सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है (भाग दो)

बचाए जाने की शर्तें क्या हैं? सबसे पहले, व्यक्ति को सत्य समझना चाहिए और स्वेच्छा से परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकारना चाहिए। फिर उनमें सहयोग करने का संकल्प होना चाहिए और खुद के विरुद्ध विद्रोह करने में सक्षम होना चाहिए और अपनी स्वार्थी इच्छाओं को छोड़ने के लिए तैयार होना चाहिए। स्वार्थी इच्छाओं में क्या चीजें शामिल हैं? इज्जत, रुतबा, घमंड, अपने हितों के विभिन्न पहलू, साथ ही स्वयं की योजनाएँ, इच्छाएँ, संभावनाएँ, गंतव्य स्थान—चाहे तत्काल का हो या भविष्य का—सभी शामिल हैं। यदि तुम इन भ्रष्ट स्वभावों को हल करने के लिए सत्य की तलाश कर सकते हो, एक-एक करके उनमें सफल हो सकते हो, उन्हें धीरे-धीरे छोड़ सकते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करना आसान होता जाएगा और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण की स्थिति तक पहुँच जाओगे। तुम्हारा आध्यात्मिक कद धीरे-धीरे बढ़ेगा। सत्य समझ लेने और इन स्वार्थी इच्छाओं की असलियत जानने और धीरे-धीरे उन्हें छोड़ने में सक्षम होने के बाद, तुम्हारा स्वभाव बदल जाएगा। तुम लोग अब बदलाव के कौन-से स्तर पर पहुँच गए हो? मेरे अवलोकनों के आधार पर, स्वभाव में बदलाव की इन सत्य वास्तविकताओं के संबंध में, तुम लोगों ने मूल रूप से अभी तक इनमें प्रवेश नहीं किया है। तो, फिलहाल तुम लोगों का आध्यात्मिक कद क्या है और तुम किस अवस्था में जी रहे हो? तुम लोगों में से काफी लोग कर्तव्य पालन के स्तर पर अटके हुए हैं और इस स्तर पर ही देर से खड़े हैं : “मुझे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए या नहीं? मैं अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभा सकता हूँ? क्या इस प्रकार कर्तव्य निभाना अनमना होना है?” कभी-कभी, जब तुम्हारा कर्तव्य विशेष रूप से अनमना होता है, तो तुम अपने दिल में फटकार महसूस करोगे। तुम महसूस करोगे कि तुम परमेश्वर के ऋणी हो, कि तुमने उसे निराश किया है, यहाँ तक कि रोते हो और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपने कर्तव्यों को ठीक से करने की इच्छा व्यक्त करते हो। लेकिन दो दिन बाद, तुम फिर से निराश हो जाते हो, अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करना चाहते। तुम इस स्तर के पार कभी नहीं जा सकते। क्या यह आध्यात्मिक कद का होना है? (नहीं।) जब तुम लोगों को इस पर और संगति की आवश्यकता नहीं रह जाती कि अपने कर्तव्यों को समर्पित होकर कैसे निभाना है, अपने कर्तव्यों को अपने दिल और दिमाग से निभाने और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की क्या आवश्यकता है और तुम लोग अपने कर्तव्यों को अपना मिशन मानकर सँभाल सकते हो, बिना किसी माँग के, बिना किसी शिकायत के और बिना अपनी पसंदगियाँ चुने इन्हें अच्छी तरह से निभाते हो तो तुम लोगों ने एक निश्चित आध्यात्मिक कद पा लिया है। अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कैसे निभाया जाए, इस पर हमें हमेशा संगति करनी पड़ती है। हमें इस पर निरंतर संगति क्यों करनी पड़ती है? क्योंकि लोग नहीं जानते कि अपना कर्तव्य कैसे निभाएँ और वे सिद्धांतों को आत्मसात नहीं कर पाते; उन्होंने अपना कर्तव्य निभाने के बारे में विभिन्न सत्यों को पूरी तरह से नहीं समझा है, न ही उन्होंने सत्य समझकर वास्तविकता में प्रवेश किया है। कुछ लोग केवल कुछ धर्म-सिद्धांत समझते हैं, लेकिन उनका अभ्यास करने या उनमें प्रवेश करने के इच्छुक नहीं होते हैं, पीड़ा और थकान सहने के इच्छुक नहीं होते हैं, हमेशा दैहिक सुखों के लिए ललचाते हैं, अब भी उनके पास अपनी बहुत-सी पसंदगियाँ होती हैं, वे जाने देने और खुद को पूरी तरह से परमेश्वर के हाथों में सौंपने में असमर्थ होते हैं। उनकी अभी भी अपनी योजनाएँ और माँगें हैं; उनकी व्यक्तिगत इच्छाएँ, विचार और संभावनाएँ अभी भी उन पर हावी हो सकती हैं और उन्हें नियंत्रित कर सकती हैं : “यदि मैं यह कर्तव्य निभाऊँ, तो क्या मेरा भविष्य बेहतर होगा? क्या मैं इससे कुछ कौशल सीख सकता हूँ? क्या मैं भविष्य में परमेश्वर के घर में कुछ हासिल कर पाऊँगा?” हर समय इन चीजों के बारे में सोचना, जब कर्तव्यों को निभाना थोड़ा कठिन, थकाऊ या आनंद रहित हो तो अच्छा न लगना, समय के साथ बेचैनी महसूस करना, नकारात्मक हो जाना और अभी भी सत्य पर संगति और अपने सोचने के तरीके पर परामर्श की जरूरत पड़ना—यह आध्यात्मिक कद का अभाव है। क्या इसमें स्वभाव में बदलाव शामिल है? उसके लिए अभी बहुत जल्दी है। अपना कर्तव्य निभाने के लिए वांछनीय सत्य सिद्धांतों को आत्मसात करने के बाद, यह बाधा पार कर लेने पर, तुम लोग अपने कर्तव्य का मानक-स्तरीय निर्वहन हासिल कर सकते हो। फिर आगे बढ़ने में स्वभाव में बदलाव शामिल होगा।

