अपने गलत विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है (भाग दो)
सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए आत्मज्ञान का असाधारण महत्व होता है। आत्मज्ञान का अर्थ यह जानना है कि हमारे विचारों और दृष्टिकोण में बुनियादी तौर पर कौन-सी चीजें सत्य के अनुरूप नहीं हैं, भ्रष्ट स्वभाव की हैं और परमेश्वर की शत्रु हैं। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों जैसे अहंकार, आत्मतुष्टता, झूठ और धोखेबाजी की समझ पा लेना आसान है। तुम इन्हें सिर्फ कुछ बार सत्य पर संगति करके या बार-बार संगति करके या भाई-बहनों द्वारा तुम्हारी दशा बताए जाने के जरिए थोड़ा-सा जान सकते हो। इसके अलावा अहंकार और धोखेबाजी हर व्यक्ति में होते हैं, इनमें अंतर सिर्फ मात्रा का होता है, इसलिए इन्हें जानना अपेक्षाकृत सरल है। लेकिन व्यक्ति के विचार और दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, इसका भेद पहचानना कठिन होता है, यह अपने भ्रष्ट स्वभाव जानने जितना सरल नहीं होता। जब व्यक्ति का व्यवहार या बाहरी अभ्यास थोड़ा-सा बदलता है तो उस व्यक्ति को लगता है कि मानो वह बदल चुका है, लेकिन यह मात्र व्यवहारगत बदलाव होता है, इसका यह मतलब नहीं होता कि चीजों को लेकर उसका दृष्टिकोण वास्तव में बदल चुका है। लोगों के दिल की गहराइयों में अभी भी कई धारणाएँ और कल्पनाएँ, परंपरागत संस्कृति के तमाम विचार, दृष्टिकोण, जहर और परमेश्वर से बैर रखने वाली कई चीजें होती हैं। ये चीजें उनके अंदर छिपी होती हैं और इन्हें अभी खोजा जाना बाकी है। ये उनके भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशन का मूल होते हैं और ये अंदर से मनुष्य के प्रकृति सार से निकलते हैं। यही वजह है कि जब परमेश्वर कुछ ऐसा करता है जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाता तो तुम प्रतिरोधी महसूस करोगे और विद्रोह करोगे। तुम नहीं समझोगे कि परमेश्वर ने ऐसा क्यों किया है, और भले ही तुम जानते हो कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें सत्य होता है और तुम समर्पण भी करना चाहते हो, लेकिन तुम ऐसा नहीं कर पाते। तुम समर्पण क्यों नहीं कर पाते? तुम्हारे प्रतिरोध और विद्रोह की क्या वजह है? इसका कारण यह है कि मनुष्य के विचारों और दृष्टिकोण में ऐसी कई चीजें हैं जो परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होती हैं, उन सिद्धांतों के प्रति शत्रुतापूर्ण होती हैं जिनके आधार पर परमेश्वर कार्य करता है और उसके सार के प्रति शत्रुतापूर्ण होती हैं। इन चीजों का ज्ञान पाना लोगों के लिए कठिन है। चूँकि मैं इन वचनों पर संगति कर चुका हूँ, इसलिए तुम लोगों को अंतर्दृष्टि और कुछ समझ प्राप्त करने में सक्षम होना चाहिए। मान लो कि कुछ घटित होने पर तुम लोगों के मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बन जाती हैं और तुम सोचते हो, “यह परमेश्वर का कार्य नहीं हो सकता, क्योंकि अगर यह परमेश्वर होता तो वह ऐसा न करता या ऐसा न कहता। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह प्रेम है, वह लोगों के लिए स्वीकारना आसान होता है,” लेकिन फिर मान लो तुम सोचते हो, “सोचने का यह ढंग गलत है। परमेश्वर पहले ही कह चुका है कि जब भी लोगों को कुछ समझ में न आए तो सत्य खोजना चाहिए। मुझे आत्म-चिंतन करना चाहिए क्योंकि मेरे मन की धारणाएँ और कल्पनाएँ मुसीबत खड़ी कर मुझसे परमेश्वर के कार्य को सीमांकित करा रही हैं। मुझे उसे गलत नहीं समझना चाहिए”—आत्म-चिंतन करने का यह तरीका सही है। जब कभी तुम यह देखो कि परमेश्वर के कार्य या वचन तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाते तो यही वह समय है जब तुम्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए, फौरन परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजना चाहिए, खुद को इनसे मापना चाहिए और फिर इनके अनुसार अभ्यास करना चाहिए। क्या यह आगे बढ़ने का तरीका नहीं है?
