प्रार्थना के मायने और उसका अभ्यास (भाग एक)
आजकल तुम लोग परमेश्वर से प्रार्थना कैसे करते हो? यह धार्मिक प्रार्थनाओं पर एक सुधार कैसे है? प्रार्थना के महत्व के बारे में दरअसल तुम लोग क्या समझते हो? क्या तुम लोगों ने इन प्रश्नों पर विचार किया है? प्रत्येक व्यक्ति जो प्रार्थना नहीं करता है, परमेश्वर से दूर है, और प्रत्येक व्यक्ति जो प्रार्थना नहीं करता है, वह अपनी इच्छा पर चलता है। प्रार्थना की अनुपस्थिति परमेश्वर से दूरी और परमेश्वर के साथ विश्वासघात को इंगित करती है। प्रार्थना के साथ तुम लोगों का वास्तविक अनुभव क्या है? परमेश्वर और मनुष्य के बीच का संबंध लोगों की प्रार्थनाओं से देखा जा सकता है। तुम कैसा व्यवहार करते हो, जब तुम्हारे भाई-बहन उन परिणामों के लिए तुम्हारी सराहना और प्रशंसा करते हैं, जो तुम अपने कार्य में लाते हो? तुम कैसी प्रतिक्रिया करते हो, जब लोग तुम्हें सुझाव देते हैं? क्या तुम परमेश्वर के सामने प्रार्थना करते हो? समस्याओं या कठिनाइयों का सामना होने पर तुम सब प्रार्थना करने का समय निकालते हो, मगर जब तुम लोग अच्छी अवस्था में नहीं होते हो, तब क्या तुम प्रार्थना के लिए परमेश्वर की ओर मुड़ते हो? जब तुम भ्रष्टता प्रकट करते हो, क्या तब प्रार्थना करते हो? क्या तुम लोग सचमुच प्रार्थना करते हो? अगर तुम सचमुच प्रार्थना नहीं करते, तो तुम प्रगति नहीं कर पाओगे। खासकर सभाओं में, तुम्हें प्रार्थना और स्तुति करनी चाहिए। कुछ लोगों ने कई बरसों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, लेकिन दुर्भाग्य से, वे अक्सर प्रार्थना नहीं करते। वे कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत समझते हैं और अहंकारी हो जाते हैं, यह सोचकर कि वे सत्य समझ गए हैं, उन्होंने आध्यात्मिक कद हासिल कर लिया है, और वे अपने आप से बहुत खुश होते हैं। नतीजतन, वे इस तरह की असामान्य अवस्था में फँस जाते हैं, और जब वे अगली बार प्रार्थना करने आते हैं, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता, और वे पवित्र आत्मा के कार्य से रहित होते हैं। लोग अपनी दशाओं को नियंत्रित नहीं कर सकते—हो सकता है कि वे बस थोड़ा-सा काम करने के बाद अपनी मेहनत के फल का आनंद उठा लें और हो सकता है कि थोड़ी-सी कठिनाई सामने आने पर वे निराश हो जाएँ, अपने काम में ढिलाई बरतने लगें और अपना कर्तव्य निभाना बंद कर दें। यह बहुत ही खतरनाक है। जिन लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक नहीं होता, वे ऐसे ही होते हैं। ज्यादातर लोग प्रार्थना करने के लिए केवल तभी समय निकालते हैं जब उन्हें कठिनाइयाँ होती हैं, या जब वे किसी बात को पूरी तरह से समझ नहीं पाते हैं। वे तभी प्रार्थना करते हैं जब संदेह और असमंजस से परेशान हो जाते हैं, या जब वे भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं। जरूरत पड़ने पर ही वे प्रार्थना करते हैं। यह सामान्य बात है। हालाँकि, अपने काम में परिणाम प्राप्त करने पर भी तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए। अगर तुम सिर्फ खुश रहने की परवाह करते हो और प्रार्थना नहीं करते, हमेशा प्रफुल्लित रहते हो, हमेशा इन भावनाओं का आनंद लेते हो, लेकिन परमेश्वर का अनुग्रह भुला देते हो, तो तुम पूरी तरह से विवेकहीन हो। जब तुम परमेश्वर से बहुत दूर चले जाते हो, तो कभी-कभी तुम्हें अनुशासन झेलना पड़ता है; या जब तुम कुछ करने की कोशिश करते हो तो शायद तुम्हारे सामने रुकावटें आती हैं; या कोई गलती करने पर तुम्हारी काट-छाँट होती है, तुम्हें ऐसे वचन सुनाए जाते हैं जो दिल को छलनी कर दें, और तुम दबाव या दुख सहते हो, यह सब बिना जाने कि तुमने परमेश्वर को नाराज करने के लिए वास्तव में क्या कर दिया। वास्तव में, परमेश्वर तुम्हें अनुशासित करने के लिए अक्सर बाहरी परिवेश का उपयोग करता है, तुम्हें पीड़ा देता है, और तुम्हारा शोधन करता है, और जब तुम आखिरकार प्रार्थना और चिंतन करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हो, तब तुम्हें एहसास होता है कि तुम्हारी अवस्था गलत है—शायद तुम लापरवाह हो, दंभ और आत्म-मुग्धता से भरे हो—तब तुम अपने क्रियाकलापों से घृणा करने लगते हो और पछतावे से भर जाते हो। फिर तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते और अपने पाप स्वीकार कर लेते हो, और तुम खुद से नफरत करने लगते हो और पश्चात्ताप करना चाहते हो। तब तुम्हारी गलत अवस्था अपने आप