केवल सच्चे समर्पण के साथ ही व्यक्ति असली भरोसा रख सकता है (भाग एक)
परमेश्वर में आस्था किसे कहते हैं? यह सबसे व्यावहारिक प्रश्न होने के साथ ही सबसे बुनियादी सत्य है जिसे एक विश्वासी को जरूर समझना चाहिए। क्या परमेश्वर में आस्था एक प्रकार का दृढ़ मत है या यह किसी व्यक्ति के जीवन की दिशा और लक्ष्य है? तुम्हारे दिल में आस्था का वास्तविक उद्देश्य क्या है? तुम परमेश्वर में आस्था क्यों रखना चाहते हो? यानी, तुम्हारा विश्वास क्या है? परमेश्वर में तुम्हारी आस्था का आधार और बुनियाद क्या है? तुम्हारी प्रेरणा क्या है? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर पर विश्वास करने के पीछे तुम्हारा इरादा और उद्देश्य क्या है? अंततः यह किस लिए है? ये सबसे व्यावहारिक सवाल हैं। तुम कह सकते हो कि लोग आशीष पाने के उद्देश्य से परमेश्वर में विश्वास करते और उसे स्वीकारते हैं। लोग परमेश्वर पर इसलिए विश्वास करते हैं ताकि उनके पास कोई ऐसी चीज हो जिस पर वे अपनी उम्मीदें टिका सकें, जिसे पाने के लिए वे लालायित रहें, और विचार और आत्मा के क्षेत्र में जिसका अनुसरण कर सकें। परमेश्वर पर सभी लोगों की आस्था के पीछे यही मूल इरादा होता है। लेकिन लोग जब परमेश्वर पर विश्वास करने लगते हैं, जब वे परमेश्वर के वचनों, सत्य, परमेश्वर के कार्य, और परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आते हैं तो अनजाने में ही आस्था को लेकर उनके विचार बदल जाते हैं, और वे सत्य की कुछ समझ पा लेते हैं; तब जाकर उन्हें एहसास होता है कि परमेश्वर में आस्था से वे सत्य हासिल करते हैं, कि आस्था ही सबसे सार्थक है, कि आस्था वास्तव में लोगों को कई मायनों में बदल सकती है और अंततः मानवीय भ्रष्टता की समस्या को हल कर सकती है। परमेश्वर में आस्था रखने के लिए तुम्हें पहले इन प्रश्नों के उत्तर जानने चाहिए : लोग परमेश्वर पर विश्वास क्यों करते हैं? परमेश्वर पर विश्वास करने का उद्देश्य क्या है? परमेश्वर पर विश्वास करने के पीछे क्या प्रेरणा है? परमेश्वर पर विश्वास करने की शुरुआती इच्छा और आकांक्षा क्या है? तुम लोगों ने इस प्रश्नों के बारे में कितना सोच-विचार किया है? क्या तुम लोगों के पास सही उत्तर हैं? (शुरुआत में मैंने आशीष पाने की इच्छा से परमेश्वर पर विश्वास किया। परमेश्वर के वचनों से कुछ न्याय और ताड़ना अनुभव करने के बाद मैंने देखा कि मैं सिर्फ आशीष के पीछे भागती थी, कि मुझमें वास्तव में कोई जमीर या विवेक नहीं था और मैं बहुत ही स्वार्थी थी। मुझे लगा कि शैतान मुझे अत्यंत भ्रष्ट कर चुका है और इसलिए मुझमें ऐसा व्यक्ति बनने की ललक थी जिसके पास जमीर और विवेक हो, जो सृजित प्राणी होने का उचित स्थान लेकर परमेश्वर का अनुसरण कर सके। अभी मेरे पास सिर्फ इतना थोड़ा-सा ज्ञान है।) जब लोग परमेश्वर पर विश्वास करने लगते हैं तो वे हमेशा अनुग्रह पाना चाहते हैं, आशीष और लाभ पाना चाहते हैं, और आत्मा या देह की विभिन्न जरूरतें और इच्छाएँ पूरी करना चाहते हैं। अपनी आस्था की शुरुआत से जब वे ऐसी चीजों के पीछे भागते थे, उन्होंने बहुत अधिक कष्ट उठाए हैं, और अब वे समझते हैं कि आस्था का महत्व इन चीजों के परे है। आस्था का महत्व बहुत गहन और बहुत व्यावहारिक है, और उन्हें मिलने वाले लाभ इतने अधिक हैं कि इन्हें चंद शब्दों में नहीं समेटा जा सकता है। परमेश्वर पर विश्वास रखने वाले को सबसे पहले मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव और पाप की समस्याएँ हल करने के साथ ही परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका ज्ञान हासिल करना चाहिए। सिर्फ इसी तरीके से व्यक्ति अपना भ्रष्ट स्वभाव वास्तव में छोड़ सकता है और शैतान के प्रभाव से निकल सकता है ताकि पूरी तरह परमेश्वर की ओर मुड़े। परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुसरण करने का उद्देश्य परमेश्वर से सत्य और जीवन हासिल करना है, और अंततः ऐसा इंसान बनना है जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो और जो परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर उसकी आराधना कर सके। आस्था का सच्चा अर्थ यही है। लोगों की आस्था की समझ देखकर हम यह जान सकते हैं कि आस्था को लेकर उनके विचारों, इरादों और प्रेरणाओं में बहुत बदलाव हो चुका है। यह बदलाव किन कारणों से हुआ? (यह परमेश्वर के सत्य व्यक्त करने का और उसने लोगों पर जो कार्य किया है उसका नतीजा है।) सही कहा। यह बदलाव सिर्फ समय बीतने का नतीजा नहीं है, न किसी ने यह तुम पर थोपा है, न ही यह किसी धार्मिक शिक्षा के प्रभाव या संक्रमण का नतीजा है, और ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है कि तुम्हारी अच्छाई ने तुम्हें एक बेहतर, अधिक मनुष्यवत व्यक्ति में बदलने के लिए स्वर्ग को प्रेरित किया हो। ये सभी मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। दरअसल, सबसे व्यावहारिक लाभ तो यह हासिल होता है कि परमेश्वर के वचनों का मार्गदर्शन, सिंचन और चरवाई पाकर लोग सत्य को समझने लगते हैं और परमेश्वर के इरादे समझने लगते हैं, वे मानवीय संसार में अंधकार और बुराई को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, और उनके विचार और दृष्टिकोण बहुत अधिक बदल जाते हैं। ये बदलाव किन कारणों से आते हैं? ये परमेश्वर के कार्य और वचनों के क्रमिक और छोटे-छोटे अनुभव