हमने अभी-अभी यह संगति की कि अपने माता-पिता से कैसा व्यवहार करना चाहिए। तुममें से कई लोगों को लगता है कि तुम अपने माता-पिता के बहुत ऋणी हो, क्योंकि उन्होंने जिंदगी भर तुम्हारी खातिर बहुत कष्ट सहे और बहुत स्नेह देकर तुम्हारी देखभाल की। अगर वे किसी दिन बीमार पड़ जाते हैं तो तुम्हारी अंतरात्मा व्यथित हो जाती है और तुम खुद को दोष देते हो। तुम अचानक सोचने लगते हो कि तुम्हें अपने माता-पिता के साथ रहकर अपना संतानोचित कर्तव्य निभाना चाहिए, उन्हें ढाढस बँधाकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे बुढ़ापे में खुश रहें। तुम्हें लगता है कि संतान के रूप में यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है। जब तुम यह दायित्व पूरा कर रहे होते हो तब अगर परमेश्वर तुमसे कुछ माँगता है या तुम्हें कोई अप्रत्याशित परीक्षण देता है तो उसका इरादा यह होता है कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, बल्कि परमेश्वर में विश्वास, अपने कर्तव्य के अच्छे से निर्वहन और सत्य के अनुसरण को एक सिद्धांत के रूप में लेना चाहिए। अगर परमेश्वर सीधे तुमसे यह कहे कि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित ढंग से मत रहो या उनके साथ ऐसा व्यवहार मत करो तो तुम्हें कैसा लगेगा? तुम इस मसले पर परंपरागत धारणाओं के चश्मे से विचार करोगे, अपने मन में परमेश्वर के प्रति शिकायत करोगे, सोचोगे कि उसने तुम्हारी भावनाओं की कद्र किए बिना ऐसा किया, और यह भी कि यह तुम्हारी संतानोचित निष्ठा को पूरा नहीं करता है। तुम मानते हो कि तुम संतानोचित निष्ठा, मानवता और अंतरात्मा से ओतप्रोत होकर कार्य कर रहे हो, लेकिन परमेश्वर तुम्हें अपनी अंतरात्मा या संतानोचित निष्ठा के अनुसार कार्य नहीं करने दे रहा है। तब तुम परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध कर उसके खिलाफ विद्रोह करोगे, और सत्य नहीं स्वीकारोगे। यह सब मैं यह एहसास कराने के लिए कह रहा हूँ कि मनुष्य की विद्रोही प्रकृति का आधार और सार मुख्य रूप से लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों से उपजते हैं, जो परिवार और समाज के साथ ही परंपरागत संस्कृति से मिली शिक्षा से बनते हैं। जब ये चीजें परिवार की रीतियों या समाज के प्रभाव और अकादमिक शिक्षा के जरिए लोगों के मन में थोड़ा-थोड़ा करके बैठा दी जाती हैं तो उसके बाद लोग इनके मुताबिक जीने लगते हैं। वे अनजाने में ही यह विश्वास करने लगेंगे कि यह परंपरागत संस्कृति सही है, अनिंद्य है और इसकी आलोचना नहीं की जा सकती, और परंपरागत संस्कृति की माँगों के अनुसार कार्य करके ही वे असली इंसान बन सकते हैं। अगर वे ऐसा नहीं करते तो उन्हें लगता है कि वे अंतरात्मा विहीन हैं, मानवता के विपरीत और मानवता विहीन हैं, और वे इसे स्वीकार नहीं कर पाएँगे। क्या ये मानवीय विचार और दृष्टिकोण सत्य से कोसों दूर नहीं हैं? मनुष्य के विचारों और दृष्टिकोणों में मौजूद चीजों, और लोग जिन लक्ष्यों के पीछे दौड़ते हैं, उन सबका प्रयोजन संसार और शैतान की ओर होता है। मनुष्य से सत्य का अनुसरण कराने की परमेश्वर की अपेक्षा का प्रयोजन परमेश्वर है, रोशनी है। ये दो अलग-अलग दिशाएँ और लक्ष्य हैं। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए लक्ष्यों और मनुष्य से उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करो और तुम्हारी मानवता और ज्यादा सामान्य हो जाएगी, तुम और अधिक मानव के समान होगे और तुम परमेश्वर के और करीब पहुँच जाओगे। अगर तुम परंपरागत संस्कृति के विचारों और दृष्टिकोण के अनुसार कार्य करोगे तो तुम अपनी अंतरात्मा और विवेक खोते जाओगे, और भी ज्यादा झूठे और नकली बन जाओगे, संसार की प्रवृत्तियों का और भी अधिक अनुसरण करोगे, और बुरी शक्तियों का अंश बन जाओगे। तब तुम शैतान की शक्ति के अधीन पूरी तरह अंधकार में जी रहे होगे। तुम पूरी तरह सत्य का उल्लंघन कर परमेश्वर से विश्वासघात कर चुके होगे।
इस असली समाज में जीने वाले लोगों को शैतान बुरी तरह भ्रष्ट कर चुका है। लोग चाहे पढ़े-लिखे हों या नहीं, उनके विचारों और दृष्टिकोणों में ढेर सारी परंपरागत संस्कृति रची-बसी है। खास कर महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पतियों की देखभाल करें, अपने बच्चों का पालन-पोषण करें, नेक पत्नी और प्यारी माँ बनें, अपना पूरा जीवन पति और बच्चों के लिए समर्पित कर उनके लिए जिएँ, यह सुनिश्चित करें कि परिवार को रोज तीन वक्त खाना मिले और साफ-सफाई जैसे सारे घरेलू काम करें। नेक पत्नी और प्यारी माँ होने का यही स्वीकार्य मानक है। हर महिला भी यही सोचती है कि चीजें इसी तरह की जानी चाहिए और अगर वह ऐसा नहीं करती तो फिर वह नेक औरत नहीं है और उसने अंतरात्मा और नैतिकता के मानकों का उल्लंघन कर दिया है। इन नैतिक मानकों का उल्लंघन कुछ महिलाओं की अंतरात्मा पर बहुत भारी पड़ता है; उन्हें लगता है कि वे अपने पति और बच्चों को निराश कर चुकी हैं और वे नेक औरत नहीं हैं। लेकिन परमेश्वर पर विश्वास करने, उसके ढेर सारे वचन पढ़ने, कुछ सत्य समझ चुकने और कुछ मामलों की असलियत जान जाने के बाद तुम सोचोगी, “मैं सृजित प्राणी हूँ और मुझे इसी रूप में अपना कर्तव्य निभाकर खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहिए।” इस समय क्या नेक पत्नी और प्यारी माँ होने, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य करने के बीच कोई टकराव होता है? अगर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना चाहती हो तो फिर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय नहीं कर सकती, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय करना चाहती हो तो फिर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं बन सकती। अब तुम क्या करोगी? अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से करने का फैसला कर कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदार बनना चाहती हो, परमेश्वर के प्रति समर्पित रहना चाहती