सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है (भाग एक)
कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने और कई उपदेशों में भाग लेने के बाद इन चीजों से थोड़ा-सा लाभ मिला है। कम से कम वे कुछ ऐसे वचनों और सिद्धांतों को रटकर सुना पाते हैं जो सभी सुनने में सत्य के अनुरूप लगते हैं। और फिर भी जब उनके साथ कोई घटना हो जाती है, तो वे सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते; वे सत्य के अनुरूप एक भी कार्य नहीं कर सकते। यह भी कहा जा सकता है कि परमेश्वर में विश्वास करने के इतने वर्षों के दौरान उन्होंने कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के लिए एक भी कार्य या एक भी न्यायोचित कार्य नहीं किया है। इसे कैसे समझाया जा सकता है? हालाँकि वे कुछ वचन और सिद्धांत बोल सकते हैं, लेकिन वे निश्चित रूप से सत्य नहीं समझते, इसलिए वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला सकते। जब कुछ लोग आत्म-ज्ञान के बारे में संगति करते हैं, तो उनके मुँह से पहली बात यह निकलती है, “मैं एक दानव, एक जीवित शैतान हूँ, जो परमेश्वर का विरोध करता है। मैं उसके विरुद्ध विद्रोह करता हूँ और उसके साथ विश्वासघात करता हूँ; मैं एक साँप हूँ, एक कुकर्मी, जिसे शापित होना चाहिए।” क्या यही सच्चा आत्म-ज्ञान है? वे केवल सामान्य बातें बोलते हैं। वे उदाहरण क्यों नहीं देते? वे गहन-विश्लेषण के लिए उनके द्वारा की गई शर्मनाक चीजों को सबके सामने क्यों नहीं लाते? कुछ अविवेकी लोग उनकी बात सुनकर सोचते हैं, “हाँ, यह सच्चा आत्म-ज्ञान है! खुद को एक दानव के रूप में जानना, यहाँ तक कि खुद को कोसना—ये कितनी ऊँचाई तक पहुँच गए हैं!” बहुत-से लोग, खासकर नए विश्वासी, इस बात से गुमराह हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि वक्ता शुद्ध है और उसके पास आध्यात्मिक समझ है, सत्य से प्रेम करता है और अगुआ होने योग्य है। लेकिन जब वे उससे कुछ समय तक मिलते-जुलते हैं तो पाते हैं कि ऐसा नहीं है, यह वैसा इंसान नहीं है जैसी उन्होंने कल्पना की थी, बल्कि असाधारण रूप से झूठा और धोखेबाज है, स्वाँग रचने और ढोंग करने में कुशल है, जिससे उन्हें बड़ी निराशा होती है। किस आधार पर यह माना जा सकता है कि लोग वास्तव में खुद को जानते हैं? तुम केवल इस बात पर विचार नहीं कर सकते कि वे क्या कहते हैं—मुख्य है यह निर्धारित करना कि वे सत्य का अभ्यास करने और उसे स्वीकारने में सक्षम हैं या नहीं। जो लोग वास्तव में सत्य समझते हैं, उन्हें न केवल अपना सच्चा ज्ञान होता है, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं। वे न केवल अपनी सच्ची समझ के बारे में बोलते हैं, बल्कि वे जो कहते हैं उसे सच में करने में भी सक्षम होते हैं। यानी उनकी कथनी और करनी में पूरी तरह तालमेल होता है। अगर वे जो कहते हैं वह सुसंगत और स्वीकार्य लगता है, लेकिन वे वैसा करते नहीं, उसे जीते नहीं, तो इसमें वे फरीसी बन जाते हैं, वे पाखंडी होते हैं और खुद को सच में जानने वाले लोग बिल्कुल नहीं होते। सत्य के बारे में संगति करते हुए कई लोग बहुत तर्कसंगत लगते हैं, लेकिन यह महसूस नहीं करते कि कब उनका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाता है। क्या ये वे लोग हैं, जो खुद को जानते हैं? अगर लोग खुद को नहीं जानते, तो क्या वे सत्य को समझने वाले लोग होते हैं? वे सभी, जो स्वयं को नहीं जानते, वे सत्य को न समझने वाले लोग हैं, और जो आत्म-ज्ञान के खोखले शब्द बोलते हैं उनमें झूठी आध्यात्मिकता होती है, वे झूठे होते हैं। कुछ लोग शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते समय बहुत सुसंगत लगते हैं, लेकिन उनकी