ठीक होने लगती है। जब लोग सचमुच प्रार्थना करते हैं, तब पवित्र आत्मा अपना कार्य करता है, जिससे ऐसी भावना या प्रबुद्धता मिलती है जो उन्हें एक असामान्य अवस्था से उबरने देती है। प्रार्थना करने का अर्थ केवल कुछ माँगना, कुछ औपचारिकताओं का पालन करना और फिर इसे समाप्त समझ लेना नहीं है। यह परमेश्वर की जरूरत पड़ने पर प्रार्थना के कुछ शब्द बोल देना और जरूरत न पड़ने पर न बोलना नहीं है। अगर तुम लंबे समय तक प्रार्थना नहीं करते हो, तो भले ही तुम्हारी अवस्था बाहर से सामान्य दिखे, तुम अपना कर्तव्य निभाते समय अपने आप पर ही निर्भर रहोगे, अपनी मनमर्जी करोगे, और इस तरह तुम सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में नाकाबिल रहोगे। अगर तुम लंबे समय तक परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करोगे, तो कभी भी पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध या प्रकाशित नहीं किए जाओगे। अगर तुम अपना कर्तव्य करते भी हो, तब भी तुम केवल विनियमों का पालन कर रहे हो, और इस तरह अपना कर्तव्य निभाने से तुम्हें परमेश्वर की गवाही देने का फल नहीं मिलेगा।
मैंने पहले भी कहा है कि बहुत-से लोग अपने कर्तव्यों के दौरान अपने व्यक्तिगत कामों और निजी उद्यमों में व्यस्त रहते हैं, और लोग आज भी ऐसे ही हैं। कुछ समय तक कार्य करने के बाद, वे प्रार्थना करना बंद कर देते हैं, और परमेश्वर उनके दिलों में नहीं बसता है। वे सोचते हैं, “मैं केवल कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार ही कार्य करूँगा। वैसे भी, मैंने कोई गलती तो की नहीं है, और मैंने कोई बाधा भी नहीं डाली या गड़बड़ी भी नहीं की है...।” जब तुम प्रार्थना किए बिना काम करते हो, और सब कुछ अच्छी तरह से हो जाने के बाद भी तुम परमेश्वर का धन्यवाद नहीं करते हो, तो तुम्हारी अवस्था में समस्या है। अगर तुम जानते हो कि तुम्हारी स्थिति गलत है, लेकिन तुम खुद उसे ठीक नहीं कर पाते हो, तो तुम अपने कार्यों में लगातार अपनी मर्जी के अनुसार चलोगे, और सत्य को समझ लेने पर भी उसे अभ्यास में नहीं ला पाओगे। तुम निरंतर सोचते रहते हो कि तुम्हारा सोचने का तरीका सही है और तुम हमेशा उस पर टिके रहते हो, तुम वही करते हो जो तुम्हें पसंद है, तुम पवित्र आत्मा के कार्य करने के तरीके को नजरअंदाज करते हो, तुम खुद को अपने ही प्रयासों में झोंक देते हो, और नतीजतन, पवित्र आत्मा तुम्हें त्याग देता है। जब पवित्र आत्मा तुम्हें त्याग देता है, तब तुम अंधकारमय और मुरझाया हुआ महसूस करोगे। तुम किसी भी पोषण या आनंद को बिल्कुल भी महसूस नहीं कर पाओगे। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो छह महीनों में एक बार भी सही मायने में प्रार्थना नहीं करते हैं। इस तरह के लोगों के दिलों में अब परमेश्वर नहीं है। कुछ लोग आम तौर पर प्रार्थना नहीं करते हैं, और वे केवल तभी प्रार्थना करते हैं जब वे खतरे में होते हैं या कोई क्लेश सह रहे होते हैं। हालाँकि वे अभी भी अपना कर्तव्य निभाते हैं, लेकिन वे आध्यात्मिक रूप से मुरझाया हुआ महसूस करते हैं, इसलिए उनके मन में अनिवार्य रूप से नकारात्मक विचार आ ही जाते हैं। कभी-कभी वे सोचते हैं, “आखिर मैं अपने कर्तव्य कब पूरे कर पाऊँगा?” इस तरह के विचार भी प्रकट हो सकते हैं, ये सब इसलिए क्योंकि उन्होंने लंबे समय से प्रार्थना नहीं की है, और वे परमेश्वर से दूर हो गए हैं। अगर इससे एक अविश्वासी, दुष्ट हृदय बनता है, तो यह बहुत खतरनाक है। प्रार्थना बहुत अहम है! प्रार्थना के बिना जीवन धूल की तरह सूखा है, और यह पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त नहीं कर सकता; ऐसे लोग परमेश्वर के समक्ष नहीं रहते हैं, और वे पहले ही अंधकार में गिर चुके हैं। इसलिए, तुम्हें अक्सर प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के वचनों पर संगति करनी चाहिए, ताकि तुम पवित्र आत्मा के कार्य का आनंद ले सको और अपने दिल से परमेश्वर की प्रशंसा कर सको। केवल इसी तरह से तुम्हारा जीवन शांति और उल्लास से भर सकता है। पवित्र आत्मा उन लोगों में विशेष रूप से दृढ़ता से कार्य करता है जो हर चीज में प्रार्थना और स्तुति करते हैं। पवित्र आत्मा द्वारा लोगों को प्रदान की गई शक्ति अनंत है, और लोग कभी इसे कभी पूरा इस्तेमाल या खत्म नहीं कर सकते। लोग बिना रुके बोल सकते हैं या उपदेश दे सकते हैं, और वे कई धर्मसिद्धांतों को समझ सकते हैं, लेकिन पवित्र आत्मा के कार्य