परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है (भाग दो)
यह अंश दोबारा पढ़ो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो। विश्वास करो कि परमेश्वर अवश्य तुम्हारा सर्वशक्तिमान है! तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प होना चाहिए, तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तीव्रता से खोज करनी चाहिए। हिम्मत मत हारो। कमजोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतजार करो। परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग करो और अपनी आंतरिक बाधाओं से छुटकारा पाओ।”) आओ, मैं तुम्हारा ध्यान इसके महत्वपूर्ण बिंदुओं की ओर आकर्षित करता हूँ और तुम्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने के सिद्धांत और उनमें अभ्यास का मार्ग खोजने का तरीका समझाता हूँ। यह अंश पंक्ति-दर-पंक्ति दोबारा पढ़ो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो।”) इस पंक्ति में एक सिद्धांत है, जिसे लोगों को समझना चाहिए। वह सिद्धांत यह है : जल्दबाजी मत करो, घबराओ मत, नतीजे देखने की उतावली मत करो। यह एक रवैया है। इस पहली पंक्ति में वह सही रवैया है जो लोगों को चीजों के प्रति अपनाना चाहिए। यह सही रवैया सामान्य मानवता के विवेक के दायरे में निहित है; यह सामान्य मानवता वाले लोगों के विवेक और क्षमताओं के दायरे में आता है। अब, दूसरी पंक्ति पढ़ो। (“ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो।”) इसका क्या मतलब है? (यह अभ्यास का वह मार्ग है जो परमेश्वर मनुष्य को देता है।) ठीक है, यह सीधी-सरल बात है। यह अभ्यास का मार्ग है। यहाँ “अक्सर” का अर्थ है कि इसे ऐसे नहीं करना चाहिए कि जब तुम्हारा मन हुआ तब कर लिया, और छठे-छमासे तो निश्चित रूप से नहीं करना चाहिए; इसका मतलब यह है कि जैसे ही ये मामले तुम्हारे दिमाग में आएँ, तुम्हें प्रार्थना करने और खोजने के लिए उन्हें परमेश्वर के सामने लाना चाहिए। अगर तुम इन मामलों में बोझ महसूस करते हो, अगर तुम्हारे दिल में धार्मिकता के लिए भूख-प्यास है, अगर तुम इन मामलों में परमेश्वर के इरादे, परमेश्वर की अपेक्षाएँ और साथ ही उन समस्याओं का सार समझने के लिए उत्सुक हो जिनकी तुम असलियत जानना चाहते हो, तो तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सामने आना चाहिए, जिसका अर्थ है बहुत ज्यादा बार। तुम जिस परिवेश में हो, उसके अनुसार, जब तुम व्यस्त हो, तो इन मामलों पर विचार करने के लिए फुरसत का पल निकालो, मानो तुम उनके बारे में सोच रहे हो या उनके बारे में परमेश्वर से प्रार्थना और खोज कर रहे हो। क्या अभ्यास का यह तरीका बहुत स्पष्ट नहीं है? (है।) उदाहरण के लिए, जब तुम भोजन करने के बाद विश्राम करते हो तो यह कहते हुए चिंतन और प्रार्थना करो, “हे परमेश्वर, मैंने अमुक परिवेश का अनुभव किया है। मैं तुम्हारा इरादा नहीं समझता, और मैं इस बात की असलियत भी नहीं देख पा रहा कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ है। इस व्यक्ति की मंशा वास्तव में क्या है? मुझे इस तरह की समस्या का समाधान कैसे करना चाहिए? तुम मुझे इस मामले में क्या समझाना चाहते हो?” इन कुछ सरल शब्दों में तुम उन मामलों में, जिनके बारे में तुम खोजना चाहते हो और उन समस्याओं के बारे में, जिनका सार तुम समझना चाहते हो, परमेश्वर से प्रार्थना करते और खोजते हो। इस तरह प्रार्थना करने का क्या उद्देश्य है? तुम परमेश्वर के सामने सिर्फ समस्या नहीं रख रहे हो, तुम परमेश्वर से सत्य खोज रहे हो, तुम कोशिश कर रहे हो कि परमेश्वर तुम्हारे लिए कोई मार्ग खोल दे और तुम्हें यह बता दे कि इस मामले में क्या करना है, और तुम निवेदन कर रहे हो कि परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध कर दे और तुम्हारा मार्गदर्शन कर दे। तुम्हारे ऐसा करने में सक्षम होने के लिए क्या आवश्यक शर्तें हैं? (मुझे समाधान के लिए अधीर नहीं होना चाहिए।) समाधान के लिए अधीर न होना सिर्फ एक रवैया है—ऐसा नहीं है कि तुम समाधानों के लिए अधीर नहीं हो, बल्कि समाधान के लिए अधीर न होने की बड़ी पूर्व-शर्त के तहत तुम्हारे पास ऐसा दिल है जिसमें धार्मिकता के लिए भूख-प्यास है और इस मामले में तुम बोझ महसूस करते हो। दूसरे शब्दों में कहें तो यह मामला तुम पर एक तरह के दबाव की तरह काम करता है और वह दबाव तुम्हारे कंधों पर एक बोझ डालता है, जिससे तुम्हारे सामने एक समस्या खड़ी हो जाती है जिसे तुम समझना और हल करना चाहते हो। यह तुम्हारा अभ्यास का मार्ग है। अपने खाली समय में, नियमित भक्ति के दौरान या अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत करते समय तुम अपनी व्यावहारिक कठिनाइयाँ और समस्याएँ सामने ला सकते हो और अपने भाई-बहनों के साथ संगति और खोज कर सकते हो। अगर तुम अभी भी समस्याओं का समाधान न कर पाओ तो प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए उन्हें परमेश्वर के सामने लाओ। जब तुम ऐसा करो, तो कहो, “हे परमेश्वर, मैं अभी भी नहीं जानता कि मुझे उस परिवेश का अनुभव कैसे करना चाहिए जिसका इंतजाम तुमने मेरे लिए किया है। मुझे अभी भी इसकी कोई समझ नहीं है और मैं नहीं जानता कि कहाँ से शुरू करूँ या कैसे अभ्यास करूँ। मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और मैं कई सत्य नहीं समझता। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो। मैं नहीं जानता कि तुम मुझे इस परिवेश से क्या हासिल कराना या समझाना चाहते हो, या तुम इस परिवेश के माध्यम से मेरे बारे में क्या प्रकट करना चाहते हो। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और अपना इरादा समझने दो।” यह वह अभ्यास का मार्ग है, जो इस पंक्ति में पाया जाता है : “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ।” इस तरह अभ्यास करो, कभी-कभी अपने दिल में सोचते हुए, कभी-कभी चुपचाप और कभी-कभी जोर से परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए, और कभी-कभी अपने भाई-बहनों के साथ संगति करते हुए। अगर तुममें ये अभिव्यक्तियाँ हैं, तो यह साबित करता है कि तुम पहले से ही परमेश्वर के सामने जी रहे हो। अगर तुम अक्सर अपने दिल में इस तरह से परमेश्वर के साथ संवाद करते हो, तो तुम्हारा परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता है। ऐसे कई वर्षों के अनुभव के बाद तुम स्वाभाविक रूप से सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लोगे। क्या इस अभ्यास के संबंध में कोई कठिनाइयाँ हैं? (नहीं।) यह अच्छा है। उदाहरण के लिए, कभी-कभी जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो तो जितना अधिक तुम पढ़ोगे, तुम्हारा दिल उतना ही उज्ज्वल महसूस करेगा—इसका मतलब है कि तुमने वे वचन पढ़े हैं जिनका तुम्हारे पास अनुभव है, और तुम्हारी पिछली धारणाएँ और कल्पनाएँ एक ही बार में सुलझ जाएँगी। इस समय तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहना चाहिए, “हे परमेश्वर, यह अंश पढ़ने से मेरा दिल उज्ज्वल हो गया है। जो समस्याएँ मुझमें पहले थीं, वे अब अचानक मेरे सामने स्पष्ट हो गई हैं। मैं जानता हूँ कि यह तुम्हारा प्रबोधन है और मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूँ कि तुमने अपने वचनों का यह अंश मुझे समझने दिया।” क्या यह फिर से परमेश्वर के सामने आना और प्रार्थना करना नहीं है? (बिल्कुल, है।) क्या ऐसा करना कठिन है? क्या तुम इसके लिए समय निकाल सकते हो? (बिल्कुल।) अपनी खोज की शुरुआत से लेकर इस प्रार्थना तक, क्या तुम लगातार परमेश्वर के वचनों के इस सिद्धांत का अभ्यास नहीं कर रहे होगे : “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ”? जब तुम लगातार इन वचनों के अभ्यास का पालन करते हो और हमेशा उनमें निहित अभ्यास के सिद्धांत से चिपके रहते हो और हमेशा इस तरह की वास्तविकता में रहते हो तो इसे अभ्यास के सिद्धांत का पालन करना कहा जाता है। क्या यह मुश्किल है? (यह मुश्किल नहीं है।) इसके लिए तुम्हें सिर्फ अपने दिल का उपयोग करना होगा, अपना मुँह हिलाना होगा, कुछ समय निकालना होगा और थोड़ा विचार करना होगा, समय-समय पर परमेश्वर के साथ बातचीत करने और अपने दिल की बातें बताने और साझा करने के लिए समय निकालना