आत्माओं की स्थिति सुन्न और जड़ होती है, वे चीजों को महसूस नहीं कर पाते हैं, और किसी भी मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। कहा जा सकता है कि वे सुन्न होते हैं, लेकिन कभी-कभी, उन्हें बोलते हुए सुनने पर, लगता है कि उनकी आत्मा काफी प्रखर है। उदाहरण के लिए, किसी घटना के ठीक बाद वे खुद को तुरंत जानने में सक्षम होते हैं : “अभी-अभी मुझे एक विचार आया। मैंने उसके बारे में सोचा और महसूस किया कि वह कपटी विचार था, कि मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा था।” यह सुनकर कुछ अविवेकी लोग ईर्ष्यालु हो जाते हैं और कहते हैं : “इस इंसान को तुरंत पता चल जाता है कि कब उसकी भ्रष्टता प्रकट हो रही है, और यह उसके बारे में खुलकर बात करने और संगति करने में भी सक्षम है। वह प्रतिक्रिया व्यक्त करने में बहुत तेज है, उसकी आत्मा प्रखर है, वह हमसे बहुत बेहतर है। वह वास्तव में ऐसा इंसान है, जो सत्य का अनुसरण करता है।” क्या यह लोगों का आकलन करने का सटीक तरीका है? (नहीं।) तो यह आँकने का आधार क्या होना चाहिए कि लोग वास्तव में खुद को जानते हैं या नहीं? इसका आधार केवल उनके मुँह से निकलने वाली बातें नहीं होनी चाहिए। तुम्हें यह भी देखना चाहिए कि उनमें वास्तव में क्या प्रकट होता है। सबसे सरल तरीका यह देखना है कि क्या वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हैं—यही सबसे महत्वपूर्ण है। सत्य का अभ्यास करने की उनकी क्षमता साबित करती है कि वे वास्तव में खुद को जानते हैं, क्योंकि जो लोग वास्तव में खुद को जानते हैं, वे पश्चात्ताप अभिव्यक्त करते हैं, और जब लोग पश्चात्ताप अभिव्यक्त करते हैं, तभी वे वास्तव में खुद को जानते हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति यह जान सकता है कि वह धोखेबाज है, कि वह तुच्छ षड्यंत्रों और साजिशों से भरा हुआ है, और वह यह भी बता सकता है कि दूसरे कब धोखेबाजी दिखाते हैं। तुम्हें यह देखना चाहिए कि वह धोखेबाज है यह स्वीकार करने के बाद वास्तव में पश्चात्ताप करता है और अपनी धोखेबाजी छोड़ता है या नहीं। और अगर वह फिर से धोखेबाजी करता है, तो देखो कि क्या वह ऐसा करने पर आत्मभर्त्सना और शर्मिंदगी महसूस करता है या नहीं, वह ईमानदारी से पश्चात्ताप करता है या नहीं। अगर उसमें शर्मिंदगी का भाव नहीं है, पश्चात्ताप बिल्कुल भी नहीं है, तो उसका आत्म-ज्ञान सतही और औपचारिक है। वह सिर्फ बेमन से काम कर रहा है; उसका ज्ञान सच्चा नहीं है। वह यह नहीं सोचता कि धोखा देना बुरी या दानवी बात है और वह निश्चित रूप से महसूस नहीं करता कि धोखा देना कितना बेशर्मी भरा, घिनौना व्यवहार है। वह सोचता है, “सभी लोग धोखेबाज हैं। जो लोग धोखेबाज नहीं हैं वे मूर्ख हैं। थोड़ी-सी धोखेबाजी तुम्हें बुरा व्यक्ति नहीं बनाती। मैंने कोई बुरा कर्म नहीं किया है; मैं सबसे धोखेबाज व्यक्ति नहीं हूँ।” क्या ऐसा व्यक्ति वास्तव में खुद को जान सकता है? वह निश्चित रूप से नहीं जान सकता। इसका कारण यह है कि उसे अपने धोखेबाज स्वभाव का कोई ज्ञान नहीं है, वह धोखे से नफरत नहीं करता और आत्म-ज्ञान के बारे में उसकी सभी बातें ढोंग हैं और खोखली हैं। खुद के भ्रष्ट स्वभाव को न पहचानना सच्चा आत्म-ज्ञान नहीं है। धोखेबाज लोग अपने आपको वास्तव में इसलिए नहीं जान पाते, क्योंकि उनके लिए सत्य को स्वीकार करना आसान नहीं होता। इसलिए चाहे वे कितने भी शब्द और सिद्धांत बोल लें, वे वास्तव में नहीं बदलेंगे।