हो, तो फिर तुम्हें नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना छोड़ना पड़ेगा। अब तुम क्या सोचोगी? तुम्हारे मन में किस प्रकार की विसंगति उत्पन्न होगी? क्या तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुमने अपने पति और बच्चों को निराश कर दिया है? इस प्रकार का अपराधबोध और बेचैनी कहाँ से आते हैं? जब तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभा पाती तो क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि तुमने परमेश्वर को निराश कर दिया है? तुम्हें कोई अपराधबोध या ग्लानि नहीं होती क्योंकि तुम्हारे दिलोदिमाग में सत्य का लेशमात्र संकेत भी नहीं मिलता है। तो फिर तुम क्या समझी? परंपरागत संस्कृति और नेक पत्नी और प्यारी माँ होना। इस प्रकार तुम्हारे मन में “अगर मैं नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं हूँ तो फिर मैं नेक और भली औरत नहीं हूँ” की धारणा उत्पन्न होगी। उसके बाद से तुम इस धारणा के बंधनों से बँध जाओगी, और परमेश्वर में विश्वास करने और अपने कर्तव्य करने के बाद भी इसी प्रकार की धारणाओं से बँधी रहोगी। जब अपना कर्तव्य करने और नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बीच टकराव होता है तो भले ही तुम अनमने ढंग से अपना कर्तव्य करने का फैसला कर परमेश्वर के प्रति थोड़ी-सी भक्ति दिखा लो, फिर भी तुम्हें मन ही मन बेचैनी और अपराधबोध होगा। इसलिए अपना कर्तव्य निभाने के दौरान जब तुम्हें कुछ फुर्सत मिलेगी तो तुम अपने बच्चों और पति की देखभाल करने के मौके तलाश करोगी, उनकी और अधिक भरपाई करना चाहोगी और सोचोगी कि भले ही तुम्हें ज्यादा कष्ट झेलना पड़े तो भी यह ठीक है, बशर्ते तुम्हारे पास मन की शांति हो। क्या यह एक नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बारे में परंपरागत संस्कृति के विचारों और सिद्धांतों के असर का नतीजा नहीं है? अब तुम दो नावों पर सवार हो, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती हो लेकिन नेक पत्नी और प्यारी माँ भी बनना चाहती हो। लेकिन परमेश्वर के सामने हमारे पास सिर्फ एक जिम्मेदारी और दायित्व होता है, एक ही मिशन होता है : सृजित प्राणी का अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना। क्या तुमने यह कर्तव्य अच्छे से निभाया? तुम फिर से रास्ते से क्यों भटक गई? क्या तुम्हें वास्तव में कोई अपराधबोध नहीं है, क्या तुम्हारा दिल तुम्हें धिक्कारता नहीं है? चूँकि अभी तक तुम्हारे दिल में सत्य की बुनियाद नहीं पड़ी है, तुम्हारे दिल पर सत्य का शासन नहीं है, इसलिए अपना कर्तव्य करते हुए तुम रास्ते से भटक सकती हो। भले ही अब तुम अपना कर्तव्य कर पा रही हो, तुम वास्तव में अभी भी सत्य के मानकों और परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत दूर हो। क्या तुम अब इस तथ्य को स्पष्ट रूप से समझ सकती हो? परमेश्वर का यह कहने का क्या अर्थ है, “परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है”? इसका अर्थ हर व्यक्ति को यह एहसास कराना है : हमारा जीवन और हमारे प्राण परमेश्वर ने रचे हैं, ये हमें उसी से मिले हैं—वे हमारे माता-पिता से नहीं आते, प्रकृति से तो बिल्कुल भी नहीं, ये चीजें हमें परमेश्वर ने दी थीं; बात बस इतनी है कि हमारी देह हमारे माता-पिता से उत्पन्न हुई है और हमारे बच्चे हमसे उत्पन्न होते हैं, लेकिन हमारे बच्चों की किस्मत पूरी तरह परमेश्वर के हाथ में है। हम परमेश्वर पर विश्वास कर सकते हैं, यह भी परमेश्वर का दिया हुआ अवसर है; यह उसने निर्धारित किया है और उसका अनुग्रह है। इसलिए तुम्हें किसी दूसरे के प्रति दायित्व या जिम्मेदारी निभाने की जरूरत नहीं है; तुम्हें सिर्फ परमेश्वर के प्रति अपना वह कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए जो तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में निभाना ही चाहिए। लोगों को सबसे पहले यही करना चाहिए, यही वह मुख्य चीज और प्रधान बात है जिसे लोगों को अपने जीवन में पूरा करना चाहिए। अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाती हो तो तुम मानक स्तर की सृजित प्राणी नहीं हो। दूसरों की नजरों में तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ, बहुत ही अच्छी गृहिणी, संतानोचित संतान और समाज की आदर्श सदस्य हो सकती हो, लेकिन परमेश्वर के समक्ष तुम ऐसी इंसान हो, जिसने उसके खिलाफ विद्रोह किया है, जिसने अपना दायित्व या कर्तव्य बिल्कुल भी नहीं निभाया है, जिसने परमेश्वर का आदेश तो स्वीकारा मगर उसे पूरा नहीं किया, जिसने उसे मँझधार में छोड़ दिया। क्या इस तरह के किसी व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति हासिल हो सकती है? ऐसे लोग व्यर्थ होते हैं। तुम चाहे कितनी ही आदर्श पत्नी या माँ हो, या तुम्हारी सामाजिक नैतिकता के मानक कितने ही ऊँचे हों, या तुम दूसरों से कितनी ही स्वीकृति बटोरो, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम सत्य को अभ्यास में ला रही हो, परमेश्वर के प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। अगर तुम सत्य से विमुख हो चुकी हो और इसे स्वीकार नहीं करती हो तो इससे यही सिद्ध होता है कि तुम में अंतरात्मा या विवेक नहीं है, न सामान्य मानवता है, और तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है। क्या इस प्रकार का इंसान परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत दूर नहीं होता? जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे ऐसे ही होते हैं, वे हमेशा परंपरागत संस्कृति के विचारों और सिद्धांतों के अनुसार जीते हैं, हमेशा समाज की प्रवृत्तियों का अनुसरण करते हैं, लेकिन सत्य नहीं स्वीकारते और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ रहते हैं। क्या ये लोग दीन-दरिद्र नहीं हैं? क्या ये मूर्ख और अज्ञानी नहीं हैं? क्या नेक पत्नी और प्यारी माँ होना, भली और चहेती महिला होना शेखी बघारने और गर्व करने लायक बात है?
