सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 15)

अगर लोगों के पास सत्य से प्रेम करने वाला दिल होगा, तो उनमें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति होगी, और वे सत्य का अभ्यास करने के लिए कड़ी मेहनत कर सकते हैं। वे उसे त्याग सकते हैं जिसे त्यागना चाहिए, और उसे छोड़ सकते हैं जिसे छोड़ना चाहिए। विशेष रूप से, जो चीजें तुम्हारी प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत से संबंधित हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए। अगर तुम उन्हें नहीं छोड़ते, तो इसका मतलब है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते और तुममें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति नहीं है। जब तुम्हारे साथ घटनाएँ घटें, तो तुम्हें सत्य खोजकर इसका अभ्यास करना चाहिए। अगर, ऐसे समय में, जब तुम्हें सत्य का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है, तुम्हारा हृदय हमेशा स्वार्थी बना रहे और तुम अपना स्वार्थ नहीं छोड़ सकते, तो तुम सत्य पर अमल नहीं कर पाओगे। अगर तुम किसी भी परिस्थिति में सत्य की तलाश या उसका अभ्यास नहीं करते, तो तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति नहीं हो। चाहे तुमने कितने भी वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया हो, तुम सत्य प्राप्त नहीं करोगे। कुछ लोग हमेशा प्रसिद्धि, लाभ और स्वार्थ के पीछे दौड़ते रहते हैं। कलीसिया उनके लिए जिस भी कार्य की व्यवस्था करे, वे हमेशा यह सोचते हुए उसके बारे में विचार करते हैं, “क्या इससे मुझे लाभ होगा? अगर होगा, तो मैं इसे करूँगा; अगर नहीं होगा, तो मैं नहीं करूँगा।” ऐसा व्यक्ति सत्य का अभ्यास नहीं करता—तो क्या वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? निश्चित रूप से नहीं निभा सकता। भले ही तुमने कोई बुराई न की हो, फिर भी तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति नहीं हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते, और कुछ भी तुम पर आ पड़े, तुम सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत, अपने स्वार्थ और जो तुम्हारे लिए अच्छा है, उसकी परवाह करते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो केवल स्वार्थ से प्रेरित होता है और स्वार्थी और नीच है। इस तरह का व्यक्ति अपने लिए कुछ अच्छा या लाभदायक पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करता है, सत्य या परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए नहीं। इसलिए इस प्रकार के लोग छद्म-विश्वासी होते हैं। जो लोग वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे सत्य की खोज और अभ्यास कर सकते हैं, क्योंकि वे अपने हृदय में जानते हैं कि मसीह सत्य है, और उन्हें परमेश्वर के वचन सुनने चाहिए और परमेश्वर पर उसकी अपेक्षा के अनुसार विश्वास करना चाहिए। अगर तुम अपने साथ कुछ होने पर सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, लेकिन अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत और इज्जत पर विचार करते हो, तो ऐसा करना कठिन होगा। इस तरह की स्थिति में प्रार्थना, खोज और आत्मचिंतन करके और आत्म-जागरूक होने से सत्य से प्रेम करने वाले लोग अपने ही स्वार्थ या भले की चीजें छोड़ पाएँगे, और सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होंगे। ऐसे लोग वे होते हैं, जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास और सत्य से प्रेम करते हैं। और जब लोग हमेशा अपने स्वार्थ के बारे में सोचते हैं, जब वे हमेशा अपने गौरव और अहंकार की रक्षा करने की कोशिश करते हैं, जब वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं लेकिन उसे ठीक करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते, तो