कैसे पहचाना जा सकता है कि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं? एक संबंध में, यह देखना चाहिए कि क्या वह व्यक्ति परमेश्वर के वचन के आधार पर स्वयं को जान सकता है, क्या वह आत्म-चिंतन कर सच्चा पश्चात्ताप महसूस कर सकता है; दूसरे संबंध में, यह देखना चाहिए कि क्या वह सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है। अगर वह सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है और परमेश्वर के कार्य को समर्पित हो सकता है। अगर वह केवल सत्य को मानता है, पर उसे कभी स्वीकार या उसका अभ्यास नहीं करता, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, “मैं सारा सत्य समझता हूँ, लेकिन मैं उसका अभ्यास नहीं कर सकता,” तो यह साबित करता है कि वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो सत्य से प्रेम करता है। कुछ लोग स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर का वचन सत्य है और उनका स्वभाव भ्रष्ट है, और यह भी कहते हैं कि वे पश्चात्ताप करने और खुद को नया रूप देने के लिए तैयार हैं, लेकिन उसके बाद बिल्कुल भी कोई बदलाव नहीं होता। उनकी बातें और हरकतें अभी भी वैसी ही होती हैं, जैसी पहले होती थीं। जब वे खुद को जानने के बारे में बात करते हैं, तो ऐसा लगता है मानो कोई चुटकुला सुना रहे हों या कोई नारा लगा रहे हों। वे अपने दिल की गहराइयों में आत्म-चिंतन नहीं करते या खुद को नहीं जान पाते; मुख्य समस्या यह है कि उनमें पश्चात्ताप का रवैया नहीं होता। वास्तव में आत्म-चिंतन करने के लिए अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात तो वे बिल्कुल भी नहीं करते। बल्कि वे बेमन से ऐसा करने की प्रक्रिया से गुजरने का दिखावा करके खुद को जानने का नाटक करते हैं। वे ऐसे लोग नहीं हैं, जो वास्तव में खुद को जानते या सत्य स्वीकारते हैं। जब ऐसे लोग खुद को जानने की बात करते हैं, तो वे केवल औपचारिकता निभाते हैं; वे स्वाँग, धोखाधड़ी और झूठी आध्यात्मिकता में संलग्न रहते हैं। कुछ लोग धोखेबाज होते हैं, और जब वे दूसरों को आत्म-ज्ञान पर सहभागिता करते हुए देखते हैं, तो वे सोचते हैं, “बाकी सब खुलकर बोलते हैं और अपनी-अपनी धोखेबाजी का गहन-विश्लेषण करते हैं। अगर मैंने कुछ नहीं कहा, तो सभी सोचेंगे कि मैं खुद को नहीं जानता, तब मुझे औपचारिकता निभानी पड़ेगी!” जिसके बाद वे अपनी धोखेबाजी को अत्यधिक गंभीर बताते हैं और नाटकीयता के साथ उसका वर्णन करते हैं, और उनका आत्म-ज्ञान विशेष रूप से गहरा प्रतीत होता है। सुनने वाला हर व्यक्ति महसूस करता है कि वे वास्तव में खुद को जानते हैं, और फिर उन्हें ईर्ष्या से देखता है, जिससे उन्हें ऐसा महसूस होता है मानो वे गौरवशाली हों, मानो उन्होंने खुद को प्रभामंडल से सजा लिया हो। औपचारिकता निभाने से प्राप्त इस प्रकार का आत्म-ज्ञान, उनके स्वाँग और धोखाधड़ी के साथ मिलकर, दूसरों को गुमराह कर देता है। क्या ऐसा करने से उनके जमीर को सुकून मिल सकता है? क्या यह खुलेआम धोखा नहीं है? अगर लोग खुद को जानने के बारे में केवल खोखली बातें करते हैं, वह ज्ञान चाहे कितना भी ऊँचा या अच्छा क्यों न हो और वे उसके बाद भी किसी भी बदलाव के बिना पहले की ही तरह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते रहेंगे, तो फिर यह असल आत्म-ज्ञान नहीं है। अगर लोग जानबूझकर इस तरह से दिखावा कर धोखा दे सकते हैं, तो यह साबित करता है कि वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, और बिल्कुल गैर-विश्वासियों जैसे हैं। इस तरह से अपने आत्म-ज्ञान के बारे में बात करके वे केवल प्रवृत्ति का अनुसरण करते हैं और सबकी पसंद की बातें बोलते हैं। क्या उनका आत्म-ज्ञान और खुद का गहन-विश्लेषण धोखे में डालने वाला नहीं है? क्या यही सच्चा आत्म-ज्ञान है? बिल्कुल नहीं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे दिल से नहीं खुलते और खुद का गहन-विश्लेषण