परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है (भाग चार)

कुछ लोग पूछते हैं : “परमेश्वर के वचन मनुष्य से एक सृजित प्राणी का रुख अपनाने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने की अपेक्षा करते हैं। हमसे अतिमानव या महामानव बनने की अपेक्षा नहीं की जाती, लेकिन मैं हमेशा ऐसी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ महसूस करता हूँ। मैं एक साधारण व्यक्ति होने से संतुष्ट नहीं हूँ। तो मुझे क्या करना चाहिए?” यह समस्या बहुत साधारण है। तुम एक साधारण व्यक्ति बनने के इच्छुक क्यों नहीं हो? अगर तुम पहले इस प्रश्न की जड़ तक जाओगे, तो तुम्हारी समस्या आसानी से हल हो जाएगी। परमेश्वर चाहता है कि मनुष्य एक ईमानदार व्यक्ति बने। यह सबसे सार्थक चीज है। अगर तुम इसका सत्य समझते हो कि एक ईमानदार व्यक्ति होना क्या होता है, तो तुम जान जाओगे कि एक ईमानदार व्यक्ति होने का अर्थ सामान्य मानवता वाला व्यक्ति होना है, एक सच्चा व्यक्ति होना है। ईमानदार व्यक्ति के बाहरी लक्षण क्या होते हैं? एक ईमानदार व्यक्ति होना एक सामान्य व्यक्ति होना है। सामान्य लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ, विचार और विवेक क्या प्राप्त कर सकते हैं? सामान्य लोगों की कथनी-करनी कैसी दिखती है? एक सामान्य व्यक्ति अपने दिल से बोल सकता है। वह बिना किसी छल-फरेब के वही कहेगा, जो उसके दिल में होगा। अगर वह अपने सामने आने वाले मामले को समझ पाता है, तो वह अपने जमीर और विवेक के अनुसार कार्य करेगा। अगर वह स्पष्ट रूप से उसकी असलियत नहीं जान पाता, तो वह गलतियाँ करेगा और असफल होगा, वह गलतफहमियाँ, धारणाएँ और व्यक्तिगत कल्पनाएँ पालेगा, और अपने दृष्टि-भ्रमों से अंधा हो जाएगा। ये सामान्य मानवता के बाहरी लक्षण हैं। क्या सामान्य मानवता के ये बाहरी लक्षण परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करते हैं? नहीं। अगर लोगों में सत्य नहीं है, तो वे परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर सकते। सामान्य मानवता के ये बाहरी लक्षण एक साधारण, भ्रष्ट व्यक्ति की संपत्तियाँ हैं। ये वे चीजें हैं, जिनके साथ मनुष्य जन्म लेता है, उसकी जन्मजात चीजें। तुम्हें ये बाहरी लक्षण और खुलासे दिखने देने होंगे। ये बाहरी लक्षण और खुलासे दिखने देते हुए तुम्हें यह समझना चाहिए कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ, काबिलियत और जन्मजात प्रकृति ऐसी ही है। यह समझ जाने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इससे सही तरह से पेश आना चाहिए। लेकिन तुम्हें इसे अभ्यास में कैसे लाना चाहिए? यह किया जाता है परमेश्वर के वचन और ज्यादा पढ़कर, सत्य से और ज्यादा लैस होकर, उन चीजों को परमेश्वर के सामने लाकर जिन्हें तुम नहीं समझते, जिनके बारे में तुम धारणाएँ पालते हो और जिनके बारे में तुम गलत निर्णय ले सकते हो, ताकि उन पर विचार कर सको और अपनी सभी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोज सको। अगर तुम कुछ समय के लिए ऐसा अनुभव करते हो, तो तुम्हारा कुछ बार असफल होना और लड़खड़ा जाना कुछ मायने नहीं रखता। सबसे अहम बात यह है कि तुम इन मामलों को परमेश्वर के वचनों में स्पष्ट रूप से देख सकते हो और जान सकते हो कि सिद्धांतों और परमेश्वर के इरादों के अनुसार कैसे अभ्यास करना है। यह दर्शाता है कि तुमने सबक सीखा है। कई वर्षों तक असफल होने और लड़खड़ाने के बाद, अगर तुम भ्रष्ट मनुष्य का सार स्पष्ट रूप से समझते हो, दुनिया में अँधेरे और बुराई की जड़ देखते हो, और विभिन्न तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों का भेद पहचानते हो तो तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होगे। चूँकि तुम कोई अतिमानव नहीं हो, न ही कोई महामानव हो, इसलिए तुम सभी चीजों की असलियत नहीं जान सकते और न ही उन्हें समझ सकते हो। तुम्हारे लिए एक नजर में दुनिया की असलियत जानना, एक नजर में मानवजाति की असलियत जानना और एक नजर में अपने आस-पास होने वाली हर चीज की असलियत जानना असंभव है। तुम एक साधारण व्यक्ति हो। तुम्हें कई असफलताओं, भ्रम की कई अवधियों, निर्णय में कई त्रुटियों और कई भटकावों से गुजरना होगा। यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव, तुम्हारी कमजोरियाँ और कमियाँ, तुम्हारी अज्ञानता और मूर्खता पूरी तरह से प्रकट कर सकता है, जिससे तुम खुद को फिर से जाँच और जान सकते हो, और परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता, पूर्ण बुद्धिमत्ता और उसके स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कर सकते हो। तुम उससे सकारात्मक चीजें प्राप्त करोगे और सत्य समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। तुम्हारे अनुभव के बीच बहुत-कुछ ऐसा होगा, जो तुम्हारी इच्छा के अनुरूप नहीं होगा, जिसके सामने तुम शक्तिहीन महसूस करोगे। ऐसा होने पर तुम्हें तलाश और प्रतीक्षा करनी चाहिए; प्रत्येक मामले का उत्तर परमेश्वर से प्राप्त करना चाहिए, और उसके वचनों से प्रत्येक मामले का अंतर्निहित सार और हर तरह के व्यक्ति का सार समझना चाहिए। एक साधारण, सामान्य व्यक्ति इसी तरह व्यवहार करता है। तुम्हें यह कहना सीखना चाहिए, “मैं नहीं कर सकता,” “यह मेरे वश में नहीं,” “मैं इसकी असलियत नहीं जान सकता,” “मैंने इसका अनुभव नहीं किया है,” “मैं कुछ भी नहीं जानता,” “मैं इतना कमजोर क्यों हूँ? मैं इतना बेकार क्यों हूँ?” “मैं इतनी खराब काबिलियत वाला हूँ,” “मैं इतना सुन्न और मंदबुद्धि हूँ,” “मैं इतना अज्ञानी हूँ कि मुझे इस चीज को समझने और सँभालने में कई दिन लग जाएँगे,” और “मुझे इस पर किसी से चर्चा करने की जरूरत है।” तुम्हें इस तरह से अभ्यास करना सीखना चाहिए। यह तुम्हारे एक सामान्य व्यक्ति होने की स्वीकारोक्ति और तुम्हारी एक सामान्य व्यक्ति बनने की इच्छा का बाहरी लक्षण है। जो लोग खुद को महान और शक्तिशाली समझते हैं, जो सोचते हैं कि वे साधारण नहीं बल्कि श्रेष्ठतर और अतिमानव हैं, वे कभी यह नहीं कहते, “मैं नहीं कर सकता,” “यह मेरे वश में नहीं,” “मैं इसकी असलियत नहीं जान सकता,” “मैं नहीं जानता, मुझे सीखना है, मुझे इसे देखना है, मुझे संगति के लिए लोगों को ढूँढ़ना है, मुझे ऊपरवाले से खोजना है।” वे कभी ऐसे शब्द नहीं कहते। विशेष रूप से रुतबा हासिल कर लेने के बाद ऐसा व्यक्ति नहीं चाहता कि लोग यह सोचें कि वह एक साधारण व्यक्ति है, और ऐसी चीजें भी हैं जिन्हें किसी दूसरे की तरह वह भी नहीं कर सकता, ऐसी चीजें हैं जिनकी वह असलियत नहीं जान सकता या इन्हें समझ नहीं सकता। इसके बजाय, वे हमेशा चाहते हैं कि लोग उन्हें गलती से अतिमानव मान लें। इसलिए, जब उनके साथ चीजें घटित होती हैं, तो वे ऐसे मामले बार-बार परमेश्वर के सामने लाने और उसे सच्चा हृदय अर्पित करने की जरूरत नहीं समझते। वे खोजने की जरूरत नहीं समझते। वे चंद मिनटों में अपने साथ होने वाली हर चीज को समझ-बूझकर उसकी असलियत जान लेते हैं। उनमें भ्रष्टता या कमजोरी जैसा कुछ नहीं होता। ऐसा कुछ नहीं जिसकी वे असलियत न जान सकें, ऐसा कुछ नहीं जिसका उन्होंने अनुभव न किया हो। अगर ऐसा कुछ हो भी, जिसका उन्होंने अभी तक अनुभव न किया हो, तो भी वे इसकी असलियत एक नजर में समझ लेंगे। वे बस परिपूर्ण अतिमानव होते हैं। क्या यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है? (नहीं।) तो फिर, क्या वे सामान्य व्यक्ति हैं? यकीनन नहीं। ऐसा व्यक्ति यह नहीं स्वीकारता कि वह एक साधारण व्यक्ति है, कि उसमें कमजोरियाँ, खामियाँ और भ्रष्ट स्वभाव है। तो क्या वह खोजने और प्रार्थना करने के लिए सच्चे दिल से बार-बार परमेश्वर के सामने आ सकता है? निश्चित रूप से नहीं। यह दर्शाता है कि उसमें अभी सामान्य मानवता के जमीर और विवेक का अभाव है, न ही वह सामान्य मानवता को जीता है।

मुझे बताओ, तुम साधारण और सामान्य इंसान कैसे बन सकते हो? कैसे तुम, जैसा कि परमेश्वर कहता है, एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण कर सकते हो—कैसे तुम अतिमानव या कोई महान हस्ती बनने की कोशिश नहीं कर सकते? एक साधारण और सामान्य इंसान बनने के लिए तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? यह कैसे किया जा सकता है? कौन जवाब देगा? (सबसे पहले, हमें यह स्वीकारना होगा कि हम साधारण लोग हैं, बहुत ही आम लोग। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें हम नहीं समझते, नहीं जानते, जिनकी असलियत नहीं जान पाते। हमें स्वीकारना चाहिए कि हम भ्रष्ट और दोषपूर्ण हैं। इसके बाद, हमें सच्चा दिल रखना होगा और खोजने के लिए बार-बार परमेश्वर के सामने आना होगा।) पहली बात, खुद को यह कहते हुए कोई उपाधि देकर उससे बँधे मत रहो, “मैं अगुआ हूँ, मैं टीम अगुआ हूँ, मैं पर्यवेक्षक हूँ, इस काम को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता, मुझसे ज्यादा इन कौशलों को कोई नहीं समझता।” अपनी स्व-प्रदत्त उपाधि के फेर में मत पड़ो। जैसे ही तुम ऐसा करते हो, वह तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देगी, और तुम जो कहते और करते हो, वह प्रभावित होगा। तुम्हारी सामान्य सोच और निर्णय भी प्रभावित होंगे। तुम्हें इस रुतबे की बेबसी से खुद को आजाद करना होगा। पहली बात, खुद को इस आधिकारिक उपाधि और पद से नीचे ले आओ और एक आम इंसान की जगह खड़े हो जाओ। अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारी मानसिकता कुछ हद तक सामान्य हो जाएगी। तुम्हें यह भी स्वीकार करना और कहना चाहिए, “मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मुझे वह भी समझ नहीं आया—मुझे कुछ शोध और अध्ययन करना होगा,” या “मैंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है, इसलिए मुझे नहीं पता कि क्या करना है।” जब तुम वास्तव में जो सोचते हो, उसे कहने और ईमानदारी से बोलने में सक्षम होते हो, तो तुम सामान्य विवेक से युक्त हो जाओगे। दूसरों को तुम्हारा वास्तविक स्वरूप पता चल जाएगा, और इस प्रकार वे तुम्हारे बारे में एक सामान्य दृष्टिकोण रखेंगे, और तुम्हें कोई दिखावा नहीं करना पड़ेगा, न ही तुम पर कोई बड़ा दबाव होगा, इसलिए तुम लोगों के साथ सामान्य रूप से संवाद कर पाओगे। इस तरह जीना सुखद और आसान है; जिसे भी जीवन थका देने वाला लगता है, उसने उसे ऐसा खुद बनाया है। ढोंग या दिखावा मत करो। पहली बात, जो कुछ तुम अपने दिल में सोच रहे हो, उसे खुलकर बताओ, अपने सच्चे विचारों के बारे में खुलकर बात करो, ताकि हर कोई उन्हें जान और उन्हें समझ ले। नतीजतन, तुम्हारी चिंताएँ और तुम्हारे और दूसरों के बीच की बाधाएँ और संदेह समाप्त हो जाएँगे। तुम किसी और चीज से बाधित हो। तुम हमेशा खुद को टीम प्रमुख, अगुआ, कार्यकर्ता, या किसी पदवी, रुतबे और प्रतिष्ठा वाला इंसान मानते हो : अगर तुम कहते हो कि तुम कोई चीज नहीं समझते, या कोई काम नहीं कर सकते, तो क्या तुम खुद को बदनाम नहीं कर रहे? जब तुम अपने दिल की ये बेड़ियाँ हटा देते हो, जब तुम खुद को एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सोचना बंद कर देते हो, और जब तुम यह सोचना बंद कर देते हो कि तुम अन्य लोगों से बेहतर हो और महसूस करते हो कि तुम अन्य सभी के समान एक आम इंसान हो, और कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें तुम दूसरों से कमतर हो—जब तुम इस रवैये के साथ सत्य और काम से संबंधित मामलों में संगति करते हो, तो प्रभाव अलग होता है, और परिवेश भी अलग होता है। अगर तुम्हारे दिल में हमेशा शंकाएँ रहती हैं, अगर तुम हमेशा तनावग्रस्त और बाधित महसूस करते हो, और अगर तुम इन चीजों से छुटकारा पाना चाहते हो लेकिन नहीं पा सकते, तो तुम्हें परमेश्वर से गंभीरता से प्रार्थना करनी चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए, अपनी कमियाँ देखनी चाहिए और सत्य की दिशा में प्रयास करना चाहिए। अगर तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो, तो तुम्हें परिणाम मिलेंगे। चाहे जो करो, पर किसी विशेष पद से या किसी विशेष पदवी का उपयोग करके बात या काम न करो। पहली बात, यह सब एक तरफ कर दो, और खुद को एक आम इंसान के स्थान पर रखो। जब कोई व्यक्ति कहता है, “क्या तुम अगुआ नहीं हो? क्या तुम टीम अगुआ नहीं हो? तुम्हें यह समझना चाहिए।” जवाब में तुम कहते हो : “परमेश्वर के वचनों में यह कहाँ कहा गया है कि, अगर तुम एक अगुआ या टीम-अगुआ हो, तो तुम सब-कुछ समझ सकते हो? मैं इसे नहीं समझता। मुझे अपनी नजरों से मत आँको। तुम बहुत ज्यादा अपेक्षा करते हो। यह सच है कि मैं एक अगुआ हूँ, लेकिन सत्य के बारे में मेरी समझ अभी भी बहुत उथली है और मैं नहीं जानता कि क्या निर्णय लेना चाहिए, क्योंकि मैंने इस चीज का अनुभव नहीं किया है और मैं अभी भी इसकी असलियत नहीं जान सकता। मुझे प्रार्थना करने और खोजने की जरूरत है। परमेश्वर ने कहा है, जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो। तुम हमेशा चाहते हो कि मैं अभी समझ जाऊँ और अभी निर्णय ले लूँ। अगर मैंने गलत निर्णय ले लिया, तो क्या होगा? इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? क्या तुम जिम्मेदारी लेने में सक्षम हो? क्या तुम चाहते हो कि मैं गलती कर दूँ? ऐसा करने