परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है (भाग एक)

पहले हम परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुनेंगे : “परमेश्वर के वचनों का पालन करो तो तुम कभी राह से नहीं भटकोगे।”

1  परमेश्वर उम्मीद करता है कि तुम लोग स्वतंत्र रूप से खा और पी सको, तुम हमेशा परमेश्वर की उपस्थिति की रोशनी में रह सको, और अपने जीवन में कभी भी परमेश्वर के वचनों से दूर मत हो; तभी तुम परमेश्वर के वचनों से संतृप्त किए जा सकते हो। तुम्हारे प्रत्येक वचन और कर्म में, परमेश्वर के वचन निश्चित रूप से तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे। अगर तुम सच्चे दिल से इस स्तर तक परमेश्वर के करीब जाते हो, और निरंतर परमेश्वर के साथ संगति कर सकते हो, तो तुम्हारा कोई भी काम उलझन में नहीं ख़त्म होगा या तुम्हें दिशाहीन नहीं छोड़ेगा। तुम निश्चित रूप से परमेश्वर को अपनी ओर पाओगे, तुम हमेशा परमेश्वर के वचन के अनुसार कार्य करने में सक्षम होगे।

2  किसी भी व्यक्ति, घटना और चीज़ का सामना होने पर, परमेश्वर के वचन किसी भी समय तुम्हारे सामने प्रकट होंगे, उसके इरादों के अनुरूप कार्य करने के लिए तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे और तुम जो भी करते हो, उसमें उसके वचनों का पालन करो। परमेश्वर का वचन तुम्हारे हर कार्य में तुम्हारी अगुआई करेगा; तुम कभी भी रास्ते से नहीं भटकोगे और तुम एक नई रोशनी में रहने के काबिल होगे, तुम्हें कहीं अधिक और नया प्रबोधन मिलेगा। क्या करना है, इस पर विचार करने के लिए तुम इंसानी धारणाओं का इस्तेमाल नहीं कर सकते; तुम्हें परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के लिए समर्पित होना चाहिए, एक स्पष्ट हृदय रखना चाहिए, परमेश्वर के सामने शांत रहना चाहिए और गहराई से विचार करना चाहिए। जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो।

3  विश्वास करो कि परमेश्वर अवश्य तुम्हारा सर्वशक्तिमान है! तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प होना चाहिए, तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तीव्रता से खोज करनी चाहिए। हिम्मत मत हारो। कमजोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतजार करो। परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग करो और अपनी आंतरिक बाधाओं से छुटकारा पाओ।

—परमेश्वर की संगति

तुमने अभी-अभी “परमेश्वर के वचनों का पालन करो तो तुम कभी राह से नहीं भटकोगे” भजन बजाया है। इस भजन को सुनकर क्या तुम लोगों को कोई रोशनी मिली या अभ्यास का मार्ग प्राप्त हुआ? तुम्हें किन वचनों से प्रेरणा और रोशनी मिली? “परमेश्वर के वचनों का पालन करो तो तुम कभी राह से नहीं भटकोगे”—क्या ये वचन सही हैं? क्या ये सत्य हैं? (हाँ।) इस भजन की कौन-सी पंक्तियाँ तुम्हें वास्तविक जीवन में अपने अनुभव के लिए विशेष रूप से सहायक लगती हैं? “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो,” इस पंक्ति से पढ़ना शुरू करो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो। विश्वास करो कि परमेश्वर अवश्य तुम्हारा सर्वशक्तिमान है! तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प होना चाहिए, तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तीव्रता से खोज करनी चाहिए। हिम्मत मत हारो। कमजोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतजार करो। परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग करो और अपनी आंतरिक बाधाओं से छुटकारा पाओ।”) इस उद्धरण की कौन-सी पंक्तियाँ अभ्यास का मार्ग प्रदान करती हैं? इनमें से कौन-सी पंक्तियाँ वास्तविक जीवन की परिस्थितियों से निपटने के ऐसे अभ्यास के सिद्धांत हैं जो परमेश्वर ने मनुष्य को बताए हैं? क्या तुम लोग उन्हें ढूँढ़ सकते हो? लोग जो समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ और विभिन्न पुस्तकें पढ़ते हैं, उन सबमें कुछ ऐसे भाग होते हैं जिन्हें वे ध्यान देने योग्य समझते हैं। वे कौन-से भाग होते हैं? वे भाग जिनकी लोग परवाह करते हैं, वे भाग जो लोगों को सबसे महत्वपूर्ण लगते हैं और वे भाग जो वह महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं जिसे लोगों को अपने दैनिक जीवन में जानना आवश्यक है। तो परमेश्वर के वचनों के इस अंश के कौन-से भाग ध्यान देने योग्य हैं? कौन-से भाग परमेश्वर की लोगों से अपेक्षाएँ निर्धारित करते हैं? परमेश्वर ने दैनिक जीवन में परिस्थितियों का सामना करते समय अभ्यास और पालन करने के लिए लोगों को जो सिद्धांत निर्दिष्ट किए हैं वे किस भाग में हैं? क्या तुम लोग देख सकते हो कि वे कौन-से भाग हैं? (बहुत अच्छी तरह नहीं।) इसे दोबारा पढ़ो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो। विश्वास करो कि परमेश्वर अवश्य तुम्हारा सर्वशक्तिमान है! तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प होना चाहिए, तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तीव्रता से खोज करनी चाहिए। हिम्मत मत हारो। कमजोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतजार करो। परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग करो और अपनी आंतरिक बाधाओं से छुटकारा पाओ।”) क्या तुम लोग इस अंश की हर पंक्ति का अर्थ समझते हो? (हाँ।) यह अंश सरल शब्दों में लिखा गया है, जिन्हें समझना आसान है। यह अमूर्त नहीं है। इन वचनों का शाब्दिक अर्थ समझना आसान है, तो इनमें कौन-सा सिद्धांत निहित है? क्या तुम लोग इन वचनों को पढ़ते समय उसे ढूँढ़ सकते हो? सिद्धांत क्या होता है? अधिक मोटे तौर पर कहें तो परमेश्वर के वचन और सत्य ही सिद्धांत होते हैं। लेकिन इसे इस तरह से बताना काफी खोखला और थोड़ा अमूर्त भी लगता है। अधिक विशिष्ट रूप से कहें तो सिद्धांत अभ्यास का वह मार्ग और मानदंड होता है जो कार्य करते समय व्यक्ति के पास होना चाहिए। इसे ही हम सिद्धांत कहते हैं। तो अब इस अंश में क्या सिद्धांत है? सटीक रूप से कहें तो इस अंश में अभ्यास का एक मार्ग शामिल है। परमेश्वर लोगों को पहले ही बता चुका है कि जब उनके साथ चीजें घटित हों तो कैसे अभ्यास करना है और कैसे कार्य करना है। इस अंश को दोबारा पढ़ो और शब्दों को ध्यान से सुनो। (“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो। विश्वास