अब चाहे कर्तव्य निभाने की बात हो या परमेश्वर की सेवा करने की, हर चीज में बार-बार आत्म-चिंतन की जरूरत पड़ती है। कोई चाहे कैसे भी गलत दृष्टिकोण या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करे, उन्हें सुलझाने के लिए उसे अवश्य ही सत्य खोजना चाहिए। सिर्फ इसी तरह वह अपना कर्तव्य मानक स्तर पर निभा सकता है और परमेश्वर की स्वीकृति पा सकता है। व्यक्ति को अपने भ्रष्ट स्वभाव का भेद पहचानने में सक्षम होना चाहिए, वरना वह इन्हें सुलझा नहीं सकता। कुछ लोग यह असलियत नहीं जान पाते कि भ्रष्ट स्वभाव के दायरे में क्या आता है और क्या नहीं आता। उदाहरण के लिए, लोगों की खान-पान और पहनावे संबंधी पसंद, उनकी रहन-सहन की आदतें, पुरखों की विरासत और परंपरागत विचार—इनमें से कुछ चीजों के पीछे की वजह परंपरागत संस्कृति और रीति-रिवाजों का असर होता है, कुछ चीजों की वजह परवरिश और पारिवारिक विरासत होती है, और कुछ की वजह ज्ञान और अंतर्दृष्टि की कमी होती है। ये प्रमुख समस्याएँ नहीं हैं और इनका किसी की मानवता की अच्छाई-बुराई से कोई वास्ता नहीं होता, और कुछ का समाधान सीखने और अंतर्दृष्टि पाने से हो सकता है। लेकिन परमेश्वर के प्रति धारणाओं या गलत दृष्टिकोण या किसी भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान सत्य खोजकर ही करना चाहिए, और इन्हें मानवीय शिक्षा के जरिए नहीं सुधारा जा सकता है। कुछ भी हो, तुम्हारी धारणाएँ और विचार चाहे जहाँ से उत्पन्न होते हों, अगर ये सत्य के साथ मेल नहीं खाते, तो तुम्हें इन्हें छोड़ देना चाहिए और सत्य खोजकर इनका समाधान करना चाहिए। सत्य का अनुसरण व्यक्ति की सभी समस्याओं का निराकरण कर सकता है। कई मसले सत्य से संबंधित नहीं लगते मगर इन्हें भी सत्य समझकर परोक्ष रूप से हल किया जा सकता है। सत्य का इस्तेमाल करके भ्रष्ट स्वभाव से जुड़ी समस्याएँ ही नहीं, बल्कि भ्रष्ट स्वभाव से संबंध न रखने वाली समस्याएँ भी हल की जा सकती हैं, जैसे, कुछ मानवीय व्यवहार, तौर-तरीके, धारणाएँ और आदतें—सत्य का इस्तेमाल करके ही इनका पूरी तरह समाधान हो सकता है। सत्य न सिर्फ लोगों के भ्रष्ट स्वभाव दूर कर सकता है, बल्कि यह जीवन लक्ष्य, जीवन की बुनियाद और जीने का सिद्धांत भी बन सकता है, और यह किसी व्यक्ति की सारी कठिनाइयों और समस्याओं का समाधान कर सकता है। यह तय समझो। अब सबसे महत्वपूर्ण क्या है? वो है यह समझना कि कई समस्याएँ पैदा होने का सीधा संबंध सत्य न समझने से है। कई लोग यह नहीं जानते कि कोई भी घटना घटित होने पर उन्हें किस प्रकार अभ्यास करना चाहिए और इसकी वजह यह है कि उन्हें सत्य की समझ नहीं है। लोग कई चीजों के सार और मूल की असलियत नहीं जानते, और इसकी वजह भी यही है कि वे सत्य नहीं समझते हैं। लेकिन सत्य समझे बिना भी वे इतनी स्पष्ट और सुगठित ढंग से कैसे बात कर लेते हैं? (ये बस शब्द और धर्म-सिद्धांत होते हैं।) तो फिर सिद्धांत बघारने की इस समस्या का समाधान किया जाना चाहिए। कोरे वचन बोलना, सिद्धांत सुनाना और नारे लगाना कम करो; व्यावहारिक रूप से ज्यादा बात करो, सत्य का अभ्यास ज्यादा करो, आत्म-ज्ञान और गहन आत्म-विश्लेषण की बातें ज्यादा बताओ, दूसरों को शिक्षाप्रद और लाभप्रद लगने वाले वचन ज्यादा सुनने दो। जो ऐसा करता है, उसी के पास सत्य वास्तविकता होती है। सिद्धांत मत बघारो और कोरे शब्द मत सुनाओ, पाखंडपूर्ण और धोखा देने वाले वचन मत बोलो, और ऐसे शब्द मत बोलो जिनसे कोई शिक्षा न मिलती हो। तुम ऐसी बोली से कैसे बच सकते हो? तुम्हें पहले इन चीजों की असलियत जानकर उनकी कुरूपता, मूर्खता और अतार्किकता को देखना होगा; फिर तुम देह के खिलाफ विद्रोह कर सकोगे। यही नहीं, तुममें विवेक भी होना चाहिए। किसी व्यक्ति में जितना ज्यादा