अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है (भाग दो)
इसके बाद अब लोगों की काबिलियत के बारे में संगति की जाए। यह मापते समय कि किसी व्यक्ति में काबिलियत है या नहीं, देखो कि दैनिक जीवन में जो भी होता है उसमें वह परमेश्वर के इरादों और रवैये को समझ पाता है या नहीं, साथ ही क्या वह यह समझ पाता है कि उसे कौन-सी स्थिति अपनानी चाहिए, कौन-से सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और कौन-सा रवैया अपनाना चाहिए। यदि तुम इन सभी चीजों को समझने में सक्षम हो तो तुम्हारे पास काबिलियत है। यदि तुम जो समझते हो उसका परमेश्वर द्वारा तुम्हारे वास्तविक जीवन में तुम्हारे लिए बनाई गई योजनाओं से कोई सरोकार नहीं है, तो तुम्हारे पास या तो कोई काबिलियत नहीं है या तुम खराब काबिलियत वाले हो। पतरस और अय्यूब का असली आध्यात्मिक कद कैसे विकसित हुआ था, और उन्होंने आखिर परमेश्वर के प्रति अपनी आस्था में वह सब कैसे हासिल किया जो उन्हें हासिल हुआ और वह सब परिणाम कैसे पाया जो उन्हें मिला था? उनके पास वे सुविधाएँ नहीं थीं जो आज तुम लोगों के पास हैं; तुम्हारे पास सत्य पर संगति करने, तुम्हारे लिए प्रावधान करने, तुम्हें समर्थन देने और सहायता देने के लिए हमेशा कोई न कोई होता है। चीजों के पुनरीक्षण में मदद करने के लिए भी हमेशा कोई न कोई होता है। उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं था। उनके द्वारा समझे गए अधिकांश सत्य वे थे जिन्हें उन्होंने महसूस किया था, जिनसे वे गुजरे थे, जिन्हें उन्होंने धीरे-धीरे समझा-बूझा था और जिन्हें उन्होंने अपने दैनिक जीवन में अनुभव किया था। उच्च काबिलियत वाला होने का यही मतलब होता है। जब लोगों के पास इस तरह की काबिलियत नहीं होती, और उनके पास सत्य और उद्धार के प्रति यह रवैया नहीं होता, तो वे सत्य की खोज नहीं करेंगे, न ही हर चीज में सत्य का अभ्यास करने का ध्यान रखेंगे। इसके परिणामस्वरूप वे सत्य प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं। अय्यूब और पतरस की कहानियाँ सुनने के बाद ज्यादातर लोग उनसे ईर्ष्या करते हैं। परंतु, कुछ समय तक उनसे ईर्ष्या करने के बाद वे मामले को गंभीरता से नहीं लेते। उन्हें लगता है कि जब उनके साथ कुछ घटित होगा तो वे भी अय्यूब और पतरस जैसे शास्त्रीय वचन कह सकेंगे, इसलिए उन्हें लगता है कि ये चीजें आसान हैं। इन पर अभी विचार करते समय हम पाते हैं कि ये चीजें सरल नहीं हैं।
नए नियम में, चार सुसमाचारों के अलावा सबसे अधिक स्थान पौलुस के पत्रों ने लिया है। उसी अवधि के दौरान पौलुस और पतरस ने संभवतः एक ही तरह का काम किया था, लेकिन पौलुस की प्रतिष्ठा पतरस की तुलना में बहुत अधिक थी। इन दो स्थितियों से हम क्या देख सकते हैं? हम इन दोनों व्यक्तियों के मार्गों को देख सकते हैं। पौलुस के पत्रों की कई पंक्तियों को बाद की पीढ़ियों द्वारा सूत्रवाक्य के रूप में अपनाया गया और सभी ने खुद को अभिप्रेरित करने के लिए पौलुस की प्रसिद्ध कहावतों का इस्तेमाल किया। इसके परिणामस्वरूप, वे सभी गलत रास्ते पर चले गए, और कई तो मसीह-विरोधियों के मार्ग पर भी चले गए। इसके विपरीत, पतरस ने शायद ही कभी अपना सार्वजनिक प्रदर्शन किया हो। मूलतः, उसने किताबें नहीं लिखीं, किन्हीं गहन और रहस्यमय धर्मसिद्धांतों का प्रतिपादन नहीं किया, तत्कालीन भाई-बहनों को सिखाने और उनकी मदद करने के लिए उनके सामने कोई ऊँचे-ऊँचे नारे नहीं रखे और न कोई सिद्धांत दिए। उसने भावी पीढ़ियों को प्रभावित करने के कोई ऊँचे सिद्धांत भी नहीं दिए। उसने केवल व्यावहारिक और जमीनी तरीके से परमेश्वर से प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने का प्रयास किया। उन दो लोगों द्वारा अपनाए गए मार्गों में यही अंतर है। पौलुस ने अंत में मसीह-विरोधियों का मार्ग अपनाया और नष्ट हो गया, जबकि पतरस ने सत्य की खोज और परमेश्वर से प्रेम करने का मार्ग अपनाया और उसे पूर्ण बनाया गया। उनके द्वारा अपनाए गए मार्गों पर विचार करके तुम देख सकते हो कि परमेश्वर कैसे लोग चाहता है, किस तरह के लोगों को नापसंद करता है, परमेश्वर को नापसंद लोगों के खुलासे और अभिव्यक्तियाँ कैसी होती हैं, वे लोग किस तरह के रास्ते पर चलते हैं, परमेश्वर के साथ उनका संबंध कैसा होता है, और वे किन चीजों के बारे में सजग रहते हैं। क्या तुम लोग कहोगे कि पौलुस में काबिलियत थी? पौलुस की काबिलियत किस श्रेणी की थी? (वह बहुत अच्छी थी।) तुम लोगों ने बहुत सारे उपदेश सुने हैं, लेकिन फिर भी तुम उन्हें नहीं समझते। क्या पौलुस की काबिलियत को बहुत अच्छा माना जा सकता है? (नहीं, वह खराब थी।) पौलुस की काबिलियत खराब क्यों थी? (वह खुद को नहीं जानता था और उसमें परमेश्वर के वचनों की समझ नहीं थी।) ऐसा इसलिए था क्योंकि वह सत्य को नहीं समझता था। उसने भी प्रभु यीशु द्वारा दिए गए उपदेश सुने थे, और उस अवधि के दौरान जब उसने काम किया, निश्चित रूप से वहाँ पवित्र आत्मा का कार्य भी था। तो ऐसा कैसे हुआ कि जब उसने वह सब काम किया, उन सभी धर्मपत्रों को लिखा, और वह उन सभी कलीसियाओं में गया, फिर भी सत्य को जरा भी नहीं समझ सका केवल धर्म-सिद्धांतों का उपदेश करता रहा। वह कैसी काबिलियत थी? कमजोर काबिलियत। इससे भी बड़ी बात यह, पौलुस ने प्रभु यीशु को सताया और उसके शिष्यों को गिरफ्तार किया जिसके बाद प्रभु यीशु ने स्वर्ग से एक तेज प्रकाश के प्रहार से उसे नीचे गिरा दिया। पौलुस ने अपने साथ घटित हुए इस बड़े घटनाक्रम को किस तरह से देखा और कैसे समझा? उसकी समझ का तरीका पतरस से अलग था। उसने सोचा, “प्रभु यीशु ने मुझे प्रहार किया है, मैंने पाप किया है, इसलिए मुझे इसकी भरपाई करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, और एक बार जब मेरे गुण मेरे अवगुणों को संतुलित कर लेंगे, तो मुझे पुरस्कृत किया जाएगा।” क्या वह खुद को जानता था? वह नहीं जानता था। उसने यह नहीं कहा, “मैं अपनी दुर्भावनापूर्ण, मसीह-विरोधी प्रकृति के कारण प्रभु यीशु का विरोध करता था। मैं प्रभु यीशु का विरोध करता था और मुझमें कुछ भी अच्छा नहीं है!” क्या उसके पास अपने बारे में ऐसा ज्ञान था? (नहीं।) और इस घटना को उसने अपने धर्मपत्रों में कैसे लिपिबद्ध किया? उसका क्या नजरिया था? (उसे लगा कि उसे परमेश्वर ने काम करने के लिए बुलाया है।) उसका विश्वास था कि परमेश्वर ने उस पर महान प्रकाश चमका कर उसका आह्वान किया है और यह कि परमेश्वर उसका बड़ा उपयोग करना शुरू करेगा। खुद का थोड़ा-सा भी ज्ञान न होने के कारण, उसका मानना था कि यह सबसे शक्तिशाली प्रमाण था कि उसे पुरस्कृत किया जाएगा और उसे ताज पहनाया जाएगा, साथ ही यह सबसे बड़ी पूँजी थी जिसका उपयोग वह पुरस्कारों और ताज को हासिल करने के लिए कर सकता था। इसके साथ ही, दिल की गहराइयों में वह एक काँटे की चुभन-सी महसूस करता था। यह काँटा क्या था? यह एक बीमारी थी जो परमेश्वर ने उसे प्रभु यीशु के प्रति उसके पागलपन भरे प्रतिरोध के दंड के रूप में दी थी। वह इस मामले से कैसे निपटा? उसके मन में हमेशा से एक बीमारी थी और वह सोचता था, “यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। मैं नहीं जानता कि परमेश्वर इसे माफ करेगा या नहीं। सौभाग्य से, प्रभु