सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है (भाग तीन)
जब कोई व्यक्ति यह पता लगाने में सक्षम हो जाए कि उसकी भ्रष्टता कितनी गंभीर समस्या है तो यह अच्छी बात है या बुरी? यह अच्छी बात है। तुम अपनी भ्रष्टता को जितना अधिक खोज लोगे और जितने सटीक रूप से समझ लोगे, और तुम अपने सार को जितना अधिक पहचान लोगे, तुम उतने ही अधिक बचाए जा सकते हो और तुम उद्धार पाने के उतने ही करीब रहोगे। तुम अपनी समस्याओं को खोजने में जितना अधिक असमर्थ रहोगे, हमेशा खुद को अच्छा-भला मानते रहोगे, तो फिर तुम उद्धार के मार्ग से उतने ही दूर हो—तुम अभी भी काफी खतरे में हो। अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलो जो हमेशा यह शेखी बघारता रहे कि वह अपना कर्तव्य कितने अच्छे ढंग से निभाता है, और सत्य पर संगति करने और सत्य का अभ्यास करने की अपनी क्षमता पर डींग हाँकता रहता है, तो इससे सिद्ध होता है कि उस व्यक्ति का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। वह बचकाना है, उसका जीवन अपरिपक्व है। किस प्रकार के व्यक्ति के पास उद्धार पाने की अधिक उम्मीद होती है और वह उद्धार के मार्ग पर कदम रख सकता है? ऐसा व्यक्ति वही है जो वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानता है। वह जितनी गहराई से इसे समझता है, बचाए जाने के उतने ही अधिक करीब होता है। यह समझना कि किसी व्यक्ति के अपने सारे भ्रष्ट स्वभाव शैतानी प्रकृति से उत्पन्न होते हैं, यह देखना कि उसके पास अंतरात्मा या विवेक नहीं है, कि वह किसी भी सत्य को अभ्यास में नहीं ला सकता, कि वह सिर्फ अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीता है और उसमें कोई भी मानवता नहीं है, कि वह एक जीता-जागता दानव और शैतान है—यह वास्तव में अपनी भ्रष्टता के सार को जानना है। इसे इस ढंग से समझने के कारण यह समस्या काफी गंभीर लगती है, लेकिन क्या यह अच्छी बात है या बुरी? (अच्छी बात है।) भले ही यह अच्छी बात है, लेकिन कुछ लोग अपना शैतानी और दानवी पहलू देखकर नकारात्मक होकर सोचने लगते हैं, “अब मेरा कुछ नहीं हो सकता। परमेश्वर मुझे नहीं चाहता। अब मुझे नरक में भेजा जाना तय है। कोई सूरत ही नहीं है कि परमेश्वर मुझे बचा ले।” क्या ऐसा ही कुछ होता है? तुम्हीं बताओ, क्या ऐसे लोग हैं जो खुद को जितना ज्यादा समझते जाते हैं उतने ही ज्यादा नकारात्मक होते जाते हैं? वे सोचते हैं, “मैं तो पूरा ही बर्बाद हो गया। परमेश्वर का न्याय और ताड़ना मुझ पर आन पड़ी है। यह दंड है, प्रतिकार है। परमेश्वर मुझे नहीं चाहता। मेरे बचा लिए जाने की कोई उम्मीद नहीं है।” क्या लोगों में ऐसी गलत धारणाएँ होती हैं? (बिल्कुल।) हकीकत में, जो व्यक्ति अपनी आशाहीनता को जितना अधिक पहचानता है, उसके लिए उतनी ही अधिक आशा होती है। नकारात्मक मत बनो, हार मत मानो। खुद को जानना अच्छी बात है, यह उद्धार पाने का अनिवार्य मार्ग है। अगर कोई व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव और परमेश्वर के प्रति अपने विरोध के सार से पूरी तरह अनजान है, और वह खुद को बदलने की भी नहीं सोचता है, तो यह समस्या है। ऐसे लोग जड़ होते हैं, वे मृत हैं। क्या किसी मृत व्यक्ति को दुबारा जीवित करना आसान है? एक बार जब वह मर चुका है, तो उसे जीवित करना आसान नहीं है।
