अपने कर्तव्य का मानक स्तर का निर्वहन क्या है? (भाग एक)
पिछली सभा के दौरान हमारी संगति का मुख्य विषय यह था कि न्याय और ताड़ना स्वीकार कर व्यक्ति को पूर्ण बनाए जाने के लिए चार बुनियादी शर्तें हैं। तो ये चार बुनियादी शर्तें क्या हैं? (पहली शर्त है कर्तव्य का मानक-स्तरीय ढंग से निर्वहन। दूसरी है परमेश्वर के प्रति समर्पण की मानसिकता होना। तीसरी है मूलतः एक ईमानदार व्यक्ति होना। और चौथी शर्त है पश्चात्ताप करने वाला हृदय रखना।) इनमें हर शर्त में कुछ विवरण के साथ ही ठोस अभ्यास और विशिष्ट संदर्भ हैं। इन चारों विषयों पर दरअसल वर्षों से चर्चा होती रही है। अगर आज हम फिर से इनके बारे में बात करें तो क्या इसे पुरानी बात दोहराना माना जाएगा? (नहीं।) ऐसा क्यों नहीं माना जाएगा? क्योंकि इन चार शर्तों में, प्रत्येक में सत्य और जीवन प्रवेश की वास्तविकता अंतर्निहित है, जो कभी समाप्त न होने वाला विषय है। अधिकतर लोग अभी तक सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के बिंदु तक नहीं पहुँचे हैं; वे केवल सत्य का सतही अर्थ समझते हैं, वे केवल कुछ सरल धर्म-सिद्धांत समझते हैं। भले ही वे कुछ वास्तविकताओं पर संगति कर लेते हैं, फिर भी वे सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने के मानक तक नहीं पहुँच पाते। इसलिए सत्य का चाहे कोई भी पहलू सामने हो, इस पर बार-बार संगति की जानी चाहिए और इसे बार-बार सुना जाना चाहिए। इस तरह विभिन्न सत्यों के बारे में लोगों की समझ उनके वास्तविक अनुभव के माध्यम से गहरी होती जाएगी और उनके अनुभव अधिक सटीक होते जाएँगे।
न्याय और ताड़ना स्वीकार करके मनुष्य को पूर्ण बनाए जाने के लिए हमने अभी-अभी चार बुनियादी शर्तों का सारांश बताया। आइए, अब हम अपनी चर्चा की शुरुआत पहली शर्त से करते हैं : कर्तव्य का मानक-स्तरीय ढंग से निर्वहन। कुछ लोग कहते हैं : “पिछले दो वर्षों में सभी चर्चाएँ कर्तव्य निर्वहन के बारे में ही हुई हैं; खासकर, कर्तव्य का निर्वहन कैसे करना है, इसका ठीक से निर्वहन कैसे करना है, इसका निर्वहन करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना है—मेरा हृदय इन चीजों की रग-रग से वाकिफ है, ये और अधिक स्पष्ट नहीं हो सकती हैं। और पिछले कुछ वर्षों से मेरा दैनिक जीवन पूरी तरह उन सत्यों के इर्द-गिर्द रहा है, जो कर्तव्य निर्वहन से जुड़े हैं। जब से मैंने कर्तव्य निभाना शुरू किया है, मैंने इससे संबंधित सत्यों को खोजा है, खाया-पीया है और सुना है, और अब भी इसी विषय पर चर्चा हो रही है। मैं इसे अपने हृदय में बहुत पहले ही समझ चुका हूँ; क्या यह वाकई अपने कर्तव्य का ठीक से निर्वहन नहीं है? क्या पूर्व में उल्लिखित उन सिद्धांतों का पालन ही कर्तव्य का मानक-निर्वहन नहीं है? अपने परमेश्वर प्रभु से अपने पूरे हृदय से, पूरे प्राण से, पूरे मन से और सारी शक्ति से प्रेम करो; सिद्धांत खोजो, अपनी इच्छा के अनुसार कार्य मत करो और अपना कर्तव्य निभाते समय सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करो; कर्तव्य निर्वहन को जीवन प्रवेश के साथ समान गति से आगे बढ़ाओ—बस यही पर्याप्त है।” तुम लोग अपने दैनिक जीवन में जिन चीजों का सामना और अनुभव करते हो, वे केवल यही विषय हैं, इसलिए तुम लोग बस इतना ही समझते हो। तुम लोग चाहे कितना भी समझते होगे, हमें फिर भी इस सत्य पर चर्चा करने की आवश्यकता है। यदि कोई बात दोहराई जाती है, तो इससे तुम्हें भी फायदा ही होगा और तुम लोग उस पर दोबारा चिंतन कर सकते हो; यदि इस पर पहले चर्चा नहीं की गई है, तो इसे ग्रहण करो। चाहे यह दोहराव हो या न हो, तुम्हें इसे ध्यान से सुनना चाहिए। विचार करो कि इसमें कौन-से सत्य शामिल हैं, क्या इन सत्यों से तुम लोगों के जीवन प्रवेश में कोई फायदा है और क्या ये मानक-स्तरीय ढंग से कर्तव्य निभाने में तुम लोगों की मदद कर सकते हैं। इसलिए मानक स्तर के कर्तव्य निर्वहन के विषय पर फिर से चर्चा करना वास्तव में आवश्यक है।
व्यक्ति के मानक स्तर के कर्तव्य निर्वहन के संबंध में आओ थोड़ी देर “मानक स्तर के” को अलग रखकर पहले इस बारे में बात करते हैं कि कर्तव्य क्या है। अंत तक पहुँचते-पहुँचते तुम लोगों को पता चल जाएगा कि कर्तव्य क्या है, किसे “मानक स्तर का” माना जाता है और कैसे कर्तव्य निभाया जाना चाहिए; तुम्हें मानक-स्तरीय ढंग से कर्तव्य निभाने के लिए अभ्यास का मार्ग मिल जाएगा। तो कर्तव्य क्या है? (कर्तव्य वह है जिसे करने के लिए परमेश्वर मनुष्य को सौंपता है, यह वह चीज है जो एक सृजित प्राणी को करनी चाहिए।) यह कथन केवल आधा सही है। सैद्धांतिक तौर पर इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन करीब से जाँच करने पर यह व्याख्या अधूरी है; इसमें एक पूर्व शर्त होनी चाहिए। आइए इस विषय पर गहराई से विचार करते हैं। प्रत्येक विश्वासी और अविश्वासी के लिए, वे अपना जीवन कैसे जीते हैं, वे इस मानव संसार में क्या करते हैं, और उनके जीवन की नियति क्या है—क्या ये सब चीजें परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित नहीं हैं? (हाँ, ये हैं।) उदाहरण के लिए, कुछ लोग इस दुनिया में संगीत से जुड़ते हैं। संगीत रचना उनके जीवन का मिशन है; क्या यह मिशन उनका कर्तव्य माना जा सकता है? (नहीं।) कुछ लोगों ने दुनिया में असाधारण चीजें की हैं, पूरी मानवजाति को प्रभावित किया है, योगदान दिया है और यहाँ तक कि युग-परिवर्तन भी किया है; यह उनके जीवन का मिशन है। क्या जीवन का यह मिशन उनका कर्तव्य माना जा सकता है? (नहीं।) लेकिन जीवन का यह मिशन और उन्होंने अपने जीवनकाल में जो किया है वह, क्या उन्हें परमेश्वर द्वारा नहीं सौंपा गया है? क्या एक सृजित प्राणी को यह नहीं करना चाहिए? (हाँ।) यह सही है। परमेश्वर ने उन्हें एक मिशन दिया है, उन्हें यह आदेश सौंपा है, और, संपूर्ण मानवजाति के भीतर, स्वयं मानवजाति का एक हिस्सा होते हुए, उनके पास कुछ है जो उन्हें करना चाहिए, उनके पास एक जिम्मेदारी है जो उन्हें निभानी चाहिए। वे चाहे किसी भी क्षेत्र—कला, व्यवसाय, राजनीति, अर्थशास्त्र, वैज्ञानिक अनुसंधान इत्यादि—में संलग्न हों, ये सभी परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत हैं। लेकिन एक बात का अंतर है; परमेश्वर ने इसे चाहे