का नतीजा हैं। तो फिर इन बदलावों में क्या-क्या शामिल होता है? इनमें आस्था का सबसे बड़ा मामला—उद्धार का मामला—शामिल है। यह मनुष्य की आस्था का सर्वोच्च महत्व है। दरअसल, लोग आस्था में ज्यादा नहीं माँगते। उनका उद्देश्य केवल अनुग्रह पाना और शांति खोजना है। फिर, यह बुरा इंसान बनने के बजाय अच्छा इंसान बनने की इच्छा में बदल जाता है, और आखिरकार वे बस अच्छी मंजिल पाना चाहते हैं। लेकिन यहीं सबसे बड़ा सवाल उठता है : परमेश्वर न्याय और शुद्धिकरण के अपने कार्य और मनुष्य के उद्धार में वास्तव में क्या परिणाम पाना चाहता है? यही लोगों को समझना चाहिए। मनुष्य को बचाने के अपने कार्य में, इस उद्धार को पूरा करने के लिए परमेश्वर किस चीज का उपयोग करता है? वह सत्य के बारे में उसकी समझ और अपने वचनों का उपयोग करता है और फिर न्याय और ताड़ना, परीक्षणों और शोधनों के उसके अनुभव का उपयोग कर उसे पाप और शैतान के प्रभाव से मुक्त करता है। अब अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचें तो लोगों की आस्था का सर्वोच्च महत्व क्या है? सरल शब्दों में कहें तो यह बचा लिए जाने के लिए है। और उद्धार का महत्व क्या है? मैं चाहता हूँ कि तुम सब लोग इस बारे में सोचकर मुझे बताओ कि वास्तव में बचा लिए जाने का अर्थ क्या है? (इसका यह अर्थ है हम शैतान के बुरे प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं, पूरी तरह परमेश्वर की ओर मुड़ सकते हैं, और अंततः जीवित रह सकते हैं।) (शैतान की सत्ता के अधीन जीने वाले लोग मृत्यु के पात्र हैं, लेकिन जो लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने से बचाए जाते हैं वे नहीं मरेंगे।) तुम सब लोग इसे समझते हो और सिद्धांत के स्तर पर इसे समझा सकते हो, लेकिन तुम यह कतई नहीं जानते कि वास्तव में बचा लिए जाने का अर्थ क्या है। क्या बचा लिए जाने का अर्थ अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागना है? क्या बचाए जाने का अर्थ झूठ न बोलना, ईमानदार व्यक्ति होना और परमेश्वर से विद्रोह न करना है? बचा लिए जाने के बाद लोग किस प्रकार के होते हैं? साधारण शब्दों में, बचा लिए जाने का अर्थ यह है कि तुम जीते रह सकते हो, तुम्हें दुबारा जीवन दे दिया गया है। कभी तुम पाप में जी रहे थे, और मरना तय था—परमेश्वर की नजरों में तुम मृत इंसान थे। यह कहने का क्या आधार है? उद्धार पाने से पहले लोग किसकी सत्ता के अधीन रहते हैं? (शैतान की सत्ता के अधीन।) और शैतान की सत्ता के अधीन जीने के लिए लोग किस चीज पर निर्भर रहते हैं? वे जीने के लिए अपनी शैतानी प्रकृति और भ्रष्ट स्वभावों पर निर्भर रहते हैं। यदि ऐसा है तो उनका सारा अस्तित्व—उनकी देह, और उनकी आत्मा और विचार जैसे सारे अन्य पहलू—जीवित हैं या मृत? परमेश्वर के नजरिए से वे मृत हैं, वे चलती-फिरती लाशें हैं। ऊपरी तौर पर, तुम साँस लेते और सोच-विचार करते प्रतीत होते हो, लेकिन तुम निरंतर जिस हरेक चीज के बारे में सोच रहे हो वह बुरी है, परमेश्वर की अवज्ञा और उससे विद्रोह करती है, और तुम्हारे सारे विचार उन चीजों के बारे में हैं जिन्हें परमेश्वर सख्त नापसंद करता है, जिनसे घृणा करता है और जिनकी निंदा करता है। परमेश्वर की नजरों में ये सारी चीजें न सिर्फ देह की हैं, बल्कि ये पूरी तरह से शैतान की और दानवों की हैं। तो परमेश्वर की नजरों में भ्रष्ट इंसान क्या मनुष्य है भी? नहीं, ऐसे लोग जानवर, दानव और शैतान हैं; वे जीवित शैतान हैं! सभी लोग शैतान की प्रकृति और उसके स्वभाव को जीते हैं, और परमेश्वर की नजरों में वे मनुष्य की देह में जीवित और लिपटे हुए शैतान हैं, मनुष्य की खाल में दानव हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को चलती-फिरती लाशें, मुर्दे निरूपित करता है। परमेश्वर अब उद्धार का कार्य कर रहा है, जिसका अर्थ है कि वह शैतान के भ्रष्ट स्वभाव और उसके भ्रष्ट सार के अनुसार जीने वाली चलती-फिरती लाशों—मृत लोगों—को उठा लेगा और उन्हें जीवित लोगों में बदल देगा। बचा लिए जाने का यही अर्थ है। कोई भी व्यक्ति बचा लिए जाने के खातिर परमेश्वर पर विश्वास करता है—बचा लिए जाने का अर्थ क्या है? जब कोई व्यक्ति परमेश्वर का उद्धार पाता है तो वह मृत से जीवित हो जाता है। जहाँ एक समय वह शैतान का था, उसका मरना तय था, वहीं अब वह जीवन पाकर परमेश्वर का हो जाता है। अगर लोग परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करते हुए परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकें, उसे जान सकें और आराधना में उसके सामने झुक सकें, अगर उनके दिल में परमेश्वर के प्रति कोई प्रतिरोध और विद्रोह न रहे, और वे उसका विरोध और उस पर आक्षेप न करें, और उसके प्रति सच्चे मन से समर्पण कर सकें तो फिर परमेश्वर की नजरों में वे सच्चे जीवित लोग हैं। क्या जो व्यक्ति परमेश्वर को सिर्फ मौखिक रूप से स्वीकार करता हो वह जीवित व्यक्ति है? (नहीं।) तो फिर जीवित व्यक्ति कैसा होता है? जीवित लोगों की वास्तविकताएँ क्या हैं? जीवित व्यक्तियों के पास क्या होना जरूरी है? तुम लोग मुझे अपनी राय बताओ। (जो लोग सत्य स्वीकार सकते हैं, वे जीवित व्यक्ति हैं। जब लोगों के वैचारिक दृष्टिकोण और चीजों से संबंधित विचार बदलकर परमेश्वर के वचनों के अनुरूप हो जाते हैं तो वे जीवित लोग होते हैं।) (जीवित लोग वे हैं जो सत्य समझते हैं और इसका अभ्यास कर