होगा। यह अक्सर परमेश्वर के समक्ष आना है। यह बहुत सरल, सहज और इतना आसान है। इसमें कुछ भी कठिन नहीं है। तुम ऐसी चीज वहन करते हो, जिसे तुम अपने दिल में बहुत महत्वपूर्ण मानते हो, और तुम उसे एक बोझ समझते हो, और उसे कभी भूलते या छोड़ते नहीं—ऐसी चीज है तुम्हारे दिल में, और तुम समय-समय पर प्रार्थना करने और इसके बारे में बोलने और बात करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हो। जब तुम परमेश्वर से बात करते हो तो तुम्हारा दिल किस तरह का होना चाहिए? (एक सच्चा दिल।) सही कहा, तुम्हारे पास एक सच्चा दिल होना चाहिए। अगर तुम बोझ उठाते हो, तो तुम्हारा दिल सच्चा होगा। जब दूसरे लोग गपशप में लगे रहते हैं, तब तुम अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना और उसके साथ संगति करोगे। कभी-कभी जब तुम काम से थके होते हो और अवकाश लेते हो, तो तुम्हें यह मामला याद आएगा और तुम कहोगे, “यह नहीं चलेगा, यह मामला मुझे अभी भी समझ नहीं आया है। मुझे अभी भी इस बारे में परमेश्वर से बातचीत करनी है।” जब भी तुम्हारे पास समय होगा, तो तुम्हें यह बात क्यों याद आएगी? क्योंकि तुम इसे अपने दिल में बहुत गंभीरता से लेते हो, तुम इसे अपना बोझ और एक तरह की जिम्मेदारी मानते हो, और तुम इसे समझना और हल करना चाहते हो। जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो और उससे अंतरंगता से बोलते-बतियाते हो तो तुम्हारा दिल स्वाभाविक रूप से ईमानदार हो जाएगा। जब तुम इस संदर्भ में और इस मानसिकता के साथ परमेश्वर के साथ संगति करते हो, तो तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता अब उतना रूखा और दूर का नहीं है जितना पहले था, इसके बजाय तुम महसूस करोगे कि तुम उसके करीब आ रहे हो। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए अभ्यास के मार्ग लोगों पर इतने प्रभावी हैं। तुम क्या सोचते हो, क्या इस तरह परमेश्वर से जुड़ना मुश्किल है? तुम किसी मामले को दिल से लेते हो, कभी-कभी उसके बारे में परमेश्वर से बात करते हो, समय-समय पर परमेश्वर के सामने आते और उसका अभिवादन करते हो, तुम परमेश्वर से अपने दिल की और अपनी कठिनाइयों की बात करते हो, तुम उन चीजों के बारे में बात करते हो जिन्हें तुम समझना चाहते हो, जिनके बारे में तुम सोचते हो, अपने संदेहों, अपनी कठिनाइयों और अपनी जिम्मेदारियों के बारे में बात करते हो—अगर तुम इन सभी चीजों के बारे में परमेश्वर से बात करते हो तो क्या तुम इस तरह से अभ्यास करके परमेश्वर के सामने नहीं जी रहे हो? यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना है। अगर तुम कुछ समय तक इस तरह अभ्यास करते हो तो क्या तुम फटाफट नतीजे नहीं देख लोगे और पुरस्कार नहीं बटोर पाओगे? (हाँ।) लेकिन यह इतना आसान नहीं है, यह एक प्रक्रिया है। अगर तुम कुछ समय तक इस तरह से अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता ज्यादा से ज्यादा घनिष्ठ हो जाएगा, तुम्हारी मानसिकता में सुधार होगा, तुम्हारी अवस्था उत्तरोत्तर सामान्य होती जाएगी, और परमेश्वर के वचनों और सत्य में तुम्हारी रुचि अधिकाधिक बढ़ती जाएगी। इसे परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता होना कहते हैं। अगर तुम कुछ सत्य समझ सकते हो और उन्हें अभ्यास में ला सकते हो तो तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर दोगे। लेकिन इसे कम समय में हासिल नहीं किया जा सकता। स्पष्ट नतीजे देखने में तुम्हें छह महीने, एक साल या दो-तीन साल भी लग सकते हैं। क्या इस दौरान लोग भ्रष्टता और विद्रोहीपन से मुक्त हो जाएँगे? नहीं। भले ही तुमने अनगिनत बार परमेश्वर से प्रार्थना की हो और इस तरह से अभ्यास किया हो, क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें निश्चित रूप से नतीजा मिलेगा? क्या परमेश्वर को तुम्हें कोई नतीजा दिखाना चाहिए? क्या उसे तुम्हें उत्तर देना चाहिए? जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही। कुछ लोग कहते हैं : “अगर यह अनिश्चित है कि मुझे नतीजे मिलेंगे या नहीं और अगर नतीजों की गारंटी नहीं है तो परमेश्वर फिर भी इस तरह से कार्य क्यों करता है? वह लोगों से इस तरह अभ्यास क्यों करवाता है?” चिंता मत करो, इस तरह से अभ्यास करना निश्चित रूप से निष्फल नहीं जाएगा। अगर तुम एक-दो साल तक इस तरह से अभ्यास करते हो और तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें तत्काल या अल्पावधि में कोई नतीजा मिला है तो हो सकता है कि पाँच-दस साल बाद जब परमेश्वर तुम्हारे लिए फिर से ऐसे ही परिवेश का इंतजाम करेगा, तब तुम्हें जल्दी ही सत्य के उस पहलू का एहसास हो जाएगा जिसे तुम पहले नहीं जान पाए थे। लेकिन इस सत्य को पाँच-दस साल बाद जानने-समझने के लिए भी तुम्हारे पास अपने वर्तमान अनुभवों, ज्ञान और समझ से बनी नींव होनी आवश्यक है। यह परवर्ती एहसास इसी बुनियाद पर आधारित होना चाहिए। क्या तुम्हें लगता है कि लोगों के लिए सत्य का कोई पहलू समझना आसान है? (यह आसान नहीं है।) सत्य का अभ्यास करने के लिए कीमत चुकाने का यही महत्व और मूल्य है। यह दूसरी पंक्ति में निहित अभ्यास का सिद्धांत है। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो”—यह पंक्ति सरल और सुगम भाषा में लिखी गई है और इसे समझना बहुत आसान है। इसका मतलब है कि तुम्हें अधिक प्रार्थना करनी चाहिए और सच्चा दिल रखना चाहिए क्योंकि सच्चे दिल से चीजें फलीभूत होती हैं। यह इतनी सरल बात है। लेकिन ये वचन वास्तव में एक सत्य वास्तविकता हैं जिसमें हर व्यक्ति को प्रवेश करना चाहिए और यही वह एकमात्र मार्ग है जिससे वे परमेश्वर के सामने आकर अंततः उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। यह पंक्ति सीधे-सरल शब्दों में कही गई है, लेकिन सभी को इसी तरह से अनुभव और प्रवेश करना होगा। यह ठीक वैसा ही है, जैसे किसी इमारत का निर्माण करना। चाहे उसमें 30 मंजिलें हों या 50 मंजिलें, या लगभग सौ मंजिलें ही क्यों न हों, उसकी एक नींव अवश्य होनी चाहिए। अगर इमारत की नींव मजबूत नहीं होगी तो इमारत चाहे कितनी भी ऊँची क्यों न हो, वह ज्यादा देर तक खड़ी नहीं रह पाएगी, कुछ ही सालों में ढह जाएगी। इसका मतलब यह है कि इस दुनिया में रहते हुए लोगों के पास उनकी नींव के रूप में सत्य होना चाहिए। उनके लिए दृढ़ रहने और परमेश्वर की स्वीकृति अर्जित करने का यही एकमात्र तरीका है। अगर लोग अधिक गहन और उच्च सत्य समझना चाहते हैं, तो उनके पास सबसे बुनियादी चीजें होनी चाहिए—यानी वे चीजें, जो नींव बनाती हैं। अस्थिर बुनियाद का होना सबसे खतरनाक बात है। इन सबसे बुनियादी सत्यों, इन सबसे बुनियादी सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों को तुच्छ मत समझो। अगर ये सत्य हैं तो ये ऐसी चीजें हैं जो लोगों के पास होनी चाहिए और जिनका उन्हें अभ्यास करना चाहिए। ये चाहे बड़ी हों या छोटी, ऊँची हों या नीची, कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हें बुनियादी चीजों से शुरुआत करनी चाहिए। ठोस नींव रखने का यही एकमात्र तरीका है।
अब तीसरी पंक्ति पढ़ो। (“विश्वास करो कि परमेश्वर अवश्य तुम्हारा सर्वशक्तिमान है।”) “विश्वास करो कि परमेश्वर अवश्य तुम्हारा सर्वशक्तिमान है” किसके बारे में बताता है? यह आस्था और दर्शन के बारे में बताता है। जब यह दर्शन तुम्हारा समर्थन और मार्गदर्शन करता है, तो तुम्हारे सामने एक मार्ग होता है। क्या इस तरह अभ्यास करने का असर होगा? कुछ लोग कहते हैं, “मैं इस तमाम अभ्यास से ऊब गया हूँ, और परमेश्वर ने अभी भी मुझे प्रबुद्ध नहीं किया है, न ही मुझे कुछ बताया है। मैं परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं कर पाता। क्या वास्तव में कोई परमेश्वर है?” तुम इस तरह नहीं सोच सकते। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, चाहे वह तुमसे बात करे या नहीं। जब परमेश्वर तुमसे बात करना चाहता है और तुमसे बात करता है तो वह सर्वशक्तिमान है। जब परमेश्वर तुमसे बात नहीं करना चाहता और तुमसे बात नहीं करता, तब भी वह सर्वशक्तिमान है। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, चाहे वह तुम्हें चीजें समझने दे या नहीं। परमेश्वर का सार और पहचान अपरिवर्तनीय हैं। यह वह दर्शन है, जिसे लोगों को समझना चाहिए। यह तीसरी पंक्ति है, यह बहुत सरल है। भले ही यह सरल है, फिर भी लोगों को वास्तव में इसका अनुभव करना चाहिए। जब लोग ऐसा करेंगे तो इससे उन्हें पुष्टि हो जाएगी कि ये वचन वास्तव में सत्य हैं और वे फिर कभी किसी भी तरह से इन पर संदेह करने का साहस नहीं करेंगे।