इसका क्या परिणाम होता है? यही कि वे जीवन-प्रवेश नहीं कर पाते हैं, और उनके पास सच्ची अनुभवजन्य गवाही की कमी है। और यह खतरनाक है, है न? अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे पास कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं है, तो समय आने पर तुम्हें बेनकाब कर निकाल दिया जाएगा। अनुभवजन्य गवाही से रहित लोगों का परमेश्वर के घर में क्या उपयोग है? वे कोई भी कर्तव्य खराब तरीके से निभाने और कुछ भी ठीक से न कर पाने के लिए बाध्य हैं। क्या वे सिर्फ कचरा नहीं हैं? वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी अगर लोग कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो वे छद्म-विश्वासी हैं; वे बुरे लोग हैं। अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे अपराध बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, तो तुम्हारा परिणाम निश्चित है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम्हारे सभी अपराध, वह गलत मार्ग जिस पर तुम चलते हो, और पश्चात्ताप करने से तुम्हारा इनकार—ये सभी मिलकर बुरे कर्मों का ढेर बन जाते हैं; और इसलिए तुम्हारा परिणाम यह है कि तुम नरक में जाओगे—तुम्हें दंडित किया जाएगा। क्या तुम लोग सोचते हो कि यह कोई साधारण मामला है? अगर तुम्हें दंडित नहीं किया गया है, तो तुम्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं होगा कि यह कितना भयानक है। जब वह दिन आएगा जब तुम वास्तव में विपदा का सामना करोगे, और तुम्हारा सामना मृत्यु से होगा, तो पछताने के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। अगर परमेश्वर पर अपनी आस्था में तुम सत्य नहीं स्वीकारते, अगर तुम वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते हो लेकिन तुममें कोई बदलाव नहीं आया, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि तुम्हें निकालकर त्याग दिया जाएगा। अपराध सबसे होते हैं। मुख्य बात है उन अपराधों को ठीक करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम होना, और इससे यह सुनिश्चित होगा कि ये अपराध कम से कम हों। यदि तुम कभी अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते भी हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कब करते हो, और तुम हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर भरोसा करने में सक्षम हो, इसे ठीक करने के लिए सत्य की तलाश करते हो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करते हो, तो तुमने कोई दुष्ट काम नहीं किया होगा। इसी तरीके से विश्वासी लोगों को भ्रष्ट स्वभाव की समस्या ठीक करनी चाहिए, और इसी तरह से परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना चाहिए। जब तुम्हारे साथ कुछ अप्रत्याशित घटता है तब यदि तुम कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हो और कभी सत्य की खोज नहीं करते हो, या यदि तुम सत्य को समझते हो लेकिन इसे अभ्यास में नहीं लाते हो, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? यह स्वतः स्पष्ट है। तुम कितने भी चालाक और चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले हो, क्या तुम परमेश्वर की पारखी दृष्टि से बच सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के हाथ के आयोजनों से बच सकते हो? यह असंभव है। बुद्धिमान लोगों को परमेश्वर के सामने आना चाहिए और पश्चात्ताप करना चाहिए, उसकी ओर देखना चाहिए, उस पर भरोसा करना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करना चाहिए और सत्य का अभ्यास करना चाहिए। तब तुम दैहिक इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर लोगे, और शैतान के प्रलोभनों पर विजय पा लोगे। भले ही तुम कई बार विफल रहो, तुम्हें दृढ़ रहना चाहिए। जब तुम सभी बाधाओं के बावजूद दृढ़ रहोगे, तो एक समय आएगा जब तुम सफल हो जाओगे, और तुम परमेश्वर का अनुग्रह, उसकी दया और उसका आशीष प्राप्त करोगे, और तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने में सक्षम होगे, अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकोगे, और परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे।

जब तुम लोगों के साथ कुछ अप्रत्याशित घटता है, तो तुम कितनी बार सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के कार्य को बनाए रखने का विकल्प चुनते हो? (अक्सर नहीं। ज्यादातर समय मैं अपनी छवि या अपने हित को बनाए रखना चुनती हूँ, और मुझे बाद में इसका एहसास होता है, लेकिन अपने प्रति विद्रोह करना आसान नहीं है। अगर कोई मेरे साथ सत्य पर संगति करता है तो इससे मुझे कुछ शक्ति मिलती है और मैं कुछ हद तक अपने प्रति विद्रोह कर सकती हूँ। लेकिन जब सत्य के बारे में मेरे साथ संगति करने वाला कोई नहीं होता है, तो मैं परमेश्वर से दूर हो जाती हूँ और हमेशा इसी स्थिति में रहती हूँ।) देह के प्रति विद्रोह करना कठिन है, सत्य का अभ्यास करना और भी कठिन है, क्योंकि तुम्हारे पास एक शैतानी प्रकृति है जो तुम्हें रोकती है, और एक भ्रष्ट स्वभाव है जो तुम्हें परेशान करता है, और इन्हें सत्य को समझे बिना ठीक नहीं किया जा सकता है। तुम लोग परमेश्वर की उपस्थिति में प्रतिदिन कितना समय चुपचाप बिता सकते हो? आध्यात्मिक रूप से सूखा महसूस करने से पहले तुम कितने दिनों तक परमेश्वर के वचन पढ़े बिना रह सकते हो? (मुझे लगता है कि मैं परमेश्वर के वचन पढ़े बिना एक दिन भी नहीं रह सकता। मुझे सुबह परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ना होता है और फिर उस पर ध्यान लगाना होता है। इससे मुझे परमेश्वर के करीब होने का एहसास होता है। अगर कोई ऐसा दिन हो, जहाँ मैं व्यस्तता से काम करने में इधर-उधर भाग रहा हूँ, न तो परमेश्वर के वचनों को खा-पी रहा हूँ, न ही बहुत अधिक प्रार्थना कर रहा हूँ, तो मैं खुद को परमेश्वर से बहुत दूर महसूस करता हूँ।) यदि तुम लोग यह भाँप लेते हो कि परमेश्वर से दूर रहने से तुम्हारा काम नहीं चलेगा तो फिर अभी भी तुम्हारे लिए आशा बची है। यदि तुम विश्वासी हो और सत्य प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम निष्क्रिय नहीं रह सकते और अपने साथ सत्य पर संगति करने के लिए हमेशा किसी की राह ताकते नहीं रह सकते हो। तुम्हें सक्रिय रूप से परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना, परमेश्वर से प्रार्थना करना और सत्य की खोज करना सीखना चाहिए। यदि तुम तब तक प्रतीक्षा करते हो जब तक तुम्हारी आत्मा अंधकारमय न हो जाए और तुम परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और उससे प्रार्थना करने से पहले उसे महसूस नहीं कर सकते, तो तुम केवल यथास्थिति बनाए रख सकते हो। नाममात्र की “आस्था” बनाए रख पाना भी बहुत होगा, लेकिन इससे तुम्हारे जीवन में कोई विकास नहीं होगा, और जब तुम्हारी आत्मा झुलस और सुन्न हो जाएगी, और तुम परमेश्वर से बहुत दूर हो चुके होगे, तो तुम खतरे में होगे। एक प्रलोभन तुम्हें मिलता है, और तुम लड़खड़ा जाते हो; तुम सब लोग शैतान द्वारा बहुत आसानी से बंदी बना लिए जाते हो। यदि तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं है, तुम कोई सत्य नहीं समझते हो, न तो परमेश्वर के वचन पढ़ने पर और न ही उपदेश सुनने पर ध्यान केंद्रित करते हो, और तुममें सामान्य आध्यात्मिक जीवन का अभाव है, तो तुम्हारे लिए आध्यात्मिक कद बढ़ाना मुश्किल होगा, और तुम्हारी प्रगति निश्चित रूप से बहुत धीमी होगी। इस धीमी प्रगति के क्या कारण हैं? इसके क्या दुष्परिणाम हैं? तुम्हें इन बातों के बारे में स्पष्ट होना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता किस प्रकार