प्रार्थना के मायने और उसका अभ्यास (भाग दो)

बाइबल ने बहुत-से ऐसे लोगों की प्रार्थनाओं को दर्ज किया है, जिन्होंने उन प्रार्थनाओं में पहले से ही अपनी शर्तें तय नहीं की थीं। बल्कि, उन्होंने प्रार्थना का उपयोग परमेश्वर के इरादों को खोजने और समझने के लिए, और पवित्र आत्मा को निर्णय लेने देने के लिए किया। उदाहरण के लिए, इस्राएलियों ने प्रार्थना के जरिए जेरिको पर आक्रमण किया। नीनवे के लोगों ने भी प्रार्थना के जरिए ही पश्चात्ताप किया और परमेश्वर से क्षमा पाई। प्रार्थना किसी प्रकार का रिवाज नहीं है। यह एक व्यक्ति और परमेश्वर के बीच सच्चा संवाद है, और इसकी गहरी महत्ता है। लोगों की प्रार्थनाओं से, यह देखा जा सकता है कि वे सीधे परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं। यदि तुम प्रार्थना को एक रिवाज के रूप में देखते हो, तो तुम्हारी प्रार्थना प्रभावी नहीं होगी, और यह वास्तविक प्रार्थना नहीं होगी, क्योंकि तुम अपनी आंतरिक भावनाएँ परमेश्वर से नहीं कहते हो या उसके सामने अपना दिल नहीं खोलते हो। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, तुम्हारी प्रार्थना का कोई महत्व नहीं है। तुम परमेश्वर के दिल में मौजूद नहीं हो। तब पवित्र आत्मा तुम पर कैसे कार्य करेगा? इसके परिणामस्वरूप, कुछ समय तक काम करने के बाद तुम थक जाओगे। अब से बिना प्रार्थना के तुम काम नहीं कर पाओगे। प्रार्थना से ही काम होता है, और प्रार्थना से ही सेवा होती है। यदि तुम अगुआ हो, परमेश्वर की सेवा करने वाले कोई व्यक्ति हो, फिर भी तुमने खुद को कभी प्रार्थना के लिए समर्पित नहीं किया है या प्रार्थना को गंभीरता से नहीं लिया है, तो तुम्हारे पास परमेश्वर के सामने व्यक्त करने के लिए कोई विचार नहीं है, और इस तरह, अपना कर्तव्य निभाते समय तुम गलती कर सकते हो और अपने कार्यों में लगातार अपने इरादों के भरोसे रहने के कारण ठोकर भी खा सकते हो। पर्याप्त प्रार्थना किए बिना परमेश्वर में विश्वास रखना अस्वीकार्य है। कुछ लोग विरले ही प्रार्थना करते हैं, सोचते हैं कि चूँकि परमेश्वर देहधारी हो गया है, इसलिए सीधे उसके वचनों को पढ़ना ही काफी है। इसमें तुम बहुत सरलता से सोचते हो। क्या तुम बिना प्रार्थना किए केवल परमेश्वर के वचन को पढ़कर पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध और प्रकाशित किए जा सकते हो? यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर से कभी प्रार्थना नहीं करता है, इस तरह वह परमेश्वर से बात नहीं करता या उसके साथ सच्ची संगति नहीं करता है, तो उसके लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग देना और अपना कर्तव्य निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट करना बहुत मुश्किल होगा। यहाँ तक कि देहधारी परमेश्वर भी कभी-कभी प्रार्थना करता है! जब यीशु देहधारी होकर आया, तो गंभीर मामलों में उसने भी प्रार्थना की। उसने पर्वत पर, नाव पर सवार हो कर, और बाग में प्रार्थना की। उसने प्रार्थना में अपने शिष्यों की भी अगुवाई की। यदि तुम अक्सर परमेश्वर के सामने आकर उससे प्रार्थना करते हो, तो यह प्रमाणित करता है कि तुम परमेश्वर को परमेश्वर मानते हो। यदि तुम अक्सर अपनी मर्जी के मुताबिक काम करते हो, और अक्सर प्रार्थना करने की उपेक्षा करते