यीशु ने मेरी जान बख्श दी और मुझे सुसमाचार प्रचार का काम सौंपा। यह अपने पापों की भरपाई करने का अच्छा अवसर है। मुझे अपनी पूरी ताकत से सुसमाचार का प्रचार करना चाहिए और हो सकता है कि न केवल मेरे पाप माफ कर दिए जाएँ, बल्कि मुझे ताज और पुरस्कार भी मिल जाए। यह तो बड़ा शानदार रहेगा!” हालाँकि, वह कभी भी इस काँटे से छुटकारा नहीं पा सका, जिससे उसके दिल में एक संत्रास पैदा हो गया था। वह हमेशा इसके बारे में असहज महसूस करता था। “मैं कैसे इस गंभीर गलती की क्षतिपूर्ति कर सकता हूँ? मैं इसे कैसे रद्द कर सकता हूँ, जिससे यह मेरी संभावनाओं को या जिस ताज को पाने की मैं उम्मीद करता हूँ उसे प्रभावित न करे? मुझे प्रभु के लिए और अधिक काम करना होगा, अधिक कीमत चुकानी होगी और अधिक पत्रकाव्य लिखने होंगे और मुझे और अधिक दौड़-धूप भी करनी होगी, शैतान से और अधिक लड़ना भी होगा और अधिक सुंदर गवाहियाँ भी देनी होंगी।” उसने इसके प्रति इस तरह का रुख अपनाया था। क्या उसे तनिक भी अफसोस था? (नहीं।) उसे जरा भी अफसोस नहीं था और उससे भी कम अपने बारे में ज्ञान था। उसके पास इन दोनों में से कुछ भी नहीं था। यह दिखाता है कि पौलुस की काबिलियत के साथ यह समस्या थी कि उसमें सत्य को समझने की योग्यता नहीं थी। आंशिक रूप से अपनी मानवता और उन चीजों के कारण जिनका उसने अनुसरण किया, और आंशिक रूप से अपनी काबिलियत के कारण, वह इन चीजों को समझ नहीं सका, और न ही उसने यह महसूस किया कि, “शैतान ने मनुष्य को बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया है। मनुष्य की प्रकृति बहुत बुरी होती है, बहुत ही दुष्ट होती है। मनुष्य की प्रकृति शैतान और मसीह-विरोधियों की सी होती है। यह परमेश्वर द्वारा मानवजाति के मुक्ति के मूल में है। मनुष्य को परमेश्वर की मुक्ति की आवश्यकता है। तो मनुष्य को अपनी मुक्ति को स्वीकार करने के लिए परमेश्वर के सामने कैसे आना चाहिए?” उसने कभी ऐसी बातें नहीं कहीं। उसे बिल्कुल भी समझ नहीं आया कि उसने यीशु का विरोध और निंदा क्यों की थी। हालाँकि उसने स्वीकार किया कि वह मुख्य अपराधी था, लेकिन उसने इस मामले पर बिल्कुल भी चिंतन नहीं किया। उसने बस इस बात पर विचार किया कि वह ऐसे गंभीर पापों को कैसे खत्म करे, अपने पापों का प्रायश्चित्त कैसे करे, गुण-संपन्न कामों से अपने पापों की भरपाई कैसे करे, और अंततः वह ताज और पुरस्कार कैसे प्राप्त करे जिसकी उसे उम्मीद थी। उसके साथ जो भी घटित हुआ हो, उसके बाद भी वह उन चीजों से सत्य या परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सका। उसने परमेश्वर के इरादों को बिल्कुल भी नहीं समझा। जहाँ तक सत्य को गहराई से समझने की बात है, पौलुस सबसे खराब व्यक्ति था, इसलिए हम कह सकते हैं कि पौलुस की काबिलियत सबसे खराब थी।
क्या बहुत कमजोर काबिलियत वाले लोग सत्य को समझ सकते हैं? (नहीं।) क्या सत्य को न समझने वाले लोगों को बचाया जा सकता है? (नहीं।) जो लोग बचाए जाने के इच्छुक हैं, उन्हें मानक के अनुरूप काबिलियत वाला होना चाहिए। उन्हें कम-से-कम औसत काबिलियत का होना चाहिए, न कि बहुत खराब काबिलियत वाला। उन्हें सत्य की समझ प्राप्त करनी होगी। वे सत्य को किस सीमा तक गहराई से समझ सकते हैं इसकी चिंता किए बिना, उन्हें कम-से-कम सत्य की अपनी समझ के आधार पर स्वयं को जानना चाहिए और यह जानना चाहिए कि सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए। इस तरह से वे बचाए जा सकते हैं। मैं यह क्यों कहता हूँ कि वे इस तरह से बचाए जा सकते हैं? जब तुम अपने दैनिक जीवन में आने वाली चीजों को सत्य से जोड़ सकोगे और परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजों को देख सकोगे और सही ढंग से निपटा सकोगे, तो तुम परमेश्वर के वचनों को अपने वास्तविक जीवन में उतारने में सक्षम होगे और इस नींव पर तुम परमेश्वर के वचनों में दिए गए न्याय, उसके वचनों द्वारा की जाने वाली काट-छाँट, और उसके वचनों में व्यक्त परीक्षणों और शोधनों को स्वीकार कर सकोगे। अन्यथा, यदि तुम सत्य को नहीं समझोगे, तो तुम उसके वचनों में दिए न्याय, परीक्षणों और शोधनों को स्वीकार करने के योग्य भी नहीं हो सकोगे। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने से पहले कम-से-कम कुछ सत्यों को तुम्हें समझना होगा, परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया रखना होगा और कुछ तरीकों से बदलना होगा। तुम्हें यह भी अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हें परमेश्वर के कार्यों से किस रवैये, मानसिकता और परिप्रेक्ष्य के साथ निपटना चाहिए। ये सभी चीजें सत्य से जुड़ी हुई हैं। ऐसा नहीं है कि इन चीजों से सादे ढंग से निपटने के लिए सादे धार्मिक नारों, धार्मिक अनुष्ठानों और विनियमों के उपयोग का सत्य से कोई संबंध है, न ही यह ऐसा मामला है कि केवल कुछ अच्छे व्यवहारों में संलग्न होना सत्य के अभ्यास से जुड़ा होता है। यह इतना आसान नहीं है। तुम जो जानते हो, जो अनुभव करते हो और तुम्हारे आसपास जो घटित होता है, उनके बारे में तुम्हें अपने हृदय में उन सिद्धांतों को जानना चाहिए जिनका तुम्हें पालन करना चाहिए। केवल इसी तरह से तुम सत्य से जुड़ते हो। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर तुमसे जो काम करवाता है उनके प्रति तुम जिस तरह से पेश आते हो, परमेश्वर द्वारा अपने साथ किए जाने वाले व्यवहार के ढंग और रवैये के साथ तुम जिस तरह से पेश आते हो, साथ ही तुम जो रवैया और दृष्टिकोण अपनाते हो, वह सत्य से जुड़ा होना चाहिए। केवल इसी तरह से तुम्हें जीवन प्रवेश मिल सकता है। अन्यथा, परमेश्वर तुम पर कोई काम नहीं कर सकेगा। क्या तुम समझ रहे हो? (हम समझते हैं।) धर्मों में प्रवृत्त उन लोगों को देखो जो विनियमों का पालन करते हैं, धर्मसिद्धांतों की बात करते हैं, और अच्छे होने का दिखावा करते हैं। उनका व्यवहार बाहर से अच्छा दिखता है, लेकिन परमेश्वर उन पर कभी काम क्यों नहीं करता? इसलिए कि वे जो कुछ करते हैं और उनके सभी अच्छे व्यवहार सत्य से जुड़े नहीं होते। उन लोगों ने केवल अपना व्यवहार बदला है, लेकिन इससे उनके स्वभाव में बदलाव नहीं हुआ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और मानकों पर खरे नहीं उतरते। यह ऐसा है जैसे अभी-अभी प्राथमिक विद्यालय से उत्तीर्ण हुआ कोई बच्चा सीधे विश्वविद्यालय जाना चाहता हो। क्या ऐसा संभव है? यह बिल्कुल असंभव है क्योंकि वह इस योग्य नहीं है। इसलिए, चाहे हम उस रास्ते के बारे में बात कर रहे हों जिस पर लोग चलते हैं या उनकी मानवता और काबिलियत के बारे में बात कर रहे हों, लोगों को कम-से-कम उद्धार की आवश्यक शर्तों को पूरा करना चाहिए। विशेष रूप से, उन्हें सत्य को समझना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करना चाहिए और परमेश्वर के प्रति वास्तव में समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए।