करो कि परमेश्वर अवश्य तुम्हारा सर्वशक्तिमान है! तुम्हारे पास परमेश्वर के लिए जबरदस्त संकल्प होना चाहिए, तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तीव्रता से खोज करनी चाहिए। हिम्मत मत हारो। कमजोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरी लगन से इंतजार करो। परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग करो और अपनी आंतरिक बाधाओं से छुटकारा पाओ।”) तुम सभी इस अंश को तीन बार पढ़ चुके हो। क्या इसने तुम लोगों पर कुछ प्रभाव डाला है? इसे तीन बार पढ़ने के बाद क्या तुम लोग इस गीत को ज्यादा ध्यान दिए बिना सुनने से, जैसा कि तुम सामान्यतः करते हो, कुछ अलग महसूस करते हो? (हाँ।) इस अंश में तुम लोग अभ्यास के कौन-से सिद्धांत ढूँढ़ और समझ सकते हो? परमेश्वर यहाँ सत्य का कौन-सा पहलू सामने रखता है? सत्य का वह पहलू अभ्यास के एक सिद्धांत से संबंधित है लेकिन यहाँ सिद्धांत वास्तव में क्या है? वह किस तरह के वास्तविक मुद्दों को छूता है? पहली पंक्ति एक वास्तविक मुद्दे को छूती है—यह उन चीजों के बारे में बात करती है जिन्हें तुम नहीं समझते। इन चीजों में, जिन्हें तुम नहीं समझते, सत्य से संबंधित मुद्दे, तुम्हारा अभ्यास, स्वभावगत बदलाव, तुम्हारे कार्य-क्षेत्र से संबंधित समस्याएँ और अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारे द्वारा अनुभव की जाने वाली व्यक्तिगत दशाएँ, और साथ ही यह मुद्दा शामिल है कि लोगों के सार का भेद कैसे पहचाना जाए, इत्यादि। ऐसी चीजें वास्तव में तुम्हारे आस-पास होती हैं और तुमने उन्हें देखा और सुना है। लेकिन तुम उन मुद्दों के सार को या उन सत्यों को नहीं समझते जिन्हें वे छूते हैं, और तुम उनमें शामिल अभ्यास के मार्ग और सिद्धांतों को तो बिल्कुल भी नहीं जानते। स्वाभाविक रूप से तुम इस मामले में परमेश्वर के इरादे और ऐसी अन्य चीजें भी नहीं जानते। जब व्यक्ति इन चीजों को नहीं समझता, उनकी असलियत नहीं जानता या भाँप पाता, तो ये उसकी सबसे बड़ी कठिनाइयाँ बन जाती हैं और इन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर हल किया जाना चाहिए—“जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ।” ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें तुम नहीं समझते, इनमें बाहरी दुनिया और परमेश्वर के घर दोनों की चीजें शामिल हैं। चूँकि तुम इन चीजों को नहीं समझते, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? पहले तुम्हें सत्य खोजना चाहिए और देखना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों में क्या कहा गया है और इनमें कौन-से सत्य सिद्धांत मिल सकते हैं। तुम्हें परमेश्वर के वचन कई बार पढ़ते हुए सावधानीपूर्वक चिंतन करना चाहिए। पहले सत्य की वास्तविकता का पता लगाओ और फिर समझो कि परमेश्वर तुमसे क्या चाहता है, इसके बाद सत्य का अभ्यास करने के लिए सिद्धांत निर्धारित करो—इस ढंग से तुम्हारे लिए सत्य को समझना आसान हो जाएगा। सत्य खोजने के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ने की प्रक्रिया यही है। क्या तुम मेरी बात समझ पा रहे हो? (बिल्कुल।) परमेश्वर ने तुम्हारे परिवेश और तुम्हारे आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों का इंतजाम किया है। तो इसके प्रति परमेश्वर का क्या रवैया है? तुम इसे परमेश्वर के वचनों में देख सकते हो। परमेश्वर तुमसे कहता है कि समाधान के लिए अधीर मत हो, चीजों को परिभाषित करने, फैसला सुनाने या कोई निर्णय लेने में जल्दबाजी न करो। वह किसलिए? वो इसलिए कि तुम अभी तक उस घटना को समझ नहीं पाए हो जिसका इंतजाम परमेश्वर ने तुम्हारे लिए किया है। जब परमेश्वर तुमसे कहता है कि जल्दबाजी न करो तो इसका क्या मतलब होता है? इसका मतलब है कि यह घटना घटित हुई है, कि परमेश्वर ने इसे तुम्हारे सामने रखा है और तुम्हें इस परिवेश में रखा है और परमेश्वर का रवैया बहुत-ही स्पष्ट है। परमेश्वर तुमसे कहता है, “मुझे इस बात की कोई जल्दी नहीं है कि तुम जल्दी से यह समझ लो कि इस स्थिति में क्या हो रहा है। मुझे इस बात की कोई जल्दी नहीं है कि तुम तुरंत कोई फैसला सुनाओ, अपना निष्कर्ष दो या इसके लिए किसी तरह का समाधान प्रस्तावित करो।” यह मामला तुम्हारे लिए अनजाना है और तुम इसे नहीं समझते, यह ऐसी चीज है जिसका तुमने पहले कभी सामना नहीं किया है, और यह एक सबक है जिसे तुमने अभी तक नहीं सीखा है, इसके अलावा, तुम्हारे पास इसके संबंध में कोई अनुभवात्मक ज्ञान या व्यावहारिक अंतर्दृष्टि नहीं है और तुमने इसे पहले बिल्कुल भी अनुभव नहीं किया है, इसलिए परमेश्वर को इस बात की कोई जल्दी नहीं है कि तुम इसका उत्तर दो। कुछ लोग पूछते हैं : “जब परमेश्वर ने इस परिवेश का इंतजाम किया है, तो उसे इसके नतीजे देखने की जल्दी क्यों नहीं है?” इसमें भी परमेश्वर का इरादा निहित है। परिवेशों का इंतजाम करने में परमेश्वर का उद्देश्य यह नहीं है कि तुम उनके बारे में जल्दी से कोई सैद्धांतिक निर्णय ले लो या निष्कर्ष निकाल लो। परमेश्वर चाहता है कि तुम ऐसे परिवेश और घटना का अनुभव करो, और वह चाहता है कि तुम उसमें शामिल लोगों, घटनाओं और चीजों को समझो, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का सबक सीख सको। जब तुम ऐसी समझ और व्यक्तिगत अनुभव प्राप्त कर लेते हो, तो यह घटना तुम्हारे लिए सार्थक होगी और यह तुम्हारे लिए बहुत महत्व और मूल्य रखेगी। अंत में इस चीज का अनुभव करने के बाद तुम जो हासिल करोगे वह न तो कोई सिद्धांत होगा, न ही कोई धारणा, न ही कोई कल्पना, न ही कोई निर्णय, न ही अनुभवात्मक ज्ञान या मनुष्य द्वारा सारांशित कोई सबक, बल्कि यह एक व्यक्तिगत, प्रत्यक्ष अनुभव और इसका सच्चा ज्ञान होगा। यह ज्ञान सत्य के निकट या सत्य के अनुरूप होगा। ऐसी चीजों का अनुभव करके तुम यह देख पाओगे कि मनुष्य के प्रति परमेश्वर का रवैया बहुत स्पष्ट है और इसे इस तरह से व्यक्त किया गया है जिसे समझना आसान है। जैसा कि परमेश्वर इसे देखता है, उसे इस बात की कोई जल्दी नहीं कि तुम जल्दी से अपना उत्तर दो या अपनी प्रतिक्रिया सौंपो। परमेश्वर चाहता है कि तुम इस परिवेश का अनुभव करो। यही उसका रवैया है। और चूँकि यह परमेश्वर का रवैया है, इसलिए मनुष्य से उसका एक अपेक्षित मानक है। यह