हो, और परमेश्वर की पीठ पीछे बहुत-सी चीजें करते हो, तो तुम परमेश्वर की सेवा नहीं कर रहे हो; तुम बस अपने उद्यम में लिप्त हो। इस तरह क्या तुम्हें दोषी नहीं ठहराया जाएगा? बाहर से, ऐसा प्रतीत नहीं होगा मानो कि तुमने कोई भी विघ्न-बाधा डालने वाला काम किया है, न ही ऐसा प्रतीत होगा कि तुमने परमेश्वर का तिरस्कार किया है, बल्कि तुम बस अपने ही मामलों को निपटाने में लगे हुए हो। तुम अपने उद्यम में लिप्त रहोगे, और शोहरत, लाभ, रुतबे और निजी फायदों के पीछे भागते रहोगे। क्या यह कलीसिया के काम में गड़बड़ करना नहीं है? भले ही, सतही तौर पर ऐसा लगता है कि तुम गड़बड़ नहीं कर रहे हो, किन्तु सारभूत रूप से तुम्हारे कार्य परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहे हैं। यदि तुम कभी पश्चात्ताप नहीं करते या नहीं बदलते, तो तुम खतरे में हो।

हर कोई उस पीड़ा और दुख की अवस्था से गुजर चुका है जब कुछ असंतोषजनक घटता है, और उन्हें किसी से बात करने का दिल नहीं करता। थोड़ी देर बाद, वे बेहतर महसूस करते हैं, लेकिन इस स्थिति का हल नहीं निकलता है। कभी-कभी वे अपने कर्तव्य निभाते हुए भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और काम में देरी करते हैं या उनकी काट-छाँट होती है और वे पीड़ा और परेशानी महसूस करते हैं, लेकिन यदि व्यक्ति इस समस्या को हल करने के लिए सत्य नहीं खोजता, तो इस असामान्य अवस्था का हल नहीं निकलेगा। अपनी पीड़ा और परेशानी में तुम लोग कितनी बार प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आए हो? तुम सब इसे लेकर एक बेपरवाह रवैया अपनाते हो और जैसे-तैसे काम चलाते हो। इस प्रकार, ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करते हैं, पर उनके दिलों में परमेश्वर नहीं है। चाहे वे कोई भी कर्तव्य निभाएँ, जब भी उनके सामने कोई समस्या आती है, वे कभी प्रार्थना नहीं करते या सत्य नहीं खोजते। वे चीजों को अंधाधुंध तरीके से करने के लिए अपनी मर्जी पर निर्भर रहते हैं, ऐसा लगता है मानो वे कष्ट सह रहे हैं और अपनी ऊर्जा खपा रहे हैं, और उन्हें लगता है कि वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा रहे हैं, भले ही उन्हें कुछ हासिल नहीं होता है और उनका प्रयास व्यर्थ जाता है। लोग अक्सर अपनी मर्जी पर निर्भर रहते हैं और चलते-चलते भटक जाते हैं। थोड़ा-सा काम करने के बाद वे अहंकारी हो जाते हैं, सोचते हैं कि उनके पास पूँजी है, और फिर उनके दिलों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं रहती है। इससे यह देखा जा सकता है कि लोगों की प्रकृति विश्वासघाती है। लोग यह तक सोचते हैं, “यदि मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ तो मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई स्थान कैसे नहीं हो सकता? क्या मैं अभी कलीसिया के लिए काम नहीं कर रहा हूँ? परमेश्वर मुझे कैसे त्याग सकता है?” ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हें त्यागना चाहता है, बस बात इतनी है कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है। चाहे तुम कितना भी कार्य करो, तुम खुद को इससे छुटकारा नहीं दिला पाओगे, तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने का कोई रास्ता नहीं होगा, और चाहे तुम कुछ भी करो, तुम खुद को परमेश्वर से दूर करते जाओगे और उसके साथ विश्वासघात करते रहोगे। प्रार्थना का पाठ सबसे गहरा है। यदि तुम प्रार्थना किए बिना ही अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम्हारा प्रदर्शन मानक स्तर का नहीं होगा, और तुम्हारे प्रयास पर पानी फिर जाएगा। तुम्हारी स्थिति जितनी अधिक असामान्य होगी, तुम्हें उतनी ही अधिक प्रार्थना करनी चाहिए। प्रार्थना के बिना, तुम्हारी स्थिति केवल बद से बदतर होती जाएगी, और तुम्हारा कर्तव्य प्रभावहीन रहेगा। प्रार्थना इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि तुम जो कहते हो वह सुनने में कितना अच्छा लगता है। बल्कि, प्रार्थना करने के लिए दिल से बोलने, अपनी कठिनाइयों की सच्चाई बयान करने, एक सृजित प्राणी के स्थान और समर्पण के परिप्रेक्ष्य से बोलने की जरूरत है : “परमेश्वर, तुम जानते हो कि मनुष्य कितने कठोर हैं। इस मामले में मेरा मार्गदर्शन करो। तुम जानते हो कि मैं कमजोर हूँ, मुझमें बहुत कमी है, मैं तुम्हारे इस्तेमाल के लिए उपयुक्त नहीं हूँ, मैं विद्रोही हूँ, और जब भी मैं कार्य करता हूँ, तो तुम्हारे कार्य में गड़बड़ करता हूँ और ऐसे काम करता हूँ जो तुम्हारे इरादों के अनुरूप नहीं होते। मैं विनती करता हूँ कि तुम अपना कार्य करो, मैं बस समर्पण और सहयोग करना चाहता हूँ...।” यदि तुम ये शब्द भी नहीं बोल सकते हो, तो तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता। कुछ लोग सोचते हैं, “जब मैं प्रार्थना करता हूँ, तो मुझे यह भेद पहचानने की आवश्यकता होती है कि मैं विवेकपूर्वक प्रार्थना करता हूँ या नहीं। फिर मैं कैसे प्रार्थना करूँ?” क्या यह समझने में बहुत देर लगती है कि तुम विवेकपूर्ण हो या नहीं? प्रत्येक प्रार्थना के बाद, ईमानदारी से चिंतन करो, और तुम्हें स्पष्टता मिल जाएगी। ऐसा करते हुए, तुम बाद की अपनी प्रार्थनाओं में और अधिक विवेकपूर्ण हो जाओगे, क्योंकि जब तुम प्रार्थना करोगे, तो तुम्हें पता होगा कि इसमें कुछ शब्द अनुचित हैं। जब मनुष्य प्रार्थना करता है, तो परमेश्वर के साथ उसका संबंध सबसे प्रत्यक्ष और निकटतम होता है। अपना काम करते ही क्या तुम सामान्य रूप से घुटने टेककर प्रार्थना कर सकते हो? हमेशा नहीं; यह माहौल पर निर्भर करता है। जब तुम घर पर अकेले होते हो और घुटने टेककर परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता सबसे करीबी होता है। तुम्हारे दिल में जो भी है वह कह सकते हो, और तुम्हें सबसे अधिक खुशी महसूस होती है। परमेश्वर के वचन पढ़ते समय, यदि तुम पहले प्रार्थना करते हो, तो उसके वचन पढ़ना अलग-सा लगेगा। जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, तो पहले प्रार्थना करो और खोजो, इससे तुम्हारा दिल गंभीर होगा, और जब तुम अपना कर्तव्य निभाओगे तो उसका प्रभाव अलग होगा। यदि तुम्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर रोशनी मिलती है, तो परमेश्वर से प्रार्थना करो और तुम्हें और अधिक खुशी मिलेगी। यदि तुम कभी प्रार्थना नहीं करते हो, तो जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ोगे और अपना कर्तव्य निभाओगे, तुम्हें परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं होगी। कभी-कभी, परमेश्वर के वचन पढ़ने से तुम्हें प्रबुद्धता