अब चौथी पंक्ति पढ़ो। (“तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प होना चाहिए।”) “तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प होना चाहिए,” परमेश्वर मनुष्य से यही अपेक्षा करता है। लोगों को यह समझने की जरूरत है कि “जबरदस्त” का क्या मतलब है। क्या “जबरदस्त” का मतलब इतराना और दिखावा करना, महत्वाकांक्षा से भरा दिल होना, अहंकारी और आत्मतुष्ट होना, दबंग और तानाशाह होना और किसी के प्रति आज्ञाकारी न होना है? “परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प” पंक्ति कैसे समझी जानी चाहिए? तुममें “परमेश्वर के लिए आकांक्षा” कैसे होती है? जैसा कि पिछली पंक्ति में कहा गया है, “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो”—तुममें सत्य की समझ हासिल करने और उद्धार पाने की इच्छा और संकल्प होना चाहिए, और तुममें परमेश्वर की संप्रभुता और परमेश्वर के आयोजन स्वीकारने, परमेश्वर के इरादों की समझ प्राप्त करने और परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पित होने की भी इच्छा होनी चाहिए। इसे परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प कहा जाता है। हालाँकि परमेश्वर इस मामले का स्पष्ट रूप से वर्णन करने के लिए इंसानी भाषा का उपयोग करता है, फिर भी लोगों को इसका अर्थ शुद्ध रूप में समझना चाहिए और इसकी अत्यधिक व्याख्या नहीं करनी चाहिए। यहाँ “जबरदस्त” शब्द का तात्पर्य कार्यों को उतावलेपन से करने के लिए कृत्रिम रूप से अत्यधिक मात्रा में पाशविक बल का उपयोग करना नहीं है। इसमें हिंसा शामिल नहीं है, अज्ञानता या लापरवाही तो दूर की बात है। “जबरदस्त” मुख्य रूप से व्यक्ति की आकांक्षा को संदर्भित करता है। यह वैसा ही है, जैसा तब होता है जब व्यक्ति किसी चीज को इस हद तक सँजोता है कि वह उसके पास होनी ही चाहिए और उसे हासिल करने के लिए कृतसंकल्प हो जाता है और जब तक उसे हासिल नहीं कर लेता, तब तक हार नहीं मानता। यह “परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प” एक पूरी तरह से सकारात्मक चीज है और सिर्फ सकारात्मक नतीजे ही हासिल कर सकती है। तो “परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प” का सटीक अर्थ क्या है? (इसका अर्थ है परमेश्वर के सामने अधिक बार आना और सत्य को समझने और जिन चीजों का व्यक्ति सामना करता है उनमें परमेश्वर के इरादों को समझने की चाह और दृढ़ संकल्प रखना।) सही कहा, यह इतनी सीधी-सरल बात है। इसका मतलब सिर्फ अपने दैहिक हित और सुख त्यागना है, और अपना निजी फुरसत का समय त्यागना और उस समय का उपयोग सकारात्मक चीजों के लिए करना भी है, जैसे कि परमेश्वर से खोजना, परमेश्वर से प्रार्थना करना, परमेश्वर के सामने आना और परमेश्वर की संप्रभुता समझने का प्रयास करना। यह किसी चीज के लिए तर्कसंगत ढंग से प्रार्थना करना और सत्य के किसी पहलू को समझने के लिए खोजना, अपना समय और ऊर्जा खर्च करना और एक निश्चित कीमत चुकाना है। इसे परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प कहा जाता है। क्या इसका वर्णन करने का यह एक सटीक तरीका है? क्या यह सामान्य मानवता के विवेक के अनुरूप है? क्या इन वचनों को समझना आसान है? (बिल्कुल।) तो, क्या इन अभिव्यक्तियों में यह शामिल है कि व्यक्ति जो चाहता है, उसे दाँत और पंजे दिखाकर हिंसक रूप से झपट ले? क्या यह अशिष्टता, उतावलेपन और बुद्धि की कमी में अभिव्यक्त होता है? (नहीं।) तो फिर “जबरदस्त” का क्या मतलब है? मैंने अभी-अभी जो तुम लोगों से कहा, उसे दोहराओ। (इसका अर्थ है अक्सर परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होना, सत्य को समझने की आकांक्षा रखना, कुछ दैहिक सुख त्यागने में सक्षम होना, सत्य खोजने में अधिक समय और ऊर्जा खर्च करना और इसके लिए ऊर्जा खर्च करने और कीमत चुकाने में सक्षम होना।) तो इसे ठोस रूप से कैसे अभ्यास में लाया जाता है? मैं एक उदाहरण देता हूँ। कभी-कभी तुम्हें अचानक एहसास होगा कि अपने पसंदीदा अभिनेता को देखे हुए काफी समय हो गया है और तुम सोचोगे कि वह किन-किन फिल्मों में है। तुम कंप्यूटर पर उसके बारे में जानकारी खोजना चाहोगे, लेकिन फिर तुम चिंतन कर सोचोगे, “यह सही नहीं है, जिन फिल्मों में वह अभिनय करता है, उनका मुझसे क्या लेना-देना है? हर समय फिल्में देखना अपने उचित कार्य की उपेक्षा करना कहलाता है। मुझे परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी होगी।” तब तुम परमेश्वर की उपस्थिति में शांत हो जाओगे और उस समस्या को याद करोगे, जिसका उत्तर तुम पहले खोज रहे थे। तुम्हें अभी भी उस मामले की कोई समझ नहीं है और तुम उसे बिल्कुल नहीं समझते, इसलिए तुम बस परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत करोगे और उससे प्रार्थना करोगे। “हे परमेश्वर, मैं अपना दिल तुम्हारे सामने रखने को तैयार हूँ। हाल ही में मैं जिस परिवेश का अनुभव कर रहा हूँ, उसने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला है। फिर भी मैं अभी भी समर्पण नहीं कर पाता और मैं अभी भी स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता कि यह तुम्हारी संप्रभुता है। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो, मेरा मार्गदर्शन करो और उस परिवेश में मेरी भ्रष्टता और विद्रोहीपन प्रकट करो जिसका तुमने मेरे लिए इंतजाम किया है, ताकि मैं तुम्हारे इरादे को समझकर समर्पण कर सकूँ।” प्रार्थना करने के बाद तुम चिंतन कर सोचोगे, “नहीं, मेरी समस्या अभी भी हल नहीं हुई है। समाधान खोजने के लिए मुझे परमेश्वर के और वचन पढ़ने की जरूरत है।” फिर तुम तुरंत कुछ समय के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ने लगोगे। समय देखकर तुम कहोगे, “ओह, आधा घंटा पहले ही बीत चुका है! परमेश्वर के वचन वास्तव में अच्छे हैं, लेकिन जो अंश मैंने पढ़ा वह मेरी समस्या से बिल्कुल भी संबंधित नहीं है, इसलिए मेरी समस्या अभी भी हल नहीं हुई है। मैं नहीं जानता कि परमेश्वर मेरे लिए इस परिवेश का इंतजाम करके मुझे क्या समझाना चाहता है और मैं उसका इरादा भी नहीं जानता। मुझे अपना कर्तव्य निभाते हुए जल्दी से काम पर लग जाना चाहिए और महत्वपूर्ण मामले टालने नहीं चाहिए। शायद किसी दिन मैं परमेश्वर के उचित वचन पढ़ लूँगा और अपनी समस्या हल कर लूँगा।” क्या यह समय और ऊर्जा खपाना है? (बिल्कुल।) यह बिल्कुल इतना ही सरल है। अपनी प्राथमिकताओं से विद्रोह करने और अपने मनोरंजन और अवकाश का समय त्यागने से तुम ईमानदारी की एक नन्ही-सी बूँद प्राप्त करोगे और परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प का थोड़ा-सा अभ्यास करोगे। अपने दिल में तुम बेहद सहजता और शांति महसूस करोगे। अपने जीवन में पहली बार तुम व्यक्तिगत रूप से दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने और अपनी देह का आनंद छोड़ने की महान शांति और पोषण अनुभव करोगे। तुम व्यक्तिगत रूप से इस बात का भी स्वाद लोगे कि परमेश्वर के सामने खुद को शांत करने, उसके वचन पढ़ने, परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलने और उससे अपने दिल की बात कहने से तुम्हें कितनी शांति और संतुष्टि मिलती है—जो रुझानों और सामाजिक मामलों की परवाह करने से नहीं मिल सकती—और तुम इससे कुछ हासिल भी कर सकते हो, सत्य को समझ सकते हो और कई चीजों की असलियत जान सकते हो। नतीजतन, तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर के वचन वास्तव में अच्छे हैं, कि परमेश्वर वास्तव में अच्छा है और सत्य प्राप्त करना वास्तव में खजाना प्राप्त करना है। न केवल तुम बिना किसी भ्रम के कई चीजों की असलियत जानने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के सामने रहने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में भी सक्षम होगे। ये वे प्रभाव हैं जो परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प हासिल कर सकते हैं। इस तरह से अभ्यास करना, अपना समय और ऊर्जा लगाना और अपनी देह का आनंद छोड़ना—यह परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प की अभिव्यक्तियों में से एक है। तो, तुम लोग क्या कहते हो? क्या यह अभिव्यक्ति खोखली है? (यह खोखली नहीं है।) क्या इसे हासिल करना आसान है? (बिल्कुल।) इसे हासिल करना बहुत आसान है। यह ऐसी चीज है जिसे सामान्य मानवता वाले लोग हासिल कर सकते हैं।
