चर्चा क्यों की गई? इन विषयों पर चर्चा का वांछित परिणाम क्या है? सकारात्मक पहलू से, यह चर्चा लोगों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए सही मार्ग, सही दिशा और सही सिद्धांत प्रदान कर सकती है। नकारात्मक पहलू से, यह चर्चा लोगों को यह पहचानने में भी मदद कर सकती है कि कौन-कौन सा व्यवहार अपना खुद का उद्यम चलाना माना जाता है। ये दोनों पहलू आपस में जुड़े हुए भी हैं तो एक दूसरे से भिन्न भी हैं। इन दोनों पहलुओं को समझने का मतलब सत्य के शब्दों को समझने के बारे में नहीं है; तुम्हें यह समझना होगा कि इनमें कौन-सी मनोदशाएँ और अभिव्यक्तियाँ शामिल होती हैं। एक बार इन मनोदशाओं और अभिव्यक्तियों की पूरी समझ पा लेने और इन्हें पहचान सकने के बाद अगली बार जब तुम ये गलत मनोदशाएँ और अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करोगे तो तुम यहाँ से निकलने का रास्ता तलाशने के लिए सत्य खोजोगे, बशर्ते तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो। यदि तुम सत्य के इस पहलू को नहीं समझते हो तो तुम यह सोचकर अपना खुद का उद्यम चला सकते हो कि तुम स्वयं को परमेश्वर के लिए खपा रहे हो, और यहाँ तक कि यह भी मान सकते हो कि तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो और बहुत समर्पित हो। सत्य को न समझने से ऐसे दुष्परिणाम उत्पन्न होंगे। उदाहरण के लिए, अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया के दौरान जब तुम्हारे कुछ विचार व तौर-तरीके और तुम्हारे क्रियाकलापों के पीछे के इरादे व उद्देश्य प्रकट होते हैं तो तुम्हें एहसास होता है कि तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे हो और अपने कर्तव्य निभाने के सिद्धांतों व दायरे से पहले ही भटक चुके हो; प्रकृति बदल चुकी है और तुम वास्तव में अपना खुद का उद्यम चला रहे हो। जब तुम इन सत्यों को समझोगे, केवल तभी तुम यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ़ सकोगे और ऐसे विचारों, क्रियाकलापों और अभिव्यक्तियों पर पूर्ण-विराम लगा पाओगे। लेकिन यदि तुम सत्य को नहीं समझते और अपना कर्तव्य निभाते समय अपना खुद का उद्यम चलाते रहते हो तो इस तथ्य से बेखबर रहोगे कि तुम सिद्धांतों का उल्लंघन तो पहले ही कर चुके हो। उदाहरण के लिए, पौलुस की तरह जो इतने वर्षों तक काम और भाग-दौड़ करने के बाद अंत में परमेश्वर पर चिल्लाकर बोला, “यदि तुम मुझे मुकुट नहीं देते हो, तो तुम परमेश्वर नहीं हो!” तुम देख लो, उसके मुँह से तब भी ऐसे शब्द निकल गए। यदि लोग आज सत्य को समझने के बाद भी पौलुस के मार्ग पर चलते हैं तो वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करता है तो फिर तुम्हारे लिए सत्य को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। सत्य को समझे बिना तुम निश्चित रूप से एक शैतानी स्वभाव के आधार पर जी रहे हो। बहुत हुआ तो तुम बस कुछ विनियमों का पालन कर लोगे और प्रत्यक्ष दुराचार करने से बच लोगे, फिर भी यह सोचोगे कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। यह काफी दयनीय बात हो जाएगी। इसलिए यदि कोई सत्य का अनुसरण करना चाहता