नहीं मिलेगी, और उसके वचन पढ़ने के बाद, कोई स्पष्ट प्रभाव नहीं होगा। परमेश्वर में अपने विश्वास में तुम जो कुछ भी करते हो वह प्रार्थना के बिना नहीं किया जा सकता। यदि तुम अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाता है, तो तुम्हें जीवन प्रवेश मिलेगा, और तुम्हारा विश्वास अधिक मजबूत होता जाएगा। यदि तुम लंबे समय तक प्रार्थना नहीं करते, तो अपना विश्वास खो दोगे, और फिर जीवन-प्रवेश कैसे प्राप्त करोगे? जिन लोगों में सच्चा विश्वास है वे इसे प्रार्थना के जरिए परमेश्वर के सामने रहकर, और प्रार्थना के जरिए सत्य खोजकर हासिल करते हैं। बहुत-से लोग बिना मन लगाए प्रार्थना करते हैं, वे सत्य नहीं खोजते। वे प्रार्थना और याचना करने के लिए परमेश्वर के सामने सिर्फ तभी आते हैं जब उनके साथ कोई बात हो जाती है और वे इस मामले में कुछ भी नहीं कर सकते। वे हमेशा परमेश्वर को अपनी मर्जी के अनुसार काम करने और उन्हें संतुष्ट करने के लिए मजबूर करते हैं। क्या यह सच्ची प्रार्थना है? क्या परमेश्वर ऐसी प्रार्थनाएँ सुनता है? परमेश्वर की उपस्थिति में प्रार्थना करना और सत्य खोजना, अपनी मर्जी के अनुसार काम करने के लिए परमेश्वर को मजबूर करने का मामला नहीं है, उसे यह या वह करने के लिए कहने का मामला तो और भी नहीं है। ये सब विवेकहीनता की अभिव्यक्तियाँ हैं। विवेकपूर्ण प्रार्थना क्या होती है? विवेकहीन प्रार्थना क्या होती है? इन बातों को तुम कुछ समय बाद अनुभव से जानोगे। उदाहरण के लिए, तुम्हारे प्रार्थना करने के बाद, तुम महसूस कर सकते हो कि पवित्र आत्मा वह नहीं करता जिसके लिए तुमने प्रार्थना की थी और न ही तुम्हारा मार्गदर्शन करता है जैसी कि तुमने प्रार्थना की थी। अगली बार जब तुम प्रार्थना करोगे, तो तुम अलग तरह से प्रार्थना करोगे। तुम परमेश्वर को विवश करने का प्रयास नहीं करोगे जैसा पिछली बार करने का प्रयास किया था या अपनी इच्छा के अनुसार उससे अनुरोध नहीं करोगे। तुम कहोगे : “हे परमेश्वर! सब कुछ तुम्हारी इच्छाओं के अनुसार हो।” यदि तुम इस दृष्टिकोण पर ध्यान दोगे, तो कुछ समय तक चीजों को समझने के बाद, तुम्हें पता चल जाएगा कि विवेकपूर्ण प्रार्थना क्या है और विवेकहीन प्रार्थना क्या है। एक ऐसी अवस्था भी होती है जिसमें तुम अपनी इच्छा के अनुसार प्रार्थना करते हो, तुम अपनी आत्मा में महसूस करते हो कि तुम्हारी प्रार्थनाएँ नीरस हैं, और जल्द ही तुम्हारे पास कहने को कुछ नहीं होता। तुम जितना अधिक बोलने की कोशिश करते हो, तुम्हारी बातें उतनी ही अधिक अजीब हो जाती हैं। इससे साबित होता है कि जब तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो, तो तुम पूरी तरह से दैहिक इच्छाओं के अनुसार काम करते हो, और पवित्र आत्मा उस तरह से कार्य नहीं करता या तुम्हारा मार्गदर्शन नहीं करता। यह भी खोजने और अनुभव करने की बात है। जब तुम ऐसे मामलों का अधिक अनुभव करोगे, तब तुम स्वाभाविक रूप से उन्हें समझने लगोगे।