जब लोगों के पास विचार होते हैं, तो उनके पास विकल्प होते हैं। अगर उनके साथ कुछ हो जाता है और वे गलत विकल्प चुन लेते हैं, तो उन्हें वापस मुड़ना चाहिए और सही विकल्प चुनना चाहिए; उन्हें अपनी गलती पर अड़े नहीं रहना चाहिए। ऐसे लोग चतुर होते हैं। लेकिन अगर वे जानते हैं कि उन्होंने गलत विकल्प चुना है और फिर भी वापस नहीं मुड़ते, तो फिर वे ऐसे इंसान हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते, और ऐसा इंसान वास्तव में परमेश्वर को नहीं चाहता। उदाहरण के लिए मान लो, अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम अनमने रहना चाहते हो। तुम ढिलाई बरतने और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल से बचने की कोशिश करते हो। ऐसे समय में, प्रार्थना करने के लिए जल्दी से परमेश्वर के सामने जाओ, और विचार करो कि क्या यह कार्य करने का सही तरीका है। फिर इस बारे में सोचो : “मैं परमेश्वर में विश्वास क्यों करता हूँ? इस तरह का अनमनापन भले ही लोगों की नजर से बच जाए, लेकिन क्या परमेश्वर की नजर से बचेगा? इसके अलावा, परमेश्वर में मेरा विश्वास ढीला होने के लिए नहीं है—यह बचाए जाने के लिए है। मेरा इस तरह काम करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति नहीं है, न ही यह परमेश्वर को प्रिय है। नहीं, मैं बाहरी दुनिया में ढिलाई बरतकर जैसा चाहूँ वैसा कर सकता हूँ, लेकिन अब मैं परमेश्वर के घर में हूँ, मैं परमेश्वर की संप्रभुता में हूँ, परमेश्वर की आँखों की जाँच-पड़ताल के अधीन हूँ। मैं एक इंसान हूँ, मुझे अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए, मैं जैसा चाहूँ वैसा नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना चाहिए, मुझे अनमना नहीं होना चाहिए, मैं ढिलाई नहीं बरत सकता। तो ढिलाई न बरतने और अनमना न होने के लिए मुझे कैसे काम करना चाहिए? मुझे कुछ प्रयास करना चाहिए। अभी मुझे लगा कि इसे इस तरह करना बहुत अधिक कष्टप्रद था, मैं कठिनाई से बचना चाहता था, लेकिन अब मैं समझता हूँ : ऐसा करने में बहुत परेशानी हो सकती है, लेकिन यह कारगर है, और इसलिए इसे ऐसे ही किया जाना चाहिए।” जब तुम काम कर रहे होते हो और फिर भी कठिनाई से डरते हो, तो ऐसे समय तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर! मैं आलसी और मक्कार हूँ, मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे अनुशासित करो, मुझे फटकारो, ताकि मेरा जमीर कुछ महसूस करे और मुझे शर्म आए। मैं अनमना नहीं होना चाहता। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरी विद्रोहशीलता और कुरूपता दिखाने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध करो।” जब तुम इस प्रकार प्रार्थना करते हो, चिंतन कर खुद को जानने का प्रयास करते हो, तो यह खेद की भावना उत्पन्न करेगा, और तुम अपनी कुरूपता से घृणा करने में सक्षम होगे, और तुम्हारी गलत दशा बदलने लगेगी, और तुम इस पर विचार करने और अपने आप से यह कहने में सक्षम होगे, “मैं अनमना क्यों हूँ? मैं हमेशा ढिलाई बरतने की कोशिश क्यों करता हूँ? ऐसा कार्य करना जमीर या विवेक से रहित होना है—क्या मैं अब भी ऐसा इंसान हूँ जो परमेश्वर में विश्वास करता है? मैं चीजों को गंभीरता से क्यों नहीं लेता? क्या मुझे थोड़ा और समय और प्रयास लगाने की जरूरत नहीं? यह कोई बड़ा बोझ नहीं है। मुझे यही करना चाहिए; अगर मैं यह भी नहीं कर सकता, तो क्या मैं इंसान कहलाने के लायक हूँ?” नतीजतन, तुम एक संकल्प करोगे और शपथ लोगे : “हे परमेश्वर! मैंने तुम्हें नीचा दिखाया है, मैं वास्तव में बहुत गहराई तक भ्रष्ट हूँ, मैं जमीर या विवेक से रहित हूँ, मुझमें मानवता नहीं है, मैं पश्चात्ताप करना चाहता हूँ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे माफ कर दो, मैं निश्चित रूप से बदल जाऊँगा। अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करता, तो मैं चाहूँगा कि तुम मुझे दंड दो।” बाद में तुम्हारी मानसिकता बदल जाएगी और तुम बदलने लगोगे। तुम कम अनमने होकर कार्य करोगे, कर्तव्यनिष्ठा से अपने कर्तव्य निभाओगे और कष्ट उठाने और कीमत चुकाने में सक्षम होगे। तुम महसूस करोगे कि इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना अद्भुत है, और तुम्हारे हृदय में शांति और आनंद होगा। जब लोग परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार पाते हैं, जब वे उससे प्रार्थना कर पाते हैं और उस पर भरोसा कर पाते हैं, तो उनकी अवस्थाएँ जल्दी ही बदल जाएँगी। जब तुम्हारे दिल की नकारात्मक अवस्था बदल चुकी होती है, और तुम अपने इरादों और देह की स्वार्थपरक इच्छाओं से विद्रोह कर चुके होते हो, जब तुम दैहिक सुख और आनंद छोड़ने में सक्षम रहते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करते हो, और अब मनमाने या लापरवाह नहीं रहते, तो तुम्हारे दिल में शांति होगी और तुम्हारा जमीर तुम्हें धिक्कारेगा नहीं। क्या इस तरह से देह-सुख से विद्रोह करना और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना आसान है? अगर लोगों में परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प है, तो वे देह से विद्रोह कर सत्य का अभ्यास कर सकते हैं। और अगर तुम इस तरह से अभ्यास करने में सक्षम रहते हो, तो अनजाने ही तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे होगे। यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं होगा। निस्संदेह, सत्य का अभ्यास करते समय तुम्हें संघर्ष की प्रक्रिया और अपनी सोच बदलने की प्रक्रिया से गुजरना होगा, और इन्हें सत्य खोजकर हल किया जाना चाहिए। अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम नहीं करता तो तुम्हारे लिए अपनी नकारात्मक अवस्था हल करना कठिन होगा और तुम सत्य को समझने और उसका अभ्यास करने में सक्षम नहीं होगे। अपनी सोच बदलने की प्रक्रिया में व्यक्ति कितनी कठिनाई का सामना करता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। अगर वह सत्य नहीं स्वीकार सकता तो उसके लिए अपनी सोच बदलना बहुत कठिन होगा। दूसरी ओर, जो लोग सत्य स्वीकार सकते हैं, उन्हें यह बिल्कुल भी कठिन नहीं लगेगा। वे स्वाभाविक रूप से सत्य का अभ्यास करने और उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम होंगे। जो लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं, वे किसी भी स्तर की कठिनाइयों पर काबू पाने के लिए परमेश्वर पर भरोसा कर सकते हैं। इस तरह उनके पास अनुभवात्मक गवाही होगी, और यह एक ऐसा हृदय है जिसमें परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प है। चूँकि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प है, तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें भ्रष्टता और विद्रोहीपन नहीं रखने दिया जाता? नहीं। इसका मतलब यह है कि चूँकि तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प रखने वाला दिल है, इसलिए तुम कम से कम अपने जमीर और विवेक के अनुसार कार्य कर सत्य खोज सकते हो। इस तरह तुम किसी भी स्थिति में सही विकल्प चुन सकते हो और सही दिशा में अभ्यास और प्रवेश कर सकते हो। इसे कहते हैं परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प रखने वाला हृदय। क्या ये अभिव्यक्तियाँ खोखली हैं? (ये खोखली नहीं हैं।) ये खोखली या अस्पष्ट नहीं हैं, ये बहुत व्यावहारिक और ठोस हैं और बिल्कुल भी अमूर्त नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं : “ओह, मैंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन जब भी सत्य का अभ्यास करने का समय आता है तो मुझे हमेशा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मैं इतना चिंतित हो जाता हूँ कि पसीने से लथपथ हो जाता हूँ, फिर भी मेरे