मानक एक सिद्धांत है, जिसका लोगों को अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास का सिद्धांत क्या है? यह वह तरीका, विधि और साधन है जिसे तुम तब काम में लाते हो जब तुम किसी विशिष्ट घटना का सामना करते हो। जब तुम किसी घटना के संबंध में परमेश्वर का इरादा और रवैया समझ लेते हो तो तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाएँ अभ्यास में लानी चाहिए। और परमेश्वर तुमसे क्या अपेक्षा करता है? परमेश्वर ने कहा, “समाधान के लिए अधीर मत हो।” इस “समाधान के लिए अधीर मत हो” की एक पृष्ठभूमि है। तो परमेश्वर मनुष्य से ऐसे मानक की अपेक्षा क्यों रखता है? क्या तुम इस बिंदु पर स्पष्ट हो? ऐसा इसलिए है कि तुम एक साधारण व्यक्ति हो। तुम कोई अतिमानव नहीं हो, तुम्हारी सोच एक सामान्य व्यक्ति की है। तुम एक मामूली आदमी हो। चाहे तुम चालीस, पचास या अस्सी साल तक जीवित रहो, तुम हमेशा बढ़ते रहोगे। तुम हमेशा वैसे नहीं रहते, जैसे तुम पैदा हुए थे। तुम्हारे वर्तमान अनुभव, अनुभवात्मक ज्ञान, समझ, वे चीजें जो तुम देखते-सुनते हो, तुम्हारे जीवन-अनुभव, इत्यादि—यह सब—और साथ ही वे सभी चीजें जो तुम अपने दिलो-दिमाग में जानते-समझते हो, ये सभी वर्षों के परिष्कार के संचयी नतीजे हैं। इसे कहते हैं सामान्य मानवता। यह परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए निर्धारित सामान्य मानव-विकास की प्रक्रिया है और यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। इसलिए जब तुम्हारा सामना किसी ऐसी चीज से होता है जिसे तुम नहीं समझते, ऐसी चीज जो तुम्हारे लिए अनजानी है, तो परमेश्वर तुमसे यह अपेक्षा नहीं करता कि तुम उसका तुरंत उत्तर दो और बहुत तेजी से उत्तर दो, मानो तुम एक रोबोट हो। चूँकि रोबोट सारी जानकारी फौरन अपनी स्मृति में डाल लेता है, इसलिए जब तुम उससे किसी चीज का जवाब माँगते हो, तो वह एक ही झटके में खोज के बाद जवाब दे देता है—बशर्ते वह जवाब उसकी स्मृति में उपलब्ध हो। सामान्य लोगों के साथ ऐसा नहीं है। भले ही उन्होंने पहले कुछ अनुभव किया हो, फिर भी जरूरी नहीं कि वह उनकी स्मृति में संगृहीत हो। जब लोगों की बात आती है तो उनके पास सिर्फ सामान्य मानवता से संबंधित चीजें ही होती हैं, जैसे अनुभवात्मक ज्ञान, अनुभव, जीवन-अनुभव और सच्चा प्रत्यक्ष ज्ञान, जो उन्हें अतिमानव, रोबोट और विशेष शक्तियों वाले मनुष्यों से अलग बनाते हैं।

सामान्य मानवता वाले लोगों को जो चाहिए और जो उनके पास होना चाहिए, इसी आधार पर परमेश्वर द्वारा लोगों से मानक अपेक्षित हैं और उसने अभ्यास का एक मार्ग बताया है। अभ्यास का वह मार्ग क्या है? जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो। यह तुम्हें बताता है कि तुम्हारा समाधान ढूँढ़ने में जल्दबाजी करना बेकार है। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो। भले ही तुम्हारे पास अपने पिछले अनुभवों से थोड़ा अनुभवात्मक ज्ञान और समझ हो, लेकिन अगर भविष्य में वही चीज फिर से घटित हो तो जरूरी नहीं कि तुम परमेश्वर का इरादा पूरी तरह से समझने में सक्षम रहो, पूर्णतः सत्य के अनुरूप अभ्यास करो या सौ-प्रतिशत सफल रहो। इसकी संभावना तब तो बिल्कुल भी नहीं होती, जब बात उन चीजों की आती है जिन्हें तुम नहीं समझते, इसलिए उन परिस्थितियों में तो तुम्हें समाधान खोजने में बिल्कुल भी जल्दी नहीं करनी चाहिए। समाधानों के लिए अधीर मत हो वाला निर्देश लोगों को क्या बताता है? इसका उद्देश्य लोगों को सामान्य मानवता समझाना है। सामान्य मानवता कोई अपवाद स्वरूप, असाधारण या विशेष नहीं होती। लोगों की समझ, अनुभवात्मक ज्ञान, पहचान और विभिन्न चीजों की समझ, और साथ ही तमाम तरह के लोगों के सार पर उनके विचार, ये सब विभिन्न परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीजों के उनके अनुभव के माध्यम से हासिल किए जाते हैं। यह सामान्य मानवता है। इसमें कुछ भी इंद्रियातीत नहीं है और यह एक ऐसी बाधा है जिसे कोई भी व्यक्ति लाँघ नहीं सकता। अगर तुम परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए बनाए गए इन कानूनों से परे जाना चाहते हो, तो यह सामान्य नहीं होगा। एक ओर, यह सिर्फ यह दिखाएगा कि तुम नहीं जानते कि सामान्य मानवता क्या है। दूसरी ओर, यह तुम्हारा अत्यधिक अहंकार और तुम्हारी अव्यावहारिकता प्रकट करेगा। परमेश्वर ने लोगों से कहा है कि जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो। चूँकि तुम एक सामान्य व्यक्ति हो, इसलिए तुम्हें इस बात की आवश्यकता है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए अधिक परिवेशों का इंतजाम करे, ताकि तुम उनमें दिखने वाली मनुष्य की भ्रष्टता अनुभव कर सको, उसे समझ और पहचान सको, और इन लोगों, घटनाओं और चीजों के जरिए परमेश्वर के इरादे भी समझ सको। सामान्य मानवता वाले लोगों को यही करना चाहिए। तो अब, “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो” में अभ्यास का कौन-सा मार्ग खोजा जा सकता है? (समाधान के लिए अधीर मत हो।) जब व्यक्ति किसी स्थिति का सामना करता है और उसकी असलियत नहीं जान या समझ पाता, जब उसने पहले कभी इसका सामना नहीं किया होता या इसके बारे में सोचा नहीं होता, और जब उसके लिए यह कल्पना करना तक असंभव होता है कि इंसानी धारणाओं पर निर्भर रहकर इस मामले को कैसे हल किया जाए, तो उसे क्या करना चाहिए? वह कौन-सा सिद्धांत है, जिसकी परमेश्वर माँग करता है? (समाधान के लिए अधीर मत हो।) परमेश्वर ने तुमसे इसकी माँग की है, तो तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? तुम्हें ऐसी चीजों को किस रवैये से देखना चाहिए? जब सामान्य मानवता वाले लोग ऐसी चीजों का सामना करते हैं जिनकी असलियत वे नहीं जान सकते, जिन्हें वे नहीं समझ सकते और जिनका उन्हें कोई अनुभव नहीं होता, या ऐसी परिस्थितियों का भी, जिनमें वे पूरी तरह से असहाय होते हैं, तो उन्हें पहले एक उचित रवैया अपनाकर कहना चाहिए, “मुझे इस तरह की चीज समझ में नहीं आती है, मैं इसकी असलियत नहीं समझता और मुझे इसका कोई अनुभव नहीं है, न ही मैं यह जानता हूँ कि क्या करना है। मैं बस एक साधारण व्यक्ति हूँ, इसलिए मैं जो हासिल कर सकता हूँ, उसकी सीमाएँ हैं। कुछ चीजों की असलियत जानने या इन्हें समझने में असमर्थ होने में कोई शर्म की बात