अपने गलत विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है (भाग एक)
क्या तुम लोगों के पास अब खुद को जानने, जीवन प्रवेश करने और परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने का तरीका है? क्या तुम्हारे पास कोई लक्ष्य या दिशा है? तुम्हारे पास कुछ विचार होने चाहिए क्योंकि हम कुछ ऐसे विषयों पर काफी संगति कर चुके हैं, जैसे ईमानदार व्यक्ति होना, खुद को जानना, परमेश्वर के वचन कैसे खाएँ-पिएँ, समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति कैसे करें, अपना कर्तव्य निभाते हुए किस प्रकार मिल-जुलकर सहयोग करें, भाई-बहन आपस में सामान्य संबंध कैसे कायम करें, वगैरह। अब जबकि तुम लोग परमेश्वर में आस्था से जुड़े सत्य के सभी पहलुओं पर अधिक स्पष्ट समझ पा चुके हो, कुछ व्यावहारिक ज्ञान ले चुके हो और अब पहले जैसे भी नहीं रहे कि तुम लोगों से किसी पहलू के बारे में पूछ लिया तो कोई स्पष्टता नहीं होती थी—तो क्या तुम अब कहीं बेहतर महसूस नहीं करते? (अब मैं ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट महसूस करती हूँ।) “ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट” सही है। हकीकत में चाहे कोई सत्य के किसी भी पहलू का अभ्यास करे, चाहे ईमानदार व्यक्ति बनना हो या खुद को परमेश्वर के प्रति समर्पित करने का अभ्यास हो, या अपने भाई-बहनों के साथ दोस्ताना ढंग से पेश आने, सामान्य मानवता को जीने या ऐसे ही कुछ प्रश्न हों, तुम चाहे सत्य के किसी भी पहलू में प्रवेश करने का प्रयास कर रहे हो, तुम्हें आत्म-ज्ञान के मुद्दे पर विचार कर शुरुआत करनी चाहिए। क्या ईमानदार होने का संबंध खुद को जानने से नहीं है? जब तक तुम अपने धोखेबाजी और बेईमानी को नहीं जान लेते तब तक ईमानदारी का अभ्यास भी नहीं कर पाओगे। जब यह जान लोगे कि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में विफल रहे हो, तभी उसके प्रति समर्पण का अभ्यास कर सकोगे, या यह खोज पाओगे कि उसके प्रति समर्पण करने के लिए क्या करना चाहिए। अगर तुम खुद को नहीं जानते तो फिर तुम्हारी ईमानदार इंसान बनने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने या उद्धार पाने की इच्छाएँ खोखली हैं। इसका कारण यह है कि लोग भ्रष्ट स्वभाव के होते हैं और सत्य के किसी भी पहलू का अभ्यास करना उनके लिए आसान नहीं होता, क्योंकि उनके भ्रष्ट स्वभाव इस अभ्यास को हमेशा कलंकित और बाधित करते रहते हैं। जब तुम सत्य के किसी भी पहलू का अभ्यास करोगे तो यकीनन तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा होगा और वे ईमानदार बनने के तुम्हारे प्रयासों को रोकेंगे, परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण में बाधा डालेंगे और तुम्हें अपने भाई-बहनों के प्रति धैर्य और सहनशीलता बरतने से रोकेंगे। अगर तुम इन भ्रष्ट स्वभावों पर चिंतन न करो, इन्हें खोदकर इनका गहन-विश्लेषण न करो, या इन्हें न पहचानो और इसके बजाय सत्य का अभ्यास करने के लिए अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर निर्भर रहते हो तो फिर तुम बस नियमों का अनुपालन कर रहे होगे, क्योंकि तुम सत्य को नहीं समझते और यह भी नहीं जानते कि किन सत्य सिद्धांतों का पालन करना है। इसलिए कोई व्यक्ति सत्य के चाहे जिस पहलू का अभ्यास कर रहा हो, या जो भी कुछ कर रहा हो, उसे सबसे पहले आत्म-चिंतन कर खुद को जानना चाहिए। खुद को जानने का मतलब है अपने हर वचन और कर्म को जानना, और हर कार्यकलाप को जानना; अपने विचारों और ख्यालों को जानना, अपने इरादों, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को जानना। तुम्हें शैतान के सांसारिक आचरण के फलसफे भी जानने चाहिए, उसके विभिन्न विष भी जानने चाहिए तो परंपरागत सांस्कृतिक ज्ञान भी जानना चाहिए। तुम्हें सत्य खोजकर इन चीजों का स्पष्ट रूप से भेद पहचानना चाहिए। इस तरीके से तुम सत्य को समझ लोगे और खुद को सच्चे ढंग से जान लोगे। भले ही कोई व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास शुरू करने के बाद से बड़ी संख्या में अच्छे व्यवहार में संलग्न रहा होगा, फिर भी वे कई चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते हैं, सत्य की समझ पा लेना तो दूर की बात है। फिर भी अपने बहुत-से अच्छे व्यवहारों के कारण उन्हें लगता है कि वे पहले से ही सत्य का अभ्यास कर रहे हैं, पहले ही परमेश्वर के प्रति समर्पण कर चुके हैं और पहले ही उसके इरादों को काफी पूरा कर चुके हैं। जब तुम्हारे सिर पर कोई संकट नहीं आता, तो तुमसे जो कुछ कहा जाता है तुम वह सब कर लेते हो, किसी कर्तव्य के निभाने को लेकर तुम्हारे मन में कोई पछतावा नहीं होता, और तुम प्रतिरोध नहीं करते हो। जब तुमसे सुसमाचार प्रचार करने के लिए कहा जाता है तो तुम शिकायत नहीं करते और इस कठिनाई को झेल सकते हो, और जब तुमसे दौड़-भाग करके कार्य करने या कोई काम पूरा करने को कहा जाता है तो तुम वैसा करते हो। इस वजह से तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हो और ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करते हो। फिर भी अगर तुमसे गंभीरता से पूछा जाए, “क्या तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है? ऐसे व्यक्ति हो जिसका स्वभाव बदल चुका है?”