पास कोई मार्ग नहीं होता। मैं हमेशा बिना कोई शारीरिक कष्ट उठाए या बिना अपने हितों को कोई नुकसान पहुँचाए सत्य का अभ्यास करना चाहता हूँ, और नतीजतन मुझे कोई मार्ग नहीं मिल पाता। अब जाकर मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प रखने वाला दिल रखना कितना सरल है। काश, मुझे यह पहले पता होता और मैं इन वचनों को पहले अभ्यास में ला पाता!” परमेश्वर के वचनों का अभ्यास न करने के लिए तुम किसे दोष दोगे? किसने तुम्हें इन तमाम वर्षों में परमेश्वर के वचनों को सँजोने के बजाय आँख मूँदकर इधर-उधर छटपटाने के लिए मजबूर किया? अब, हम एक वाक्य में सारांश निकाल सकते हैं : जब तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हें सत्य को समझने के लिए परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना चाहिए; सिर्फ उस बिंदु पर पहुँचकर ही तुम परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त कर सकते हो जहाँ तुम मामले सत्य सिद्धांतों के अनुसार सँभालते हो। तुम्हें चीजें अपनी इच्छा के अनुसार बिल्कुल नहीं करनी चाहिए, न ही प्रसिद्धि और लाभ का अनुसरण करना चाहिए, और तुम्हें कलीसिया में गुट नहीं बनाने चाहिए, न ही समर्थक तलाशने चाहिए। ऐसा करने वालों का कोई अच्छा अंत नहीं होगा। जो लोग अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो हमेशा दूसरे लोगों का आदर करते हैं और उनके भरोसे रहते हैं, और जो बेमतलब हंगामा करने में झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों का अनुसरण करना पसंद करते हैं, वे सब इधर-उधर छटपटाकर अपना विनाश कर लेते हैं और उद्धार का मौका गँवा देते हैं। इससे वे हक्के-बक्के रह जाएँगे। अगर तुम खुद को अपनी मनमानी करने से रोकना चाहते हो तो तुम्हें परमेश्वर के सामने ज्यादा आना चाहिए और उससे प्रार्थना कर हर चीज में सत्य खोजना चाहिए। इस तरह से तुम सत्य को समझने का नतीजा प्राप्त कर सकते हो, सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर चल सकते हो और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो। यहाँ मुख्य बात यह है कि तुम्हें कभी एक दिन किसी एक व्यक्ति को महान समझकर उसका अनुसरण करते हुए तो कभी दूसरे दिन किसी और को सही समझकर उसका अनुसरण करते हुए दूसरे लोगों का अनुसरण नहीं करना चाहिए या उनके साथ नहीं जाना चाहिए और सत्य प्राप्त किए बिना इधर-उधर भटकने पर इतना ज्यादा समय खर्च नहीं करना चाहिए। चाहे तुम किसी भी समस्या का सामना क्यों न करो, तुम्हें सत्य खोजकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार उसका समाधान करना चाहिए। अगर तुम आँख मूँदकर अन्य लोगों का अनुसरण करते हो, जो भी अच्छा बोलता है और आडंबरपूर्ण शब्दों का उपयोग करता है उसका अनुसरण करते हो तो तुम्हारे धोखा खाने की संभावना है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सिर्फ यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उन्हें सिर्फ परमेश्वर के वचन सुनने चाहिए और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। ऐसा करने से तुम दूसरे लोगों का अनुसरण करने और उनके साथ गलत रास्ते पर जाने से बच जाओगे।
आगे बढ़ो और अगली पंक्ति पढ़ो। (“तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए आतुरता से खोज करनी चाहिए।”) यह भी अभ्यास के बारे में है। “आतुरता से खोज” का अर्थ है सत्य का अभ्यास करने की चाह रखना लेकिन मार्ग न होना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने की चाह रखना लेकिन यह न जानना कि अभ्यास कैसे करें—जब तुम इस तरह से आतुर होते हो, तो तुम खोज और प्रार्थना करोगे। लगातार यह महसूस करना कि तुममें बहुत कमी है, विशेष रूप से, अपने साथ कुछ घटित होने पर मार्ग का अभाव महसूस करना, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए क्या करना चाहिए यह न जानना, हमेशा विद्रोह करना और बेचैन दिल से चीजों को वैसे करना जैसे तुम करना चाहते हो, सत्य का अभ्यास करने की चाह रखना लेकिन यह न जानना कि उसे कैसे करें—यह आतुर होने की भावना है। अगर तुम आतुर हो तो तुम्हें अवश्य खोजना चाहिए। अगर तुम खोजोगे नहीं तो तुम्हारे पास कोई मार्ग नहीं होगा। अगर तुम खोजोगे नहीं तो अंधकार में घिर जाओगे। अगर तुम कभी नहीं खोजोगे तो खत्म हो जाओगे। तुम छद्म-विश्वासी होगे। “शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि जब लोग स्थितियों का सामना करते हैं, तो उनकी हमेशा अपनी इच्छा होती है, वे हमेशा अपने दैहिक हितों के बारे में सोचते हैं, और वे हमेशा देह-सुख के लिए कोई मार्ग तलाशते हैं। ऐसे समय में तुम्हारा जमीर तुम्हें धिक्कारेगा, तुम्हें सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए प्रेरित करेगा। ऐसी स्थितियों में तुम्हारे हृदय में संघर्ष होगा, और तुम्हें शैतान के बहानों और देह के विभिन्न औचित्यों को अस्वीकार करना चाहिए। “अस्वीकार करने” का अर्थ है सत्य का अभ्यास न करने के लिए लोगों के उन विभिन्न बहानों और औचित्यों को समझने और उनकी असलियत जानने में सक्षम होना जो शैतान के इरादे और चालें हैं, और फिर इनसे विद्रोह करना। यही अस्वीकार की प्रक्रिया है। कभी-कभी लोगों में कुछ भ्रष्ट विचार, इरादे और उद्देश्य, और साथ ही कुछ इंसानी ज्ञान, फलसफे, सिद्धांत, और दूसरों से बातचीत करने के तरीके, साधन, तरकीबें और योजनाएँ आदि उत्पन्न हो जाती हैं। जब ऐसा होता है तो लोगों को तुरंत पता चल जाना चाहिए कि ये भ्रष्ट चीजें उनसे प्रकट हो रही हैं, और उन्हें उनको पकड़ना चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, उनका पूरी तरह से गहन-विश्लेषण करना चाहिए, उनकी वास्तविकता स्पष्ट रूप से देखनी चाहिए, और उन्हें विकसित होने से पहले ही नोच देना चाहिए और उन्हें पूरी तरह से अस्वीकार कर उनसे विद्रोह कर देना चाहिए। चाहे जब भी हो, अगर व्यक्ति में भ्रष्ट मत, विचार, इरादे या धारणाएँ पैदा होती हैं तो उन्हें उन चीजों को तुरंत पकड़ना चाहिए, उन्हें समझना चाहिए और उनकी असलियत जाननी चाहिए, उनसे विद्रोह कर देना चाहिए और फिर खुद को बदलना चाहिए। प्रक्रिया ऐसी ही है। शैतान को अस्वीकार करने और देह-सुख से विद्रोह का अभ्यास इसी तरह करना है। क्या यह बहुत आसान नहीं है? असल में इस प्रक्रिया के बारे में अभी दिए गए दो उदाहरणों में पहले ही बात की जा चुकी है। यह उन अनुचित दशाओं से निपटने के लिए अभ्यास का एक सिद्धांत है, जो लोगों में तब उत्पन्न होती हैं, जब उन पर चीजें आकर पड़ती हैं।
पढ़ते रहो। (“हिम्मत मत हारो। कमजोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतजार करो।”) इसका मतलब है अपने पूरे दिल और मन से खोजना और इंतजार करना। इन चार सरल वाक्यांशों “हिम्मत मत हारो। कमजोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतजार करो” के दो अर्थ हैं। वे दो अर्थ क्या हैं? (पहला है कि हिम्मत मत हारो और कमजोर मत बनो। यानी कठिनाइयों का सामना करने या अपनी खोज की प्रक्रिया में क्षण भर के लिए चीजें न समझ पाने पर हिम्मत न हारो या हतोत्साहित न हो। दूसरा यह है कि तुम्हें पूरे दिल से खोजना और इंतजार करना चाहिए। यानी तुम्हें अपनी खोज की प्रक्रिया में दृढ़ता रखनी चाहिए, जब समझ न आए तो खोजते और प्रार्थना करते रहना चाहिए, और परमेश्वर के इरादे प्रकट होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। यह दूसरा अर्थ है।) “हिम्मत मत हारो। कमजोर मत बनो” का अर्थ है कि लोगों को परमेश्वर में सच्ची आस्था बनाए रखनी चाहिए, विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, और कि परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध कर सत्य समझने में सक्षम बना सकता है। तो तुम सत्य को अभी क्यों नहीं समझ सकते? परमेश्वर तुम्हें अभी प्रबुद्ध क्यों नहीं करता? इसका कोई कारण होना चाहिए। इसका एक मूल कारण क्या है? बस यही कि परमेश्वर का समय नहीं आया है। परमेश्वर तुम्हारी आस्था का परीक्षण कर रहा है और साथ ही वह तुम्हारी आस्था मजबूत करने के लिए इस पद्धति का उपयोग करना चाहता है। यह बुनियादी चीज है जिसे लोगों को समझना और जानना चाहिए। मान लो, तुमने परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया है, तुमने