हम लोगों की काबिलियत कैसे मापते हैं? यह काम करने का उचित तरीका सत्य के प्रति उनके रवैये को देखना और यह जानना है कि वे सत्य को अच्छी तरह से समझ सकते हैं या नहीं। कुछ लोग कुछ विशेषज्ञताएँ बहुत तेजी से हासिल कर सकते हैं, लेकिन जब वे सत्य को सुनते हैं, तो भ्रमित हो जाते हैं और झपकी लेने लगते हैं। अपने मन में वे उलझे हुए होते हैं, वे जो कुछ भी सुनते हैं वह उनके अंदर नहीं जाता, न ही वे जो सुन रहे हैं उसे समझ पाते हैं—यही खराब काबिलियत होती है। कुछ लोगों को जब तुम बताते हो कि उनकी काबिलियत खराब है, तो वे सहमत नहीं होते हैं। वे सोचते हैं कि ऊँची शिक्षा प्राप्त और जानकार होने का मतलब है कि वे अच्छी काबिलियत वाले हैं। क्या अच्छी शिक्षा ऊँचे दर्जे की काबिलियत दर्शाती है? ऐसा नहीं है। लोगों की काबिलियत कैसे मापी जानी चाहिए? इसे इस आधार पर मापा जाना चाहिए कि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को किस सीमा तक गहराई से समझते हैं। मापन का यह सबसे सटीक तरीका है। कुछ लोग वाक्पटु, हाजिर-जवाब और दूसरों को सँभालने में विशेष रूप से कुशल होते हैं—लेकिन जब वे धर्मोपदेश सुनते हैं, तो उनकी समझ में कभी भी कुछ नहीं आता, और जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे उन्हें नहीं समझ पाते हैं। जब वे अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बताते हैं, तो वे हमेशा शब्द और धर्म-सिद्धांत बताते हैं, और इस तरह खुद के महज नौसिखिया होने का खुलासा करते हैं, और दूसरों को इस बात का आभास कराते हैं कि उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। ये खराब काबिलियत वाले लोग हैं। तो, क्या ऐसे लोग परमेश्वर के घर के काम करने में सक्षम हैं? (नहीं।) क्यों? (उनके पास सत्य सिद्धांत नहीं होते।) सही है, यह कुछ ऐसी बात है जिसे तुम लोगों को अब तक समझ जाना चाहिए। परमेश्वर के घर के लिए काम करने के बारे में कहने का एक और तरीका अपना कर्तव्य निभाना है। जब किसी के कर्तव्य निर्वहन की बात आती है, तो उससे सत्य, परमेश्वर के कार्य, स्व-आचरण के सिद्धांत और सभी प्रकार के लोगों के साथ पेश आने की विधियाँ और तरीके जुड़े होते हैं। ये सभी मुद्दे इस बात को प्रभावित करते हैं कि लोग अपने कर्तव्यों को इस तरह से निभा सकते हैं या नहीं जो प्रभावी और मानक के अनुरूप हो। क्या कर्तव्य निर्वहन से जुड़े इन मुद्दों से सत्य जुड़ा होता है? यदि उनसे सत्य जुड़ा हुआ है, फिर भी तुम सत्य को नहीं समझते और केवल अपनी तुच्छ चतुराई पर भरोसा करते हो, तो क्या तुम उचित ढंग से समस्याएँ हल कर सकोगे और अपना कर्तव्य निभा सकोगे? (नहीं।) नहीं। कुछ मामलों में कुछ भी गड़बड़ न हो तब भी संभव है कि उन चीजों का सत्य से कोई लेना-देना न हो, और वे विशुद्ध बाहरी चीजें हों। परंतु, बाहरी चीजें करते समय भी तुम्हारे पास सिद्धांत होने चाहिए, और तुम्हें उन्हें यूँ सँभालना चाहिए कि सभी को सही लगे। मान लो कि तुमसे अपने ही दम पर किसी चीज को सिद्धांतों के अनुसार सँभालने को कहा जाए, और तुम्हारे ऐसा करते समय कोई अप्रत्याशित स्थिति उत्पन्न हो जाए, और तुम्हें पता न हो कि उससे कैसे निपटना है। तुम सोचते हो कि तुम्हें अपने अनुभव के अनुसार आगे बढ़ना चाहिए, लेकिन ठीक अपने अनुभव की सीख के आधार पर काम करने से उस काम में बाधा-व्यवधान पड़ते हैं और सब कुछ गड़बड़ हो जाता है। क्या यह त्रुटि नहीं है? इसका कारण क्या है? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारे पास विशुद्ध गहरी समझ नहीं है, तुम सत्य को नहीं समझते, और सिद्धांतों पर तुम्हारी पकड़ नहीं है। जब भी तुम्हारा सामना ऐसे मामलों से होता है जिनसे सत्य और सिद्धांत जुड़े होते हैं, तो तुम उनसे निपट नहीं पाते हो, और तुम्हारी अपनी इच्छा बाहर उफन जाती है। परिणामस्वरूप, तुम कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हो, और खुद को शर्मिंदा करते हो। क्या मानवीय अनुभव और तरीकों के आधार पर समस्याओं से निपटना प्रभावी होता है? (नहीं।) यह प्रभावी क्यों नहीं है? इसलिए कि मानवीय अनुभव और तरीके सत्य नहीं हैं, और परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें स्वीकार नहीं करेंगे। यदि तुम हमेशा मानवीय अनुभव और तरीकों का उपयोग करके समस्याओं को सँभालते हो, तो क्या इसका सिर्फ यह मतलब नहीं है कि तुम अपने आपको, वास्तव में जितने हो, उससे अधिक चतुर समझते हो? क्या यह अहंकार और आत्मतुष्टता नहीं है? कुछ लोग तर्क भी देते हैं कि “ऐसा नहीं है कि मैं इस मामले के सत्य को नहीं समझता हूँ—मैं अपने दिल में इसे समझता हूँ। बात केवल इतनी है कि मैंने इस पर पर्याप्त विचार नहीं किया। अगर मैं और अधिक प्रयास करूँ और मामले पर अधिक सावधानी से विचार करूँ तो मैं इसे अच्छी तरह से सँभाल सकता हूँ। अतीत में, गैर-विश्वासियों के साथ संवाद करने और चीजों को सँभालने में मुझे कुछ खास तरीकों और साधनों का उपयोग करना पड़ता था। परंतु, परमेश्वर का घर उन तरीकों की अनुमति नहीं देता, इसलिए मुझे नहीं पता था कि क्या किया जाना चाहिए। मैंने मामले को बस अपने तरीके से निपटाया, इसलिए कोई अचरज नहीं है कि मुझसे छोटी-सी गलती हुई।” क्या ये लोग खुद को जानते हैं? (नहीं।) वे खुद को क्यों नहीं जानते? क्या इसका सत्य से कोई संबंध नहीं है? वे इस मामले में सत्य को नहीं खोजते, बल्कि अपनी गलती को छिपाने के तरीकों के बारे में सोचते हैं। वे सोचते हैं कि उनसे केवल गलती हुई है और वे अपने व्यवहार के बारे में लापरवाह रहे हैं। वे यह नहीं सोचते कि उनकी त्रुटि से सत्य जुड़ा हुआ है, या वह इसलिए उत्पन्न हुई है कि उन्हें सत्य की समझ नहीं है और इस तथ्य के कारण कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर कार्य करते हैं। खराब काबिलियत वाला होने का यही मतलब है। कुछ घटित होने पर ये लोग हमेशा कारण और बहाने ढूँढ़ते रहते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने तो बस एक गलती की है। अपनी पहली प्रतिक्रिया में, उन्हें नहीं पता होता कि उन्हें सत्य को खोजना चाहिए। अपनी दूसरी प्रतिक्रिया में भी वे नहीं जानते कि उन्हें सत्य को खोजना ही चाहिए। और अपनी तीसरी प्रतिक्रिया में भी उन्हें पता नहीं होता कि उनको सत्य को खोजने और खुद को जानने की आवश्यकता है। बहुत खराब काबिलियत होने का यही मतलब है। तुम उनका चाहे जैसे मार्गदर्शन करो, उन्हें उजागर करो और उनके साथ संगति करो, फिर भी उन्हें इस बात का एहसास नहीं होगा कि उन्होंने किन सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया है और उन्हें किन सत्यों को अभ्यास में लाना चाहिए। तुम चाहे जैसे उनका मार्गदर्शन करो, वे इन चीजों के बारे में कभी जागरूक नहीं होंगे। उनमें सत्य को गहराई से समझने की थोड़ी-सी भी काबिलियत नहीं होती। खराब काबिलियत वाला होने का यही मतलब है। तुम सत्य पर चाहे जितनी स्पष्टता से संगति करो, उन्हें इसका एहसास नहीं होगा कि यह सत्य है। तथ्यों को छुपाने के लिए वे अपने ही कारणों और बहानों का इस्तेमाल करेंगे, या कहेंगे कि यह सिर्फ एक गलती या त्रुटि थी। वे तनिक भी नहीं स्वीकारेंगे कि उन्होंने सत्य का उल्लंघन किया है या अपने भ्रष्ट स्वभावों को प्रकट किया है। उन्होंने चाहे जो गलतियाँ की हों, चाहे जैसे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हों, या जितनी ही भ्रष्ट स्थितियाँ पैदा की हों, उन्हें कभी एहसास नहीं होगा कि उनके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव वास्तव में क्या हैं, उनके भ्रष्ट सार की तो बात ही छोड़ो। वे यह भी नहीं जानते हैं कि सत्य को कैसे खोजें या इस मामले में स्वयं को कैसे जानें। वे इन बातों के बारे में कुछ भी नहीं जानते। वे आध्यात्मिक रूप से सुन्न हैं और उनमें इन चीजों के बारे में जरा भी भावना नहीं है। यह खराब काबिलियत की एक अभिव्यक्ति है।