नहीं है और उनके अनुभव की कमी होने में निश्चित रूप से कोई शर्म की बात नहीं है।” जब तुम्हें यह एहसास हो जाता है कि यह शर्मनाक नहीं है तो क्या मामला यहीं खत्म हो जाता है? क्या समस्या का समाधान हो जाता है? शर्मिंदा होने की चिंता न करना तो सिर्फ एक समझ और एक रवैया है जिसे लोग ऐसी चीजों के प्रति अपना सकते हैं। यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करने जैसा नहीं है। तो फिर व्यक्ति परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कैसे अभ्यास कर सकता है? मान लो, तुम मन-ही-मन सोचते हो, “मैंने पहले कभी इस तरह की चीज का अनुभव नहीं किया है और मैं इसकी असलियत नहीं जानता। मैं नहीं जानता कि परमेश्वर द्वारा ऐसे परिवेश के इंतजाम का क्या अर्थ है या इससे क्या परिणाम प्राप्त होना है। मैं परमेश्वर का रवैया भी नहीं जानता। इसलिए मुझे इसके बारे में परेशान होने की कोई जरूरत नहीं दिखती। मैं बस इसे स्वाभाविक रूप से होने दूँगा और इसे नजरअंदाज कर दूँगा”—ऐसे रवैये के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह सत्य खोजने का रवैया है? क्या यह परमेश्वर के इरादों के अनुसार अभ्यास करने का रवैया है? क्या यह परमेश्वर के वचनों का पालन करने का रवैया है? (नहीं।) अन्य लोग ऐसी स्थिति का सामना करने पर मन-ही-मन सोचते हैं, “मैं इस मामले की असलियत नहीं जानता या इसे समझ नहीं सकता, और मैंने पहले कभी इसका अनुभव नहीं किया है। यह मेरी विश्वविद्यालयी कक्षाओं में कभी शामिल नहीं था। मेरे पास स्नातकोत्तर डिग्री, पीएच.डी. है और मैंने एक प्रोफेसर के रूप में भी काम किया है—अगर मैं इसे नहीं समझ सकता तो फिर कौन समझ सकता है? क्या हर किसी को यह बताना बहुत शर्मनाक नहीं होगा कि मैं इसकी असलियत नहीं जानता और मुझे इसका कोई अनुभव नहीं है? क्या वे सब मेरा तिरस्कार नहीं करेंगे? नहीं, मैं यह नहीं कह सकता कि यह कोई ऐसी चीज है जिसकी असलियत मैं नहीं जानता। मुझे कहना चाहिए, ‘इस तरह के मामलों में परमेश्वर के वचनों पर ध्यान दो, खोजो और तुम्हें उत्तर मिल जाएगा।’ मैं यह स्वीकार करने के बजाय मरना पसंद करूँगा कि मैं इस मामले की असलियत नहीं जानता या इसे समझ नहीं सकता।” तुम इस रवैये के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा नहीं है।) यह व्यक्ति खुद को क्या समझता है? वह समझता है कि वह एक संत है, एक पूर्ण व्यक्ति है। वह सोचता है, “क्या वास्तव में ऐसी चीजें हो सकती हैं, जिन्हें मैं, एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय-छात्र, एक नामी विद्वान, स्नातकोत्तर और पीएच.डी. डिग्री-धारी, एक महान और प्रसिद्ध हस्ती, नहीं समझ सकता या उनकी असलियत नहीं देख सकता हूँ? असंभव! और अगर हैं भी, तो भी वे ऐसी चीजें होंगी जिन्हें तुममें से कोई नहीं समझ सकता, इसलिए यह कोई समस्या नहीं है। अगर मैं इसकी असलियत नहीं भी जान सका तो भी मैं निश्चित रूप से तुम लोगों को इसका पता नहीं चलने दूँगा। ‘मैं इसकी असलियत नहीं जान सकता,’ ‘मैं इसे नहीं समझता,’ ‘मैं नहीं कर सकता,’ ऐसे शब्द मेरे मुँह से कभी नहीं निकलने चाहिए!” यह किस तरह का व्यक्ति है? (एक अहंकारी व्यक्ति।) यह एक अहंकारी और दंभी व्यक्ति है, जिसमें विवेक की कमी है। अगर इस तरह का व्यक्ति “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो” वचन पढ़ता है तो क्या उसे अभ्यास का मार्ग प्राप्त होगा? क्या उसे प्रेरणा की कोई चिंगारी मिलेगी? अगर नहीं, तो उसका ये वचन पढ़ना व्यर्थ हो जाएगा। ये वचन सरल ढंग से लिखे गए हैं और समझने में आसान हैं, तो वह इन्हें समझ क्यों नहीं सकता? तुमने शब्द पढ़ने और जानने में जो तमाम साल बिताए, वे बेकार गए। अगर तुम इन सरल और स्पष्ट वचनों को समझ तक नहीं सकते तो फिर तुम सच में बेकार हो!

अब, आओ इस बात पर एक और नजर डालते हैं कि “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो” पंक्ति में अभ्यास का कौन-सा मार्ग निहित है। सबसे पहले, तुम्हें समाधानों के लिए अधीर न होने का रवैया अपनाना चाहिए और उसके बजाय, पहले यह पहचानो कि तुम्हारी आंतरिक क्षमताएँ क्या हासिल कर सकती हैं, पहचानो कि सामान्य मानवता क्या होती है, और समझो कि जब परमेश्वर सामान्य मानवता की बात करता है तो उसका क्या मतलब होता है। तुम्हें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर का वास्तव में यह कहने का क्या मतलब है कि वह नहीं चाहता कि लोग अतिमानव या उत्कृष्ट, असाधारण व्यक्ति बनें, और कि वह चाहता है कि वे बस आम आदमी बनें। तुम्हें पहले ये चीजें समझनी चाहिए। जिन चीजों को तुम नहीं समझते हो, उन्हें जानने का दिखावा करना बेकार है। वरना चाहे तुम कितना भी दिखावा कर लो, फिर भी उन्हें नहीं जान पाओगे। भले ही तुम अन्य सभी को मूर्ख बना लो लेकिन परमेश्वर को धोखा नहीं दे पाओगे। जब ऐसी चीजें तुम पर आन पड़ती हैं और तुम उन्हें नहीं समझते तो बस यह कहो कि तुम उन्हें नहीं समझते। तुम्हारा रवैया ईमानदार और हृदय भक्तिपूर्ण होना चाहिए और तुम्हें अपने आस-पास के लोगों को यह देखने देना चाहिए कि ऐसी चीजें हैं, जिन्हें तुम नहीं जानते और जिनकी असलियत नहीं समझ सकते, ऐसी चीजें जिनका तुमने पहले अनुभव नहीं किया है, और कि तुम सिर्फ एक साधारण व्यक्ति हो, किसी दूसरे से अलग नहीं हो। इसमें शर्म की कोई बात नहीं। यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है और तुम्हें यह तथ्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हें इस तथ्य को स्वीकार लेने के बाद फिर क्या करना चाहिए? यह कहते हुए इसे सबको बताओ, “मैंने पहले इस चीज का कभी अनुभव नहीं किया है, मैं इसकी असलियत नहीं समझ सकता और मुझे नहीं पता कि क्या करना है। मैं तुम लोगों जैसा ही हूँ, हालाँकि संभव है कि मैं एक क्षेत्र में तुम लोगों से आगे रहूँ : मैंने रोशनी देख ली है और परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग पा लिया है, मुझे आशा मिल चुकी है और मैं जानता हूँ कि अभ्यास कैसे करना है।” यह आशा कहाँ निहित है? यह परमेश्वर के इन वचनों में निहित है : “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो।” इसका मतलब है मामले पर गंभीरता से विचार करना और इस पर खोज करने के लिए समय-समय पर इसे परमेश्वर के सामने लाना। तुम्हें इस मामले को अपने दिल में रखना चाहिए, इसमें सत्य और परमेश्वर का इरादा समझने के लिए इसे एक तरह के दायित्व में बदलना चाहिए, और इसे अपनी जिम्मेदारी में और अपनी खोज की दिशा और लक्ष्य में बदलना चाहिए। अगर तुम इस तरह से अभ्यास करते हो तो तुम परमेश्वर के सामने आओगे, अपनी समस्या का समाधान कर पाओगे और इन वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके होगे। तुम्हें विशेष रूप से इसका अभ्यास कैसे करना चाहिए? तुम्हें प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आना चाहिए और सभाओं में संगति करते समय सबके साथ इस मामले को साझा करने और इस पर संगति और चिंतन करने के अवसर भी ढूँढ़ने चाहिए। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो।” तुम्हारा हृदय ईमानदार और सच्चा होना चाहिए। तुम्हें बस यंत्रवत या लापरवाही से कार्य नहीं करना चाहिए और तुम जो कहते हो उसमें ईमानदारी होनी चाहिए। तुम्हें यह बीड़ा उठाना चाहिए और अपने सीने में ऐसा दिल रखना चाहिए जिसमें धार्मिकता के लिए भूख और प्यास हो, जो इस मामले में परमेश्वर का इरादा और इस मामले का सार समझना चाहता हो और साथ ही इस मामले का सामना करने पर लोगों को जिन समस्याओं और भ्रम का सामना करना पड़ता है, उनका और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव या विभिन्न असामान्य दशाओं जैसी समस्याओं का भी समाधान करना चाहता हो। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो।” यह अभ्यास का एक संपूर्ण मार्ग है जो परमेश्वर ने मनुष्य को बताया है। तुम इस पंक्ति में क्या देखते हो? यही न कि मनुष्य के लिए परिवेशों का इंतजाम करने में परमेश्वर का उद्देश्य एक ओर लोगों को अनेक तरीकों से विभिन्न चीजों का अनुभव करने, उनसे सबक सीखने, परमेश्वर के वचनों में निहित विभिन्न सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने देना, लोगों के अनुभव समृद्ध करना और उन्हें परमेश्वर की, अपनी, अपने परिवेशों और मानव-जाति की अधिक व्यापक और बहुआयामी समझ हासिल करने में मदद करना है। दूसरी ओर, परमेश्वर लोगों के लिए कुछ विशेष परिवेश का इंतजाम करके और उनके लिए कुछ विशेष सबकों की व्यवस्था करके यह चाहता है कि वे उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाए रखें। इस ढंग से लोग बार-बार उसके सामने आते हैं, बजाय इसके कि वे परमेश्वर विहीन स्थिति में रहें और यह कहें कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं पर कार्य उस तरह से करते हों जिसका परमेश्वर या सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, जिससे परेशानी होगी। इसलिए परमेश्वर द्वारा इंतजाम किए गए परिवेशों में लोग वास्तव में स्वयं परमेश्वर द्वारा उनकी अनिच्छा से और निष्क्रिय रूप से परमेश्वर के सामने लाए जाते हैं। यह परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादों को दर्शाता है। जितनी अधिक तुममें किसी मामले में समझ की कमी हो, उतना ही अधिक तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला और भक्तिपूर्ण हृदय होना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के इरादे और सत्य खोजने के लिए बार-बार परमेश्वर के सामने आना चाहिए। जब तुम चीजों को नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। जब तुम्हारे सामने ऐसी चीजें आती हैं जिन्हें तुम नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर से यह कहने की आवश्यकता होती है कि वह तुम पर अधिक कार्य करे। यही परमेश्वर का श्रमसाध्य इरादा कहलाता है। जितना अधिक तुम परमेश्वर के सामने आते हो, उतना ही अधिक तुम्हारा दिल परमेश्वर के करीब होगा। और क्या यह सच नहीं कि तुम्हारा दिल परमेश्वर के जितना करीब होता है, उतना ही अधिक परमेश्वर उसके भीतर रहेगा? जितना अधिक परमेश्वर व्यक्ति के दिल में रहता है, उतना ही बेहतर उसका अनुसरण, उसके चलने का मार्ग और उसके हृदय की अवस्था बनती है। परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता जितना घनिष्ठ होगा, उतना ही तुम्हारे लिए अक्सर परमेश्वर के सामने आकर सच्चे दिल से प्रार्थना करना आसान होगा और परमेश्वर में तुम्हारी आस्था उतनी ही अधिक वास्तविक हो जाएगी। साथ ही, तुम्हारा जीवन, तुम्हारे कार्य और तुम्हारा स्व-आचरण संयमित हो जाएगा। ऐसा संयम कैसे उत्पन्न होता है? यह तब उत्पन्न होता है, जब लोग अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, सत्य खोजते हैं और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारते हैं। यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। तो किस संदर्भ और किन स्थितियों में व्यक्ति परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार सकता है? (जब उसका परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता हो।) सही कहा, जब उसका परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता हो। अगर तुम्हारा परमेश्वर के साथ सामान्य रिश्ता है तो क्या इसका यह मतलब नहीं होगा कि परमेश्वर तुम्हारे हृदय में है और तुम उसके बहुत करीब हो? इसका यह मतलब होगा कि तुम्हारे हृदय में हमेशा परमेश्वर का एक स्थान है और परमेश्वर तुम्हारे हृदय में एक बहुत ही प्रमुख स्थान रखता है। नतीजतन, तुम हमेशा परमेश्वर के बारे में सोचोगे, परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचोगे, परमेश्वर की पहचान और सार के बारे में सोचोगे, परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में सोचोगे और परमेश्वर की हर चीज के बारे में सोचोगे। ठेठ मुहावरे में कहें तो तुम्हारा हृदय परमेश्वर से लबालब भर जाएगा और तुम्हारे हृदय में परमेश्वर का बहुत ऊँचा स्थान होगा। अगर तुम्हारा हृदय परमेश्वर से भरा है, तो तुम्हारा परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता होगा, तुम परमेश्वर के हाथों अपनी जाँच स्वीकार पाओगे, और साथ ही तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय भी होगा। तभी तुम संयम से काम ले पाओगे। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ” एक सरल वाक्य है, लेकिन इसमें अर्थ की कई परतें हैं। इसमें मानवजाति के लिए परमेश्वर के इरादे और वह रवैया शामिल है, जिसके साथ परमेश्वर लोगों से कार्य करने की अपेक्षा करता है, साथ ही यह वाक्य मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ भी बताता है। तो मानवजाति से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? यही कि तुम हार मत मानो, भागो नहीं या अपने ऊपर पड़ने वाली चीजों के प्रति उदासीन रवैया मत अपनाओ। अगर तुम्हारा सामना किसी ऐसी चीज से होता है जिसे तुम नहीं समझते और जिसकी असलियत नहीं जान पाते या जिस पर तुम विजय नहीं पा सकते या जो तुम्हें कमजोर तक बना देती है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? समाधान के लिए अधीर मत हो। परमेश्वर लोगों से उनकी क्षमताओं से परे अपेक्षा नहीं रखता। परमेश्वर कभी लोगों से ऐसी चीजें करने की अपेक्षा नहीं करता, जो इंसानी क्षमताओं के दायरे से परे हों। परमेश्वर तुमसे जो करवाना चाहता है और जो चीजें वह तुमसे चाहता है, वे सभी वे चीजें हैं जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोगों द्वारा हासिल, प्राप्त और पूरा किया जा सकता है। इसलिए मनुष्य से परमेश्वर जिन मानकों की अपेक्षा करता है, वे जरा भी खोखले या अस्पष्ट नहीं हैं। मनुष्य के लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ उस मानक से अधिक कुछ नहीं हैं, जिसमें वह दायरा शामिल है जिसे सामान्य मानवता वाले लोग हासिल कर सकते हैं। अगर तुम हमेशा अपनी कल्पनाओं का अनुसरण करते हो और दूसरों से बेहतर, श्रेष्ठ और अधिक सक्षम बनना चाहते हो, अगर तुम हमेशा दूसरों से बेहतर प्रदर्शन करना चाहते हो तो फिर तुमने परमेश्वर का अर्थ गलत समझा है। अहंकारी और आत्मतुष्ट लोग अक्सर ऐसे ही होते हैं। परमेश्वर कहता है कि समाधान के लिए अधीर मत हो, वह कहता है कि सत्य खोजो और सिद्धांतों के साथ कार्य करो, लेकिन अहंकारी और आत्मतुष्ट लोग परमेश्वर की इन अपेक्षाओं पर ध्यानपूर्वक विचार नहीं करते। इसके बजाय, वे चीजों को ताकत और ऊर्जा के विस्फोट के साथ पूरा करने, चीजों को साफ-सुथरे और सुंदर तरीके से करने और पलक झपकते ही बाकी सबसे आगे निकलने की कोशिश करने पर जोर देते हैं। वे अतिमानव बनना चाहते हैं और साधारण इंसान बनने से इनकार करते हैं। क्या यह प्रकृति के उन नियमों के विरुद्ध नहीं है जो परमेश्वर ने मनुष्य के लिए बनाए हैं? (बिल्कुल।) जाहिर है, वे सामान्य लोग नहीं हैं। उनमें सामान्य मानवता का अभाव है और वे बहुत अहंकारी हैं। वे उन अपेक्षाओं की उपेक्षा करते हैं, जो सामान्य मानवता के दायरे में आती हैं और जिन्हें परमेश्वर ने मानवजाति के लिए सामने रखा है। वे उन मानकों की उपेक्षा करते हैं जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोग प्राप्त कर सकते हैं और जिन्हें परमेश्वर ने मानवजाति के लिए निर्धारित किया है। इसलिए वे परमेश्वर की अपेक्षाओं का तिरस्कार कर सोचते हैं, “परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत कम हैं। परमेश्वर के विश्वासी सामान्य लोग कैसे हो सकते हैं? वे असाधारण लोग होने चाहिए, ऐसे व्यक्ति जो आम लोगों से श्रेष्ठ होते हैं और उनसे आगे निकल जाते हैं। वे महान और प्रसिद्ध व्यक्ति होने चाहिए।” वे यह सोचते हुए परमेश्वर के वचनों की उपेक्षा करते हैं कि भले ही परमेश्वर के वचन सही और सत्य हैं, फिर भी वे बहुत सामान्य और साधारण हैं, इसलिए वे उसके वचनों को नजरअंदाज कर उन्हें तुच्छ समझते हैं। लेकिन ठीक इन्हीं सामान्य और साधारण वचनों में, जो उन तथाकथित महामानवों और महान हस्तियों द्वारा इतने तिरस्कृत हैं, परमेश्वर वे सिद्धांत और मार्ग इंगित करता है, जिनका लोगों को पालन और अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर के वचन बहुत ईमानदार, वस्तुनिष्ठ और व्यावहारिक हैं। वे लोगों से ऊँची माँग बिल्कुल नहीं करते। वे सब वे चीजें हैं, जिन्हें लोग हासिल कर सकते हैं और जो उन्हें हासिल करनी चाहिए। अगर लोगों में थोड़ा-सा भी सामान्य विवेक है तो उन्हें हवा में उड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, इसके बजाय उन्हें अपने पैर जमीन पर मजबूती से टिकाकर परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकारना चाहिए, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने चाहिए, परमेश्वर के सामने जीना चाहिए और सत्य को स्व-आचरण और कार्यों का सिद्धांत मानना चाहिए। उन्हें अति महत्वाकांक्षी नहीं होना चाहिए। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ” पंक्ति में लोगों को और भी अधिक समझना चाहिए कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और सत्य वे सिद्धांत हैं जिनका लोगों को अभ्यास करना चाहिए। यहाँ “लोगों” का तात्पर्य किससे है? यह सामान्य लोगों को संदर्भित करता है, जिनमें सामान्य तार्किकता और सामान्य विवेक होता है, जो सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, और जो समझते हैं कि क्या वस्तुनिष्ठ है, क्या व्यावहारिक है, क्या सामान्य है और क्या साधारण है। “ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ” वचनों का स्वाद लेने के लिए समय निकालो। भले ही ये सीधे-सादे, साधारण वचन हैं लेकिन ये ऐसी चीज का वर्णन करते हैं जिसे सामान्य मानवता का विवेक रखने वाले लोगों को करने में सक्षम होना चाहिए और ये ऐसे सत्य सिद्धांत भी हैं जिनका सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को अपने वास्तविक जीवन में कठिनाइयों का सामना करने पर सबसे अधिक अभ्यास करना चाहिए। ये वे सत्य हैं जिनकी उन लोगों को सबसे अधिक आवश्यकता होती है, जिनमें सामान्य मानवता का विवेक है। ये खोखले वचन बिल्कुल नहीं हैं। इन साधारण वचनों को तुम लोग कई बार गा और सुन चुके हो लेकिन तुममें से किसी ने भी इन वचनों को सावधानीपूर्वक विचार करने और ध्यान से संगति करने के लिए सत्य नहीं माना। इस तरह तुमने इन अनमोल वचनों को अपने हाथों से फिसल जाने दिया है। असल में इन वचनों में परमेश्वर के इरादे, लोगों के लिए परमेश्वर के अनुस्मारक और चेतावनियाँ और लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ शामिल हैं। इनमें इतना कुछ है। लोग हृदयहीन और विवेकहीन हैं और वे इन वचनों को साधारण वचन मानते हैं; वे इन्हें सँजोकर नहीं रखते, इन पर विचार या इनका अभ्यास नहीं करते, तो फिर अंत में इसके कारण कष्ट सहने और नुकसान उठाने वाले कौन होंगे? खुद लोग होंगे। क्या यह एक सबक नहीं है?