—अगर हर व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों के सत्य की कसौटी पर तौला जाए—तो कहा जा सकता है कि मानक के अनुरूप कोई नहीं है, और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने में कोई सक्षम नहीं है। इसलिए सारी भ्रष्ट मानवजाति को आत्म-चिंतन करना चाहिए। मनुष्यों को उन स्वभावों पर चिंतन करना चाहिए जिनके अनुसार वे जीते हैं, उन शैतानी फलसफों, तर्क, पाखंडों और भ्रांतियों पर चिंतन करना चाहिए जो उनकी सारी कथनी-करनी का स्रोत हैं। उन्हें इसके मूल कारण पर चिंतन करना चाहिए कि वे अपना भ्रष्ट स्वभाव क्यों प्रकट करते हैं, उनके मनमाने ढंग से कार्य करने का सार क्या है, और वे किस लिए और किसके लिए जीते हैं। अगर इसे सत्य की कसौटी पर कसा जाए तो फिर सभी लोगों को निंदा झेलनी पड़ेगी। इसका कारण क्या है? इसका कारण यही है कि मानवजाति बहुत भ्रष्ट है। लोग सत्य को नहीं समझते, और वे सब के सब अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं। उन्हें रत्तीभर भी आत्म-ज्ञान नहीं है, वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, अपनी प्राथमिकताओं और तौर-तरीकों के आधार पर कर्तव्य निभाते हैं, और परमेश्वर की सेवा करने के तरीके में धार्मिक सिद्धांतों का अनुकरण करते हैं। इतना ही नहीं, वे अभी भी मानते हैं कि वे आस्था से ओतप्रोत हैं, कि उनके कार्य बहुत ही उचित हैं, और अंत में उन्हें लगता है कि वे बहुत कुछ हासिल कर चुके हैं। इसका एहसास किए बिना ही वे सोचने लगते हैं कि वे पहले ही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कार्य कर रहे हैं और इन्हें बखूबी पूरे कर चुके हैं, कि वे पहले ही परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर चुके हैं और उसकी इच्छा के अनुसार चल रहे हैं। अगर तुम्हें ऐसा लगता है या अगर तुम सोचते हो कि परमेश्वर पर कई वर्षों के विश्वास के दौरान तुम कुछ लाभ हासिल कर चुके हो, तो फिर तुम्हें ध्यानपूर्वक अपना परीक्षण करने के लिए परमेश्वर के सामने और भी ज्यादा आना चाहिए। अपनी आस्था के इन वर्षों के दौरान तुम जिस मार्ग पर चले हो, तुम्हें उसे अच्छी तरह देखना चाहिए कि क्या परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे सारे कार्यकलाप और कर्म पूरी तरह उसके इरादों के अनुरूप रहे हैं या नहीं। यह परीक्षण करो कि तुम्हारे कौन-से बर्ताव परमेश्वर विरोधी थे, कौन-से उसके प्रति समर्पण वाले थे, और क्या तुम्हारे क्रियाकलाप परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे उतरे हैं और उन्हें संतुष्ट कर चुके हैं। तुम्हें ये सारी चीजें स्पष्ट करनी चाहिए, क्योंकि केवल तभी तुम आत्म-जागरुक होगे।
आत्म-चिंतन और स्वयं को जानने की कुंजी है : जितना अधिक तुम महसूस करते हो कि तुमने किसी निश्चित क्षेत्र में अच्छा किया है या सही चीज को कर लिया है, और जितना अधिक तुम सोचते हो कि तुम परमेश्वर के इरादों को पूरा कर सकते हो या तुम कुछ क्षेत्रों में शेखी बघारने में सक्षम हो, तो उतना ही अधिक उन क्षेत्रों में अपने आप को जानना उचित है, और यह देखने के लिए कि तुम में कौन-सी अशुद्धियाँ हैं और साथ ही तुममें कौन-सी चीजें परमेश्वर के इरादों को पूरा नहीं कर सकती हैं उतना ही अधिक उनमें खोजबीन करना उचित है। आओ, पौलुस का उदाहरण लें। पौलुस अत्यंत जानकार था, प्रचार और काम के दौरान उसने बहुत कष्ट उठाए और बहुत सारे लोग उसका विशेष रूप से सम्मान करते थे। नतीजतन, बहुत सारा काम पूरा करने के बाद, उसने मान लिया कि उसके लिए एक अलग मुकुट रखा होगा। इससे वह गलत राह पर बढ़ते-बढ़ते बहुत दूर चला गया, और अंत में उसे परमेश्वर ने दंडित किया। अगर उसने उस समय आत्म-चिंतन और आत्म-विश्लेषण किया होता, तो उसने ऐसा नहीं सोचा होता। दूसरे शब्दों में, पौलुस ने प्रभु यीशु के वचनों में सत्य की खोज करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया; उसने केवल अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर विश्वास किया। उसने सोच लिया था कि सिर्फ कुछ अच्छे काम करके और कुछ अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करके वह परमेश्वर से स्वीकृति और पुरस्कार पा लेगा। अंत में, उसकी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं ने उसके हृदय को अंधा बना दिया और उसकी भ्रष्टता की सच्चाई को ढँक दिया। पर लोग इसे भाँप नहीं सके, और उन्हें इन मामलों का कुछ भी पता नहीं था, इसलिए परमेश्वर द्वारा इसे उजागर किए जाने तक, वे पौलुस को अपने लक्ष्य का मानक और जीने के लिए उदाहरण मानते रहे, और उसे एक आदर्श और एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखते रहे जैसा बनने की वे खुद भी कामना और कोशिश करते थे। पौलुस का मामला परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हरेक के लिए एक चेतावनी है। खासकर जब परमेश्वर का अनुसरण करने वाले हम लोग अपने कर्तव्यों में और परमेश्वर की सेवा करते हुए कष्ट उठा सकते हैं और मूल्य चुका सकते हैं, हमें लगता है कि हम परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं और उससे प्रेम करते हैं, ऐसी घड़ी में हमें आत्म-चिंतन करना चाहिए और खासकर अपने चुने हुए रास्ते के संबंध में खुद को समझना चाहिए, जो कि बहुत जरूरी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम जिसे अच्छा समझते हो उसी को तुम सही मानोगे, और तुम इस पर संदेह नहीं करोगे, इस पर चिंतन-मनन नहीं करोगे, और यह विश्लेषण नहीं करोगे कि क्या