आओ, किसी व्यक्ति की काबिलियत मापने के तरीके पर संगति करने के लिए कुछ उदाहरण देखें। उदाहरण के लिए, मैंने कहा कि कुछ लोग काम टालते रहते हैं और लापरवाह ढंग से करते हैं। इस बात को सुनने के बाद अच्छी काबिलियत वाले लोगों को तुरंत एहसास होगा कि यह कुछ ऐसी मनोदशा है जिसका वे भी अनुभव करते हैं, और वे अक्सर ऐसी मनोदशा और रवैये का अनुभव करते हैं जब वे अस्वस्थ होते हैं या जब वे निराश या आलसी होते हैं। इसके साथ ही, उनके दिमाग में उन क्षणों की कुछ छवियाँ उभरने लगेंगी जब उन्होंने कुछ कामों में टाल-मटोल की थी या लापरवाह ढंग से काम किया था। वे अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से करेंगे और स्वीकार करेंगे कि परमेश्वर जो उजागर करता है वह मनुष्य के भ्रष्टाचार की वास्तविकता है और इसका संबंध मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से होता है। इसी तरह वे स्वीकार करेंगे कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं और उन्हें गलतफहमी या अपनी धारणाओं के बिना, विशुद्ध तरीके से पूरी तरह से समझेंगे। अच्छी काबिलियत वाला होने का यही मतलब है। इन वचनों को सुनने के बाद उनकी पहली प्रतिक्रिया उन वचनों से अपनी तुलना करने की होगी। उन्हें एहसास होगा कि यह ऐसी मनोदशा है जिसका वे भी अनुभव करते हैं, और वे परमेश्वर के इन वचनों को अपनी मनोदशा और दैनंदिन जीवन से जोड़ेंगे। फिर, वे आत्म-चिंतन में संलग्न होंगे, अपनी इस मनोदशा पर स्पष्टता से गौर करेंगे और स्वीकार करेंगे कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। परमेश्वर के वचनों को सुनने पर अच्छी काबिलियत वाले लोगों की प्रतिक्रिया ऐसी ही होती है। औसत काबिलियत वाले व्यक्ति के लिए तुम केवल “टाल-मटोल करने वाला” और “बेपरवाह” शब्द नहीं कह सकते। तुम्हें उनकी अभिव्यक्तियों को उजागर करके उनके मुद्दों को सीधे इंगित करना चाहिए, और उसे उन चीजों के साथ जोड़ना चाहिए जो वे करते हैं, और कहना चाहिए कि “तुम अक्सर भ्रमित रहते हो और चीजों को गंभीरता से नहीं लेते। इस तरह अपना कर्तव्य निभा कर तुम केवल लापरवाह हो रहे हो। तुम्हें इसका भान क्यों नहीं होता? मैंने तुमसे यह बात कितनी बार कही है? इसे बेपरवाही दिखाना और टालमटोल करना कहा जाता है।” उनकी समस्याओं को ऐसे बताओ। यह सुनने के बाद, वे इस पर विचार करेंगे कि उन्होंने कैसे टाल-मटोल की और लापरवाह ढंग से काम किया। जब वे इस पर सचमुच विचार करेंगे और इसे जान लेंगे, तो वे अपनी गलतियों को स्वीकार करेंगे और उन्हें सुधार पाएँगे। परंतु, वे जिस चीज को पहचानते हैं, वह एक निश्चित चीज है, एक निश्चित मनोदशा है। तुम्हारी कही बातों को वे केवल तभी स्वीकार करेंगे और मानेंगे जब वह उनकी अपनी कल्पनाओं के अनुरूप होगी। इसे ही हम औसत काबिलियत कहते हैं। औसत काबिलियत वाले लोगों पर काम करने के लिए प्रयास की आवश्यकता होती है, और केवल तथ्यों के आधार पर बात करके ही उन्हें पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है। जिन लोगों की काबिलियत खराब होती है उनकी मनोदशा होती कैसी है? उनसे कैसे पेश आना चाहिए? खराब काबिलियत वाले लोग सरल दिमाग वाले और थोड़े कमजोर दिमाग के होते हैं। वे अपने सामने आने वाली किसी भी स्थिति को अच्छी तरह से समझ नहीं पाते और सत्य को नहीं खोजते। यदि उन्हें स्पष्ट और सीधे तरीके से कोई बात न बताई जाए, तो वे उसे स्वयं समझ नहीं सकते। इसलिए, खराब काबिलियत वाले लोगों से बात करते समय तुम्हें अधिक स्पष्ट और सीधे बात करनी चाहिए, और तुम्हें उदाहरण भी देने चाहिए। तुम्हें तथ्यों के आधार पर बोलना चाहिए और अपनी बात को बार-बार दोहराना चाहिए। तुम्हारी बातों में प्रभाव पैदा करने का यही एकमात्र तरीका है। तुम्हें कुछ इस तरह बोलना होगा : “इस तरह अपना कर्तव्य निभा कर तुम टालमटोल कर रहे हो और लापरवाह ढंग से काम कर रहे हो!” इस पर उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होगी? “क्या मैंने ऐसा किया है? क्या मैंने टालमटोल की है? सुबह आँख खुलते ही मैं अपने कर्तव्य से जुड़ी चीजों के बारे में सोचना शुरू कर देता हूँ और सबसे पहले वही काम पूरे करता हूँ। जब मैं बाहर जाता हूँ, तब भी यही सोचता हूँ कि उन चीजों को अच्छे से कैसे किया जाए। मैं न तो आजकल करता हूँ, न ही लापरवाह ढंग से काम करता हूँ। मैं इन कामों के लिए बहुत प्रयास करता हूँ!” उनकी पहली प्रतिक्रिया यह होगी कि तुम्हारी बात को नकार दें। उनमें कोई जागरूकता नहीं होती और, बुनियादी तौर पर, उन्हें यह एहसास ही नहीं होता कि वे अपना कर्तव्य निर्वहन लापरवाह ढंग से कर रहे हैं या काम को टाल रहे हैं। फिर तुम्हें उनको समझाना पड़ेगा कि टालमटोल और बेपरवाही कैसे अभिव्यक्त होती है, और अपनी बात यूँ कहनी होगी कि वे वास्तव में आश्वस्त हो जाएँ, तभी वे तुम्हारी बातों को स्वीकार करेंगे। उनके लिए यह मान लेना आसान नहीं है कि उन्होंने अच्छा काम नहीं किया है या उनसे बाहरी मामलों में गलतियाँ हुई हैं। यदि किसी चीज से सत्य, अभ्यास के सिद्धांत, या परमेश्वर का स्वभाव जुड़े हों, तो कमजोर काबिलियत वाले लोगों के लिए यह और भी कठिन होता है। वे तुम्हारी कोई भी बात नहीं समझेंगे, तुम जितनी ज्यादा बातें करोगे, वे उतना ही अधिक भ्रमित और अँधेरे में महसूस करेंगे, और वे अब तुम्हारी बात सुनना ही नहीं चाहेंगे। ये बहुत खराब काबिलियत वाले लोग हैं; यह सत्य तक पहुँचने में उनकी असमर्थता की अभिव्यक्ति है। खराब काबिलियत वाले लोगों के साथ तुम सत्य पर चाहे जैसी भी संगति करो, कोई फायदा नहीं है। तुम उनसे जैसे भी बात करने की कोशिश करो, वे समझ नहीं पाते। अधिक से अधिक वे कुछ सिद्धांतों और विनियमों को समझ सकते हैं। इसलिए, बेहद खराब काबिलियत वाले लोगों के साथ सत्य पर विस्तार से संगति करना आवश्यक नहीं है। उन्हें आसान तरीके से बस इतना बताओ कि क्या करना है, और यदि वे उस पर टिके रह सकते हैं, तो बहुत अच्छी बात है। बेहद खराब काबिलियत वाले लोगों में किसी भी बात को समझने की कोई क्षमता नहीं होती, इसलिए वे कभी भी सत्य को नहीं समझ पाएँगे, और निश्चित रूप से उनसे सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के स्तर तक पहुँचने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि इन लोगों के सामने ही कुछ घटित हो और तुम उन्हें इस बारे में सब कुछ बता दो, तब भी वे इससे खुद को जोड़ नहीं पाते। इसे ही हम खराब काबिलियत कहते हैं। उदाहरण के लिए, झूठ बोलने की बात आने पर देखो कि अच्छी काबिलियत वाले लोग कैसी प्रतिक्रिया दिखाते हैं। जब अच्छी काबिलियत वाले लोग दूसरों को झूठ बोलने की स्थितियों के बारे में बोलते हुए और उदाहरण देते हुए, इस बारे में बात करते हुए सुनेंगे कि झूठ और धोखे की स्थितियों से वे कैसे निपटे और उन्हें कैसे हल किया, तो वे खुद पर विचार करेंगे और जो कुछ उन्होंने सुना है उसकी तुलना स्वयं अपनी