कैसे भी पूर्वनियत किया हो, ये लोग परमेश्वर के प्रबंधन कार्य से बाहर हैं। उन्हें अविश्वासी माना जाता है और वे जो करते हैं वह परमेश्वर के प्रबंधन कार्य से बाहर है। तो क्या उनकी जिम्मेदारियों को, उनके द्वारा स्वीकार किए गए आदेश और उनके जीवन के मिशन को कर्तव्य कहा जा सकता है? (नहीं।) वे कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे जो कुछ करते हैं उसका मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के कार्य से कोई संबंध नहीं है। इस संसार में सभी मनुष्य सृष्टिकर्ता के आदेश और मिशन को निष्क्रिय रूप से स्वीकारते हैं, लेकिन परमेश्वर में विश्वास न करने वाले लोग जिस मिशन को स्वीकारते हैं और जो जिम्मेदारियाँ निभाते हैं वे कर्तव्य नहीं हैं, क्योंकि उनका मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना से कोई संबंध नहीं है और वे उसका कोई हिस्सा नहीं हैं। वे परमेश्वर को नहीं स्वीकारते और परमेश्वर उन पर कार्य नहीं करता है, इसलिए चाहे वे कोई भी जिम्मेदारी लें, कोई भी आदेश स्वीकार करें या इस जीवन में कोई भी मिशन पूरा करें, यह नहीं कहा जा सकता कि वे अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं। तो कर्तव्य क्या है? इस अवधारणा और इससे संबंधित सत्य को स्पष्ट, सटीक और समग्र ढंग से समझाने के लिए किस प्रकार की पूर्वापेक्षाएँ जोड़ी जानी चाहिए? क्या तुम लोगों ने अभी-अभी हमारी संगति से कोई अवधारणा समझी है? कौन-सी अवधारणा? मानवजाति में किसी भी व्यक्ति के, चाहे उसने कितना भी महान मिशन स्वीकार किया हो या उसने जिस स्तर का भी परिवर्तन किया हो या मानवजाति के लिए उसका कितना भी योगदान रहा हो, ऐसे मिशन और आदेशों को कर्तव्य नहीं कहा जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनका मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना से कोई संबंध नहीं है; वे महज मिशन हैं। ऐसे लोग चाहे सक्रिय रूप से कार्य करें या निष्क्रिय रूप से, वे केवल एक मिशन पूरा कर रहे हैं; यह परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है। दूसरे शब्दों में, जब तक उनके कार्यों का परमेश्वर की प्रबंधन योजना से और मानवता को बचाने के परमेश्वर के कार्य से कोई लेना-देना नहीं है, तब तक ऐसे मिशन पूरे करना कर्तव्य निर्वहन नहीं कहा जा सकता है। यह निश्चित है, सभी संदेहों से परे। तो कर्तव्य क्या है? इसे इस प्रकार समझना चाहिए : कर्तव्य मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के दायरे में उसके द्वारा दिया गया आदेश और मिशन है। क्या इसे इस तरह से कहना पूर्ण और सटीक नहीं है? केवल वही सत्य है जो सटीक है; जो सटीक नहीं है और एकांगी है वह सत्य नहीं है, बल्कि महज सिद्धांत है। कर्तव्य को पूरी तरह समझे पहचाने बिना तुम नहीं जान पाओगे कि कर्तव्य से संबंधित सत्य क्या है। पहले, लोगों को कर्तव्य की समझ में कई गलतफहमियाँ रही होंगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने सत्य को नहीं समझा, जिसके कारण सभी प्रकार की धारणाएँ और अस्पष्टताएँ पैदा हुईं। फिर लोगों ने इन धारणाओं और अस्पष्टताओं का उपयोग कर्तव्य समझाने के लिए किया और बाद में वे इसके साथ इन विचारों के आधार पर पेश आए। उदाहरण के लिए, कुछ लोग सोचते हैं कि चूँकि व्यक्ति का पूरा जीवन परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है—वह किस प्रकार के परिवार में पैदा हुआ है, अमीर है या गरीब है, कौन-सी आजीविका अपनाता है, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है—तो वह अपने जीवनकाल में जो कुछ भी करता है और जो कुछ भी हासिल करता है वे सभी परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश हैं और उसके मिशन हैं। सिर्फ इसलिए क्योंकि इसमें एक मिशन शामिल है, लोग सोचते हैं कि यह कर्तव्य है। वे भ्रम में पड़कर इसे कर्तव्य मानते हैं—क्या यह गलतफहमी नहीं है? कुछ लोग, जो शादी करते हैं और बच्चे पैदा करते हैं, कहते हैं : “बच्चे पैदा करना परमेश्वर का आदेश है जो उसने हमें सौंपा है, यह हमारा मिशन है। अपने बच्चों को वयस्क होने तक बड़ा करना हमारा कर्तव्य है।” क्या यह समझ गलत नहीं है? और कुछ दूसरे लोग कहते हैं : “हमें इस धरती पर खेती करने के लिए रखा गया है। चूँकि यही हमारी नियति है, बेहतर होगा कि हम इसमें अच्छा काम करें, क्योंकि यह परमेश्वर का आदेश और हमारा मिशन है। चाहे हम कितने भी गरीब हो जाएँ या चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, हम शिकायत नहीं कर सकते। इस जीवन में अच्छे से खेती करना हमारा कर्तव्य है।” वे व्यक्ति के भाग्य को उसके मिशन और कर्तव्य के बराबर मानते हैं। क्या यह गलतफहमी नहीं है? (है।) यह वाकई एक गलतफहमी है। और दुनिया में व्यवसाय करने वाले कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं : “मैं पहले किसी भी चीज में सफल नहीं हुआ, लेकिन व्यवसाय करने के बाद जीवन काफी अच्छा और स्थिर हो गया है। ऐसा लगता है कि परमेश्वर ने मेरे लिए इस जीवनकाल में व्यवसाय करना और इसके माध्यम से अपने परिवार का भरण-पोषण करना ही पूर्वनियत किया है। इसलिए इस जीवनकाल में अगर मैं व्यवसाय में अच्छा प्रदर्शन करता हूँ और अपने कामकाज का विस्तार करता हूँ, अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य का भरण-पोषण करता हूँ, तो यह मेरा मिशन है, और शायद यह मिशन मेरा कर्तव्य है।” क्या यह गलतफहमी नहीं है? लोग मिशन से संबंधित सभी चीजों—अपने रोजमर्रा के मामलों, आजीविका के तरीकों, जीवन शैली और जीवन की गुणवत्ता जिसका वे आनंद लेते हैं—को अपना कर्तव्य मानते हैं। यह गलत है; यह कर्तव्य की विकृत समझ है।