उजागर करता है, उन्हें उसके प्रति समर्पण कर उसे स्वीकारना चाहिए। उन्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए और खुद को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कसना चाहिए, ताकि वे आत्म-ज्ञान प्राप्त कर सकें और धीरे-धीरे सत्य को समझ सकें। यही वह चीज है जो परमेश्वर को सबसे अधिक प्रसन्न करती है, और पवित्र आत्मा निश्चित रूप से उनमें कार्य करेगा, और खुद वे निश्चित रूप से परमेश्वर के इरादों को समझेंगे। तुम्हें हर समय परमेश्वर के वचनों और सत्य को अपने हृदय में रखना चाहिए, ताकि जब तुम वास्तविक जीवन में किसी समस्या का सामना करो, तो तुम उसे परमेश्वर के वचनों और सत्य से जोड़ सको और तुलना कर सको। फिर, समस्या का समाधान आसान हो जाएगा। उदाहरण के लिए, हर कोई निरोगी और स्वस्थ शरीर चाहता है; हर कोई यह तमन्ना करता है, लेकिन तुम्हें अपने दैनिक जीवन में इसका अभ्यास कैसे करना चाहिए? सबसे पहले, तुम्हें नियमित दिनचर्या बनानी चाहिए, अस्वास्थ्यकर या वर्जित चीजें नहीं खानी चाहिए और उचित मात्रा में व्यायाम करना चाहिए। जब तुम ये तरीके एक साथ आजमाते हो, और जो कुछ भी अभ्यास करते हो वह शारीरिक स्वास्थ्य के लक्ष्य के आसपास घूमता है, तो इसके परिणाम धीरे-धीरे तुम्हारे सामने होंगे। कुछ वर्षों के बाद, तुम दूसरों की तुलना में ज्यादास्वस्थ होगे, और अच्छे परिणाम प्राप्त करोगे। तुम्हें ये परिणाम कैसे मिले? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारे कार्य और लक्ष्य एक सीध में थे, और तुम्हारा अभ्यास और सिद्धांत एक सीध में थे। परमेश्वर में विश्वास करना भी ऐसा ही है। यदि तुम ऐसा व्यक्ति बनना चाहते हो जो सत्य से प्रेम करता है और सत्य का अभ्यास करता है, और बदले हुए स्वभाव का व्यक्ति बनना चाहता है, तो जब तुम्हारे साथ कुछ अप्रत्याशित घटनाएँ घटती हैं, तो तुम्हें उन लक्ष्यों से, जिनका तुम अनुसरण कर रहे हो, और इसमें शामिल सच्चाइयों से उन्हें जोड़ना होगा। तुम चाहे जो भी लक्ष्य अपनाओ, जब तक वे वही हैं जो परमेश्वर मनुष्य से चाहता है, तो ये वे दिशा और लक्ष्य हैं जिनका एक विश्वासी के रूप में अनुसरण किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के मार्ग पर चलना : परमेश्वर का भय मानना और दुष्टता से दूर रहना। जब एक बार तुम्हें यह दिशा, यह लक्ष्य मिल जाए, तो तुरंत इसे अभ्यास में लाने का कोई तरीका तुम्हारे पास होना चाहिए। जब मैं कहता हूँ “परमेश्वर के मार्ग पर चलना,” तो “परमेश्वर के मार्ग” का क्या अर्थ है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या है? उदाहरण के लिए जब तुम किसी का मूल्यांकन करते हो—यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से संबंधित है। तुम उसका मूल्यांकन कैसे करते हो? (हमें ईमानदार, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होना चाहिए और हमारे शब्द हमारी भावनाओं पर आधारित नहीं होने चाहिए।) जब तुम ठीक वही कहते हो जो तुम सोचते हो और जो तुमने देखा है, तो तुम ईमानदार होते हो। सबसे पहले, ईमानदार होने का अभ्यास और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण एक सीध में होते हैं। परमेश्वर लोगों को यही सिखाता है; यह परमेश्वर का मार्ग है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। क्या ईमानदार होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का अंग नहीं है? और क्या यह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुमने जो देखा है और जो तुम सोचते हो, वह वो नहीं होता जो तुम्हारे मुँह से निकलता है। कोई तुमसे पूछता है, “उस व्यक्ति के बारे में तुम्हारी क्या राय है? क्या वह कलीसिया के कार्य में जिम्मेदार है?” और तुम उत्तर देते हो, “वह बहुत अच्छा है, वह मुझसे भी अधिक जिम्मेदार है, मुझसे भी ज्यादा काबिल