स्थितियों से करेंगे। इसके बाद, वे उन स्थितियों को पहचान पाएँगे जिनमें उन्होंने झूठ बोला था और उस तरह से कार्य करते समय उनके इरादे क्या थे। अपने दैनिक जीवन में उजागर होने वाली बातों के आधार पर, अपने इरादों, मंसूबों और विचारों की जाँच के माध्यम से, अच्छी काबिलियत वाले लोग यह पता लगाने में सक्षम होंगे कि उनकी कौन-सी बातें झूठी थीं और किन वचनों में धोखा था। जब वे अन्य लोगों की अनुभवजन्य गवाहियाँ सुनते हैं, तो वे उनसे लाभान्वित हो सकते हैं और कुछ हासिल कर सकते हैं। भले ही तुम केवल कुछ सिद्धांतों के बारे में बात करो, वे समझ जाएँगे और उन्हें लागू करना सीख लेंगे। फिर, वे इन बातों को सत्य सिद्धांतों के रूप में लेंगे, उन्हें अपनी वास्तविकता बना लेंगे और धीरे-धीरे खुद को बदल लेंगे। औसत काबिलियत वाला व्यक्ति अन्य लोगों की अनुभवजन्य गवाही सुनने के बाद यह देख पाएगा कि स्पष्ट मामले उससे कैसे संबंधित हैं, लेकिन वह कम स्पष्ट चीजों या उन लोगों के हृदय की गहराई में मौजूद उन चीजों को अपने से नहीं जोड़ पाएगा जो उनकी बातों में अब तक अव्यक्त हैं। इसके साथ ही, उनकी सत्य सिद्धांतों की समझ भी धर्म-सिद्धांतों जैसी थोड़ी उथली होती है। उनकी समझ का स्तर अच्छी काबिलियत वाले लोगों की तुलना में बहुत खराब होता है। जहाँ तक खराब काबिलियत वाले लोगों की बात है, तो वे दूसरों की गवाहियाँ सुनते समय उन बातों को स्वयं से नहीं जोड़ पाते हैं, चाहे उन बातों को बताने वाले ने कितनी ही सावधानी से बारीक विश्लेषण किया हो कि कौन-सी बातें झूठी और खोखली हैं और कौन-सी बातों में धोखे की स्थितियाँ हैं। इन गवाहियों को सुन कर भी वे आत्मचिंतन करने या स्वयं को जानने में सक्षम नहीं होंगे। ये लोग न केवल अपने झूठ बोलने और धोखा देने की मनोदशा को पहचानने में असफल होते हैं, बल्कि वे खुद को बहुत ईमानदार व्यक्ति भी मानते हैं जो झूठ बोल ही नहीं सकता। भले ही दूसरे लोग उनसे झूठ बोलें और उन्हें धोखा दें, वे इसका भेद नहीं पहचान पाते और आसानी से मूर्ख बन जाते हैं। वे दूसरों द्वारा संगति में बताए गए सत्य सिद्धांतों को समझने में तो और भी कम सक्षम होते हैं। उनमें समझने की क्षमता का पूर्णतया अभाव होता है। यह खराब काबिलियत की अभिव्यक्ति है।
जिन तीन प्रकार की काबिलियत वाले लोगों का हमने अभी उल्लेख किया है, उनमें से किनके स्वभाव में परिवर्तन हो सकता है? किस प्रकार का व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (अच्छी काबिलियत वाले लोग।) अच्छी काबिलियत वाले लोग सत्य वास्तविकता में थोड़ी तेजी से और गहराई तक प्रवेश कर सकते हैं। औसत काबिलियत वाले लोग अपेक्षाकृत धीरे और सतही ढंग से प्रवेश कर पाते हैं। खराब काबिलियत वाले लोग इसमें बिल्कुल प्रवेश नहीं कर पाते। यही अंतर है। क्या तुम देख पा रहे हो कि लोग एक-दूसरे से कैसे भिन्न होते हैं? (हाँ।) उनमें अंतर कहाँ है? उनके बीच का अंतर उनकी काबिलियत और सत्य के प्रति उनके दृष्टिकोण में है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं और अच्छी काबिलियत वाले हैं वे सत्य वास्तविकता में शीघ्र प्रवेश कर लेते हैं और जीवन प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। औसत काबिलियत के लोग जिद्दी और सुन्न होते हैं। सत्य में वे धीरे-धीरे प्रवेश करते हैं, और उनके जीवन की प्रगति भी धीमी होती है। खराब काबिलियत वाले लोग न केवल मूर्ख और अहंकारी होते हैं, बल्कि वे मूर्ख भी होते हैं, भावशून्य और निस्तेज चेहरों वाले; वे आत्मा के स्तर पर निश्चेत होते हैं, उनकी प्रतिक्रियाएँ धीमी होती हैं, और वे सत्य को समझ पाने में धीमे होते हैं। ऐसे लोग जीवन से रहित हैं, क्योंकि वे सत्य को नहीं समझते और सिद्धांतों के बारे में बात करने, नारे लगाने और विनियमों का पालन करने के अलावा कुछ नहीं करते। चूँकि वे सत्य को नहीं समझते हैं, इसलिए वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। क्या सत्य वास्तविकता में प्रवेश न कर पाने वाले उन लोगों के अंदर जीवन है? वे जीवन से रहित हैं। जब जीवन से वंचित लोगों के साथ कुछ घटित हो रहा होता है, तो वे अपनी इच्छा के अनुसार चलते हैं, आँख मूँदकर काम करते हैं, कभी एक दिशा में तो कभी दूसरी दिशा में भटकते हैं, उनके पास अभ्यास का सटीक मार्ग नहीं होता, और वे हमेशा संकोची और बेसहारा महसूस करते हैं। वे दया के पात्र लगते हैं। वर्षों से, मैंने लगातार कुछ लोगों को यह कहते सुना है कि जब उनके साथ कुछ घटित होता है तो उन्हें पता नहीं होता कि उन्हें क्या करना चाहिए। इतने सारे उपदेश सुनने के बाद भी ऐसा कैसे हो सकता है? उनके हाव-भाव से लगता है कि उन्हें सचमुच कुछ समझ नहीं आ रहा है। उनके चेहरे भावशून्य और निस्तेज होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे सुन्न कैसे कहा जा सकता है? मैं दुनिया में जो भी लोक प्रचलित है उसके प्रति बहुत संवेदनशील हूँ। मैं सभी तरह के कंप्यूटर, सेल फोन और गेम कंसोल का उपयोग करना जानता हूँ। तुम लोग मूर्ख हो और तुम उनका उपयोग करना नहीं जानते। तुम्हारी काबिलियत इतनी तुच्छ कैसे हो सकती है?” लेकिन उनकी यह थोड़ी-सी चतुराई एक कौशल भर है, जरा-सी होशियारी—इसे काबिलियत के रूप में नहीं देखा जाता है। यदि तुम उनसे उपदेश सुनने या सत्य पर संगति करने के लिए कहो, तो ये लोग उजागर हो जाते हैं : आत्मा के स्तर पर वे भयानक रूप से सुन्न हैं। वे कितने सुन्न हैं? वे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं, लेकिन वे अभी भी इस बारे में अनिश्चित हैं कि उन्हें बचाया जाएगा या नहीं, और वे इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते, न ही वे इस बारे में साफ जानते हैं कि वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं। यदि तुम उनसे पूछो कि अपनी काबिलियत के बारे में वे क्या सोचते हैं, तो वे कहेंगे, “मेरी काबिलियत अच्छी काबिलियत से थोड़ी कम है, लेकिन औसत काबिलियत से बहुत बेहतर है।” इससे पता चलता है कि उनकी काबिलियत कितनी खराब है। क्या यह थोड़ी मूर्खतापूर्ण बात नहीं है? जो लोग वास्तव में खराब काबिलियत के होते हैं, वे इस प्रकार की मूर्खता प्रकट करते हैं। चाहे जो मामला हो, यदि किसी चीज में सत्य या सिद्धांतों का समावेश है, तो वे उसके बारे में कुछ भी नहीं समझेंगे और उसके स्तर तक पहुँचने में अक्षम रहेंगे। खराब काबिलियत के होने का यही मतलब है।