प्रार्थना की है, तुमने खोज की है, तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा रखने वाला दिल है, तुमने परमेश्वर के वचन सँजोने शुरू कर दिए हैं, तुम परमेश्वर के वचनों में रुचि रखते हो, और तुम अक्सर परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने, परमेश्वर के सामने आने, उससे न भटकने और चीजें करते समय खोजने की खुद को याद दिलाते हो। लेकिन तुम मन-ही-मन सोचते हो, “मुझे नहीं लगता कि मैंने स्पष्ट रूप से महसूस किया है कि परमेश्वर ने मुझे कोई विशेष प्रबुद्धता, रोशनी या मार्गदर्शन दिया है, यहाँ तक कि मुझे इस बात का स्पष्ट एहसास भी नहीं है कि मैं जो कर्तव्य निभाता हूँ, उसके लिए परमेश्वर ने मुझे कोई विशेष गुण, प्रतिभा या विशेष योग्यताएँ दी हैं। इसके बजाय मुझे लगता है कि जो लोग मेरे बराबर नहीं हैं, वे मुझसे ज्यादा समझते हैं, अपने कर्तव्य बेहतर ढंग से निभाते हैं, और सुसमाचार का प्रचार करने में अधिक कुशल हैं। मैं दूसरे लोगों जितना अच्छा क्यों नहीं हूँ? मैं क्यों अभी भी उसी स्थान पर खड़े रहकर कम प्रगति कर रहा हूँ?” इसके दो कारण हैं : एक तो यह कि लोगों के पास खुद कई समस्याएँ हैं, जैसे कि खोजने में उनके व्यक्तिगत तरीके, इरादे और उद्देश्य, और साथ ही परमेश्वर से प्रार्थना और अनुरोध करने में उनके इरादे और उद्देश्य, इत्यादि। इन सभी चीजों में तुम्हें चिंतन करने, ज्ञान प्राप्त करने, अपने भीतर की समस्याओं का पता लगाने और तुरंत अपना मार्ग बदलने की आवश्यकता है। इसके बारे में विस्तार से जाने की जरूरत नहीं। दूसरा कारण यह है कि जब यह बात आती है कि परमेश्वर विभिन्न लोगों को कितना देता है और कैसे प्रदान करता है तो परमेश्वर का अपना तरीका होता है। परमेश्वर ने ये वचन कहे हैं : “जिस पर मैं अनुग्रह करना चाहूँ उसी पर अनुग्रह करूँगा, और जिस पर दया करना चाहूँ उसी पर दया करूँगा” (निर्गमन 33:19)। हो सकता है कि तुम परमेश्वर के अनुग्रह के पात्र हो, और हो सकता है कि तुम उसके अनुग्रह या उसकी दया के पात्र नहीं हो। इसके कई कारण हैं, और इसके भीतर कुछ चीजें हैं जिनकी थाह लोग नहीं पा सकते; तुम्हें इन्हें मानवीय धारणाओं या कल्पनाओं के आधार पर नहीं देखना चाहिए। चाहे परमेश्वर कुछ भी करे, उसके अच्छे इरादे हमेशा इसमें होते हैं; चाहे परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह हमेशा सही होता है। लोगों को परमेश्वर से कोई असंयत माँग नहीं करनी चाहिए। सिर्फ एक चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है दिल की गहराइयों से खोज करो और पूरी लगन से इंतजार करो। इससे पहले कि परमेश्वर तुम्हें समझने दे और तुम्हें उत्तर दे, सिर्फ एक चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है खोजना और साथ ही उस समय का इंतजार करना जब परमेश्वर तुम्हें कुछ देगा, उस समय का जब परमेश्वर तुम पर अनुग्रह करेगा, और उस समय का जब परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। इंसानी धारणाओं के विपरीत, परमेश्वर लोगों को चीजें समान रूप से वितरित नहीं करता, इसलिए तुम परमेश्वर से माँग करने के लिए “समान” शब्द का उपयोग नहीं कर सकते। जब परमेश्वर तुम्हें कुछ देता है तो यह वह समय होता है जब तुम्हें उसे प्राप्त करना चाहिए। जब परमेश्वर तुम्हें कुछ नहीं देता तो स्पष्ट रूप से वह समय परमेश्वर की नजर में उपयुक्त या सही नहीं है, इसलिए तुम्हें उस समय उसे प्राप्त नहीं करना चाहिए। जब परमेश्वर कहता है कि तुम्हें कोई चीज नहीं मिलनी चाहिए और परमेश्वर यह तुम्हें देना नहीं चाहता है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? एक विवेकवान व्यक्ति कहेगा, “अगर परमेश्वर मुझे यह नहीं देता तो मैं समर्पण करूँगा और प्रतीक्षा करूँगा। फिलहाल मैं इसे प्राप्त करने के योग्य नहीं हूँ, शायद इसलिए कि मेरा आध्यात्मिक कद इसे सँभाल नहीं सकता, लेकिन मेरा दिल बिना किसी शिकायत या शंका के, और निश्चित रूप से बिना किसी संदेह के परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकता है।” इस समय लोगों को अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। परमेश्वर तुम्हारे साथ चाहे कैसा भी व्यवहार करे, तुम्हें विवेक के साथ परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चुनना चाहिए। सृजित प्राणियों का परमेश्वर के प्रति एक ही रवैया होना चाहिए—सुनना और समर्पण करना, कोई अन्य विकल्प नहीं है। लेकिन परमेश्वर के तुम्हारे प्रति विभिन्न रवैये हो सकते हैं। इसका एक आधार है। परमेश्वर के अपने इरादे होते हैं। जब ये चीजें करने और प्रत्येक व्यक्ति के प्रति रवैया अपनाने की बात आती है, तो वह अपने विकल्प खुद चुनता है और उसके अपने तरीके होते हैं। बेशक, इन विकल्पों और तरीकों का आधार परमेश्वर के उद्देश्य होते हैं। इससे पहले कि लोग इन उद्देश्यों की समझ ले सकें, सिर्फ एक चीज जो उन्हें करनी चाहिए और जो वे कर सकते हैं, वह है परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने के लिए कुछ भी करने से बचते हुए खोज और इंतजार करना। लोगों को ऐसे समय—यानी जब उन्हें परमेश्वर की प्रबुद्धता, मार्गदर्शन, अनुग्रह और दया महसूस न हो—जो चीज नहीं करनी चाहिए, वह है परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन महसूस न कर पाने पर परमेश्वर से भटक जाना और कहना कि वह धार्मिक नहीं है, या परमेश्वर पर चिल्लाना, या उसे नकार तक देना। यह वह चीज है जिसे परमेश्वर सबसे कम देखना चाहता है। निस्संदेह, अगर तुम वास्तव में परमेश्वर को नकारने, उसकी धार्मिकता को नकारने, उसकी पहचान और उसके सार को नकारने और परमेश्वर पर चिल्लाने के बिंदु पर पहुँच जाते हो, तो यह पुष्टि करेगा कि परमेश्वर ने शुरुआत में ही तुम पर ध्यान न देने का रवैया अपनाकर सही किया था। अगर तुम इस छोटे-से परीक्षण और परीक्षा का भी सामना नहीं कर सकते, तो तुम्हारी परमेश्वर में थोड़ी-सी भी आस्था नहीं है और तुम्हारा विश्वास बहुत खोखला है। जब व्यक्ति परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन महसूस नहीं करता, तो उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज पूरे दिल से खोजना और इंतजार करना है। खोजना और इंतजार करना मनुष्य की जिम्मेदारियाँ हैं, और ये वो विवेक, रवैया और अभ्यास का सिद्धांत भी हैं जो लोगों को परमेश्वर के प्रति अपनाना चाहिए। खोजते और इंतजार करते समय संयोग पर आधारित मानसिकता मत पालो। हमेशा यह मत सोचो, “शायद अगर मैं इंतजार करूँ तो परमेश्वर मुझे स्पष्ट वचन प्रदान करेगा। मुझे बस थोड़ा और ईमानदार होने और यह देखने की जरूरत है कि परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध करता है या नहीं। शायद वह मुझे प्रबुद्ध कर देगा। अगर वह ऐसा नहीं करता तो मैं कोई और तरीका सोचूँगा।” संयोग पर आधारित इस तरह की मानसिकता न पालो। परमेश्वर लोगों के इस तरह के रवैये से घृणा करता है। यह कैसा रवैया है? यह संयोग का रवैया है, इसमें एक परीक्षा है। यही वह चीज है जिससे परमेश्वर सबसे अधिक घृणा करता है। अगर तुम इंतजार करने जा रहे हो तो ईमानदारी से करो। परमेश्वर से प्रार्थना करते और सत्य खोजते हुए, अपनी व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करते हुए और प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर से विनती करते हुए धार्मिकता के लिए भूख-प्यास रखने की मानसिकता अपनाओ। परमेश्वर तुम्हारे साथ चाहे कैसा भी व्यवहार करे या वह अंततः तुम्हें पूरी समझ प्राप्त करने दे या नहीं, तुम्हें बिना किसी विचलन के समर्पण के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। इस तरह तुम उस रुतबे और कर्तव्य को दृढ़ता से पकड़े रहोगे जो एक सृजित प्राणी के पास होना चाहिए। चाहे परमेश्वर अंततः तुमसे अपना चेहरा छिपा ले, चाहे वह तुम्हें सिर्फ अपनी पीठ दिखाए या चाहे वह तुम्हारे सामने प्रकट हो जाए, अगर तुम अपने कर्तव्य पर और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने मूल स्थान पर अडिग रहते हो तो तुम गवाही दे चुके होगे और तुम एक विजेता होगे। “हिम्मत मत हारो। कमजोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतजार करो।” ये चार लघु कथन बहुत महत्वपूर्ण हैं। इनमें वह विवेक है जो