किस प्रकार के व्यक्ति को परमेश्वर अभी भी पश्चात्ताप करने के मौके देता है? किस प्रकार के व्यक्ति के लिए अभी भी बचाए जाने की उम्मीद होती है? इन लोगों को कैसी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करनी चाहिए? सबसे पहले उनमें अंतरात्मा का बोध होना चाहिए। उन पर चाहे जो भी बीते, वे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार सकें, दिल से यह समझें कि यह तो परमेश्वर उन्हें बचाने का कार्य कर रहा है। वे कहेंगे, “मैं परमेश्वर के इरादे नहीं समझता, न मैं यह समझता हूँ कि ऐसी चीज मेरे साथ क्यों घटती है, लेकिन मुझे भरोसा है कि परमेश्वर मुझे बचाने के लिए यह सब कर रहा है। मैं उससे विद्रोह नहीं कर सकता, न उसके दिल को आहत कर सकता हूँ। मुझे समर्पित होना चाहिए और खुद के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए।” उनमें ऐसी अंतरात्मा होती है। यही नहीं, अपने विवेक से वे सोचते हैं, “परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। मैं सृजित प्राणी हूँ। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है। परमेश्वर मेरे भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करने के लिए मेरा न्याय करता है और मुझे ताड़ना देता है। सृष्टिकर्ता अपने सृजित प्राणियों से जिस प्रकार भी सलूक करता है वह पूरी तरह विवेकपूर्ण और उचित है।” क्या लोगों में यही विवेक नहीं होना चाहिए? लोगों को परमेश्वर से यह कहकर माँग नहीं करनी चाहिए, “मैं एक इंसान हूँ। मेरे पास सत्यनिष्ठा और आत्मसम्मान है। मैं तुम्हें अपने साथ इस तरह पेश नहीं आने दूँगा।” क्या यह विवेकपूर्ण है? यह शैतानी स्वभाव है, इसमें सामान्य मनुष्य के विवेक का अभाव है, परमेश्वर इस तरह के लोगों को नहीं बचाएगा; वह उन्हें सृजित प्राणी के रूप में नहीं स्वीकारता। मान लो तुमने यह कहा, “मुझे परमेश्वर ने बनाया; वह मुझसे जैसे भी पेश आना चाहता है ठीक है। वह मुझे गधा या घोड़ा या कुछ और मानकर भी सलूक कर सकता है। मेरी अपनी कोई पसंद या अपेक्षा नहीं है।” अगर तुमने ऐसा कहा तो क्या अपना कर्तव्य कुछ-कुछ कठिन और थकाऊ होने पर भी निभाने में अपनी पसंद-नापसंद दिखाना चाहोगे? (नहीं।) बिल्कुल सही। तुम्हें समर्पण करना चाहिए। तुम समर्पण कैसे करोगे? पहले पहल समर्पण कठिन और सहन करना कठिन होता है। तुम हमेशा इससे भागना और इसे नकारना चाहते हो। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य खोजकर स्पष्ट रूप से समस्या का सार समझना चाहिए और फिर अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए। सत्य के अभ्यास में तुम्हें बस तन-मन लगाकर थोड़ा-थोड़ा करके समर्पण करते जाना चाहिए। इसे विवेकशील होना कहते हैं। तुम्हारे पास पहले इस तरह का विवेक होना चाहिए। यदि किसी के पास अंतरात्मा और विवेक है, तो उसे और किस चीज की जरूरत होगी? उसमें शर्म की भावना होनी चाहिए। किन स्थितियों के लिए किसी में शर्म की भावना होना जरूरी है? वह कुछ गलत करे, जब वह विद्रोहीपन, कुटिलता और कपट उजागर करे, जब वह झूठ बोले और धोखाधड़ी करे—ऐसे वक्त में उसमें जागरूकता और शर्म की भावना होना जरूरी है। उसे जानना होगा कि चीजों को इस तरीके से करना सत्य से मेल नहीं खाता, यह गरिमापूर्ण नहीं है, उसे खुद पर ग्लानि होनी चाहिए। जिसमें शर्म की कोई भावना नहीं होती, वह निर्लज्ज और बेहया व्यक्ति है और इंसान कहलाने लायक नहीं है। जो सत्य नहीं स्वीकारता, उसके लिए सब कुछ खत्म हो चुका है। उसके साथ सत्य के बारे में चाहे