परमेश्वर ने इस अंश में जो अपेक्षाएँ तय की हैं, उनका अभ्यास सामान्य लोगों के लिए बहुत आसान है। इस अभ्यास में कुछ भी कठिन या थकाऊ नहीं है और यह प्रभावी है। अंततः यह तुम्हें आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ने और प्रगति करने में सक्षम बना सकता है। निस्संदेह, तुम्हारे द्वारा “समाधान के लिए अधीर मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो” का सिद्धांत अभ्यास में लाए जाने के बाद तुम सत्य, स्वभावगत परिवर्तन, विभिन्न परिवेशों का अनुभव करने से प्राप्त समझ आदि के संदर्भ में प्रगति करोगे। ये वचन कितने अद्भुत हैं! अगर लोगों में विवेक है और वे इन वचनों को अभ्यास में लाते हैं, तो परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और निर्देशन के तहत उन्हें पता चल जाएगा कि विभिन्न परिवेशों का इंतजाम करते समय परमेश्वर के इरादे क्या होते हैं। कुछ समय के बाद वे अंततः उन परिवेशों में मिलने वाले लाभ बटोरने, अनुभव प्राप्त करने और सत्य को समझने में सक्षम होंगे। जब तुम ऐसे लाभ बटोरते हो तो तुम्हें पता चल जाता है कि परमेश्वर ने इन परिवेशों का इंतजाम क्यों किया है, परमेश्वर के इरादे क्या हैं और परमेश्वर लोगों को उनसे क्या हासिल करवाना चाहता है। इसके अलावा, लोग जिन चक्करदार मार्गों पर भटकते हैं, वे जो असफलताएँ अनुभव करते हैं, वे जो विकृत समझ रखते हैं, उनके जो अयथार्थपरक विचार होते हैं, उनके भीतर परमेश्वर के प्रति जो धारणाएँ और प्रतिरोध पैदा हुआ होता है, इत्यादि, वे सब इन परिवेशों का अनुभव करने पर धीरे-धीरे उजागर और प्रकट हो जाएँगे। ये चीजें चाहे सकारात्मक हों या नकारात्मक, इन परिवेशों के माध्यम से जो उजागर और प्रकट होता है, उसे स्पष्ट रूप से देखने और समझने के लिए अनुभव की अवधि लगती है। इस तरह, परमेश्वर के वचनों “जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के समाधान के लिए अधीर मत हो” का वास्तविक अर्थ पूरा हो जाता है। अर्थात जब परमेश्वर किसी ऐसी चीज का इंतजाम करता है जिसकी तुम असलियत नहीं जान सकते या जिसे समझ नहीं पाते और जिसका तुमने पहले अनुभव नहीं किया होता, तो उस स्थिति से जो चीजें परमेश्वर चाहता है कि तुम समझो, प्राप्त करो और व्यक्तिगत रूप से अनुभव करो, उन्हें महज चंद दिनों में प्राप्त नहीं किया जा सकता। कुछ समय लगने पर ही और हर कदम पर परमेश्वर के निर्देशन, प्रबोधन और मार्गदर्शन के साथ ही तुम धीरे-धीरे समझ हासिल करोगे और नतीजे प्राप्त करोगे। यह वैसा नहीं है जैसा लोग कल्पना करते हैं, तुम प्रबुद्धता के एक विस्फोट में अचानक सब-कुछ नहीं समझ जाते या अचानक प्रेरणा कौंधने से यह नहीं जान जाते कि परमेश्वर का क्या मतलब है। परमेश्वर अलौकिक ढंग से ऐसी चीजें नहीं करता, परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। जिस तरीके से परमेश्वर कार्य करता है वह इस प्रकार है। परमेश्वर तुम्हें किसी स्थिति के कारणों और परिणामों का अनुभव करने देता है और तुम धीरे-धीरे यह जान जाते हो : “तो ऐसे व्यक्ति का सार ऐसा है, और ऐसी चीज की वास्तविकता और सार ऐसा है, और यह परमेश्वर के वचनों की अमुक पंक्ति पूरी करता है। आखिरकार मैं समझ गया हूँ कि जब परमेश्वर ने ऐसा कहा, तो उसका क्या मतलब था। आखिरकार मैं समझ गया हूँ कि परमेश्वर ने ऐसे मामलों और ऐसे लोगों के बारे में ऐसी चीजें क्यों कहीं।” परमेश्वर तुम्हें अपने अनुभवों के माध्यम से ऐसी अनुभूतियाँ प्राप्त करने देता है। क्या इन चीजों को समझने में कुछ समय नहीं लगता? (हाँ, लगता है।) अनुभव की एक अवधि के माध्यम से तुम जो ज्ञान प्राप्त करते हो और जो सत्य समझते हो, वे सिद्धांत या सैद्धांतिक चीजें नहीं हैं, बल्कि तुम्हारे व्यक्तिगत अनुभव और सच्चा ज्ञान हैं। यही वह सत्य वास्तविकता है जिसमें तुम प्रवेश करते हो। इसी में परमेश्वर के इन वचनों “समाधान के लिए अधीर मत हो” का कारण और स्रोत निहित है। जब परमेश्वर तुम्हें अपनी अनुभव की गई घटनाओं से लाभ बटोरने की अनुमति देता है तो वह नहीं चाहता कि तुम सिर्फ एक प्रक्रिया से गुजरो या एक सिद्धांत सीखो, बल्कि यह चाहता है कि तुम एक समझ, कुछ ज्ञान, एक सकारात्मक दृष्टिकोण और अभ्यास का एक सही तरीका प्राप्त करो। भले ही इस अंश में सिर्फ कुछ पंक्तियाँ हैं और इसमें बहुत अधिक विषयवस्तु नहीं है, फिर भी इस अंश में परमेश्वर ने जो अपेक्षाएँ रखी हैं और इसके माध्यम से वह लोगों को अभ्यास के जो सिद्धांत देता है, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं। लोगों को परमेश्वर के वचनों को उसी रवैये के साथ नहीं लेना चाहिए, जो रवैया वे इंसानी ज्ञान और सिद्धांतों के प्रति अपनाते हैं। परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने के लिए तुम्हारे पास सिद्धांत होने चाहिए। इसका मतलब यह है कि जब तुम एक निश्चित तरह की स्थिति का सामना करते हो, तो तुम्हारे पास अभ्यास में लाने के लिए एक सिद्धांत, एक तरीका होना चाहिए। सत्य का अभ्यास करने का यही अर्थ है। इसे ही हम सिद्धांत कहते हैं। इसलिए ये कुछ सरल शब्द भर नहीं हैं। भले ही इन्हें जिस तरह से व्यक्त और प्रस्तुत किया गया है, वह सरल और सुगम है, और ये वचन बहुत सीधे लगते हैं, और ये सुंदर, लच्छेदार भाषा या सजीले शब्दों या परिष्कृत वाक्-शैली से सुशोभित नहीं हैं, और ये निश्चित रूप से दूसरों को नीचा जताने वाले स्वर में नहीं बोले जाते, बल्कि ये आमने-सामने और आत्मीय ढंग से कही गई सिर्फ ईमानदार चेतावनियाँ और अपेक्षाएँ हैं, फिर भी ये वास्तव में लोगों को अभ्यास के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत और मार्ग बताते हैं।