वो सारी चीजें जिन्हें लोग अपने दिल में रखते हैं, असल में सत्य विरोधी और परमेश्वर की बैरी होती हैं। इनमें वो चीजें भी शामिल हैं जिन्हें हम सकारात्मक, अच्छी और आम तौर पर सही मानते हैं। यहाँ तक कि हम इन चीजों को सत्य, मानवीय जरूरतों और ऐसी चीजों की तरह देखते हैं जिनमें लोगों को प्रवेश करना चाहिए। हालाँकि परमेश्वर के लिए ये घृणित चीजें हैं। इंसान जिन दृष्टिकोणों को सही समझता है या जिन चीजों को सकारात्मक मानता है, वे परमेश्वर के कहे सत्यों से कितनी दूर होती हैं? वास्तव में काफी दूर—यह दूरी मापी नहीं जा सकती। इसलिए हमें खुद को जरूर जानना चाहिए, अपनी अकादमिक शिक्षा से लेकर अपने अनुसरणों और रुचियों तक, अपने विचारों और दृष्टिकोणों से लेकर उन रास्तों तक जो हम चुनते हैं और जिन पर चलते हैं, ये सब गहराई से जानने और गहन-विश्लेषण करने लायक हैं। इनमें से कुछ हम अपने परिवार से विरासत में पाते हैं; कुछ अपनी स्कूली पढ़ाई से प्राप्त करते हैं; कुछ सामाजिक परिवेशों के प्रभाव और उनमें ढाले जाने से मिलते हैं; कुछ किताबों से सीखे जाते हैं; और कुछ हमारी कल्पनाओं और धारणाओं से निकलते हैं। ये सर्वाधिक डरावनी चीजें होती हैं क्योंकि ये हमारे दिमाग पर हावी रहती हैं, और हमारे क्रियाकलापों के उद्देश्यों, इरादों और लक्ष्यों को संचालित करती हैं। ये हमारी कथनी-करनी को भी बाध्य और नियंत्रित करती हैं। अगर हम इन्हें खोजकर न नकारें तो हम परमेश्वर के वचन कभी भी पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाएँगे, और हम कभी भी उसकी अपेक्षाओं को बिना शर्त नहीं स्वीकार पाएँगे और उन्हें अभ्यास में नहीं ला सकेंगे। जब तक तुम अपने ही विचारों और दृष्टिकोणों को पालते रहोगे और उन चीजों को पालते रहोगे जिन्हें तुम सही मानते हो तो तब तक तुम परमेश्वर के वचनों को कभी भी न तो बिना शर्त स्वीकार सकोगे, न ही तुम उनके मूल स्वरूप में उनका अभ्यास करोगे; तुम निश्चित रूप से परमेश्वर के वचनों को अपने दिल में संसाधित करोगे और उन्हें अपनी धारणाओं के अनुरूप बना चुकने के बाद ही उनका तभी अभ्यास करोगे। तुम इसी तरह कार्य करोगे, और इसी तरह अपने तौर-तरीकों के अनुसार कार्य करने के लिए प्रेरित कर दूसरों की “मदद” करोगे। ऐसा लगेगा कि तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में ला रहे हो लेकिन तुम जो अभ्यास करोगे उसमें मानवीय मिलावट होगी। तुम इससे बेखबर रहोगे और सोचोगे कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, कि पहले ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हो, कि तुमने पहले ही सत्य प्राप्त कर लिया है। क्या यह अहंकार और आत्मतुष्टता नहीं है? क्या ऐसी दशा भयावह बात नहीं है? अगर लोग सत्य का अभ्यास करने में सावधानी नहीं बरतेंगे, तो भटकाव आते रहेंगे। अगर परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने के लिए कोई व्यक्ति हमेशा अपनी कल्पनाओं पर निर्भर रहे, तो वह न केवल सत्य का अभ्यास नहीं करता, बल्कि परमेश्वर के प्रति समर्पण भी नहीं कर सकता। अगर कोई व्यक्ति सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहता है, तो उसे यह चिंतन करना चाहिए कि उसमें कौन-सी धारणाएँ और कल्पनाएँ मौजूद हैं, साथ ही उसके कौन-से विचार सत्य के अनुरूप नहीं हैं। इन चीजों का गहन-विश्लेषण करते समय इन्हें पूरी तरह से समझाने या स्पष्ट करने के लिए एक-दो शब्द काफी नहीं रहेंगे। जीवन में स्वाभाविक रूप से ऐसे कई अन्य मामले होते हैं। अतीत में इकट्ठा हुए शैतान के सौ से अधिक जहरों की तरह तुमने शायद वचन और वाक्यांश समझ लिए होंगे, लेकिन तुमने इनकी कसौटी पर खुद को कैसे कसा? क्या तुम उन पर चिंतन कर चुके हो? क्या इन जहरों में तुम्हारी भी हिस्सेदारी नहीं है? क्या इनसे तुम्हारे सोचने का तरीका भी पता नहीं चलता? क्या तुम इन जहरों के आधार पर कार्य नहीं करते? तुम्हें अपने व्यक्तिगत अनुभव की गहराई में जाकर थाह लेनी चाहिए और इसे इन वचनों की कसौटी पर कसना चाहिए। अगर तुम लोग शैतान के जहर उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों को महज सरसरी तौर पर पढ़ते हो, उन पर सिर्फ एक नजर डालते हो या उनके बारे में सामान्य रूप से सोचते हो, यह मानते हो कि ये चीजें वास्तव में जहर हैं, कि वे वास्तव में लोगों को भ्रष्ट कर नुकसान पहुँचाती हैं, लेकिन फिर परमेश्वर के वचनों को दरकिनार कर देते हो तो तुम्हारे पास अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने का कोई उपाय नहीं होगा। बहुत-से लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं लेकिन उन्हें वास्तविकता से नहीं जोड़ पाते। वे बस वचन पढ़ते हैं और पाठ पर सरसरी नजर डालते हैं, और जैसे ही