नहीं करते, और केवल दिखावे के लिए एक झूठे, कपटपूर्ण तरीके से खुद को जानने के बारे में थोड़ा बोलते हैं। इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि दूसरों से अपनी प्रशंसा कराने और उन्हें ईर्ष्या से भरने के मकसद से वे आत्म-ज्ञान पर चर्चा करते समय अपनी समस्याओं को अधिक गंभीर दिखाने के लिए जानबूझकर बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं और इसमें अपने व्यक्तिगत इरादों और लक्ष्यों का घालमेल कर देते हैं। जब वे ऐसा करते हैं, तो उन्हें ऋणी महसूस नहीं होता है, स्वाँग रचने और धोखाधड़ी में संलग्न होने के बाद उनका अंतःकरण निंदनीय नहीं होता, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने और उसे धोखा देने के बाद वे कुछ भी महसूस नहीं करते, और अपनी गलती स्वीकार करने के लिए वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते। क्या ऐसे लोग हठी नहीं होते? अगर उन्हें ऋणी महसूस नहीं होता है, तो क्या उन्हें कभी पछतावा हो सकता है? क्या बिना सच्चे पछतावे के कोई देह के विरुद्ध विद्रोह और सत्य का अभ्यास कर सकता है? क्या सच्चे पछतावे के बिना कोई वास्तव में पश्चात्ताप कर सकता है? बिल्कुल नहीं। अगर उन्हें पछतावा तक नहीं है, तो क्या आत्म-ज्ञान के बारे में बात करना बेतुका नहीं है? क्या यह सिर्फ स्वाँग और धोखाधड़ी नहीं है? झूठ बोलने और धोखा देने के बाद कुछ लोगों को अपने किए का एहसास होता है और वे पश्चात्ताप कर पाते हैं। क्योंकि उनमें शर्म की भावना है, वे खुले तौर पर दूसरों के सामने अपनी भ्रष्टता स्वीकारने में शर्मिंदा होते हैं, लेकिन वे प्रार्थना कर परमेश्वर के सामने खुद को खोल लेते हैं। वे पश्चात्ताप करने को तैयार रहते हैं और फिर सचमुच बदल जाते हैं। यह ऐसा व्यक्ति भी होता है जो खुद को जानता है और सच में पश्चात्ताप करता है। कोई भी व्यक्ति जो दूसरों के सामने यह स्वीकार करने का साहस कर सके कि उसने झूठ बोला है और धोखा दिया है और जो परमेश्वर से प्रार्थना भी कर सकता है और अपनी भ्रष्टता के खुलासे स्वीकार कर खुद को उसके सामने खोलकर रख सकता है, वह खुद को जानने और सच में पश्चात्ताप करने में सक्षम है। प्रार्थना करने और सत्य खोजने के बाद, वे अभ्यास का तरीका ढूँढ़ते हैं और अपने आप में कुछ बदलाव लाते हैं। भले ही सभी का प्रकृति सार एक जैसा होता है और सबका भ्रष्ट स्वभाव है, फिर भी जो लोग सत्य स्वीकार सकते हैं उनके बचाए जाने की आशा है। कुछ लोग, परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने का आनंद लेते हैं और आत्मचिंतन पर ध्यान देते हैं। जब वे अपनी भ्रष्टता के खुलासे देखते हैं, तो उन्हें लगता है कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं और अक्सर अपनी झूठ बोलने और धोखा देने की समस्या हल करने के लिए आत्मसंयम के तरीके अपनाते हैं। फिर भी वे खुद को रोक नहीं पाते और अक्सर झूठ बोलते और धोखा देते हैं। तब जाकर उन्हें एहसास होता है कि शैतानी स्वभाव की समस्या को संयम के जरिए हल नहीं किया जा सकता है। इसलिए वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, उसे अपनी समस्याएँ समझाते हैं, खुद को पापी प्रकृति की बाध्यता और शैतान के प्रभाव से बचाने की प्रार्थना करते हैं, ताकि उन्हें परमेश्वर से उद्धार प्राप्त हो सके। कुछ समय बाद कुछ नतीजे तो मिलते हैं, लेकिन उनकी झूठ बोलने और धोखा देने की समस्या का कोई बुनियादी समाधान नहीं निकलता। तब अंततः उन्हें एहसास होता है कि शैतानी स्वभाव लंबे अरसे से उनके दिलों में जड़ें जमाए है और उनके केंद्र तक पहुँच गया है। मानवीय प्रकृति शैतान की है। केवल परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकार करके और पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करके ही कोई शैतानी स्वभाव के जकड़ने वाले बंधनों और बाध्यता से मुक्त हो सकता है। जब परमेश्वर के वचन उन्हें प्रबुद्ध करते हैं और उनका मार्गदर्शन करते हैं, तभी वे अपनी भ्रष्टता की गहराई देख पाते हैं और यह समझ पाते हैं कि भ्रष्ट मानवजाति वास्तव में शैतान की वंशज है, और यह भी कि यदि परमेश्वर का उद्धार का व्यक्तिगत कार्य न होता, तो हर किसी को नरक और विनाश भोगना पड़ता। केवल तभी उन्हें एहसास होता है कि न्याय और ताड़ना के माध्यम से लोगों को बचाना परमेश्वर के लिए कितना व्यावहारिक है। अनुभव करने के बाद वे दिल से परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारने में सक्षम रहते हैं और उनमें सच्चे पश्चात्ताप की भावना जगने लगती है। अब वे वास्तव में जागरूक होकर खुद को जानने लगते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिनके दिलों में जागरूकता की कमी है, वे भी कुछ आध्यात्मिक वचन, कुछ विवेकपूर्ण वचन बोलना सीख लेते हैं। वे विशेष रूप से तथाकथित “पवित्र लोगों” के अक्सर दोहराए जाने वाले जुमले बोलने में माहिर होते हैं और वे सुनने में काफी सच्चे भी लगते हैं, वे अपने श्रोताओं को इस हद तक धोखा देते हैं कि उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। परिणामस्वरूप, हर कोई उन्हें पसंद कर सम्मान देता है। क्या ऐसे बहुत-से लोग हैं? ये कैसे लोग होते हैं? क्या ये फरीसी नहीं हैं? ऐसे लोग सबसे अधिक धोखेबाज होते हैं। सत्य को न समझने वाले लोग जब पहली बार ऐसे किसी व्यक्ति के संपर्क में आते हैं तो उन्हें लगता है कि वह बहुत आध्यात्मिक है, इसलिए वे उसे अगुआ चुन लेते हैं। नतीजा ये होता है कि एक साल के अंदर वह व्यक्ति इन सभी अविवेकी लोगों को अपने पाले में ले जाता है। वे उसके इर्द-गिर्द मँडराते हैं, उसकी हाँ में हाँ मिलाते हैं और तारीफें करते हैं, जब भी कुछ होता है तो उससे मार्गदर्शन माँगते हैं और यहाँ तक कि उसके लहजे की नकल करते हैं। उसका अनुसरण करने वाले लोग शब्द और धर्म-सिद्धांत बघारना सीखते हैं, वे लोगों और परमेश्वर को धोखा देना सीखते हैं, लेकिन इसके परिणामस्वरूप जब परीक्षण सामने आते हैं, वे सभी निराश और कमजोर हो जाते हैं। वे मन ही मन में परमेश्वर के खिलाफ शिकायत करते और उस पर शक करते हैं और बिल्कुल भी आस्था नहीं रखते। किसी व्यक्ति की आराधना और अनुसरण करने का यही फल होता है। वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने और कई आध्यात्मिक सिद्धांत बोलने में सक्षम होने के बावजूद, उनके पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है। वे सभी किसी पाखंडी फरीसी द्वारा गुमराह किए और वश में कर लिए गए हैं। क्या अविवेकी लोगों के लिए धोखा खाना और गलत मार्ग अपनाना आसान नहीं है? अविवेकी लोग भ्रमित रहते हैं और वे सभी काफी आसानी से गुमराह हो जाते हैं!
परख करना सीखने के लिए, सबसे पहले व्यक्ति को अपनी समस्याओं पर विचार करना और उनका भेद पहचानना सीखना होगा। हर किसी में घमंड और आत्मतुष्टता होती है और थोड़ी-सी भी शक्ति उन्हें मनमाने ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकती है। लोग ऐसा होते हुए अक्सर देखते हैं और एक पल में जान जाते हैं, लेकिन वे कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं जिन्हें समझना इतना आसान नहीं है या जिनके प्रति लोग कम संवेदनशील हैं और जिन्हें खुद में या अन्य लोगों में खोजना मुश्किल है? (मैं धोखेबाजी को महसूस नहीं कर पाता हूँ।) धोखेबाजी न महसूस कर पाना और क्या? (स्वार्थ और घिनौनापन।) स्वार्थ और घिनौनापन। उदाहरण के लिए, कुछ ऐसे लोग हैं जो कुछ करते हैं और दावा करते हैं कि वे इसे दूसरों के लिए कर रहे हैं और इसे हर किसी की स्वीकृति पाने का एक बहाना बना लेते हैं। लेकिन वास्तव में वे ऐसा खुद को मुसीबत से बचाने के लिए करते हैं, यह ऐसा मकसद है जिससे दूसरे अनजान हैं और जिसके बारे में पता लगाना मुश्किल होता है। अन्य कौन-से भ्रष्ट स्वभावों का पता लगाना सबसे कठिन है? (पाखंडी होना।) मतलब, बाहरी तौर पर एक अच्छा व्यक्ति दिखना, प्रशंसा पाने के लिए मानवीय धारणाओं के अनुकूल काम करना, लेकिन अंदर शैतानी दर्शन और गुप्त उद्देश्यों को छिपाना। यह एक धोखेबाजी का स्वभाव है। क्या इसका भेद पहचानना आसान है? जिन लोगों की काबिलियत कम होती है और जो सत्य नहीं समझते, वे चीजों की असलियत नहीं देख सकते; वे इस प्रकार के व्यक्ति का भेद विशेष रूप से पहचान नहीं सकते। ऐसे कुछ अगुआ और कार्यकर्ता हैं जो समस्याओं को हल करते समय स्पष्ट और तार्किक रूप से बात करते हैं, जैसे कि उन्होंने समस्या को समझ लिया हो, लेकिन जब वे बात खत्म कर लेते हैं, तो समस्या सुलझती नहीं है। वे तुम्हें गलत ढंग से विश्वास दिलाते हैं कि समस्या हल हो गई है; क्या यह लोगों को गुमराह करना और धोखा देना नहीं है? जो लोग अपना कर्तव्य निभाते समय वास्तविक कार्रवाई नहीं करते और जो बहुतेरी खोखली और कर्णप्रिय बातें करते हैं, वे सभी पाखंडी हैं। वे बहुत धूर्त और कपटी होते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति के साथ लंबे समय तक रहने के बाद, क्या तुम लोग उनका भेद पहचान सकते हो? वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी वे क्यों नहीं बदलते? मूल कारण क्या है? सटीकता से कहें तो, वे सभी लोग सत्य से विमुख हैं, इसलिए वे इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे शैतान के दर्शन के अनुसार जीना पसंद करते हैं, यह सोचकर कि यह न केवल उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाता है, बल्कि उन्हें तेजस्वी और आकर्षक दिखने में भी मदद करता है और इससे दूसरे लोगों की नजरों में उनका सम्मान बढ़ जाता है। क्या ऐसे लोग कपटी और धोखेबाज नहीं हैं? वे सत्य स्वीकार करने से पहले मरना पसंद करेंगे; क्या ऐसे व्यक्ति को बचाया जा सकता है? कुछ लोग जब काट-छाँट का सामना करते हैं, तो वे मौखिक रूप से तो अपनी गलती मान लेते हैं, लेकिन अपने दिलों में प्रतिरोध करते हैं : “भले ही तुम जो कह रहे हो वह सही हो, मैं इसे स्वीकार नहीं करूँगा। मैं अंत तक तुमसे लड़ूँगा!” वे यह ढोंग करते हैं कि वे स्वीकार करते हैं, परन्तु अपने दिल में वे ऐसा नहीं करते। यह ऐसा स्वभाव भी है जो सत्य से विमुख है। अन्य कौन-से भ्रष्ट स्वभावों का पता लगाना और उन्हें देख पाना कठिन है? क्या हठीपन का पता लगाना कठिन नहीं है? हठीपन इस प्रकार का स्वभाव है जो बहुत छिपा हुआ होता है। यह आमतौर पर किसी के अपने विचारों पर जिद्दी बनकर अड़े रहने और सत्य को स्वीकार करने में कठिनाई के रूप में प्रकट होता है। दूसरे भले ही सत्य के अनुसार कैसे भी बोलें, हठी व्यक्ति अपने ही तरीके पर अड़ा रहता है। हठी स्वभाव वाले व्यक्ति के सत्य को स्वीकार करने की संभावना सबसे कम होती है। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते वे आमतौर पर अपने भीतर इस प्रकार का हठी स्वभाव छिपाए रखते हैं। यह पता लगाना कठिन है कि लोग कब अपने भीतर किसी चीज से जिद्दी बनकर चिपके रहते हैं या अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं पर अड़े रहते हैं। और क्या है? सत्य से प्रेम न करने और सत्य से विमुख होने का पता लगाना कठिन है। क्रूरता को पहचानना कठिन है। घमंड और धोखेबाजी को पहचानना सबसे आसान है, लेकिन अन्य—हठीपन, सत्य से विमुख होना, क्रूरता, दुष्टता—यह सब पहचानना मुश्किल है। दुष्टता को पहचानना सबसे कठिन है, क्योंकि यह मनुष्य की प्रकृति बन गया है और वे इसे गौरवान्वित करने लगते हैं और अधिक दुष्टता भी उन्हें दुष्टता नहीं लगेगी। अतः दुष्ट स्वभाव की पहचान करना हठधर्मी स्वभाव की पहचान करने से भी अधिक कठिन है। कुछ लोग कहते हैं : “इसे पहचानना आसान कैसे नहीं है? सभी लोगों की दुष्ट इच्छाएँ होती हैं। क्या यह क्रूरता नहीं है?” यह सतही है। असली दुष्टता क्या है? प्रकट होने पर कौन-सी अवस्थाएँ दुष्ट होती हैं? जब लोग अपने दिल की गहराइयों में छिपे दुष्ट और शर्मनाक इरादे छिपाने के लिए प्रभावशाली लगने वाले कथनों का उपयोग करते हैं और फिर दूसरों को यह विश्वास दिलाते हैं कि ये कथन बहुत अच्छे, ईमानदार और वैध हैं, और अंततः अपने गुप्त मकसद हासिल कर लेते हैं, तो क्या यह एक क्रूर स्वभाव है? इसे दुष्ट क्यों कहा जाता है और कपट करना क्यों नहीं कहा जाता? स्वभाव और सार के अनुसार कपट उतना बुरा नहीं होता। दुष्ट होना कपटी होने से ज्यादा गंभीर है, यह एक ऐसा व्यवहार है जो कपट से अधिक धूर्त और निकृष्ट है, और औसत व्यक्ति के लिए इसकी असलियत जानना कठिन है। उदाहरण के लिए, साँप ने हव्वा को लुभाने के लिए किस तरह के शब्दों का इस्तेमाल किया? भ्रामक शब्द, जो सुनने में सही लगते हैं और तुम्हारी भलाई के लिए कहे गए प्रतीत होते हैं। तुम नहीं जानते कि इन शब्दों में कुछ गलत है या इनके पीछे कोई द्वेषपूर्ण मंशा है, और साथ ही, तुम शैतान द्वारा दिए गए इन सुझावों को छोड़ने में असमर्थ रहते हो। यह प्रलोभन है। जब तुम्हें प्रलोभन दिया जाता है और तुम इस तरह के शब्द सुनते हो, तो तुम लुभाए बिना नहीं रह पाते और जाल में फँसने की संभावना होती है, जिससे शैतान का लक्ष्य पूरा हो जाता है। इसे ही दुष्टता कहा जाता है। साँप ने हव्वा को लुभाने के लिए इसी तरीके का इस्तेमाल किया था। क्या यह एक प्रकार का स्वभाव है? (हाँ।) इस प्रकार का स्वभाव कहाँ से आता है? यह साँप से, शैतान से आता है। इस प्रकार का दुष्ट स्वभाव मनुष्य की प्रकृति के भीतर मौजूद है। क्या यह दुष्टता मनुष्यों की दुष्ट अभिलाषाओं से भिन्न नहीं है? दुष्ट अभिलाषाएँ कैसे उत्पन्न होती हैं? इसका संबंध देह से है। सच्ची दुष्टता एक प्रकार का स्वभाव है, गहराई तक छिपा हुआ, जिसका पता सत्य के अनुभव या उसकी समझ से रहित लोग बिल्कुल नहीं लगा सकते। इसलिए मनुष्य के स्वभावों में इसका पता लगाना सबसे कठिन है। किस प्रकार के व्यक्ति का दुष्ट स्वभाव सबसे प्रबल होता है? जो लोग दूसरों का शोषण करना पसंद करते हैं। वे हेरफेर करने में इतने अच्छे होते हैं कि जिन लोगों के साथ वे हेरफेर करते हैं उन्हें भी पता नहीं चलता कि आगे क्या हुआ। इस प्रकार के व्यक्ति का स्वभाव दुष्ट होता है। दुष्ट लोग, धोखेबाजी के आधार पर, अपने धोखे को, अपने पापों को छिपाने और अपने गुप्त इरादों, लक्ष्यों और स्वार्थी इच्छाओं को छिपाने के लिए अन्य तरीकों का उपयोग करते हैं। यह दुष्टता है। इसके अलावा, वे तुम्हें आकर्षित करने, लुभाने और बहकाने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करेंगे, ताकि तुम उनकी इच्छाओं का पालन करो और उनके लक्ष्यों को प्राप्त करने की उनकी स्वार्थी इच्छाओं को पूरा करो। यह सब दुष्टता है। यह असली शैतानी स्वभाव है। क्या तुम लोगों ने इनमें से कोई व्यवहार दिखाया है? तुम लोगों ने दुष्ट स्वभाव के किन पहलुओं को अधिक दिखाया है : प्रलोभन, लुभाना, या एक झूठ को छिपाने के लिए कई झूठ का उपयोग करना? (मुझे लगता है थोड़े-बहुत सभी पहलू दिखाए हैं।) तुम्हें लगता है उन सभी का थोड़ा प्रदर्शन किया है। इसका मतलब भावनात्मक