के बिना यह बेकार और निरर्थक है। ऐसे कई मामले हैं जहाँ लोग अपना बहुत सारा समय प्रार्थना करने में बिता सकते हैं, लेकिन ऐसा करते समय वे केवल कुछ ही शब्द कहते हैं, जैसे, “परमेश्वर, मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ और तुम्हारी स्तुति करता हूँ!” कुछ समय बाद शायद वे वही वाक्य फिर से कह दें। उनके पास परमेश्वर से कहने के लिए और कोई अंतरात्मा की बातें नहीं होती। यह बहुत खतरनाक है! अगर परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग उसकी स्तुति, धन्यवाद और महिमागान करने के लिए कुछ शब्द भी नहीं बोल सकते, तो कैसे कहा जा सकता है कि उनके दिलों में उसके लिए स्थान है? तुम परमेश्वर में विश्वास रखने और उसे अपने दिल में पहचानने का दावा कर सकते हो, पर तुम उसके सामने नहीं आते, प्रार्थना करते समय तुम उसे अपने दिल की बात नहीं बता पाते, और तुम्हारा दिल परमेश्वर से बहुत दूर हो, तो पवित्र आत्मा अपना कार्य नहीं करेगा। तुम लोगों को हर सुबह उठने पर प्रार्थना करते समय ईमानदारी से अपने दिल की बात कहनी चाहिए, परमेश्वर के वचन पढ़ने चाहिए, और तब तक उन पर चिंतन करना चाहिए जब तक तुम्हें रोशनी और अभ्यास का मार्ग न मिल जाए। ऐसा करोगे तो तुम्हारा दिन विशेष रूप से अच्छा और परिपूर्ण होगा, और तुम महसूस करोगे कि पवित्र आत्मा सदा तुम्हारे साथ है, तुम्हारी रक्षा कर रहा है।
मैंने देखा है कि कई लोगों की एक आम समस्या है। जब उनके सामने समस्याएँ होती हैं, तो वे प्रार्थना के लिए परमेश्वर के सामने आते हैं, लेकिन जब उन्हें कोई परेशानी नहीं होती है, तो वे परमेश्वर को नजरअंदाज करते हैं। वे जैसे चाहें वैसे दैहिक सुखों से चिपके रहते हैं, और कभी अपनी आँखें नहीं खोलते। क्या यह परमेश्वर में विश्वास रखना है? क्या यह सच्ची आस्था है? सच्ची आस्था न होना चलने के लिए कोई मार्ग न होना है। सच्ची आस्था के बिना, कोई यह नहीं जान सकता कि परमेश्वर में विश्वास के कौन-से कार्य परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हैं या किन कार्यों से कोई सत्य प्राप्त कर सकता है या जीवन में आगे बढ़ सकता है। आस्था के बिना, व्यक्ति अंधा होता है, आगे बढ़ने की इच्छा तो रखता है लेकिन दिशा और लक्ष्यों से रहित होता है। तो आस्था कैसे आती है? आस्था प्रार्थना और परमेश्वर के साथ संगति से आती है, और इससे भी बढ़कर, परमेश्वर के वचन पढ़ने और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त करने से आती है। तुम सत्य को जितना अधिक समझोगे, तुम्हारे पास उतनी ही अधिक आस्था होगी। जिन लोगों को सत्य की समझ नहीं होती है उनमें जरा-सी भी आस्था नहीं होती है, और भले ही वे कलीसिया के साथ घुल-मिल जाएँ, वे छद्म-विश्वासी ही रहते हैं। जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वे प्रार्थना और परमेश्वर के वचनों को पढ़े बिना ऐसा नहीं कर सकते। अगर वे केवल बैठकों में भाग लेते रहते हैं, लेकिन शायद ही कभी सच्चे दिल से प्रार्थना करते हैं तो वे खुद को परमेश्वर से अधिकाधिक दूर पाते रहेंगे। तुम सब शायद ही कभी सच्चे मन से प्रार्थना करते होगे, और कुछ लोग अभी भी यह नहीं जानते कि प्रार्थना कैसे करें। सच्चाई यह है कि प्रार्थना मुख्य रूप से अपने दिल की बात कहना है। यह अपने दिल को परमेश्वर के लिए खोलना और सरल मन से उसके सामने सब कुछ बोल देना है। अगर किसी व्यक्ति का दिल सही किस्म का हो, तो वह दिल से बोल पाता है, और इस तरह, परमेश्वर उसकी बात सुनकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर लेता है। कुछ लोग परमेश्वर से प्रार्थना करते समय केवल विनती करना जानते हैं। वे लगातार परमेश्वर से अनुग्रह माँगते हैं, और कुछ भी नहीं कहते, और इस प्रकार वे जितनी अधिक प्रार्थना करते हैं, उतना ही अधिक बंजर महसूस करते हैं। प्रार्थना करते समय, चाहे तुम किसी चीज के लिए तरसते हो, परमेश्वर से कुछ माँगते हो, किसी ऐसे मामले में परमेश्वर से ज्ञान और शक्ति देने के लिए कहते हो जिसे सँभालते हुए तुम स्पष्ट नहीं देख पा रहे हो, या परमेश्वर से प्रबुद्धता माँगते हो, तो तुम्हारे पास सामान्य मानवता का विवेक होना चाहिए। बिना विवेक के, तुम अपने घुटनों के बल होकर कहोगे, “परमेश्वर, मैं तुमसे आस्था और शक्ति देने की विनती करता हूँ, मुझे प्रबुद्ध बनाने और अपनी प्रकृति को समझने देने की याचना करता हूँ, मैं विनती करता हूँ कि तुम अपना कार्य करके मुझे अनुग्रह और आशीष