वे इनका शाब्दिक अर्थ समझते हैं तो यह मान लेते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के वचन समझ लिए हैं, यहाँ तक कि सत्य भी समझ लिया है। फिर भी वे अपने भ्रष्ट स्वभावों पर कभी विचार नहीं करते, और जब उन्हें पता चलता है कि वे भ्रष्टता दिखा रहे हैं तो वे इसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते। वे सिर्फ यह स्वीकार करके संतुष्ट हैं कि परमेश्वर के वचनों ने जो दशाएँ उजागर की हैं, वे सब वास्तविक हैं और भ्रष्ट स्वभावों का प्रकाशन हैं, और बस छुट्टी। जो परमेश्वर के वचन इस तरह पढ़ता है क्या वह वाकई खुद को जान सकता है? क्या वह अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकता है? हरगिज नहीं। परमेश्वर पर विश्वास करने वाले अधिकतर लोग इसी तरह विश्वास करते हैं, और इसी कारण दस-बीस साल के विश्वास के बाद भी उन्हें अपने स्वभाव में कोई बदलाव नहीं दिखता। इसका मूल कारण यह है कि वे परमेश्वर के वचनों में मेहनत नहीं झोंकते और वे सत्य नहीं स्वीकार पाते और इसके लिए दिल से समर्पण नहीं कर पाते। वे अपने अभ्यास में केवल विनियमों का पालन करते हैं और बड़ी दुष्टता करने से बचते हैं, और इसके साथ ही सोच लेते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। क्या उनके अभ्यास में भटकाव नहीं है? क्या सत्य का अभ्यास करना इतना सरल होता है? लोग जीवित प्राणी हैं और सबके अपने-अपने विचार होते हैं; खास कर सभी लोगों के दिलों में भ्रष्ट स्वभाव गहरी जड़ें जमाए हुए हैं, और उनके विभिन्न विचार और दृष्टिकोण होते हैं जो उनके शैतानी स्वभाव के प्रभुत्व से उत्पन्न हुए हैं। ये सारे विचार और दृष्टिकोण शैतानी स्वभाव का प्रकाशन हैं। अगर लोग परमेश्वर के वचनों के सत्य के आधार पर गहन-विश्लेषण कर इन्हें जान नहीं सकते तो उनके पास अपना भ्रष्ट सार जानने का कोई उपाय नहीं होता और उनके भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ नहीं किए जा सकते। सत्य को स्वीकार न करने वाले लोग इतने अहंकारी, आत्मतुष्ट और उद्दंड क्यों होते हैं? इसका कारण यह है कि तमाम चीजों को लेकर उनके अलग-अलग विचार और दृष्टिकोण होते हैं, और उन सबके पास मार्गदर्शन पाने के लिए कुछ विचार और सिद्धांत हैं, इसलिए वे खुद को सही मानते हैं, दूसरों को तुच्छ समझते हैं, और अहंकारी, आत्मतुष्ट और उद्दंड होते हैं। दूसरे लोग उनके साथ सत्य पर चाहे जैसे संगति कर लें, वे इसे स्वीकारने को तैयार नहीं होते—वे अपने ही विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जीते रहते हैं, क्योंकि वे पहले ही उनका जीवन बन चुके हैं। तथ्य यह है कि तुम जो कुछ भी करते हो, उसमें तुम्हारा एक विचार या दृष्टिकोण होता है जो यह नियंत्रित करता है कि तुम इसे कैसे और किस दिशा में करोगे। अगर तुम यह नहीं जानते तो तुम्हें बार-बार आत्म-चिंतन करना चाहिए, तब तुम जान लोगे कि तुम्हारे भीतर कौन-से विचार और दृष्टिकोण तुम्हारे कार्यों और कर्मों को नियंत्रित कर रहे हैं। बेशक अगर तुम्हें अभी अपने विचारों और दृष्टिकोणों की जाँच करनी पड़े तो तुम्हें लगेगा कि उनमें परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण कुछ भी नहीं है, कि तुम ईमानदार और वफादार हो, कि तुम स्वेच्छा से अपना कर्तव्य निभाते हो, कि तुम परमेश्वर के लिए चीजें त्याग सकते हो और खुद को खपा सकते हो। लगेगा कि तुम इन सब मामलों में अच्छा कर रहे हो। लेकिन जब परमेश्वर वास्तव में तुम्हारे प्रति गंभीर हो जाए, जब वह तुमसे कुछ ऐसा करवाए जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप न हो, कुछ ऐसा जिसे तुम करना न चाहो तो इस पर तुम कैसे पेश आओगे? तब तुम्हारे विचार, दृष्टिकोण और भ्रष्ट स्वभाव ठीक उसी तरह उजागर हो जाएँगे, जैसे खुले नाले से पानी बहता है—तुम उसे उतना नियंत्रित नहीं कर सकोगे जितना चाहते हो। यह तुम्हें सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से रोकेगा। तुम कहोगे, “मैं खुद को नियंत्रित क्यों नहीं रख पा रहा? मैं परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करना चाहता, तो मैं कर क्यों रहा हूँ? मैं परमेश्वर के बारे में फैसला नहीं सुनाना चाहता, और मैं उसके क्रियाकलापों के बारे में धारणाएँ नहीं रखना चाहता—तो मैं उसकी आलोचना क्यों कर रहा हूँ? मेरे मन में अभी भी ये धारणाएँ क्यों हैं?” इस समय तुम्हें आत्म-चिंतन कर खुद को जानना चाहिए, और यह जाँचना चाहिए कि तुम्हारे अंदर ऐसा क्या है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है, या शत्रुतापूर्ण है और वह वर्तमान में जो कर रहा है उस कार्य के विपरीत है। अगर तुम इन चीजों को समझ सकते हो और उन्हें परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुसार हल कर सकते हो, तो तुम्हारी जीवन प्रगति होगी, और तुम ऐसे इंसान होगे जो सत्य को समझता है।