तो फिर कर्तव्य क्या है? अधिकांश लोगों की इस मामले की समझ में कुछ विचलन निहित होते हैं और यह समझ कुछ विकृत होती है। यदि परमेश्वर का घर तुम्हारे लिए अनाज और सब्जियाँ उगाने की व्यवस्था करता है तो इस व्यवस्था के साथ तुम कैसे पेश आते हो? कुछ लोग शायद इसे नहीं समझ पाते और कहते हैं : “खेती तो अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए है; यह कर्तव्य नहीं है। कर्तव्य की अवधारणा में यह पहलू शामिल नहीं है।” वे चीजों को इस तरह क्यों समझते हैं? क्योंकि वे न तो कर्तव्य निभाने से जुड़े सत्यों को समझते हैं, न ही यह समझते हैं कि कर्तव्य क्या है। यदि लोग सत्य के इस पहलू को समझ लेते हैं, तो वे खेत पर जाकर काम करने के लिए तैयार हो जाएँगे। वे जान जाएँगे कि परमेश्वर के घर में खेती उनके परिवार का भरण-पोषण करने के लिए नहीं की जाती है, बल्कि इसलिए की जाती है ताकि जो लोग पूरे समय कर्तव्य का निर्वहन करते हैं वे इसका निर्वहन सामान्य रूप से जारी रख सकें। वास्तव में यह भी एक परमेश्वर का आदेश है; यह कार्य अपने आप में शायद राई के दाने जितना या रेत के एक कण जितना भी महत्वपूर्ण न हो लेकिन यह परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के दायरे में उत्पन्न काम है, चाहे इसका महत्व कुछ भी हो। परमेश्वर अब कहता है कि तुम्हें यह काम पूरा करना है—तुम इसे कैसे लोगे? तुम्हें इसे अपने कर्तव्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए और बिना कोई बहाना बनाए इसे स्वीकार करना चाहिए। यदि तुम निष्क्रिय तरीके से समर्पण करके खेत में काम करने जाते हो क्योंकि तुम्हारे लिए यही व्यवस्था की गई है, तो इससे काम नहीं चलेगा। यहाँ एक सिद्धांत है जिसे तुम्हें अवश्य समझना चाहिए : कलीसिया तुम्हारे लिए खेती का काम करने और साग-सब्जियाँ लगाने की व्यवस्था इसलिए नहीं कर रहा है कि तुम अमीर बन सको या अपना गुजारा कर सको और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सको; यह विनाशों के समय परमेश्वर के घर में कार्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए है। यह यह सुनिश्चित करने के लिए है कि जो लोग पूरे समय परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाते हैं, उन्हें दैनिक भरण-पोषण मिलता रहे ताकि वे परमेश्वर के घर के कार्य में देरी किए बिना सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभा सकें। इसलिए कुछ लोगों को जो कलीसिया के खेत में खेती कर रहे हैं, अपना कर्तव्य निभाते हुए माना जाता है; यह सामान्य किसानों की खेती से अलग है। सामान्य किसानों के लिए खेती की प्रकृति क्या है? सामान्य किसान अपने परिवार का भरण-पोषण करने और जीवित रहने के लिए खेती करते हैं; परमेश्वर ने उनके लिए यही पूर्वनियत किया है। यह उनकी नियति है, इसलिए वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी खेती करते हैं; इसका उनके कर्तव्य से कोई लेना-देना नहीं है। अब, तुम परमेश्वर के घर आ गए हो और खेती भी कर रहे हो, लेकिन यह परमेश्वर के घर के कार्य की आवश्यकता है; यह परमेश्वर के लिए खपने का एक रूप है। यह तुम्हारी अपनी जमीन पर खेती करने से अलग प्रकृति का है। यह अपनी जिम्मेदारियों और उत्तरदायित्वों को पूरा करने के बारे में है। यह वह कर्तव्य है जिसका हर व्यक्ति को निर्वहन करना चाहिए; यह सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें सौंपा गया आदेश और जिम्मेदारी है। तुम्हारे लिए यह तुम्हारा कर्तव्य है। तो इस कर्तव्य की तुलना तुम्हारे सांसारिक मिशन से की जाए तो अधिक महत्वपूर्ण कौन-सा है? (मेरा कर्तव्य।) ऐसा क्यों है? कर्तव्य वह है जिसकी परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है, जो उसने तुम्हें सौंपा है—एक कारण तो यही है। दूसरा, प्राथमिक कारण यह है कि जब तुम परमेश्वर के घर में कर्तव्य निर्वहन करते हुए परमेश्वर का आदेश स्वीकारते हो, तो तुम परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के लिए प्रासंगिक हो जाते हो। परमेश्वर के घर में, जब भी तुम्हारे लिए कोई व्यवस्था की जाती है, चाहे वह कठिन हो या थका देने वाला काम हो, और चाहे वह तुम्हें पसंद हो या नहीं, वह तुम्हारा कर्तव्य है। अगर तुम उसे परमेश्वर द्वारा दिया गया आदेश और जिम्मेदारी मान सकते हो, तो तुम मनुष्य को बचाने के उसके कार्य के लिए प्रासंगिक हो। और अगर तुम जो करते हो और जो कर्तव्य निभाते हो, वे मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य के लिए प्रासंगिक हैं, और तुम परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश को गंभीरता और ईमानदारी से स्वीकार कर सकते हो, तो वह तुम्हें कैसे देखेगा? वह तुम्हें अपने परिवार के सदस्य के रूप में देखेगा। यह आशीष है या शाप? (आशीष।) यह एक बड़ा आशीष है। कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाने के दौरान थोड़ी-सी कठिनाई झेलने पर शिकायत करते हैं। यह बेखबर होकर आशीषों में जीना है! किसी कर्तव्य को अच्छे से निभाने और परमेश्वर की महिमा बताने के लिए कठिनाई सहने को परमेश्वर द्वारा याद रखा जाएगा। तुम अपने कर्तव्य को निभाते समय चाहे जो भी कठिनाई सहते हो, इसमें परमेश्वर का आशीष होता है और परमेश्वर तुम्हारी पड़ताल कर रहा होता है। अगर तुम परमेश्वर पर निर्भर रहना या उसकी ओर देखना नहीं जानते हो और थोड़ी-सी कठिनाई सहने पर भी परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो और अपना कार्य छोड़ना चाहते हो तो क्या तुम मूर्खता नहीं कर रहे हो? यह एक परम मूर्ख होना है। इस बिंदु पर, सत्य को समझना महत्वपूर्ण है, यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि यह तुम्हारा कर्तव्य है और इसे परमेश्वर से स्वीकार किया जाना चाहिए। अब, क्या तुम लोगों के पास कोई नई समझ या नई अंतर्दृष्टि है कि कर्तव्य क्या है? क्या तुमने इसे गहराई से समझ लिया है? क्या उद्धार प्राप्ति के लिए कर्तव्य महत्वपूर्ण है? (बिल्कुल।) यह कितना महत्वपूर्ण है? कहा जा सकता है कि कर्तव्य निर्वहन और उद्धार प्राप्ति के बीच सीधा संबंध है। इस जीवन में तुम चाहे जो भी मिशन पूरा कर लो, यदि तुमने अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं किया, तो तुम्हारा उद्धार प्राप्ति से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरे शब्दों में, अन्य मनुष्यों के बीच इस जीवन में तुमने चाहे कितनी भी बड़ी उपलब्धि हासिल की हो, तुम बस एक मिशन पूरा कर रहे थे; तुमने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा नहीं किया है, इसलिए उद्धार प्राप्ति या मानव जाति के प्रबंधन हेतु परमेश्वर के कार्य से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है।