अब जब हमने इन चीजों पर संगति कर ली है, तो क्या तुम यह माप सकोगे कि अच्छी काबिलियत क्या है और खराब काबिलियत क्या है? यदि तुम समझ सको कि अच्छी काबिलियत क्या है और खराब काबिलियत क्या है, तथा अपनी काबिलियत और अपने प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से देख सको, तो इससे तुम्हें खुद को जानने में मदद मिलेगी। एक बार जब तुम्हें अपनी जगह का स्पष्ट अनुमान हो जाएगा, तो तुम्हारे पास थोड़ा सा विवेक होगा और तुम अपनी सीमा को जान लोगे। तुम्हारे अहंकारी होने का खतरा नहीं होगा और अपना कर्तव्य निभाते समय तुम अधिक दृढ़ और सहज रहोगे। तुम अपनी नजर बहुत ऊँचे नहीं टिकाओगे और अपना उचित काम करने पर ध्यान दे पाओगे। जब लोग खुद को नहीं जानते तो बहुत परेशानी होती है। किस तरह की परेशानी? भले ही उनकी काबिलियत स्पष्ट रूप से औसत हो, वे हमेशा सोचते हैं कि उनकी काबिलियत अच्छी है, दूसरों से बेहतर है। उनके हृदय में हमेशा आवेग रहते हैं और वे हमेशा अगुआ के रूप में सेवा करते हुए दूसरों की अगुआई करना चाहते हैं। उनके हृदय में हमेशा ऐसी बातें रहती हैं, तो क्या इससे उनके कर्तव्य निर्वहन पर असर पड़ेगा? वे इन चीजों से लगातार परेशान रहते हैं, उनके हृदय सहज नहीं रहते, और वे शांत नहीं हो पाते हैं। वे न केवल अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से नहीं निभा सकते हैं, बल्कि वे कुछ मूर्खतापूर्ण, झेंप पैदा करने वाली चीजें और ऐसी विवेकहीन चीजें करते हैं जिनसे परमेश्वर को सख्त घृणा होती है। उन्हें ऐसी गंभीर समस्याएँ रहती हैं—अगर वे अनसुलझी रहें तो क्या यह ठीक होगा? निश्चित रूप से नहीं, इन लोगों को इनका समाधान करने के लिए सत्य को खोजना चाहिए। सबसे पहले, उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और इस पर गहन सोच-विचार करना चाहिए कि उनके मन में ऐसे विचार क्यों हैं, वे इतने महत्वाकांक्षी क्यों हैं, और ये चीजें कहाँ से आती हैं। यदि वे इन बातों पर केवल सरल तरीके से सोचेंगे, तो क्या वे समस्याओं के सार तक पहुँच पाएँगे? बिल्कुल नहीं। समस्याओं की जड़ खोजने के लिए उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के वचनों को पढ़ना चाहिए—तभी उनके लिए इसे हल करना आसान होगा। उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ तभी खत्म हो सकती हैं जब वे अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर लें। इस तरह, वे अपने कर्तव्यों को व्यावहारिक तरीके से निभाने में सक्षम होंगे और अधिक कर्तव्यनिष्ठ होंगे; वे अब बहुत इठलाएँगे नहीं, यह विश्वास नहीं करेंगे कि वे हर किसी से बेहतर हैं, या बहुत श्रेष्ठ होने का दिखावा नहीं करेंगे, और वे खुद को दूसरों से अलग नहीं मानेंगे। ये भ्रष्ट स्वभाव अब उन्हें परेशान नहीं करेंगे, और वे और अधिक परिपक्व हो जाएँगे। कम-से-कम, उनके पास संतों जैसी गरिमामय और सच्ची शिष्टता होगी। केवल इसी तरह से वे परमेश्वर के समक्ष जीना सुनिश्चित कर सकते हैं। जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और परमेश्वर के घर आते हैं, तो उनमें कम-से-कम अंतरात्मा और विवेक होने चाहिए ताकि वे सत्य को स्वीकार कर सकें। यदि वे गैर-विश्वासियों जैसे हैं, पालतू न बनाए गए जंगली जानवरों की तरह हैं, तो वे परमेश्वर के सामने नहीं आ सकेंगे। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर के सामने आने को ले कर इतना कठिन क्या है? मैं अक्सर परमेश्वर के सामने आता हूँ।” परमेश्वर के सामने आना कोई साधारण बात नहीं है। परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए जाने के लिए तुम्हारे पास एक सही रवैया और परमेश्वर के प्रति समर्पणशील हृदय होना चाहिए। हिंस्र पशुओं जैसे लोग यदि परमेश्वर के सामने आएँगे, तो परमेश्वर निश्चय ही उनसे घृणा करेगा और नापसंद करेगा। इसलिए, परमेश्वर के सामने आना कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लोग सिर्फ खयाली पुलाव पका कर हासिल कर लें, ऐसा नहीं है कि परमेश्वर मान लेगा कि तुम उसके सामने सिर्फ इसलिए आए क्योंकि तुम ऐसा करना चाहते हो। इस मामले में निर्णय लेने का अधिकार परमेश्वर के हाथ में है। परमेश्वर के सामने तुम तभी आ सकोगे जब परमेश्वर तुम्हें अंगीकार करे। केवल जब तुम्हारे इरादे सही होंगे, तुम सत्य को खोजोगे और बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, तभी तुम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त कर सकोगे। वास्तव में केवल तभी तुम्हारा परमेश्वर के सामने आना होगा। यदि परमेश्वर कहे कि तुम एक अज्ञानी सामान्य व्यक्ति हो, पालतू न बनाए गए जंगली जानवर हो, तो क्या वह तुम पर कोई ध्यान देगा? (नहीं।) परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देगा, वह तुम्हें केवल सतही चीजें ही देगा, जैसे थोड़ा-सा अनुग्रह और कुछ आशीष। वास्तविक अर्थों में तुम परमेश्वर के करीब नहीं पहुँच पाओगे या उसके सामने बिल्कुल नहीं आ पाओगे। इसलिए, इससे पहले कि परमेश्वर तुम्हें अपने अनुयायी के रूप में पहचाने, तुम्हें उस मुकाम तक पहुँचने के लिए कुछ बदलाव करने होंगे जहाँ परमेश्वर तुम्हें अपने घर के सदस्य के रूप में पहचाने। केवल तभी परमेश्वर तुम्हारे कर्तव्य की परीक्षा करना शुरू करेगा और तुम्हारे हर शब्द और कार्य, तुम्हारी हर सोच और विचार की परीक्षा करेगा, और तभी परमेश्वर तुम पर कार्य करना शुरू करेगा। परमेश्वर के घर की चौखट के भीतर कदम रखने से पहले, कुछ लोगों के व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ, उनकी मानवता के खुलासे, उनके अभ्यास, उनकी सोच और विचार, और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये ऐसे होते हैं जिनसे परमेश्वर को सख्त घृणा होती है, और घिन आती है। क्या जो लोग परमेश्वर को घृणास्पद और अप्रिय लगते हैं, वह उन्हें हाथ पकड़ कर अपने घर के द्वार से भीतर ले जाएगा? (वह ऐसा नहीं करेगा।) तो फिर ऐसे कुछ लोग इतने प्रसन्न और खुश क्यों होते हैं? यह भावना कहाँ से आती है? दिखावे से। क्या इसमें विवेक का थोड़ा अभाव नहीं है? (हाँ।) परमेश्वर—सृष्टिकर्ता—के पास निश्चित ही अपने अनुयायियों को चुनने के मानक हैं। लोगों के लिए सिर्फ विश्वास रखना ही काफी नहीं है। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, और वह उन लोगों को आशीष देता है जो ईमानदारी से उसके लिए स्वयं को खपाते हैं। परमेश्वर उनका उपयोग करता है जो उसे ऊँचा उठा सकते हैं और उसकी गवाही दे सकते हैं। लोगों के लिए परमेश्वर के मानक मनुष्य के मानकों से भिन्न होते हैं। जब तुम साथ जोड़ने के लिए कोई मित्र चुनते हो, तो तुम्हें उनके चरित्र पर विचार करना होता है कि क्या वे तुम्हारी पसंद के अनुरूप हैं, उनका व्यक्तित्व कैसा है, क्या उनके शौक तुम्हारे शौकों से मेल खाते हैं, और वे देखने में कैसे हैं। तुम्हारे पास भी लोगों को चुनने के मानक हैं, तो फिर परमेश्वर का क्या? कुछ लोग कहते हैं, “लोगों को चुनने के लिए परमेश्वर किस मानक का उपयोग करता है? क्या परमेश्वर के पास जाना इतना कठिन है? क्या लोगों के लिए परमेश्वर के सामने आना और परमेश्वर के घर के द्वार में प्रवेश करना इतना कठिन है?” वास्तव में, यह मुश्किल नहीं है, मानक स्तर बहुत ऊँचा नहीं है, लेकिन मानक अवश्य हैं। सबसे पहले, लोगों को कम-से-कम पवित्र रवैया रखना चाहिए और अपनी जगह को जानना चाहिए। इसके अलावा, उन्हें ईमानदार और विशुद्ध हृदय से परमेश्वर के पास जाना चाहिए। साथ ही, उन्हें जो कुछ भी करना और कहना हो उसमें संतों जैसी शिष्टता बरतनी चाहिए, और उनके पास कम-से-कम कुछ अच्छे शब्द और कर्म, शिष्टाचार और पालन-पोषण होना चाहिए। यदि तुम इन बुनियादी शर्तों को भी पूरा नहीं करते हो, तो ईमानदारी से कहा जाए, तो परमेश्वर तुम पर जरा भी ध्यान नहीं देगा। क्या तुम जानते हो कि यहाँ क्या हो रहा है? जब परमेश्वर में विश्वास करने वाले कुछ लोगों की बात आती है, तो देखो कि वे क्या करते हैं, वे कैसी अभिव्यक्ति दर्शाते हैं और क्या प्रकट करते हैं। वे परमेश्वर को इतने