है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने को अपना लक्ष्य बनाता है तो उसे पहले सत्य को समझना होगा। सत्य को समझने का उद्देश्य यह है कि लोग अन्य लोगों और घटनाओं को सटीक रूप से समझ सकें, विवेकवान बनें, उनके पास कार्य के सिद्धांत हों, वे अभ्यास का मार्ग अपनाएँ और परमेश्वर के प्रति समर्पण करें। जब तुम सत्य को समझ जाते हो, तो तुम तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों को पहचान सकते हो, अभ्यास का सही मार्ग चुन सकते हो, सिद्धांतों के अनुसार बोल और कार्य कर सकते हो, अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो। यदि तुम सत्य को नहीं समझते तो तुम जिस मार्ग पर चलोगे वह निश्चित रूप से गलत होगा, तुम्हें कोई जीवन प्रवेश नहीं मिलेगा, न ही तुम बचाए जा सकोगे। कुछ लोग अपना भेष बदलने में खासे माहिर होते हैं, ऐसे दिखते हैं जैसे वे सत्य का अनुसरण कर रहे हों, लेकिन उनके कार्यकलापों में कोई सिद्धांत नहीं होता है और वे जो कुछ भी करते हैं उससे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ खड़ी होने से कलीसिया के कार्य में बहुत परेशानी पैदा होती है; ऐसे लोगों को बचाया नहीं जा सकता। इसलिए बार-बार धर्मोपदेश सुनने और बार-बार परमेश्वर के वचन खाने-पीने का उद्देश्य खानापूरी करना या दिल को समृद्ध करना नहीं है, न ही यह खुद को धर्म-सिद्धांतों से लैस करना या वाक्पटुता का अभ्यास करना है; इसका उद्देश्य स्वयं को सत्य से सुसज्जित करना और सत्य की समझ प्राप्त करना है। अभी जो चर्चा की गई थी उसमें परमेश्वर को जानने के सत्य के संदर्भ में वाकई ज्यादा गहराई नहीं है; यह तो सबसे बुनियादी सत्य है। सत्य के बारे में लोगों की समझ सीमित होने के साथ ही अलग-अलग गहराई लिए होती है और यह व्यक्ति की काबिलियत पर निर्भर करती है। कुछ लोग इसे अधिक गहराई से समझते हैं; यानी उनमें समझने की क्षमता होती है। अन्य लोग काफी सतही तौर पर समझते हैं। किसी व्यक्ति की समझ की गहराई चाहे जो भी हो, सबसे महत्वपूर्ण बात है सत्य का अभ्यास। लेकिन सत्य को छोटे-बड़े, तुच्छ-महान में नहीं बाँटा जा सकता है, न ही इसे उथले-गहरे में बाँटा जा सकता है। यानी सत्य को सबसे बुनियादी या सबसे प्राथमिक श्रेणी में तो रखा जा सकता है, लेकिन इसे गहराई के स्तरों के आधार पर नहीं बाँटा जा सकता है; बात बस इतनी है कि लोग इसे अलग-अलग गहराई तक समझते और अनुभव करते हैं। सत्य के सार को छूने वाली हर चीज ही समान रूप से गहरी होती है और यह कोई ऐसी चीज नहीं होती जिसे कोई भी पूरी तरह अनुभव कर सके या पूरी तरह अपने पास रख सके। सत्य का चाहे कोई भी पहलू हो, लोगों को अपनी समझ और अभ्यास में सबसे उथले स्तर से शुरुआत करनी पड़ती है और फिर धीरे-धीरे उथले से गहरे की ओर बढ़कर सत्य की सच्ची समझ तक पहुँचना और वास्तविकता में प्रवेश करना पड़ता है। सत्य का सबसे उथला हिस्सा वह है जिसे शब्दशः समझा जा सकता है। यदि लोग इसका अभ्यास नहीं कर सकते या इसमें प्रवेश नहीं कर सकते तो वे केवल कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत ही समझते हैं। केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझना सत्य के सार से बहुत पीछे रह