सकते हैं।) (जो व्यक्ति परमेश्वर का भय मानता है और अय्यूब की तरह बुराई से दूर रहता है, वह जीवित व्यक्ति है।) (जो लोग परमेश्वर को जानते हैं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार जी सकते हैं, और सत्य वास्तविकता को जी सकते हैं—वे जीवित लोग हैं।) तुम सब लोगों ने एक प्रकार की अभिव्यक्ति की बात की है। किसी व्यक्ति के अंततः बचा लिए जाने और जीवित मनुष्य बनने के लिए, उसे कम-से-कम परमेश्वर के वचनों का आज्ञापालन करने में सक्षम होना चाहिए, जमीर और विवेक युक्त वचन बोलने में सक्षम होना चाहिए, और उसे अवश्य ही विचारवान और विवेकशील होना चाहिए, सत्य समझने और इसका अभ्यास करने योग्य होना चाहिए, परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसकी आराधना करने योग्य होना चाहिए। यही सच्चा जीवित व्यक्ति होता है। जीवित व्यक्ति अक्सर क्या सोचते और करते हैं? वे थोड़ा-बहुत वही कर सकते हैं जो सामान्य लोगों को करना चाहिए। मुख्य रूप से वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाते हैं, और वे जो कुछ सोचते और प्रकट करते हैं और नियमित रूप से जो कुछ कहते और करते हैं, उसमें परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं। वे अक्सर जो कुछ सोचते और करते हैं, उसकी यही प्रकृति है। इसे थोड़ा और सटीक रूप से कहें तो वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह कम-से-कम मोटे तौर पर सत्य के अनुरूप होता है। परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता, न इससे तिरस्कार करता है, बल्कि वह इसे मानता और स्वीकृति देता है। जीवित लोग यही करते हैं, और यही उन्हें करना भी चाहिए। अगर तुम परमेश्वर को सिर्फ मुँह से स्वीकारते और मन में विश्वास करते हो तो क्या तुम परमेश्वर की स्वीकृति और उद्धार पा सकोगे? (नहीं।) क्यों नहीं पा सकोगे? कुछ लोग कहते हैं, “मैं मानता हूँ कि परमेश्वर है,” “मैं सभी चीजों और मानवजाति के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास करता हूँ,” “मैं मानता हूँ कि मेरी हर चीज परमेश्वर के हाथों में है, कि मेरे जीवन में अधिकांशतः परमेश्वर ने मेरी अगुआई की है, और मेरे आगामी मार्ग में वह इसी तरह मेरी अगुआई कर सकता है,” “मुझे विश्वास है कि परमेश्वर मेरी नियति बदल सकता है।” क्या इस प्रकार की “आस्था” रखने का यह मतलब है कि वे बचा लिए गए हैं? (नहीं।) तो किस प्रकार की आस्था का अर्थ यह होता है कि लोग वास्तव में बचा लिए गए हैं? (ऐसी आस्था जो अय्यूब की तरह उन्हें परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने देती है।) लोग इस प्रकार की असली आस्था कैसे पा सकते हैं? मौखिक स्वीकृति और मन में विश्वास रखना : क्या इस प्रकार के विश्वास से हृदय परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने वाला बन सकता है? क्या इस प्रकार के विश्वास का यह अर्थ है कि लोगों को परमेश्वर का ज्ञान है? क्या इससे लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण कर लेंगे? क्या इससे उद्धार मिलेगा? यहाँ और कौन-सी चीज छूट रही है? इन सवालों पर विचार करना और इन्हें समझना जरूरी है।
क्या विश्वास, दृढ़ मत और असली आस्था में कोई अंतर है? (हाँ।) इनमें निश्चित रूप से अंतर हैं और तुम्हें पता लगाना चाहिए कि इनमें सटीक अंतर क्या हैं। अगर तुम इन चीजों में भेद नहीं करोगे, तो तुम्हें लगेगा कि परमेश्वर में तुम्हारी असली आस्था है जबकि असल में यह सिर्फ अस्पष्ट विश्वास या दृढ़ मत है। परमेश्वर में तुम्हारी असली आस्था का विकल्प अस्पष्ट दृढ़ मत कैसे हो सकता है? दरअसल, वास्तविक भरोसा रखने के बजाय तुमने इसकी जगह अपने दृढ़ मतों और विश्वासों को बैठा दिया है। अगर परमेश्वर में तुम्हारी आस्था एक विश्वास या दृढ़ मत से अधिक नहीं है तो फिर तुम परमेश्वर के समक्ष कभी भी वास्तव में नहीं आ सकोगे, और परमेश्वर तुम्हारी जैसी आस्था को स्वीकृति नहीं देता है। विश्वास, दृढ़ मत और असली आस्था के बीच क्या अंतर हैं? विश्वास और दृढ़ मत को स्पष्ट रूप से समझाना सरल नहीं है, इसलिए हमें सबसे पहले असली आस्था के बारे में बात करनी चाहिए। परमेश्वर में असली आस्था क्या है? (यह विश्वास करना कि सभी घटनाएँ और सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं।) यह असली आस्था है या विश्वास है? (विश्वास है।) (असली आस्था परमेश्वर के ज्ञान की बुनियाद पर खड़ी होती है। जब लोग परमेश्वर को जानते हैं, केवल तभी उनमें असली आस्था हो सकती है।) यह समझ बहुत सीमित रूप से सही है। लोगों में असली आस्था कैसे हो सकती है? असली आस्था की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? अगर लोगों के पास असली आस्था होगी तो क्या वे परमेश्वर को गलत समझेंगे या उसके बारे में शिकायतें करेंगे? क्या वे परमेश्वर का विरोध करेंगे? (नहीं।) अगर लोगों में असली आस्था होगी, तो क्या वे परमेश्वर से विद्रोह करेंगे? लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर जब नेकी करने और नेक बनने की कोशिश करते हैं, तो क्या वे परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं? (नहीं।) विश्वास, दृढ़ मत और असली आस्था की ये तीन अवधारणाएँ एक ओर रखकर पहले हमें एक मामले पर संगति करनी चाहिए। पतरस ने बचा लिए जाने और पूर्ण बनाए जाने से पहले ख्यात रूप से क्या किया था? (प्रभु से तीन बार