इसमें कुछ ऐसा है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। उदाहरण के लिए, कुछ ऐसे लोग हैं जो खुद को बेहद दयालु मानते हैं। वे कभी दूसरों से नफरत या उनका नुकसान नहीं करते, और वे हमेशा ऐसे भाई या बहन की मदद करते हैं जिनका परिवार जरूरतमंद होता है, कि कहीं ऐसा न हो कि उनकी समस्या अनसुलझी रह जाए; उनके पास बहुत सद्भावना है, और वे हर किसी की मदद करने की भरसक कोशिश करते हैं। फिर भी वे कभी सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और उनका कोई जीवन-प्रवेश नहीं होता। ऐसी मदद का परिणाम क्या है? उन्होंने अपने जीवन को रोक रखा है, फिर भी वे खुद से काफी प्रसन्न हैं, और उस सबसे बेहद संतुष्ट हैं जो उन्होंने किया है। इतना ही नहीं, वे इसमें बहुत गर्व का अनुभव करते हैं, यह विश्वास करते हुए कि उन्होंने जो कुछ भी किया है, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो सत्य के विरुद्ध हो, और यह निश्चित रूप से परमेश्वर के इरादों को पूरा करेगा, और वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हैं। वे अपनी स्वाभाविक दयालुता को ऐसी वस्तु के रूप में देखते हैं, जिसका लाभ उठाया जा सकता है, और जैसे ही वे ऐसा करते हैं, वे इसे सत्य मानकर चलते हैं। वास्तव में, वे जो कुछ भी करते हैं, वह मानवीय भलाई है। वे सत्य का जरा भी अभ्यास नहीं करते, क्योंकि वे यह मनुष्य के सामने करते हैं, परमेश्वर के सामने नहीं, और वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य के अनुसार अभ्यास तो बिल्कुल भी नहीं करते। इसलिए, उनका सब किया-धरा व्यर्थ हो जाता है। उनका कोई भी कार्य सत्य या परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं है, वे उसकी इच्छा का पालन तो बिल्कुल भी नहीं है; बल्कि वे मानवीय दया और अच्छे व्यवहार का उपयोग दूसरों की मदद करने के लिए करते हैं। संक्षेप में, वे अपने कार्यों में परमेश्वर के इरादे नहीं खोजते, न ही वे उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करते हैं। परमेश्वर मनुष्य के ऐसे अच्छे व्यवहार को स्वीकृति नहीं देता; परमेश्वर के लिए यह निंदनीय है, और परमेश्वर द्वारा स्मरण किए जाने योग्य नहीं है।
खुद को जानना हरेक व्यक्ति के लिए बहुत अहम है क्योंकि इसका सीधा असर इस महत्वपूर्ण मसले पर पड़ता है कि क्या कोई अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़कर उद्धार प्राप्त कर सकता है या नहीं। इसे आसान मसला मत समझो। खुद को जानने का मतलब अपने क्रियाकलापों या अभ्यासों को जानना नहीं, बल्कि अपनी समस्या का सार जानना है; अपने विद्रोहीपन के मूल और इसके सार को जानना है, यह जानना है कि तुम सत्य का अभ्यास क्यों नहीं कर पाते, और उन चीजों को समझना है जो सत्य का अभ्यास करते समय उत्पन्न होकर तुम्हें परेशान करती हैं। खुद को जानने के ये कुछ सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू हैं। उदाहरण के लिए, चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोगों की परंपरागत धारणाओं में यह माना जाता है कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो भी संतानोचित निष्ठा का पालन नहीं करता, वह कपूत होता है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, “संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और समाज मेरी निंदा करेगा। मैं ऐसा व्यक्ति बन जाता, जिसमें जमीर नहीं है।” क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त इतने अधिक सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, यदि वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास सही मार्ग है और यह उनका उद्धार कर सकता है, फिर भी ग्रहणशील नहीं होते, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे सत्य से विमुख रहने वाले और नफरत करने वाले लोग हैं और वे परमेश्वर का विरोध और उससे नफरत करते हैं—और स्वाभाविक तौर पर परमेश्वर उनसे अत्यंत घृणा और नफरत करता है। क्या तुम ऐसे माता-पिता से अत्यंत घृणा कर सकते हो? वे परमेश्वर का विरोध करते और उसे बुरा-भला कहते हैं—ऐसे में वे निश्चित रूप से दानव और शैतान हैं। क्या तुम उनसे नफरत कर उन्हें धिक्कार सकते हो? ये सब वास्तविक प्रश्न हैं। यदि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकें, तो तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? जैसा परमेश्वर की माँग है, परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो। अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा था : “कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?” “क्योंकि जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहिन और मेरी माँ है।” ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : “परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।” ये वचन बिल्कुल सीधे हैं, फिर भी लोग अक्सर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते। अगर कोई व्यक्ति ऐसा है जो परमेश्वर को नकारता और उसका विरोध करता है, जो परमेश्वर द्वारा शापित है, लेकिन वह तुम्हारा माँ-बाप या कोई संबंधी है, और जहाँ तक तुम जानते हो वह कोई बुरा व्यक्ति प्रतीत नहीं होता है और वह तुम्हारे साथ ठीक से व्यवहार करता है तो फिर हो सकता है तुम उस व्यक्ति से घृणा करने में खुद को असमर्थ पाओ, यहाँ तक कि तुम उसके निकट संपर्क में बने रहो और तुम्हारा संबंध अपरिवर्तित रहे। यह सुनना कि परमेश्वर ऐसे लोगों से नफरत करता है, तुम्हें परेशान करेगा, और तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो पाओगे और उन लोगों को निर्ममता से नकार नहीं पाओगे। तुम हमेशा भावनाओं से बेबस रहते हो, और तुम उन्हें पूरी तरह छोड़ नहीं सकते। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम्हारी भावनाएँ बहुत तीव्र हैं और ये तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं। वह व्यक्ति तुम्हारे लिए अच्छा है, इसलिए तुम उससे नफरत नहीं कर पाते। तुम उससे तभी नफरत कर पाते हो, जब उसने तुम्हें चोट पहुँचाई हो। क्या यह नफरत सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगी? साथ ही, तुम परंपरागत धारणाओं से भी बँधे हो, तुम सोचते हो कि वे माता-पिता या रिश्तेदार हैं, इसलिए अगर तुम उनसे नफरत करोगे, तो समाज तुम्हारा तिरस्कार करेगा और जनमत तुम्हें धिक्कारेगा, कपूत, अंतरात्मा से विहीन, यहाँ तक कि अमानुष कहकर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसके लिए दैवीय निंदा और दंड भुगतना होगा। भले ही तुम उनसे नफरत करना चाहो, लेकिन तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें ऐसा नहीं करने देगी। तुम्हारी अंतरात्मा इस तरह काम क्यों करती है? इसका कारण यह है कि अपनी पारिवारिक विरासत, माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा और परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन से तुम्हारे मन में बचपन से ही सोचने का एक ढर्रा बैठा दिया गया है। सोचने का यह ढर्रा तुम्हारे मन में बहुत गहरे पैठा हुआ है, और इसके कारण तुम गलती से यह विश्वास करते हो कि संतानोचित निष्ठा पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है, और अपने पुरखों से विरासत में मिली हर चीज हमेशा अच्छी होती है। पहले तुमने इसे सीखा और फिर यह तुम पर हावी हो जाता है, तुम्हारी आस्था में और सत्य स्वीकारने में आड़े आकर व्यवधान डालता है, और तुम्हें इस लायक नहीं छोड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में ला सको, तुम उससे प्रेम कर सको जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा कर सको जिससे परमेश्वर घृणा करता है। वास्तव में तुम दिल से जानते हो कि तुम्हें अपना जीवन परमेश्वर से मिला, अपने माता-पिता से नहीं और तुम यह भी जानते हो कि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर पर विश्वास करना तो दूर उसका विरोध भी करते हैं, कि परमेश्वर उनसे घृणा करता है और तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर उसका साथ देना चाहिए, लेकिन तुम चाहो भी तो उनसे घृणा नहीं कर पाते। तुम इस कठिन स्थिति से पार नहीं पा सकते, तुम अपने हृदय को दृढ़ नहीं कर पाते और तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते। इसके मूल में क्या है? शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, जिससे तुम परमेश्वर के वचन स्वीकार करने में असमर्थ हो जाते हो; तुम पूरी तरह शैतान की इन चीजों के काबू में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने में असमर्थ हो गए हो। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में खलल पैदा करती हैं, तुम्हें सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करने को प्रेरित करती हैं और तुम्हें तुम अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंकने के लिए शक्तिहीन बना देती हैं। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने के बारे में कुछ नहीं सोचते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं चीजों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के दोषारोपण झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। मुझे बताओ, क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उसे परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है? कुछ लोगों ने बरसों से परमेश्वर पर विश्वास किया है, फिर भी उनके पास संतानोचित निष्ठा के मामले में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है। वे वास्तव में सत्य को नहीं समझते। वे कभी भी सांसारिक संबंधों की बाधा नहीं तोड़ सकते; उनमें न साहस होता है न ही आस्था, संकल्प होना तो दूरी की बात है, इसलिए वे परमेश्वर से प्रेम नहीं कर सकते, उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते। कुछ लोग इससे परे तो देख सकते हैं लेकिन उनके लिए भी यह कहना आसान नहीं है, “मेरे माता-पिता परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं और वे मुझे भी विश्वास करने से रोकते हैं। वे दानव हैं।” एक भी अविश्वासी को यह विश्वास नहीं होता कि परमेश्वर का अस्तित्व है, या उसने स्वर्ग और धरती और सभी चीजें बनाई हैं, या मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं, “मनुष्य को जीवन उसके माता-पिता ने दिया है और उसे उनका सम्मान करना चाहिए।” ऐसा विचार या दृष्टिकोण कहाँ से आता है? क्या यह शैतान से आता है? यह हजारों साल की परंपरागत संस्कृति है जिसने मनुष्य को इस तरह सिखाकर गुमराह किया है और उसे परमेश्वर की सृष्टि और संप्रभुता को ठुकराने को प्रेरित किया है। शैतान गुमराह और नियंत्रित न करे तो मानवजाति परमेश्वर के कार्यों की जाँच करेगी