परमेश्वर के घर में परमेश्वर का आदेश स्वीकारने और इंसान के कर्तव्य-निर्वहन का निरंतर उल्लेख होता है। कर्तव्य कैसे अस्तित्व में आता है? आम तौर पर कहें, तो यह मानवता का उद्धार करने के परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आता है; विशिष्ट रूप से कहें तो जब परमेश्वर का प्रबंधन कार्य मानवजाति के बीच खुलता है, तब ऐसे विभिन्न कार्य सामने आते हैं जिनके लिए यह जरूरत पड़ती है कि लोग अपने हिस्से का काम करें और उसे पूरा करें। इससे जिम्मेदारियाँ और मिशन उपजते हैं, जिन्हें लोगों को पूरा करना है और यही जिम्मेदारियाँ और मिशन वे कर्तव्य हैं जो परमेश्वर मानवजाति को सौंपता है। परमेश्वर के घर में जिन विभिन्न कार्यों में लोगों को अपने हिस्से का काम करने की आवश्यकता है, वे ऐसे कर्तव्य हैं जिन्हें उन्हें पूरा करना चाहिए। तो, क्या बेहतर और बदतर, बहुत ऊँचा और नीचा या महान और छोटे के अनुसार कर्तव्यों के बीच अंतर होता है? ऐसे अंतर नहीं होते; यदि किसी चीज का परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के साथ कोई लेना-देना हो, उसके घर के काम की आवश्यकता हो, और परमेश्वर के सुसमाचार-प्रचार को उसकी आवश्यकता हो, तो यह व्यक्ति का कर्तव्य होता है। यह कर्तव्य की उत्पत्ति और परिभाषा है। परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के बिना, क्या पृथ्वी के लोगों के पास—चाहे वे कैसे भी रहते हों—कर्तव्य होंगे? नहीं। अब तुम स्पष्ट रूप से समझ पा रहे हो। व्यक्ति का कर्तव्य किससे संबंधित है? (यह मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के प्रबंधन कार्य से संबंधित है।) सही कहा। मानवजाति के कर्तव्यों, सृजित प्राणियों के कर्तव्यों और मानवजाति के उद्धार के परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में एक प्रत्यक्ष संबंध है। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उद्धार के बिना और उस प्रबंधन कार्य के बिना जो देहधारी परमेश्वर ने मनुष्यों के बीच आरंभ किया है, लोगों के पास बताने के लिए कोई कर्तव्य न होता। कर्तव्य परमेश्वर के कार्य से उत्पन्न होते हैं; यही परमेश्वर लोगों से चाहता है। इसे इस परिप्रेक्ष्य से देखते हुए परमेश्वर का अनुसरण करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए कर्तव्य महत्वपूर्ण है, है ना? यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। मोटे तौर पर, तुम परमेश्वर की प्रबंधन योजना के काम में हिस्सा ले रहे हो; खासतौर पर, तुम परमेश्वर के विभिन्न प्रकार के कामों में सहयोग कर रहे हो, जिनकी अलग-अलग समय और लोगों के अलग-अलग समूहों के बीच आवश्यकता है। भले ही तुम्हारा कर्तव्य जो भी हो, यह परमेश्वर ने तुम्हें एक लक्ष्य दिया है। कभी-कभी शायद तुम्हें किसी महत्वपूर्ण वस्तु की देखभाल या सुरक्षा करने की जरूरत पड़ सकती है। यह अपेक्षाकृत एक नगण्य-सा मामला हो सकता है जिसे केवल तुम्हारी जिम्मेदारी कहा जा सकता है, लेकिन यह एक ऐसा कार्य है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है; इसे तुमने परमेश्वर से स्वीकार किया है। तुमने इसे परमेश्वर के हाथों से स्वीकार किया है और यह तुम्हारा कर्तव्य है। मुद्दे की बात करें तो तुम्हारा कर्तव्य तुम्हें परमेश्वर ने सौंपा है। इसमें मुख्य रूप से सुसमाचार का प्रचार करना, गवाही साझा करना, वीडियो बनाना, कलीसिया में अगुआ या कार्यकर्ता बनना शामिल है, या यह ऐसा काम हो सकता है जो और भी जोखिम भरा और महत्वपूर्ण हो। चाहे जो हो, जब तक इसका संबंध परमेश्वर के कार्य और सुसमाचार फैलाने के कार्य की आवश्यकता से है, तब तक लोगों को इसे परमेश्वर से प्राप्त कर्तव्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए। इसे और भी व्यापक शब्दों में कहें तो कर्तव्य व्यक्ति का लक्ष्य होता है, परमेश्वर द्वारा सौंपा गया आदेश होता है; खासतौर पर, यह तुम्हारा दायित्व है, तुम्हारी बाध्यता है। ऐसा मानते हुए कि यह तुम्हारा लक्ष्य है, परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया आदेश है, तुम्हारा दायित्व और बाध्यता है, कर्तव्य निर्वहन का तुम्हारे व्यक्तिगत मामलों से कोई लेना-देना नहीं है। कर्तव्य का व्यक्तिगत मामलों से कोई लेना-देना नहीं है—यह विषय क्यों उठाया जा रहा है? क्योंकि लोगों को यह समझना होगा कि अपने कर्तव्य के प्रति अपना व्यवहार कैसे करना चाहिए और उसे कैसे समझना है। कर्तव्य वह आदेश है जिसे सृजित प्राणी स्वीकार करते हैं और वह मिशन है जिसे उन्हें परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के दायरे में पूरा करना चाहिए। लोग समग्र आधार तो जानते हैं, लेकिन क्या वे सूक्ष्म विवरण के बारे में भी जानते हैं? व्यक्ति को अपने कर्तव्यों से किस प्रकार पेश आना चाहिए ताकि उसे सही समझ वाला माना जा सके? कुछ लोग अपने कर्तव्य को अपना निजी मामला मानते हैं; क्या यह सही सिद्धांत है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? अपने लिए कुछ करना अपना कर्तव्य पूरा करना नहीं है। अपना कर्तव्य पूरा करना अपने लिए कुछ करना नहीं है, बल्कि वह कार्य करना है जो परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है—दोनों में अंतर है। जब अपने लिए कुछ करने की बात आती है तो इसका सिद्धांत क्या है? यह दूसरों से परामर्श किए बिना, और परमेश्वर से प्रार्थना किए बिना या उसकी खोज किए बिना वही करना है जो तुम करना चाहते हो; यह तुम्हारी अपनी मर्जी से, परिणाम की परवाह किए बिना तब तक कार्य करना है जब तक इससे तुम्हें लाभ होता है। क्या यह सिद्धांत परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए स्वीकार्य है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं : “मैं अपने मामलों को भी उतनी गंभीरता से नहीं लेता या उतना प्रयास नहीं करता। मैं अपने कर्तव्य को ऐसे मानता हूँ जैसे यह मेरा अपना व्यवसाय हो, और यह सिद्धांत निश्चित रूप से उपयुक्त है।” क्या यह कर्तव्य स्वीकार करने का सही तरीका है? निश्चित रूप से नहीं। तो फिर कर्तव्य के प्रति व्यक्ति का रवैया क्या होना चाहिए? (इसे परमेश्वर से स्वीकार करो।) “इसे परमेश्वर से स्वीकार करो।” ये पाँच शब्द कहने में आसान हैं लेकिन इनमें निहित सत्य को वास्तव में अभ्यास में लाया जाए, यह इस पर निर्भर करता है कि तुम अपने कर्तव्य के प्रति कैसे