जाने की बात है। जो लोग सत्य को नहीं समझते वे शाब्दिक अर्थ समझाने की क्षमता को हमेशा सत्य को समझना मानते हैं; यह सिर्फ मानवीय अज्ञानता है। यदि तुम्हारे सत्य के अभ्यास का संबंध केवल विनियमों का पालन करने और बिना किसी सिद्धांत के उन्हें कठोरता से लागू करने से है तो मत सोचो कि यह सत्य का अभ्यास करना और वास्तविकता में प्रवेश करना है; तुम अभी भी इससे बहुत दूर हो। यदि तुम कई और वर्षों तक अभ्यास और अनुभव करना जारी रखते हो और कहीं अधिक रोशनी खोज लेते हो, जो तुम्हारे लिए कई महीनों या वर्षों तक अभ्यास और अनुभव करने के लिए पर्याप्त होगी और बाद में और भी अधिक अनुभव के साथ तुम नई रोशनी खोज सकते हो, इस तरह उथले से गहरे की ओर कदम-दर-कदम बढ़ते हो तो तुम वास्तव में सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हो। जिसने सत्य वास्तविकता में पूरी तरह प्रवेश कर लिया, समझो सिर्फ उसी ने सत्य हासिल किया है। भले ही एक दिन तुम सत्य की वास्तविकता को जी लो और भले ही यह कहा जा सके कि तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है, लेकिन हकीकत यह है कि तुमने जो अनुभव किया और जाना है वह अभी भी सीमित है। तुम यह नहीं कह सकते कि तुम सत्य हो, न ही तुम पौलुस की तरह दावा कर सकते हो कि “मेरे लिये जीवित रहना मसीह है” (फिलिप्पियों 1:21), क्योंकि सत्य बहुत गहन है और कोई अपने जीवनकाल के कई दशकों में जो कुछ अनुभव कर सकता है और समझ सकता है वह अत्यंत सीमित होता है। तो जाहिर है कि लोगों के लिए सत्य को समझना कुछ हद तक संभव है लेकिन सत्य हासिल करना किसी भी सूरत में आसान मामला नहीं है। यदि कोई सबसे उथला सत्य भी नहीं समझ सकता या इसे अभ्यास में नहीं ला सकता तो वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम नहीं करता और निश्चित रूप से उसे आध्यात्मिक समझ भी नहीं है; जो लोग सत्य के मामले में पूरी तरह से पीछे रह जाते हैं उन्हें बचाया नहीं जा सकता। जो लोग कभी सत्य को नहीं समझते वे अपने कर्तव्य भी अच्छी तरह नहीं निभा सकते; वे जीवन का कूड़ा-करकट हैं, मानव के वेश में जानवर हैं। कुछ लोग कुछ धर्म-सिद्धांत समझते हैं और सिर्फ इसी कारण उन्हें लगता है कि वे सत्य को समझते हैं। यदि वे वास्तव में कुछ सत्य समझते हैं तो फिर वे अपने कर्तव्य ठीक से क्यों नहीं निभा सकते? उनके कार्यों में कोई सिद्धांत क्यों नहीं है? इससे पता चलता है कि धर्म-सिद्धांतों को समझना बेकार है; अधिक धर्म-सिद्धांत समझने का मतलब सत्य को समझना नहीं है।

कर्तव्य के विषय पर संगति करने के बाद अब हम व्यक्ति के कर्तव्य के मानक स्तर के निर्वहन के मुद्दे पर आगे बढ़ेंगे। कर्तव्य के मानक-स्तरीय निर्वहन के संबंध में, जोर “मानक-स्तरीय” शब्द पर दिया गया है। तो, “मानक-स्तरीय” को कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? इसमें भी, तलाश करने के लिए सत्य हैं। क्या केवल काम चलाऊ कार्य करना ही मानक स्तर का है? “मानक-स्तरीय” शब्द को कैसे समझना और उस पर विचार करना है, इसके विशिष्ट विवरण के लिए, तुम्हें अनेक सत्य समझने होंगे और बहुत-से सत्यों पर और अधिक संगति करनी होगी। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान तुम्हें सत्य और सिद्धांतों को समझना चाहिए; तभी तुम कर्तव्य का मानक-स्तरीय ढंग से निर्वहन कर सकते हो। लोगों को अपने कर्तव्य क्यों निभाने चाहिए? एक बार जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसके आदेश को स्वीकार कर लेते हैं तो परमेश्वर के घर के कार्य में और परमेश्वर के कार्य के स्थान में जिम्मेदारी और दायित्व में लोगों की भी हिस्सेदारी होती है और इस जिम्मेदारी और दायित्व के कारण वे बदले में परमेश्वर के कार्य का एक भाग, उसके कार्य के प्राप्तकर्ताओं में से एक और उसके उद्धार के प्राप्तकर्ताओं में से एक बन गए हैं। लोगों के उद्धार का इस बात से खासा संबंध है कि वे अपने कर्तव्य कैसे निभाते हैं, क्या वे इन्हें अच्छे से निभा सकते हैं और क्या वे इन्हें मानक-स्तरीय ढंग से निभा सकते हैं। चूँकि तुम परमेश्वर के घर का एक हिस्सा बन गए हो और तुमने उसका आदेश स्वीकार कर लिया है, तुम्हारे पास अब एक कर्तव्य है। यह बताना तुम्हारा काम नहीं है कि यह कर्तव्य कैसे निभाया जाना चाहिए; यह बताना परमेश्वर का कार्य है, यह बताना सत्य का कार्य है, और यह सत्य के मानकों से तय होता है। इसलिए लोगों को यह जानना, समझना चाहिए और इस बात पर स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर लोगों के कर्तव्यों का आकलन कैसे करता है, वह उनका आकलन किस आधार पर करता है—खोजने के लिए यह भी एक सार्थक चीज है। परमेश्वर के कार्य में, अलग-अलग लोगों को अलग-अलग कर्तव्य मिलते हैं। अर्थात अलग-अलग प्रतिभा, काबिलियत, उम्र और स्थिति वाले लोगों को अलग-अलग समय पर अलग-अलग कर्तव्य मिलते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें क्या कर्तव्य मिला है, और कब और किन परिस्थितियों में मिला है, तुम्हारा कर्तव्य केवल एक जिम्मेदारी और दायित्व है जिसे तुम्हें पूरा करना है, यह तुम्हारा उद्यम नहीं है, तुम्हारा व्यवसाय तो यह बिल्कुल भी नहीं है। तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन के लिए परमेश्वर इस मानदंड की माँग करता है कि यह “मानक स्तर का” हो। “मानक स्तर का” होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे उतरना और उसकी संतुष्टि हासिल करना। यह परमेश्वर को अवश्य कहना चाहिए कि यह मानक स्तर का है और इसे उसकी स्वीकृति मिलनी चाहिए। तभी तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का होगा। यदि परमेश्वर कहता है कि यह मानक स्तर का नहीं है तो तुम चाहे जितने समय से अपना कर्तव्य निभा रहे हो या चाहे तुमने जितनी भी कीमत चुकाई हो, यह मानक स्तर का नहीं है। तो फिर नतीजा क्या होगा? यह सब श्रम की श्रेणी में रखा जाएगा। लगन वाले श्रमिकों का एक छोटा-सा वर्ग ही जीवित रह पाएगा। यदि लोग श्रम करने के प्रति समर्पित नहीं हैं तो उनके बचे रहने की कोई आशा नहीं है। स्पष्ट रूप से कहूँ तो वे विनाशों में नष्ट हो जाएँगे। यदि कोई कर्तव्य निभाते समय कभी भी मानक स्तर का नहीं होता है तो उससे कर्तव्य निर्वहन का अधिकार छीन लिया जाएगा। यह अधिकार छिन जाने के बाद कुछ लोग दरकिनार कर दिए जाएँगे। दरकिनार कर दिए जाने के बाद उन्हें अलग तरीकों से सँभाला