प्रार्थना मुख्य रूप से परमेश्वर से ईमानदारी से बोलना और उसे अपने दिल की बात बताना है। तुम कहोगे, “हे परमेश्वर! तुम मनुष्य की भ्रष्टता को जानते हो। आज मैंने एक और विवेकहीन काम किया है। मेरे मन में एक मंशा थी—मैं एक धोखेबाज व्यक्ति हूँ। मैं तुम्हारे इरादों या सत्य के अनुसार काम नहीं कर रहा था। मैंने अपनी इच्छा से काम किया और खुद को सही ठहराने की कोशिश की। अब मैं अपनी भ्रष्टता को पहचान गया हूँ। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे और अधिक प्रबुद्ध करो और मुझे सत्य समझाओ, ताकि मैं इसे व्यवहार में लाऊँ और इस भ्रष्टता का त्याग करूँ।” इस प्रकार प्रार्थना करो; वास्तविक बातें वास्तविक तरीके से बताई और बोली जानी चाहिए। जब ज्यादातर लोग प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हैं, तो उनके ज्यादातर शब्द धर्मसिद्धांत के होते हैं। वे दिल से निकली असली प्रार्थनाएँ नहीं होती हैं। ये सिर्फ इस सोच से निकले शब्द हैं कि उनके पास थोड़ा-सा ज्ञान है, और उनके दिल पश्चात्ताप करने को तैयार हैं, लेकिन उन्होंने सत्य पर विचार करने या उसे पूरी तरह से समझने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है। इससे उनके जीवन की प्रगति प्रभावित होती है। यदि तुम प्रार्थना करते समय परमेश्वर के वचनों पर विचार और सत्य की खोज कर सकते हो, और पवित्र आत्मा से प्रबोधन प्राप्त कर सकते हो, तो यह सिर्फ इस बारे में सोचने और इसे समझने से कहीं अधिक सार्थक है; तुम सत्य सिद्धांतों को समझ सकोगे। पवित्र आत्मा कार्य करते समय लोगों को प्रेरित करता है, और वह परमेश्वर के वचनों में लोगों को प्रबुद्ध और प्रकाशित करता है, ताकि लोगों को सच्ची समझ मिले और उन्हें सच्चा पश्चात्ताप हो, जो लोगों की सोच और समझ से कहीं अधिक गहरा है। तुम्हें यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए। यदि तुम केवल सतही, बेतरतीब सोच और जाँच में संलग्न रहते हो, यदि इसके बाद तुम्हारे पास अभ्यास करने का कोई उपयुक्त मार्ग नहीं है, और तुम सत्य में थोड़ा-सा ही प्रवेश कर पाते हो, तो तुम बदलाव लाने में अक्षम रहोगे। उदाहरण के लिए, ऐसे मौके होते हैं जब तुम खुद को परमेश्वर के लिए गंभीरता से खपाने और सच्चे मन से उसके प्रेम का प्रतिदान करने का संकल्प लेते हो। मन में यह इच्छा होने के बावजूद हो सकता है कि तुम उतनी अधिक ऊर्जा खपा न सको और तुम्हारा दिल इस प्रयास के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध न हो। बहरहाल, यदि, प्रार्थना करके और प्रेरित होकर तुम एक निश्चय करते हो और कहते हो, “परमेश्वर, मैं कष्ट सहने को तैयार हूँ। मैं तुम्हारे परीक्षणों को स्वीकार करने और पूरी तरह से तुम्हारे प्रति समर्पित होने के लिए तैयार हूँ। चाहे मेरी पीड़ा कितनी भी बड़ी क्यों न हो, मैं तुम्हारे प्रेम का ऋण चुकाने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम्हारे महान प्रेम का आनंद लेता हूँ, और तुमने मुझे ऊँचा उठाया है। इसके लिए, मैं तहेदिल से तुम्हें धन्यवाद देता हूँ, और तुम्हें सारी महिमा अर्पित करता हूँ,” तो इस तरह की प्रार्थना करने के बाद, तुम्हारा पूरा शरीर सशक्त हो जाएगा, और तुम्हारे पास अभ्यास करने का एक मार्ग होगा। प्रार्थना का प्रभाव ऐसा होता है। एक व्यक्ति के प्रार्थना करने के बाद, पवित्र आत्मा उस पर काम करने लगता है, उसे प्रबुद्ध, प्रकाशित और मार्गदर्शित करता है, उसे आस्था और साहस प्रदान करता है, और सत्य को व्यवहार में लाने के लिए सक्षम बनाता है। ऐसे लोग हैं जो इस तरह के किसी परिणाम को प्राप्त किए बिना प्रतिदिन परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं। हालाँकि, उन्हें पढ़ने के बाद, वे उनके बारे में संगति करते हैं, और उनके दिल उज्ज्वल हो जाते हैं, और उन्हें एक मार्ग मिल जाता है। यदि, इसके अतिरिक्त, पवित्र आत्मा तुम्हें प्रेरित करता है और तुम्हें थोड़े-से बोझ के साथ-साथ थोड़ा-सा मार्गदर्शन भी देता है, तो नतीजे वास्तव में बहुत भिन्न होंगे। जब तुम परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हो, तो तुम केवल कुछ हद तक प्रेरित हो सकते हो, और उस समय तुम रो भी सकते हो। थोड़ी देर बाद ही यह भावना चली जाएगी। लेकिन, यदि तुम्हारी प्रार्थना आँसू-भरी, हार्दिक और पूरी निष्ठा से भरी हो, और तुम पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाते हो, तो तुम लंबे समय तक अपने दिल में वह आनंद नहीं भूलोगे। प्रार्थना का प्रभाव ऐसा होता है। प्रार्थना का उद्देश्य है परमेश्वर के सामने आना और वह लोगों को जो भी देता है उसे स्वीकार लेना। यदि तुम अक्सर प्रार्थना करते हो, यदि तुम परमेश्वर के साथ संगति करने के लिए अक्सर उसके सामने आते हो, और उसके साथ एक सामान्य संबंध रखते हो, तो तुम हमेशा उसके द्वारा प्रेरित किए जाओगे। यदि तुम हमेशा उसके प्रावधानों को प्राप्त करते हो, और सत्य स्वीकारते हो, तो तुम बदल जाओगे, और तुम्हारी स्थितियों में निरंतर सुधार होता रहेगा। विशेष रूप से, जब भाई-बहन मिलकर प्रार्थना करते हैं, तो उसके बाद एक विशेष रूप से महान ऊर्जा पैदा होती है, और उन्हें लगता है कि उन्होंने बहुत कुछ हासिल किया है। हकीकत में, हो सकता है कि उन्होंने संगति में मिलकर अपना अधिक समय न बिताया हो; लेकिन यह तो प्रार्थना थी जिसने उन्हें जगाया, इस तरह से कि मानो वे अपने परिवार और इस दुनिया को छोड़ने के लिए एक पल का भी और इंतजार नहीं कर सकते थे, वे कुछ भी नहीं चाहते थे, और केवल परमेश्वर का होना ही पर्याप्त था। कितनी महान आस्था है यह! पवित्र आत्मा के कार्य से लोगों को जो शक्ति मिलती है उसका आनंद अनंत तक लिया जा सकता है! परमेश्वर तुम्हें जो शक्ति देता है उस पर भरोसा करने के बजाय अभिमानी होकर और अपनी दृढ़ता पर भरोसा करके तुम कितनी दूर तक जा पाओगे? तुम बस चलते ही रहोगे और तुम्हारी शक्ति खत्म हो जाएगी, और फिर जब किसी समस्या या कठिनाई से तुम्हारा सामना होगा, तो तुम्हारे पास उससे निकलने का कोई रास्ता नहीं होगा। तुम अंत तक पहुँचने से पहले ही गिर जाओगे और पतित हो जाओगे। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर के अनुसरण के मार्ग पर असफल होकर गिर गए हैं; सत्य के बिना वे टिक नहीं सकते। इसलिए, लोगों को निरंतर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, और अंत तक परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखना चाहिए। फिर भी लोग, चलते-चलते, परमेश्वर से बहुत दूर भटक जाते हैं। परमेश्वर तो परमेश्वर है, और मनुष्य, मनुष्य ही है। हर कोई अपने-अपने मार्ग पर चलता है। परमेश्वर, परमेश्वर के वचन बोलता है, और मनुष्य अपनी राह पकड़ता है, जो परमेश्वर की राह नहीं होती है। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर में अपने विश्वास की शक्ति खो देता है, तो वह परमेश्वर के सामने प्रार्थना में चंद शब्द कहने और कुछ शक्ति उधार लेने चला आता है। थोड़ी ऊर्जा मिलने के बाद, वह एक बार फिर चल देता है। कुछ समय बाद, उसका ईंधन खत्म होने लगता है, और कुछ अधिक पाने के लिए वह परमेश्वर के पास वापस आता है। यदि कोई व्यक्ति इस तरह आगे बढ़ता है, तो वह अधिक लंबे समय तक टिका नहीं रह सकता है। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर को छोड़ देता है, तो उसके पास आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं होता है।