में, क्या तुम मेरे लिए जिम्मेदार हो? हमें मिलकर सहयोग करना चाहिए, मिलकर प्रार्थना और खोज करनी चाहिए और इस मामले को अच्छी तरह से सँभालना चाहिए।” क्या तुम ऐसा कर सकते हो? क्या ऐसा करना आसान है? अगर तुम दूसरों से हार्दिकता से बात कर सकते हो, तो तुम कह सकते हो, “दरअसल, मेरा आध्यात्मिक कद भी बहुत छोटा है। अगर मैं खोज और प्रार्थना नहीं करता, तो मैं कभी भी गलती कर सकता हूँ। कभी-कभी मैं गलतियाँ किए बिना नहीं रह पाता। तुम्हें मेरा आध्यात्मिक कद कितना बड़ा लगा? तुम मेरे बारे में ज्यादा ऊँची राय रखते हो।” जब दूसरा व्यक्ति तुम्हारी बात सुनेगा, तो वह अपने दिल में यह महसूस करेगा कि तुम बहुत ईमानदार व्यक्ति हो, जो दिल से बात कर सकता है। फिर, वह तुमसे बहुत ज्यादा माँग नहीं करेगा, बल्कि तुम्हारे साथ सहयोग करेगा। अगर तुम इसे अभ्यास में लाते हो, तो तुम अपने कामों में ज्यादा तर्कसंगत हो जाओगे, तुम प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे से बाधित और बँधे नहीं रहोगे, और तुम्हारा दिल मुक्त हो जाएगा। तुम खुले दिल से बोल और कार्य कर पाओगे, और दूसरों के साथ सद्भावपूर्वक सहयोग और भाई-बहनों के साथ सही व्यवहार कर पाओगे। इस समय, तुम्हारी मनोदशा तेजी से सामान्य हो जाएगी और तुम्हारे कार्य तेजी से विवेकसंगत हो जाएँगे। इसे सभी देख पाएँगे और कह पाएँगे, “यह अगुआ सचमुच बदल गया है। इसमें जमीर और विवेक है, और इसने सामान्य मानवता को जिया है। ऐसे व्यक्ति के हमारे अगुआ होने से हमें भी कई लाभ मिलते हैं!” इस बार, जब तुम फिर से काम में संलग्न होते हो, चाहे वह खोज और प्रार्थना करना हो या संगति के लिए दूसरों के पास जाना, तुम जो करते हो वह सही और उचित होता है, और तुम्हें कोई संदेह नहीं होगा। तुम जो भी करते हो, उसमें तुम ठोस और स्थिर रूप से आगे बढ़ते हो। तुम समाधान के लिये अधीर नहीं होते हो, बल्कि चीजों को होने देते हो। तुम्हारा चाहे जिस चीज से सामना हो, तुम उसे परमेश्वर के समक्ष ला सकते हो और अपना सच्चा दिल अर्पित कर सकते हो। यह ऐसा सिद्धांत है जिसका तुम सभी चीजों में अभ्यास कर सकते हो। सभी लोग, चाहे वे अगुआ और कार्यकर्ता हों या भाई-बहन, एक साधारण व्यक्ति हैं। उन सभी को इस सिद्धांत का अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों के अभ्यास में सभी की हिस्सेदारी और जिम्मेदारी है। तुम कोई अगुआ, कार्यकर्ता, टीम के प्रमुख, पर्यवेक्षक या समूह के बीच से कोई अत्यधिक सम्मानित व्यक्ति हो सकते हो। चाहे तुम कोई भी हो, तुम्हें इस तरह से अभ्यास करना सीखना चाहिए। तुम जो प्रभामंडल और उपाधि अपने सिर पर धारण करते हो, उसे उतार दो, दूसरों ने जो ताज तुम्हें पहनाए हैं, उन्हें उतार दो। तब, तुम्हारे लिए एक सामान्य व्यक्ति बनना आसान होगा और तुम आसानी से जमीर और विवेक के आधार पर कार्य करोगे। बेशक, इसके बाद, सिर्फ यह स्वीकारना काफी नहीं है कि तुम समझते नहीं और जानते नहीं। यह समस्या हल करने वाला अंतिम समाधान नहीं है। अंतिम समाधान क्या है? प्रार्थना करने और खोजने के लिए मामले और कठिनाइयाँ परमेश्वर के सामने लाओ। एक व्यक्ति के लिए अकेले प्रार्थना करना पर्याप्त नहीं है। इसके बजाय, तुम्हें सभी के साथ मिलकर इस मामले के संबंध में प्रार्थनाएँ करनी चाहिए और यह जिम्मेदारी और दायित्व उठाना चाहिए। यह काम करने का एक शानदार तरीका है! तुम कोई महान हस्ती और अतिमानव बनने की कोशिश करने का मार्ग अपनाने से बचोगे। अगर तुम ऐसा कर सको, तो तुम अनजाने ही एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण कर लोगे और अतिमानव और महान हस्ती बनने की महत्वाकांक्षा और इच्छा की बेबसी से खुद को मुक्त कर लोगे।

एक सृजित प्राणी के उचित स्थान पर खड़ा होना और एक साधारण व्यक्ति बनना : क्या ऐसा करना आसान है? (यह आसान नहीं है।) इसमें कठिनाई क्या है? वह यह है : लोगों को हमेशा लगता है कि उनके सिर पर कई प्रभामंडल और उपाधियाँ जड़ी हैं। वे खुद को महान विभूतियों और अतिमानवों की पहचान और दर्जा भी देते हैं और तमाम दिखावटी और झूठी प्रथाओं और बाहरी प्रदर्शनों में संलग्न होते हैं। अगर तुम इन चीजों को नहीं छोड़ते, अगर तुम्हारी कथनी-करनी हमेशा इन चीजों से बाधित और नियंत्रित होती है तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल लगेगा। जिन चीजों को तुम नहीं समझते उनके समाधानों के लिए अधीर न होना और ऐसे मामलों को और अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर आना और उसे सच्चा दिल अर्पित करना मुश्किल होगा। तुम यह नहीं कर पाओगे। वास्तव में इसका कारण यह है कि तुम्हारा रुतबा, तुम्हारी उपाधियाँ, तुम्हारी पहचान और ऐसी तमाम चीजें झूठी और असत्य हैं क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों के खिलाफ जाकर उनका खंडन करती हैं, क्योंकि ये चीजें तुम्हें बाँधती हैं ताकि तुम परमेश्वर के सामने न आ सको। ये चीजें तुम्हारे लिए क्या लेकर आती हैं? ये तुम्हें खुद को छिपाने, समझने का दिखावा करने, होशियार होने का दिखावा करने, एक महान हस्ती होने का दिखावा करने, एक मशहूर व्यक्ति होने का दिखावा करने, सक्षम होने का दिखावा करने, बुद्धिमान होने का दिखावा करने, यहाँ तक कि सब-कुछ जानने, सभी चीजों में सक्षम होने और सब-कुछ करने में सक्षम होने का दिखावा करने में कुशल बनाती हैं। वह इसलिए ताकि दूसरे तुम्हारी पूजा करें और तुम्हें सराहें। वे अपनी तमाम समस्याओं के साथ तुम्हारे पास आएँगे, तुम पर भरोसा करेंगे और तुम्हारा आदर करेंगे। इस तरह, यह ऐसा है मानो तुमने खुद को भुनने के लिए किसी भट्टी में झोंक दिया हो। तुम्हीं बताओ, क्या आग में भुनना अच्छा लगता है? (नहीं।) तुम समझते नहीं हो, लेकिन तुम यह कहने का साहस नहीं करते कि तुम नहीं समझते हो। तुम असलियत नहीं जानते हो, लेकिन तुम यह कहने का साहस नहीं करते कि तुम असलियत नहीं जानते हो। तुमने स्पष्ट रूप से गलती की है लेकिन तुम इसे स्वीकारने का साहस नहीं करते हो। तुम्हारा दिल व्यथित है लेकिन तुम यह कहने की हिम्मत नहीं करते, “इस बार यह वाकई मेरी गलती है, मैं परमेश्वर और अपने भाई-बहनों का ऋणी हूँ। मैंने परमेश्वर के घर को इतना बड़ा नुकसान पहुँचाया है, लेकिन मुझमें सबके सामने खड़े होकर इसे स्वीकारने की हिम्मत नहीं है।” तुम बोलने की हिम्मत क्यों नहीं करते? तुम मानते हो, “मुझे अपने भाई-बहनों द्वारा दिए गए प्रभामंडल और प्रतिष्ठा पर खरा उतरने की जरूरत है, मैं अपने प्रति उनके उच्च सम्मान और भरोसे को धोखा नहीं दे सकता, उन उत्कट अपेक्षाओं को तो बिल्कुल भी नहीं जो उन्होंने इतने सालों से मेरे