मुकरा था।) प्रभु से तीन बार मुकरने से पहले पतरस ने और क्या किया था? जब प्रभु यीशु ने कहा कि उसे सूली पर चढ़ा दिया जाएगा तो पतरस ने क्या कहा? (“हे प्रभु, परमेश्वर न करे! तेरे साथ ऐसा कभी न होगा” (मत्ती 16:22)।) क्या पतरस ने असली आस्था के कारण ऐसा कहा? (नहीं।) तो फिर यह क्या था? ये इंसान के नेक इरादे थे और यह परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी करना था। पतरस को ऐसा नेक इरादा कहाँ से मिला? (मनुष्य की इच्छा से।) उसने ऐसी मानवीय इच्छा पर विचार क्यों किया? वह परमेश्वर के इरादे नहीं समझता था, वह नहीं समझता था कि प्रभु यीशु की सेवकाई क्या है, और उसे प्रभु यीशु की सच्ची समझ नहीं थी। वह परमेश्वर का अनुसरण सिर्फ श्रद्धा के कारण करता था। वह मन ही मन प्रभु की आराधना करता था, इसलिए वह प्रभु से प्रेम करना और उसकी रक्षा करना चाहता था। उसने सोचा, “तुम्हारे साथ यह चीज कभी नहीं घटित होनी चाहिए! तुम यह पीड़ा नहीं भोग सकते! अगर पीड़ा भोगनी ही पड़े तो मैं भोगूँगा। तुम्हारी जगह मैं भोगूँगा।” वह परमेश्वर का इरादा नहीं जानता था, उसके कुछ नेक इरादे थे जो मानवीय इच्छा से उपजते थे और वह यह चीज घटित होने से रोकना चाहता था। तो फिर उसने किस कारण इस तरह से व्यवहार किया? एक लिहाज से इसका कारण उग्रता, मानवीय इच्छा और नासमझी थी। दूसरे लिहाज से, वह परमेश्वर के कार्य को नहीं समझता था। क्या उसने ऐसा असली भरोसे के कारण किया? (नहीं।) तो फिर उसमें ऐसे नेक इरादे क्यों आए? क्या ऐसे नेक इरादे सत्य के अनुरूप हैं? क्या ये सत्कर्मों की श्रेणी में आते हैं? भले ही उसने नेकी करनी चाही और वह नेक इरादों और ईमानदारी से पेश आया, लेकिन उसके क्रियाकलापों की प्रकृति क्या थी? क्या ये व्यवहार और क्रियाकलाप सच्ची आस्था से उपजे? (नहीं।) अब यह साफ हो गया कि इसका उत्तर स्पष्ट ना है। तो क्या यह एक विश्वास है? (हाँ।) आओ, इसे लेकर हम यह चर्चा करें कि विश्वास क्या होता है। विश्वास एक प्रकार की अच्छी ललक और अच्छी इच्छा है जो मानवीय धारणा और कल्पना से सबसे अधिक मेल खाती है। यह ऐसी चीज है जिसे मानवजाति आम तौर पर अच्छा और सकारात्मक मानती है। एक प्रकार का अच्छा विचार, अच्छा ख्याल, अच्छा अभ्यास और अच्छी प्रेरणा जो पूरी तरह मानवीय धारणाओं और भावनाओं के अनुरूप है। मनुष्य इसी के लिए लालायित होते हैं। यही विश्वास है। विश्वास असली आस्था नहीं है। यह पूरी तरह मानवीय इच्छा से उपजता है और उन मानकों के अनुरूप नहीं होता जिनकी अपेक्षा परमेश्वर करता है, इसलिए विश्वास असली भरोसा नहीं है। पतरस वास्तव में नेक इंसान था। उसके पास अच्छी मानवीयता थी और वह अपने अनुसरण में सरल, ईमानदार, जुनूनी और गंभीर था। अपने मन में उसने प्रभु यीशु की पहचान को लेकर कोई संदेह नहीं पाला। इस प्रकार वह तहेदिल से यह कह सका : “हे प्रभु, परमेश्वर न करे! तेरे साथ ऐसा कभी न होगा।” वह ऐसा कह पाया, यह उसकी मानवता और ईमानदारी को दर्शाता है। भले ही यह एक प्रकार की इच्छा, एक प्रकार का नेक इरादा, और एक प्रकार के विश्वास से उपजा एक प्रकार का व्यवहार, अभ्यास और प्रदर्शन है, इससे हम देख सकते हैं कि पतरस के पास दयालु मानवता है। वह सकारात्मक मान्यताएँ रखता था, लेकिन दुर्भाग्य से उसका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा था, इसलिए वह परमेश्वर के बारे में बहुत कम जानता था, परमेश्वर की प्रबंधन योजना को नहीं जानता था, परमेश्वर जो कार्य करना चाहता था उसे नहीं जानता था, परमेश्वर का इरादा नहीं समझता था, उसने ऐसी मूर्खतापूर्ण चीज की जो पूरी तरह मानवीय इच्छा पर आधारित थी और परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालती थी। यह विश्वास से उपजा मानवीय कृत्य था, और स्पष्ट रूप से असली आस्था नहीं थी। अगर कोई व्यक्ति ऐसे विश्वास रखता है जिनके कारण उसमें सद्व्यवहार और कुछ नेक इरादे आ जाते हैं तो वह जो कार्य करता है क्या उन्हें परमेश्वर याद रखता है? परमेश्वर इन चीजों को याद नहीं रखता, इसलिए ये व्यर्थ हैं! बल्कि परमेश्वर ने यह कहा : “शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” (मत्ती 16:23)। इसके बारे में सोचो। प्रभु यीशु ऐसे वचन क्यों कहता है जो लोगों को बहुत ही बेरुखे लगते हैं? पतरस के नेक इरादे देखकर प्रभु यीशु ने समझ क्यों नहीं दिखाई? इस मामले में परमेश्वर का रवैया क्या था? क्या परमेश्वर ने पतरस के इस नेक इरादे को स्वीकृति दी? (नहीं।) परमेश्वर ने पतरस के मन की पड़ताल कर देखा कि उसका कोई बुरा इरादा नहीं था, इसलिए उसे इस मामले का सार उजागर करने की जरूरत नहीं पड़ी। क्या यह ठीक है? (नहीं।) क्यों? परमेश्वर लोगों के नेक इरादों, लोगों के विश्वास और लोगों द्वारा अच्छी समझी जाने वाली उन चीजों के बारे में क्या सोचता है जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं होतीं? परमेश्वर कहता है कि ऐसी चीजें शैतान से आती हैं और परमेश्वर की प्रतिरोधी हैं। परमेश्वर यही मानता है। क्या ऐसी सोच मनुष्य के सोचने के तरीके से बेमेल है? (हाँ।) मानवीय लगाव के आधार पर व्यवहार करने पर कोई औसत इंसान पतरस की प्रतिक्रिया में क्या करता? वह पतरस को अपनी लाज बचाने और बचने का रास्ता दे देता और अपने मन में सोचता, “पतरस के इरादे नेक हैं और वह तुम्हारी रक्षा करना चाहता है। पतरस को इस तरह झिड़कना बेरुखा लगता