मनुष्य के पास होना चाहिए, वह मूल स्थान है जिस पर मनुष्य को खड़ा होना चाहिए और अभ्यास का वह मार्ग शामिल है जिसे मनुष्य को अपनाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “हम सब अपने पूरे दिलो-दिमाग से खोजते और इंतजार करते हैं तो फिर परमेश्वर हमें प्रबुद्ध क्यों नहीं करता? वह मुझे कोई प्रेरणा क्यों नहीं देता?” परमेश्वर के अपने इरादे होते हैं। परमेश्वर से माँग मत करो। यह सामान्य मानवता का विवेक है; यह वह विवेक है जो सृजित प्राणियों में सबसे अधिक होना चाहिए। मनुष्य के मन, विचारों और धारणाओं के अनुसार, बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें लोग नहीं समझते, और परमेश्वर को ये चीजें लोगों को बतानी ही चाहिए। लेकिन परमेश्वर कहता है, “तुम्हें ये चीजें बताना मेरी जिम्मेदारी या दायित्व नहीं है। अगर मैं चाहता हूँ कि तुम कुछ जानो तो तुम थोड़ा जान लोगे, और यह मैं तुम पर कृपा करूँगा। जब मैं नहीं चाहता कि तुम कुछ जानो, तो मैं उसके बारे में एक शब्द भी नहीं कहूँगा, और यह भी नहीं सोचूँगा कि तब तुम उसे समझ पाओगे!” कुछ लोग कहते हैं : “हे परमेश्वर, तुम इसमें खुद को हमारे खिलाफ खड़ा क्यों कर रहे हो?” परमेश्वर खुद को तुम्हारे खिलाफ खड़ा नहीं कर रहा। सृष्टिकर्ता सदैव सृष्टिकर्ता रहेगा, और उसके काम करने के अपने ढंग और तरीके हैं। हालाँकि उसके ढंग और तरीके मनुष्य की रुचियों या विचारों और धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, और मनुष्य की पारंपरिक संस्कृति के अनुरूप निश्चित रूप से नहीं हैं, फिर भी चाहे वे मनुष्य के जिन भी पहलुओं के अनुरूप न हों, सरल शब्दों में कहें तो, इस तथ्य के बावजूद कि वे मनुष्य से अपेक्षित मानकों के साथ मेल नहीं खाते—चाहे सृष्टिकर्ता कुछ भी करे, और चाहे लोग उसे समझ पाएँ या नहीं, सृष्टिकर्ता की पहचान और सार कभी नहीं बदलेगा। लोगों को सृष्टिकर्ता को मापने के लिए कभी इंसानी भाषा, इंसानी धारणाओं या किसी इंसानी तरीके का उपयोग नहीं करना चाहिए। लोगों में यह विवेक होना चाहिए। अगर तुममें इतना-सा भी विवेक नहीं है, तो मैं ईमानदारी से कहूँगा—तुम एक सृजित प्राणी की तरह कार्य करने में सक्षम नहीं हो। किसी दिन, देर-सबेर, तुम्हारे साथ कुछ बुरा घटित होगा। अगर तुममें इतना-सा भी विवेक नहीं है, तो किसी दिन, देर-सबेर, तुम्हारा शैतानी स्वभाव फूटकर बाहर आ जाएगा। उस समय, तुम परमेश्वर पर संदेह करोगे, परमेश्वर को गाली दोगे, परमेश्वर को नकारोगे और परमेश्वर को धोखा दोगे। तब तुम पूरी तरह से समाप्त हो जाओगे, और तुम्हें हटा दिया जाना चाहिए। इसलिए सृजित प्राणियों में जो विवेक होना चाहिए, वह बहुत महत्वपूर्ण है। “हिम्मत मत हारो। कमजोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतजार करो।” ये चार कथन वह विवेक और वे सिद्धांत हैं जो सृजित प्राणियों में उन विभिन्न परिवेशों से निपटने के लिए, जिनका लोग अक्सर अपने वास्तविक जीवन में सामना करते हैं, और परमेश्वर के साथ अपना रिश्ता बेहतर बनाने के लिए होने चाहिए।
इस अंश के पहले भाग में कहा गया है, “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो,” और आखिरी से पहली पंक्ति में कहा गया है, “दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतजार करो।” कुछ लोग कहते हैं : “क्या ‘समाधान के लिए अधीर मत हो’ वचनों का अनकहा अर्थ यह है कि अंतिम परिणाम निश्चित है? अगर हम दिल की गहराइयों से खोजते और इंतजार करते हैं, परमेश्वर के लिए जबरदस्त इच्छा रखने वाले दिलवाले हैं और परमेश्वर के वचनों के लिए लालायित रहते हैं, तो क्या यह आवश्यक हो जाता है कि परमेश्वर हमें उत्तर दे और मामले का सत्य समझने दे?” मेरा उत्तर यह है : यह अनिश्चित है और जरूरी नहीं कि ऐसा हो। इस अंश में प्रत्येक वचन एक अपेक्षा है जिसे परमेश्वर मनुष्य के लिए प्रस्तावित करता है, अभ्यास का एक सिद्धांत जिसका सृजित प्राणियों को पालन करना चाहिए। परमेश्वर मनुष्य को अभ्यास का एक मार्ग देता है, वे सिद्धांत देता है जिनका लोगों को उन स्थितियों में अभ्यास और पालन करना चाहिए, जिनमें वे खुद को दैनिक जीवन में पाते हैं। लेकिन परमेश्वर ने लोगों से यह नहीं कहा, “चाहे तुम इन वचनों को जिस भी सीमा तक समझो, जब तक तुम इन सिद्धांतों का पालन करते हो, अंत में मुझे तुम लोगों को तथ्य बताने ही होंगे, मुझे तुम लोगों को उत्तर देना ही होगा, और मुझे तुम लोगों को स्पष्टीकरण देना ही होगा।” परमेश्वर की यह जिम्मेदारी नहीं है। उसके पास ऐसा कोई “होगा” नहीं है। लोगों को परमेश्वर से ऐसी अनुचित माँगें नहीं करनी चाहिए। यह ऐसी चीज है, जिसे तुम लोगों में से प्रत्येक को अवश्य समझना चाहिए। यह “जरूरी नहीं कि ऐसा हो” लोगों को एक तथ्य बताता है : इंसान अपनी इंसानी धारणाओं, इंसानी फलसफों और इंसानी अनुभव और सबकों के अनुसार खेल के जो नियम निर्धारित करते हैं, परमेश्वर उनका पालन कभी नहीं करेगा, न ही वह इंसानी कानून का पालन करेगा। बल्कि, इंसानों को परमेश्वर की अपेक्षाओं के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और परमेश्वर द्वारा प्रस्तुत प्रत्येक सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए। क्या तुम्हें यह समझ आया? (हाँ।) इस अंश में लोगों द्वारा पालन किए जाने वाले सिद्धांत स्पष्ट रूप से समझाए गए हैं। पहली पंक्ति से प्रारंभ करो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो।”) यह एक ऐसा सिद्धांत है, जिसे अभ्यास में लाना और समझना आसान है। इसे अभ्यास में लाने से तुम पर कोई बोझ या दबाव नहीं पड़ता। यह बेहद आसान है। और दूसरी पंक्ति? (“ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो।”) तुम दुनिया में रहने वाले एक सामान्य व्यक्ति हो। तुम्हें बस इतना ही हासिल करने की जरूरत है कि “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो।” अगर तुम हृदयहीन नहीं हो, तो तुम यह कर सकते हो। तुम्हारे पास एक दिन में चौबीस घंटे हैं। अपने सामान्य कार्य, आराम के समय, भोजन और व्यक्तिगत आध्यात्मिक भक्ति के अलावा, क्या “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो” आसान है? (ऐसा करना आसान है।) इसे चलते हुए, बातचीत करते हुए या आराम करते हुए किया जा सकता है, यह तुम्हारे सामान्य कामकाज, तुम्हारे कर्तव्य निभाने या हाथ में लिया हुआ काम करने में हस्तक्षेप नहीं करेगा। यह सचमुच एक सरल चीज है! व्यक्ति की काबिलियत चाहे जो भी हो, अगर वह उसे सच्चा दिल अर्पित करता है और सत्य के लिए प्रयास करता है, तो वह धीरे-धीरे सत्य को समझने लगेगा और इस वास्तविकता में आसानी से प्रवेश कर लेगा।
अगली पंक्ति क्या है? (“विश्वास करो कि परमेश्वर अवश्य तुम्हारा सर्वशक्तिमान है।”) अब, मैं इसे उलटकर तुम सब लोगों से पूछता हूँ, क्या तुम लोग विश्वास करते हो कि “परमेश्वर अवश्य तुम्हारा सर्वशक्तिमान है”? तुमने इस पर कब विश्वास करना शुरू किया? किन मामलों में तुम्हें इस पर विश्वास हुआ? क्या तुमने इसकी गवाही दी है? क्या तुम्हें यह अनुभव हुआ है? क्या हो अगर कोई तुमसे पूछे, “क्या तुम विश्वास करते हो कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है?” शायद, सैद्धांतिक रूप से, तुम बिना किसी हिचकिचाहट के कहोगे, “परमेश्वर मेरा सर्वशक्तिमान है! परमेश्वर मेरा सर्वशक्तिमान कैसे नहीं हो सकता?” क्या होगा अगर वह तुमसे दोबारा पूछे, “क्या परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है? किन मामलों में तुमने परमेश्वर पर भरोसा किया है और परमेश्वर के कर्म देखे हैं? परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता तुममें व्यक्तिगत रूप से किस हद तक प्रकट हुई है? तुम्हें कब पता चला कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है? किन मामलों में तुम्हें लगता है कि परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है? अगर तुम स्वीकारते हो कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और वह साथ हो तो कुछ भी असंभव नहीं है, तो ऐसा क्यों है कि तुम कभी-कभी बहुत कमजोर हो जाते हो? तुम अभी भी नकारात्मक क्यों हो? जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम देह से विद्रोह कर सत्य का अभ्यास क्यों