विवेक होगा, वह उतना ही सटीक और नपा-तुला बोलेगा, उसकी मानवता उतनी ही अधिक परिपक्व होगी, उसके शब्द उतने ही अधिक व्यावहारिक होंगे, और वह उतनी ही कम बकवास करेगा। और वह दिल से उन कोरे शब्दों, अतिशयोक्तियों और झूठी बातों से नफरत करेगा। कुछ लोग बहुत ज्यादा घमंडी होते हैं और हमेशा अपना असली रूप छिपाने के लिए भली बातें करना चाहते हैं, दूसरों के दिलों पर छाप छोड़कर मान-सम्मान पाना चाहते हैं, दूसरों को यकीन दिलाना चाहते हैं कि हम बहुत अच्छे से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, भले लोग हैं और प्रशंसा पाने के खास हकदार हैं। उनमें हमेशा छद्मवेश धारण करने का इरादा होता है; वे भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित होते हैं। लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, जो परमेश्वर का विरोध करने की लोगों की बुराई की जड़ है, इसे दूर करना सबसे कठिन समस्या है। जब तक पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता और परमेश्वर स्वयं किसी को पूर्ण नहीं बनाता, तब तक उसका भ्रष्ट स्वभाव न तो शुद्ध हो सकता है, न ही बदल सकता है। अन्यथा, किसी व्यक्ति के पास इसके समाधान का कोई उपाय नहीं है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो फिर तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार चिंतन कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझना चाहिए, परमेश्वर के खुलासे और न्याय के वचनों के प्रत्येक वाक्य की कसौटी पर खुद को कसना चाहिए, और थोड़ा-थोड़ा करके अपने समस्त भ्रष्ट स्वभावों और दशाओं को खोज निकालना चाहिए। अपनी कथनी-करनी के इरादे और उद्देश्य खोजकर शुरुआत करो, अपने बोले गए हर शब्द का विश्लेषण कर उसका भेद पहचानो, और अपने मन और विचारों के भीतर की किसी भी चीज की अनदेखी मत करो। इस तरीके से धीरे-धीरे गहन-विश्लेषण और पहचान करके तुम जान लोगे कि तुममें थोड़ा-सा नहीं बल्कि प्रचुर मात्रा में भ्रष्ट स्वभाव है, और शैतान के जहर सीमित मात्रा में नहीं बल्कि बेहिसाब हैं। इस तरीके से तुम धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभावों और प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से समझ जाओगे, और यह एहसास भी कर लोगे कि शैतान तुम्हें कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है। इस समय तुम्हें महसूस होगा कि परमेश्वर का व्यक्त किया हुआ सत्य कितना अनमोल है। यह भ्रष्ट मनुष्य जाति के स्वभाव और प्रकृति की समस्याओं को हल कर सकता है। मनुष्य जाति को बचाने के उद्देश्य से भ्रष्ट मनुष्यों के लिए बनाई गई परमेश्वर की यह दवाई बहुत ही असरदार है, अमृत से भी ज्यादा मूल्यवान है। इस तरह, परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने के लिए तुम स्वेच्छा से सत्य का अनुसरण करते हो, सत्य के हर पहलू को अधिक से अधिक सँजोकर रखते हो और दिन दूने उत्साह के साथ इसका अनुसरण करते हो। जब किसी के हृदय में ऐसी भावना होती है, तो इसका मतलब है कि वह पहले ही कुछ सत्य की समझ हासिल कर चुका है, और पहले ही सच्चे मार्ग पर अपने कदम जमा चुका है। अगर वह इसे और गहराई से महसूस कर सके और वाकई दिल से परमेश्वर से प्रेम कर सके तो फिर उसका जीवन स्वभाव बदलने लगेगा।

व्यवहार में कुछ बदलाव करना आसान है, लेकिन अपना जीवन स्वभाव बदलना आसान नहीं होता है। भ्रष्ट स्वभाव बदलने की शुरुआत खुद को जानने से होनी चाहिए। इसके लिए सतर्कता की जरूरत होती है, धीरे-धीरे अपने इरादों और दशाओं का परीक्षण करने पर ध्यान केंद्रित करना, और अपनी कथनी के पीछे के इरादों और आदतन तरीकों की लगातार जाँच-पड़ताल करना आवश्यक है। और फिर एक दिन अचानक यह बोध होगा : “मैं अपनी असलियत छिपाने के लिए हमेशा अच्छी बातें करके दूसरों के दिलों में छाप छोड़ना चाहता हूँ। यह दुष्ट स्वभाव है। यह सामान्य मानवता का प्रकटीकरण नहीं है और सत्य से मेल नहीं खाता है। बोलने का यह दुष्ट तरीका और ये इरादे गलत हैं, और इन्हें बदलना और त्याग देना जरूरी है।” यह बोध होने के बाद तुम्हें अपने दुष्ट स्वभाव की भयावह गंभीरता और भी स्पष्टता से महसूस होगी। तुम्हें लगता था कि आदमी-औरत के बीच थोड़ी-बहुत काम-वासना होना ही दुष्टता है, और यह सोचते थे कि इस लिहाज से तुममें थोड़ी-बहुत