है।” लेकिन परमेश्वर के कार्यकलाप मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाते। परमेश्वर के कहे वचनों की प्रकृति क्या है? एक लिहाज से वे खुलासा हैं, दूसरे लिहाज से वे निंदा हैं तो तीसरे लिहाज से न्याय हैं। ये वचन सुनकर पतरस को कैसा लगा? उसे ताड़ना महसूस हुई, मानो उसके दिल में छुरा घोंप दिया गया हो। उसे बहुत ही बुरा लगा और वह समझ नहीं पाया और मन में सोचने लगा, “हे परमेश्वर, मैं तुम्हें ईमानदारी से प्रेम करता हूँ! मैं तुम पर इतना विश्वास करता हूँ, तुमसे इतना ज्यादा प्रेम करता हूँ, तुम्हारी बहुत सुरक्षा करना चाहता हूँ तो भी तुम मुझसे ऐसा सलूक क्यों कर रहे हो? तुम कहते हो कि मैं शैतान हूँ और आदेश देते हो कि मैं तुम्हारे पीछे खड़ा होऊँ। क्या मैं शैतान हूँ? क्या मैं तुम्हारा ईमानदारी से अनुसरण नहीं करता हूँ, तो फिर तुम मुझे शैतान कैसे मान सकते हो? उससे भी ज्यादा, तुम इतने बेरुखे हो, मुझे अपने पीछे खड़े होने का आदेश देते हो। यह दिल तोड़ने वाली और तकलीफदेह बात है!” परमेश्वर के चीजों को इस तरह सँभालने और उनसे ऐसे पेश आने से क्या तुम लोग मानवीय विश्वास के प्रति परमेश्वर का रवैया देख सकते हो? (निंदा, न्याय और उजागर करना।) सही कहा। परमेश्वर इन चीजों को नापसंद ही नहीं करता, बल्कि इनसे नफरत भी करता है और सबसे गंभीर तो यह है कि ऐसी चीजों की निंदा करता है। परमेश्वर ने ये जो चीजें प्रकट की हैं, क्या इनसे तुम लोगों ने परमेश्वर का स्वभाव भाँप लिया है? (परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है।) यह निश्चित रूप से ऐसा है। और क्या है? हालाँकि सहनशीलता, दया, धैर्य और अनुकंपा लोगों के लिए बहुत लाभकारी हैं, और भले ही वे परमेश्वर के पास जो है और जो वह स्वयं है, उसके ऐसे अंग हैं जिसे स्वीकारना लोगों के लिए आसान है, और हालाँकि ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर हमेशा लोगों के लिए प्रकट और प्रदान करता है, लेकिन लोग एक बार जब परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर उसके सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं तो परमेश्वर उनसे कैसे निपटता है? परमेश्वर उनकी निंदा करता है! परमेश्वर लोगों से यह कहकर अस्पष्ट बयान नहीं देता, “लोगों ने यह नेक इरादे से किया है और इसमें कोई छिपा उद्देश्य नहीं है, इसलिए मैं इस बार उन्हें छोड़ देता हूँ।” परमेश्वर के साथ, कोई मध्य मार्ग नहीं है और मानवीय इच्छा की कोई मिलावट नहीं है। एक का मतलब एक, दो का मतलब दो। जो सही है वह सही है, जो गलत है वह गलत है। परमेश्वर के लिए कोई अस्पष्टता नहीं है। पतरस ने प्रभु यीशु से जो कहा, “हे प्रभु, परमेश्वर न करे! तेरे साथ ऐसा कभी न होगा,” उसका विश्लेषण करके लोग यह समझ सकते हैं कि विश्वास क्या है। क्या विश्वास रखने वाले लोग परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं? क्या ये विश्वास असली आस्था उत्पन्न कर सकते हैं? क्या ये परमेश्वर में लोगों की असली आस्था की जगह ले सकते हैं? (नहीं।) नहीं, यह बिल्कुल सच है।
आखिरकार विश्वास क्या होता है? यह एक तरह की धारणा और कल्पना, नेक इच्छाएँ, नेक लक्ष्य और ऐसी उच्च आकांक्षाएँ जिसे लोग स्थापित करते हैं। जब ये चीजें स्थापित हो जाती हैं तो लोग इसी दिशा में भागने लगते हैं, और वे मानवीय नेक इरादों, मानवीय प्रयासों और पीड़ा सहने की मानवीय इच्छा या और अधिक अच्छे मानवीय व्यवहार पर निर्भर रहकर इनका अनुसरण कर इन्हें हासिल करते हैं। यहाँ किस चीज की कमी है? ऐसा क्यों है कि ऐसा विश्वास रखने वाले लोग परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाते हैं? (अपने विश्वासों के आधार पर लोग परमेश्वर के कार्यों में गड़बड़ी करते और बाधा डालते हैं।) यह एक प्रत्यक्ष पहलू है। इसके अलावा, जब लोग अपने विश्वासों के आधार पर कार्य करते हैं तो क्या उनके कार्यों में कोई सत्य होता है? (नहीं।) पतरस ने जो किया, उसका विश्लेषण करते हैं। पतरस ने कहा, “हे प्रभु, परमेश्वर न करे! तेरे साथ ऐसा कभी न होगा।” क्या इन शब्दों में सत्य है? (नहीं।) “तेरे साथ ऐसा कभी न होगा,” यह कहने का उसका क्या तात्पर्य है? परमेश्वर के साथ ऐसा क्यों नहीं हो सकता? क्या ऐसा हो सकता है कि यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन नहीं है? क्या इस सब में परमेश्वर का निर्णय अंतिम नहीं होता? अगर परमेश्वर ऐसा होने दे तो ऐसा होकर रहेगा। अगर परमेश्वर ऐसा न होने दे तो क्या यह टल नहीं जाएगा? क्या पतरस के ये शब्द “तेरे साथ ऐसा कभी न होगा,” यह सब बदल सकते हैं? इस पूरे मामले के घटित होने, इसके आगे बढ़ने और नतीजे को किसने तय किया? (इसे परमेश्वर ने तय किया।) तो फिर पतरस के कहे ये शब्द क्या हैं? ये मूर्खतापूर्ण शब्द हैं, अज्ञानता वश कहे शब्द, शैतान की तरफ से कहे हुए शब्द हैं। मानवीय विश्वासों का यही नतीजा निकलता है। क्या यह गंभीर समस्या है? (बिल्कुल है।) यह समस्या कितनी गंभीर है? (यह परमेश्वर का प्रतिरोध है और शैतान का निर्गम-द्वार बनने जैसा है।) बिल्कुल सही। यह शैतान का निर्गम-द्वार बनने जैसा है, जिसका मतलब परमेश्वर का प्रतिरोध करना और शैतान की ओर से परमेश्वर के कार्य को छिन्न-भिन्न करना है। इस मामले में अगर प्रभु यीशु ने वैसा ही किया होता जैसा पतरस ने कहा तो क्या मानवजाति के छुटकारे का उसका कार्य चौपट