घृणास्पद और अप्रिय क्यों लगते हैं? इसलिए कि इन लोगों में कोई मानवता नहीं है, जमीर और विवेक नहीं हैं, और उनमें सबसे बुनियादी और मौलिक पवित्र शालीनता भी नहीं है। इस तरह के लोग चाहते हैं कि परमेश्वर उन्हें हाथ पकड़कर अपने घर के दरवाजे से भीतर ले जाए, लेकिन यह असंभव है। केवल मूर्ख ही ऐसे लोगों में सुसमाचार का प्रचार करेंगे जिनमें मानवता की कमी हो। कुछ लोग अपने दैनिक जीवन में भारी मेकअप करते हैं और शरीर दिखाने वाले कपड़े पहनते हैं। वे गैरविश्वासियों के बीच नाचने वाली लड़कियों से भी अधिक लुभावने ढंग से कपड़े पहनते हैं। उनके निजी जीवन और जिस तरह वे स्वयं को संचालित करते हैं और संसार से निपटते हैं, उसमें तुम यह नहीं देख सकते कि वे गैर-विश्वासियों से किस प्रकार भिन्न हैं। जब वे भाई-बहनों के बीच होते हैं, तो वे स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों और छद्म-विश्वासियों की तरह दिखते हैं। ऐसे लोग बाहर से सच्चे आस्तिक लग सकते हैं; हो सकता है कि उन्होंने चीजों का त्याग किया हो, वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में सक्षम हों और उनमें से कुछ लोग उत्पीड़न और क्लेशों का सामना करने पर पीछे न हटें, लेकिन क्या ऐसे लोग सत्य को स्वीकार कर सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर सकते हैं? वे जिन चीजों के साथ जीवन यापन करते हैं, उनके आधार पर क्या वे प्रतिष्ठित और ईमानदार लोग माने जा सकते हैं? क्या वे ईमानदार लोग हैं? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं? क्या ये वे लोग हैं जो ईमानदारी से स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाते हैं? क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को चाहता है? कतई नहीं। ये गैर-विश्वासी हैं जो चोरी-छिपे परमेश्वर के घर तक पहुँच गए हैं। वे परमेश्वर के घर की चौखट के बाहर हैं और अभी तक भीतर नहीं घुस पाए हैं। परमेश्वर के घर के लिए किए उनके काम मदद और कड़ी मेहनत करने के हैं—ये कलीसिया के मित्र हैं, लेकिन परमेश्वर के घर का हिस्सा नहीं हैं। परमेश्वर गैर-विश्वासियों या जंगली जानवरों को नहीं चाहता। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो परमेश्वर में अपने कई वर्षों के विश्वास, अपनी पूँजी और अतीत में निभाए गए महत्वपूर्ण कर्तव्यों के आधार पर कलीसिया का नियंत्रण और सारे प्राधिकार पाने की चाह में परमेश्वर के घर में रोब जमा कर दबाव डालते रहते हैं। परमेश्वर और सत्य के प्रति इन लोगों का रवैया परमेश्वर के लिए घृणास्पद होता है। उनके सार और उनके हृदय की गहराई में बैठी चीजों के आधार पर, परमेश्वर ऐसे लोगों को अपने घर के सदस्यों के रूप में स्वीकार नहीं करता है। परमेश्वर जब ऐसे लोगों को अपने घर के सदस्य के रूप में स्वीकार नहीं करता, तो उन्हें अपने घर में काम करने की अनुमति क्यों देता है? परमेश्वर उन्हें मदद करने या अस्थायी काम करने की अनुमति देता है। मदद करने और अस्थायी कार्य करने की प्रक्रिया में यदि उनके पास वास्तव में जमीर और विवेक हैं, यदि वे सुन सकते हैं, समर्पण कर सकते हैं और सत्य को स्वीकार सकते हैं, और यदि उनमें संतों जैसी शिष्टता और परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है, तथा वे सच्चे हृदय से काम कर सकते हैं, और यदि वे इन सब परीक्षाओं में सफल हो जाते हैं, तो परमेश्वर उन्हें अपने घर में ले जाएगा और वे परमेश्वर के घर के सदस्य बन जाएँगे। इस समय, वे जो कार्य करते हैं और जो कार्य परमेश्वर उन्हें सौंपता है, वे उनके कर्तव्य बन जाएँगे। परमेश्वर के घर के बाहर लोग जो कुछ भी करते हैं वह कोई कर्तव्य निभाना नहीं है, वह परमेश्वर के घर के लिए काम करना और उसकी मदद करना है, और ये लोग श्रमिक हैं।
अब, क्या तुम लोग माप सकते हो कि तुम परमेश्वर के घर के सदस्य हो या नहीं? अगर तुम परमेश्वर में अपने विश्वास रखने की अवधि के आधार पर निर्णय लो, तो तुम्हें परमेश्वर के घर का सदस्य होना चाहिए, लेकिन क्या मापन का यह तरीका बिल्कुल सही है? (नहीं।) तुम्हें मापन के लिए किस आधार का उपयोग करना चाहिए? यह मापन इस पर आधारित है कि सत्य सुनने पर क्या तुम्हारे भीतर कोई प्रतिक्रिया होती है, क्या सत्य का उल्लंघन करने पर या परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके विरुद्ध विद्रोह करने पर तुम अपने हृदय की गहराई में खुद को दोषी, फटकारा गया और अनुशासित किया गया महसूस करते हो। कुछ लोगों को आलोचनात्मक शब्द बोलने के बाद मुँह में छाले हो जाने के रूप में अनुशासित किया जाता है; कुछ दूसरे लोग बेपरवाही से काम करते हैं, चीजों को गंभीरता से नहीं लेते, तो परमेश्वर उन्हें बीमार कर देता है। इन बातों का उल्लेख करने पर यदि ये लोग अंदर से पछतावा महसूस करते हैं और पश्चात्ताप कर सकते हैं—यदि वे ये अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं—तो वे परमेश्वर के घर के सदस्य हैं। परमेश्वर इन लोगों को अपने घर और अपने ही परिवार का सदस्य मानता है। वह उन्हें ताड़ना देता है, अनुशासित करता है, डाँटता है, और उनकी काट-छाँट करता है—परमेश्वर के घर का सदस्य होने का यही मतलब है। जब परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया बदल जाए और तुम पश्चात्ताप कर सको, तो परमेश्वर भी तुम्हारे प्रति अपना रवैया बदल देगा। जब तुम जीवन में प्रवेश कर लो, चीजों पर तुम्हारी सोच और तुम्हारे जीवन की दिशा में कुछ बदलाव आ चुके हों, और तुम्हारे हृदय की गहराई में परमेश्वर के प्रति आस्था और भय धीरे-धीरे विकसित और रूपांतरित हो चुके हों, तो तुम परमेश्वर के घर का हिस्सा बन जाओगे। कुछ लोग कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते रहे हैं, लेकिन उन्होंने परमेश्वर के घर को फायदा पहुँचाने वाला कुछ खास काम नहीं किया है। वास्तव में उन्होंने बहुत-से बुरे काम किए हैं। उन्होंने झूठ बोला है, धोखा दिया है, बेपरवाही से काम किया है, मनमाने और एकतरफा ढंग से काम किया है, चढ़ावे चुराए हैं, कलह पैदा की है, विघ्न और बाधाएँ पैदा की हैं और कलीसिया का काम नष्ट किया है। उन्होंने बहुत-से गलत काम किए हैं, लेकिन कभी भी अपने अंदर से धिक्कार महसूस नहीं किया है। उनके हृदय में कोई पश्चात्ताप नहीं है और उन्हें जरा सा भी अपराधबोध नहीं है। ये वे लोग हैं जो परमेश्वर के घर के द्वार के बाहर खड़े रहते हैं। इस तरह के लोग हमेशा परमेश्वर के घर के द्वार के बाहर जीते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें किसी सिद्धांत का पालन नहीं करते और परमेश्वर के वचनों या सत्य में उनकी कोई रुचि नहीं होती। वे केवल दिया गया काम करने, दौड़ने-भागने, मेहनत करने, दिखावा करने और निजी पूँजी जमा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। कलीसिया के काम और अपने कर्तव्यों की बात हो, तो वे बेपरवाही से काम करते हैं; वे परमेश्वर से झूठ बोलते हैं और उसे धोखा देते हैं, यहाँ तक कि वे भाई-बहनों को भी गुमराह और नियंत्रित करते हैं। वे थोड़ी-सी भी फटकार या पछतावा महसूस नहीं करते, और वे परमेश्वर का अनुशासन भी महसूस नहीं करते। ये लोग परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं हैं। इस तरह