और उसके वचन पढ़ेगी, वह जान लेगी कि उसे परमेश्वर ने बनाया है, उसे परमेश्वर ने जीवन दिया है; वे जान लेंगे कि उनके पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर ने दिया है, और यह परमेश्वर ही है जिसका उन्हें आभार मानना चाहिए। अगर कोई हमारा भला करता है, तो हमें उसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए—खासकर हमारे माता-पिता जिन्होंने हमें जन्म दिया और पाला-पोसा; यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर की सब पर संप्रभुता है; मनुष्य सिर्फ सेवा का जरिया है। अगर कोई खुद को परमेश्वर के लिए खपाने के लिए अपने माता-पिता या अपने पति (या पत्नी) और बच्चों को अपने से दूर कर सके तो फिर वह व्यक्ति और मजबूत हो जाएगा और परमेश्वर के सामने उसमें न्याय की अधिक समझ होगी। लेकिन लोगों के लिए राष्ट्रीय शिक्षा-दीक्षा और परंपरागत सांस्कृतिक विचारों, धारणाओं और नैतिक कथनों के बंधन तोड़ना आसान नहीं होता, क्योंकि ये शैतानी जहर और फलसफे अरसे से उनके दिलों में जड़ें जमाए हुए हैं, और उनमें तमाम तरह के भ्रष्ट स्वभाव उत्पन्न कर रहे हैं जो उन्हें परमेश्वर के वचन सुनने और उसके प्रति समर्पण करने से रोकते हैं। भ्रष्ट मनुष्य के दिल की गहराइयों में सत्य को अभ्यास में लाने और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलने की बुनियादी इच्छा का अभाव होता है। इसलिए लोग परमेश्वर से विद्रोह कर उसका प्रतिरोध करते हैं; वे कभी भी उससे विश्वासघात कर उसे छोड़ सकते हैं। अगर किसी के अंदर भ्रष्ट स्वभाव और शैतानी जहर व फलसफे हों तो क्या वह सत्य स्वीकार कर सकता है? क्या कोई परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकता है? यह वास्तव में बहुत कठिन है। अगर स्वयं परमेश्वर ने न्याय का कार्य न किया होता तो फिर अत्यंत भ्रष्ट मानवजाति उद्धार प्राप्त न कर पाती और इसके शैतानी स्वभाव शुद्ध नहीं हो पाते। भले ही लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करने को तैयार हैं, लेकिन वे परमेश्वर को सुन और उसके प्रति समर्पण नहीं कर सकते क्योंकि सत्य स्वीकारने के लिए बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है। इसलिए सत्य के अनुसरण की शुरुआत अवश्य ही पहले खुद को जानने और अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के प्रयास से होनी चाहिए। केवल तब जाकर सत्य स्वीकारना आसान रहेगा। खुद को जानना किसी भी सूरत में सरल काम नहीं है; जो सत्य को स्वीकारते हैं केवल वही लोग खुद को जान सकते हैं। इसीलिए खुद को जानना इतना महत्वपूर्ण है और तुम लोगों को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए।
लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, इसलिए उनके लिए सत्य स्वीकारना बहुत कठिन होता है और इससे भी कठिन खुद को जानना होता है। अगर वे उद्धार पाना चाहते हैं तो उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों और अपने प्रकृति सार को जानना होगा। केवल तभी वे सचमुच सत्य को स्वीकार कर इस पर अमल कर पाएँगे। परमेश्वर पर विश्वास करने वाले ज्यादातर लोग केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं और सोचते हैं कि वे सत्य को समझते हैं। यह भारी भूल है क्योंकि खुद को न जानने वाले लोग सत्य को नहीं समझते। इसलिए परमेश्वर पर विश्वास के दौरान सत्य को समझने और उसे प्राप्त करने के लिए लोगों को खुद को जानने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। हम चाहे जब भी कहीं हों और चाहे जिस माहौल में हों, अगर हम खुद को जान सकते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभावों को खोदकर उनका गहन-विश्लेषण कर सकते हैं, खुद को जानने को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बना सकते हैं, तो फिर हम यकीनन कुछ हासिल कर सकते हैं और धीरे-धीरे अपने बारे में अपना ज्ञान गहरा कर सकते हैं। उसी समय हम सत्य का अभ्यास करेंगे, परमेश्वर से प्रेम और उसके प्रति समर्पण करने का अभ्यास करेंगे और सत्य को अधिक से अधिक समझेंगे। सत्य तब स्वाभाविक रूप से हमारा जीवन बन जाएगा। लेकिन अगर तुम खुद को जानने में बिल्कुल भी प्रवेश नहीं करते तो तुम्हारा यह कहना झूठ है कि तुम सत्य का अभ्यास करते हो, क्योंकि तुम तमाम तरह की सतही परिघटनाओं से अंधे हो चुके हो। तुम्हें लगता है कि तुम्हारा व्यवहार सुधर चुका है, तुम्हारे अंदर अधिक अंतरात्मा और विवेक हैं, तुम अधिक सौम्य हो चुके हो, तुम दूसरों का अधिक लिहाज रखते हो और उनके प्रति अधिक सहनशील हो, लोगों के प्रति अधिक धैर्यवान और क्षमाशील हो चुके हो और इसके फलस्वरूप तुम सोचते हो कि तुम पहले ही सामान्य मानवता जी रहे हो और एक अच्छे और पूर्ण व्यक्ति बन चुके हो। लेकिन परमेश्वर की नजरों में तुम उसके अपेक्षित मानकों पर दूर-दूर तक खरे नहीं उतरते, और तुम सचमुच उसके प्रति समर्पण और आराधना करने से कोसों दूर हो। यह दर्शाता है कि तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तुम में लेशमात्र भी वास्तविकता नहीं है, और उद्धार के मानक पूरे करने से अभी भी दूर हो। लोगों को जानना चाहिए कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए उन्हें कौन-से सत्य से सुसज्जित होने की जरूरत है। लोग अभी भी बाहरी सद्व्यवहार और सत्य के अभ्यास के बीच फर्क नहीं कर पाते हैं। अभी लोगों के पास जो कुछ है, वह सिर्फ बाहरी व्यवहार में थोड़ा-सा बदलाव भर है। आजकल अधिकतर लोग अक्सर धर्मोपदेश सुनने के लिए सभाओं में शामिल होते हैं और अपने भाई-बहनों के साथ सामान्य रूप से मेलजोल और संवाद कर सकते हैं। वे झगड़ते नहीं हैं, वे एक-दूसरे के प्रति सहनशील और धैर्यवान रहने में सक्षम होते हैं और वे अपना कर्तव्य निभाने में पहले से अधिक लगनशील होते हैं। हालाँकि उनकी सत्य की समझ बहुत ही उथली होती है, कई मामलों को लेकर उनके विचार और दृष्टिकोण अभी भी सत्य से दूर होते हैं या सत्य के विरुद्ध जाते हैं, और उनके कुछ दृष्टिकोण तो परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण भी होते हैं। यह दिखाने के लिए काफी है कि लोगों ने अभी तक सत्य हासिल नहीं किया है। इसलिए हमें आत्म-ज्ञान के हर पहलू में सत्य खोजने और खुद को और अधिक गहनता से जानने के लिए प्रयास करने की जरूरत है। इस संगति के जरिए क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि खुद को जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है? अभी-अभी मैंने अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने का उदाहरण दिया था। यह ऐसा महत्वपूर्ण मसला है जिसका सामना हर व्यक्ति को करना चाहिए। अगर तुम सत्य को नहीं समझ पाते और परंपरागत विचारों और धारणाओं से नहीं निकल पाते तो फिर तुम लोगों के लिए सब कुछ त्याग कर सचमुच खुद को परमेश्वर के लिए खपाना कठिन होगा। कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने बरसों से परमेश्वर पर विश्वास करने के बावजूद एक भी कर्तव्य नहीं निभाया है। वे न जाने कितने समय से मन ही मन संघर्ष कर रहे हैं, यह तय नहीं है कि वे वास्तव में कब सत्य को समझ पाएँगे और अपनी दैहिक आसक्ति और परंपरागत विचारों और धारणाओं के अवरोधों और बेड़ियों से निकल पाएँगे, और इस मुकाम तक पहुँच पाएँगे “परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।” इसे हासिल करना कोई आसान बात नहीं है। परमेश्वर का अनुसरण करने वालों के लिए परिवार के सार की असलियत जानना और अपने दैहिक संबंधों की बाधाओं को त्यागना एक बड़ी रुकावट होती है। अपने परिवार और दैहिक स्नेह की बेड़ियों और परंपरागत संस्कृति के विचारों के अवरोधों को हटाने की एक प्रक्रिया होती है—इसके लिए जरूरी है कि परमेश्वर ऐसे परिवेश का इंतजाम करे, जिसमें हम सत्य में प्रवेश का अभ्यास कर सकें। खासकर जब हमारे प्रियजनों की बात हो, हमारे लिए उनके असली चेहरे देखना और उनमें से हरेक के प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से समझना और भी जरूरी होता है। साथ ही साथ हमें अपने प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों और हमारे दिलों में अभी भी मौजूद शैतानी पाखंडों और भ्रांतियों के बारे में सत्य के आधार पर आत्म-चिंतन करने की जरूरत होती है। इसके लिए जरूरी है कि परमेश्वर हमारा खुलासा करने के लिए विभिन्न परिवेशों का इंतजाम करे ताकि हम यह जान सकें कि हमारे दिल में अभी भी ऐसी कौन-सी चीजें हैं जो उसका प्रतिरोध करती हैं या उसकी अनुरूपता में नहीं होतीं और हम फिर इन्हें दूर करने के लिए सत्य खोज सकें। हमें अपनी भ्रष्टता और अपना आध्यात्मिक कद का खुलासा करने को उपयुक्त परिवेशों की व्यवस्था करने के लिए परमेश्वर चाहिए। हालाँकि हमें सक्रिय और सकारात्मक होकर परमेश्वर के साथ सहयोग करना चाहिए और उसके वचनों के अनुसार खुद से माँगें रखनी चाहिए, केवल तभी वह हमें पूर्ण बना सकेगा। लेकिन परमेश्वर के कार्य करने से पहले हमें खुद को मानसिक रूप से तैयार करना चाहिए। सबसे पहले, हमें इंसान के अंदर भरे शैतानी जहरों को पहचानने और यह समझने की जरूरत है कि परंपरागत संस्कृति के विचार और धारणाएँ लोगों को गुमराह करते हैं और उन्हें भ्रष्ट बनाते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि विरासत से प्राप्त और शिक्षा और समाज से मिलीं ये शैतानी चीजें कितनी बुरी तरह परमेश्वर का विरोध करती हैं, और ये सत्य के कितने ज्यादा उलट हैं। जब तुम इन चीजों की असलियत समझ लेते हो तो केवल तभी यह कहा जा सकता है कि तुम वास्तव में सत्य को समझते हो।
मैंने अभी-अभी यह चर्चा की कि अपने माता-पिता से कैसे पेश आना चाहिए। यह कहा जा सकता है कि यह जीवन का प्रमुख मसला है, और यह ऐसा अहम मसला है जिसका सामना हर व्यक्ति को करना होगा। इससे इनकार नहीं किया जा सकता। आगे चलकर हम एक और विषय पर संगति करेंगे कि अपने बच्चों के साथ कैसे पेश आएँ। जब अपने बच्चों और माता-पिता से पेश आने की बात आती है, तो यह मायने नहीं रखता कि तुम किस तरीके से कैसे पेश आते हो, बल्कि यह मायने रखता है कि तुम उनसे किस परिप्रेक्ष्य और रवैये से पेश आते हो। यह ऐसी चीज है जिसे हमें दिल से समझना चाहिए। बच्चों के जन्म लेते ही हर व्यक्ति यह योजना बनाने लगता है कि वे अपने बच्चों को कैसी शिक्षा दिलाना चाहते हैं, किस प्रकार के कॉलेज में उनके बच्चों को जाना चाहिए और उसके बाद वे किस प्रकार अच्छी नौकरियाँ पा सकते हैं, ताकि उन्हें टिकने का आधार मिल सके और वे समाज में एक निश्चित स्तर का रुतबा हासिल कर सकें। सभी लोग मानते हैं कि इस जीवन में व्यक्ति को सबसे पहले ज्ञान और ऊँची डिग्री लेनी चाहिए—उनकी नजरों में रोजगार पाने और समाज में आजीविका पाने का यही एकमात्र उपाय है, ताकि कोई भी भविष्य में रोटी, कपड़ा, मकान और आवाजाही के साधन जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए परेशान न हो। इसलिए जब अपने बच्चों से पेश आने के तरीके की बात आती है तो हर माता-पिता यह उम्मीद करता है कि उनका बच्चा उच्च शिक्षा प्राप्त करेगा। उन्हें उम्मीद होती है कि उनका बच्चा एक दिन संसार में आगे बढ़ने में सक्षम हो पाएगा, समाज में जगह लेगा, ऊँची और स्थायी आमदनी पाएगा और रुतबा और सम्मान हासिल करेगा। उन्हें लगता है कि केवल इसी तरह उनके पुरखों को सम्मान मिलेगा। सभी लोग ऐसी सोच पालते हैं। “मेरे बच्चे बनें सबसे अच्छे”—क्या यह सोच सही है? हर कोई चाहता है कि उसकी बेटी या बेटा प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में जाएँ और फिर आगे पढ़ें, वह यह सोचता है कि उच्च डिग्री पाने के बाद उसका बच्चा संसार में आगे बढ़ सकेगा। सारे लोग मन ही मन ज्ञान की आराधना करते हैं और मानते हैं कि “अन्य अनुसरण छोटे हैं, किताबें उन सबसे श्रेष्ठ हैं”; इसके अलावा वे सोचते हैं कि आजकल समाज में प्रतिस्पर्धा बहुत ही तेज है, और अगर किसी के पास अकादमिक योग्यता न हो तो उसके लिए अपना पेट भरना भी मुश्किल होगा। ऐसा विचार और दृष्टिकोण हर व्यक्ति पालता है—मानो अगर किसी के पास उच्च डिग्री है तो भविष्य में उसकी आजीविका और संभावनाएँ सुरक्षित हो जाएँगी। इसलिए जब बेटे-बेटियों के लिए उनकी माँगों की बात आती है, तो वे लोग उन्हें किसी उच्चतर शिक्षा संस्थान में दाखिला दिलाने और उच्च शिक्षा पाने को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। हकीकत में यह सारी शिक्षा, यह सारा ज्ञान और लोगों के ये सारे विचार परमेश्वर और सत्य के विरुद्ध जाते हैं, और परमेश्वर इनसे घृणा करता है और इनकी निंदा करता है। यह साबित करता है कि मनुष्य के दृष्टिकोण गलत और बेतुके हैं। लोगों को समझना चाहिए कि अगर वे इस तरह की शिक्षा प्राप्त करते हैं तो थोड़ा-सा उपयोगी बौद्धिक ज्ञान अर्जित करने के अलावा उनमें शैतान के बहुत सारे जहर, विचार, मत और इसके तमाम पाखंड और भ्रांतियाँ बैठा दी जाएँगी और उन्हें यह भी समझना चाहिए कि इसके क्या दुष्परिणाम होंगे। लोगों ने इसके बारे में पहले कभी नहीं सोचा, और वे इस मामले की असलियत नहीं समझ सकते। वे बस यही विश्वास करते हैं कि अगर उनके बच्चे उच्चतर शिक्षा संस्थानों में प्रवेश लेंगे तो उनका भविष्य उज्ज्वल होगा और वे अपने पुरखों को सम्मान दिलाएँगे। लिहाजा जब एक दिन तुम्हारा बच्चा घर आएगा और तुम उसके साथ परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में बात करोगे तो वह इससे विमुख हो जाएगा और जब तुम सत्य पर संगति करोगे तो वह तुम्हें मूर्ख कहेगा, तुम्हारा मजाक उड़ाएगा और तुम्हारी बातों को हिकारत भरी नजरों से लेगा। उस समय तुम्हें एहसास होगा कि अपने बच्चे को उच्च शिक्षा के लिए उच्चतर शिक्षा संस्थान में भेजकर तुमने गलत रास्ता चुना था। हालाँकि पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। जैसे ही कोई व्यक्ति शैतान के फलसफे और दृष्टिकोण स्वीकार लेता है और ये चीजें उसके अंदर जड़ें जमाकर फलने-फूलने लगती हैं तो यह बिल्कुल कैंसर के ट्यूमर पैदा होने जैसा है—ये चीजें रातों-रात हटाई या बदली नहीं जा सकतीं। उस मुकाम पर उस व्यक्ति के लिए सत्य स्वीकारना मुश्किल हो जाता है और उसके बचाए जाने का कोई रास्ता नहीं बचता। यह उसे शैतान द्वारा जहर देकर मार डालने के समान है। मैंने किसी को यह कहते नहीं सुना है : “जब मेरा बच्चा स्कूल जाए तो उसे सिर्फ पढ़ना सीखने दो ताकि वह यह समझ सके कि परमेश्वर के वचनों का अर्थ क्या है। उसके बाद मैं परमेश्वर पर पूरे मन से विश्वास करने और थोड़ा-बहुत कोई उपयोगी पेशा सीखने के लिए उसका मार्गदर्शन करूँगा ताकि वह कोई अच्छी-सी नौकरी पा सके और भविष्य में टिकाऊ जीवन जी सके। तब मैं बेफिक्र हो सकता हूँ। बेहतर तो यही रहेगा कि उसमें ऊँची काबिलियत हो, अच्छी मानवता हो और वह परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभा सके। अगर वह कोई कर्तव्य न निभा सके तो इतना काफी होगा कि वह कलीसिया के बाहर कोई नौकरी पाकर अपने परिवार का सहारा बन सके। सबसे ज्यादा तो मैं चाहता हूँ कि वह परमेश्वर के घर में उसके सत्य प्राप्त कर सके और समाज से दूषित या अनुकूलित न हो।” लोगों में अपने बच्चों को परमेश्वर के समक्ष लाने की आस्था नहीं होती; उन्हें हमेशा यही चिंता रहती है कि अगर उनके बच्चे उच्च शिक्षा में दाखिला नहीं लेते तो उनके पास अच्छी संभावनाएँ नहीं रहेंगी। दूसरे शब्दों में, जब अपने बच्चों की बात हो तो एक भी व्यक्ति उन्हें इस उद्देश्य से परमेश्वर के समक्ष लाने का इच्छुक नहीं होता कि वे परमेश्वर के वचन स्वीकार सकें और सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आचरण कर सकें। लोग ऐसा करने के अनिच्छुक होते हैं, और उनमें ऐसा करने का साहस नहीं होता। वे डरते हैं कि अगर वे इस ढंग से पेश आएँगे तो उनके बच्चों के पास इस समाज में आजीविका के साधन या संभावनाएँ नहीं रहेंगी। यह दृष्टिकोण किस चीज की पुष्टि करता है? यह इस बात की पुष्टि करता है कि शैतान जिन लोगों को गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है, उनकी रुचि सत्य या परमेश्वर पर विश्वास करने में बिल्कुल नहीं है। अगर वे परमेश्वर पर विश्वास करते भी हैं तो यह सिर्फ आशीष पाने के लिए होता है। वे सत्य का अनुसरण नहीं करते क्योंकि लोग अपने