नहीं हो जाता? पतरस के कहे इन शब्दों की प्रकृति क्या है? (ये परमेश्वर का कार्य गड़बड़ करते हैं।) इसीलिए परमेश्वर ने बेरहमी से ये क्रोधी वचन सुनाए—“शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” ये वचन निंदा भी हैं और न्याय भी हैं। इनमें परमेश्वर का स्वभाव निहित है! जब लोग ऐसे विश्वास पालते हैं, ऐसे विश्वास जो नेक इरादों, मानवीय इच्छाओं, अच्छे मानवीय कामनाओं, और उन सारी चीजों से मिश्रित होते हैं जिन्हें इंसान सकारात्मक और अच्छी मानते हैं तो क्या परमेश्वर इन्हें स्वीकृति देता है? (नहीं।) लोग इन सभी चीजों को अच्छा समझते हैं तो फिर परमेश्वर इन्हें अपनी स्वीकृति क्यों नहीं देता है? एक लिहाज से, ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है। यही आम कारण है। इसके अलावा, व्यावहारिक दृष्टि से, लोग परमेश्वर के कहे वचनों और उसके किए कार्यों के प्रति सच्चा समर्पण नहीं कर पाते, न वे इन चीजों को वास्तव में समझते-बूझते हैं। मानवीय सोच के आधार पर वे हमेशा यह चाहते हैं कि परमेश्वर यह न करे या वह न करे। वे हमेशा यह सोचते हैं, “परमेश्वर के लिए ऐसा करना वाकई अच्छा नहीं है। इस तरह कार्य करने की हम उम्मीद नहीं करते, यह लोगों को ध्यान में रखकर नहीं किया जा रहा।” जब लोग ऐसी चीजों का सामना करते हैं तो वे अक्सर अपने मन में धारणाएँ पालने लगते हैं, वे मनुष्य-निर्मित कल्पनाओं से भर जाते हैं, और कार्य करने के तमाम मानवीय तौर-तरीके अपनाते हैं। यहाँ न कोई समर्पण होता है, न सच्चा ज्ञान, न ही परमेश्वर का सच्चा भय, यहाँ सिर्फ परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी पैदा कर इसे छिन्न-भिन्न किया जाता है। इसमें असली आस्था का कोई नामोनिशान नहीं होता। इसीलिए जब पतरस ने ये शब्द कहे तो उसका न्याय किया गया। क्या न्याय के बाद उसे कुछ मिला? (वह अपने और परमेश्वर के स्वभाव के बारे में थोड़ा-सा और समझ पाया।) ऐसा न्याय अच्छी चीज है या बुरी? कम से कम इससे उसे ठोकर लगी जिसके कारण उसने रुककर सोचा, “हे प्रभु, क्या मैं शैतान हूँ? मैं तुम पर सच्चे मन से विश्वास करता हूँ, तुमसे प्रेम करता हूँ, तुम्हारा वफादार अनुयायी हूँ! मैं शैतान कैसे हो सकता हूँ?” इस पर दुबारा मनन करते हुए उसने सोचा, “प्रभु यीशु ने मुझे इतने स्पष्ट शब्दों में फटकारा। उसने मुझे अपने पीछे आने को कहा और मुझे शैतान कहकर फटकारा। इसका मतलब है कि इस मामले में मैंने शैतान के स्थान पर कार्य किया! किस प्रकार का इंसान शैतान की ओर से कार्य कर सकता है? ऐसा इंसान जो परमेश्वर के अनुरूप नहीं है। ऐसा इंसान कहीं भी और कभी भी परमेश्वर का प्रतिरोध और उससे विश्वासघात कर सकता है, परमेश्वर के कार्य को छिन्न-भिन्न कर सकता है, उसके कार्य में विघ्न डालकर इसे ध्वस्त कर सकता है, और परमेश्वर का शत्रु बन सकता है। यह बहुत भयावह है! ऐसा है तो, मैं फौरन परमेश्वर के पीछे चला जाऊँगा और अपना मुँह बंद रखूँगा।” क्या इससे यह नहीं दिखता कि पतरस धीरे-धीरे होश में आ गया, उसने समझ हासिल की और इस समस्या की गंभीरता का एहसास हुआ? उसने जाना कि इंसान हमेशा इंसान रहता है और परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहता है, और इंसान और परमेश्वर के बीच फासला होता है। जब इंसान नेक इरादों के आधार पर कार्य करता है, तो परमेश्वर इसे विघ्न-बाधा मानता है। इस तरीके से धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए, क्या इंसान के प्रति परमेश्वर का न्याय अच्छी चीज साबित होता है? (हाँ।) तो क्या किसी व्यक्ति का थोड़ी-बहुत मूर्खता प्रकट करना बुरी चीज है? इस लिहाज से देखें तो यह बुरी चीज नहीं, बल्कि अच्छी चीज है। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं कि यह अच्छी चीज साबित होती है? (लोग इससे लाभान्वित होते हैं।) बिल्कुल सही, लोगों को कुछ लाभ होता है। ये लाभ किस प्रकार प्राप्त होते हैं? जब तुम परमेश्वर के न्याय के अधीन होते हो और तुम इसके प्रति समर्पण करते हो, अपनी जाँच करते हो, और परमेश्वर से जो कुछ आता है उसे स्वीकारते हो—परमेश्वर की सारी अभिव्यक्तियाँ, परमेश्वर के प्रकाशन, और वह सब कुछ जो परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है—और यह तुम्हारी वास्तविकता बन जाती है, तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो फिर तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि तुम्हारी भ्रष्टता कब स्वच्छ हो गई। तो न्याय होना बुरी चीज है या अच्छी? (अच्छी चीज है।) तो क्या तुम लोग न्याय पाने के लिए तैयार हो? (हम तैयार हैं।) अगर तुम लोगों का रोज न्याय किया जाए तो क्या यह ठीक रहेगा? तुम लोगों को सामान्य रूप से खाने, सोने या आराम करने की अनुमति नहीं होगी; जब कुछ होगा तो परमेश्वर तुम्हें पीछे हटने को कहेगा और वह बिना किसी खास कारण के तुम्हारा न्याय करेगा। क्या यह ठीक रहेगा? क्या तुम इसे झेल लोगे? लोग इसे नहीं झेल पाएँगे और परमेश्वर ऐसी चीज नहीं करेगा। परमेश्वर उत्सुकता से तुम्हें तेजी से विकसित और परिपक्व होते देखना चाहता है। इसीलिए परमेश्वर के न्याय के कई चरण हैं। कभी वह रुष्ट हो सकता है, और फिर तुम्हें कुछ ढाढ़स बँधा सकता है। हो सकता है कभी-कभी वह तुम पर प्रहार करे और फिर दया दिखा दे। भले ही परमेश्वर अक्सर गुस्सा करे, उसके गुस्से के बीच अंतराल होते हैं और इससे लोगों को सँभलने का मौका मिल जाता है। परमेश्वर जब लोगों का इस तरह सीधे न्याय करने के साथ निंदा करता है, केवल तभी यह उनके जीवन में तरक्की में सहायक होता है। सत्य पाने के लिए थोड़ा कष्ट उठाना उचित है।