प्रति रखी हैं। इसलिए मुझे दिखावा करते रहना होगा।” यह कैसा छद्मवेश है? तुमने खुद को सफलतापूर्वक एक महान हस्ती और अतिमानव बना लिया है। भाई-बहन अपने सामने आने वाली किसी भी समस्या के बारे में पूछने, सलाह लेने, यहाँ तक कि तुम्हारे परामर्श की विनती करने तुम्हारे पास आना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि वे तुम्हारे बिना जी नहीं सकते। लेकिन क्या तुम्हारा हृदय व्यथित नहीं होता? बेशक, कुछ लोग यह व्यथा महसूस नहीं करते। किसी मसीह-विरोधी को यह व्यथा महसूस नहीं होती। इसके बजाय, वह यह सोचकर इससे प्रसन्न होता है कि उसका रुतबा बाकी सबसे ऊपर है। हालाँकि एक औसत, सामान्य व्यक्ति को आग में भुनने पर व्यथा महसूस होती है। उसे लगता है कि वह कुछ भी नहीं है, बिल्कुल एक साधारण व्यक्ति जैसा है। वह यह नहीं मानता कि वह दूसरों से ज्यादा मजबूत है। वह न सिर्फ यह सोचता है कि वह कोई व्यावहारिक कार्य नहीं कर सकता, बल्कि वह कलीसिया के काम में देरी भी कर देगा और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी देर करवा देगा, इसलिए वह दोष स्वीकारकर इस्तीफा दे देगा। यह एक विवेकवान व्यक्ति है। क्या यह समस्या हल करना आसान है? विवेकवान लोगों के लिए यह समस्या हल करना आसान है, लेकिन जिनके पास विवेक की कमी है, उनके लिए यह मुश्किल है। अगर एक बार रुतबा हासिल करने के बाद तुम बेशर्मी से रुतबे के फायदे उठाते हो, जिसके परिणामस्वरूप वास्तविक कार्य करने में विफलता के कारण तुम्हारा खुलासा कर दिया जाता है और तुम्हें हटा दिया जाता है तो इसे तुमने खुद न्योता दिया है और तुम जो पाते हो, उसी के हकदार हो! तुम रत्ती भर भी दया या करुणा के पात्र नहीं हो। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? इसलिए कि तुम ऊँचे स्थान पर खड़े होने पर जोर देते हो। तुम भुनने के लिए खुद को आग में झोंकते हो। तुमने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारी है। अगर तुम आग में बैठकर भुनना नहीं चाहते तो तुम्हें ये सभी उपाधियाँ और प्रभामंडल त्याग देने चाहिए और अपने भाई-बहनों को अपने दिल की वास्तविक दशाएँ और विचार बताने चाहिए। इस तरह, भाई-बहन तुम्हारे साथ ठीक से पेश आ सकेंगे और तुम्हें भेष बदलने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अब जबकि तुम खुल गए हो और अपनी वास्तविक दशा पर प्रकाश डाल रहे हो, तो क्या तुम्हारा दिल ज्यादा सहज, ज्यादा सुकून महसूस नहीं करता? अपनी पीठ पर इतना भारी बोझ लेकर क्यों चला जाए? अगर तुम अपनी वास्तविक दशा बता दोगे तो क्या भाई-बहन वास्तव में तुम्हें हेय दृष्टि से देखेंगे? क्या वे सचमुच तुम्हें त्याग देंगे? बिल्कुल नहीं। इसके विपरीत भाई-बहन तुम्हारा अनुमोदन करेंगे और अपने दिल की बात बताने का साहस करने के लिए तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। वे कहेंगे कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो। इससे कलीसिया में तुम्हारे काम में कोई बाधा नहीं आएगी, न ही उस पर थोड़ा-सा भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अगर भाई-बहन वास्तव में देखेंगे कि तुम्हें कठिनाइयाँ हैं तो वे स्वेच्छा से तुम्हारी मदद करेंगे और तुम्हारे साथ सहयोग करेंगे। तुम लोग क्या कहते हो? क्या ऐसा ही नहीं होगा? (बिल्कुल, होगा।) ताकि दूसरे लोग तुम्हें आदर की दृष्टि से देखें, इसलिए हमेशा छद्मवेश धारण करना सबसे मूर्खतापूर्ण चीज है। सबसे अच्छा तरीका है सामान्य दिल वाला एक साधारण व्यक्ति बनना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने शुद्ध और सरल तरीके से खुलने में सक्षम होना और अक्सर दिली बातचीत करना। जब लोग तुम्हारा आदर करें, तुम्हें सराहें, तुम्हारी अत्यधिक प्रशंसा करें या चापलूसी भरे शब्द बोलें, तो कभी स्वीकार न करो। इन सभी चीजों को खारिज कर देना चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कह सकते हैं : “क्या तुम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नहीं हो? चूँकि तुम इतने ज्ञानी हो, इसलिए तुम्हें सत्य की बहुत अच्छी समझ होनी चाहिए।” उनसे कहो : “मैं कैसा विश्वविद्यालय का प्रोफेसर हूँ? ज्ञान कितना भी हो वह सत्य का स्थान नहीं ले सकता। इस ज्ञान ने मुझे बहुत कष्ट पहुँचाया है। यह बिल्कुल बेकार है। मेरे बारे में ऊँची राय मत रखो, मैं सिर्फ एक साधारण व्यक्ति हूँ।” निस्संदेह, कुछ लोगों को अपना रुतबा छोड़ने में कठिनाई होती है। वे साधारण, सामान्य लोग बनना और एक सृजित प्राणी के उचित स्थान पर खड़े होना चाहते हैं। वे इस तरह कष्ट सहना नहीं चाहते, लेकिन सहे बिना रह भी नहीं पाते। वे हमेशा खुद को श्रेष्ठ जन समझते हैं और अपने ऊँचे मचान से नीचे नहीं उतर पाते। इसमें समस्या है। जब लोग उनके चक्कर लगाते हैं, उन्हें प्रशंसा भरी नजरों से देखते हैं तो उन्हें यह अच्छा लगता है। उन्हें यह पसंद है कि लोग अपनी तमाम समस्याएँ लेकर उनके पास आएँ, उन पर निर्भर रहें, उनकी बात सुनें और उनका आदर करें। उन्हें पसंद है कि लोग विश्वास करें कि वे हर चीज के विशेषज्ञ श्रेष्ठ जन हैं, कि वे सर्वज्ञ हैं, और ऐसा कुछ नहीं है जिसे वे न समझते हों और वे यहाँ तक सोचते हैं कि अगर लोग उनका विजेताओं के रूप में सम्मान करें तो कितना अच्छा और अद्भुत होगा। इसका कोई इलाज नहीं। कुछ लोग दूसरों से मिली प्रशंसा और मुकुट स्वीकारते हैं और कुछ समय के लिए अतिमानव और महान हस्ती की भूमिका निभाते हैं। लेकिन वे असहज होकर पीड़ा सहते हैं। उन्हें क्या करना चाहिए? जो भी व्यक्ति तुम्हारी चापलूसी करना चाहता है, वह वास्तव में तुम्हें आग में भुनने के लिए झोंक रहा होता है, और तुम्हें उससे दूर रहना चाहिए। या फिर, उन्हें अपनी भ्रष्टता का सत्य बताने का अवसर ढूँढ़ो, उनसे अपनी वास्तविक दशा के बारे में बात करो और अपनी खामियाँ और कमियाँ उजागर करो। इस तरह से वे तुम्हारी आराधना या तुम्हारा आदर नहीं करेंगे। क्या यह करना आसान है? वास्तव में, यह करना आसान है। अगर तुम वास्तव में ऐसा नहीं कर सकते तो इससे साबित होता है कि तुम बहुत अहंकारी और दंभी हो। तुम वाकई खुद को एक अतिमानव, एक महान हस्ती मानते हो और अपने दिल में इस तरह के स्वभाव से बिल्कुल भी घृणा और तिरस्कार नहीं करते। नतीजतन तुम सिर्फ उस चूक का इंतजार ही कर सकते हो जो तुम्हें दूसरों की नजरों में गिरा दे। अगर तुम वाकई विवेकवान व्यक्ति हो तो तुम उस भ्रष्ट स्वभाव से घृणा और तिरस्कार महसूस करोगे जो हमेशा अतिमानव और महान हस्ती की भूमिका निभाना चाहता है। कम-से-कम तुम्हें यह एहसास तो होना ही चाहिए। तभी तुम खुद से घृणा