है, उसकी मानवता भी अच्छी है। वह परिपक्व और स्थिर है।” लेकिन तुम अपने दिल में क्या यही सोच रहे होते हो? तुम वास्तव में यह देखते हो कि भले ही वह व्यक्ति काबिल है, लेकिन वह भरोसेमंद नहीं, बल्कि कपटी और बहुत मतलबी है। अपने मन में तुम वास्तव में यही सोच रहे होते हो, लेकिन बोलने की बारी आने पर तुम्हारे मन में आता है कि “मैं सच नहीं बोल सकता, मुझे किसी को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए,” इसलिए तुम जल्दी से कुछ और कह देते हो, तुम उसके बारे में कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हो, और तुम जो कुछ भी कहते हो, वह वास्तव में वह नहीं होता जो तुम सोचते हो, वह सब झूठ और फर्जीवाड़ा होता है। क्या यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? नहीं। तुमने शैतान का मार्ग अपनाया है, राक्षसों का मार्ग अपनाया है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? यह सत्य है, यह वह आधार है जिसके अनुसार लोगों को आचरण करना चाहिए, और यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। भले ही तुम किसी अन्य व्यक्ति से बात कर रहे हो, लेकिन परमेश्वर भी सुनता है, तुम्हारा दिल देख रहा है, और तुम्हारे दिल की जाँच-पड़ताल करता है। लोग वह सुनते हैं जो तुम कहते हो, पर परमेश्वर तुम्हारा दिल जाँचता है। क्या लोग इंसान के दिल की जाँच-पड़ताल करने में सक्षम हैं? ज्यादा से ज्यादा, लोग यह देख सकते हैं कि तुम सच नहीं बोल रहे; वे वही देख सकते हैं, जो सतह पर होता है; लेकिन परमेश्वर ही तुम्हारे दिल की गहराई में देख सकता है। केवल परमेश्वर ही देख सकता है कि तुम क्या सोच रहे हो, क्या योजना बना रहे हो, तुम्हारे दिल में कौन-सी छोटी योजनाएँ, कौन-से कपटी तरीके, कौन-से सक्रिय विचार हैं। यह देखकर कि तुम सच नहीं बोल रहे, परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या राय बनाता है, वह तुम्हारा क्या मूल्यांकन करता है? यही कि इस मामले में तुमने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं किया, क्योंकि तुमने सच नहीं बोला। यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास कर रहे थे, तो तुम्हें सत्य बोलना चाहिए था : “वह काबिल तो है, लेकिन भरोसेमंद नहीं है।” तुम्हारा मूल्यांकन चाहे सटीक होता या नहीं, यह ईमानदार और दिल से आया होता और तुम्हें अपना यही दृष्टिकोण और स्थिति जाहिर करनी चाहिए थी। लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया—तो क्या तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर रहे थे? (नहीं।) यदि तुम सच नहीं बोलते, तो क्या तुम्हारे इस बात पर जोर देने का कोई मतलब है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर उसे संतुष्ट कर रहे हो? क्या तुम्हारे नारों पर परमेश्वर ध्यान देगा? क्या परमेश्वर इस बात पर ध्यान देगा कि तुम कैसे चिल्लाते हो, कितना जोर से चिल्लाते हो या तुम्हारी इच्छा कितनी प्रबल है? क्या वह इस बात पर ध्यान देगा कि तुम कितनी बार चिल्लाते हो? वह इन चीजों को नहीं देखता। परमेश्वर यह देखता है कि कुछ होने पर तुम सत्य का अभ्यास करते हो या नहीं, जब तुम्हारे साथ कोई घटना हो जाती है तो तुम क्या विकल्प चुनते हो और कैसे सत्य का अभ्यास करते हो। यदि तुम संबंध बनाए रखना पसंद करते हो, अपना हित और अपनी छवि बनाए रखना पसंद करते हो और सब कुछ अपने संरक्षण के लिए करते हो, और परमेश्वर देख लेता है कि कोई बात होने पर यही तुम्हारा दृष्टिकोण और रवैया होता है, तो वह तुम्हारा मूल्यांकन करेगा : वह कहेगा कि तुम उसके मार्ग का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। तुम कहते हो कि तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो और परमेश्वर के मार्ग पर चलना चाहते हो, तो जब कुछ घटनाएँ तुम्हारे साथ घटती हैं, तुम इसे तब अभ्यास में क्यों नहीं लाते? तुम जो शब्द बोलते हो वह हृदय से निकले हो सकते हैं, और वे तुम्हारी इच्छा और आकांक्षाएँ व्यक्त कर सकते हैं, या यह भी हो सकता है कि तुम्हारा हृदय द्रवित हो गया हो, और फूट-फूट कर रोते हुए तुम ईमानदार शब्द कह रहे हो, लेकिन ईमानदारी से बोलने का मतलब क्या यह है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हारे पास सच्ची गवाही है? ऐसा जरूरी नहीं है। यदि तुम सत्य के अनुयायी हो, तो तुम सत्य का अभ्यास कर लोगे; यदि तुम सत्य के प्रेमी नहीं हो, तो तुम केवल वही बातें कहोगे जो सुनने में अच्छी लगें, और बात वहीं समाप्त हो जाएगी। फरीसी लोग धर्म-सिद्धांत का प्रचार करने और नारे लगाने में सर्वश्रेष्ठ थे। वे अक्सर नुक्कड़ों पर खड़े होकर चिल्लाते थे, “हे शक्तिशाली परमेश्वर!” या “पूज्य परमेश्वर!” दूसरों को वे विशेष रूप से पवित्र लगते थे, उन्होंने कानून के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया था, लेकिन क्या परमेश्वर ने उनका अनुमोदन किया? नहीं किया। उसने उनकी निंदा कैसे की? उन्हें पाखंडी फरीसी की उपाधि देकर। पहले जमाने में फरीसी इस्रायल में एक सम्मानित वर्ग होता था, तो यह नाम अब एक बिल्ला क्यों बन गया है? ऐसा इसलिए है क्योंकि फरीसी लोग एक खास किस्म के व्यक्ति के परिचायक बन गये हैं। इस प्रकार के व्यक्ति की क्या विशेषताएँ होती हैं? वे झूठ बोलने में, बनने-ठनने में और दिखावा करने में कुशल हैं; वे महान कुलीनता, पवित्रता, ईमानदारी और पारदर्शी शालीनता का दिखावा करते हैं, और वे जो नारे लगाते हैं वे अच्छे तो लगते हैं, लेकिन पता चलता है, वे बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं। उनका क्या अच्छा व्यवहार है? वे धर्मग्रंथ पढ़ते हैं और उपदेश देते हैं; वे दूसरों को कानून और नियमों का पालन करना और परमेश्वर का विरोध न करना सिखाते हैं। यह सब अच्छा व्यवहार है। वे जो कुछ भी कहते हैं वह अच्छा लगता है, लेकिन, दूसरे लोगों के पीछे मुड़ते ही, वे चुपचाप चढ़ावा चुरा लेते हैं। प्रभु यीशु ने कहा कि वे “मच्छर को तो छान डालते हो, परन्तु ऊँट को निगल जाते हो” (मत्ती 23:24)। इसका मतलब यह है कि उनका सारा व्यवहार सतही तौर पर अच्छा लगता है—वे दिखावटी नारे लगाते हैं, वे ऊँचे-ऊँचे सिद्धांत बघारते हैं, और उनकी बातें सुखद लगती हैं, लेकिन उनके कर्म गड्ड-मड्ड हैं और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रतिरोधी हैं। उनका बाहरी व्यवहार सब दिखावा है, सब कपटपूर्ण है; उनके हृदय में न तो सत्य के लिए, न ही सकारात्मक चीजों के लिए जरा भी प्यार है। वे सत्य, सकारात्मक चीजों और जो कुछ भी परमेश्वर से आता है उससे विमुख रहते हैं। उन्हें क्या पसंद है? क्या उन्हें निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद है? (नहीं।) तुम कैसे बता सकते हो कि उन्हें ये चीजें पसंद नहीं हैं? (प्रभु यीशु ने स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाया, जिसे उन्होंने स्वीकारने से ही मना नहीं किया, बल्कि इसकी निंदा भी की।) यदि वे इसकी निंदा न करते, तो क्या यह बताना संभव होता? नहीं। प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने सभी फरीसियों को प्रकट कर दिया, और प्रभु यीशु की निंदा और प्रतिरोध करने के कारण ही अन्य लोग उनके पाखंड को देख पाए। यदि प्रभु यीशु का प्रकटन और कार्य न होता, तो फरीसियों को कोई नहीं समझ पाता, और फरीसियों के सिर्फ बाहरी आचरण को देखकर तो लोगों को ईर्ष्या भी होती। लोगों का विश्वास जीतने के लिए फरीसियों का झूठे सद्व्यवहार का सहारा लेना क्या बेईमानी और मक्कारी नहीं थी? क्या ऐसे मक्कार लोग सत्य से प्रेम कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं कर सकते। अच्छा आचरण दिखाने के पीछे उनका क्या