चीन पर एक नास्तिक राजनैतिक दल का शासन है और चीनी लोग लोकप्रिय कहावतों में नास्तिकता और जैविक विकास की शिक्षा पाते हैं कि “सभी चीजें कुदरत से उत्पन्न होती हैं” और “मनुष्य वनमानुषों के वंशज हैं।” परमेश्वर पर विश्वास करने और उसके वचन पढ़ने के बाद तुम जानते हो कि स्वर्ग और धरती और सभी चीजें परमेश्वर ने बनाई हैं, इनमें मनुष्य भी शामिल हैं, और हर कोई मन ही मन मानने में सक्षम है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। सारी कुदरत ही परमेश्वर की रचना है, और अगर परमेश्वर ने न बनाया होता तो कुछ भी अस्तित्व में न आता। मनुष्य वनमानुषों का वंशज है, यह खास कर अमान्य है, क्योंकि समूचे मानव इतिहास में कभी किसी ने वनमानुष को मनुष्य बनते नहीं देखा। इसका कोई साक्ष्य नहीं है, और इस प्रकार यह सब कुछ शैतान के झूठ-फरेब हैं। जो सत्य को समझते हैं वे शैतान के दानवी शब्दों, पाखंडों और भ्रांतियों को खारिज करते हैं, और बाइबल और परमेश्वर के वचनों पर लेशमात्र भी संदेह किए बिना विश्वास करते हैं। लेकिन जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, उनके लिए पूरी तरह यह स्वीकार करना असंभव है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। कुछ लोग सोच सकते हैं, “मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया, पर कैसे? मैंने यह क्यों नहीं देखा है? मैं उस पर विश्वास नहीं करता जो मैंने देखा ही नहीं।” परमेश्वर पर उनका विश्वास अपनी आँखों देखी चीजों पर आधारित होता है। इसे आस्था रखना नहीं कहते। मनुष्य परमेश्वर से आया है, और परमेश्वर ने हमेशा मनुष्य के भाग्य पर संप्रभुता रखते हुए अब तक कदम दर कदम मनुष्य की अगुआई की है। यह एक तथ्य है। अंत के दिनों में परमेश्वर यह कहकर ये सारे रहस्य खोल चुका है कि मनुष्य का पुनःदेहधारण और देहांतरण होता है और मानव जीवन और आत्मा परमेश्वर के दिए हुए हैं और उसी से आते हैं। यही सत्य है। लेकिन तुम जब कभी सत्य के इस पहलू को देखते हो, तो परमेश्वर के इन वचनों को सत्य न मानने के कारण तुम इन्हें अपने ही विचारों और दृष्टिकोणों की कसौटी पर कसते हो : “चूँकि मनुष्य वनमानुषों से नहीं बल्कि परमेश्वर से आया है तो फिर वह परमेश्वर से कैसे आया? उसने मनुष्य को जीवन कैसे दिया?” अगर तुम परमेश्वर को नहीं जानते तो फिर तुम्हें यह बात नामुमकिन लगेगी कि मनुष्य को एक ही साँस या वचन से बनाने के लिए परमेश्वर के पास सामर्थ्य, बुद्धि और अधिकार है। तुम इसे तथ्य या सत्य नहीं मानते। जब तुम्हारे मन में शंकाएँ होती हैं तो तुम यह कहकर परमेश्वर के इन वचनों का विरोध करते हो कि तुम इन पर विश्वास नहीं करते, लेकिन वास्तव में तुम्हारा मन प्रतिरोध की दशा और रवैये में होता है। जब परमेश्वर ये वचन सुनाता है तो तुम सुनने को तैयार नहीं होते, अपने दिल में प्रतिकर्षण महसूस करते हो और परमेश्वर के वचनों के उत्तर में आमीन भी नहीं कह पाते। हकीकत में तथ्यों को देखें तो हमें यह जाँचने की जरूरत नहीं है कि परमेश्वर ने मनुष्य को कब और कैसे बनाया, इसे किसने देखा या क्या कोई इसकी गवाही दे सकता है। लोगों को इसका अध्ययन करने की कोई जरूरत नहीं है। जब लोग वास्तव में सत्य को समझ लेंगे और परमेश्वर के कर्मों को जान लेंगे तो वे खुद ही गवाही देने में सक्षम होंगे। इस समय उन्हें किस अहम मसले पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है? यह है, परमेश्वर का कार्य जानना। परमेश्वर शुरुआत से लेकर अंत तक मनुष्य के प्रबंधन और मानवजाति में मनुष्य को बचाने का अपना कार्य कर रहा है। शुरुआत से लेकर अंत तक एक ही परमेश्वर कार्य कर रहा है, बोल रहा है, मानवजाति को सिखा और राह दिखा रहा है। यह परमेश्वर अस्तित्व में है। परमेश्वर अब इतने अधिक वचन सुना चुका है, हम उसे पहले ही आमने-सामने देख चुके हैं, उसे बोलते हुए सुन चुके हैं, उसके कार्य का अनुभव कर चुके हैं और उसके वचन खा-पी चुके हैं और हमने उसके वचनों को आत्मसात कर अपना जीवन बना लिया है। और ये वचन लगातार हमारा मार्गदर्शन कर हमें बदल रहे हैं। यह परमेश्वर वास्तव में है। इसलिए जैसा कि परमेश्वर ने कहा है हमें ये तथ्य मानने चाहिए कि परमेश्वर ने मानवजाति को रचा है, और यह तथ्य कि परमेश्वर ने शुरुआत में आदम और हव्वा को बनाया। चूँकि तुम मानते हो कि यह परमेश्वर है और तुम अब उसके समक्ष आ चुके हो तो फिर क्या तुम्हें यह भी यह पुष्टि करने की जरूरत है कि यहोवा का किया कार्य इस परमेश्वर का कार्य है? अगर इसकी पुष्टि कोई न कर सके और कोई इसकी गवाही न दे तो क्या तुम इसे नहीं मानोगे? या अनुग्रह के युग के कार्य के संदर्भ में क्या तुम यह नहीं मानते कि यीशु देहधारी परमेश्वर था क्योंकि तुमने उसे कभी नहीं देखा? अगर तुमने वर्तमान परमेश्वर को बोलते हुए, कार्य करते हुए या देहधारी रूप में नहीं देखा है तो क्या तुम इस पर विश्वास नहीं करोगे? अगर तुमने ये चीजें नहीं देखीं या इनकी पुष्टि करने वाला कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं था तो क्या तुम इन सबको नहीं मानोगे? ऐसा लोगों के अंदर मौजूद बेतुके झूठे दृष्टिकोण के कारण होता है। यह गलती बहुत सारे लोग कर चुके हैं। उन्हें खुद हर चीज देखनी है, और अगर वे देख नहीं पाते तो इस पर विश्वास नहीं करते। यह गलत है। अगर कोई व्यक्ति सच में परमेश्वर को जानता है, तथ्य देखे बिना भी उसके वचनों पर विश्वास करने और उसके वचनों की पुष्टि करने में सक्षम है, केवल तभी वह सत्य को समझने वाला और सच्ची आस्था रखने वाला व्यक्ति होता है। अब जबकि हम परमेश्वर के इन वचनों को देख चुके हैं और उसकी वाणी सुन चुके हैं तो यह हमें सच्ची आस्था प्रदान करने के लिए काफी है और इसीलिए उसका अनुसरण करने और परमेश्वर से आने वाले हर वचन और हर कार्य पर विश्वास करने के लिए भी काफी है। हमें चीजों का विश्लेषण या अनुसंधान करते रहने की कोई जरूरत नहीं है। क्या लोगों में इसी तरह की सूझ-बूझ नहीं होनी चाहिए? जब परमेश्वर ने मानवजाति की रचना की तो इसका गवाह कोई नहीं था, लेकिन अब सत्य व्यक्त करने और मानवजाति को बचाने के लिए, व्यावहारिक रूप से अपना कार्य करने, और कलीसियाओं में चलने-फिरने और मानवजाति के साथ कार्य करने के लिए परमेश्वर देहधारी बन चुका है। क्या यह बहुत-से लोगों ने नहीं देखा है? इसे हर कोई देखने में सक्षम नहीं लेकिन तुम इस पर विश्वास करते हो। तुम इस पर विश्वास क्यों करते हो? तुम्हारे विश्वास करने का क्या सिर्फ यही कारण नहीं है कि तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और यह सच्चा मार्ग है और परमेश्वर का कार्य है? क्या तुम अब भी कह सकते हो, “परमेश्वर के कार्य के इस चरण में मैंने उसे बोलते सुना और मैंने उसके वचन भी देखे। यह सच है कि ये वचन परमेश्वर से आए हैं। लेकिन प्रभु यीशु के सूली चढ़ने के कार्य के संबंध में मैंने उसके कीलों के निशान नहीं छुए, इसलिए मैं इस तथ्य पर विश्वास नहीं करता कि उसे सूली पर चढ़ाया गया था। मैंने व्यवस्था के युग में यहोवा परमेश्वर के किए कार्य नहीं देखे, और जब उसने कानूनों की घोषणा की तो मैंने उन्हें नहीं सुना। केवल मूसा ने ही उन्हें सुना और मूसा के पाँच ग्रंथ लिखे, लेकिन मैं नहीं जानता कि उसने ये कैसे लिखे”? क्या ऐसी बातें कहने वाले लोगों की मानसिक दशा सामान्य होती है? वे छद्म-विश्वासी हैं और ऐसे लोग नहीं हैं, जिनका सच में परमेश्वर पर विश्वास है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा इस्राएलियों ने कहा, “क्या यहोवा ने केवल मूसा ही के साथ बातें की हैं? क्या उसने हम से भी बातें नहीं कीं?” (गिनती 12:2)। उनका मतलब यह था, “हम मूसा की बात नहीं सुनेंगे, हमें यह खुद यहोवा परमेश्वर से सुनना है।” ठीक उसी तरह जैसा अनुग्रह के युग के दौरान लोगों ने कहा था कि उन्होंने यीशु को सूली चढ़ते या मुर्दे से जी उठते खुद अपनी आँखों से नहीं देखा, इसलिए उन्होंने इसे माना ही नहीं। थोमा नाम के एक शिष्य ने यीशु के कीलों के निशान छूने पर जोर दिया। और प्रभु यीशु ने उससे क्या कहा? (“तू ने मुझे देखा है, क्या इसलिये विश्वास किया है? धन्य वे हैं जिन्होंने बिना देखे विश्वास किया” (यूहन्ना 20:29)।) “धन्य वे हैं जिन्होंने बिना देखे विश्वास किया।” वास्तव में इसका अर्थ क्या है? क्या उन्होंने सचमुच कुछ नहीं देखा? असल में यीशु की सारी बातें और सारे कार्य पहले ही यह साबित कर चुके थे कि यीशु परमेश्वर है, इसलिए लोगों को इस पर विश्वास कर लेना चाहिए था। यीशु को और ज्यादा संकेत और चमत्कार दिखाने या और ज्यादा वचन सुनाने की जरूरत नहीं थी, और लोगों को विश्वास करने के लिए उसके कीलों के निशान छूने की जरूरत नहीं थी। सच्ची आस्था सिर्फ देखने पर निर्भर नहीं करती, बल्कि आध्यात्मिक पुष्टि होने पर विश्वास अंत तक बना रहता है और इस पर कभी कोई संदेह नहीं होता। थोमा छद्म-विश्वासी था जो केवल देखने पर भरोसा करता था। थोमा जैसे मत बनो।
थोमा जैसे लोगों का एक हिस्सा वास्तव में अभी भी कलीसिया में है। वे परमेश्वर के देहधारण पर निरंतर संदेह कर रहे हैं, और वे परमेश्वर के धरती छोड़कर चले जाने, तीसरे स्वर्ग में लौटने और अंततः विश्वास करने के लिए परमेश्वर का असली व्यक्तित्व देखने का इंतजार करते हैं। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर का देह में सत्य व्यक्त करना ही उसका प्रकट होना और कार्य करना है। जब तक इस किस्म का व्यक्ति वास्तव में परमेश्वर के आध्यात्मिक शरीर को देखेगा, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और इस दौरान परमेश्वर उनकी निंदा करेगा। प्रभु यीशु ने कहा था : “तू ने मुझे देखा है, क्या इसलिये विश्वास किया है? धन्य वे हैं जिन्होंने बिना देखे विश्वास किया।” इन वचनों का यही अर्थ है कि प्रभु यीशु पहले ही उसकी निंदा कर चुका है और वह छद्म-विश्वासी है। अगर तुम वास्तव में प्रभु पर और उसने जो कुछ भी कहा, उस पर विश्वास करते हो तो तुम धन्य होगे। अगर तुम लंबे अरसे से प्रभु का अनुसरण कर रहे हो लेकिन उसकी पुनरुत्थान की क्षमता या उसके सर्वशक्तिमान परमेश्वर होने पर विश्वास नहीं करते तो फिर तुममें सच्ची आस्था नहीं है और तुम उसका आशीष नहीं ले पाओगे। सिर्फ आस्था से ही आशीष मिलता है, और अगर तुम विश्वास नहीं करते तो तुम इसे हासिल नहीं कर सकते। क्या तुम किसी चीज पर केवल तभी विश्वास करने में सक्षम हो जब व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर तुम्हारे सामने उपस्थित हो, खुद को देखने दे और तुम्हें यकीन दिलाए? मनुष्य के रूप में तुम इस योग्य कैसे हो कि परमेश्वर से व्यक्तिगत रूप से प्रकटन के लिए कह सको? तुम इस योग्य कैसे हो कि परमेश्वर को अपने जैसे किसी भ्रष्ट मनुष्य से बात करने के लिए कह सको? यही नहीं, तुम इतने योग्य कैसे बन गए कि पहले उसे हर चीज तुम्हें साफ-साफ समझानी पड़े और फिर तुम विश्वास करोगे? अगर तुम्हारे पास सूझ-बूझ है तो परमेश्वर के कहे ये वचन पढ़कर ही विश्वास कर लोगे। अगर तुम वास्तव में विश्वास करते हो तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह क्या करता है और क्या कहता है। बल्कि यह देखकर कि ये वचन सत्य हैं, तुम सौ फीसदी कायल हो जाओगे कि ये परमेश्वर के सुनाए हुए वचन हैं और उसने ये चीजें कीं, और तुम अंत तक उसका अनुसरण करने के लिए पहले ही तैयार हो जाओगे। तुम्हें इस पर संदेह करने की जरूरत नहीं है। संदेह से भरे हुए लोग बहुत ही धोखेबाज होते हैं। वे परमेश्वर पर विश्वास कर ही नहीं सकते। वे हमेशा उन रहस्यों को समझने में लगे रहते हैं और इन्हें पूरी तरह समझने के बाद ही विश्वास करेंगे। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए उनकी पूर्व शर्त यह होती है कि इन प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर मिल जाए : देहधारी परमेश्वर कैसे आया? वह कब आया? जाने से पहले वह कितनी देर रुकेगा? यहाँ से छोड़कर वह कहाँ जाएगा? उसके जाने की प्रक्रिया क्या है? देहधारी परमेश्वर कैसे कार्य करता है, और कैसे जाता है? ... वे कुछ रहस्य समझना चाहते हैं; वे इनकी जाँच करना चाहते हैं, न कि सत्य खोजना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि इन रहस्यों की थाह लिए बिना वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं कर पाएँगे; मानो उनके विश्वास में बाधा पड़ गई हो। इन लोगों का इस दृष्टिकोण को अपनाना समस्याजनक है। रहस्यों का अनुसंधान करने की इच्छा होते ही वे सत्य पर ध्यान देने या परमेश्वर के वचन सुनने की परवाह नहीं करते। क्या ऐसे लोग खुद को जान सकते हैं? उन्हें आत्म-ज्ञान आसानी से नहीं मिल जाता। इसका मतलब एक खास किस्म के इंसान की निंदा करना नहीं है। अगर कोई सत्य नहीं स्वीकारता और परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं करता तो फिर उसमें सच्ची आस्था नहीं है। वे बस कुछ वचनों, रहस्यों, तुच्छ चीजों या ऐसी समस्याओं की बाल की खाल निकालने पर ध्यान केंद्रित करेंगे जिन पर लोगों का ध्यान भी नहीं जाता। लेकिन यह भी संभव है कि एक दिन परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करे, या उनके भाई-बहन सत्य पर नियमित संगति कर उनकी मदद करें और वे बदल जाएँ। जिस दिन ऐसा होगा, उन्हें लगेगा कि उनके पुराने विचार बेहद बेतुके थे, वे बहुत अहंकारी थे और खुद को बहुत ऊँचा आँकते थे, और इससे वे शर्मसार होंगे। सच्ची आस्था वाले लोग परमेश्वर की कही किसी भी बात पर संदेह किए बिना भरोसा करेंगे, और जब उन्हें कुछ अनुभव होगा और वे परमेश्वर के वचनों को पूर्ण और साकार होते देखेंगे तो उनकी आस्था और भी मजबूत हो जाएगी। इस प्रकार के व्यक्ति में आध्यात्मिक समझ होती है, जो सत्य पर विश्वास कर इसे स्वीकार सकता है और जो सचमुच आस्थावान है।
बसंत ऋतु 2008
A portion of the Bible verses in this audio are from Hindi OV and the copyright to the Bible verses from Hindi OV belongs to the Bible Society of India. With due legal permission, they are used in this production.
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।