पेश आते हो। अभी हमने परिभाषित किया कि कर्तव्य क्या है। कर्तव्य परमेश्वर से आता है, यह परमेश्वर द्वारा सौंपा गया एक आदेश है, यह उसकी प्रबंधन योजना और मनुष्य के उद्धार कार्य से संबंधित है। इस दृष्टिकोण से क्या कर्तव्य का तुम्हारे आचरण के व्यक्तिगत सिद्धांतों से कोई लेना-देना है? क्या इसका तुम्हारी निजी प्राथमिकताओं, जीवन की आदतों या जीवन की दिनचर्या से कोई लेना-देना है? कतई नहीं। तो फिर कर्तव्य का संबंध किससे है? इसका संबंध सत्य से है। कुछ लोग कहते हैं : “चूँकि यह कर्तव्य मुझे सौंपा गया है, तो यह मेरा अपना मामला है। और मेरे पास कर्तव्य निर्वहन का सर्वोच्च सिद्धांत है, जो तुम लोगों में से किसी के पास नहीं है। परमेश्वर चाहता है कि लोग अपने कर्तव्य को पूरे हृदय, प्राण, दिमाग और शक्ति से पूरा करें। लेकिन इसके अलावा मेरे पास एक और भी ऊँचा सिद्धांत है : अपने कर्तव्य को ऐसे मानना जैसे यह मेरी अपनी चिंता का प्रमुख विषय हो, और इसे लगन से करना और सर्वोत्तम परिणाम के लिए प्रयास करना।” क्या यह सिद्धांत सही है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? यदि तुम परमेश्वर से अपना कर्तव्य स्वीकार करते हो और अपने हृदय में तुम स्पष्ट हो कि वह इसे तुम्हें सौंपता है, तो तुम्हें इस आदेश से कैसे पेश आना चाहिए? इसका संबंध कर्तव्य निर्वहन के सिद्धांतों से है। क्या कर्तव्य को अपने व्यवसाय के बजाय परमेश्वर का आदेश मानना अधिक ऊँचा नहीं है? ये दोनों बातें एक नहीं हैं, हैं क्या? यदि तुम अपने कर्तव्य को परमेश्वर के आदेश के रूप में, परमेश्वर के समक्ष अपना कर्तव्य पूरा करने के रूप में, और कर्तव्य-पालन के माध्यम से परमेश्वर को संतुष्ट करने के रूप में मानते हो, तो कर्तव्य पालन का तुम्हारा सिद्धांत इसे केवल अपना निजी व्यवसाय मानना नहीं है। अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए, जिसे कि सही और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कहा जा सके? पहली बात, तुम यह विश्लेषण नहीं कर सकते कि उसकी व्यवस्था किसने की है, उसे किस स्तर की अगुआई द्वारा सौंपा गया है—तुम्हें उसे परमेश्वर की ओर से स्वीकार करना चाहिए। तुम इसका विश्लेषण नहीं कर सकते, तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए। यह एक शर्त है। इसके अलावा, तुम्हारा चाहे जो भी कर्तव्य हो, उसमें ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो। मान लो तुम कहते हो, “हालाँकि यह काम परमेश्वर का आदेश और परमेश्वर के घर का कार्य है, पर यदि मैं इसे करूँगा, तो लोग मुझे नीची निगाह से देख सकते हैं। दूसरों को ऐसा काम मिलता है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। मुझे यह काम दिया गया है, जो मुझे विशिष्ट नहीं बनाता, बल्कि परदे के पीछे मुझसे कड़ी मेहनत करवाता है, यह अनुचित है! मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा। मेरा कर्तव्य वह होना चाहिए, जो मुझे दूसरों के बीच खास बनाए और मुझे प्रसिद्धि दे—और अगर प्रसिद्धि न भी दे या खास न भी बनाए, तो भी मुझे इससे लाभ होना चाहिए और शारीरिक आराम मिलना चाहिए।” क्या यह कोई स्वीकार्य रवैया है? मनमर्जी से चुनना परमेश्वर से आई चीजों को स्वीकार करना नहीं है; यह अपनी पसंद के अनुसार विकल्प चुनना है। यह अपने कर्तव्य को स्वीकारना नहीं है; यह अपने कर्तव्य से इनकार करना है, यह परमेश्वर के खिलाफ तुम्हारी विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति है। इस तरह मनमर्जी से चुनने में तुम्हारी निजी पसंद और इच्छाओं की मिलावट होती है। जब तुम अपने लाभ, अपनी ख्याति आदि को महत्त्व देते हो, तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी नहीं होता। कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? पहले तो तुम्हें यह पता लगाने की कोशिश में कि वह कौन था जिसने तुम्हें यह सौंपा था, इसका विश्लेषण नहीं करना चाहिए; इसके बजाय तुम्हें इसे परमेश्वर के आदेश और अपने कर्तव्य के रूप में परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं की आज्ञा माननी चाहिए, और परमेश्वर से अपने कर्तव्य को ग्रहण करना चाहिए। दूसरे, ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो, और उसकी प्रकृति के बारे में न सोचो, क्या वह तुम्हें लोगों के बीच खास बनाता है, यह सभी के सामने किया जाता है या पर्दे के पीछे। इन चीजों पर गौर मत करो। एक और रवैया भी है : समर्पण और सक्रिय सहयोग। अगर तुम्हें लगता है कि तुम किसी कार्य-विशेष को कर सकते हो, लेकिन तुम गलती करने और निकाल दिए जाने से डरते भी हो, इसलिए तुम दब्बू और स्थिर रहो और प्रगति नहीं कर सकते, तो क्या यह आज्ञाकारी रवैया है? उदाहरण के लिए, यदि भाई-बहन तुम्हें अपना अगुआ चुन लेते हैं, तो तुम अपने चुने जाने के कारण इस कर्तव्य को निभाने के लिए बाध्य महसूस करते हो, लेकिन तुम उस कर्तव्य को सक्रिय रवैये से स्वीकार नहीं करते। तुम सक्रिय क्यों नहीं होते? क्योंकि उसके बारे में तुम्हारे कुछ विचार होते हैं, तुम्हें लगता है, “अगुआ होना बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। यह तलवार की धार पर चलने या बर्फ की पतली तह पर चलने जैसा है। अच्छा काम करने पर मुझे कोई इनाम तो नहीं मिलेगा, लेकिन खराब काम करने पर मेरी काट-छाँट की जाएगी। काट-छाँट होना फिर भी सबसे बुरा नहीं है। लेकिन अगर मुझे बर्खास्त कर दिया गया या हटा दिया गया तो क्या होगा? अगर ऐसा हुआ, तो क्या मेरा अंत नहीं हो जाएगा?” ऐसी स्थिति में तुम दुविधाग्रस्त हो जाते हो। यह कैसा रवैया है? यह रक्षात्मक रवैया और गलतफहमी है। अपने कर्तव्य के प्रति लोगों का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए। यह एक नकारात्मक रवैया है। तो सकारात्मक रवैया कैसा होना चाहिए? (हमें खुले दिल वाला और स्पष्टवादी होना चाहिए, और दायित्व उठाने का साहस रखना चाहिए।) यह समर्पण और सक्रिय सहयोग वाला रवैया होना चाहिए। तुम लोग जो कहते हो वह थोड़ा-सा खोखला है। जब तुम इस तरह इतने डरे हुए हो, तो खुले दिल वाले और स्पष्टवादी कैसे हो सकते हो? और दायित्व उठाने का साहस रखने का क्या अर्थ है? कौन-सी मानसिकता तुम्हें दायित्व उठाने का साहस देगी? यदि तुम हमेशा डरते