दुष्टता प्रदर्शित हुई है, मगर तुम दुष्ट स्वभाव वाले इंसान नहीं हो। यह बताता है कि तुममें दुष्ट स्वभाव की समझ का अभाव था; ऐसा लगता है कि तुम “दुष्ट” शब्द का सतही अर्थ जानते थे, लेकिन दुष्ट स्वभाव का भेद नहीं पहचानते थे; और दरअसल, तुम अभी भी नहीं समझते कि “दुष्ट” शब्द का अर्थ क्या है। जब तुम्हें यह एहसास होता है कि तुमने इस प्रकार का स्वभाव प्रकट किया है, तुम आत्म-चिंतन करना शुरू कर इसे पहचान लेते हो, इसकी गहरी जड़ें खोज निकालते हो, और खुद देख लेते हो कि वास्तव में तुम्हारा ऐसा स्वभाव है। तो फिर तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? तुम्हें अपने बोलने के ऐसे तरीकों के पीछे छिपे इरादों की निरंतर जाँच करनी चाहिए। इस तरह की निरंतर खोज से तुम और भी प्रामाणिक और सटीक ढंग से यह जान लोगे कि वास्तव में तुममें इस प्रकार का स्वभाव और सार है। जिस दिन तुम सचमुच मान लोगे कि तुममें वास्तव में दुष्ट स्वभाव है, उसी दिन से तुममें इसके प्रति नफरत और घृणा पैदा होने लगेगी। तुम खुद को नेक, सदाचारी, न्यायी, नैतिक रूप से ईमानदार और निष्कपट इंसान मानने से आगे बढ़कर यह पहचानने लगोगे कि तुममें अहंकार, हठ, कुटिलता, दुष्टता और सत्य से विमुख होने जैसा प्रकृति सार है। तब तुम अपना सटीक मूल्यांकन कर चुके होगे और जान लोगे कि तुम वास्तव में क्या हो। केवल मौखिक तौर पर यह मानने या सरसरी तौर पर यह पहचानने से कि तुममें ये अभिव्यक्तियाँ और मनोदशाएँ हैं, सच्ची घृणा पैदा नहीं होगी। जब कोई यह पहचान ले कि इन भ्रष्ट स्वभावों का सार शैतान की घृणित प्रवृत्ति है, तभी वह वास्तव में खुद से नफरत कर सकता है। खुद से घृणा करने की हद तक जानने के लिए वास्तव में किस प्रकार की मानवता की जरूरत होती है? व्यक्ति को सकारात्मक चीजों से प्रेम करना चाहिए, सत्य से प्रेम करना चाहिए, निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम करना चाहिए, उसमें अंतरात्मा और बोध होना चाहिए, उसे दयालु होना चाहिए और सत्य स्वीकारने और उसका अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए—इस तरह के सभी लोग वास्तव में खुद को जान सकते हैं और खुद से नफरत कर सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और जिन्हें सत्य स्वीकारने में कठिनाई होती है वे खुद को कभी नहीं जान पाएँगे। भले ही वे आत्म-ज्ञान के बारे में कुछ शब्द बोल लें, मगर वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला सकते और उनमें कोई भी सच्चा बदलाव नहीं होगा। खुद को जानना सबसे कठिन काम है। उदाहरण के लिए, कोई कम काबिल इंसान सोच सकता है, “मेरी काबिलियत कम है। मैं स्वाभाविक रूप से डरपोक और कमजोर हूँ, और कहीं भी फँसने से घबराता हूँ। मैं तो दुनिया का सबसे निष्कपट, कमजोर और अशक्त इंसान भी हो सकता हूँ। इसलिए मैं परमेश्वर का उद्धार पाने का सबसे सुयोग्य पात्र हूँ।” क्या यही सच्चा आत्म-ज्ञान है? ये उस व्यक्ति के शब्द हैं जो सत्य नहीं समझता। क्या कम काबिलियत होने का अपने आप में यह मतलब है कि उस व्यक्ति में कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? तो क्या डरपोक लोगों का स्वभाव भ्रष्ट नहीं होता? क्या उन्हें भी शैतान ने भ्रष्ट नहीं कर दिया है? वास्तव में ऐसे लोगों का स्वभाव भी न सिर्फ उतना ही दुष्ट और अहंकारी होता है, बल्कि यह काफी छिपा हुआ और जिद्दीपन में आम इंसान की तुलना में कहीं अधिक होता है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह बहुत गहराई में छिपा हुआ है? (क्योंकि उन्हें हमेशा यही लगता है कि वे अच्छे हैं।) बिल्कुल सही। वे हमेशा इस भ्रम के कारण भरमाए और गुमराह हुए रहते हैं, इससे उनके लिए सत्य स्वीकारना असंभव हो जाता है। उन्हें लगता है, वे पहले से ही काफी अच्छे हैं और उन्हें परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण की जरूरत नहीं है। उन्हें लगता है, परमेश्वर ने लोगों का न्याय करने और उनकी भ्रष्टता उजागर करने के बारे में जो भी वचन कहे हैं, उनके निशाने पर उनके जैसे लोग नहीं, बल्कि दूसरे लोग हैं, अर्थात, अहंकारी स्वभाव वाले सक्षम लोग, बुरे लोग, गुमराह करने वाले लोग—झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी। उन्हें लगता है, वे खुद पहले से ही काफी अच्छे हैं; उनका दामन साफ है, और वे खुद दूध के धुले हुए और बेदाग हैं। जब वे खुद को इस तरह परिभाषित करते हैं तो क्या उनके लिए वास्तव में खुद को जानना संभव है? (नहीं।) वे खुद को नहीं जान सकते, और यकीनन उन्हें सत्य की समझ नहीं है। उन्हें संभवतः ऐसे सत्यों की समझ नहीं है कि परमेश्वर क्यों लोगों का न्याय कर उन्हें ताड़ना देता है, वह लोगों को कैसे बचाता है, या भ्रष्ट स्वभाव कैसे शुद्ध किया जाता है। जो व्यक्ति खुद को थोड़ा-सा भी नहीं जानता वह निश्चित रूप से किसी सत्य को नहीं समझता है। उनके ये गलत विचार यह दिखाने के लिए काफी हैं कि वे तर्क-विरोधी और बेतुके लोग हैं। उनकी समझ बेतुकी है और वे परमेश्वर पर अपने मत थोपते हैं; यह भी दुष्टता का स्वभाव है। दुष्टता एक प्रकार का ऐसा स्वभाव है जो केवल स्त्री-पुरुष के आपसी आचरण के मामले में ही प्रकट नहीं होता; थोड़ी-सी दुष्ट काम-वासना पर स्वभावगत दुष्टता का ठप्पा नहीं लगाना चाहिए। लेकिन अगर किसी की दुष्ट काम-वासनाएँ बहुत प्रबल हैं, और वह अक्सर व्यभिचार या निरंतर समलैंगिकता में लिप्त रहता है, तो वह दुष्ट है। कुछ लोग इन दोनों के बीच फर्क नहीं कर पाते, वे दुष्ट वासनाओं को हमेशा दुष्टता ठहरा देते हैं, और दुष्टता को दुष्ट वासनाओं के संदर्भ में समझाते हैं; उनमें भेद पहचानने की क्षमता नहीं है। दुष्ट स्वभाव को पहचानना सबसे कठिन है। जो बहुत धोखेबाज और कपटी होता है उसके सभी क्रियाकलाप दुष्ट होते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग झूठ बोलने के बाद मन ही मन सोचते हैं, “अगर मैं अपनी समझ-बूझ सबके सामने न रखूँ तो दूसरे लोग मेरे बारे में न जाने क्या सोचेंगे? मुझे थोड़ी-सी खुलकर संगति करनी चाहिए; एक बार मैंने अपनी समझ साझा कर ली, तो इस बारे में बताने को कुछ और नहीं रहता। मैं दूसरों को अपने असली इरादों की हवा नहीं लगने दे सकता और यह जानने नहीं दे सकता कि मैं कपटी हूँ।” यह कैसा स्वभाव है? खुद को धोखेबाज ढंग से प्रकट करना—इसे दुष्टता कहते हैं। और झूठ बोलने के बाद वे जाँच-परख करते हैं : “क्या किसी को मेरे झूठ बोलने का पता चला? क्या कोई मेरा असली रंग देख सकता है?” वे दूसरों से चालाकी से जानकारी निकालने और जाँचने लगते हैं; यह भी दुष्टता है। दुष्ट स्वभाव का पता लगाना आसान नहीं है। जो भी व्यक्ति ऐसे खास कपटी और धोखेबाज तरीके से काम करे कि दूसरों के लिए उनकी असलियत जानना मुश्किल हो जाए तो वह दुष्ट है। जो कोई अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए छल-प्रपंच रचता है, वह दुष्ट है। जो कोई भलाई करने की आड़ में बुरे काम करके लोगों को धोखा देता है, दूसरों से अपनी सेवा करवाता है, वह सबसे दुष्ट है। बड़ा लाल अजगर सबसे दुष्ट है; शैतान सबसे दुष्ट है; वे दानवों के राजा सबसे दुष्ट हैं; सारे दानव दुष्ट हैं।

स्वभावगत बदलाव लाने के लिए व्यक्ति को सबसे पहले खुद अपना भ्रष्ट स्वभाव पहचानने में सक्षम होना चाहिए। खुद को वास्तव में जानने का मतलब है अपनी भ्रष्टता के सार की असलियत समझना और इसका पूरी तरह से गहन-विश्लेषण करना, साथ ही उन तमाम दशाओं को पहचानना जो भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती हैं। जब कोई व्यक्ति अपनी भ्रष्ट दशाओं और भ्रष्ट स्वभाव को साफ तौर पर समझ लेता है, तभी वह अपनी देह से और शैतान से नफरत कर सकता है, इसी से फिर स्वभावगत बदलाव आता है। अगर वह इन दशाओं को नहीं पहचान सकता, इनसे कड़ियाँ जोड़कर अपना मिलान नहीं कर पाता तो क्या उसका स्वभाव बदल सकता है? यह नहीं बदल सकता। स्वभावगत बदलाव के लिए व्यक्ति को अपने भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होने वाली विभिन्न दशाओं को पहचानने की जरूरत पड़ती है; उसे एक ऐसे मुकाम पर पहुँचना होता है जहाँ वह अपने भ्रष्ट स्वभाव से बाधित न हो और सत्य को अभ्यास में लाता हो—तब जाकर उसका स्वभाव बदलना शुरू होगा। अगर वह अपनी भ्रष्ट दशाओं के उद्गम को नहीं पहचानता, और जिन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को वह समझता है उन्हीं के अनुसार खुद को रोकता है, तो भले ही वह कुछ सद्व्यवहार अपना ले और बाहरी तौर पर थोड़ा-सा बदल जाए, लेकिन इसे स्वभावगत बदलाव नहीं माना जाएगा। चूँकि इसे स्वभावगत बदलाव नहीं माना जा सकता, तो फिर अपना कर्तव्य