दो।” इस “याचना” में अनिवार्य तत्व मौजूद है। यह परमेश्वर पर दबाव डालने का एक तरीका है, उसे यह बताने का तरीका है कि यह काम अवश्य किया जाना चाहिए, मानो यह पहले ही निर्धारित कर दिया गया हो। यह सच्ची प्रार्थना नहीं है। पवित्र आत्मा के लिए, जब तुमने पहले ही निर्धारित कर दिया है कि तुम क्या करने जा रहे हो, तो क्या तुम इस तरह काम करके बस जैसे-तैसे काम निपटा नहीं रहे हो? क्या यह परमेश्वर को धोखा देना नहीं है? प्रार्थना एक खोजपूर्ण, आज्ञाकारी दिल से की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, जब तुम पर कोई विपत्ति आ गयी हो, और तुम समझ न पा रहे हो कि उसे कैसे सँभालो, तो तुम कह सकते हो, “हे परमेश्वर! मैं नहीं जानता कि इस बारे में क्या करूँ। इस मामले में मैं तुझे संतुष्ट करना चाहता हूँ और तेरे इरादे जानना चाहता हूँ। मैं तेरी इच्छानुसार कार्य करना चाहता हूँ, अपनी इच्छानुसार नहीं। तू जानता है कि मनुष्य की इच्छाएँ तेरे इरादों के एकदम विपरीत होती है; वह पूरी तरह से तेरा विरोध करती है और सत्य के अनुरूप नहीं होती। कृपा करके मुझे प्रबुद्ध कर, इस मामले में मेरा मार्गदर्शन कर, ताकि मैं तुझे नाराज न कर दूँ...।” यह लहजा प्रार्थना के लिए उपयुक्त है। यदि तुम कहते हो : “हे परमेश्वर, मैं तुझसे मदद और मार्गदर्शन माँगता हूँ, मुझे सही माहौल और सही लोग दे, और मुझे अपना कार्य अच्छी तरह से करने दे,” तो अपनी प्रार्थना खत्म होने के बाद भी तुम परमेश्वर के इरादों को समझने में विफल रहोगे, क्योंकि तुम परमेश्वर से अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने को कह रहे हो। अब तुम्हें यह पता लगाना चाहिए कि क्या प्रार्थना में तुम्हारे द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्दों में विवेक है, और क्या वे दिल से निकले हैं। अगर तुम्हारी प्रार्थनाओं में विवेक नहीं है, तो पवित्र आत्मा तुम पर कार्य नहीं करेगा। इसलिए, प्रार्थना करते समय तुम्हें विवेकसम्मत तरीके से और उपयुक्त लहजे में बोलना चाहिए। तुम कहो : “हे परमेश्वर, तू मेरी कमजोरी और मेरे विद्रोहीपन को जानता है। मैं बस इतना ही माँगता हूँ कि तू मुझे शक्ति दे और अपनी परिस्थितियों को सहन कर पाने में मेरी मदद करे, लेकिन केवल तेरी इच्छाओं के अनुसार। मैं नहीं जानता कि तेरी इच्छाएँ क्या हैं, और मैं बस यह निवेदन करता हूँ। फिर भी तेरी इच्छाएँ पूरी हों। भले ही मुझसे सेवा करवाई जाए या मैं विषमता के रूप में सेवा करूँ, मैं ऐसा स्वेच्छा से करूँगा। मैं तुझसे सामर्थ्य और बुद्धि माँगता हूँ, ताकि इस मामले में तुझे संतुष्ट कर सकूँ। मैं बस तेरी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने का इच्छुक हूँ...।” इस तरह से प्रार्थना करने के पश्चात् तुम्हारे दिल को विशेष रूप से सुकून मिलेगा। यदि तुम सिर्फ याचना करने में ही लगे रहते हो, तो भले ही तुम कितना भी बोलो, ये सब सिर्फ खोखले शब्द ही रह जाएँगे; परमेश्वर तुम्हारी याचना पर कार्य नहीं करेगा क्योंकि तुम पहले ही तय कर चुके होगे कि तुम्हें क्या चाहिए। जब तुम प्रार्थना करने के लिए घुटनों के बल बैठते हो, तो कहो : “हे परमेश्वर, तू मनुष्य की कमजोरियों और उसकी स्थितियों को जानता है। मैं यह माँगता हूँ कि इस मसले पर तू मुझे प्रबुद्ध करे। मुझे तेरी इच्छाएँ समझने दे। मैं मात्र तेरी समस्त व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की अभिलाषा करता हूँ; और मेरा हृदय तुम्हारे प्रति समर्पित होना चाहता है...।” इस प्रकार प्रार्थना करो और पवित्र आत्मा तुम्हें प्रेरित कर देगा। प्रार्थना करते समय, अगर तुम्हारा इरादा गलत है, और तुम हमेशा अपनी मर्जी के आधार पर परमेश्वर से माँग करते हो, तो तुम्हारी प्रार्थना शुष्क और बंजर होगी, और पवित्र आत्मा तुम्हें प्रेरित नहीं करेगा। अगर तुम बस अपनी आँखें मूँदकर परमेश्वर के लिए बस यूँ ही कुछ घिसी-पिटी बातें बोल दो, तो क्या पवित्र आत्मा तुम्हें उस तरह प्रेरित करेगा? जब लोग परमेश्वर के सामने आते हैं, तो उन्हें आज्ञाकारी ढंग से व्यवहार करना चाहिए और श्रद्धाभाव वाला रवैया रखना चाहिए। तुम सच्चे परमेश्वर के सामने आ रहे हो, सृष्टिकर्ता से बात कर रहे हो। क्या तुम्हें श्रद्धाभाव वाला नहीं होना चाहिए? प्रार्थना करना कोई साधारण बात नहीं है। जब लोग परमेश्वर के सामने आते हैं, तो वे अपने दाँत और नाखून दिखाते हैं—पूर्ण रूप से अहंकारी और असंयमित, श्रद्धाभाव से पूरी तरह