बहुत-से लोग परमेश्वर के कहे सबसे साधारण वचनों को कभी गंभीरता से नहीं लेते। वे परमेश्वर के गहन और रहस्यमय वचनों को ही उसके वचन मानते हैं। क्या यह विकृत समझ का प्रकटीकरण नहीं है? परमेश्वर के वचनों का हर वाक्य सत्य है। चाहे वे साधारण वचन हों या गहन वचन, परमेश्वर के सभी वचनों में सत्य और रहस्य हैं जिन्हें समझने और जानने के लिए वर्षों का अनुभव और एक निश्चित आध्यात्मिक कद चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे तुम लोगों के अभी-अभी गाए भजन में परमेश्वर के अच्छे और महत्वपूर्ण वचन शामिल हैं—कोई भी उन वचनों को गंभीरता से नहीं लेता। भले ही वे संगीत पर आधारित हैं और सभी उन्हें वर्षों से गा रहे हैं, फिर भी किसी ने भी अभ्यास का वह सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत नहीं पाया है जो उनमें निहित है। भले ही कुछ लोगों को अपनी चेतना में यह एहसास हो कि परमेश्वर के वचन उनसे यह कहते प्रतीत होते हैं, “समाधान के लिए अधीर मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उसे सच्चा दिल अर्पित करो,” और भले ही वे यह महसूस करें कि ये वे अपेक्षाएँ हैं जो परमेश्वर ने लोगों से की हैं, फिर भी किसने कभी अपने वास्तविक जीवन में परमेश्वर के इन वचनों का सच में अभ्यास, कार्यान्वयन और इनकी वास्तविकता में प्रवेश किया है। क्या किसी ने ऐसा किया है? (नहीं।) किसी ने ऐसा नहीं किया है। परमेश्वर के ये वचन बहुत सरल हैं लेकिन कोई भी इनका अनुसरण नहीं कर पाता। क्या इसमें कोई मूलभूत समस्या निहित नहीं है? (हाँ, इससे पता चलता है कि लोग सत्य से विमुख हैं।) और कुछ? (परमेश्वर ने हमें ये जो वचन सुनाए हैं, ये बहुत व्यावहारिक हैं। ये सब सिद्धांत के वचन हैं। लेकिन हमने परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से नहीं लिया है, हमने उन पर ध्यान नहीं दिया है और हम उन्हें अभ्यास में नहीं लाए हैं।) तो तुम लोग आम तौर पर परमेश्वर के वचन कैसे पढ़ते हो? (हम परमेश्वर के वचनों को आम तौर पर सरसरी तौर पर पढ़ते हैं। इन वचनों का शाब्दिक अर्थ समझने के बाद हम आगे बढ़ जाते हैं। हम यह नहीं समझते कि इन वचनों में परमेश्वर के इरादे क्या हैं या हमें सत्य के किन सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए। हमने इन पर इस तरह ध्यान से विचार नहीं किया है।) तुम लोगों ने कुछ सैद्धांतिक विचारों के साथ उत्तर दिया है और तुम जो कहते हो, वह सही लगता है, लेकिन तुम लोग इसका मूल कारण अच्छी तरह नहीं समझे, जो यह है कि लोग परमेश्वर के वचन सँजोकर नहीं रखते। अगर तुम परमेश्वर के वचन सँजोकर रखोगे तो तुम उनमें मौजूद खजाना, सोना और हीरे खोज पाओगे और जीवनभर इन चीजों का आनंद ले सकोगे। अगर तुम परमेश्वर के वचन सँजोकर नहीं रखते तो तुम यह खजाना प्राप्त नहीं कर पाओगे। परमेश्वर के वचन सँजोकर न रखने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम परमेश्वर के वचनों को सँजोते नहीं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के बहुत सारे वचन हैं और वे सभी सत्य हैं, और तुम नहीं जानते कि उनमें से किसे सँजोकर रखना है। तुम्हें लगता है कि वे सब साधारण हैं, और इसका मतलब है परेशानी। परमेश्वर के वचन सँजोकर रखने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम जानते हो कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं और ये सत्य लोगों के जीवन और उनके जीने के लिए सबसे उपयोगी और अनमोल खजाना हैं। इसका मतलब है कि तुम परमेश्वर के वचनों को खजाना समझते हो जो तुम्हें इतना अधिक पसंद है कि तुम इसे छोड़ नहीं सकते। परमेश्वर के वचनों के प्रति इस रवैये को सँजोना कहा जाता है। परमेश्वर के वचन सँजोने का मतलब है कि तुम्हें पता चल गया है कि परमेश्वर के सभी वचन सबसे मूल्यवान खजाना हैं, कि वे किसी भी प्रसिद्ध या महान हस्ती के जीवनादर्शों की तुलना में सैकड़ों-हजारों गुना अधिक मूल्यवान हैं। इसका मतलब है कि तुमने परमेश्वर के वचनों का सत्य प्राप्त कर लिया है और तुमने जीवन का सबसे बड़ा और सबसे मूल्यवान खजाना खोज लिया है। यह खजाना पाकर तुम्हें अपना महत्व बढ़ाने और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में मदद मिल सकती है। इसी कारण तुम ये सत्य खास तौर से सँजोते हो। मैं इसका वास्तविक जीवन से एक उदाहरण देता हूँ। मान लो, एक महिला एक सुंदर पोशाक खरीदती है और जब वह घर लौटती है तो उसे दर्पण में देखकर पहनती है। दाएँ-बाएँ देखते हुए वह सोचती है : “यह पोशाक बहुत सुंदर है, इसका कपड़ा उत्कृष्ट है, इसकी कारीगरी अत्युत्तम है, और यह पहनने में आरामदेह और मुलायम है। मैं कितनी भाग्यशाली हूँ कि इतने अच्छे कपड़े खरीद सकी। यह मेरा पसंदीदा परिधान है लेकिन मैं इसे हर समय नहीं पहन सकती। मैं इसे तब पहनूँगी, जब मैं उच्च तबके के कार्यक्रमों में भाग लूँगी और सबसे प्रतिष्ठित लोगों से मिलूँगी।” जब उसके पास कुछ खाली समय होता है तो वह अक्सर पोशाक निकालकर उसकी प्रशंसा करते हुए उसे पहनती है। छह महीने बाद भी वह पोशाक को लेकर उतनी ही उत्साहित रहती है और उससे अलग होना बरदाश्त नहीं कर पाती। किसी चीज को सँजोकर रखने का यही मतलब है। क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति तुम लोगों का रवैया इस स्तर तक पहुँचा है? (नहीं।) यह कितनी दयनीय बात है कि तुम लोग अभी तक परमेश्वर के वचनों को उतना नहीं सँजोते, जितना एक महिला अपनी पसंदीदा पोशाक सँजोती है! इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि तुम लोगों ने परमेश्वर के अनेक वचन पढ़े हैं लेकिन तुम बहुत-से सत्य खोजने में विफल रहे हो और वास्तविकता में कभी प्रवेश नहीं कर पाए हो। तुम लोग हमेशा कहते हो कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, लेकिन ये सिर्फ सैद्धांतिक और मौखिक दावे हैं। अगर परमेश्वर के वचनों का सरलतम और प्रथम व्यक्त अंश सामने लाया जाए, और तुम लोगों से पूछा जाए कि उन वचनों में क्या सत्य हैं, परमेश्वर के इरादे क्या हैं या परमेश्वर के मनुष्य से अपेक्षित मानक क्या हैं, तो तुम लोग निःशब्द हो जाओगे और जवाब में एक भी शब्द नहीं बोल पाओगे। तुम लोगों ने परमेश्वर के वचन बहुत पढ़े और सुने हैं तो फिर तुम्हें उनकी सच्ची समझ क्यों नहीं है? समस्या की जड़ कहाँ है? दरअसल, बात यह है कि लोग परमेश्वर के वचनों को पर्याप्त रूप से नहीं सँजोते हैं। जिस वर्तमान मात्रा में तुम लोग परमेश्वर के वचन सँजोते हो, उसमें तुम परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजने से बहुत दूर हो और वे अपेक्षाएँ, सिद्धांत और अभ्यास के मार्ग खोजने से बहुत दूर हो, जो परमेश्वर उनके माध्यम से मनुष्य को प्रदान करता है। यही कारण है कि जब तुम लोगों पर चीजें आन पड़ती हैं तो तुम हमेशा भ्रमित रहते हो और सिद्धांत कभी नहीं ढूँढ़ पाते। यही कारण है कि तुम कई चीजों का अनुभव करते हो, लेकिन परमेश्वर के इरादे कभी नहीं जानते या बहुत अधिक नहीं बढ़ते या बदलते या थोड़ा-सा ही लाभ ले पाते हो। क्या ऐसे लोग बहुत दयनीय नहीं हैं?

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

संबंधित सामग्री

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें