परमेश्वर की सेवकाई के बारे में वचन (अंश 71)

तुम सभी सत्य की दिशा में प्रयास करना चाहते हो। बीते दिनों में तुमने परमेश्वर के वचनों में सत्य के भिन्न-भिन्न पहलुओं का निचोड़ निकालने में थोड़ा प्रयास किया। इससे कुछ लोगों को मामूली लाभ मिला, जबकि कुछ लोगों ने बस विनियमों का पालन करना पसंद किया और भटक गए। नतीजतन, सत्य के सभी पहलुओं को पालन करने वाले नियमों में बदल दिया गया। जब तुम लोग सत्य का निचोड़ इस तरीके से निकालते हो, तब तुम सत्य के भीतर से दूसरों को जीवन पाने या उनके स्वभाव में बदलाव लाने में मदद नहीं करते हो; बल्कि, तुम उन्हें सत्य के भीतर से कुछ ज्ञान या धर्म-सिद्धांत का माहिर बना रहे होते हो। यह कुछ ऐसा है मानो वे परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को समझते हों, जबकि असल में, उन्हें कुछ धर्म-सिद्धांतों और शब्दों में ही महारत प्राप्त होती है; उनके पास सत्य में निहित अर्थ की समझ नहीं होती है। यह ठीक धर्मशास्त्र या बाइबल पढ़ने जैसा है; बाइबल के कुछ ज्ञान और धर्मशास्त्र के कुछ सिद्धांतों का सारांश निकालने के बाद, लोगों ने सिर्फ बाइबल के कुछ ज्ञान और सिद्धांतों की समझ ही हासिल की है। वे उन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोलने में तो निपुण होते हैं, लेकिन उनके पास कोई वास्तविक अनुभव नहीं होता। उनके पास अपने भ्रष्ट स्वभाव की कोई समझ नहीं है, उन्हें परमेश्वर के कार्य की समझ तो और भी कम है। आखिर में, इन्होंने जो हासिल किया है वह सिर्फ कुछ धर्म-सिद्धांत और ज्ञान की बातें हैं; यह तो विनियमों का समूह मात्र है। उन्हें व्यावहारिक कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। अगर परमेश्वर कोई नया कार्य करता है तो क्या ऐसे लोग उसे अपनाने और उसके प्रति समर्पित होने में समर्थ हो सकते हैं? क्या तुम अपने द्वारा निकाले गए सत्य के निचोड़ से इसका कोई मेल बिठा सकते हो? अगर तुम इसका मिलान कर सकते हो और तुम्हारे पास कुछ समझ भी हो, तो तुमने जो चीजें निचोड़ में निकाली हैं, वे कुछ हद तक व्यावहारिक हैं। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो निचोड़ में निकाली गई वे चीजें बस विनियम ही हैं और उनका कोई महत्व नहीं है। ऐसे में, क्या इस तरह सत्य का निचोड़ निकालना सही है? क्या यह सत्य को समझने में लोगों की मदद कर सकता है? अगर इसका कोई असर नहीं पड़ता है, तो ऐसा करना बिल्कुल निरर्थक है। इससे लोग सिर्फ धर्मशास्त्र का अध्ययन ही करते रहते हैं। उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य का अनुभव नहीं हो पाता। इसीलिए पुस्तकों का संपादन करते समय कलीसिया में सिद्धांत जरूर होने चाहिए। उन्हें लोगों को सत्य को आसानी से समझाने, उसमे प्रवेश का रास्ता दिखाने और उनके दिलों में रोशनी लाने में मदद करने में सक्षम होना चाहिए। इससे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना आसान हो जाता है। तुम्हें धर्म में मौजूद उन लोगों की तरह नहीं होना है जो बाइबल और धर्मशास्त्र के ज्ञान का विधिवत अध्ययन करते हैं। इससे लोगों को सिर्फ बाइबल के ज्ञान, धार्मिक अनुष्ठानों और विनियमों की जानकारी मिलेगी, जो उन्हें एक दायरे में सीमित कर देगी। इसमें लोगों को परमेश्वर के समक्ष लाने की क्षमता नहीं है, ताकि वे सत्य और परमेश्वर के इरादों को समझ सके। तुम सोचते हो कि सवालों की झड़ी लगाने और फिर उनका जवाब देने से, या मूल बिंदुओं को चिह्नित करने और कुछ वाक्यों में सत्य का सारांश और निचोड़ निकालने से, ये मुद्दे अपने-आप स्पष्ट हो जाएँगे और भाई-बहनों को आसानी से समझ में आ जाएँगे। तुम्हें लगता है कि यह सही दृष्टिकोण है। लेकिन, लोग इसे पढ़कर सत्य में निहित अर्थ को समझ नहीं पाएँगे; वे कभी भी इसका वास्तविकता से मेल नहीं बिठा पाएँगे। वे सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों में माहिर हैं। इसलिए इन कामों को करने से अच्छा होगा कि इन्हें किया ही न जाए! ऐसा करना लोगों को ज्ञान के बारे में समझाने और उसमें महारत हासिल करने की दिशा में लाने का एक तरीका है। तुम लोगों को धर्म-सिद्धांत और धर्म की ओर जाने का रास्ता दिखा रहे हो और धर्म-सिद्धांत के संदर्भ में उन्हें परमेश्वर में विश्वास दिलाने और उसका अनुसरण करवाने के लिए प्रेरित कर रहे हो। क्या यही वह रास्ता नहीं है जिस पर पौलुस ने लोगों को परमेश्वर में विश्वास दिलाने की ओर प्रेरित किया? तुम लोगों का सोचना है कि आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांत को समझ लेना ही खास महत्व रखता है, और परमेश्वर के वचनों को जानना महत्वपूर्ण नहीं है। यह एक भारी भूल है। ऐसे कई लोग हैं जो इस बात पर ध्यान देते हैं कि वे परमेश्वर के कितने सारे वचन याद कर सकते हैं, कितने सारे धर्म-सिद्धांतों के बारे में बता सकते हैं, और कितने सारे आध्यात्मिक सूत्रों की खोज कर सकते हैं। इसी वजह से तुम लोग हमेशा सत्य के हर पहलू का विधिवत निचोड़ निकालना चाहते हो ताकि हर कोई सुर में सुर मिलाकर बात करे, एक ही धर्म-सिद्धांत का पाठ करे, एक ही ज्ञान सहेजे और एक जैसे विनियमों पर चले। यही तुम लोगों का लक्ष्य है। लगता है तुम लोग ऐसा इसलिए करते हो ताकि अन्य लोगों को सत्य की बेहतर समझ हो, लेकिन यह नहीं जानते हो कि तुम दूसरे लोगों को परमेश्वर के वचनों के धर्म-सैद्धांतिक विनियमों की दिशा में बढ़ा रहे हो, इससे तो वे परमेश्वर के वचनों की सत्य वास्तविकता से ही और दूर भटक जाएँगे। सत्य समझने में लोगों की सचमुच मदद करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों के पाठ को वास्तविकता और लोगों की भ्रष्ट दशाओं के साथ जोड़ना होगा। तुम्हें अपने अंदर की समस्याओं पर चिंतन करना चाहिए और अपने उन भ्रष्ट स्वभावों के बारे में चिंतन करना चाहिए जिन्हें तुम प्रकट करते हो। फिर तुम्हें परमेश्वर के वचनों में सत्य की खोज करके इन समस्याओं को हल करना चाहिए। यही लोगों की वास्तविक समस्याओं का समाधान करते हुए उन्हें सत्य समझाने और वास्तविकता में प्रवेश कराने का एकमात्र तरीका है। सिर्फ इसी नतीजे को हासिल करके तुम वास्तव में लोगों को परमेश्वर के समक्ष लाते हो। अगर तुम सिर्फ आध्यात्मिक सिद्धांत, धर्म-सिद्धांत और विनियमों के बारे में बात करते हो; अगर तुम्हारा ध्यान सिर्फ यह सुनिश्चित करने पर केंद्रित है कि लोगों का व्यवहार अच्छा हो; अगर तुम सिर्फ यही हासिल करना चाहते हो कि लोग एक समान बात बोलें और एक समान विनियमों का पालन करें, लेकिन तुम उन्हें सत्य की समझ देने में नाकाम होते हो, और उन्हें खुद को बेहतर ढंग से समझने में मदद नहीं कर पाते हो, ताकि वे पश्चात्ताप कर सकें और अपने में बदलाव ला सकें, तो तुमने जो कुछ भी समझा है, वह सिर्फ शब्द और धर्मसिद्धांत हैं, तुम किसी भी सत्य वास्तविकता को नहीं जानते। अंत में, इस तरीके से परमेश्वर पर विश्वास करके, तुम न सिर्फ सत्य को पाने में नाकाम रहोगे, बल्कि खुद की प्रगति में भी बाधा बनोगे और अपने को ही बरबाद कर दोगे—तुम कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे।

क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के बोलने के किन्हीं ढर्रों पर गौर किया है? कुछ लोग इसे ऐसे बताते हैं : परमेश्वर के हरेक प्रवचन की विषय-वस्तु के कई पहलू होते हैं। हर एक अंश और हर एक वाक्य का अर्थ अलग-अलग है। इंसान के लिए इसे न तो याद रखना आसान है, न ही लोगों के लिए इसे समझ पाना। अगर लोग हर एक अंश के मुख्य विचार को संक्षेप में बताना भी चाहें, तो वे नहीं बता पाएँगे। कम काबिलियत वाले लोग परमेश्वर के वचनों को नहीं समझ सकते। उनके साथ चाहे जैसी भी संगति करें, फिर भी वे सत्य को समझने में नाकाम होते हैं। परमेश्वर के वचन कोई उपन्यास, गद्य या साहित्यिक रचनाएँ नहीं हैं; वे सत्य हैं, और ऐसी भाषा है जो इंसान को जीवन देता है। इन वचनों को इंसान उन पर सिर्फ चिंतन-मनन करके नहीं समझ सकता है, न ही लोग थोड़े और प्रयास करके उनके भीतर के नियमों का सार निकाल सकते हैं। इसीलिए, चाहे तुम्हें सत्य के किसी भी पहलू के बारे में थोड़ा-बहुत ज्ञान रहे, और तुम कुछ साफ-साफ बता भी सको, फिर भी तुम शेखी नहीं बघार सकते, क्योंकि तुम जो समझते हो वह महज आंशिक ज्ञान है। यह महज सतह की खुरचन है, यह समुद्र में एक बूँद-सा है, और परमेश्वर के सच्चे इरादों को समझने के मुकाबले काफी कम पड़ता है। परमेश्वर के हर प्रवचन में सत्य के कई पहलू होते हैं। जैसे कि कोई प्रवचन परमेश्वर के देहधारण के रहस्यों के बारे में बताता है। इसमें देहधारण का अर्थ, देहधारण से पूरा किया जाने वाला कार्य और लोगों के परमेश्वर पर विश्वास करने का तरीका शामिल हैं। इसमें यह भी आ सकता है कि लोग परमेश्वर को कैसे जानें और परमेश्वर से कैसे प्यार करें। इसमें सत्य के कई पहलू शामिल हैं। अगर, तुम यह सोचते हो कि देहधारण के बस कुछ ही अर्थ हैं, जिन्हें कई वाक्यों में समेटा जा सकता है, तो इंसान अपने मन में हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और कल्पनाएँ क्यों रखता है? देहधारण का कार्य लोगों पर क्या प्रभाव छोड़ना चाहता है? यह लोगों को परमेश्वर के वचन सुनने और परमेश्वर के पास लौटने में सक्षम बनाता है। यह इंसान से संवाद करने, इंसान को प्रत्यक्ष रूप से बचाने और उसे परमेश्वर के बारे में जानने में सक्षम करने के लिए किया जाता है। परमेश्वर को जानने के बाद, लोग स्वाभाविक रूप से परमेश्वर का भय मानने लगते हैं, और उन के लिए परमेश्वर के प्रति समर्पित होना आसान होता है। इसीलिए उसके वचन या सत्य का कोई भी पहलू उतना सरल नहीं जितना तुम सोचते हो। अगर तुम परमेश्वर के वचनों और दिव्य भाषा को इतना सरल मानते हो, यह सोचते हो कि किसी भी समस्या का हल परमेश्वर के वचनों के एक अंश से ही हो सकता है, तो तुम सत्य को पूरी तरह से नहीं समझते। भले ही तुम्हारी समझ सत्य के अनुरूप हो, फिर भी यह एकतरफा है। परमेश्वर का हर एक प्रवचन कई परिप्रेक्ष्यों से बोला जाता है। परमेश्वर के वचनों का सार-संक्षेप या निचोड़ इंसान नहीं निकाल सकता। उनका निचोड़ निकलने के बाद, तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर के वचनों का एक अंश सिर्फ एक ही मसले को हल करता है, जबकि असल में वह अंश कई समस्याओं का समाधान कर सकता है। तुम उसे संक्षिप्त या परिसीमित नहीं कर सकते, क्योंकि सत्य के सभी पहलुओं में कई वास्तविकताएँ छिपी होती हैं। ऐसा क्यों कहा जाता है कि सत्य ही जीवन है, कि लोग इसका आनंद ले सकते हैं, और यह कुछ ऐसा है कि कई जन्मों या सैकड़ों सालों के बाद भी जिसे लोग पूरी तरह अनुभव नहीं कर सकते हैं? अगर तुम सत्य के किसी पहलू या परमेश्वर के वचनों के किसी अंश का निचोड़ निकालते हो, तो तुमने जिस अंश का निचोड़ निकाला है वह एक सूत्र, एक विनियम, एक धर्म-सिद्धांत बन जाता है—यह अब सत्य नहीं रह जाता है। भले ही ये परमेश्वर के मूल वचन हैं, एक भी शब्द बदले बिना, अगर तुम इस प्रकार निचोड़ निकालकर इन्हें व्यवस्थित करते हो, तो वे सत्य नहीं, बल्कि सैद्धांतिक शब्द बन जाते हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोगों को गुमराह कर धर्म-सिद्धांत की ओर ले जाओगे, तुम अपने धर्म-सिद्धांत के अनुसार उन्हें सोचने, कल्पना करने, समस्याओं पर विचार करने और परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के लिए मजबूर करोगे। इसे बार-बार पढ़ने के बाद लोग सिर्फ एक धर्म-सिद्धांत को समझ कर उस अंश में एक विनियम देखेंगे और उस पहलू को देख नहीं पाएंगे जो सत्य वास्तविकता है। अंत में तुम लोगों को धर्म-सिद्धांत समझने और विनियमों का पालन करने के मार्ग पर ले जाओगे। वे लोग नहीं जान पाएँगे कि परमेश्वर के वचनों का अनुभव कैसे करें। वे लोग सिर्फ धर्म-सिद्धांतों को समझेंगे और धर्म-सिद्धांतों की चर्चा करेंगे, लेकिन न तो सत्य समझेंगे और न ही परमेश्वर को जान पाएँगे। उन लोगों के मुँह से जो भी निकलेगा वह सुनने में सुखद और सही धर्म-सिद्धांत जैसा लगेगा, फिर भी उनमें रत्ती-भर वास्तविकता नहीं रहेगी और उनके लिए कोई साध्य मार्ग भी नहीं होगा। वास्तव में ऐसी अगुआई इंसान को बहुत नुकसान पहुँचाती है!

क्या तुम लोगों को पता है कि परमेश्वर की सेवा में इंसान की सबसे बड़ी वर्जना क्या है? कुछ अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा अलग दिखना चाहते हैं, बाकी लोगों से आगे रहना और दिखावा करना चाहते हैं और नई-नई तरकीबें ढूँढ़ने में लगे रहना चाहते हैं, ताकि परमेश्वर को दिखा सकें कि वास्तव में वे कितने सक्षम हैं। लेकिन, वे सत्य को समझने और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। यह काम करने का सबसे मूर्खतापूर्ण तरीका है। क्या यह असल में घमंडी स्वभाव को नहीं दिखाता है? कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं, “अगर मैं ऐसा करता हूँ, तो मुझे यकीन है कि इससे परमेश्वर खुश होगा; वह इसे पसंद करेगा। इस बार मैं परमेश्वर को ऐसा करके दिखाऊँगा; यह उसे एक सुखद आश्चर्य देगा।” “सुखद आश्चर्य” से कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे क्या होगा? ऐसे लोग जो करते हैं दूसरे लोग बेतुका समझते हैं। परमेश्वर के घर के कार्य में इनके रहने से कोई लाभ नहीं मिलने वाला है, बल्कि वे पैसे की बर्बादी हैं—वे परमेश्वर की भेंट को नुकसान पहुँचाते हैं। परमेश्वर की भेंट का उपयोग मनमाने ढंग से नहीं किया जाना चाहिए; परमेश्वर की भेंट को बर्बाद करना पाप है। ये लोग अंततः परमेश्वर के स्वभाव का अनादर करते हैं, पवित्र आत्मा उनमें काम करना बंद कर देता है और उन्हें निकाल दिया जाता है। इस प्रकार कभी भी आवेग में आकर अपनी मनमर्जी नहीं करनी चाहिए। तुम परिणाम पर क्यों विचार नहीं कर पाते? परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करके उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने के कारण जब तुम्हें हटा दिया जाएगा, तो तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ नहीं बचेगा। जाने-अनजाने तुम्हारी मंशा चाहे जो कुछ भी हो, अगर तुम परमेश्वर के स्वभाव और उसके इरादों को नहीं समझोगे, तो तुम उसे आसानी से अपमानित कर दोगे और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन कर बैठोगे; यह ऐसी बात है जिसे लेकर सबको सतर्क रहना चाहिए। परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के उल्लंघन या परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करने पर, अगर यह मामला बेहद गंभीर है, तो परमेश्वर यह विचार नहीं करेगा कि तुमने यह जानबूझकर किया या अनजाने में। ऐसे मामले में तुम्हें साफ-साफ समझना पड़ेगा। अगर तुम इस मसले को नहीं समझ पाओगे, तो गड़बड़ियाँ पैदा करोगे। परमेश्वर की सेवा में लोग शानदार प्रगति करना, शानदार चीजें करना, शानदार बातें बोलना, शानदार काम करना, शानदार बैठकें आयोजित करना और शानदार अगुआ बनना चाहते हैं। अगर तुम हमेशा ऐसी ऊँची महत्वाकांक्षाएँ रखोगे, तो तुम परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करोगे; जो लोग ऐसा करते हैं, वे शीघ्र ही मर जाएँगे। अगर तुम परमेश्वर की सेवा में सदाचारी, कर्तव्यनिष्ठ और विवेकशील नहीं रहोगे, तो तुम देर-सबेर उसके स्वभाव का अपमान करोगे। अगर तुम परमेश्वर के स्वभाव का अनादर करोगे, उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करोगे, और ऐसा करके परमेश्वर के खिलाफ पाप करोगे, तो वह यह नहीं देखेगा कि तुमने ऐसा क्यों किया या तुम्हारा इरादा क्या था। ऐसे में क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर अनुचित कार्य करता है? क्या वह इंसान की परवाह नहीं करता है? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि तुम अंधे या बहरे नहीं हो, न ही तुम मूर्ख हो। परमेश्वर के प्रशासनिक आदेश स्पष्ट और प्रत्यक्ष हैं। तुम उन्हें देख और सुन सकते हो। अगर तुम अभी भी उनका उल्लंघन करोगे, तो इसे तुम किस तर्क से इसे सही ठहराओगे? भले ही तुम्हारा ऐसा कोई इरादा न हो, अगर तुम परमेश्वर का अपमान करोगे, तो समय आने पर तुम्हें बर्बादी और दंड का सामना करना ही पड़ेगा। तुम्हारे जो भी हालात रहे हों, क्या उससे कोई फर्क भी पड़ेगा? शैतानी प्रकृति वाले लोग स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर सकते हैं। किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने या उसके स्वभाव का अनादर करने के लिए चाकू की नोक पर मजबूर नहीं किया जा सकता है; ऐसा कभी होता ही नहीं। बल्कि, यह कुछ ऐसा है जो इंसान की प्रकृति से तय होता है। “परमेश्वर के स्वभाव का अनादर नहीं किया जा सकता।” इस बात में अर्थ छिपे हैं। हालाँकि, परमेश्वर लोगों को उनकी दशा और पृष्ठभूमि के आधार पर दंड देता है। परमेश्वर को जाने बिना उसका अपमान करना एक किस्म की मनोदशा है, जबकि परमेश्वर को अच्छी तरह जानने के बावजूद उसका अपमान करना दूसरी मनोदशा है। कुछ लोग परमेश्वर को अच्छी तरह जानते हुए भी उसका अपमान कर सकते हैं और उन्हें दंडित किया जाएगा। परमेश्वर अपने कार्य के हर चरण में अपने कुछ स्वभावों को व्यक्त करता है। क्या इंसान इसमें से कुछ भी नहीं समझ पाया है? क्या लोग इस बारे में थोड़ा भी नहीं जानते हैं कि परमेश्वर ने अपने व्यक्त किए गए अनेक सत्यों के माध्यम से अपने किन स्वभावों का खुलासा किया है, और लोगों के कौन-से क्रियाकलाप और शब्द उसका अपमान कर सकते हैं? और जहाँ तक परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों द्वारा निर्धारित मामलों की बात है—इंसान को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए—क्या लोग ये भी नहीं जानते हैं? सत्य और सिद्धांतों से संबंधित कुछ मामलों को लोग पूरी तरह से नहीं समझ सकते क्योंकि उन्होंने उनका अनुभव नहीं किया है; वे उन्हें समझने में असमर्थ हैं। हालाँकि, प्रशासनिक आदेशों के मामले एक निर्धारित दायरे में आते हैं। वे विनियम हैं। इंसान इन बातों को आसानी से समझ कर अपना सकता है। उनका अध्ययन करने या समझाने की कोई जरूरत नहीं है। लोग उनके अर्थ को जैसे समझते हैं उसी हिसाब से काम करना उनके लिए काफी है। अगर तुम लापरवाह हो, तुम्हारा दिल परमेश्वर का भय नहीं मानता है, और तुम जानबूझकर प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करते हो, तो तुम्हें दंड मिलना ही चाहिए!

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