जाएगा। क्या “अलग तरीकों से सँभालने” का मतलब निकाल दिया जाना है? यह जरूरी नहीं है। परमेश्वर मुख्य रूप से यह देखता है कि किसी व्यक्ति ने पश्चात्ताप किया है या नहीं। इसलिए तुम अपना कर्तव्य निर्वहन कैसे करते हो यह महत्वपूर्ण है, और लोगों को इसे गंभीरता व कर्तव्यनिष्ठा से लेना चाहिए। चूँकि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन सीधे तौर पर तुम्हारे जीवन प्रवेश और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश के साथ ही तुम्हारे उद्धार और तुम्हें पूर्ण बनाए जाने जैसे महत्वपूर्ण मामलों से संबंधित है, इसलिए परमेश्वर में अपने विश्वास में तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन को सर्वोपरि मामला मानकर इससे पेश आना चाहिए। तुम इसके बारे में अविवेकपूर्ण नहीं हो सकते। अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में भिन्न-भिन्न लोग भाँति-भाँति के व्यवहार प्रदर्शित करेंगे। ये भिन्न-भिन्न व्यवहार लोगों को ही नहीं बल्कि परमेश्वर को भी दिखाई देते हैं। कर्तव्य निभाने वाले लोगों को अंक देने और उनका मूल्यांकन करने का काम सिर्फ कलीसिया ही नहीं करती है; अंततः परमेश्वर भी उन सबका मूल्यांकन कर उन्हें अंक देता है। कुछ लोग मूलतः मानक स्तर के हैं, जबकि अन्य बिल्कुल नहीं हैं। कुछ लोग जो मानक स्तर के नहीं हैं वे अभी भी निगरानी में होंगे, जबकि कुछ परमेश्वर द्वारा पहले ही निरूपित किए जा चुके होंगे। वे कौन लोग हैं जिन्हें परमेश्वर मानक स्तर का नहीं मानता है? ये वे लोग हैं जिनमें खराब मानवता है और जिनमें अंतरात्मा और विवेक की कमी है, जो लगातार अनमने होकर अपने कर्तव्य निभाते हैं। उन्हें परमेश्वर का चाहे कितना ही अनुग्रह क्यों न मिल जाए, वे प्रतिदान करने के बारे में नहीं सोचते और कृतज्ञता रहित होते हैं। बेशक इसमें स्वाभाविक रूप से बुरे लोग भी शामिल हैं। यह कहा जा सकता है कि कोई भी व्यक्ति जिसमें खराब मानवता है और कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं है वह अपने कर्तव्य निभाने में मानक स्तर का नहीं है। जो लोग स्पष्ट रूप से बुरे हैं वे अपने कर्तव्य निभाते समय अनिवार्य रूप से अनगिनत बुरे कर्म करेंगे। जब तक उन्हें बाहर नहीं निकाला जाएगा, वे बुराई करते रहेंगे। ऐसे लोगों को तुरंत बाहर निकाल देना चाहिए। निःसंदेह, ऐसे भी कुछ लोग हैं जिनमें मानवता की कुछ झलक दिखती है और जो बुरे नहीं दिखते हैं लेकिन वे अनमने होकर कर्तव्य निभाते हैं और कोई नतीजे नहीं दे पाते। काट-छाँट होने और सत्य पर संगति प्राप्त करने के बाद यह इस पर निर्भर करेगा कि अंततः वे कैसा प्रदर्शन करते हैं और उन्होंने ईमानदारी से पश्चात्ताप किया है या नहीं। ऐसे लोगों के लिए परमेश्वर अभी भी प्रतीक्षा और अवलोकन कर रहा है। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिनकी मानवता खराब है और जिनमें अंतरात्मा और विवेक की कमी है, साथ ही जो स्पष्ट रूप से बुरे हैं, परमेश्वर उनके बारे में पहले ही एक फैसले पर पहुँच चुका है और उन्हें निरूपित कर चुका है—उन्हें पूरी तरह से निकाल दिया जाना है।

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