मैंने अब जान लिया है कि कई लोगों की खुद को नियंत्रित करने की क्षमता विशेष रूप से खराब होती है। इसका कारण क्या है? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग पहले तो सत्य को नहीं समझते हैं, और यदि वे प्रार्थना नहीं करते हैं, तो उनके असंयमित होने की संभावना सबसे अधिक होती है। वे केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझते हैं, जो काम नहीं आता, और वे खुद को बिल्कुल भी रोक नहीं पाते। ऐसी स्थिति में, तुम केवल प्रार्थना के जरिए ही पवित्र आत्मा से प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त कर सकते हो, और यदि तुम सत्य समझते हो, तभी तुम कुछ हद तक खुद को रोक सकते हो और थोड़ी मानवीय समानता प्राप्त कर सकते हो। परमेश्वर के विश्वासियों को उसके वचन अक्सर पढ़ने चाहिए, सत्य पर जोर देना चाहिए और बार-बार प्रार्थना करनी चाहिए। केवल तभी लोग सुधर सकते हैं, बदलाव पा सकते हैं, और कुछ हद तक मानवीय समानता के साथ जी सकते हैं। यदि तुम केवल खुद को जानने और सामान्य मानवता का जीवन जीने की बात करते हो, तो यह ठीक नहीं है; पवित्र आत्मा के कार्य के बिना, इसका कोई प्रभाव नहीं होगा। यदि तुम इस बात को नजरअंदाज करोगे कि पवित्र आत्मा वास्तव में कैसे कार्य करता है और लोगों को प्रेरित करता है, और कैसे लोगों को अपने दैनिक जीवन में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना चाहिए, तो तुम परमेश्वर में विश्वास कैसे कर सकोगे? तुम क्या कर्तव्य निभा पाओगे? यदि लोग अपने दिलों में, केवल परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखें, यदि उनके विश्वास में जो कुछ बचा है वह केवल परमेश्वर के होने की स्वीकृति है, और यदि उसके वचनों और सत्य को किनारे कर दिया जाता है, तो उन्हें जीवन प्रवेश नहीं मिलेगा, और फिर उनके दिलों में न तो परमेश्वर होगा और न ही सत्य। लोगों के विचार और धारणाएँ केवल सांसारिक चीजों से भरी होंगी। परमेश्वर में इस प्रकार का विश्वास एक धार्मिक रिवाज बन गया है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते वे नास्तिकता या भौतिकवाद को भी स्वीकार सकते हैं, और वे धीरे-धीरे परमेश्वर के अस्तित्व पर भी सवाल उठा सकते हैं, और वे आध्यात्मिक क्षेत्र और आध्यात्मिक जीवन के मामलों को नकार सकते हैं। यह सच्चे मार्ग से पूरी तरह भटक जाना है, और वे अथाह गड्ढे में गिर गए हैं। प्रार्थना के बिना, सत्य का अभ्यास करने की लोगों की इच्छा केवल व्यक्तिपरक इच्छा है; वे बस विनियमों से चिपके रहेंगे। भले ही तुम ऊपरवाले की व्यवस्था के अनुसार कार्य करते हो और परमेश्वर को नाराज नहीं करते, फिर भी तुम बस विनियमों से चिपके रहते हो, और इसलिए तुम अपना कर्तव्य कभी भी अच्छी तरह से नहीं निभा पाओगे। लोगों की आत्माएँ अब बिल्कुल सुन्न और निष्क्रिय