नहीं कर पाते? तुम दूसरों के साथ अपने व्यवहार में हमेशा शैतानी फलसफे के अनुसार क्यों जीते हो? तुम अभी भी परमेश्वर की फटकार महसूस किए बिना अक्सर झूठ क्यों बोलते हो? क्या परमेश्वर वास्तव में तुम्हारा सर्वशक्तिमान है? तुम वास्तव में क्या सोचते हो कि परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता किसे संदर्भित करती है? क्या यह परमेश्वर के सार के अनुरूप है?” अगर तुमसे ये प्रश्न पूछे जाएँ, तो क्या तुम फिर भी इतनी ही निश्चितता के साथ उत्तर देने का साहस करोगे? जब मैं इस तरह पूछता हूँ, तो लोग निःशब्द हो जाते हैं। तुम्हें ऐसा कोई अनुभव नहीं है, तुमने इस स्तर पर परमेश्वर के साथ कोई रिश्ता कायम नहीं किया है। परमेश्वर में विश्वास के इन तमाम वर्षों में तुमने कभी परमेश्वर की संप्रभुता का अनुभव प्राप्त नहीं किया है, कभी परमेश्वर का हाथ नहीं देखा है, कभी लोगों, घटनाओं और चीजों पर परमेश्वर के सर्वशक्तिमान हाथ द्वारा प्रयुक्त संप्रभुता नहीं देखी है। यह तुमने कभी नहीं देखा है, कभी नहीं सुना है, अनुभव तो बिल्कुल नहीं किया है। इसलिए, “क्या परमेश्वर मेरा सर्वशक्तिमान है?” प्रश्न के बारे में तुम नहीं जानते और बोलने की हिम्मत नहीं करते। इससे साबित होता है कि तुममें ऐसी आस्था की कमी है। तुम्हारे लिए यह पंक्ति तुम्हारा दर्शन बन जाना चाहिए। यह सबसे सशक्त प्रमाण होना चाहिए कि तुम परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करते हो। यह उस दर्शन का एक पहलू भी है, जो आगे बढ़ते जाने पर तुम्हारा समर्थन करता जाता है। फिर भी तुम निश्चितता के साथ उत्तर देने का साहस नहीं करते। क्यों? क्योंकि परमेश्वर में तुम्हारी आस्था सिर्फ एक विश्वास है कि परमेश्वर का अस्तित्व है। अभी तक तुमने सच में परमेश्वर का अनुसरण नहीं किया है, तुमने परमेश्वर के साथ सच में कोई रिश्ता कायम नहीं किया है, तुमने अभी तक परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तुमने अभी तक परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करने के अनुभव में प्रवेश नहीं किया है और तुमने अभी तक सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य का अनुभव नहीं किया है। तुम्हें इन चीजों की अंतर्दृष्टियाँ या अनुभव नहीं मिले हैं और तुम्हें इनकी समझ तो बिल्कुल भी नहीं है। अगर तुमसे बस इतना ही पूछा जाए, “क्या परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है?” तो तुम निश्चित रूप से उत्तर दोगे “हाँ।” अगर फिर तुमसे यह पूछा जाए कि तुमने इसे कैसे अनुभव किया और तुमने यह समझ कैसे प्राप्त की, तो तुम निश्चित रूप से निःशब्द होकर अपना सिर झुका लोगे और उत्तर देने का साहस नहीं कर पाओगे। इस तथ्य का क्या कारण है? (हमें इस संबंध में कोई अनुभव नहीं है।) तुम सैद्धांतिक दृष्टिकोण से बोल रहे हो। सच तो यह है कि तुम मौखिक रूप से ही स्वीकार करते हो कि तुम परमेश्वर के अनुयायी और एक सृजित प्राणी हो। लेकिन जिस दिन से तुमने परमेश्वर का अनुसरण करना शुरू किया है, उस दिन से तुमने कभी सृजित प्राणी की जिम्मेदारी नहीं निभाई है। परमेश्वर के वचनों को अपने अस्तित्व की नींव के रूप में स्वीकारना, परमेश्वर के वचनों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए अभ्यास के सिद्धांत और मार्ग के रूप में लेना और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना : यह तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुमने अभी तक इन सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं किया है। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि, भले ही तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, भले ही तुमने परिवार, काम और करियर छोड़ दिया है और तुम आज तक परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम हो, फिर भी तुम्हारे दिल ने वह सत्य और जीवन नहीं स्वीकारा है, जो परमेश्वर मानवजाति को प्रदान करता है, बल्कि इसके बजाय तुम उन चीजों के पीछे जाते हो, जिन्हें तुम पसंद करते हो और जिन्हें तुमने कभी छोड़ा नहीं है। क्या इसे परमेश्वर का अनुसरण करना और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होना माना जाता है? अगर, अपने दिल में, तुम जीवन और जीने के वे लक्ष्य, दिशाएँ और मानदंड नहीं स्वीकारते, जो परमेश्वर ने मनुष्य के लिए निर्धारित किए हैं, बल्कि सिर्फ उन्हीं शब्दों की तोतारटंत करते हो जिन्हें तुम सुनते हो और कुछ सिद्धांत बताते हो, तो क्या इसे सत्य स्वीकारना माना जाएगा? हालाँकि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और बाहरी तौर पर अपना कर्तव्य निभा सकते हो, फिर भी तुम्हारे दिल ने सत्य नहीं स्वीकारा है। हालाँकि तुम लोगों ने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, फिर भी जिन सिद्धांतों और तरीकों के अनुसार तुम जीते हो, और वह मार्ग जिस पर तुम्हारा जीवन चलता है, अभी भी शैतान का है। तुम अभी भी वही पुराने व्यक्ति हो जो तुम हमेशा थे, तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव और भ्रष्ट मनुष्य के जीवन जीने के तरीके के अनुसार जीते हो, और तुमने परमेश्वर से आने वाली अपेक्षाएँ और सिद्धांत नहीं स्वीकारे हैं। इस अनिवार्य परिप्रेक्ष्य से, तुम जो कर रहे हो वह सच में परमेश्वर का अनुसरण नहीं है। तुम एक सृजित प्राणी हो और सृष्टिकर्ता तुम्हारा परमेश्वर है, इस सिद्धांत को मानने के आधार पर तुम परमेश्वर के लिए बस थोड़ा-सा कर रहे हो और उसे थोड़ी-सी भेंट अर्पित कर रहे हो। इस पूर्वाधार को देखते हुए तुम अनिच्छा से स्वीकार करते हो कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है और तुम उसके अनुयायी हो, लेकिन तुमने दिल से कभी परमेश्वर को अपना जीवन, अपना प्रभु और अपना परमेश्वर नहीं स्वीकारा है। यह हमें वापस उस प्रश्न पर लाता है, जो मैंने अभी पूछा था, “क्या परमेश्वर तुम्हारा सर्वशक्तिमान है?” उपर्युक्त कारणों से तुम निश्चितता के साथ उत्तर देने का साहस नहीं करते। सभी चीजों के लिए और संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, लेकिन तुम्हारे लिए, सिद्धांत के तौर पर तुम यह स्वीकार सकते हो कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, लेकिन वास्तव में तुमने इसका अनुभव नहीं किया है या इसे देखा नहीं है। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की बात पर तुम्हारे हृदय में एक प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। लोग कब वास्तव में “परमेश्वर अवश्य तुम्हारा सर्वशक्तिमान है” वचनों की पुष्टि कर इस दर्शन को अपनी आस्था की नींव बना पाएँगे? जब लोग अपने हृदय में परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर का सार और परमेश्वर का दर्जा स्वीकारते हैं, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करते हैं और परमेश्वर के वचनों को अपने अस्तित्व की नींव में बदलते हैं, सिर्फ तभी वे सच में स्वीकार सकते हैं कि “परमेश्वर अवश्य तुम्हारा सर्वशक्तिमान है।” ये वचन हासिल करना वास्तव में सबसे कठिन है, लेकिन परमेश्वर ने इन्हें प्रस्तुत किया है। ये दिखाता है कि मनुष्य के लिए इनका बहुत महत्व है, और लोगों को इन वचनों का अनुभव और सराहना करने के लिए अपनी आजीवन ऊर्जा लगाने की जरूरत है। इन वचनों की अपने दिल की गहराई से ईमानदारी और निश्चितता से पुष्ट करने के लिए उसे अपने और परमेश्वर के बीच एक सामान्य रिश्ता यानी एक सृजित प्राणी का सृष्टिकर्ता के साथ रिश्ता कायम करने के लिए पूरा जीवन बिताने की जरूरत है। यह सब “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो” सिद्धांत को अभ्यास में लाने के आधार पर प्राप्त किया जा सकता है। इसे अभ्यास में लाना वास्तव में काफी सरल है, लेकिन परमेश्वर द्वारा अपेक्षित लक्ष्य वास्तव में प्राप्त करना आसान नहीं है। व्यक्ति को इसके लिए समय और श्रम लगाना होगा और कीमत चुकानी होगी।
The Bible verses found in this audio are from Hindi OV and the copyright to the Bible verses belongs to the Bible Society of India. With due legal permission, they are used in this production.
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।