परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है (भाग तीन)

अगली पंक्ति क्या है? (“तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प होना चाहिए, तुम्हें आतुरता से खोज करनी चाहिए।”) ये सभी वे अपेक्षाएँ हैं, जो परमेश्वर मनुष्य से करता है। अगर लोग सत्य समझना और बचाए जाना चाहते हैं, तो उनके दिलों को इसके लिए लालायित होना चाहिए, उनमें इसका अनुसरण करने का संकल्प होना चाहिए और उनमें वास्तविक लालसा होनी चाहिए। फिर, उन्हें परमेश्वर द्वारा निर्धारित अभ्यास के मार्ग के अनुसार अभ्यास और प्रवेश करना चाहिए। धीरे-धीरे परमेश्वर इन लोगों को सत्य वास्तविकता और एक सही और सामान्य अवस्था में लाएगा। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों में अधिक से अधिक सत्यों को अधिकाधिक व्यावहारिक तरीके से समझेंगे। अंत में इन लोगों की बहुत-सी असामान्य दशाओं, उनमें प्रकट होने वाली भ्रष्टता और उनके विद्रोह का समाधान परमेश्वर के तैयार किए गए बहुत सारे विविध परिवेशों में परमेश्वर के कार्य के विभिन्न तरीकों से धीरे-धीरे हो जाएगा। तो फिर, वह क्या चीज है, जो तुम लोगों को समझनी चाहिए? वह यह है : जो चीजें लोगों को करनी चाहिए, जो चीजें उन्हें अभ्यास में लानी चाहिए, वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार पूरी की जानी चाहिए। जब लोग परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास और कार्य करते हैं तो वे उस सही मार्ग पर चलेंगे जो परमेश्वर ने उनके लिए बताया है। जब लोग इस सही मार्ग पर चलते हैं, तो परमेश्वर, अपने तरीके से और अपनी अपेक्षाओं और सिद्धांतों के अनुसार, उचित समय पर उन्हें उचित हिस्सा प्रदान करेगा। यहाँ लोगों को क्या समझना चाहिए? लोगों का सहयोग, उनके द्वारा चुकाई जाने वाली कीमत और उनके व्यय अपरिहार्य हैं। लोगों को परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य और अभ्यास करना चाहिए। उन्हें इंसानी इच्छाओं के अनुसार या इंसानी कल्पनाओं और धारणाओं के आधार पर कार्य नहीं करना चाहिए। अंतिम परिणाम क्या प्राप्त होता है, कोई कितना बदल सकता है, कोई कितना हासिल कर सकता है : क्या ये चीजें व्यक्ति की इच्छाओं से निर्धारित होती हैं? नहीं, यह परमेश्वर का काम है और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। अंत में, परमेश्वर तुम्हें क्या और कितना देता है, कब देता है, तुम्हें जो दिया जाता है वह तुम्हें किस उम्र में प्राप्त होता है : यह परमेश्वर का काम है और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। इससे मेरा क्या तात्पर्य है? तात्पर्य यह है कि तुम्हें सिर्फ सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करने, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए मार्ग के अनुसार प्रवेश करने, एक सृजित प्राणी के लिए जो उचित है वह करने, और तुम्हें जो सहयोग देना चाहिए वह प्रदान करने की जरूरत है। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि तुम्हें क्या और कितना मिलेगा, कब मिलेगा और परमेश्वर इन मामलों का निपटान कैसे करेगा, तो यह परमेश्वर का काम है और परमेश्वर के समय में होगा। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं इसे अभ्यास में लाऊँ, तो क्या अंत में मुझे बचाया जाएगा?” मुझे बताओ, क्या तुम्हें लगता है कि उन्हें बचाया जा सकता है? ये वचन और सत्य जो परमेश्वर ने मनुष्य को दिए और प्रदान किए हैं, ये मनुष्य के लिए उद्धार का मार्ग हैं। अगर तुम परमेश्वर के इन वचनों और सत्यों के अनुसार अभ्यास करते हो और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करते हो, तो क्या तुम्हें अभी भी चिंता करने की जरूरत है कि शायद तुम बचाए न जाओ? क्या तुम अभी भी इस डर से हर दिन चिंता और बेचैनी में बिताते हो कि परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा? क्या यह बहुत कम आस्था और परमेश्वर के इरादे समझने में विफलता के कारण नहीं है? अगर तुम वास्तव में सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हो, अगर तुम्हारे दिल में शांति और खुशी है, अगर तुम वास्तविक अनुभवजन्य गवाही दे सकते हो और अपने दिल में परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता रख सकते हो, तो क्या तुम अब भी इसकी चिंता करोगे कि तुम बचाए नहीं जाओगे? चिंता मत करो, यह तुम्हारा काम नहीं है। तुम्हें बस अभ्यास करना और परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों में एक पंक्ति भी महत्वहीन नहीं है। परमेश्वर के संपूर्ण वचन सत्य हैं और सत्य वह जीवन है, जो मनुष्य के पास होना चाहिए। परमेश्वर के संपूर्ण वचन ही हैं जो उद्धार प्राप्त करने के लिए लोगों के पास होने आवश्यक हैं और जो उनके पास होने चाहिए। अगर तुम अभ्यास में परमेश्वर के इन वचनों का पालन करते हो, लेकिन फिर भी चिंतित रहते हो कि तुम बचाए नहीं जाओगे, तो क्या तुम मूर्ख और अज्ञानी हो? क्या तुम्हारी तंत्रिकाएँ अतिसंवेदनशील हैं? अगर तुम ऐसे बेकार विचारों पर ध्यान देने के बजाय परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाओ, तो तुम्हें अधिक आनंद मिलेगा। अगर तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, तो तुम जिस अंतिम गंतव्य पर पहुँचोगे, वह निश्चित रूप से सही होगा—वह गंतव्य, जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए निर्दिष्ट किया है। तुम गलत नहीं होगे। इसलिए, अगर तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करते और प्रवेश करते हो, तो तुम्हें इस बात पर चिंता करने की जरूरत नहीं है कि तुम्हें बचाया जा सकता है या नहीं। बस परमेश्वर द्वारा बताए गए उद्धार के मार्ग के अनुसार अभ्यास करो और अनुसरण करो, यही सही तरीका है। कुछ लोग कहते हैं : “उद्धार प्राप्त करना कैसा लगेगा? क्या हमें ऐसा लगेगा, जैसे हम हवा में तैर रहे हों? क्या हम उससे अलग महसूस करेंगे, जैसा अभी महसूस करते हैं?” यह प्रश्न थोड़ा असामयिक है। यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे तुम्हें अभी जानने की जरूरत है। तुम्हें तब पता चल जाएगा, जब तुम वास्तव में बचाए जाओगे। कुछ लोग कहते हैं : “जब मैं बचाया जाऊँगा, तो क्या परमेश्वर मेरे सामने वैसे ही प्रकट होगा, जैसे वह अय्यूब के सामने प्रकट हुआ था?” क्या यह उचित अनुरोध है? इसकी माँग मत करो। तुम अभी यह भी नहीं जानते कि तुम्हें बचाया जा सकता है या नहीं, तो यह अनुरोध करने का क्या फायदा? कोई फायदा नहीं। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम वर्तमान में प्राथमिक विद्यालय में हो। तुम्हें अपनी सभी कक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन करने और अपने शिक्षक की अपेक्षाएँ पूरी करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। हमेशा यह मत सोचते रहो कि “मैं भविष्य में किस विश्वविद्यालय में जाऊँगा? जीवन में बाद में मुझे किस तरह की नौकरी मिलेगी?” इन चीजों के बारे में सोचना बेकार है। यह बहुत दूर की और अवास्तविक बात है। अगर तुम सही तरीकों और मार्गों के अनुसार अभ्यास और प्रवेश करते हो, तो तुम निश्चित रूप से अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने में सक्षम होगे। इसके अलावा, परमेश्वर का मार्गदर्शन साथ हो तो, तुम लोग अभी भी किस बात से डरते हो? क्या तुम विश्वास करते हो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है? (मैं विश्वास करता हूँ।) परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, तो क्या परमेश्वर के लिए तुम जैसे छोटे व्यक्ति को बचाना मुश्किल है? परमेश्वर के लिए पूरी दुनिया तुम्हें दे देना भी कोई मुश्किल काम नहीं होगा, तो एक छोटे-से भ्रष्ट इंसान को बचाना कैसे मुश्किल हो सकता है? तो क्या तुम्हें फिर भी चिंतित होने की जरूरत है? इस बात की चिंता मत करो कि परमेश्वर तुम्हें बचा सकता है या नहीं, इस बात की चिंता मत करो कि परमेश्वर के वचन तुम्हें बचा सकते हैं या नहीं। बल्कि, तुम्हें इस बात की चिंता करनी चाहिए कि तुम परमेश्वर के वचनों को समझ सकते हो या नहीं और परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग पा सकते हो या नहीं। तुम्हें इस बात की चिंता करनी चाहिए कि अब तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हो या नहीं और अपने कार्यों में उस मार्ग पर चल रहे हो या नहीं, जो परमेश्वर ने बताया है। यह ज्यादा बेहतर है। इन चीजों के बारे में सोचना व्यावहारिक और यथार्थपरक है। किसी और चीज के बारे में चिंता करना बेकार है।

अगली पंक्ति क्या है? (“शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए।”) हमने अभी-अभी इस पंक्ति पर संगति की है, इसलिए इस समस्या को हल करना आसान होना चाहिए। मनुष्य को सिर्फ यह समझने की आवश्यकता है कि अधिकांश समय “शैतान के बहाने, इरादे और चालें” मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव द्वारा उत्पन्न विभिन्न कारणों, बहानों, इरादों और चालों के साथ-साथ उन विभिन्न बुरे व्यक्तियों और छद्म-विश्वासियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तरीकों से उत्पन्न होते हैं, जिनके तुम संपर्क में आते हो। जहाँ तक इस बात का सवाल है कि तुम ऐसी चीजों को कैसे पहचानकर अस्वीकार सकते हो और तुम्हें क्या विकल्प चुनने चाहिए, तो यह तुम्हारा व्यक्तिगत अनुसरण है। अगली पंक्ति पढ़ो। (“हिम्मत मत हारो। कमजोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतजार करो।”) हमने अभी-अभी इस पंक्ति पर भी विस्तार से संगति की है। मनुष्य के लिए प्रत्येक पंक्ति एक चेतावनी और अनुस्मारक है, और साथ ही, एक तरह का समर्थन, सहायता और प्रावधान भी है। निस्संदेह, इन वचनों में मानवजाति के लिए परमेश्वर के इरादे निहित हैं और ये मानवजाति के लिए परमेश्वर की प्रचुर आशा वहन करते हैं। जब लोग कमजोरी और कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो परमेश्वर उन्हें हिम्मत हारते, आशा खोते, आस्था खोते, सत्य और उद्धार का अनुसरण करने का संकल्प खोते और सत्य प्राप्त करने और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने का अवसर खोते हुए नहीं देखना चाहता। परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग कायर बनें। इसके बजाय, वह आशा करता है कि चाहे लोगों को कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, चाहे वे कितने भी कमजोर हों और चाहे उन्होंने कितनी भी भ्रष्टता प्रकट की हो, वे कभी हार नहीं मानेंगे, इन सबमें दृढ़ रहेंगे, सत्य का अनुसरण करते रहेंगे, अपने अनुसरण में अभ्यास के उन मार्गों का पालन करेंगे जो परमेश्वर ने उनके लिए इंगित किए हैं, और फिर भी परमेश्वर के लिए प्रबल इच्छा रखने वाला दिल रखेंगे। परमेश्वर में लोगों की आस्था अनुभव और परमेश्वर के वचनों की समझ के साथ और अधिक बढ़नी चाहिए और कमजोर होने पर उन्हें पीछे नहीं हटना चाहिए, कठिनाइयों का सामना होने पर नकारात्मक नहीं होना चाहिए, और थोड़ी-सी भ्रष्टता प्रकट करने पर आगे बढ़ने के बजाय रोना और पीछे हटना नहीं चाहिए। परमेश्वर ऐसी अभिव्यक्तियाँ नहीं देखना चाहता। परमेश्वर आशा करता है कि लोग उसके प्रति एक हृदय और एक मन होंगे, और इस संबंध में समय, परिवेश, भौतिक स्थान या किसी भी हो सकने वाली स्थिति के कारण नहीं बदलेंगे। अगर परमेश्वर को खोजने की तुम्हारी इच्छा नहीं बदलती और परमेश्वर को खोजने में तुम्हारी दृढ़ता ढीली नहीं पड़ती, तो परमेश्वर इन चीजों को देखेगा और तुम्हारे सच्चे हृदय को जानेगा। अंत में, परमेश्वर तुम्हें जो प्रदान करेगा, वह निश्चित रूप से तुम जो माँग सकते हो या जिसकी कल्पना कर सकते हो, उससे कहीं अधिक होगा। उन दशकों के दौरान, जब अय्यूब ने परमेश्वर की संप्रभुता का अनुभव किया, उसने कभी यह कल्पना करने की हिम्मत नहीं की कि परमेश्वर उससे बात करेगा या व्यक्तिगत रूप से उसके सामने प्रकट होगा। उसने कभी इसकी कल्पना करने की हिम्मत नहीं की, लेकिन उसके अंतिम परीक्षण के बाद परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ और एक बवंडर से उससे व्यक्तिगत रूप से बात की। क्या यह मनुष्य की किसी भी माँग से बढ़कर नहीं है? (हाँ, है।) यह व्यक्ति द्वारा माँगी जा सकने वाली किसी भी चीज से बढ़कर है और कोई भी ऐसा सोचने तक का साहस नहीं करता। परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, मनुष्य को अपने उचित स्थान पर खड़ा होना चाहिए, वे चीजें करनी चाहिए जो उसे करनी चाहिए, उस मार्ग पर चलना चाहिए जिस पर उसे चलना चाहिए, उससे जो कहा जाए उससे परे जाए बिना खुद को दिए गए कर्तव्य निभाने चाहिए, और वे चीजें करने से बचना चाहिए जिनसे परमेश्वर तिरस्कार करता है। जब भी तुम्हें लगे कि तुम परमेश्वर से बहुत अधिक माँग कर रहे हो, कि तुम्हारे अनुरोध महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होने और विवेक की कमी के नतीजे हैं, तो तुम्हें तुरंत परमेश्वर के सामने आना चाहिए, उसके सामने दंडवत होना चाहिए और अपने पाप स्वीकारने चाहिए। तुम्हें सचमुच पश्चात्ताप करना चाहिए और अपने हृदय की गहराइयों से खुद को बदलना चाहिए। परमेश्वर मानवजाति से यही अपेक्षा और उन सभी के लिए यही आशा करता है जो उसका अनुसरण और सत्य से प्रेम करते हैं।