रहते हो कि कुछ गलत हो जाएगा और मैं इसे सँभाल नहीं पाऊँगा, और तुम्हारे पास कई अंदरूनी बाधाएँ हैं, तो तुममें दायित्व उठाने के साहस की मौलिक रूप से कमी होगी। तुम जिस “खुले दिल वाले और स्पष्टवादी होने,” “दायित्व उठाने का साहस रखने,” या “मौत के सामने भी कभी पीछे नहीं हटने” की बात करते हो, वह कुछ हद तक आक्रोश से भरे युवाओं की नारेबाजी जैसा लगता है। क्या ये नारे व्यावहारिक समस्याओं का समाधान कर सकते हैं? अब जरूरत है सही रवैये की। सही रवैया रखने के लिए तुम्हें सत्य के इस पहलू को समझना होगा। तुम्हारी अंदरूनी कठिनाइयाँ हल करने का एकमात्र तरीका यही है, और यह तुम्हें इस आदेश, इस कर्तव्य को आसानी से स्वीकार करने देता है। यह अभ्यास का मार्ग है, और केवल यही सत्य है। यदि तुम अपना डर भगाने के लिए “खुले दिल वाले और स्पष्टवादी होने” और “दायित्व उठाने का साहस रखने” जैसे शब्दों का उपयोग करोगे, तो क्या यह प्रभावी होगा? (नहीं।) इससे जाहिर होता है कि ये बातें सत्य नहीं हैं, न ही ये अभ्यास का मार्ग हैं। तुम कह सकते हो, “मैं खुले दिल वाला, स्पष्टवादी और अदम्य व्यक्तित्व वाला हूँ, मेरे मन में कोई अन्य विचार या दूषित तत्त्व नहीं हैं, और मुझमें दायित्व उठाने का साहस है।” बाहरी तौर पर तो तुम अपने कर्तव्य स्वीकारते हो, लेकिन बाद में, कुछ देर विचार करने पर तुम्हें अभी भी लगता है कि तुम इसे अपने कंधे पर नहीं ले सकते। तुम्हें अभी भी डर लग सकता है। इसके अलावा, तुम दूसरों की काट-छाँट होते देखकर और भी डर जाते हो, जैसे कोई अपनी ही परछाई से डरता है। तुम्हें लगातार लगता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और यह कर्तव्य एक विशाल, अगाध खाई की तरह है, और अंततः तुम इस दायित्व को अपने कंधे पर नहीं ले पाओगे। इसलिए नारेबाजी करने से व्यावहारिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। तो तुम वास्तव में इस समस्या को कैसे हल कर सकते हो? तुम्हें सक्रियता से सत्य खोजना चाहिए और समर्पण और सहयोग का रवैया अपनाना चाहिए। इससे समस्या पूरी तरह हल हो सकती है। दब्बूपन, डर और चिंता फिजूल हैं। तुम्हें बेनकाब कर निकाल दिया जाएगा या नहीं, क्या इसका तुम्हारे अगुआ होने से कोई संबंध है? अगर तुम एक अगुआ नहीं हो तो क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव लुप्त हो जाएगा? देर-सवेर, तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करना होगा। साथ ही, अगर तुम एक अगुआ नहीं हो, तो तुम्हें अभ्यास के लिए ज्यादा अवसर नहीं मिलेंगे और तुम जीवन में धीमी प्रगति करोगे, और तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने की संभावनाएँ कम होंगी। हालाँकि एक अगुआ या कार्यकर्ता होने पर थोड़ा ज्यादा कष्ट उठाना पड़ता है, पर इससे कई लाभ भी मिलते हैं, और अगर तुम सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चल सकते हो, तो तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो। यह कितना बड़ा आशीष है! इसलिए तुम्हें समर्पित होना चाहिए और सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए। यह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है। आगे का मार्ग कैसा भी हो, तुम्हारा दिल आज्ञापालन करने वाला होना चाहिए। इसी रवैये के साथ तुम्हें अपने कर्तव्य का निर्वहन करना चाहिए।
अपने कर्तव्य निर्वहन के विषय से कोई भी व्यक्ति अपरिचित नहीं है; यह कोई नया विषय नहीं है। लेकिन जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उनके लिए यह विषय बहुत महत्वपूर्ण है; यह एक ऐसा सत्य है जिसे समझना और उसमें प्रवेश करना जरूरी है। सृष्टिकर्ता की स्वीकृति पाने से पहले सृजित प्राणियों को अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाने चाहिए। इसलिए लोगों का यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि कर्तव्य निर्वहन का क्या मतलब है। कर्तव्य निर्वहन किसी तरह का सिद्धांत नहीं है, न ही कोई नारा है; यह सत्य का ही एक पहलू है। तो कर्तव्य निर्वहन का क्या मतलब है? और सत्य के इस पहलू को समझकर किन समस्याओं का समाधान किया जा सकता है? कम-से-कम यह इस मामले को तो हल कर ही सकता है कि कैसे तुम्हें परमेश्वर का आदेश स्वीकारना और इससे पेश आना चाहिए और परमेश्वर का आदेश पूरा करते समय किस प्रकार का रवैया और संकल्प रखना चाहिए। तुम यह भी कह सकते हो कि लगे हाथ यह लोगों और परमेश्वर के बीच कुछ असामान्य संबंधों को भी हल करेगा। कुछ लोग अपने कर्तव्य निर्वहन को पूँजी के रूप में देखते हैं, कुछ इसे अपने व्यक्तिगत कार्यों के रूप में देखते हैं तो कुछ इसे अपने खुद के कार्य और उपक्रमों के रूप में देखते हैं या एक तरह के मनबहलाव, मनोरंजन या शौक के रूप में देखते हैं। संक्षेप में कहें तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा चाहे जो रवैया हो, अगर तुम इसे परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते और अगर तुम इसे एक ऐसा कार्य नहीं मानते जिसे परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के भीतर एक सृजित प्राणी को करना चाहिए या जिसके साथ उसे सहयोग करना चाहिए, तो फिर तुम जो कर रहे हो उसे कर्तव्य निभाना नहीं कहेंगे। क्या अपने कर्तव्य को अपना पारिवारिक व्यवसाय मानना उचित है? क्या इसे अपने रोजगार या शौक का हिस्सा मानना उचित है? क्या इसे निजी मामला मानना उचित है? तुम्हारे लिए इनमें से कोई भी बात उचित नहीं है। इन विषयों का उल्लेख करना क्यों आवश्यक है? इन विषयों पर संगति करने से किस समस्या का समाधान होगा? इससे अपने कर्तव्य के प्रति गलत रवैया अपनाने की समस्या का समाधान हो जाएगा और उन असंख्य तरीकों का समाधान हो जाएगा जिनसे लोग अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं। कर्तव्य निर्वहन से जुड़े सत्य के इस पहलू को समझकर ही अपने कर्तव्य के प्रति लोगों का रवैया बदलेगा। उनका रवैया धीरे-धीरे सत्य के अनुकूल हो जाएगा, यह परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करेगा और उसके इरादों के अनुरूप होगा। यदि लोग अपने कर्तव्य निर्वहन से जुड़े सत्य के इस पहलू को नहीं समझते तो अपने कर्तव्य के प्रति उनके रवैये और इसके पीछे के सिद्धांतों में समस्याएँ खड़ी