जो लोग सिर्फ विश्वास रखते हैं वे परमेश्वर के इरादे पूरे करने से कोसों दूर होते हैं, और ये विश्वास परमेश्वर में असली आस्था के समुचित विकल्प नहीं होते हैं। अगर लोग किसी विश्वास के आधार पर परमेश्वर पर आस्था रखते हैं तो वे कभी भी सच में परमेश्वर के समक्ष नहीं आ सकते, वास्तव में उसके प्रति समर्पण करना और परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना तो दूर की बात है। ऐसा क्यों होता है? लोगों के विश्वास का सत्य से कोई वास्ता नहीं है, और ये परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने से कोसों दूर हैं। जब लोगों के अपने विश्वास होते हैं, तो इसका यह मतलब नहीं है कि वे सत्य समझते हैं। विश्वास के आधार पर परमेश्वर पर आस्था रखकर लोग परमेश्वर के कार्य को कभी नहीं समझ सकेंगे, बल्कि इसमें गड़बड़ी पैदा कर बाधा ही डालेंगे। विश्वास पर आधारित आस्था का मतलब यह नहीं है कि लोग परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होंगे, परमेश्वर के प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। तो फिर पतरस के साथ आगे क्या हुआ? सूली चढ़ाए जाने से पहले प्रभु यीशु ने पतरस से कहा था : “मैं तुझ से सच कहता हूँ कि आज ही रात को मुर्ग़ के बाँग देने से पहले, तू तीन बार मुझ से मुकर जाएगा” (मत्ती 26:34)। इसके जवाब में पतरस ने क्या कहा? (“यदि मुझे तेरे साथ मरना भी पड़े, तौभी मैं तुझसे कभी न मुकरूँगा” (मत्ती 26:35)।) इससे पतरस परेशान हो गया, और उसने कहा कि जैसा प्रभु ने कहा है वह वैसा नहीं करेगा, लेकिन अंत में प्रभु यीशु के वचन सत्य साबित हुए। क्या उस समय पतरस का भरोसा तुम लोगों के भरोसे से ज्यादा था या कम? (ज्यादा था, उसने प्रभु को बचाने के लिए मुख्य याजक के सेवक का कान काट दिया था।) उसकी उग्रता के कारण यह हुआ था। वह जितना प्रभु यीशु को जानता था और प्रभु की पहचान को मानता था, उससे प्रभु यीशु में उसकी आस्था का स्तर दिखता है। इससे वह प्रभु यीशु के लिए जीवन दाँव पर लगाकर लड़ सका और उसने कहा, “जो कोई मेरे प्रभु को छूएगा, मैं उससे लड़ने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दूँगा!” उसकी आस्था इस स्तर तक पहुँच चुकी थी, लेकिन परमेश्वर क्या मनुष्य से उग्रता चाहता है? बिल्कुल भी नहीं। पतरस की आस्था उस स्तर तक पहुँच चुकी थी जहाँ वह प्रभु के लिए अपनी जान दे सकता था, फिर भी वह प्रभु से तीन बार क्यों मुकरा? क्या इसकी यह वजह है कि प्रभु यीशु की भविष्यवाणी के अनुसार उसके लिए ऐसा करना पूर्वनियत था? (नहीं।) तो क्या वजह थी? वह इतना कायर क्यों बना? वह प्रभु यीशु के लिए दूसरों से लड़ते हुए अपनी जान जोखिम में डाल सकता है और किसी का कान काट सकता है। प्रभु यीशु से प्रेम के कारण, वह तहेदिल से ये शब्द कहने और उन पर अमल करने में सक्षम था, जो उसकी असाधारण ईमानदारी का सूचक है। तो समय आने पर उसने प्रभु को स्वीकारने का साहस क्यों नहीं किया? (क्योंकि उसे इसके दुष्परिणाम पता थे। अगर तब रोमन सैनिक उसे पकड़ लेते, तो उसे मार दिया जाता। उसे पकड़े जाने और मौत का डर था।) मुख्य कारण अपनी जान बचाने की इच्छा थी। यह सच है कि पतरस विश्वास रखता था, लेकिन क्या उसमें असली आस्था के तत्व थे? उस समय पतरस को प्रभु यीशु के बारे में पहले ही एहसास हो चुका था कि वह मसीह है, जीवित परमेश्वर का पुत्र है और स्वयं परमेश्वर है। उसके पास इतनी सच्ची आस्था थी तो फिर उसमें इतनी कायरता क्यों थी? (उसके पास वैसा आध्यात्मिक कद नहीं था।) उसे अपनी जान प्यारी थी और वह मृत्यु, पीड़ा और शारीरिक यातना से डरता था। चाहे जो भी कारण हो, अंत में फिर भी वह तीन बार प्रभु से मुकर गया। बिल्कुल वैसा ही हुआ जैसा प्रभु यीशु ने कहा था : “आज ही रात को मुर्ग़ के बाँग देने से पहले, तू तीन बार मुझ से मुकर जाएगा।” ये वचन सचमुच पतरस पर खरे उतरे। प्रभु यीशु पतरस के बारे में ऐसी बातें कहने और ऐसे निष्कर्षों पर पहुँचने में सक्षम क्यों था? (परमेश्वर लोगों के अंतरतम हृदय की पड़ताल करता है।) परमेश्वर ने पतरस के हृदय में क्या पड़ताल की? (पतरस का आध्यात्मिक कद और परमेश्वर में उसकी आस्था।) प्रभु यीशु ने पतरस का आध्यात्मिक कद और उसके भरोसे की सीमा देखी। जब उसका आध्यात्मिक कद इतना छोटा था तो क्या यह आश्चर्य की बात है कि वह तीन बार प्रभु से मुकर गया? स्थिति के अनुसार यह लाजिमी था कि वह अपने छोटे आध्यात्मिक कद के कारण वैसा ही करेगा जैसा उसने किया। उस समय उसके पास केवल इतना जरा-सा भरोसा क्यों था? (तब तक पतरस को प्रभु यीशु का अनुसरण किए तीन बरस ही हुए थे, इसलिए उसे परमेश्वर के कार्य का बहुत कम अनुभव था।) तीन साल तक प्रभु यीशु का अनुसरण करने के बाद उसका भरोसा केवल इतना ही बड़ा था। उस समय उसका आध्यात्मिक कद इतना ही था। उसके आध्यात्मिक कद का विकास लगातार अनुभव के गहराने के माध्यम से हुआ।