यहाँ हम इस अंश पर अपनी संगति समाप्त करते हैं। इतनी संगति के बाद मैंने वह आदेश दे दिया है जो दिया जाना चाहिए और तुम्हें वह समझा दिया है जो मनुष्य के लिए समझना उचित है। इस तरह की संगति का उद्देश्य तुम लोगों को यह बताना है कि परमेश्वर के वचनों को कैसे पढ़ा जाए, तुम लोगों को परमेश्वर के वचन पढ़ने का तरीका सिखाना और सभी को यह जानकारी देना भी है कि परमेश्वर के वचनों का कोई भी अंश व्यर्थ नहीं बोला गया है। वे सभी परमेश्वर के इरादों से परिपूर्ण हैं और परमेश्वर की आशाएँ रखते हैं। इस नजरिए से देखें तो परमेश्वर के सभी वचन, चाहे वे गहन हों या सरल, ऐसी चीजें हैं जो मनुष्य के पास होनी चाहिए और जिनका उसे पालन करना चाहिए। महज कुछ सरल वचनों में ही अभ्यास के वे सिद्धांत समाए हैं जिनका मनुष्य को सबसे ज्यादा पालन करना चाहिए, फिर भी इनका पालन कोई नहीं करता। परमेश्वर के इन चंद वचनों को कोई महत्व नहीं देता और कोई भी उनके प्रति सम्मान नहीं रखता। तुम्हीं बताओ, मनुष्य कितना सुन्न है? वास्तव में, सुन्न तो इसे कहने का एक अच्छा तरीका है। दरअसल, यह तो मनुष्य का असीम अहंकार है कि वह इन वचनों से घृणा करता है और इन्हें देखना या पढ़ना नहीं चाहता। वह क्या पढ़ना चाहता है? वह गहरे, ऊँचे, दार्शनिक और व्यवस्थित वचन पढ़ना चाहता है। उन ऊँचे और गहरे वचनों की बात मत करो, अगर इंसान इन कुछ सरल वचनों को ही समझ सके तो बहुत है। ये वचन सरल लग सकते हैं और इन्हें पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति इन्हें समझ सकता है लेकिन वास्तव में इन्हें अभ्यास में कौन लाता है? कौन वास्तव में अपने साथ घटित होने वाली चीजों को परमेश्वर के सामने ले जाकर प्रार्थना कर सकता है? समाधानों के लिए अधीर हुए बिना परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा कौन करता है? कितने लोग इसका अभ्यास कर सकते हैं? अब तक, मुझे ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला जिसने परमेश्वर के इन वचनों का पालन और अभ्यास किया हो, न ही मुझे कोई ऐसा व्यक्ति मिला जो इन वचनों से आकर्षित हुआ हो, जिसने यह देखने के बाद कि परमेश्वर के वचन कितने हार्दिक और अनमोल हैं, उन्हें सँजोया हो। अभी तुम लोगों को यह भजन बजाते सुनकर मैंने पूछा था कि तुमने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को कैसे खाया-पीया। क्या किसी ने इन कुछ सरल, सीधे और स्पष्ट वचनों का प्रार्थना-पाठ करके इनसे परमेश्वर के इरादों का पता लगाया है? क्या किसी ने अभ्यास का वह मार्ग ढूँढ़ने के लिए इनका प्रार्थना-पाठ किया है जिसे समझकर मनुष्य को उसमें प्रवेश करना चाहिए? क्या किसी ने उनसे कोई सत्य समझा है? मैं जो पूछ रहा हूँ, वह यह है कि क्या उनमें मौजूद सत्य अलग-अलग व्यक्तियों में साकार हुए हैं? क्या उनका असर हुआ है? हमारी संगति ने दिखाया है कि वास्तव में उनका असर नहीं हुआ है। तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। ऐसा लगता है कि इन वर्षों में परमेश्वर द्वारा कहे गए अधिकांश वचनों ने अभी तक वास्तव में तुम लोगों के दिलों में जड़ें नहीं जमाई हैं। तुम लोगों ने वह स्तर प्राप्त नहीं किया है, जिस पर तुम उन्हें सत्य के रूप में सँजोओ। यह अच्छा शगुन नहीं है। यह अच्छा संकेत नहीं है। कुछ लोग कहते हैं : “हम रोज अपने कर्तव्य निभाने में बहुत व्यस्त रहते हैं। हमारे पास परमेश्वर के वचनों पर विचार करने का समय नहीं है।” वास्तव में ऐसा नहीं है कि उनके पास समय नहीं है, बात यह है कि वे प्रयास नहीं करते या ध्यान नहीं देते। कोई व्यक्ति चाहे जो भी कर्तव्य निभाए, क्या इससे इस बात पर असर पड़ सकता है कि वह अपने हृदय में परमेश्वर के वचनों पर कैसे विचार करता है? क्या वह भोजन और आराम करते समय परमेश्वर के वचनों पर विचार नहीं कर सकता? यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें इच्छा है या नहीं। लोग सोचते हैं कि इतने व्यस्त रहने का मतलब ही यह है कि व्यक्ति संतुष्ट है। दरअसल जब तुम्हारे पास सोचने के लिए खाली समय होगा तो तुम्हें एहसास होगा कि तुमने कभी अपने दिल में परमेश्वर के किसी वचन पर वास्तव में विचार नहीं किया है। तुमने उनमें से कुछ भी अपने पास नहीं रखा है और वे तुम्हारे जीवन के मार्गदर्शक और तुम्हारे अभ्यास के मानदंड नहीं बने हैं। जब तुम इस पर विचार करोगे तो तुम्हें शर्म आएगी। तुम्हारी व्यस्तता सिर्फ एक दृष्टि-भ्रम है जो तुम्हें धोखा देती है। वह तुम्हें महसूस कराती है कि परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के कारण तुम्हारा जीवन खाली नहीं बल्कि भरा हुआ है, कि तुम दुनिया के लोगों से अलग हो, कि तुम दुनिया के रुझानों के पीछे नहीं दौड़ते। बल्कि तुम सबसे न्यायसंगत लोगों में से हो, तुम परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग कर रहे हो, न्यायसंगत कर्म कर रहे हो। तुम्हें लगता है कि तुम पहले ही बचाए जा चुके हो या पहले ही उद्धार के मार्ग पर चल पड़े हो। कुछ लोग तो यहाँ तक सोचते हैं कि वे पहले से ही विजेता हैं। यह सब देखते हुए तुम लोग ऐसे सरल भजन और परमेश्वर के सबसे शुरुआती कुछ सरल वचनों के प्रति भी इसी तरह का रवैया अपनाते हो। किसी ने भी इन वचनों से कुछ भी हासिल नहीं किया या इनमें कोई प्रबोधन नहीं पाया या किसी भी तरह से इन्हें अभ्यास में नहीं लाया। मैं ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं देख पाता, जिसने अपने लिए कोई लाभ या नतीजा प्राप्त किया हो। यह अच्छी चीज है या बुरी? (यह बुरी चीज है।) इन वर्षों में तुम लोग अपने कर्तव्य व्यस्ततापूर्वक निभाते आ रहे हो और विशेष रूप से सुसमाचार कार्य में व्यस्त रहे हो। तुमने कुछ सफलता हासिल की है और तुम सभी के दिल अद्भुत महसूस करते हैं। किसी न किसी तरह परमेश्वर के वचन और सुसमाचार कार्य फैल गए हैं। परमेश्वर के वचन हर देश और क्षेत्र में लोगों तक पहुँचा दिए गए हैं और ज्यादा लोग परमेश्वर के वचन खा-पी रहे हैं। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि तुमने सफलता हासिल कर ली है लेकिन क्या तुम्हें जीवन के उस बड़े मामले, अपने उद्धार की कोई भनक है? परमेश्वर के वचनों के इस अंश के प्रति लोगों का रवैया देखें तो उन्हें इसकी कोई भनक नहीं है। एक स्थानीय अभिव्यक्ति का उपयोग करें तो कलम अभी चलाई ही नहीं गई है। तुम्हीं बताओ, तुम सब लोगों को ऐसा देखकर मुझे कैसा लग रहा है? ये सिर्फ कुछ सरल वचन हैं, पर मुझे अभी भी तुम लोगों के साथ इन पर विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता है। मेरे वचन बहुत सर्वांगीण और अति-विस्तृत हैं। क्या तुम लोग सुनने को तैयार हो? क्या तुम लोग यह कहोगे कि मैं बहुत बकबक करता हूँ? मैं भी इस तरह बकबक नहीं करना चाहता। तुम सभी ईमानदार लगते हो। तुम सबके पास थोड़ा-बहुत दिमाग और ज्ञान है, और तुममें से ज्यादातर के पास कौशल है। फिर भी, तुम इस भजन के छोटे-छोटे वचनों पर कोई ध्यान नहीं देते और तुमने उन्हें अपने दिल में बसाकर नहीं रखा है। अब तक एक भी व्यक्ति ने इन वचनों की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है। यह सचमुच सिरदर्द और चिढ़ने वाली बात है! तो फिर, कलीसिया में तुम लोगों के तमाम कार्य करने का क्या मतलब है? क्या इसका वो लक्ष्य है जो पौलुस ने यह कहते हुए बताया था, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है”? अगर