निभाने के दौरान अधिकतर लोगों की क्या भूमिका होती है? यह एक श्रमिक की भूमिका होती है; वे सिर्फ परिश्रम करते हैं और खुद को काम में व्यस्त रखते हैं। भले ही वे अपना कर्तव्य भी निभा रहे हैं, लेकिन अधिकांश समय वे सिर्फ काम निपटाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वे सत्य की खोज नहीं करते बल्कि सिर्फ मेहनत करते हैं। कभी-कभी जब उनकी मनःस्थिति अच्छी होती है, तो वे अतिरिक्त मेहनत करते हैं और जब मनःस्थिति खराब होती है, तो थोड़ा-सा सुस्त पड़ जाते हैं। लेकिन बाद में आत्म-परीक्षण करने पर उन्हें ग्लानि होती है, इसलिए वे दुबारा और ज्यादा प्रयास करते हैं और सोचते हैं कि यही पश्चात्ताप है। दरअसल, यह सच्चा बदलाव नहीं है, न ही यह सच्चा पश्चात्ताप है। सच्चा पश्चात्ताप खुद को जानने से शुरू होता है; यह व्यवहार में बदलाव से शुरू होता है। एक बार किसी का व्यवहार बदल गया, उसने अपनी देह के खिलाफ विद्रोह कर दिया, सत्य को अमल में ले आया, और व्यवहार के मामले में सिद्धांतों के अनुरूप दिखने लगा, तो इसे ही सच्चा पश्चात्ताप माना जाता है। फिर धीरे-धीरे वह उस मुकाम पर पहुँच जाता है जहाँ वह सिद्धांतों के अनुसार बोलने और कार्य करने में सक्षम है, और पूरी तरह सत्य के अनुरूप है। यही वह समय है जब जीवन स्वभाव में बदलाव शुरू होता है। तुम लोग अभी अपने अनुभव के किस चरण में पहुँच चुके हो? (सतही तौर पर मुझमें कुछ सद्व्यवहार आ चुका है।) तो तुम अभी भी कोशिश करने के चरण में हो। कुछ लोग थोड़ी मेहनत करते हैं और फिर सोचते हैं कि उन्होंने एक योगदान दिया है और वे परमेश्वर की आशीष पाने के हकदार हैं। अंतर्मन में वे हमेशा यही विचार करते हैं : “परमेश्वर इस बारे में क्या सोचता है? मैंने इतनी मेहनत की और इतना अधिक कष्ट सहा, क्या मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता हूँ?” हमेशा चीजों की तह तक जाने में लगे रहना—यह कैसा स्वभाव है? यह धोखेबाजी, दुष्टता और अहंकार है। यही नहीं, परमेश्वर पर विश्वास करते हुए रत्ती-भर भी सत्य स्वीकारे बिना थोड़ी-सी मेहनत करके आशीष पाने की उम्मीद रखना—क्या यह दुराग्रही स्वभाव नहीं है? रुतबे के लाभ कभी न छोड़ना—क्या यह भी दुराग्रह नहीं है? ऐसे लोग हमेशा यह चिंता करते हैं : “क्या परमेश्वर याद रखेगा कि यह कर्तव्य निभाते हुए मैंने कष्ट सहे थे? क्या वह मुझे कुछ आशीष देगा?” अपने मन में वे हमेशा यही गुणा-भाग करते रहते हैं। बाहर से लगता है कि वे सौदा पटाने में लगे हैं, लेकिन यहाँ वास्तव में कई किस्म के भ्रष्ट स्वभाव कार्य कर रहे हैं। परमेश्वर से हमेशा सौदा पटाने की चाहत, परमेश्वर पर विश्वास के जरिए हमेशा आशीष पाने की चाहत, हमेशा फायदा उठाने और नुकसान न झेलने की चाहत, हमेशा कुटिल और बेईमान तरीकों में लिप्त रहना—इसे दुष्ट स्वभाव हावी होना कहते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य निभाते हुए जब भी थोड़ी-सी मेहनत करता है, तो हर बार यह जानना चाहता है : “मैं जितनी भी मेहनत कर रहा हूँ क्या उसके बदले मुझे आशीष मिलेगी? परमेश्वर में विश्वास करते हुए इतनी पीड़ा झेलने के बाद क्या मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकूँगा? क्या अपना कर्तव्य निभाने के लिए सर्वस्व त्यागने के लिए परमेश्वर मुझे स्वीकृति देगा? परमेश्वर मुझे पहचानता है या नहीं?” ऐसे लोग दिन भर इन सवालों पर सोच-विचार में डूबे रहते हैं। अगर वे किसी दिन इनके जवाब नहीं तलाश पाते तो दिन भर परेशान रहते हैं, अपने कर्तव्य नहीं निभाना चाहते या कीमत अदा नहीं करना चाहते, और सत्य का अनुसरण करने के लिए तो और भी तैयार नहीं होते। हमेशा इन्हीं मसलों से बाधित और बेबस होने के कारण उनमें तनिक भी सच्ची आस्था नहीं होती है। वे परमेश्वर के वादों को वास्तविक नहीं मानते। वे नहीं मानते कि सत्य के अनुसरण से यकीनन परमेश्वर की आशीष मिलेगी। वे दिल ही दिल में सत्य से विमुख हो जाते हैं। अगर वे सत्य का अनुसरण करना भी चाहें, तो उनमें उत्साह नहीं होता, इसलिए वे पवित्र आत्मा के प्रबोधन और उसकी रोशनी से वंचित रहते हैं, और वे सत्य नहीं समझ सकते। ऐसा व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते हुए बार-बार मुसीबतों का सामना करता है, और वह अक्सर नकारात्मक और कमजोर पड़ जाता है। कठिनाई