कर सकते हो और देह से विद्रोह कर सकते हो। तुम्हें एक औसत व्यक्ति, एक साधारण व्यक्ति, एक सामान्य व्यक्ति बनने का अभ्यास कैसे करना चाहिए? पहले तुम्हें उन चीजों को नकारकर त्याग देना चाहिए जिन्हें तुम बहुत अच्छी और मूल्यवान समझते हो, साथ ही उन सतही, सुंदर शब्दों को भी नकारकर त्याग देना चाहिए जिनसे दूसरे तुम्हें सराहते और तुम्हारी प्रशंसा करते हैं। अगर अपने दिल में तुम स्पष्ट हो कि तुम किस तरह के इंसान हो, तुम्हारा सार क्या है, तुम्हारी कमियाँ क्या हैं और तुम कौन-सी भ्रष्टता प्रकट करते हो तो तुम्हें अन्य लोगों के साथ खुले तौर पर इसकी संगति करनी चाहिए, ताकि वे देख सकें कि तुम्हारी असली दशा क्या है, तुम्हारे विचार और मत क्या हैं, ताकि वे जान सकें कि तुम्हें ऐसी चीजों के बारे में क्या ज्ञान है। चाहे जो भी करो, ढोंग या दिखावा मत करो, दूसरों से अपनी भ्रष्टता और कमियाँ मत छिपाओ जिससे कि किसी को उनके बारे में पता न चले। इस तरह का झूठा व्यवहार तुम्हारे दिल में एक बाधा है, और यह एक भ्रष्ट स्वभाव भी है और लोगों को पश्चात्ताप करने और बदलने से रोक सकता है। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और दूसरों के द्वारा तुम्हें दी जाने वाली प्रशंसा, उनके द्वारा तुम पर बरसाई जाने वाली महिमा और उनके द्वारा तुम्हें प्रदान किए जाने वाले मुकुटों जैसी झूठी चीजों पर रुककर विचार और विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें देखना चाहिए कि ये चीजें तुम्हें कितना नुकसान पहुँचाती हैं। ऐसा करने से तुम्हें अपना माप पता चल जाएगा, तुम आत्म-जागरूकता प्राप्त कर लोगे, और फिर खुद को एक अतिमानव या कोई महान हस्ती नहीं समझोगे। जब तुम्हें इस तरह की आत्म-जागरूकता प्राप्त हो जाती है, तो तुम्हारे लिए दिल से सत्य को स्वीकार करना, परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करना और मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ स्वीकार करना, अपने लिए सृष्टिकर्ता का उद्धार स्वीकार करना, दृढ़ता से एक आम इंसान, एक ईमानदार और भरोसेमंद इंसान बनना, और अपने—एक सृजित प्राणी और परमेश्वर—सृष्टिकर्ता के बीच सामान्य संबंध स्थापित करना आसान हो जाता है। परमेश्वर लोगों से ठीक यही अपेक्षा करता है, और यह उनके द्वारा पूरी तरह से प्राप्य है। परमेश्वर सिर्फ साधारण, सामान्य लोगों को ही अपने सामने आने देता है। वह नकली या झूठी हस्तियों, महान व्यक्तियों और अतिमानवों से आराधना स्वीकार नहीं करता। जब तुम ये झूठे प्रभामंडल छोड़ देते हो, स्वीकारते हो कि तुम एक साधारण, सामान्य व्यक्ति हो और सत्य खोजने और प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के पास आते हो तो उसके लिए तुम्हारे पास जो दिल होगा, वह और ज्यादा वास्तविक होगा और तुम बहुत ज्यादा सहज महसूस करोगे। ऐसे समय तुम महसूस करोगे कि तुम्हें समर्थन और सहायता के लिए परमेश्वर की आवश्यकता है, और तुम खोजने और परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए बारम्बार उसके सामने आ सकोगे। तुम्हीं बताओ, तुम लोगों को एक महान हस्ती, अतिमानव बनना आसान लगता है या एक साधारण व्यक्ति बनना? (एक साधारण व्यक्ति बनना।) सिद्धांत रूप में कहें तो एक साधारण व्यक्ति बनना आसान है जबकि एक महान व्यक्ति या अतिमानव बनना कठिन है, जिसके कारण हमेशा पीड़ा होती है। लेकिन जब लोग अपने विकल्प खुद चुनकर इन्हें अभ्यास में लाते हैं तो वे एक अतिमानव या महान हस्ती बनने की इच्छा किए बिना नहीं रह पाते। वे खुद को रोक नहीं पाते। यह उनके प्रकृति सार के कारण होता है। इसलिए मनुष्य को परमेश्वर से उद्धार की आवश्यकता है। भविष्य में जब कोई तुम लोगों से पूछे कि “व्यक्ति अतिमानव और महान हस्ती बनने की कोशिश करना कैसे बंद कर सकता है?” तो क्या तुम लोग इसका उत्तर दे पाओगे? तुम लोगों को बस मेरे बताए तरीके का अभ्यास करना है। एक साधारण व्यक्ति बनो, खुद को छिपाओ मत, परमेश्वर से प्रार्थना करो और सरल तरीके से खुलना और दूसरों के साथ दिल से बात करना सीखो। ऐसा अभ्यास स्वाभाविक रूप से फलीभूत होगा। धीरे-धीरे तुम एक सामान्य व्यक्ति बनना सीख जाओगे, जीना अब थकाने वाला नहीं होगा और तुम अब व्यथित नहीं रहोगे, पीड़ा में नहीं रहोगे। सभी लोग साधारण हैं। उनमें कोई अंतर नहीं है, सिवाय इसके कि उनके व्यक्तिगत गुण अलग-अलग हैं और उनकी काबिलियत कुछ हद तक भिन्न हो सकती है। अगर परमेश्वर का उद्धार और सुरक्षा न हो तो वे सभी बुराई करेंगे और सजा भुगतेंगे। अगर तुम यह स्वीकार सको कि तुम एक साधारण व्यक्ति हो, अगर तुम मानवीय कल्पनाओं और खोखले भ्रमों से बाहर निकल सको और एक ईमानदार व्यक्ति बनने और ईमानदार कर्म करने का प्रयास कर सको, अगर तुम निष्ठापूर्वक परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सको तो फिर तुम्हें कोई समस्या नहीं होगी और तुम पूरी तरह मानव के समान जियोगे। यह इतनी सीधी-सरल बात है तो कोई मार्ग क्यों नहीं है? अभी मैंने जो कहा है वह बहुत सरल है। वास्तव में यह बिल्कुल ऐसा ही है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे इसे पूरी तरह से स्वीकार सकते हैं और वे यह भी कहेंगे, “वास्तव में परमेश्वर मनुष्य से बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं करता। उसकी सभी अपेक्षाएँ मानवीय अंतरात्मा और विवेक से पूरी की जा सकती हैं। व्यक्ति के लिए अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना कठिन नहीं है। अगर व्यक्ति दिल से काम करे और उसमें इसे अभ्यास में लाने का संकल्प और आकांक्षा हो तो इसे हासिल करना आसान है।” लेकिन कुछ लोग इसे हासिल नहीं कर पाते। जिन लोगों में हमेशा महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं, जो हमेशा अतिमानव और महान शख्सियत बनना चाहते हैं, भले ही वे साधारण इंसान बनना चाहते हों, उनके लिए यह आसान नहीं है। उन्हें हमेशा लगता है कि वे दूसरों से श्रेष्ठ और बेहतर हैं, इसलिए उनका पूरा दिल और दिमाग एक अतिमानव या महान हस्ती बनने की इच्छा से भरा रहता है। वे न सिर्फ साधारण इंसान बनने और सृजित प्राणियों के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए तैयार नहीं होते, बल्कि कसम भी खाते हैं कि वे अतिमानव और महान शख्सियत बन जाने का प्रयास कभी नहीं छोड़ेंगे। इसका कोई इलाज नहीं।