वास्तव में यही लक्ष्य है तो तुम सभी लोग पौलुस हो और आगे जो होगा, वह अच्छा नहीं हो सकता! क्या ऐसा ही है? (हाँ।) अगर तुम परमेश्वर के वचन खाने-पीने में कड़ी मेहनत नहीं करते तो देर-सबेर तुम्हें हटा दिया जाएगा और इससे तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा। जिस दिन तुम्हें हटा दिया जाएगा, तुम कहोगे, “मुझे क्या मिला?” तुमने एक भी चीज हासिल नहीं की है, इसलिए तुम पूरी तरह से शर्मिंदा हो, यहाँ तक कि मर जाना चाहते हो। यह बहुत दयनीय है। परमेश्वर के वचन समृद्ध और प्रचुर हैं जो सभी मामलों पर बात करते हैं। कितने अफसोस की बात है कि तुमने कभी उनके अनुसरण में अपना दिल नहीं लगाया, कि तुमने कभी परमेश्वर के वचन ईमानदारी से नहीं पढ़े। परमेश्वर के तमाम वचनों में से एक भी पंक्ति तुम्हारे हृदय में स्थान नहीं रखती। अगर तुम्हें नहीं हटाया जाएगा तो फिर किसे हटाया जा सकता है? क्या मौजूदा स्थिति ऐसी ही है? (बिल्कुल।) परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना, परमेश्वर के वचनों को अपनी वास्तविकता बनाना : यह एक प्रमुख घटना है। यह किसी भी अन्य चीज से ज्यादा अहम है, अगली पीढ़ी को जन्म देने से भी ज्यादा अहम, अपना कर्तव्य निभाने से भी ज्यादा अहम, पेशेवर कौशल सीखने से भी ज्यादा अहम, सुसमाचार कार्य को फैलाने का काम करने से भी ज्यादा अहम, बाकी सबसे ज्यादा अहम। अगर तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो चाहे तुम कोई भी कर्तव्य निभाओ, चाहे तुम कितनी भी दूर तक दौड़ो, उसका कोई मूल्य नहीं होगा। अंत में, तुम्हें कोई नतीजा प्राप्त नहीं होगा और तुम जो कुछ भी करते हो, उसका कोई नतीजा नहीं निकलेगा। चाहे तुम अभी कितनी भी कठिन भाग-दौड़ कर रहे हो, चाहे तुम्हारा वर्तमान पद कुछ भी हो, चाहे तुम जो भी काम कर रहे हो, या तुमने जो भी शानदार उपलब्धियाँ हासिल की हों, वह सिर्फ धुएँ की एक लकीर है जो अंततः दृष्टि से ओझल हो जाएगी। जब व्यक्ति परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करता है, उनमें निहित सत्य प्राप्त करता है, और परमेश्वर के वचनों में सिद्धांत, मार्ग और अभ्यास के निर्देश पाता है, सिर्फ तभी कोई उससे ये चीजें नहीं ले सकता। जब वह इन सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कर लेता है, तभी उसके कर्तव्यों के निर्वहन और चुकाई गई सारी कीमत का अर्थ और मूल्य होगा। तभी इसे परमेश्वर स्वीकारता है। जब तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर लेते हो और अपने हर काम में परमेश्वर के वचनों द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों और मानकों का अभ्यास करते हो, तभी तुम्हारा कर्तव्य निभाना व्यर्थ नहीं जाता और उसका एक हिस्सा परमेश्वर को स्वीकार्य होता है। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) अगर तुम सिर्फ अपने आत्म-संयम, इंसानी दृढ़ता, मानव-मस्तिष्क और प्रतिभा, और कष्ट सहने और कीमत चुकाने के इंसानी उपायों और तरीकों पर भरोसा करते हो, तो तुम जो कुछ भी करते हो, उसका परमेश्वर के वचनों से कोई लेना-देना नहीं होता। अंतिम नतीजा क्या होगा, यह तुम्हें स्पष्ट होना चाहिए। बहुत-से लोग अपने आर्थिक खातों और लागत-लाभ खातों का मिलान कर सकते हैं, लेकिन इस खाते का मिलान करने वाला कोई नहीं है। तुम लोग बाहरी मामले सँभालने में काफी बुद्धिमान प्रतीत होते हो, तुम्हारे पास अपने साधन और तरीके हैं, और तुम काफी चतुर हो, लेकिन तुमने परमेश्वर और उद्धार के प्रति अपनी आस्था के मामले और परमेश्वर के वचनों को कैसे लें, इस मामले की उपेक्षा की है, इन चीजों पर कभी कोई ध्यान नहीं दिया है। क्या तुमने सोचा था कि ध्यान की कमी से तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित कानून से बच सकते हो? क्या तुमने सोचा था कि थोड़े-से प्रयास से तुम भाग्यशाली हो जाओगे और परमेश्वर के धार्मिक न्याय से बच जाओगे? खुद को धोखा मत दो! मनुष्य द्वारा बनाए गए सभी कानून इंसानी ज्ञान और अंतर्दृष्टियों के उत्पाद हैं। वे सब इंसानी चतुराई हैं। वे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव द्वारा निर्मित कानून नहीं हैं। जब तुम्हारे उद्धार की बात हो तो संयोग की मानसिकता मत अपनाओ। तुम सिर्फ खुद को धोखा दे सकते हो, परमेश्वर को नहीं।

उद्धार के अनुसरण में तुम्हें पहली बड़ी चीज क्या करनी चाहिए? परमेश्वर के वचनों को खाओ-पीओ, ताकि तुम सत्य को समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर पाओ। यह पहली बड़ी चीज है। अपना कर्तव्य निभाने में तुम चाहे कितने भी व्यस्त हो, चाहे तुम्हारे सामने कितना भी काम इकट्ठा हो गया हो, तुम्हें फिर भी परमेश्वर के वचन खाने-पीने, उनमें सभी चीजों में सत्य का अभ्यास करने के लिए सिद्धांत और मार्ग खोजने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए समय निकालना चाहिए। परमेश्वर में आस्था का यही एकमात्र उद्देश्य है। जब तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लेते हो और अभ्यास के सिद्धांत प्राप्त कर लेते हो, तब तुम जो कुछ भी करोगे वह तुम्हारे कर्तव्य का मानक स्तर का प्रदर्शन होगा और वह मूल्यवान और सार्थक बन जाएगा। अन्यथा, तुम जो कुछ भी करते हो, वह मजदूरी करना है और तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे हो। न ही यह मजदूरी तुम्हें बचाने में मदद करेगी। अगर तुम परमेश्वर के वचन नहीं खाते-पीते, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव नहीं करते, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने को कोई गंभीर चीज नहीं मानते, और सिर्फ मेहनत करने और सत्य को अभ्यास में लाने की चिंता किए बिना चीजें करने भर से संतुष्ट रहते हो, तो क्या तुम मूर्ख नहीं होगे? सभी सोचते हैं कि वे अपने काम में होशियार और भरोसेमंद हैं। “अब जब मैं यहाँ हूँ तो यह काम अच्छी तरह से होना निश्चित है। जब तक मैं यहाँ जाँच करने के लिए हूँ तो कलीसिया के काम में कोई भी चीज बाधा नहीं पहुँचा पाएगी। अगर मैं निष्क्रिय न रहा, अगर मैं परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाता रहा तो मैं बचा रहूँगा।” खुद को मूर्ख मत बनाओ। परमेश्वर ने यह कभी नहीं कहा कि अगर कोई लगातार अपना कर्तव्य निभाता रहता है, तो उसे बचाया जाएगा। यह मनुष्य की अपनी कल्पना और खयाली पुलाव बनाने से उपजता है। जो लोग ऐसा कहते हैं, वे खुद को बिल्कुल भी नहीं जानते, और वे इस बात का सार और सत्य नहीं समझते कि शैतान ने मनुष्य को अत्यंत गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है। यही कारण है कि वे ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें बोल सकते हैं। क्या परमेश्वर के तमाम अनुयायियों ने सभी युगों में अपना कर्तव्य नहीं निभाया? क्या उन्हें बचाया गया? नहीं। क्या वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के योग्य हैं? नहीं। अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य ने मनुष्य की भ्रष्टता का सत्य स्पष्ट रूप से उजागर कर दिया है। वह सभी को समझने, ढर्रा बदलने और सत्य प्राप्त कर वास्तविकता में प्रवेश करने देता है, इससे वे वास्तविक बदलावों से गुजरते हैं। परमेश्वर मनुष्य से यही अपेक्षा करता है। अगर तुम लगातार अपना कर्तव्य निभाने पर ही ध्यान केंद्रित करते हो तो क्या तुम वास्तविक बदलाव प्राप्त कर सकते हो? क्या तुम सत्य प्राप्त कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त कर सकते हो? कोई संभावना नहीं है। अहम बात यह है कि व्यक्ति को सत्य का अनुसरण करना चाहिए, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के प्रति समर्पित होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने के लिए सत्य प्राप्त करना चाहिए। ये वचन कहकर परमेश्वर मनुष्य के लिए अपने हृदय का रक्त खपाता है और अपना जीवन प्रदान करता है। अगर तुम उन्हें नहीं सँजोते, बल्कि हमेशा उन्हें अनदेखा करते और अपने दिल में उनका तिरस्कार करते हो, परमेश्वर के वचनों को कभी गंभीरता से नहीं लेते, तो क्या तुम्हें बचाया जा सकता है? तो क्या अंतिम नतीजा कदाचित अच्छा हो सकता है? तुम्हें इस बारे में सोचने की भी जरूरत नहीं है। जब तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो पहली बड़ी चीज क्या होती है? यही कि सत्य समझने के लिए परमेश्वर के वचन खाने-पीने हैं और इसके द्वारा अविलंब सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना है। अपने आस-पास घटित होने वाली चीजों से शुरू करो जिन्हें तुम देख और महसूस कर सकते हो। आत्मचिंतन करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करो, सत्य खोजकर सभी समस्याएँ हल करो और अपने में वास्तविक बदलाव लाओ। अगर तुम परमेश्वर के वचन नहीं खाते-पीते और उनकी वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते तो तुम्हारे बचाए जाने की संभावना शून्य हो जाती है। तुमने उद्धार का हर मौका पूरी तरह से गँवा दिया है। जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा तो तुम कहोगे, “पहले परमेश्वर के सुसमाचार कार्य को फैलाने के कार्य के दौरान मैंने अपनी भूमिका निभाई थी। सुसमाचार फैलाने के कार्य के दौरान मैंने कीमत चुकाई और अमुक-अमुक अहम कदम में अपना समय और प्रयास समर्पित किया।” लेकिन उस दिन तक भी तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया होगा, तुम सामान्य रूप से परमेश्वर के वचन नहीं खा-पी सकते होगे और सामान्य रूप से अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते होगे। मूलभूत रूप से तुम ऐसे व्यक्ति नहीं होगे जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है। सिर्फ तभी तुम्हें पता चलेगा कि तुम पहले ही उद्धार का अपना मौका गँवा चुके हो। क्या पहले ही बहुत देर हो चुकी है? तुम्हारे पास कोई मौका नहीं है, तुम पहले ही विनाशों में पड़ चुके हो, इसलिए तुम्हारी मृत्यु निकट है। इसलिए उद्धार का यह मौका बहुत दुर्लभ है और तुम्हें हर दिन और हर पल को सँजोना चाहिए। पहले अपने आस-पास की छोटी चीजों से शुरू करो, फिर धीरे-धीरे ज्यादा चीजों और बड़ी चीजों की ओर बढ़ो। परमेश्वर के वचन और सत्य खोजो, और परमेश्वर के वचनों और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करो। तुम्हें अक्सर अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसके करीब आना चाहिए। अपने दिल पर कभी देह की इच्छाओं, दुनिया के रुझानों और ऐसी अन्य शैतानी चीजों का कब्जा मत होने दो। इसके बजाय परमेश्वर के वचनों और सत्य को अपने हृदय में अधिकार का उपयोग करने दो और तुम्हारा हृदय परमेश्वर के वचन सँजोना शुरू कर देगा। अगर परमेश्वर के वचन और सत्य तुम्हारे हृदय में स्थान बनाए रखते हैं और तुम्हारे जीवन की अगुआई करते हैं तो तुम्हारे जीवन में एक लक्ष्य होगा और इसके मार्गदर्शन के लिए रोशनी होगी और तुम्हारा हृदय आनंद महसूस करेगा। अगर तुम परमेश्वर के तीन और फिर पाँच वचन, फिर दस वचन और फिर सौ वचन समझते हो तो ये वचन संचित होते जाएँगे और धीरे-धीरे परमेश्वर के वचन तुम्हारे हृदय पर ज्यादा से ज्यादा कब्जा करते जाएँगे, तुम्हारे विचारों की अगुआई करेंगे, तुम्हारे कार्यों की अगुआई करेंगे और तुम्हारे जीवन की अगुआई करेंगे। तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में ज्यादा से ज्यादा प्रवेश करोगे और सत्य सिद्धांतों पर ज्यादा से ज्यादा महारत हासिल करने लगोगे। तुम्हारे कार्यकलाप अब तुम्हारी इच्छा और व्यक्तिगत कामनाओं पर आधारित नहीं रहेंगे। अपना कर्तव्य निभाने में तुममें कम-से-कम अशुद्धियों की मिलावट होगी और तुम परमेश्वर के साथ ज्यादा-से-ज्यादा सच्चे हृदय से व्यवहार करते जाओगे। धीरे-धीरे तुम जो सिद्धांत समझते हो, वे सत्य वास्तविकता में बदलते जाएँगे। इस तरह तुम्हारे जीवन स्वभाव में वास्तविक बदलाव आएगा। तुम्हारी उद्धार की आशा अब दुर्बल या अदृश्य नहीं रहेगी, बल्कि अधिकाधिक बोधगम्य और बड़ी होती जाएगी। जब तुम इस रोशनी को देख लेते हो तो वास्तव में यही वह समय होता है जब तुम परमेश्वर के वचनों में रुचि लेना शुरू करते हो और उद्धार के मामले में बड़ी आशा रखते हो। ऐसे समय परमेश्वर तुम्हें अपने वचनों को ज्यादा-से-ज्यादा समझने देगा, अपने वचनों में प्रवेश करने देगा, तुम्हें प्रलोभन में पड़ने से बचाएगा, शैतान के जाल और बुरे प्रभाव में फँसने से बचाएगा और उलझनों, झगड़ों, ईर्ष्या और विवादों आदि से बचाएगा। इस तरह परमेश्वर तुम्हें रोशनी में और अपने वचनों के मार्गदर्शन में जीने देगा। यह खुशी, आनंद और शांति है। यह सब मिलने की शुरुआत परमेश्वर के वचन सँजोने और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और सत्य समझने के लिए उनका अनुभव करने से होती है। असल में यह मुश्किल नहीं है। अगर तुम अक्सर उपदेश सुनते हो और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव कर सकते हो तो तुम धीरे-धीरे सत्य को समझने लगोगे। इस तरह धीरे-धीरे एक बार में थोड़ा-थोड़ा-सा बदलाव करते हुए और थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ते हुए तुम्हें यह मुश्किल नहीं लगेगा। मुख्य बात यही है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं। अगर तुम सत्य से प्रेम करते हो तो परमेश्वर में आस्था के कारण तुम उचित मामलों पर ध्यान देने, सत्य के लिए प्रयास करने और परमेश्वर के वचन पढ़ने और उन पर विचार करने पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम होगे। परमेश्वर के वचनों पर विचार करना और उनका प्रार्थना-पाठ करना सीखो। तब तुम परमेश्वर के वचनों का अर्थ समझ पाओगे, तुम परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के मार्ग खोज पाओगे, परमेश्वर के इरादे समझ पाओगे