का सामना होने पर वह शिकायतें करता है और जब उस पर आपदा आती है या उसे गिरफ्तार किया जाता है तो वह यह तय कर लेता है कि परमेश्वर उसकी रक्षा नहीं कर रहा है और उसे चाहता नहीं है और वह खुद को निराशा के गर्त में धकेल देता है। यह कैसा स्वभाव है? क्या यह क्रूरता नहीं है? आक्रोश महसूस करते ही यह व्यक्ति क्या करेगा? वह निश्चित रूप से नकारात्मक और ढीला हो जाएगा; वह निराशा में हाथ-पैर पटकने लगेगा। और वह बार-बार अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी होने के आरोप मढ़ेगा। हो सकता है कि वह सीधे परमेश्वर के बारे में ही शिकायत करने लगे और उसके बारे में आलोचना करने लगे। ऐसी चीजें किस कारण उत्पन्न होती हैं? वह क्रूर स्वभाव के अधीन है। सांसारिक विचारों और शैतानी तर्क के आधार पर वह मानता है कि हर निवेश के बदले कुछ न कुछ मुनाफा मिलना चाहिए। ऐसा प्रतिफल मिले बिना वह आइंदा निवेश नहीं करेगा। ऐसे लोगों में बदले की मानसिकता होती है और वे अपना कर्तव्य त्यागने, अपने कर्तव्य से इनकार करने और क्षतिपूर्ति की माँग करने की कोशिश करते हैं। क्या यह क्रूरता नहीं है? किस लिहाज से यह पौलुस के समान है? (पौलुस मानता था कि जैसे ही उसने उत्तम संघर्ष लड़कर अपनी दौड़ पूरी कर ली, उसके लिए धार्मिकता का ताज आरक्षित रहेगा।) वे ठीक इसी तरह पौलुस से मेल खाते हैं। क्या तुम लोग खुद भी पौलुस जैसी ऐसी कोई अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हो? क्या तुम लोग इस तरह खुद की तुलना करने में जुटे रहते हो? अगर परमेश्वर के वचनों से तुम्हारा नाता नहीं है, तो तुम लोग खुद को नहीं समझ पाओगे। अपने भ्रष्ट स्वभाव का सार पहचानकर ही तुम वास्तव में खुद को जान सकते हो। अगर तुम सिर्फ सतही तौर पर सही-गलत पहचानते हो या सिर्फ यह स्वीकार करते हो कि तुम एक दानव और एक शैतान हो तो यह बहुत ही सामान्य और विचारशून्य बात है। यह नकली गहराई है, छद्मवेश है, धोखाधड़ी है। खुद को इस तरीके से जानने की बात करना नकली आध्यात्मिकता है, यह गुमराह करने वाला है।

क्या तुम लोगों ने कभी देखा है कि एक धोखेबाज इंसान आत्म-ज्ञान पाने का प्रयास कैसे करता है? वह राई का पहाड़ बनाने का प्रयास करता है, इस बारे में बात करता है कि वह कैसे एक दानव और एक शैतान है और यहाँ तक कि खुद को कोसता है; फिर भी वह नहीं बताता कि उसने कौन-से नीच और बुरे कर्म किए हैं, न ही वह अपने मन की मलिनता और भ्रष्टता का गहन-विश्लेषण ही करता है। वह बस इतना कहता है कि वह एक दानव और एक शैतान है, कि उसने परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका प्रतिरोध किया है, अपने आप को निंदा करने के लिए वह कई खोखले शब्दों और व्यापक बयानों का सहारा लेता है, जिससे दूसरों को लगे, “अब तो यह वास्तव में खुद को जानता है; इसमें कितनी गहरी समझ है।” वह दूसरों को जताना चाहता है कि वह कितना आध्यात्मिक है, जिससे उसे सत्य के अनुगामी के रूप में देखकर बाकी सभी लोग उससे जलने लगें। लेकिन कई साल तक खुद को इस तरह जानने के बाद भी उसने वास्तव में पश्चात्ताप नहीं किया, और किसी को ऐसी कोई स्थिति नजर नहीं आती जिसमें वह वास्तव में सत्य पर अभ्यास करता हो या सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता हो। उसके जीवन स्वभाव में कोई भी बदलाव नहीं होता, इस प्रकार समस्या उजागर हो जाती है : यह सच्चा आत्म-ज्ञान नहीं है। यह छद्म और फरेब है, और यह व्यक्ति पाखंडी है। कोई आत्म-ज्ञान के बारे में चाहे जैसी बातें करे, इस बात पर ध्यान केंद्रित मत करो कि उसके शब्द कितने अच्छे हैं या उसका ज्ञान कितना गहरा है। परखने की कुंजी क्या है? यह देखो कि लोग कितना सत्य अमल में ला सकते हैं, यह देखो कि क्या वे कलीसिया के कार्य को कायम रखने के लिए सत्य सिद्धांतों का पालन कर सकते हैं या नहीं। ये दो संकेतक यह बताने के लिए काफी हैं कि क्या किसी व्यक्ति में सच्चा बदलाव हुआ है। लोगों का मूल्यांकन और भेद पहचानने का यही सिद्धांत है। उनके मुँह से निकली अच्छी बातों को मत सुनो; यह गौर करो कि वास्तव में वे क्या करते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो आत्म-ज्ञान के बारे में चर्चा करते हुए ऊपरी तौर पर इसे गंभीरता से लेते दिखाई देते हैं। वे दूसरों के साथ अपने किसी भी