स्तर पर तुम लोगों को लगता है कि तुमने ऐसे व्यवहार दिखाए भी हैं और नहीं भी दिखाए हैं। तुम लोगों के पास कोई सबूत नहीं है। तो, अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में किसी चीज से सामना होने पर अगर तुम लोग दुष्ट स्वभाव दिखाते हो तो क्या तुम लोगों को इसका एहसास होता है? दरअसल, ये बातें हर किसी के स्वभाव में मौजूद होती हैं। उदाहरण के लिए, ऐसा कुछ है जो तुम नहीं समझते, लेकिन तुम दूसरों को यह नहीं जताना चाहते कि तुम उसे नहीं समझते, इसलिए तुम उन्हें गुमराह करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हो ताकि उन्हें लगे कि तुम इसे समझते हो। यह धोखाधड़ी है। ऐसी धोखाधड़ी दुष्टता की अभिव्यक्ति है। प्रलोभन और लालच देना भी है, जो सभी दुष्टता की अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या तुम लोग अक्सर दूसरों को प्रलोभित करते हो? अगर तुम लोग सही तरीके से किसी को समझने की कोशिश कर रहे हो, उनके साथ संगति करना चाहते हो और यह तुम लोगों के कार्य के लिए आवश्यक है और यह उचित मेलजोल है तो इसे प्रलोभन नहीं माना जाएगा। परंतु यदि तुम लोगों का कोई व्यक्तिगत इरादा और उद्देश्य है और तुम वास्तव में इस व्यक्ति के स्वभाव, प्रयासों और ज्ञान को समझना नहीं चाहते हो, बल्कि उसके गहरे विचार और सच्ची भावनाएँ जानना चाहते हो, तो इसे दुष्टता, व प्रलोभन और लालच देना कहा जाता है। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारा स्वभाव दुष्ट है; क्या यह ऐसी चीज नहीं जो छुपी हुई है? क्या इस प्रकार के स्वभाव को बदलना आसान है? यदि तुम यह भेद पहचान सकते हो कि तुम्हारे स्वभाव के हर पहलू की क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं, हर पहलू अक्सर किन दशाओं को उत्पन्न करता है, और इनका खुद से मिलान कर सकते हो, यह महसूस कर सकते हो कि इस प्रकार का स्वभाव कितना भयानक और खतरनाक है तो तुम्हें इस संबंध में बदलने का दबाव महसूस होगा और तुम अपने अंदर परमेश्वर के वचनों के लिए प्यास जगा लोगे और सत्य को स्वीकार कर लोगे। तभी तुम बदल सकते हो और उद्धार प्राप्त कर सकते हो। लेकिन अगर खुद से इसका मिलान करने के बाद भी तुममें सत्य के लिए कोई प्यास नहीं जगती है, तुममें ऋणी या दोषी होने का भाव नहीं है—बिल्कुल भी पश्चाताप नहीं है—और सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं है, तो तुम्हारे लिए बदलाव मुश्किल होगा। और समझने से मदद नहीं मिलेगी, क्योंकि तुम केवल सिद्धांत ही समझोगे। सत्य का पहलू चाहे जो भी हो, अगर तुम्हारी समझ सिद्धांत के स्तर पर ही रुक जाती है और तुम्हारे अभ्यास और प्रवेश से जुड़ी नहीं है, तो तुमने जो सिद्धांत समझा है वह किसी काम का नहीं रहेगा। यदि तुम सत्य नहीं समझते हो, तो तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं पहचानोगे और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप नहीं करोगे और पाप कबूल नहीं करोगे और तुम परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस नहीं करोगे और खुद से नफरत नहीं करोगे, इसलिए तुम्हारे बचाए जाने की संभावना शून्य है। यदि तुम समझते हो कि तुम्हारी समस्याएँ कितनी गंभीर हैं, लेकिन तुम परवाह नहीं करते हो और खुद से नफरत नहीं करते हो, अब भी अंदर से बहुत सुन्न और निष्क्रिय महसूस करते हो, परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार नहीं करते हो और उससे प्रार्थना नहीं करते हो या अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए उस पर भरोसा नहीं करते हो, तो तुम बड़े खतरे में हो और तुम्हें उद्धार प्राप्त नहीं होगा।
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