वंचित होते हैं; और जब वे प्रार्थना करते हैं, तो वे अपने बिस्तरों पर लेटे पड़े होते हैं, कुछ सरल, सतही शब्द कहते हैं, और सोचते हैं कि वे प्रार्थना कर रहे हैं और परमेश्वर उन्हें सुन पा रहा है—क्या यह खुद को धोखा देना नहीं है? यह कहने में मेरा उद्देश्य यह माँग करना नहीं है कि लोग किसी विशेष विनियम का अनुसरण करें। लेकिन व्यक्ति कम-से-कम यह कर सकता है कि वह परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला दिल रखे और परमेश्वर के समक्ष धर्मनिष्ठ रवैये के साथ आए। तुम लोगों की प्रार्थनाओं में प्रायः विवेक का अभाव होता है। तुम लोग हमेशा इस लहजे के साथ प्रार्थना करते हो : “हे परमेश्वर! चूँकि तुमने मुझे यह कर्तव्य निभाने के लिए दिया है, इसलिए मैं जो कुछ भी करता हूँ उसे उपयुक्त बनाओ, ताकि तुम्हारे कार्य में गड़बड़ी न हो और परमेश्वर के परिवार के हितों को नुकसान न हो। तुझे मेरी रक्षा करनी होगी...।” इस प्रकार की प्रार्थना अत्यंत विवेकहीन है, क्या ऐसा नहीं है? यदि तुम परमेश्वर के सामने आकर इस तरह से प्रार्थना करोगे तो क्या वह तुम पर कार्य करेगा? यदि तुम मेरे सामने आकर विवेकहीन तरीके से बात करोगे तो क्या मैं सुनूँगा? अगर तुमने मुझे ऐसा बनाया कि मैं तुमसे घृणा करूँ, तो मैं तुम्हें सीधे बाहर निकाल दूँगा! क्या तुम आत्मा के सामने भी वैसे ही नहीं हो जैसे मसीह के सामने हो? जब तुम प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हो, तो तुम्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि तुम विवेकसम्मत तरीके से कैसे बोलोगे, और धर्मनिष्ठा पाने के लिए तुम कैसे अपनी आंतरिक अवस्था को ठीक करके समर्पण करने में समर्थ हो सकोगे। ऐसा करने के बाद, फिर से प्रार्थना करना बेहतर होगा; और तुम्हें परमेश्वर की उपस्थिति का एहसास होगा। कई बार लोग प्रार्थना में घुटनों के बल गिर जाते हैं; वे अपनी आँखें बंद कर लेते हैं, और जोर-जोर से पुकारने लगते हैं, “हे परमेश्वर! हे परमेश्वर!” वे लंबे समय तक बिना कोई शब्द बोले इस तरह चिल्लाते क्यों रहते हैं? यह लोगों की गलत मानसिकता और असामान्य अवस्था के कारण है। जब कोई व्यक्ति अपने दिल में परमेश्वर तक नहीं पहुँच पाता, तो उसकी प्रार्थना शब्दहीन होती है। क्या तुम लोग कभी ऐसा करते हो? तुम लोग अब अपना माप जानते हो, लेकिन जब तुम्हारी अवस्था असामान्य होती है, तो तुम आत्म-चिंतन या सत्य की खोज नहीं करते, और न ही तुम प्रार्थना के लिए परमेश्वर के सामने आने या उसके वचनों को खाने-पीने के लिए तैयार होते हो। यह खतरनाक है। चाहे किसी व्यक्ति की अवस्था सामान्य हो या न हो, या चाहे जैसी भी समस्याएँ आएँ, उसे प्रार्थना से भटकना नहीं चाहिए। अगर तुम प्रार्थना नहीं करते, तो भले ही अभी तुम्हारी अवस्था सामान्य हो, पर लंबा समय बीतने के साथ यह असामान्य हो जाएगी। प्रार्थना करना और परमेश्वर के वचन पढ़ना सामान्य होना चाहिए। सत्य की खोज के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ने से सच्ची प्रार्थना हो सकती है, प्रार्थना से परमेश्वर का प्रबोधन प्राप्त हो सकता है, और यह व्यक्ति को परमेश्वर के वचन को समझने में सक्षम बना सकता है। परमेश्वर से प्रार्थना करने में सबसे महत्वपूर्ण बात पहले अपनी मानसिकता को ठीक करना है। यह प्रार्थना का सिद्धांत है। अगर तुम्हारी मानसिकता गलत है, तो तुम श्रद्धाभाव वाला रवैया नहीं रखोगे, तुम बस दिखावा कर रहे होगे, और परमेश्वर को धोखा दे रहे होगे। अगर तुम्हारे दिल में परमेश्वर से भय और उसके प्रति समर्पण है, और तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, तभी तुम्हारे दिल को शांति मिलेगी। इसलिए, प्रार्थना करते समय तुम्हारी मानसिकता सही होनी चाहिए, तभी तुम्हारी प्रार्थना का असर होगा। अगर तुम अक्सर इस तरह से अभ्यास करते हो, प्रार्थना करते समय परमेश्वर से सचमुच अपने दिल की बात कहते हो, और वह कहते हो जो तुम्हारा दिल परमेश्वर से सबसे अधिक कहना चाहता है, तो तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसके साथ सामान्य रूप से संगति करने में सक्षम हो जाओगे।
प्रार्थना करने के लिए यह जरूरी नहीं है कि तुम शिक्षित और सुसभ्य हो, और यह कोई निबंध लिखना नहीं है। बस एक सामान्य व्यक्ति के विवेक के साथ निष्ठापूर्वक बोलो। यीशु की प्रार्थनाओं के बारे में सोचो। उसने गतसमनी की वाटिका में प्रार्थना की : “हो सके तो...।” अर्थात्, “यदि ऐसा किया जा सके तो।” यह एक परामर्श में कहा गया था। उसने यह नहीं कहा, “मैं तुझसे निवेदन करता हूँ।” एक समर्पित हृदय के साथ और एक विनीत अवस्था में, उसने प्रार्थना की : “हो सके तो इस कटोरे को मेरे पास से गुजर जाने दो : फिर भी, जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं बल्कि जैसा तू चाहता है वैसा हो।” वह दूसरी बार भी इसी प्रकार प्रार्थना करता रहा, और तीसरी बार उसने प्रार्थना की, “तेरी इच्छा पूरी हो।” परमपिता परमेश्वर की इच्छा को समझ लेने के बाद, उसने कहा : “तेरी इच्छा पूरी हो।” वह बिना इसी व्यक्तिगत चुनाव के पूरी तरह से समर्पण करने में समर्थ था। प्रार्थना में यीशु ने कहा, “हो सके तो इस कटोरे को मेरे पास से गुजर जाने दो।” इसका क्या अर्थ था? उसने इस तरह से प्रार्थना की थी क्योंकि उसने मरते दम तक क्रूस पर खून बहते रहने की उस अत्यधिक पीड़ा पर विचार किया था—इसमें मृत्यु के मामले का मोटे तौर पर जिक्र था—और क्योंकि उसने अभी तक परमपिता परमेश्वर की इच्छा को पूरी तरह से नहीं समझा था। ऐसी पीड़ा के विचार के बावजूद इस तरह से प्रार्थना करना उसके समर्पण की गहराई को दिखाता है। प्रार्थना करने का उसका तरीका सामान्य था; उसने अपनी प्रार्थना में कोई शर्त प्रस्तावित नहीं की, न ही उसने कहा था कि कटोरे को ले लिया जाए। बल्कि उसका उद्देश्य ऐसी परिस्थिति में परमेश्वर की इच्छा को खोजना था जिसे वह नहीं समझ पाया था। पहली बार जब उसने प्रार्थना की तो उसे समझ नहीं आया, और उसने कहा : “हो सके तो ... बल्कि जैसा तू चाहता है वैसा हो।” उसने समर्पण की अवस्था में परमेश्वर से प्रार्थना की। दूसरी बार, उसने उसी तरह से प्रार्थना की। कुल मिलाकर, उसने तीन बार प्रार्थना की, और अपनी अंतिम प्रार्थना में, वह परमेश्वर की इच्छा को पूरी तरह से समझ गया, जिसके बाद, उसने कुछ नहीं माँगा। पहली दो प्रार्थनाओं में, वह केवल खोज रहा था, और उसने समर्पण की अवस्था में खोज की। हालाँकि, लोग बस इस प्रकार से प्रार्थना नहीं करते हैं। अपनी प्रार्थनाओं में, लोग हमेशा कहते हैं, “हे परमेश्वर मैं तुझे यह या वह करने को कहता हूँ, और मैं तुझसे इस या उस में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहता हूँ, और मेरे लिए परिस्थितियाँ तैयार करने के लिए कहता हूँ...।” हो सकता है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ तैयार न करे, और तुम्हें यह कष्ट झेलने दे और सबक सिखाए। अगर तुम हमेशा इस तरह प्रार्थना करते हो—“हे परमेश्वर, मैं तुमसे मेरे लिए तैयारी करने और मुझे शक्ति देने के लिए कहता हूँ”—तो यह बेहद अनुचित है! जब तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, तो तुम्हें विवेकशील होना चाहिए, और तुम्हें समर्पण वाले दिल के साथ उससे प्रार्थना करनी चाहिए। यह तय करने की कोशिश मत करो कि तुम क्या करोगे। अगर तुम प्रार्थना करने से पहले यह तय करने की कोशिश करते हो कि क्या करना है, तो यह परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं होगा। प्रार्थना में, तुम्हारा दिल समर्पित होना चाहिए, और तुम्हें पहले परमेश्वर के साथ खोजना चाहिए। इस तरह, प्रार्थना के दौरान तुम्हारा दिल स्वाभाविक रूप से प्रकाशित हो जाएगा, और तुम्हें पता चल जाएगा कि क्या करना उपयुक्त है। प्रार्थना करने से पहले अपनी योजना से लेकर प्रार्थना के बाद अपने दिल में आए बदलाव तक जाना पवित्र आत्मा के कार्य का परिणाम है। अगर तुमने पहले ही अपना निर्णय ले लिया है और यह तय कर लिया है कि क्या करना है, और फिर तुम परमेश्वर से अनुमति माँगने के लिए प्रार्थना करते हो या परमेश्वर से वह करने के लिए कहते हो जो तुम चाहते हो, तो इस प्रकार की प्रार्थना विवेकहीन है। कई बार, परमेश्वर लोगों की प्रार्थनाओं का सटीक जवाब नहीं देता है, क्योंकि उन्होंने पहले ही तय कर लिया है कि उन्हें क्या करना है, और वे बस परमेश्वर से अनुमति माँगते हैं। परमेश्वर कहता है, “तुमने तय कर लिया है कि तुम्हें क्या करना है, तो फिर मुझसे क्यों पूछ रहे हो?” इस तरह की प्रार्थना थोड़ी परमेश्वर को धोखा देने जैसी लगती है, और इसलिए, उनकी प्रार्थनाएँ सूख जाती हैं।