गलत विचार या गलत ख्याल के बारे में बात करते हैं, खुद को हूबहू खोलकर रख देते हैं, लेकिन अपनी बात कह चुकने के बाद भी वे सच्चे मन से पश्चात्ताप नहीं करते। जब उनके साथ कुछ होता है, तब भी वे सत्य का अभ्यास नहीं करते, न वे सिद्धांतों का पालन करते हैं, न कलीसिया के कार्य को कायम रखते हैं, न ही कोई बदलाव दिखाते हैं। इस प्रकार के आत्म-ज्ञान, खुद को खोलने और संगति करने का कोई अर्थ नहीं होता। शायद ऐसे व्यक्ति को लगता है कि खुद को इस तरह से जानने का मतलब है कि वह वास्तव में पश्चात्ताप कर चुका है और सत्य का अभ्यास कर रहा है, लेकिन बरसों की ऐसी समझ के बाद भी अंत में कोई बदलाव नहीं आता। क्या खुद को जानने का यह तरीका सिर्फ औपचारिकता के लिए प्रक्रिया का पालन करना नहीं है? इसका कोई असली प्रभाव नहीं पड़ता; क्या वह सिर्फ खुद से खिलवाड़ नहीं कर रहा है? मैं एक बार कहीं गया तो वहाँ पहुँचकर देखा कि कोई आदमी मशीन से घास काट रहा था। मशीन जोर-जोर से गरज रही थी और भयंकर शोर मचा रही थी। मैं दो-तीन बार वहाँ गया और हर बार मुझे ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा, लिहाजा मैंने उस आदमी से पूछ लिया, “क्या तुम लोगों का घास काटने का कोई तय समय नहीं है?” तो जवाब मिला, “आह, मैं घास तभी काटता हूँ जब मुझे परमेश्वर आता दिखाई देता है। यह मेरे लिए भी अप्रिय है।” जो लोग भेद नहीं पहचान सकते, उन्हें यह सुनकर लग सकता है कि यह आदमी ईमानदार है और जो कुछ भी उसके मन में है, वही कह रहा है। उन्हें यह लग सकता है कि यह अपनी गलतियाँ स्वीकार कर आत्म-ज्ञान पा रहा है, और इस प्रकार वे गुमराह हो जाते हैं। लेकिन क्या सत्य समझने वाला व्यक्ति इसे इस रूप में देखता है? इस बारे में सटीक परिप्रेक्ष्य क्या है? जो इस स्थिति की असलियत जान सकते हैं उन्हें लगेगा, “तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए जिम्मेदारी नहीं ले रहे हो; क्या तुम यह सिर्फ दिखावे के लिए नहीं कर रहे हो?” लेकिन घास काटने वाले को डर है कि दूसरे लोग इस तरह सोचेंगे, इसलिए वह पहले ही सोचकर और इस ढंग से बात बनाकर उनकी बोलती बंद कर देता है। यह काफी कुशल लफ्फाजी है, है ना? (बिल्कुल।) दरअसल, उसने बहुत पहले से ही जान लिया था कि इस स्थिति से कैसे निपटना है, कि पहले ही तुम्हें गुमराह कर यह सोचने को विवश कर देगा कि वह काफी खरा है, कि वह खुलकर बोल सकता है और अपनी गलतियाँ स्वीकार सकता है। उसके मन में यही बात होती है : “मैं सत्य समझता हूँ; यह बताने के लिए मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं है। मैं इसे पहले ही स्वीकार लूँगा। देखते हैं कि तुम मेरी चतुर लफ्फाजी का क्या जवाब देते हो। मैं तो बस यही करूँगा; तुम मेरा क्या बिगाड़ लोगे?” यहाँ कौन-से स्वभाव कार्य कर रहे हैं? पहली बात, वह सब कुछ समझता है। जब वह कोई गलती करता है तो पश्चात्ताप करना जानता है। वह दूसरों को यही आभास कराता है, छद्मवेश और झूठ के सहारे भ्रम पैदा करता है और दूसरों से अपना आदर करवाता है। वह असाधारण रूप से चालाक है, यह जानता है कि उसकी बातें दूसरों को किस हद तक गुमराह करेंगी और उनकी प्रतिक्रिया क्या होगी। वह यह सब पहले ही आकलन कर चुका है। यह कैसा स्वभाव है? यह दुष्ट स्वभाव है। यही नहीं, उसका ये बातें कह सकना यह साबित करता है कि उसे अपनी गलती का एहसास अभी-अभी नहीं हुआ है, बल्कि वह लंबे अरसे से जानता है कि इस तरह से कार्य करना खानापूरी है, कि उसे ऐसा इस समय नहीं करना चाहिए, कि उसे ऐसा मुखौटा नहीं पहनना चाहिए और उसे अपने घमंड के लिए कार्य नहीं करना चाहिए। तो फिर भी वह ऐसा क्यों करता है? क्या यह हठ नहीं है? इसमें ढोंग, हठ और दुष्टता भी है। क्या तुम लोग इनका भेद पहचान सकते हो? कुछ लोग केवल दूसरों का भेद पहचान सकते हैं, खुद का नहीं। ऐसा क्यों है? अगर कोई वास्तव में खुद का भेद पहचान सकता है, तो उसी तरह दूसरों का भेद भी पहचान सकता है। अगर वह केवल दूसरों का भेद पहचान सकता है लेकिन खुद का नहीं, तो इसका मतलब है कि उसके स्वभाव और चरित्र में कोई समस्या है। जो दूसरों को सत्य की कसौटी पर कसे, मगर खुद को नहीं—ऐसा व्यक्ति यकीनन सत्य से प्रेम नहीं करता, सत्य स्वीकारना तो दूर की बात है।

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