होंगी और वे कर्तव्य निर्वहन के नतीजे हासिल नहीं कर पाएँगे। कर्तव्य परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपे गए काम हैं; वे लोगों द्वारा पूरा करने के लिए मिशन हैं। लेकिन, कर्तव्य तुम्हारा व्यक्तिगत उद्यम तो कतई नहीं है, न यह भीड़ में अलग दिखने की सीढ़ी है। कुछ लोग कर्तव्यों का उपयोग अपना खुद का उद्यम चलाने और गुट बनाने के अवसरों के रूप में करते हैं; कुछ अपनी इच्छाएँ पूरी करने के लिए करते हैं; कुछ अपने अंदर का खालीपन भरने के लिए करते हैं; और कुछ अपनी भाग्य-भरोसे रहने वाली मानसिकता को संतुष्ट करने के लिए करते हैं यह सोचकर कि जब तक वे अपने कर्तव्य निभाते रहेंगे, तब तक परमेश्वर के घर में और परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए व्यवस्थित अद्भुत गंतव्य में उनका भी एक हिस्सा होगा। कर्तव्य के बारे में इस तरह के रवैये गलत हैं; परमेश्वर इनसे घृणा करता है और इनका तत्काल समाधान किया जाना चाहिए।
कर्तव्य क्या है, लोगों को अपने कर्तव्य के साथ कैसे पेश आना चाहिए और कर्तव्य के प्रति उनके रवैये और दृष्टिकोण क्या होने चाहिए, इन मामलों पर पहले ही बहुत संगति की जा चुकी है। तुम सभी को इन पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए; इन पहलुओं की सच्चाई समझना सबसे महत्वपूर्ण और जरूरी है। वह कौन-सा सत्य है जिसे तुम लोगों को अभी इस वक्त समझने की सबसे अधिक आवश्यकता है? एक लिहाज से, तुम्हें इस पहलू में दर्शनों से संबंधित सत्य समझने की जरूरत है; दूसरे लिहाज से, तुम्हें यह समझने की जरूरत है कि इन सत्यों को लेकर तुम्हारे अभ्यास और वास्तविक जीवन में कहाँ-कहाँ गलतफहमी और विकृत समझ है। जब तुम कर्तव्य निर्वहन के सत्यों से जुड़े मुद्दों का सामना करते हो, तब यदि ये वचन और सत्य तुम्हारी आंतरिक मनोदशा हल कर सकते हैं, तो यह साबित होता है कि तुमने संगति की विषयवस्तु को वास्तव में और पूरी तरह से समझ लिया है; यदि अपने कर्तव्य निर्वहन में रोज सामने आने वाली कठिनाइयों का समाधान ये नहीं कर सकते तो यह दर्शाता है कि तुमने इन सत्यों में प्रवेश नहीं किया है। ये सत्य सुनने के बाद क्या तुम लोगों ने इनका निचोड़ तैयार कर इन पर चिंतन किया है? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि हर बार अपनी टिप्पणी दर्ज करते वक्त तुम इसे समझ लेते हो लेकिन समय बीतने के साथ भूल जाते हो, मानो तुमने इन्हें कभी सुना ही न हो? (बिल्कुल होता है।) ऐसा इसलिए है कि तुम लोगों में प्रवेश का कतई अभाव है; तुम लोग जो अभ्यास करते हो मूल रूप से उसका इन सत्यों से कोई लेना-देना नहीं है और यह सत्य से पूर्णतः असंबद्ध है। वास्तव में, कर्तव्य निर्वहन के बारे में ये सबसे बुनियादी सत्य हैं जिन्हें व्यक्ति को समझना चाहिए और परमेश्वर में विश्वास करने की प्रक्रिया में इनमें प्रवेश करना चाहिए। यदि सत्य के वचन सुनने के बाद भी तुम भ्रमित और गड़बड़झाला रहते हो तो वास्तव में तुम्हारी काबिलियत बहुत कम है और तुम्हारा कोई आध्यात्मिक कद नहीं है। तुम केवल परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हो, केवल प्रार्थना कर सकते हो और सभाओं में भाग ले सकते हो; बिल्कुल किसी धार्मिक विश्वास में संलग्न व्यक्ति की तरह तुम जो कहा जाए बस वो करते हो। इसका मतलब है कि तुम्हारे पास कोई भी जीवन प्रवेश नहीं है, तुम्हारा कोई आध्यात्मिक कद नहीं है। कोई आध्यात्मिक कद न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में, जैसे ही कोई तुम्हें गुमराह करता है तुम उसका अनुसरण कर परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर देते हो; यदि कुछ गलत कर बैठने पर कोई तुम्हारी थोड़ी-सी काट-छाँट करता है, तुमसे तनिक कठोरता से बात करता है, तो तुम अपना विश्वास छोड़ सकते हो; यदि तुम्हारे जीवन में असफलताएँ या तरह-तरह की कठिनाइयाँ आती हैं तो शायद तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत कर सकते हो, और जब तुम देखते हो कि वह तुम्हें अनुग्रह नहीं दे रहा है या तुम्हारी कठिनाइयों का समाधान नहीं कर रहा है, तो तुम विश्वास करना बंद कर परमेश्वर का घर छोड़ सकते हो। यदि तुमने कर्तव्य निर्वहन के सत्य के कुछ पहलुओं में प्रवेश कर लिया है—जो सबसे मौलिक सत्य है—तो यह साबित होता है कि तुम पहले से ही सत्य से जुड़े हुए हो; तुम पहले से ही सत्य वास्तविकता से जुड़े हुए हो और कुछ प्रवेश कर चुके हो। यदि तुम्हारे पास इस सत्य वास्तविकता का नाममात्र भी नहीं है, रत्ती भर भी नहीं है, तो यह साबित करता है कि सत्य ने अभी तक तुम्हारे दिल में जड़ें नहीं जमाई हैं।
लोगों को यह समझाने के लिए कि कर्तव्य वास्तव में क्या होता है, मैंने अभी-अभी कर्तव्य और इसके उद्गम और उद्भव के बारे में संगति की। इसे जानने से क्या लाभ हैं? जब लोग कर्तव्य की सच्चाई समझ लेंगे तो वे कर्तव्य का महत्व जानेंगे। कम-से-कम, अंदर से उन्हें लगेगा कि कर्तव्य के प्रति उनका सही रवैया होना चाहिए और उन्हें मनमाने ढंग से पेश नहीं आना चाहिए। उनके मन में कम-से-कम यह अवधारणा रहेगी। भले ही कर्तव्य वह है जिसे तुम्हें पूरा निभाना चाहिए और यह तुम्हें परमेश्वर से मिला आदेश और मिशन है, फिर भी यह तुम्हारा व्यक्तिगत मामला नहीं है, न ही यह तुम्हारा अपना काम है। यह बात विरोधाभासी लग सकती है, लेकिन यही सत्य है। सत्य जो भी हो उसका एक व्यावहारिक पक्ष होता है और यह लोगों के अभ्यास और प्रवेश के साथ-साथ परमेश्वर की अपेक्षाओं से जुड़ा होता है। यह खोखला नहीं होता है। सत्य ऐसा ही होता है; केवल अनुभव करने और इस सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने से ही तुम सत्य के इस पहलू को अधिकाधिक समझ सकते हो। यदि तुम हमेशा सत्य पर सवाल उठाते हो, संदेह करते रहते हो और जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते रहते हो, तो सत्य कभी भी तुम्हारे लिए सत्य नहीं होगा। यह तुम्हारे वास्तविक जीवन से असंबद्ध होगा और तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं बदल पाएगा। यदि कोई अपने दिल की गहराई से सत्य स्वीकारता है और इसे जीवन जीने और कार्य करने के लिए, स्वयं के आचरण और परमेश्वर में विश्वास के लिए एक मार्गदर्शक मानता है तो सत्य उसका जीवन बदल