कुछ लोग चाहे किसी भी चीज का सामना करें, वे सत्य की खोज और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते। वे सिर्फ अपनी इच्छाओं, गुणों और काबिलियत के आधार पर कार्य करते हैं। यहाँ तक कि वे परमेश्वर से प्रार्थना भी बेमन से ही करते हैं और अपने दिल में सोचते हैं, “परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध करता है या नहीं, यह उसका काम है। मैं तो वैसे ही कार्य करूँगा, जैसा मुझे सर्वोत्तम लगेगा।” उन्हें लगता है कि वे इन मामलों को खुद सँभालने में पूरी तरह सक्षम हैं और वे जो काम करते हैं उसके लिए पूरी तरह दक्ष हैं। उनके लिए परमेश्वर से प्रार्थना सिर्फ बेमन से करने का मामला है। ऐसे लोग कैसे होते हैं? क्या वे स्वीकार सकते हैं कि वे साधारण, सामान्य लोग हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? (बिल्कुल नहीं।) क्या ऐसे लोगों को लगता है कि वे कुछ भी कर सकते हैं? (बिल्कुल।) वे मानते हैं कि भले ही वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य न करें, फिर भी वे सब-कुछ सँभाल सकते हैं और परमेश्वर के वचन खोजे बिना ही, बिना किसी परेशानी या कठिनाई के काम पूरे करवा सकते हैं। ऐसे लोग किस मार्ग पर चल रहे हैं? क्या यह एक अतिमानव और महान हस्ती बनने के अनुसरण का मार्ग है? (बिल्कुल।) चाहे वे कितनी भी बड़ी गड़बड़ी करें या चाहे कितने भी अपराध करें, यह उनके लिए कुछ भी नहीं है। अगर उन्होंने कई चीजें की हैं, कुछ उपलब्धियाँ जुटाई हैं और कोई श्रेष्ठता की भावना महसूस की है, तो उन्हें लगता है कि उनके पास संसाधन और क्षमताएँ हैं। वे खुद को ऐसे लोग समझते हैं जिन्होंने परमेश्वर के घर के लिए कड़ी मेहनत की है और बहुत-कुछ हासिल किया है। उन्हें परमेश्वर के वचनों की आवश्यकता नहीं है। उन्हें परमेश्वर के कार्य की आवश्यकता नहीं है। वे खुद कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे लोग कभी परमेश्वर के सामने नहीं आएँगे। वे डींग मारते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो वे नहीं कर सकते। जब वे किसी चीज का सामना करते हैं तो वे कभी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, न सत्य सिद्धांत ही खोजते हैं, अपने भाई-बहनों के साथ संगति करना तो दूर की बात है। न ही वे कभी ऊपरवाले से खोजते हैं, परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजने की तो बात ही छोड़ दो। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचनों में कई चीजों का जिक्र नहीं किया गया है और उनका कोई ठोस स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है, इसलिए उनका ऐसी चीजें खुद ही हल कर लेना ठीक है। अनजाने ही उन्होंने परमेश्वर को दरकिनार कर दिया है। अनजाने ही वे दूसरों का तिरस्कार करते हैं और सभी को पैरों तले कुचल देते हैं। जिस रास्ते पर वे चल रहे हैं, वह एक मशहूर व्यक्ति, एक महान हस्ती और एक अतिमानव बनने का रास्ता है। अंत में इस तरह का व्यक्ति दृढ़ नहीं रह सकता। अगर तुम उनसे यह स्वीकार करना सीखने के लिए कहो कि वे साधारण लोग हैं, कि वे गलतियाँ कर सकते हैं, अपराध कर सकते हैं और असफल हो सकते हैं, और उनमें कई दोष और खामियाँ हैं तो क्या वे ऐसा कर सकते हैं? (नहीं कर सकते।) अगर तुम उनसे कहो कि ये आभामंडल और मुकुट उतार दो, भाई-बहनों से मिलने वाला उच्च सम्मान त्याग दो और कलीसिया में अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा छोड़ दो तो क्या वे सहमत होंगे? (नहीं होंगे।) वे कहेंगे, “मैं अपनी कड़ी मेहनत से अर्जित प्रसिद्धि और मुकुट इस तरह संतोषपूर्वक कैसे छोड़ सकता हूँ? मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ!” वे उत्सुकता से चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग उनके साथ अतिमानव और महान शख्सियतों जैसा व्यवहार करें। वे यह पसंद नहीं करते कि लोग उनकी कमियाँ और खामियाँ देखें और उनके साथ सामान्य लोगों जैसा व्यवहार करें। जब लोग उनकी गलतियाँ, असफलताएँ और आचरण उजागर करते हैं, तो इसे वे और भी ज्यादा नापसंद करते हैं। क्या ऐसे लोग प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए अक्सर परमेश्वर के सामने आ सकते हैं? (नहीं आ सकते।) अगर वे प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आ भी जाएँ तो क्या उनके पास सच्चा दिल होगा? नहीं। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह अपने सिर के मुकुट और अपनी प्रतिष्ठा के लिए करते हैं। वे ऐसी चीजें करते हैं जिन्हें सभी देख सकें, लेकिन परमेश्वर की जाँच-पड़ताल नहीं स्वीकारेंगे, वे परमेश्वर को सच्चा हृदय अर्पित नहीं कर सकते जो उनके पास होता नहीं है। वे किसी भी तरह परमेश्वर के वचनों में उसके इरादों को नहीं समझ सकते और परमेश्वर की अपेक्षानुसार कार्य नहीं कर सकते। इसलिए इस तरह का व्यक्ति सत्य खोजना भी चाहे और एक मशहूर व्यक्ति या महान हस्ती बनने की इच्छा छोड़ना भी चाहे तो भी वह ईमानदार नहीं होता। वह देह से विद्रोह नहीं कर सकता, न ही सत्य का अभ्यास कर सकता है। आखिर वह किस तरह का व्यक्ति होता है? वह छद्म-विश्वासी होता है। वह मसीह-विरोधी होता है। जब मसीह-विरोधियों को लोगों के बीच रुतबा, प्रभाव और थोड़ी प्रतिष्ठा मिल जाती है तो वे खुद को एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में झोंक देते हैं और ऐसे रास्ते पर चल पड़ते हैं जहाँ से वापस लौटना संभव नहीं होता। तुम उन्हें चाहे कितनी बार भी सत्य पर संगति करने में लगा लो या उनकी काट-छाँट कर लो, कोई फायदा नहीं होगा। परमेश्वर के घर में सत्य पर संगति करना, अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में बात करना, परमेश्वर से प्रेम करने और परमेश्वर की गवाही देने की कोशिश करना और सत्य की शुद्ध समझ और सिद्धांतों पर संगति में लगे रहना—ये सकारात्मक चीजें सिर्फ उन लोगों के लिए कारगर होती हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं और परमेश्वर के लिए प्रचंड आकांक्षा रखते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, जो सिर्फ आशीषों का अनुसरण करते हैं और जो अतिमानव और महान हस्ती की भूमिका निभाना पसंद करते हैं, उनके लिए उपरोक्त सकारात्मक चीजें बिल्कुल भी किसी काम की नहीं हैं। कोई भी सत्य, सही वचन और सकारात्मक चीज उन सब लोगों के लिए हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं, परमेश्वर के वचनों से प्रेम करते हैं और परमेश्वर के लिए प्रचंड आकांक्षा रखते हैं। जिन लोगों के पास ये योग्यताएँ नहीं हैं, वे सत्य सुनने के बाद यह भी कहेंगे कि सत्य सही है और सत्य अच्छा है, लेकिन वे इस पर विचार करेंगे और सोचेंगे, “मैं किस चीज के लिए जीता हूँ? मैं प्रतिष्ठा, रुतबे, मुकुटों, आभामंडलों और परमेश्वर के पुरस्कारों के लिए जीता हूँ। इनके बिना भी क्या मुझमें गरिमा है? मेरे जीवन