भले ही लोग प्रार्थना करने के लिए घुटने टेकते समय परमेश्वर से बात कर रहे हों, तुम्हें यह स्पष्ट देखना चाहिए कि परमेश्वर से प्रार्थना करना पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने का एक मार्ग भी है और पवित्र आत्मा हमेशा उन्हें प्रबुद्ध करता है, प्रकाशित करता है, और उनकी अगुआई करता है। यदि लोग सही अवस्था में प्रार्थना और खोज करते हैं, तो पवित्र आत्मा भी उसी समय अपना कार्य कर रहा होगा। यह परमेश्वर और मनुष्यों के बीच एक प्रकार का अनकहा समझौता है; तुम यह भी कह सकते हो कि यह परमेश्वर का मामले सँभालने में लोगों की मदद करना है। प्रार्थना लोगों के लिए परमेश्वर के सामने आने और उसके साथ सहयोग करने का एक रास्ता है। यह परमेश्वर के लिए लोगों को बचाने और शुद्ध करने का भी एक रास्ता है। इतना ही नहीं, यह जीवन प्रवेश का मार्ग है; यह कोई रिवाज नहीं है। प्रार्थना केवल लोगों को प्रेरित करने का तरीका नहीं है, न ही यह परमेश्वर को संतुष्ट करने का एक सूत्रबद्ध तरीका मात्र है। ऐसे विचार गलत हैं। प्रार्थना का गहरा अर्थ होता है! यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो तुम प्रार्थना से दूर नहीं जा सकते, परमेश्वर के वचन पढ़ने से तो बिल्कुल भी दूर नहीं जा सकते। प्रार्थना के जरिए, पवित्र आत्मा लोगों में कार्य करता है, उन्हें प्रबुद्ध करता है, और उनकी अगुआई करता है। यदि लोग परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हैं, तो उनके लिए पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना कठिन होगा। यदि तुम अक्सर प्रार्थना करते हो, लगातार प्रार्थना का अभ्यास करते हो, और परमेश्वर के प्रति समर्पण भाव से बार-बार प्रार्थना करते हो, तो तुम्हारी आंतरिक अवस्था सामान्य है। यदि, प्रार्थना करते समय, तुम केवल सिद्धांत की कुछ बातें कहते हो, और परमेश्वर के सामने अपना दिल नहीं खोलते या सत्य नहीं खोजते, न ही तुम परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं पर विचार करते हो, तो तुम वास्तव में प्रार्थना नहीं कर रहे हो। केवल वे लोग जो अक्सर सत्य पर विचार करते हैं, जिनके दिल अक्सर परमेश्वर के करीब होते हैं, और जो अक्सर परमेश्वर के वचनों में जीते हैं, उनकी प्रार्थना असली होती है, उनके दिलों में परमेश्वर से कहने के लिए बातें होती हैं, और वे परमेश्वर से सत्य खोज पाते हैं। प्रार्थना कैसे करनी है यह सीखने के लिए, तुम्हें बार-बार परमेश्वर के वचनों पर विचार करना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर के इरादे समझ सकते हो, तो तुम्हारे मन में उससे कहने के लिए बहुत अधिक बातें होंगी और तुम यह समझने में सक्षम होगे कि कौन-से शब्द उचित प्रार्थना हैं, और कौन-से नहीं; कौन-सी प्रार्थनाएँ सच्ची आराधना हैं और कौन-सी नहीं; कौन-सी प्रार्थनाओं में तुम परमेश्वर के इरादों को खोजने का प्रयास कर रहे हो, और कौन-सी प्रार्थनाओं में तुमने पहले ही फैसला कर लिया है और अब केवल परमेश्वर की अनुमति माँग रहे हो। यदि तुम इन मामलों को कभी गंभीरता से नहीं लोगे, तो तुम्हारी प्रार्थना कभी भी सफल नहीं होगी, और तुम्हारी आंतरिक अवस्था हमेशा असामान्य रहेगी। जहाँ तक यह बात है कि सामान्य समझ क्या है, सच्चा समर्पण क्या है, सच्ची आराधना क्या है, और प्रार्थना करते समय व्यक्ति को किस स्थिति में होना चाहिए—ये सभी पाठ प्रार्थना के सत्य से संबंधित हैं। ये सभी विस्तृत मामले हैं। क्योंकि ज्यादातर लोग वास्तव में मुझे देख नहीं सकते, इसलिए वे आत्मा के सामने प्रार्थना करने तक ही सीमित रहते हैं। एक बार जब तुम प्रार्थना करना शुरू करते हो, तो यह एक सवाल बन जाता है कि क्या तुम्हारे कहे शब्द तर्कसंगत हैं, क्या तुम्हारे शब्द वास्तव में आराधनापूर्ण हैं, क्या तुम जो माँग रहे हो वह परमेश्वर की स्वीकृति से मेल खाता है, क्या तुम्हारी प्रार्थना में लेन-देन का तत्व है, या इसमें मानवीय अशुद्धियों की मिलावट है, क्या तुम्हारी प्रार्थनाएँ और बातें परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हैं, क्या तुममें परमेश्वर के प्रति विशेष भय, सम्मान और समर्पण है, और क्या तुम सचमुच परमेश्वर को परमेश्वर मान रहे हो। तुम प्रार्थना में जो भी कहते हो उसके बारे में तुम्हें गंभीर होना चाहिए, परमेश्वर के इरादों को महसूस करना चाहिए, और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार होना चाहिए। केवल इस तरह प्रार्थना करने से ही तुम्हें अपने दिल में शांति और आनंद का एहसास होगा। केवल इसी तरह मसीह के सामने आने पर तुम्हारे पास सामान्य समझ भी होगी। यदि तुम आत्मा के सामने प्रार्थना नहीं करते या अपने दिल की बात नहीं कहते, तो जब तुम मसीह के सामने आओगे, तब तुम्हारे मन में धारणाएँ हो सकती हैं, तुम उसके खिलाफ विद्रोह और उसका प्रतिरोध कर सकते हो, या तुम शायद उससे अनुचित बातें कहो, बेईमानी से बात करो, या अपनी बातों और कार्यों से लगातार विघ्न-बाधा डालो, और इसके बाद हमेशा तुम्हें आत्मग्लानि सहनी होगी। तुम हमेशा आत्मग्लानि क्यों सहोगे? क्योंकि आम तौर पर तुम्हारे पास परमेश्वर की आराधना या उसके साथ व्यवहार करने के सत्य का जरा-सा भी ज्ञान नहीं होता है, और इसलिए जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आती है, तो तुम उलझन में पड़ जाते हो, अभ्यास करना नहीं जानते, और लगातार गलतियाँ करते हो। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को उसकी उपस्थिति में कैसे आना चाहिए? बेशक यह प्रार्थना के जरिए ही होना चाहिए। यदि तुमने प्रार्थना करते समय अपना रवैया ठीक कर लिया है और तुम्हारा दिल शांत है, तो तुम परमेश्वर के सामने आ गए हो। प्रार्थना करने के बाद, तुम्हें इस बात की जाँच करनी चाहिए कि क्या प्रार्थना में बोले गए शब्द तर्कसंगत थे, क्या तुम उपयुक्त स्थिति में थे, क्या तुममें परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला हृदय था, और क्या तुम मानवीय अशुद्धियों या बेईमानी से युक्त थे। यदि तुम्हें कुछ समस्याएँ नजर आती हैं, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के सामने अपनी अशुद्धियों और दोषों को स्वीकार करना चाहिए। इस तरह परमेश्वर से अपने दिल की बात कहने से, तुम्हारी अवस्था सामान्य होती चली जाएगी, तुम्हारे अंदर अधिक-से-अधिक जमीर और विवेक होगा, और तुम्हारी गलत स्थितियाँ कम से कमतर होती जाएँगी। कुछ समय तक इस तरह से अभ्यास करने के बाद, तुम्हारी प्रार्थनाओं में सुधार होता रहेगा, और ज्यादातर समय परमेश्वर उन्हें सुनेगा और स्वीकारेगा। जो लोग अक्सर इस तरह से परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के सामने रहने आए हैं। यदि तुम प्रार्थना को गंभीरता से नहीं लेते या अपनी प्रार्थना के गलत तरीकों में सुधार नहीं करते, तो तुम कभी यह नहीं जान पाओगे कि प्रार्थना कैसे करनी है। प्रार्थना करने का तरीका न जानने के कारण, तुम्हें परमेश्वर के सामने जीना मुश्किल लगेगा। इस तरह के लोगों के पास कोई जीवन प्रवेश नहीं होगा और वे परमेश्वर के वचन से बाहर होंगे। यदि तुम परमेश्वर के सामने प्रार्थना करना या बोलना नहीं जानते, यदि तुम बोलते समय गंभीर नहीं हो, जो मन करे वही कहते हो, और तुम्हें नहीं लगता कि गलत चीजें कहने में कोई समस्या है, और यदि तुम लगातार लापरवाह और भ्रमित रहे हो, तो इस कारण, जब तुम मसीह की उपस्थिति में आओगे, तो तुम्हारे अंदर कुछ गलत कहने या करने का भय बना रहेगा। जितना ज्यादा तुम चीजों के गलत होने से डरोगे, उतनी ही ज्यादा गलतियाँ भी करोगे, और तुम कभी उनकी भरपाई नहीं कर पाओगे। क्योंकि लोग मसीह के साथ लगातार संपर्क में नहीं रह सकते हैं या अक्सर मसीह को आमने-सामने बात करते हुए नहीं सुन सकते हैं, क्योंकि मैं अक्सर तुम लोगों के सामने नहीं हो सकता, इसलिए तुम सबको खोजना चाहिए और अक्सर प्रार्थना करते हुए आत्मा के सामने अपने दिल की बात कहनी चाहिए और यदि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण और परमेश्वर का भय मानने वाला दिल प्राप्त कर लो, तो यह काफी होगा। यदि मैं तुम लोगों से आमने-सामने बात करूँ भी तो, सत्य को स्वीकारना और उसका अनुसरण करना और परमेश्वर का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना तुम्हारे ही हाथों में होगा। अब से, तुम्हें इस बात पर अधिक ध्यान देना चाहिए कि तुम प्रार्थना करते समय क्या कहते हो। प्रार्थना करने, विचार करने और महसूस करने के लिए जितना चाहो उतना समय लो। फिर, जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध कर दे, तब तुम लोग प्रगति करोगे। पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध किए जाने के बाद तुम्हें जो एहसास होता है वह विशेष रूप से सूक्ष्म होता है। इनमें से कुछ सूक्ष्म एहसास और सूक्ष्म ज्ञान हासिल होने के बाद, यदि तुम कुछ चीजें करते हो, या कुछ मामलों को सँभालने के लिए मसीह से संपर्क करते हो, तो तुम यह पहचानने में सक्षम होगे कि कौन-से शब्द विवेकपूर्वक बोले गए हैं और कौन-से नहीं, कौन-सी चीजें विवेकपूर्वक की गई हैं और कौन-सी नहीं। इस प्रकार, तुमने प्रार्थना के उद्देश्यों को हासिल कर लिया होगा।
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