जिस प्रकार संगति कर लें, वह इसे आत्मसात नहीं करता; और चाहे कुछ भी कह लें, फिर भी उसमें जागरूकता नहीं आती। इसे ही शर्म की भावना का अभाव कहते हैं। क्या निर्लज्ज लोगों को ग्लानि हो सकती है? शर्म की भावना के बिना किसी की कोई गरिमा नहीं होती, और ऐसे व्यक्ति को कोई ग्लानि नहीं होती। जिन लोगों में ग्लानि नहीं होती, क्या वे खुद को पूरी तरह बदल सकते हैं? (नहीं।) जो लोग खुद को पूरी तरह बदल नहीं सकते, वे अपनी बुराई नहीं छोड़ेंगे। “अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्चाताप करें” (योना 3:8)। ऐसा कर पाने के लिए व्यक्ति के पास क्या होना चाहिए? उसमें शर्म की भावना और अंतरात्मा का बोध होना चाहिए। जब वह गलती करेगा तो खुद की निंदा करेगा और ग्लानि महसूस करेगा और अपने गलत तरीके छोड़ेगा। ऐसा इंसान खुद को पूरा बदल सकता है। व्यक्ति में कम से कम इतनी मानवता तो होनी ही चाहिए। अंतरात्मा, विवेक और शर्म की भावना के अलावा और किस चीज की जरूरत होती है? (सकारात्मक चीजों से प्रेम की।) बिल्कुल सही। सकारात्मक चीजों से प्रेम यानी सत्य से प्रेम करना। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वही दयालु होते हैं। क्या बुरे लोग सकारात्मक चीजों से प्यार करते हैं? बुरे लोग दुष्ट, क्रूर और दुर्भावनापूर्ण चीजों से प्रेम करते हैं; वे उन सभी चीजों से प्रेम करते हैं जो नकारात्मक चीजों से जुड़ी हों। जब तुम उनके साथ सकारात्मक चीजों के बारे में बात करते हो, या इस बारे में बात करते हो कि किस प्रकार जिस किसी चीज से लोगों को लाभ होता है और वह चीज परमेश्वर से आती है, तो वे न इससे खुश होते हैं, न ही इसके बारे में सुनना चाहते हैं—उनके पास बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं होती है। कोई उनके साथ सत्य पर चाहे कितनी अच्छी तरह संगति कर ले या उनसे कितने ही व्यावहारिक ढंग से बात कर ले, इसमें उनकी बिल्कुल भी रुचि नहीं होती, और वे शायद वैर-भाव और शत्रुता भी व्यक्त कर सकते हैं। लेकिन किसी के मुँह से दैहिक सुखों के बारे में सुनते ही उनकी आँखों में चमक आने लगती है, और वे उत्साह से भर उठते हैं। यह क्रूर और दुष्ट स्वभाव है, और वे नेक दिल वाले नहीं होते हैं। इसलिए वे किसी भी तरह सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं कर सकते। अपने दिल में वे सकारात्मक चीजों को कैसा मानते हैं? वे उनका तिरस्कार करते हैं और हिकारत से देखते हैं, वे इन चीजों की हँसी उड़ाते हैं। जब ईमानदार व्यक्ति बनने की बात होती है तो वे सोचते हैं, “ईमानदार होने से तुम घाटे में रहते हो। मैं तो ऐसा करने से रहा! अगर तुम ईमानदार हो तो मूर्ख कहलाओगे। खुद को देखो, तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए कितने कष्ट झेल रहे हो और कड़ी मेहनत कर रहे हो, न तुम्हें अपने भविष्य की चिंता है और न ही अपनी सेहत की। अगर तुम थक कर ढेर हो गए तो कौन तुम्हारी परवाह करेगा? मैं खुद को थकाकर चूर नहीं कर सकता।” कोई और कह सकता है, “चलो अपने बच निकलने के लिए रास्ता छोड़ दें। हम मूर्खों की तरह अपनी कमर नहीं तोड़ सकते। हमें अपनी वैकल्पिक योजना बनानी होगी और फिर थोड़ी-सी और मेहनत करनी होगी।” यह सुनकर बुरे लोग खुश हो जाएँगे; यह बात उन्हें रास आ जाती है। लेकिन जब परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण करने और अपने कर्तव्य के लिए खुद को समर्पित होकर खपाने की बात आती है तो उन्हें विकर्षण और नफरत होती है और वे इसे आत्मसात नहीं करेंगे। क्या ऐसा इंसान क्रूर नहीं होता? ऐसे सभी लोगों का क्रूर स्वभाव होता है। जब तक तुम उनके साथ सत्य पर संगति और अभ्यास के सिद्धांतों के बारे में बात करते हो, वे चिढ़ते रहते हैं और सुनना नहीं चाहते हैं। उन्हें लगता है कि इससे उनके अभिमान को चोट पहुँचती है, उनकी गरिमा को ठेस पहुँचती है, और उन्हें इसका कोई लाभ नहीं है। मन ही मन वे कहेंगे : “सत्य के बारे में, अभ्यास के सिद्धांतों के बारे में लगातार बात करते रहना। हमेशा ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में बात करते रहना—क्या ईमानदारी से पेट भर पाता है? क्या ईमानदारी से बोलने से तुम्हें पैसा मिल सकता है? बेईमानी से मुझे फायदा होगा!” यह कैसा तर्क है? यह किसी लुटेरे का तर्क है। क्या यह क्रूर स्वभाव नहीं है? क्या यह व्यक्ति दयालु है? (नहीं।) इस प्रकार का व्यक्ति सत्य हासिल नहीं कर सकता। वह जो थोड़ा-बहुत अर्पित करता है, खुद को खपाता और त्यागता है, सब कुछ एक लक्ष्य की ओर निर्देशित होता है, जिसका हिसाब वह बहुत पहले ही लगा चुका होता है। वह केवल यह सोचता है कि कुछ देकर अगर बदले में कुछ ज्यादा मिले तो यह अच्छा सौदा है। यह कौन-सा स्वभाव है? यह दुष्ट और क्रूर स्वभाव है।
परमेश्वर में विश्वास करने वाले ज्यादातर लोग सत्य नहीं खोजते। वे हमेशा अपनी साजिशें और व्यवस्थाएँ बनाना चाहते हैं। लिहाजा कई साल ऐसा करके भी वे कुछ खास हासिल नहीं कर पाते—वे कोई सत्य नहीं समझ पाते और कोई भी अनुभवजन्य गवाही साझा नहीं कर पाते। इस समय वे पछताते हैं और सोचते हैं कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उस पर विश्वास करना सबसे अच्छा रहेगा। उस समय अपनी इच्छा के अनुसार योजनाएँ बनाकर उन्हें लगा कि वे काफी चतुर हैं, लेकिन सत्य हासिल न करने के कारण अंत में वे ही घाटे में रहे। इन नाकामियों के जरिए ही लोग सत्य को समझकर जाग पाते हैं। जब उन्हें अपने जीवन में कुछ नुकसान झेलना पड़ता है, तब जाकर वे सही मार्ग पर आते हैं और अधिक सीधा मार्ग अपनाने लगते हैं। अगर वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उस पर विश्वास करते, तो वे इतने घुमावदार रास्तों से बच जाते। कुछ लोग कई चीजों का अनुभव करने और कुछ नाकामियों और झटकों का सामना करने के बाद कुछ सत्य समझने लगते हैं। वे इन मामलों की असलियत समझते हैं और सब कुछ परमेश्वर के हाथों में सौंपकर स्वेच्छा से उसके आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकते हैं। इस मुकाम पर वे सही मार्ग पर होते हैं। लेकिन दुष्ट और क्रूर स्वभाव वाले लोग खुद को परमेश्वर को नहीं सौंपते हैं। वे सदा अपनी मेहनत पर भरोसा करना चाहते हैं और हमेशा सवाल करते हैं, “क्या भाग्य को वास्तव में परमेश्वर नियंत्रित करता है? क्या परमेश्वर वाकई सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है?” कुछ लोग परमेश्वर के घर में वही उपदेश और संगतियाँ सुनते हैं और जितना ज्यादा सुनते हैं उतने अधिक उत्साही होते जाते हैं। उनकी दशा सुधर जाती है और वे जितना ज्यादा सुनते हैं उतना ही उनमें बदलाव आता जाता है। लेकिन कुछ दूसरे लोग सिर्फ यह सोचते हैं कि यह अधिक से अधिक जटिल और अप्राप्य है। इन लोगों में आध्यात्मिक समझ का अभाव होता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उपदेश और संगतियाँ सुनकर उनसे विमुख हो जाते हैं और वे पूरी तरह बेरुखी अपना लेते हैं। इससे लोगों की प्रकृति में अंतर प्रकट हो जाता है, भेड़ें और बकरियाँ अलग-अलग हो जाती हैं, सत्य से प्रेम करने और न करने वाले अलग-अलग हो जाते हैं। एक समूह परमेश्वर के वचन स्वीकारता है, सत्य स्वीकारता है और परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारता है। दूसरा समूह सत्य नहीं स्वीकारता, फिर चाहे वह जिस किसी तरह से भी उपदेश सुनता हो। उसे लगता है कि ये सब जुमले हैं, और अगर वह इन्हें समझ भी ले तो इनका अभ्यास करने को तैयार नहीं होता, क्योंकि वह अपनी पुरानी योजनाएँ, स्वार्थी इच्छाएँ और अपने हित नहीं छोड़ पाता है। इसलिए वह बरसों विश्वास करने के बाद भी बदलता नहीं है। क्या कलीसिया के भीतर के इन दो समूहों के बीच के मतभेद बिल्कुल स्पष्ट नहीं होते हैं? जो सच्चे मन से परमेश्वर को चाहते हैं उन पर दूसरों के कहने का कोई असर नहीं पड़ता, फिर चाहे वे कुछ भी कहें; वे खुद को परमेश्वर के लिए खपाने में लगे रहते हैं, परमेश्वर के वचनों को सही मानते हैं और यह भी मानते हैं कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना सर्वोच्च सिद्धांत है। जो दुष्ट हैं और सत्य से प्रेम नहीं करते, उनके मन में हमेशा चंचल विचार घूमते रहते हैं। अगर आज उन्हें आशीष पाने की धुँधली-सी उम्मीद भी दिख जाए तो वे सबको दिखाने के लिए अपना सब कुछ झोंक देंगे और अच्छी चीजें करेंगे, उन्हें अपने पक्ष में करने की उम्मीद करेंगे। लेकिन कुछ समय बाद जब परमेश्वर उन्हें आशीष नहीं देता, तो वे पछताने और शिकायत करने लगते हैं, और इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं : “परमेश्वर सब चीजों पर संप्रभुता रखता है; वह पक्षपात नहीं करता—मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि ये वचन सही हैं।” वे अपने फौरी हितों के परे नहीं देख सकते; अगर उन्हें कोई फायदा न हो रहा हो तो वे अपनी उँगली भी नहीं हिलाएँगे। क्या यह क्रूर नहीं है? वे चाहे जिससे भी बात करें, उसके साथ सौदा पटाने में लगे रहते हैं, वे तो परमेश्वर के साथ भी सौदा पटाने का दुस्साहस करते हैं। उन्हें लगता है : “मुझे कुछ फायदा दिखना चाहिए और वो भी अभी के अभी। मुझे तुरंत फायदा होना चाहिए!” ऐसी जबरदस्ती—क्या यह कहना गलत होगा कि उनमें क्रूर स्वभाव होता है? (बिल्कुल नहीं।) तो फिर उनकी क्रूरता कैसे साबित हो सकती है? जब उनका सामना किसी छोटे-से परीक्षण या आपदा से होगा, तो वे इसे स्वीकार नहीं पाएँगे और अपना कर्तव्य नहीं निभाएँगे। उन्हें लगेगा कि उन्हें कोई घाटा हुआ है : “मैंने इतना अधिक निवेश किया, फिर भी परमेश्वर ने मुझे आशीष नहीं दिया। क्या कोई परमेश्वर है भी? यह सही मार्ग है भी या नहीं?” उनका दिल संदेह से डोलता रहता है। उन्हें लाभ दिखना चाहिए, और इससे साबित होता है कि वे स्वेच्छा से और सच्चाई व निष्ठा के साथ त्याग नहीं करते; इस तरह उनका खुलासा हो जाता है। जब अय्यूब परीक्षणों से गुजर रहा था तो उसकी पत्नी ने क्या कहा? (“क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा” (अय्यूब 2:9)।) वह छद्म-विश्वासी थी, और जब आपदा बरपी तो वह परमेश्वर से मुकरकर उसे छोड़ रही थी। जब परमेश्वर ने आशीष दी तो उसने कहा, “हे यहोवा परमेश्वर, तू महान रक्षक है! तूने मुझे इतनी सारी संपत्ति देकर धन्य कर दिया। मैं तेरा अनुसरण करूँगी। तू मेरा परमेश्वर है!” और जब परमेश्वर ने उससे सारी संपत्ति छीन ली तो उसने कहा, “तू मेरा परमेश्वर नहीं है।” उसने तो अय्यूब से भी कहा, “विश्वास मत कर। परमेश्वर नहीं है! अगर होता तो वह लुटेरों को हमारी संपत्ति छीनकर कैसे ले जाने देता? उसने हमारी रक्षा क्यों नहीं की?” यह कैसा स्वभाव है? यह दुष्ट स्वभाव है। जैसे ही उनके हितों को क्षति पहुँचती है, और उनके अपने लक्ष्य और इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, वे तुरंत आपा खो बैठते हैं, विद्रोह कर देते हैं और यहूदा बनकर परमेश्वर से विश्वासघात करते हैं और उसे त्याग देते हैं। क्या ऐसे बहुत से लोग हैं? हो सकता है ऐसे साफ तौर पर बुरे लोग और छद्म-विश्वासी अभी भी कुछ हद तक कलीसिया के अंदर हों। लेकिन कुछ लोगों की सिर्फ दशा ऐसी होती है; यानी उनका स्वभाव तो ऐसा होता है लेकिन जरूरी नहीं कि वे इसी किस्म के लोग हों। लेकिन अगर तुम्हारा ऐसा स्वभाव है तो क्या इसे बदलने की जरूरत है? (बिल्कुल।) अगर तुम्हारा ऐसा स्वभाव है तो इसका मतलब है कि तुम्हारी प्रकृति भी क्रूर है। ऐसे क्रूर स्वभाव के रहते तुम किसी भी पल परमेश्वर का विरोध कर उस पर विश्वासघात कर सकते हो और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर सकते हो। जिस दिन भी तुम ये भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदलते, उस दिन तुम परमेश्वर के अनुरूप नहीं रहते हो। जब तुम परमेश्वर के अनुरूप नहीं होते, तुम उसके समक्ष नहीं आ सकते, उसके कार्य का अनुभव नहीं कर सकते और तुम्हारे पास उद्धार पाने का कोई उपाय नहीं होता।
अय्यूब सच्ची आस्था वाला इंसान था। जब परमेश्वर ने आशीष दिया, तो उसने परमेश्वर को धन्यवाद दिया। जब परमेश्वर ने उसे अनुशासित और वंचित किया, उसने तब भी परमेश्वर को धन्यवाद दिया। अपने अनुभव के अंत में, जब वह बूढ़ा हो गया और परमेश्वर ने उसका सब कुछ छीन लिया, तो अय्यूब ने क्या प्रतिक्रिया दी? शिकायत करना तो दूर रहा, उसने परमेश्वर की प्रशंसा की और उसकी गवाही दी। क्या इसमें कोई दुष्ट स्वभाव है? क्रूर स्वभाव है? (नहीं।) क्या इतनी सारी संपत्ति खोने के बाद भी अय्यूब ने विद्रोह किया? क्या उसने कोई शिकायत की? (नहीं।) उसने शिकायत नहीं की, बल्कि परमेश्वर की प्रशंसा की। यह कैसा स्वभाव है? इसमें कई ऐसी चीजें शामिल हैं जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए : अंतरात्मा, विवेक और सकारात्मक चीजों के लिए प्रेम। सबसे पहले तो अय्यूब में अंतरात्मा थी। उसका दिल जानता था कि उसके पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर का दिया हुआ है, और इसके लिए उसने परमेश्वर को धन्यवाद दिया। इसके अलावा उसमें विवेक था। उसके कौन-से कथन से साबित होता है कि उसमें विवेक था? (उसने कहा : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)।) यह कथन परमेश्वर के परीक्षणों को लेकर अय्यूब के सच्चे अनुभव और समझ की गवाही है; यह उसके असली आध्यात्मिक कद और मानवता को बयान करता है। अय्यूब के पास और क्या था? (सत्य के प्रति प्रेम।) इसे कैसे मापा जाता है? सत्य के प्रति उसके प्रेम को हम उसे परमेश्वर द्वारा वंचित करने के प्रसंग में कैसे समझ सकते हैं? (कुछ हुआ तो वह सत्य की खोज कर सका।) सत्य की खोज करना सत्य से प्रेम करने की अभिव्यक्ति है। जब उसके इर्द-गिर्द ये चीजें घट रही थीं, तो अय्यूब को चाहे जितनी परेशानी या पीड़ा हुई हो, उसने शिकायत नहीं की—क्या यह सत्य से प्रेम करने की अभिव्यक्ति नहीं है? और सत्य से प्रेम करने की एक और महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति क्या है? (समर्पण करने की क्षमता।) हम कैसे जानते हैं कि यह सत्य से प्रेम करने की एक व्यावहारिक, सटीक अभिव्यक्ति है? लोग अक्सर कहते हैं, “परमेश्वर लोगों के लिए जो कुछ भी करता है वह सब लाभदायक है और उसके अच्छे इरादों से आता है।” क्या यह सत्य है? (हाँ।) किंतु क्या तुम इसे स्वीकार कर सकते हो? तुम इसे तब तो स्वीकार कर सकते हो जब परमेश्वर तुम्हें आशीष देता है, किंतु जब वह इसे छीन लेता है तो क्या इसे स्वीकार पाते हो? तुम ऐसा नहीं कर सकते, पर अय्यूब ऐसा कर सका था। उसने इस कथन को सत्य माना—क्या अय्यूब सत्य से प्रेम नहीं करता था? जब परमेश्वर ने अय्यूब का सब कुछ छीन लिया और उसे भारी नुकसान पहुँचाया, और जब अय्यूब को इतनी गंभीर बीमारी झेलनी पड़ी, तब भी—क्योंकि उसने इस एक कथन को समझा था : “परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है और यह उसके अच्छे इरादों से आता है”—और क्योंकि अय्यूब का हृदय जानता था कि यह सत्य है, चाहे उसे कितनी भी पीड़ा झेलनी पड़ी हो, फिर भी वह इस बात पर जोर दे सका कि यह कथन सही है। इसीलिए हम कहते हैं कि अय्यूब सत्य से प्रेम करता था। यही नहीं, परमेश्वर ने अय्यूब का परीक्षण करने के लिए चाहे जो भी तरीके इस्तेमाल किए, उसने इन्हें स्वीकार किया। चाहे चीजें छीन लेने की बात हो, उन्हें लुटेरों से लुटवाना हो या यहाँ तक कि अय्यूब के शरीर पर फोड़े उत्पन्न करना हो, ये सारी चीजें मानवीय धारणाओं के खिलाफ जाती हैं—लेकिन अय्यूब उनके साथ कैसे पेश आया? क्या उसने परमेश्वर के बारे में कोई शिकायत की? उसने परमेश्वर के बारे में शिकायत का एक भी शब्द नहीं कहा। इसे ही सत्य से प्रेम करना, न्यायप्रियता से प्रेम करना और धार्मिकता से प्रेम करना कहते हैं। अपने दिल में उसने कहा, “परमेश्वर हम लोगों के प्रति कितना न्यायप्रिय और धार्मिक है! परमेश्वर जो भी करता है सही करता है!” इस प्रकार वह यह कहकर परमेश्वर की स्तुति कर सका : “चाहे परमेश्वर कुछ भी करे, मैं शिकायत नहीं करूँगा। परमेश्वर की नजर में सृजित प्राणी सिर्फ कीट के लार्वा हैं। परमेश्वर उनके साथ जो भी व्यवहार करे वह सही और उचित है।” वह मानता था कि परमेश्वर ने जो कुछ किया वह सही और सकारात्मक था। अपनी भयंकर पीड़ा और परेशानी के बावजूद उसने कोई शिकायत नहीं की। यह सत्य से सच्चा प्रेम है और सबको इसकी सराहना करनी चाहिए; और यह सब व्यावहारिक रूप से प्रदर्शित किया गया था। चाहे उसे कितना ही नुकसान हुआ हो या उसकी परिस्थितियाँ कितनी ही कठिन क्यों न रही हों, अय्यूब ने परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं की; उसने समर्पण किया। यह सत्य से प्रेम करने की एक अभिव्यक्ति है। उसने अपनी परेशानियों से पार पा लिया; उसने न तो परमेश्वर के बारे में शिकायत की, न ही परमेश्वर से कोई माँग की। यह सत्य से प्रेम करना है, यह सच्चा समर्पण है। केवल सच्चे समर्पण वाले लोग ही सत्य से प्रेम करते हैं। कुछ लोग साधारण परिस्थितियों में सिद्धांत बघारने और नारे लगाने में माहिर होते हैं, लेकिन जब उन पर कोई गंभीर विपदा आती है, तो वे हमेशा परमेश्वर से माँग करने लगते हैं और लगातार प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, मेरी बीमारी दूर कर दे! मेरी संपत्ति लौटा दे!” क्या यह समर्पण है? वे सत्य से प्रेम करने वाले लोग नहीं हैं। वे झूठ बोलना और दूसरों को गुमराह करना पसंद करते हैं, और वे मन ही मन धन-दौलत और लाभ से प्यार करते हैं। अय्यूब ने सांसारिक लाभों और अपनी सारी संपत्ति को महत्व नहीं दिया, उसे इन सभी चीजों की खरी समझ थी, इसलिए वह समर्पण कर सका। वह अपने दिल में इन चीजों की असलियत जानता था। उसने कहा, “इस जीवन में कोई चाहे कितना ही कमा ले, यह सब परमेश्वर की देन है। अगर परमेश्वर तुम्हें कमाने न दे, तो तुम धेला भर भी नहीं कमा सकते। अगर वह कमाने दे तो वह जितना भी देगा, तुम्हें मिलेगा।” उसने सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य को स्पष्ट रूप से समझ लिया था, यह सत्य उसके दिल में जड़ जमा चुका था। “परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है”—यह अय्यूब के लिए प्रश्नवाचक नहीं, बल्कि विस्मयादिबोधक वाक्य था। यह वाक्य उसके दिल में रच-बस कर उसकी जिंदगी बन गया। अय्यूब की मानवता में और क्या निहित था? वह अपने ही जन्मदिन को क्यों कोसता था? उसे मर जाना गवारा था लेकिन यह मंजूर नहीं था कि परमेश्वर उसकी पीड़ा देखकर उसके लिए संताप करे। यह क्या गुण है, क्या सार है? (दयालुता।) अय्यूब की दयालुता की प्राथमिक अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? वह परमेश्वर के प्रति विचारशील था और उसे समझता था, वह परमेश्वर से प्रेम कर सकता था और उसे संतुष्ट कर सकता था। अगर किसी में ये गुण हैं तो उसमें सत्यनिष्ठा होगी। सत्यनिष्ठा कैसे विकसित होती है? सत्यनिष्ठा सिर्फ उस व्यक्ति में होती है जो सत्य को समझता है, जो परमेश्वर के परीक्षणों और शैतान के प्रलोभनों के दौरान अपनी गवाही में अडिग रह सकता है, जो मनुष्य की भाँति जी सकता है, मनुष्य होने के मानक तक पहुँच सकता है, और जिसके पास एक निश्चित मात्रा में सत्य होता है। मानवता सार की बात करें तो अय्यूब के पास दयालु हृदय होने के कारण ही वह अपने जन्मदिन को कोस सकता था और उसे मर जाना गवारा था लेकिन यह मंजूर नहीं था कि उसकी पीड़ा देखकर परमेश्वर को संताप या चिंता हो। अय्यूब की मानवता ऐसी थी। कोई व्यक्ति केवल तभी परमेश्वर से प्रेम करेगा और उसकी परवाह करेगा जब उसके पास दयालु मानवता और सार हो। अगर उसके पास दोनों चीजें नहीं हैं, तो वह जड़ और निष्ठुर होगा। इसकी तुलना जरा पौलुस से करो जो अय्यूब से बिल्कुल उलटा था। पौलुस हमेशा अपने ही हित साधने की ताक में रहता था, और परमेश्वर के साथ भी सौदा पटाना चाहता था। वह एक ताज पाना चाहता था, वह मसीह बनकर मसीह की जगह लेना चाहता था। और जब वह अपना ताज हासिल नहीं कर सका, तो उसने परमेश्वर से बहस करने और उस पर मुकदमा चलाने की कोशिश की। विवेक की कितनी कमी है! इससे पता चलता है कि पौलुस में शर्म नाम की चीज नहीं थी। शैतान के भ्रष्ट स्वभाव वाले लोगों को खुद को बदलना ही चाहिए। अगर कोई सत्य समझता है, सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है, तो वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होगा। वह अब परमेश्वर का विरोध नहीं करेगा और उसके अनुरूप बन जाएगा। ऐसा ही व्यक्ति सत्य और जीवन प्राप्त करता है। ऐसे ही सृजित प्राणी की कामना परमेश्वर करता है।
13 जुलाई 2018
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