का क्या अर्थ है? क्या परमेश्वर में आस्था पुरस्कारों और मुकुटों के पीछे दौड़ने का एक साधन भर नहीं है? अब जबकि मैंने अपने दिल का इतना रक्त खपा दिया है, और इतने लंबे इंतजार के बाद आखिरकार समय आ गया है कि परमेश्वर अच्छे लोगों को पुरस्कृत करे और दुष्टों को दंड दे। यही वह समय है जब मुझे मुकुट पहनाया जाना चाहिए और अपना पुरस्कार प्राप्त करना चाहिए। मैं इसे किसी और को कैसे दे सकता हूँ? एक सामान्य व्यक्ति, साधारण व्यक्ति, अन्य सभी सीधे-सादे लोगों जैसा, इस तरह जीने का क्या मतलब है? मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ!” क्या ऐसा व्यक्ति लाइलाज नहीं है? (बिल्कुल है।) ऐसे लोगों को मनाने की कोशिश मत करो। सत्य उनके लिए नहीं है, और वे जो चाहते हैं वह सत्य नहीं है। इस तरह का व्यक्ति सिर्फ आशीष और मुकुट चाहता है। उसकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ सामान्य लोगों के लिए आवश्यक सीमाओं से अधिक हैं। कुछ लोग कल्पना नहीं कर सकते कि ऐसा व्यक्ति रुतबे और सत्ता से क्यों चिपका रहता है और इन्हें छोड़ क्यों नहीं देता। यह ऐसे व्यक्ति का सार और जन्मजात प्रकृति है। तुम इसका पता नहीं लगा सकते क्योंकि तुम्हारा सार उनसे अलग है, और न ही वे तुम्हें समझ सकते हैं। वे नहीं जानते कि तुम इतने मूर्ख क्यों हो। तुम बने-बनाए मुकुट, आभामंडल और प्रतिष्ठा नहीं चाहते, बल्कि एक साधारण व्यक्ति होना चाहते हो। उन्हें तुम अबूझ लगते हो। इस तरह का व्यक्ति सोचता है, “तुम निष्ठापूर्वक सत्य का अनुसरण करते हो, परमेश्वर जो कहता है उसका अभ्यास करते हो, वही करते हो जो परमेश्वर तुमसे करने के लिए कहता है और जो कुछ भी परमेश्वर तुमसे करने के लिए कहता है उसके प्रति समर्पण करते हो। तुम इतने मूर्ख कैसे हो सकते हो?” उन्हें लगता है कि एक ईमानदार व्यक्ति होना और सत्य का अभ्यास करना मूर्ख, अज्ञानी और मंदबुद्धि होना है। वे मानते हैं कि ज्ञान का अनुसरण करने और एक श्रेष्ठ व्यक्ति की भूमिका निभाने के कारण वे चतुर हैं। यह सोचते हुए कि वे सब-कुछ समझते हैं, वे यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि “ऐसे व्यक्ति का जीवन ही बेकार है जिसके पास रुतबे और प्रतिष्ठा का अभाव है, जिसके सिर पर कोई मुकुट नहीं है, जिसका लोगों के बीच कोई मूल्य नहीं है और जिसके पास बोलने का अधिकार नहीं है। अगर व्यक्ति प्रसिद्धि के लिए नहीं जीता तो उसे निजी लाभ के लिए जीना चाहिए। अगर वह निजी लाभ के लिए नहीं जीता तो उसे प्रसिद्धि के लिए जीना चाहिए।” क्या यह शैतान का तर्क नहीं है? शैतान के तर्क से जीने पर उनका कोई इलाज नहीं है। वे कभी परमेश्वर का कोई वचन, कोई सकारात्मक चीज या सही सलाह नहीं स्वीकार सकते। अगर वे इसे नहीं स्वीकार सकते तो क्या किया जा सकता है? हम ये वचन उनके लिए नहीं कहते हैं। ये वचन सिर्फ सामान्य मानवता वाले लोगों के लिए, सिर्फ परमेश्वर के लिए प्रचंड आकांक्षा वाले लोगों के लिए कहे जाते हैं। ये सिर्फ इन्हीं लोगों के लिए हैं। सिर्फ ये लोग ही ईमानदारी से परमेश्वर के वचन सुनकर उन पर विचार कर सकते हैं, सत्य की समझ प्राप्त कर सकते हैं, सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं, परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपने कर्तव्य निभा सकते हैं, परमेश्वर द्वारा इंतजाम किए गए परिवेश में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव कर सकते हैं और धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो अपने हृदय में सकारात्मक चीजों और परमेश्वर के वचनों के प्रति अवमानना और शत्रुता रखते हैं, वे यह स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होते हैं कि वे एक साधारण और मामूली जीवन जिएँ, एक सामान्य व्यक्ति बनें, निष्ठापूर्वक परमेश्वर के सामने आएँ और जिन मामलों को वे नहीं समझते उनके संबंध में दिल की गहराइयों से खोज और इंतजार करें। वे ऐसा व्यक्ति बनने से संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए ऐसे व्यक्ति को बचाया जाना असंभव है। स्वर्ग का राज्य इन लोगों के लिए नहीं बनाया गया था। क्या तुम समझ रहे हो? (हम समझ रहे हैं।) जो भी साधारण, सामान्य सृजित प्राणी बनने में सक्षम है जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है, और एक सृजित प्राणी के उचित स्थान पर खड़ा होने में सक्षम है, जो भी ऐसा मूर्ख व्यक्ति बनने के लिए तैयार है जिसे दूसरे तुच्छ समझते हैं, और परमेश्वर के वचनों को स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण कर सकता है चाहे वह कुछ भी कहे, अक्सर परमेश्वर के सामने आ सकता है, अक्सर खोज सकता है और सच्चा दिल रख सकता है, वह उन विजेताओं में से एक बन सकता है जिनके बारे में परमेश्वर बोलता है। जो भी उन विजेताओं में से एक बन जाता है जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है, उसे अंततः वह प्राप्त होगा जिसका वादा परमेश्वर ने मानवजाति से किया है। यह तय है।

जब परमेश्वर यह आँकता है कि कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा, वह सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, और वह परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकता है या नहीं तो वह अपने वचनों के बारे में उसकी समझ और अपने वचनों के प्रति उसके रवैये पर विचार करता है। वह यह विचार करता है कि क्या ऐसा व्यक्ति उन सत्यों का अभ्यास कर सकता है या नहीं जिन्हें वह समझता है। वह विचार करता है कि जब उसकी काट-छाँट की जाती है और जब वह परीक्षणों से गुजरता है तो वह सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। वह विचार करता है कि वह सच्चे हृदय से परमेश्वर को चाहता और स्वीकारता है या नहीं। परमेश्वर यह आकलन नहीं करता कि उसकी शिक्षा का स्तर क्या है, उसकी काबिलियत क्या है, उसमें कितने गुण हैं, उसने कितनी दूर तक यात्रा की है या उसने कितना काम किया है। परमेश्वर इन चीजों पर विचार नहीं करता, न ही वह इन चीजों की इच्छा रखता है। मान लो, तुम हमेशा अपनी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ परमेश्वर के पास ले जाना और उनके बदले पुरस्कार और मुकुट लेना चाहते हो, लेकिन तुमने हमेशा परमेश्वर के वचनों को तिरस्कृत और नजरअंदाज किया है। भले ही परमेश्वर ने हजारों-लाखों वचन कहे हैं, फिर भी परमेश्वर का एक भी वचन तुम्हारे हृदय में नहीं रहता। परमेश्वर के उपदेशों, उसकी चेतावनियों या उसके अनुस्मारकों का, यहाँ तक कि उसके न्याय, ताड़नाओं या शिक्षाओं का भी एक भी वचन—इनमें से एक भी वचन तुम्हारे दिल में नहीं है। तुम