क्या सच्चे भरोसे के बिना परमेश्वर का अनुसरण करना ठीक है? लोगों के लिए परमेश्वर में सच्ची आस्था का मतलब वास्तव में क्या होता है? सबसे सरल शब्दों में कहें तो : यह वह सीमा है जहाँ तक तुम परमेश्वर के सभी वचनों और कार्यों में भरोसा करते हो और जिस सीमा तक सच में विश्वास कर सकते हो। खास कर यह वह सीमा है जहाँ तक तुम परमेश्वर के कहे वचनों, परमेश्वर की पूर्वनियत चीजों, परमेश्वर की संप्रभुता, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं, और जिस तरह परमेश्वर लोगों के भविष्य के गंतव्यों की व्यवस्था करता है, और ऐसी अन्य सभी चीजों की पूर्ति और पूर्ति के साधनों पर दिल से विश्वास कर स्वीकार कर सकते हो, साथ ही वह सीमा है जिस तक तुम इन चीजों पर असल भरोसा करते हो। उस समय पतरस ने प्रभु यीशु का नाम स्वीकारने या उससे अपना संबंध स्वीकारने का साहस तक नहीं किया। उसे सिर्फ थोड़ा-सा भरोसा था और इस थोड़े-से भरोसे ने उसका वास्तविक आध्यात्मिक कद बता दिया। उसका वास्तविक आध्यात्मिक कद क्या था? (उसने सिर्फ प्रभु यीशु को मसीह माना लेकिन वह परमेश्वर के बारे में बहुत कम जानता था।) उसका इतना छोटा आध्यात्मिक कद था और वह इससे आगे नहीं जा सकता था। तो जहाँ तक तुम लोगों की बात है, तुम अभी परमेश्वर में किस हद तक आस्था रखते हो? क्या तुम लोगों की आस्था पतरस से ज्यादा पक्की है? क्या यह कमजोर है? क्या यह लगभग समान है? (मसीह को पहचानने के लिहाज से यह समान है। हम पतरस से थोड़ा-सा ज्यादा सत्य समझते हैं लेकिन हमें अभी इनमें से कई सत्यों में प्रवेश करना है।) अगर परमेश्वर में लोगों की आस्था सिर्फ यह मानने पर ठहर जाती है कि वह परमेश्वर है, कि परमेश्वर सारी चीजों का आयोजन और व्यवस्था कर सकता है, और सभी चीजों, तुम्हारी नियति, तुम्हारे जीवन पर उसकी संप्रभुता है—अगर तुम सिर्फ यह मानते हो, लेकिन तुममें विश्वास करने के तत्व थोड़े ही हैं, समर्पण के तत्व उससे भी कम, लगभग नगण्य हैं और परमेश्वर के लिए प्रतीक्षा करने और उसे खोजने के कोई भी तत्व नहीं हैं—तो यह किस प्रकार की आस्था है? तुम हमेशा कहते हो कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तुम्हें विश्वास है कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है और हर चीज का आयोजन करता है, कि लोगों को जीवन परमेश्वर देता है, और यह भी कि परमेश्वर तुमसे जो भी कहेगा वह तुम करोगे, यहाँ तक कि परमेश्वर के लिए अपनी जान भी दे दोगे। लेकिन तभी तुम ऐसी स्थिति का सामना करते हो जैसी पतरस ने अनुभव की थी जिसमें लोग पूछते हैं, “क्या वह तुम्हारा परमेश्वर है?” तुम इस मामले पर मनन कर यह सोचोगे, “मेरे चारों तरफ गैर-विश्वासी हैं, अगर मैं परमेश्वर को स्वीकारता हूँ तो क्या पकड़ा नहीं जाऊँगा? परमेश्वर ने कहा है कि संकट के समय हम बुद्धि का उपयोग कर सकते हैं और उसे स्वीकारने से इनकार कर सकते हैं, इसलिए मैं बुद्धि का उपयोग करूँगा और परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा।” अगर तुम्हें अपनी जान प्यारी है और तुम कायर हो तो तुम परमेश्वर को स्वीकारने की हिम्मत नहीं करोगे और उसे नकार भी सकते हो। ऐसे समय में तुम्हारा वह भरोसा कहाँ चला जाता है जिसके आधार पर तुम विश्वास करते हो कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है? (यह भरोसा उड़नछू हो जाता है।) आम दिनों में भरोसा होने की जो बात तुम सोचे बैठे थे, वह सच्चा है या झूठा? (झूठा।) जब कोई ऐसी चीज घटती है जो खासकर तुम्हारी धारणाओं या पसंद का हनन करती है और इस मामले में परमेश्वर के इरादे का पूरी तरह खुलासा होना अभी बाकी हो तो परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि तुम इस मामले में उसके प्रति समर्पण करो। उसने इस तरह के परिवेश का इंतजाम किया है ताकि तुम सबक सीख सको। तो तुम क्या करते हो? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारी बहुत ही पक्की आस्था है और तुम बहुत ही धर्मनिष्ठ और सच्चे हो, लेकिन परमेश्वर ऐसे परिवेश का इंतजाम करता है जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाता, तुमसे ऐसा सलूक करता है मानो कि तुम गैर-विश्वासी हो। यह सोचकर कि तुम्हारे साथ गलत हुआ है, तुम्हारी आँखें भर आएँगी और तुम मन ही मन परमेश्वर के बारे में शिकायत करोगे : “हे परमेश्वर, मैं तुम्हारे ऊपर विश्वास करता हूँ, तुम्हारे लिए जीता हूँ, फिर भी तुमने मेरे लिए ऐसे परिवेश का इंतजाम किया, मुझे गैर-विश्वासियों की कतार में रख दिया, और मुझे मैली आत्माओं में मिला दिया। क्या मैं इससे मलिन नहीं हो जाऊँगा? मैं पवित्र व्यक्ति के रूप में अलग किया गया हूँ, ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर का है। तुम्हें ऐसी व्यवस्था नहीं करनी चाहिए थी। क्या तुम जानते हो कि मुझे तुम्हारी कितनी कमी खलती है, मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूँ? मैं तुमसे अलग नहीं हो सकता। तुम मेरे साथ यह सलूक नहीं कर सकते, यह मेरे साथ उचित नहीं है!” इस बारे में क्या कहोगे? जब तुम ऐसी चीजों का सामना करते हो जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खातीं तो तुम्हारा समर्पण कहाँ चला जाता है? (यह उड़नछू हो जाता है।) तुम्हारे समर्पण की जगह कौन-सी चीजें ले लेती हैं? (शिकायतें, गलतफहमियाँ और प्रतिरोध।) क्या यह सच्चा भरोसा है? सच्ची आस्था में क्या होना चाहिए? यह कैसे व्यक्त होती है? (परमेश्वर के इरादे खोजकर और उसके प्रति समर्पण करके।) एक अकेली घटना बता देती है कि किसी व्यक्ति में सच्चा भरोसा है या नहीं।
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