उद्देश्य था? एक उद्देश्य तो लोगों को ठगना ही था। दूसरा, लोगों को गुमराह कर उनका दिल जीतना था, ताकि लोग उनके बारे में अच्छा सोचें और उनका आदर करें। और अंततः, वे पुरस्कृत होना चाहते थे। यह कैसा घोटाला था! क्या ये कुशल चालें थीं? क्या ऐसे लोगों को निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद थी? बिल्कुल भी नहीं। उन्हें सिर्फ पद, प्रसिद्धि और लाभ से प्यार था, और वे सिर्फ पुरस्कार और ताज चाहते थे। उन्होंने कभी भी उन वचनों का अभ्यास नहीं किया जो परमेश्वर ने लोगों को सिखाए थे, और उन्होंने कभी भी सत्य वास्तविकताओं को थोड़ा-सा भी नहीं जिया। उनका सारा ध्यान अच्छे आचरण के जरिये छद्मवेश धारण करने और अपने पाखंडी तरीकों से लोगों को धोखा देकर और उनके दिल जीतकर अपनी पद-प्रतिष्ठा बचाने पर था, जिसका उपयोग वे फिर पूँजी जुटाने और रोजी-रोटी कमाने के लिए करते थे। क्या यह घिनौना नहीं है? उनके इस आचरण से तुम समझ सकते हो कि वे अपने सार रूप में सत्य से प्रेम नहीं करते थे, क्योंकि उन्होंने कभी इसका अभ्यास नहीं किया। कौन-सी चीज ये दर्शाती है कि वे सत्य का अभ्यास नहीं करते थे? सबसे बड़ी बात है : प्रभु यीशु छुटकारे का कार्य करने आया, और प्रभु यीशु के सभी वचन सत्य हैं और उनमें अधिकार है। फरीसियों ने इस पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की? भले ही उन्होंने माना कि प्रभु यीशु के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, लेकिन उन्होंने इन्हें स्वीकार करना तो दूर रहा, इनकी निंदा और भर्त्सना की। ऐसा क्यों किया? ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे, और अपने हृदय में वे सत्य से विमुख थे और उससे घृणा करते थे। उन्होंने स्वीकार किया कि प्रभु यीशु ने जो कुछ भी कहा वह सही था, कि उसके शब्दों में अधिकार और सामर्थ्य था, कि वह किसी भी तरह से गलत नहीं था, और उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं था जिसका वे उसके विरुद्ध प्रयोग कर सकें। परन्तु वे प्रभु यीशु की निंदा करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मिलकर चर्चा की और षड्यंत्र रचकर कहा, “उसे सलीब पर चढ़ा दो। वह रहेगा या हम,” और इस तरह फरीसी प्रभु यीशु के विरुद्ध खड़े हो गए। उस समय न कोई सत्य को समझ पाया, और न ही कोई प्रभु यीशु को देहधारी परमेश्वर के रूप में पहचान सकता था। हालाँकि, एक मनुष्य के दृष्टिकोण से, प्रभु यीशु ने कई सत्य व्यक्त किए, राक्षसों को बाहर निकाला और रोगियों को ठीक किया। उसने कई चमत्कार किए, पाँच रोटियों और दो मछलियों से 5,000 लोगों का पेट भरा, कई सारे अच्छे कर्म किए और लोगों पर इतना अधिक अनुग्रह बरसाया। ऐसे नेक और धार्मिक लोग बहुत ही कम हैं, तो फरीसी प्रभु यीशु की निंदा क्यों करना चाहते थे? वे उसे सलीब पर चढ़ाने के लिए इतने आमादा क्यों थे? उन्होंने प्रभु यीशु के बजाय एक अपराधी को रिहा करना पसंद किया, यह दर्शाता है कि धार्मिक दुनिया के फरीसी कितने दुष्ट और दुर्भावनाग्रस्त थे। वे बहुत दुष्ट थे! फरीसियों के दुष्ट विश्वासघाती चेहरे और उनके दिखावटी, बाहरी परोपकारी चेहरे के बीच इतना बड़ा अंतर था कि बहुत से लोग यह समझ नहीं पाए कि कौन-सा असली है और कौन-सा नकली, लेकिन प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने उन सबको प्रकट कर दिया। फरीसी आम तौर पर खुद को इतनी अच्छी तरह छिपाते थे और बाहर से इतने धर्मात्मा लगते थे कि किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी कि वे इतनी क्रूरता से प्रभु यीशु का विरोध और उत्पीड़न कर सकते हैं। यदि तथ्य प्रकट न हुए होते, तो कोई भी उनकी असलियत नहीं जान पाता। देहधारी परमेश्वर की सत्य की अभिव्यक्ति मनुष्य के बारे में इतना खुलासा करती है!

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