हैं। परमेश्वर के साथ लोगों के संबंधों में कई सूक्ष्मताएँ हैं, जैसे आत्मा द्वारा प्रेरित और प्रबुद्ध होना, लेकिन लोग उन्हें महसूस नहीं कर सकते—वे बहुत सुन्न हैं! यदि लोग परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ते या प्रार्थना नहीं करते, और कभी भी आध्यात्मिक जीवन के मामलों का अनुभव नहीं करते, और अपनी खुद की अवस्था पर पकड़ नहीं बना पाते, तो उनके पास इस बात को सुनिश्चित करने का कोई तरीका नहीं है कि वे परमेश्वर के सामने जी रहे हैं। यदि तुम परमेश्वर के सामने जीना चाहते हो, तो प्रार्थना न करना और इससे भी बढ़कर, परमेश्वर के वचनों को न पढ़ना स्वीकार्य नहीं है। कलीसियाई जीवन न जीना भी स्वीकार्य नहीं है। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों से दूर चला जाता है, तो इसका मतलब है कि वह अब उसमें विश्वास नहीं रखता है, और प्रार्थना से दूर जाना परमेश्वर से बहुत दूर जाना है। परमेश्वर में विश्वास करने के लिए, व्यक्ति को प्रार्थना करनी चाहिए। प्रार्थना के बिना, परमेश्वर में विश्वास का कोई स्वरूप नहीं होता। मैंने कहा है कि तुम्हें विनियमों का पालन करने की आवश्यकता नहीं है, और तुम कहीं भी और कभी भी प्रार्थना कर सकते हो, इसलिए कुछ ऐसे लोग हैं जो शायद ही कभी प्रार्थना करते हैं। वे सुबह उठने पर प्रार्थना नहीं करते हैं, बल्कि परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश मात्र पढ़ते हैं और भजन सुनते हैं। दिन में, वे खुद को बाहरी मामलों में व्यस्त रखते हैं, और रात को सोने के लिए लेटने से पहले वे प्रार्थना नहीं करते हैं। क्या तुम लोगों को ऐसा नहीं लगता कि यदि तुम केवल परमेश्वर के वचन पढ़ते हो और प्रार्थना नहीं करते, तो क्या तुम उसके वचनों को पढ़ रहे किसी अविश्वासी की तरह नहीं हो, जिसमें ये वचन आत्मसात नहीं होते? यदि लोग प्रार्थना नहीं करते हैं, तो उनका दिल परमेश्वर के वचनों में नहीं लगेगा, और उन्हें पढ़कर वे प्रबुद्ध नहीं होंगे। उनमें आत्मा की सूक्ष्म भावनाएँ नहीं होंगी, न ही उनकी आत्मा प्रेरित हुई होगी। वे सुन्न और निष्क्रिय हैं; वे कलीसिया के कार्य और अपना कर्तव्य निभाने के बारे में बस सतही स्तर पर संगति करते हैं। कुछ हो जाने पर वे अपने अंतरतम की भावनाओं को महसूस नहीं कर सकते हैं। क्या इससे परमेश्वर के साथ उनके सामान्य संबंध पर प्रभाव नहीं पड़ता? उनके दिलों में पहले से ही परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, और वे अपनी मनमर्जी से प्रार्थना करते हैं, उनके मुँह से कोई शब्द नहीं निकलता, और वे परमेश्वर को महसूस नहीं कर पाते। यह पहले ही बहुत ही खतरनाक है। इसका अर्थ है कि वे परमेश्वर से बहुत दूर जा चुके हैं। दरअसल, प्रार्थना के लिए अपनी आत्मा की ओर लौटने से तुम्हारे बाहरी कार्यों में कोई रुकावट नहीं आएगी; इससे चीजों में बिल्कुल भी देरी नहीं होगी। यदि कोई समस्या आए और उसका समाधान न हो, तो चीजों में देरी होगी। परमेश्वर से प्रार्थना का प्रयोजन समस्याओं का समाधान, और लोगों को परमेश्वर की उपस्थिति में रहने और उसके वचनों का आनंद लेने में सक्षम बनाना होता है। यह लोगों के कर्तव्य पूरे करने और उनके जीवन प्रवेश के लिए अधिक लाभकारी होता है।

1998

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