देगा। यह उसके जीवन लक्ष्य, उसके जीवन की दिशा और दुनिया के साथ उसके मिलने-जुलने के तरीके बदल देगा। यही सत्य का असर है। कर्तव्य क्या है, यह समझने से लोगों को अपना कर्तव्य निभाने में निश्चित रूप से बहुत लाभ होगा और मदद मिलेगी। कम-से-कम उन्हें पता चल जाएगा कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले हर व्यक्ति के लिए कर्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है और यह उन लोगों के लिए तो और भी अधिक महत्वपूर्ण है जो बचाए जाने और पूर्ण किए जाने में रुचि रखते हैं या जो ये चीजें हासिल करने की विशिष्ट अपेक्षाएँ या आकांक्षाएँ रखते हैं। यह सबसे बुनियादी सत्य है जिसे हर व्यक्ति को खुद को बचाए जाने के लिए समझना चाहिए और यह ऐसा सबसे बुनियादी सत्य भी है जिसमें व्यक्ति को प्रवेश करना चाहिए। यदि तुम यह नहीं समझते हो कि कर्तव्य क्या है, तो तुम नहीं जान पाओगे कि अपना कर्तव्य ठीक से कैसे पूरा किया जाए, न ही तुम अपना कर्तव्य स्वीकारने और उससे पेश आने का उचित रवैया जान पाओगे। यह खतरनाक है—एक तरफ तुम संभवतः अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाओगे और मनमाने और अनमने ढंग से पेश आओगे; दूसरी तरफ, तुम ऐसे काम कर सकते हो जो कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त करते हों या ऐसे बुरे कर्म तक कर सकते हो जो परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करते हों। इसे हल्के ढंग से कहूँ तो तुम्हें चिंतन के लिए अलग-थलग किया जा सकता है और गंभीर मामलों में तुम्हें निकाला भी जा सकता है। इसलिए कर्तव्य क्या है, यह भले ही सत्य का एक बहुत-ही बुनियादी पहलू है, यह व्यक्ति के उद्धार से संबंधित है; यह अप्रासंगिक नहीं है—यह बहुत महत्वपूर्ण है। कर्तव्य क्या है यह समझने के बाद, यह किसी धर्म-सिद्धांत से परिचित होना भर नहीं है; इसका वांछित नतीजा लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने और अपने कर्तव्य के प्रति उचित रवैये के साथ पेश आने की अनुमति देना है। कर्तव्य निभाने में केवल प्रयास करने से कोई नतीजा नहीं मिल सकता; हमेशा यह सोचना कि केवल प्रयास करने से कर्तव्य ठीक से निभाया जा सकता है, आध्यात्मिक समझ की कमी दर्शाता है। वास्तव में कर्तव्य निभाने का वास्ता कई बातों से है जिनमें सही मानसिकता, अभ्यास के सिद्धांत और सच्चे समर्पण के साथ-साथ आध्यात्मिक बुद्धि का होना भी शामिल है। जब किसी के पास सत्य के ये पहलू होते हैं, तभी वह अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकता है और अनमने ढंग से कर्तव्य निभाने की समस्या पूरी तरह हल कर सकता है। जिन लोगों में अपने कर्तव्यों के प्रति सही रवैया नहीं है, उनमें सत्य वास्तविकता नहीं है; ऐसे लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता और वे जमीर और विवेक से रहित हैं। लिहाजा परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए व्यक्ति को कर्तव्य निभाने का महत्व समझना होगा; परमेश्वर के अनुसरण के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।
यह समझने के बाद कि कर्तव्य क्या है और इसका उद्गम क्या है, तुम कर्तव्य की प्रकृति और समाज में कार्य की प्रकृति में भेद करोगे। परमेश्वर के घर से सौंपे गए कार्य को कर्तव्य मानने और इसे सांसारिक कार्य मानने में क्या अंतर है? यदि तुम इसे कर्तव्य मानते हो तो तुम्हें परमेश्वर के इरादे और सत्य खोजने की जरूरत है। तुम कहोगे, “यह मेरा कर्तव्य है तो मुझे इसे कैसे करना चाहिए? परमेश्वर की अपेक्षा क्या है? कलीसिया के नियम क्या हैं? मुझे इसके पीछे के सिद्धांत स्पष्ट रूप से जानने होंगे।” केवल इस तरह से अभ्यास करना ही अपने कर्तव्य से पेश आने का सही रवैया है; लोगों को अपने कर्तव्य के प्रति केवल यही रवैया अपनाना चाहिए। लेकिन सांसारिक कार्यों या अपने निजी जीवन के मामलों से निपटते समय लोगों को किस प्रकार का रवैया अपनाना चाहिए? क्या सत्य या सिद्धांत खोजने की कोई आवश्यकता है? तुम भी सिद्धांत खोज सकते हो, लेकिन वे केवल अधिक पैसा कमाने, अच्छा जीवन जीने, धन बटोरने, कामयाबी पाने और प्रसिद्धि और लाभ दोनों हासिल करने से जुड़े होंगे—केवल ऐसे सिद्धांत ही खोज सकते हो। ये सिद्धांत पूरी तरह से सांसारिक हैं, वर्तमान प्रवृत्तियों से संबंधित हैं; ये शैतान और इस दुष्ट मानवजाति के सिद्धांत हैं। तो कर्तव्य निर्वहन के सिद्धांत कैसे होते हैं? ये सिद्धांत निश्चित रूप से परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने वाले होने चाहिए; ये सत्य से और परमेश्वर की अपेक्षाओं से घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं और इन्हें सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं से पृथक नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत, दुनिया में लोग जिन व्यवसायों या नौकरियों में जुटे हैं, उनका सत्य या परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई सरोकार नहीं है। जब तक तुम सक्षम हो, कठिनाई सहने को तैयार हो, और मेहनती, बुरे और साहसी हो, तब तक तुम समाज में अलग पहचान बना सकते हो और अपने पेशे में बहुत तरक्की कर सकते हो। लेकिन इन सिद्धांतों और फलसफों की परमेश्वर के घर में जरूरत नहीं है। परमेश्वर के घर में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस प्रकार के कर्तव्य का निर्वहन करते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उस कर्तव्य की प्रकृति क्या है, चाहे उसे उच्च या निम्न, महान या तुच्छ माना जाता हो, चाहे वह बहुचर्चित हो या कम चर्चित हो, चाहे वह तुम्हें परमेश्वर ने सौंपा हो या कलीसिया के किसी अगुआ ने दिया हो—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर का घर तुम्हें क्या कार्य सौंपता है, तुम अपना कार्य करने में जिन सिद्धांतों का पालन करते हो, वे सत्य के सिद्धांतों से बाहर नहीं होने चाहिए। उन्हें सत्य से जुड़ा होना चाहिए, परमेश्वर की अपेक्षाओं से जुड़ा होना चाहिए, और परमेश्वर के घर के नियमों और कार्य-व्यवस्थाओं से जुड़ा होना चाहिए। संक्षेप में कहें तो अपने कर्तव्य और सांसारिक कार्य में परस्पर भेद किया जाना चाहिए।
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