परमेश्वर के कहे एक भी वचन को आदर्श वाक्य मानकर अपने हृदय में नहीं रखते। तुम्हारा हृदय परमेश्वर का एक भी वचन याद नहीं रखता और साथ ही तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और उनमें प्रवेश करने के लिए कोई कीमत नहीं चुकाते। अगर यह सब सच है तो परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से तुम्हारा परिणाम और गंतव्य पहले ही तय हो चुका है। अगर परमेश्वर की उपस्थिति में, सृष्टिकर्ता की उपस्थिति में तुम एक साधारण या सामान्य व्यक्ति होना नहीं स्वीकारते; अगर सृष्टिकर्ता की उपस्थिति में तुम धृष्टतापूर्वक कार्य करने का साहस करते हो; अगर तुम हमेशा महान हस्ती, अतिमानव, असाधारण व्यक्ति की भूमिका निभाना चाहते हो और उस स्थान पर नहीं रहते जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है तो तुम फिर भी परमेश्वर से क्या प्राप्त करना चाहते हो? क्या परमेश्वर तुम्हें यह देगा? अगर लोग वह प्राप्त करना चाहते हैं जिसका परमेश्वर ने मनुष्य से वादा किया है तो पहले उन्हें परमेश्वर के मार्ग पर चलना होगा। यह सामान्य दिशा है। जहाँ तक विशिष्ट दिशा की बात है, उन्हें परमेश्वर के वचन सुनकर उनका अभ्यास करना चाहिए। यह मार्ग उन्हें कभी गलत राह पर नहीं ले जाएगा। परमेश्वर के वचन सुनो और उनका अभ्यास करो, परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन की वास्तविकता में बदलो, तुम जो कहते हो, जैसा आचरण करते हो, जैसे चीजों को देखते हो और जैसे चीजें करते हो, उस सबका आधार, सिद्धांत, दिशा और लक्ष्य इन वचनों को बनाओ। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम जो कहते हो और जो निर्णय लेते हो, उनका आधार परमेश्वर के वचन होने चाहिए। जब भी तुम एक तरह के व्यक्ति के साथ जुड़ने और दूसरी तरह के व्यक्ति से बचने या उसे नकारने का फैसला करते हो तो तब तुम्हारे पास परमेश्वर के वचनों का आधार होना चाहिए। भले ही तुम क्रोधित हो और दूसरों को कोस रहे हो, तुम्हारे कार्यों में सिद्धांत और संदर्भ होने चाहिए और वे मूल रूप से सत्य के अनुरूप होने चाहिए। इस तरह से तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को जियोगे और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करोगे। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का अनुसरण करना एक मानक स्तर का सृजित प्राणी बनने के लिए सत्य का अनुसरण करने और सामान्य मानवता को जीने की एक प्रक्रिया है। यह खुद को एक अतिमानव, एक असाधारण व्यक्ति और एक मशहूर व्यक्ति या महान हस्ती बनने के प्रयास से मुक्त करने की प्रक्रिया भी है। अगर तुम एक अतिमानव, एक मशहूर व्यक्ति और एक महान हस्ती बनने के प्रयास या इस तरह के अनुसरण के तरीके से बचना चाहते हो तो पहले तुम्हें अपनी अकड़ घटानी होगी, विनम्र बनना होगा, स्वीकारना होगा कि तुम एक व्यक्ति हो, एक मामूली व्यक्ति हो और एक ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना कुछ नहीं कर सकता—सिर्फ एक साधारण व्यक्ति। तुम्हें स्वीकारना होगा कि तुम परमेश्वर और उसके वचनों से अलग कुछ भी नहीं हो। तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और आयोजन स्वीकारने को तैयार हो। परमेश्वर ने तुम्हें जो साँस दी है उसके बिना—उसने तुम्हें जो कुछ दिया है उसके बिना—तुम एक लाश हो और किसी काम के नहीं हो। निस्संदेह इन चीजों को स्वीकारते समय तुम्हें परमेश्वर के सामने आना चाहिए और उसके द्वारा बोले गए जीवन के तमाम वचन स्वीकारने चाहिए। सबसे अहम बात यह है कि तुम्हें परमेश्वर के इन वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन में उतारना चाहिए, उन्हें अपने जीवन और अस्तित्व की नींव और आधार बनाना चाहिए और आजीवन उन्हें अपने अस्तित्व का एक स्रोत और सहारा बनाना चाहिए। यह परमेश्वर का इरादा है और मनुष्य से उसकी सर्वोच्च अपेक्षा है।

आज हमारी संगति का मुख्य विषय यह रहा है कि परमेश्वर के वचनों के साथ कैसे पेश आया जाए, परमेश्वर के वचनों को कैसे खाया-पीया जाए, लोगों को परमेश्वर के वचनों को कैसे सँजोना चाहिए और उन्हें परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कैसे करना चाहिए ताकि वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर उद्धार प्राप्त कर सकें। हमने मुख्य रूप से परमेश्वर के वचनों के महत्व पर संगति की। ये ठीक वही चीजें हैं जिनकी तुम लोगों में कमी है और जो मनुष्य के पास होनी चाहिए। अगर मैं इस तरह संगति न करता तो तुम ऐसी चीजों को स्पष्ट रूप से समझ न पाते। ऐसा लगता है कि तुम्हारे पास कुछ अवचेतन-ज्ञान है लेकिन तुम जो जानते हो, उसे स्पष्ट रूप से बता नहीं सकते। यह एक लेख लिखने जैसी बात है जब रूपरेखा तो तैयार हो जाती है लेकिन तुम अभी भी इसमें विषयवस्तु नहीं जोड़ पाते हो। यह तुम लोगों की असली स्थिति है। इन चीजों पर आज की संगति तुम्हारे लिए एक अनुस्मारक और चेतावनी है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर के वचन सबसे अहम चीज हैं और सत्य का कोई विकल्प नहीं है। जब तुम यह बात समझ जाते हो तो तुम लोगों के पास अभ्यास करने का एक मार्ग होना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचन खाने-पीने और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने के लिए और ज्यादा प्रयास करना चाहिए ताकि तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर सको। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, तुम्हारी समझने की क्षमता कम है और तुम परमेश्वर के गहरे वचनों में पैठ नहीं सकते या उन तक पहुँच नहीं सकते और उन्हें खुद पर लागू नहीं कर सकते तो तुम्हें क्या करना चाहिए? आसान वचन खाने-पीने से शुरुआत करो। अपने दिल में उन सरल, आसानी से समझ में आने वाले वचनों को याद करो, जिनका तुम खुद अभ्यास कर सकते हो, उन्हें अपने अभ्यास में अपनाए जाने वाले सिद्धांत बनाओ और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करो। अगर परमेश्वर कहे कि पूर्व की ओर जाओ तो पूर्व की ओर जाओ। अगर परमेश्वर कहे कि पश्चिम की ओर जाओ तो पश्चिम की ओर जाओ। अगर परमेश्वर कहे कि ज्यादा प्रार्थना करो, तो ज्यादा प्रार्थना करो। परमेश्वर जो कहे सो करो। शैतान किसी व्यक्ति को होशियार और चतुर समझे, उससे बेहतर यह है दूसरे लोग उसे मूर्ख समझ लें। जो लोग परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने के एकमात्र उद्देश्य से सत्य का अभ्यास करने का फैसला करते हैं, वही वास्तव में बुद्धिमान और ज्ञानी होते हैं।

25 सितंबर 2021

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