के लोग बाहर से दौड़-भाग करने और खुद को खपाने में बहुत उत्साह दिखाते हैं; जताते हैं कि उनमें बहुत आस्था है और वे खुद को खपाने को तैयार हैं। ऐसा लगता है जैसे वे सत्य से वाकई प्रेम करते हैं, परमेश्वर से प्रेम करते हैं और सत्य का अभ्यास करने को तैयार हैं। परंतु, जैसे ही वे धर्मोपदेश सुनते हैं, उन्हें नींद आ जाती है, वे स्थिर नहीं बैठ पाते और प्रतिकर्षित महसूस करते हैं। अपने हृदय में वे सोचते हैं, “क्या इन चीजों पर संगति करना केवल लोगों की दशा को इंगित करना नहीं है, लोगों से अपने आप को जानने के लिए कहना, और उन्हें थोड़ा सत्य समझाना और अंततः समर्पण हासिल करवाना नहीं है? मैं ये सब समझता हूँ, तो इस पर फिर से संगति क्यों की जाए?” ये लोग सत्य से जरा भी प्रेम नहीं करते, और ऐसी स्थिति में भी उन्हें कोई भर्त्सना महसूस नहीं होती, कोई अनुशासन प्राप्त नहीं करते, मानो वे बिल्कुल हृदयहीन हों। ये सभी लोग परमेश्वर के घर से बाहर हैं। वे गैर-विश्वासी हैं। परमेश्वर के कार्य को पहली बार स्वीकार करने से लेकर आज तक, उन्होंने कभी वास्तव में यह नहीं स्वीकारा कि वे सृजित प्राणी हैं और परमेश्वर उनका सृष्टिकर्ता है। वे सत्य को सुई भर भी स्वीकार नहीं करते और स्वेच्छा से अपने कर्तव्य नहीं निभाते। परंतु, क्योंकि उनमें थोड़ी चालाक समझदारी और कुछ उत्साह के साथ-साथ महत्वाकांक्षा भी होती है, इसलिए वे हर जगह दौड़ने और काम करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, ताकि लोग उनकी प्रशंसा करें और वे परमेश्वर के घर में अपने लिए एक स्थान बना सकें। वे सोचते हैं, “इन कार्यों को करके और इस तरह भाग-दौड़ कर, मैंने विभिन्न स्थानों पर प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता अर्जित की है। मैंने कलीसिया में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है, और मैं जहाँ भी जाता हूँ, भाई-बहन मुझे आदर की दृष्टि से देखते हैं। भाई-बहनों के बीच इतनी प्रतिष्ठा होना काफी है; इसका अर्थ है कि मेरे पास जीवन है। जहाँ तक यह सवाल है कि परमेश्वर इसे कैसे परिभाषित करेगा, तो इस ओर बहुत ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं है।” ये किस तरह के लोग हैं? खरी बात कहें, तो वे छद्म-विश्वासी लोग हैं। ऐसा कहने का आधार क्या है? इसका आधार है सत्य और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया। उन्होंने कभी पश्चात्ताप नहीं किया, कभी स्वयं को नहीं जाना, और कभी नहीं जान पाए कि परमेश्वर के प्रति समर्पण करना क्या है। इसके बजाय, वे जो जी में आए वही करते हैं, अपने कर्तव्य निर्वहन के नाम पर अपने उद्यम में जुटे रहते हैं और अपनी इच्छाओं तथा पसंदों को पूरा करते हैं। उन्होंने इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखा है और इतने सारे धर्मोपदेश सुने हैं, लेकिन उनके मन में सत्य की कोई संकल्पना नहीं है, और उनके मन में यह संकल्पना भी नहीं है कि परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए सत्य का अभ्यास करना आवश्यक है। इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बाद भी वे अब तक नहीं समझ पाए हैं कि वास्तव में यह रास्ता किस चीज के बारे में है। अपने दिल की गहराइयों में वे नहीं महसूस करते कि मनुष्य अत्यंत भ्रष्ट है और उसे परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता है। उनके हृदय की गहराई में सत्य और परमेश्वर के लिए सच्ची इच्छा और तड़प भी नहीं होती। क्या यह समस्याजनक बात नहीं है? (हाँ, है।) यह बहुत समस्याजनक बात है। उनके लिए परमेश्वर, सत्य और उद्धार केवल खोखली बातें हैं, एक तरीके के तर्क या नारे मात्र हैं। यह बहुत समस्याजनक स्थिति है।
तुम लोग पौलुस और पतरस के बीच सबसे स्पष्ट अंतर क्या देखते हो? पौलुस ने कई वर्षों तक काम किया, यात्राएँ कीं, खुद को खपाया, योगदान दिया और बहुत सारी पीड़ाएँ सहन कीं, लेकिन जिस मार्ग पर वह चला उसमें सत्य शामिल नहीं था, परमेश्वर के प्रति समर्पण शामिल नहीं था, स्वभाव में बदलाव शामिल नहीं था और बचाया जाना भी निश्चित रूप से शामिल नहीं था। इसलिए, पौलुस की प्रतिष्ठा चाहे जितनी ऊँची हो, उसके लेखन ने बाद की पीढ़ियों को चाहे जितना प्रभावित किया हो, वह ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसने वास्तव में प्रभु यीशु से प्यार किया हो। उसे प्रभु यीशु की सच्ची समझ नहीं थी, उसने प्रभु यीशु को एक सच्चे परमेश्वर के रूप में स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसे केवल परमेश्वर के पुत्र के रूप में, एक सामान्य व्यक्ति के रूप में, स्वीकार किया। परिणामस्वरूप, वह प्रभु यीशु के प्रति सच्चा समर्पण रखने वाला नहीं था; उसने सुसमाचार का प्रचार करने, लोगों को अपने पक्ष में करने, और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने की आशा में कलीसियाओं की स्थापना करने और व्यक्तिगत रूप से उनकी देखभाल करने के क्रम में वह सब कुछ किया जो वह कर सकता था, लेकिन परमेश्वर ने पौलुस के हृदय की पड़ताल की और उसका अनुमोदन नहीं किया। इसके विपरीत, पतरस ने चुपचाप काम किया और उसका हृदय हमेशा उन बातों से भरा रहा जो प्रभु यीशु ने उससे कही थीं। उसने प्रभु यीशु की अपेक्षाओं के अनुसार परमेश्वर से प्रेम करने और उसे जानने का प्रयास किया। इस दौरान उसने परमेश्वर की झिड़कियाँ, काट-छाँट और यहाँ तक कि डाँट-फटकार भी स्वीकार की। पतरस को डाँटने के लिए परमेश्वर ने किन वचनों का प्रयोग किया था? (“शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” (मत्ती 16:23)।) बिल्कुल ठीक, “शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” परमेश्वर ने ऐसे वचन बोले, लेकिन इन वचनों ने पतरस के परिणाम का निर्धारण नहीं किया, वे केवल फटकार के वचन थे। क्या परमेश्वर ने पौलुस को उसके काम के दौरान डाँटा था? (नहीं।) व्यक्तिपरक कारकों को देखें तो, एक लिहाज से, परमेश्वर ने उसे नहीं डाँटा। दूसरे लिहाज से, वस्तुनिष्ठ कारकों के दृष्टिकोण से, पौलुस ने सत्य को स्वीकार नहीं किया, सत्य को नहीं खोजा, और उद्धार का मार्ग तो बिल्कुल भी नहीं खोजा, इसलिए वह इन चीजों को नहीं पा सका या इनका अनुभव नहीं कर सका। परमेश्वर ने उस पर जो कार्य किया, वह था उसकी सेवाओं का उपयोग करना—यदि कोई भी बड़ी बुराई किए बिना वह अंत तक श्रम कर पाता, तो वह श्रमिक बना रह सकता था; किंतु, यदि वह कोई बड़ा बुरा काम करता, तो परिणाम अलग होता। यही अंतर है। दूसरी ओर, पतरस को परमेश्वर से बहुत अनुशासन, ताड़ना और फटकार मिली। बाहर से ऐसा लगेगा कि पतरस परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं था, वह परमेश्वर को नाखुश करता था, लेकिन परमेश्वर के इरादों के परिप्रेक्ष्य से, ऐसा व्यक्ति बिल्कुल वैसा ही था जिसे परमेश्वर चाहता था और जिससे परमेश्वर प्रसन्न होता था। इसीलिए परमेश्वर उसे लगातार ताड़ना देता था और उसकी काट-छाँट करता था, ताकि धीरे-धीरे वह बड़ा हो, सत्य में प्रवेश करे, और परमेश्वर के इरादों को समझे, और अंततः सच्चा समर्पण और सच्चा परिवर्तन प्राप्त कर सके। यह परमेश्वर का प्रेम और परमेश्वर का उद्धार था।
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