और तुम सत्य को समझना शुरू कर दोगे। फिर सत्य की अपनी समझ के आधार पर अपने भ्रष्ट स्वभाव पर विचार कर उसे पहचानो, अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार का गहन-विश्लेषण करो, और फिर उसे हल करने के लिए सत्य का उपयोग करो। अगर तुम इस तरह से अभ्यास और प्रवेश करते हो, तो तुम वास्तव में खुद को जानने में सक्षम होगे, और तुम्हारे लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ना आसान होगा। थोड़ा-थोड़ा करके ज्ञान प्राप्त करने से, थोड़ा-थोड़ा करके अनुभव प्राप्त करने से, थोड़ा-थोड़ा करके परमेश्वर के इरादे समझने से, और थोड़ा-थोड़ा करके अपनी भ्रष्टता छोड़ने से लोग अनजाने ही बदलना शुरू कर देंगे। यह जीवन-अनुभव की प्रक्रिया है। सत्य को समझना सबसे अहम चीज है। जब व्यक्ति सत्य को समझ लेता है तब उसे उन मानकों का पता चल जाएगा जिनकी परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है। वह यह भी जान जाएगा कि परमेश्वर ऐसा क्यों कहना चाहता है और वह क्या असर पैदा करना चाहता है। उसे यह भी पता चल जाएगा कि परमेश्वर मनुष्य से जिन मानकों की अपेक्षा करता है, वे वास्तव में मनुष्य द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं। वे सब ऐसी चीजें हैं, जिन्हें मनुष्य का जमीर और विवेक प्राप्त कर सकता है। ये सभी प्रक्रियाएँ जीवन प्रवेश करने का मामला हैं। जीवन प्रवेश करने के लिए तुम्हें अपने कर्तव्य पूरी लगन से निभाने, सत्य खोजने और उसका लगन से अभ्यास करने, और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर भरोसा करने की आवश्यकता है। इस तरह के अनुभव और अभ्यास से तुम्हें बेहतर से बेहतर नतीजे मिलेंगे। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे ऐसी चीजों में रुचि नहीं दिखाएँगे। वे जीवन प्रवेश करने का बोझ महसूस नहीं करते और ऐसा करने में कोई रुचि नहीं रखते। इसलिए भले ही वे कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं लेकिन वे अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बात नहीं कर सकते। सत्य से प्रेम करने वाले लोग ऐसे नहीं होते। वे स्वयं द्वारा अनुभव की गई हर चीज की और अपने अनुभव की हर अवधि की गवाही लिख सकते हैं। वे अपने सभी अनुभवों से वास्तव में लाभ प्राप्त करते हैं और ये लाभ दिन-ब-दिन और महीना-दर-महीना संचित होते जाते हैं। दस-बीस वर्षों के बाद उनमें बड़े बदलाव आ चुके होंगे। उस समय वे अनायास ही अपनी अनुभवजन्य गवाहियाँ लिख सकते हैं, और उनके लिए सत्य पर संगति में शामिल होना कोई कठिन चीज नहीं होती। अपना कर्तव्य निभाते हुए वे हर काम ठीक से करते हैं।

क्या तुम सत्य से प्रेम करने वाले लोग हो? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा रखने वाला दिल है? क्या तुम्हारे पास सच्चा दिल है? इसका उत्तर देना कठिन है, है ना? वास्तव में तुम सभी लोग अपने दिल में इस मुद्दे पर स्पष्ट हो। जब तुम अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाना चाहते हो, जब तुम धूर्त या सुस्त होना चाहते हो, जब तुम उद्दंड और असावधान होना चाहते हो, तो क्या तुम इसे पहचान सकते हो? क्या तुम देह से विद्रोह कर सकते हो? तुम क्या विकल्प चुनते हो? तुम सत्य का अभ्यास करना चुनते हो या देह की इच्छाएँ चुनते हो? तुम सकारात्मक को चुनते हो या नकारात्मक को? तुम सत्य प्राप्त करने के लिए कष्ट सहना और कीमत चुकाना चुनते हो या देह में लिप्त रहना? ये वे प्रश्न हैं जिनका उपयोग यह मापने के लिए किया जाएगा कि तुम्हारे पास वास्तव में परमेश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण करने वाला दिल है या नहीं और तुम ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हो या नहीं। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर के प्रति सच्चा दिल नहीं है, तुम हठपूर्वक और लापरवाही से काम करना पसंद करते हो, संतुष्ट होने पर खुश रहते हो और संतुष्ट न होने पर गुस्सा होते हो, झल्लाते हो और अपना कार्य त्यागना चाहते हो तो क्या यह सही मनःस्थिति है? क्या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला हृदय होने का यही अर्थ है? क्या यह समर्पण से अपना कर्तव्य निभाना है? तुम सत्य का अभ्यास क्यों नहीं करते? क्या ऐसा है कि तुम परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते? या फिर ऐसा है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते? कुछ लोग सोचते हैं, “परमेश्वर के वचन सरल हैं लेकिन उन्हें अभ्यास में लाना कठिन है। परमेश्वर का घर हमेशा लोगों से सत्य का अभ्यास करने की अपेक्षा करता है लेकिन ऐसा करना लोगों के लिए कठिन है और उनके लिए बहुत सारी समस्याएँ खड़ी करता है। अगर मेरा हृदय असहज होता है तो मैं सत्य का अभ्यास नहीं करता। अगर कलीसिया मुझे बाहर नहीं निकालती या हटा नहीं देती तो मैं स्वतंत्र होना और आराम से रहना पसंद करूँगा और जो चाहूँगा वह करूँगा।” क्या यह ऐसा व्यक्ति है जो सचमुच परमेश्वर में विश्वास करता है? क्या यह छद्म-विश्वासी नहीं है? छद्म-विश्वासी लोग अपने कर्तव्य निभाते समय यही रवैया अपनाते हैं। क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकारते, वे स्वतंत्र और स्वच्छंद होना और अनमने रहना पसंद करते हैं। चाहे उनकी कैसे भी काट-छाँट कर ली जाए, कोई फायदा नहीं होता। सत्य पर संगति से उनके कानों में कुछ नहीं पड़ता। उन्हें हटाने और निकालने के अलावा कुछ नहीं करना है। चूँकि वे सत्य नहीं स्वीकारते, बल्कि वे सत्य से विमुख रहने वाले लोग हैं, इसलिए वे अविश्वासी हैं और परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होने पर भी अपनी काट-छाँट किया जाना स्वीकार सकते हैं, सत्य खोज सकते हैं, आत्मचिंतन कर सकते हैं और खुद को जान सकते हैं, और वे पश्चात्ताप करना जान सकते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। जब व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता तो उसके लिए सत्य स्वीकारना कठिन होता है। सत्य न स्वीकार पाने की इस असमर्थता का सबसे बड़ा खतरा क्या है? वह है परमेश्वर के साथ विश्वासघात। जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते, उनके परमेश्वर को धोखा देने की सबसे ज्यादा संभावना होती है, और वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। कोई मामूली चीज भी अपने अनुकूल न होने पर वे परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। वे परमेश्वर को इसलिए धोखा दे सकते हैं क्योंकि वे एक बार भी अपनी काट-छाँट नहीं स्वीकार सकते। किसी आपदा का सामना करने पर उनके शिकायत करने और परमेश्वर को धोखा देने की और भी ज्यादा संभावना होती है। जो भी हो, सत्य से प्रेम न करने या सत्य न स्वीकारने वाले लोग सबसे ज्यादा खतरे में हैं। व्यक्ति को बचाया जा सकता है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस हद तक सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है और इस पर भी कि वह सत्य को स्वीकारकर इसका अभ्यास कर सकता है या नहीं। अपना वास्तविक आध्यात्मिक कद मापने, खुद को पहचानने, अपनी भ्रष्टता का सत्य जानने और यह पहचानने के लिए कि वास्तव में तुम्हारी प्रकृति क्या है, सत्य की अपेक्षाओं का उपयोग करो। एक ओर, ऐसी पहचान खुद को जानने और सच्चा पश्चात्ताप हासिल कर पाने में तुम्हारी मदद करती है। दूसरी ओर, यह पहचान तुम्हें परमेश्वर को जानने और उसके इरादे समझने देती है। सत्य स्वीकारने में असमर्थता परमेश्वर के प्रति विद्रोह और प्रतिरोध की अभिव्यक्ति है। इस समस्या की स्पष्ट समझ तुम्हें उद्धार के मार्ग पर चलने में मदद करेगी। जब व्यक्ति वास्तव में सत्य से प्रेम करता है तो उसके पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा वाला दिल, एक ईमानदार दिल और सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की प्रेरणा हो सकती है। वास्तविक ताकत रखते हुए वे कीमत चुकाने, अपनी ऊर्जा और समय समर्पित करने, अपने व्यक्तिगत लाभ त्यागने और देह की सभी उलझनें छोड़ने में सक्षम होते हैं, जिससे वे परमेश्वर के वचनों के अभ्यास, सत्य के अभ्यास और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश के लिए रास्ता साफ कर लेते हैं। अगर परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए तुम अपनी धारणाएँ छोड़ सकते हो, अपने दैहिक हित, प्रतिष्ठा, रुतबा, प्रसिद्धि और दैहिक आनंद छोड़ सकते हो—अगर तुम ऐसी तमाम चीजें छोड़ सकते हो तो फिर तुम सत्य वास्तविकता में ज्यादा से ज्यादा प्रवेश करोगे। तुम्हें जो भी कठिनाइयाँ और परेशानियाँ हैं, वे अब समस्याएँ नहीं रहेंगी—वे आसानी से हल हो जाएँगी—और तुम आसानी से परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए एक ईमानदार दिल और परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा रखने वाला दिल दो अपरिहार्य शर्तें हैं। अगर तुम्हारे पास सिर्फ ईमानदार दिल है, लेकिन तुम हमेशा कायर रहते हो, परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा नहीं रखते और कठिनाइयों का सामना करने पर पीछे हट जाते हो तो ईमानदार दिल होना ही काफी नहीं है। अगर तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा ही है, और तुम थोड़े-से आवेगी हो, और तुम्हारी बस यही इच्छा है, लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम्हारे पास ईमानदार दिल नहीं होता, और तुम पीछे हट जाते हो, और अपने ही हित चुनते हो तो परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा होना भी पर्याप्त नहीं है। तुम्हें एक ईमानदार दिल और परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा रखने वाले दिल दोनों की आवश्यकता है। तुम्हारे दिल की ईमानदारी के स्तर और परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा की ताकत से सत्य का अभ्यास करने की तुम्हारी प्रेरणा शक्ति तय होती है। अगर तुम्हारे पास ईमानदार दिल नहीं है और तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा नहीं है तो तुम परमेश्वर के वचनों को नहीं समझ पाओगे और तुममें सत्य का अभ्यास करने की प्रेरणा नहीं होगी। इस तरह तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओगे और तुम्हारे लिए उद्धार पाना भी कठिन होगा।

कई लोग स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि बचाए जाने का क्या अर्थ होता है। कुछ लोगों का मानना है कि अगर उन्होंने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, तो उनके बचाए जाने की संभावना है। कुछ लोग सोचते हैं कि अगर वे बहुत सारे आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हैं, तो उनके बचाए जाने की संभावना है या कुछ लोग सोचते हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता निश्चित रूप से बचाए जाएँगे। ये सभी मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों को समझना चाहिए कि उद्धार का क्या अर्थ होता है। मुख्य रूप से बचाए जाने का अर्थ है पाप से मुक्त होना, शैतान के प्रभाव से मुक्त होना, सही मायने में परमेश्वर की ओर मुड़ना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना। पाप से और शैतान के प्रभाव से मुक्त होने के लिए तुम्हारे पास क्या होना चाहिए? सत्य होना चाहिए। अगर लोग सत्य प्राप्त करने की आशा रखते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के कई वचनों से युक्त होना चाहिए, उन्हें उनका अनुभव और अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए, ताकि वे सत्य को समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। तभी उन्हें बचाया जा सकता है। किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि उसने कितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, उसके पास कितना ज्ञान है, उसमें गुण या खूबियाँ हैं या नहीं या वह कितना कष्ट सहता है। एकमात्र चीज जिसका उद्धार से सीधा संबंध है, यह है कि व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है या नहीं। तो आज तुमने वास्तव में कितने सत्य समझे हैं? और परमेश्वर के कितने वचन तुम्हारा जीवन बन गए हैं? परमेश्वर की समस्त अपेक्षाओं में से तुमने किसमें प्रवेश किया है? परमेश्वर में अपने विश्वास के वर्षों के दौरान तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में कितना प्रवेश किया है? अगर तुम नहीं जानते या तुमने परमेश्वर के किसी भी वचन की किसी वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो स्पष्ट रूप से तुम्हारे उद्धार की कोई आशा नहीं है। तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। यह कुछ महत्व नहीं रखता कि तुम्हारे पास उच्च स्तर का ज्ञान है या नहीं या तुमने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है या नहीं, तुम्हारा रूप-रंग अच्छा है या नहीं, तुम अच्छा बोल सकते हो या नहीं और तुम कई वर्षों तक अगुआ या कार्यकर्ता रहे हो या नहीं। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और परमेश्वर के वचनों का ठीक से अभ्यास और अनुभव नहीं करते और तुममें वास्तविक अनुभवजन्य गवाही की कमी है, तो तुम्हारे बचाए जाने की कोई आशा नहीं है। मुझे इसकी परवाह नहीं है कि तुम कैसे दिखते हो, तुम्हारे पास कितना वैज्ञानिक ज्ञान है, तुमने कितना कष्ट सहा है या तुमने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है। मैं तुमसे यह कहता हूँ : अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते और कभी परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते, तो तुम बचाए नहीं जा सकते। इसमें संदेह नहीं। अगर तुम मुझे बताओ कि तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में कितना प्रवेश किया है, तो मैं तुम्हें बताऊँगा कि तुम्हारे उद्धार की कितनी आशा है। अब जबकि मैंने तुम लोगों को इसे मापने के मानदंड बता दिए हैं, तो तुम लोगों को इसे खुद मापने में सक्षम होना चाहिए। ये वचन तुम लोगों को क्या तथ्य बताते हैं? परमेश्वर ने संसार की रचना करने के लिए वचनों का उपयोग किया, उसने हर तरह का तथ्य पूरा करने के लिए, वे सभी तथ्य पूरे करने के लिए जिन्हें परमेश्वर करना चाहता था, वचनों का उपयोग किया, और परमेश्वर ने अपने कार्य के दो चरण कार्यान्वित करने के लिए वचनों का उपयोग किया। आज परमेश्वर अपने कार्य का तीसरा चरण कार्यान्वित कर रहा है, और कार्य के इस चरण में, परमेश्वर ने किसी भी अन्य चरण की तुलना में ज्यादा वचन बोले हैं। यह वह समय है, जब मानवजाति के पूरे इतिहास में परमेश्वर अपने कार्य में सबसे ज्यादा बोला है। परमेश्वर दुनिया को बनाने के लिए, सभी तथ्य पूरे करने के लिए, सभी तथ्यों को शून्य से अस्तित्व में और अस्तित्व को शून्य में लाने के लिए वचनों का उपयोग कर सकता है—यह परमेश्वर के वचनों का अधिकार है, और अंततः, परमेश्वर मानवजाति के उद्धार का तथ्य पूरा करने के लिए भी वचनों का ही उपयोग करेगा। आज तुम सभी लोग यह तथ्य देख सकते हो, अंत के दिनों के दौरान परमेश्वर ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है जो उसके वचनों से न जुड़ा हो, वह लगातार बोला है, मनुष्य का मार्गदर्शन करने के लिए उसने आज तक वचनों का उपयोग किया है। बेशक, बोलते समय, परमेश्वर ने उन लोगों के साथ अपना रिश्ता बनाए रखने के लिए भी वचनों का उपयोग किया है जो उसका अनुसरण करते हैं, उसने उनका मार्गदर्शन करने के लिए वचनों का उपयोग किया है, और ये वचन उन लोगों के लिए बेहद अहम हैं जो बचाए जाना चाहते हैं या जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है, परमेश्वर मानवजाति के उद्धार का तथ्य पूरा करने के लिए इन वचनों का उपयोग करेगा। प्रत्यक्षतः, चाहे उनकी विषयवस्तु के संदर्भ में देखा जाए या संख्या के, चाहे वे जिस भी तरह के वचन हों, और चाहे वे परमेश्वर के वचनों का कोई-सा भी हिस्सा हों, वे उन लोगों में से प्रत्येक के लिए बेहद अहम हैं, जो बचाए जाना चाहते हैं। परमेश्वर अपनी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना का अंतिम प्रभाव प्राप्त करने के लिए इन वचनों का उपयोग कर रहा है। मानवजाति के लिए—चाहे आज की मानवजाति हो या भविष्य की—ये बेहद अहम हैं। ऐसा रवैया है परमेश्वर का, ऐसा उद्देश्य और महत्व है उसके वचनों का। तो मानवजाति को क्या करना चाहिए? मानवजाति को परमेश्वर के वचनों और कार्यों के साथ सहयोग करना चाहिए, उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। लेकिन परमेश्वर में कुछ लोगों की आस्था का तरीका ऐसा नहीं है : परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, ऐसा लगता है मानो उसके वचनों का उनसे कोई लेना-देना न हो। वे अभी भी उसी का अनुसरण करते हैं जिसका वे करना चाहते हैं, वही करते हैं जो वे करना चाहते हैं, और परमेश्वर के वचनों के आधार पर सत्य नहीं खोजते। यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना नहीं है। कुछ अन्य लोग हैं जो, परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, उस पर ध्यान नहीं देते, जिनके दिल में सिर्फ एक ही दृढ़ निश्चय होता है : “मैं वही करूँगा जो परमेश्वर कहेगा, अगर परमेश्वर मुझसे पश्चिम की ओर जाने के लिए कहेगा तो मैं पश्चिम की ओर चला जाऊँगा, अगर वह मुझसे पूर्व की ओर जाने के लिए कहेगा तो मैं पूर्व की ओर चला जाऊँगा, अगर वह मुझसे मरने के लिए कहेगा, तो वह मुझे मरता हुआ देखेगा।” लेकिन बस एक ही चीज है : वे परमेश्वर के वचनों को ग्रहण नहीं करते। वे मन में सोचते हैं, “परमेश्वर के बहुत सारे वचन हैं, उन्हें थोड़ा और सरल होना चाहिए, और उन्हें मुझे बताना चाहिए कि ठीक-ठीक क्या करना है। मैं अपने हृदय में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हूँ।” परमेश्वर चाहे कितने भी वचन बोले, ऐसे लोग अंततः सत्य समझने में असमर्थ रहते हैं, न ही वे अपने अनुभवजन्य ज्ञान के बारे में बात कर सकते हैं। वे एक बाहरी व्यक्ति की तरह होते हैं जिसमें आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोग परमेश्वर के प्रिय हैं? क्या परमेश्वर ऐसे लोगों के प्रति दयालु होना चाहता है? (नहीं।) वह निश्चित रूप से नहीं होना चाहता। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता। परमेश्वर कहता है, “मैंने हजारों अनगिनत वचन कहे हैं। ऐसा कैसे है कि किसी अंधे-बहरे की तरह तुमने उन्हें न तो देखा है और न ही सुना है? आखिर तुम अपने दिल में क्या सोच रहे हो? मैं तुम्हें ऐसे व्यक्ति के अलावा कुछ नहीं समझता, जिसे आशीष और सुंदर गंतव्य के पीछे दौड़ने का जुनून है—तुम पौलुस जैसे लक्ष्यों के पीछे दौड़ रहे हो। अगर तुम मेरे वचन नहीं सुनना चाहते, अगर तुम मेरे मार्ग पर नहीं चलना चाहते, तो तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? तुम उद्धार के पीछे नहीं, बल्कि सुंदर गंतव्य और आशीषों की इच्छा के पीछे दौड़ रहे हो। और चूँकि तुम यही साजिश रच रहे हो, इसलिए तुम्हारे लिए सबसे उपयुक्त चीज मजदूर बनना है।” वास्तव में वफादार मजदूर होना भी परमेश्वर के प्रति समर्पण की एक अभिव्यक्ति है, लेकिन यह न्यूनतम मानक है। एक वफादार मजदूर बने रहना किसी अविश्वासी की तरह तबाही और विनाश में डूबने से कहीं बेहतर है। विशेष रूप से परमेश्वर के घर के कार्य को मजदूरों की जरूरत है और परमेश्वर के लिए मजदूरी कर पाना भी आशीष ही माना जाता है। यह दानव राजाओं के अनुचर होने से कहीं बेहतर—अतुलनीय रूप से बेहतर है। लेकिन परमेश्वर के लिए मजदूरी करना परमेश्वर के हिसाब से पूरी तरह से संतोषजनक नहीं है, क्योंकि परमेश्वर का न्याय का कार्य लोगों को बचाने, शुद्ध और पूर्ण करने के लिए है। अगर लोग परमेश्वर के लिए मजदूरी करने से ही संतुष्ट रहते हैं, तो यह वह उद्देश्य नहीं है जिसे परमेश्वर लोगों में कार्य करके हासिल करना चाहता है, न ही यह वह परिणाम है जिसे परमेश्वर देखना चाहता है। लेकिन लोग इच्छा की आग में जलते रहते हैं, वे मूर्ख और अंधे हैं : वे थोड़े-से लाभ से मोहित हो जाते हैं, भस्म हो जाते हैं, और परमेश्वर द्वारा कहे गए जीवन के अनमोल वचनों को नजरअंदाज कर देते हैं। वे उन्हें गंभीरता से भी नहीं ले पाते, उन्हें प्रिय मानना तो दूर की बात है। परमेश्वर के वचन न पढ़ना या सत्य न सँजोना : यह चतुराई है या मूर्खता? क्या लोग इस तरह से उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? लोगों को यह सब समझना चाहिए। उनके उद्धार की आशा तभी होगी, जब वे अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ एक तरफ रख दें और सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करें।

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