दिल में भौतिक चीजों, रुपए-पैसे और शैतान के प्रभाव की आराधना करते हैं। तुममें यह कहने की आस्था नहीं है : “अगर कोई व्यक्ति संसार की प्रवृत्तियाँ छोड़कर परमेश्वर पर भरोसा करे तो परमेश्वर उसे बचे रहने का रास्ता देगा।” तुममें ऐसी आस्था की कमी है। ज्ञान की आराधना करने का तुम्हारा गलत दृष्टिकोण तुम्हारे दिल में जड़ें जमा चुका है। यह तुम्हारी हर कथनी-करनी को नियंत्रित करता है, इसलिए तुम परमेश्वर का कार्य स्वीकार कर इसके प्रति समर्पण नहीं कर पाते, परमेश्वर की ओर से व्यक्त सत्यों को स्वीकारना तो बहुत दूर की बात है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि यह विचार और दृष्टिकोण परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है, यह परमेश्वर को धोखा देता है, परमेश्वर को नकारता है, और यह सत्य की अनुरूपता में नहीं है। जब कोई व्यक्ति सत्य को समझता है तो वह इस समस्या की असलियत जान सकता है और उसे यह एहसास होता है कि उसके अंदर परमेश्वर विरोधी कई चीजें हैं—ऐसी चीजें जिनसे परमेश्वर बुनियादी तौर पर घृणा करता है। ये सब परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के नतीजे हैं। परमेश्वर के वचनों को उजागर किए बिना और इन वचनों के न्याय और ताड़ना के बिना, परमेश्वर पर कुछ बरस विश्वास करने के बाद कि उनकी आस्था मजबूत है और अपने व्यवहार में कुछ बदलाव लाने के बाद लोग यह सोचेंगे कि वे पावनीकृत हो चुके हैं, कि वे परमेश्वर के प्रति प्रेम से ओत-प्रोत हैं। अब जबकि वे सत्य को समझते हैं, अचानक उन्हें एहसास होता है : “लोगों में ये भ्रष्ट चीजें अभी भी कैसे हो सकती हैं? मैं इन्हें पहले क्यों नहीं पहचान सका? लोग बहुत ही अज्ञानी हैं!” इस समय उन्हें पता चलता है कि परमेश्वर द्वारा मनुष्य की भ्रष्टता उजागर करना इतना अच्छा और इतना जरूरी होता है, और वे जान लेते हैं कि अगर परमेश्वर ने उनकी भ्रष्टता उजागर कर इसका न्याय न किया तो वे इसे कभी नहीं पहचान सकेंगे। लोग दिखावा करने और छद्मवेश धारण करने में खूब पारंगत होते हैं। वे बखूबी छद्मवेश धारण कर सकते हैं या खुद को बखूबी छिपाकर आवरण ओढ़ सकते हैं, लेकिन वे जो भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और उनके मन में जो गहरे पैठे विचार हैं वे परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं, और परमेश्वर इन चीजों से नफरत और घृणा करता है। परमेश्वर इन्हीं चीजों को उजागर करना चाहता है, और लोगों को ये चीजें जाननी चाहिए। हालाँकि लोग अक्सर सोचते हैं, “हमारी कथनी में एक भी शब्द ऐसा नहीं आया जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता हो और हममें सूझ-बूझ है। हमारे व्यवहार में हमने कोई गलत काम नहीं किया और हम पहले ही उस मुकाम पर पहुँच चुके हैं जहाँ हम अपने कर्तव्य बहुत ही उचित ढंग से निभा रहे हैं। हममें ऐसी कोई सुस्पष्ट समस्याएँ नहीं हैं, तो फिर हमें अपने बारे में और ज्यादा क्या जानना चाहिए? क्या हमें खुद को जानने की जरूरत है भी?” क्या यह दृष्टिकोण तथ्यों से मेल खाता है? अगर हाँ, तो लोग अभी भी हमेशा परमेश्वर के सामने अपने पाप क्यों कबूलते हैं? लोग अभी भी अक्सर अपने भ्रष्ट स्वभाव क्यों प्रकट करते हैं और अपराध तक कर बैठते हैं? इसलिए अगर तुम एक संदर्भ में खुद को अच्छा मानते हो तो फिर तुम्हारे लिए उस संदर्भ में सत्य खोजना, चिंतन करना और खुद को जानना और भी जरूरी हो जाता है। केवल इसी माध्यम से तुम वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभाव जान सकोगे, शुद्ध हो पाओगे, और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाओगे। यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का परिणाम है।
बहुत-से लोग मानते हैं कि संतानोचित निष्ठा परमेश्वर को प्रिय है और इसे उसका आशीष प्राप्त है। वे सोचते हैं कि अपने माता-पिता की अच्छी संतान होना एक ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर निश्चित रूप से पसंद करता है, क्योंकि वे मानते हैं कि संतानोचित निष्ठा पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है और इससे साबित होता है कि किसी व्यक्ति में अंतरात्मा है और वह यह नहीं भूला है कि वह कहाँ से आया है। परंपरागत धारणाओं के अनुसार ऐसे व्यक्ति अच्छे लोग और संतानोचित बच्चे माने जाते हैं। जब संतानोचित बच्चों की बात आती है तो हर कोई उनकी तारीफ करता है। लोग उनसे प्यार करते हैं और उनके माता-पिता भी उनसे भी प्यार करते हैं। इसलिए तुम सहज रूप से मान लेते हो कि परमेश्वर भी उन्हें पसंद करता होगा और अपने मन से यह मान लेते हो कि : “परमेश्वर को उन लोगों को जरूर पसंद करना चाहिए जो अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखते हैं—वह उन्हें निश्चित रूप से पसंद करता है!” इसलिए तुम अपना कर्तव्य निभाना छोड़कर अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए घर लौट आते हो। जब तुम ऐसा करते हो तो तुम इस बात के प्रति और अधिक प्रेरित और कायल होते जाते हो कि यह उचित और तर्कसंगत है, और यह भी कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। अनजाने में ही तुम यह मानना शुरू कर देते हो कि तुम पहले ही परमेश्वर को संतुष्ट कर चुके हो, और तुम्हारे पास वो पूँजी है जो परमेश्वर से स्वीकृति, सुख और मान्यता पाने के लिए जरूरी है। जब परमेश्वर यह कहता है कि तुम उसका प्रतिरोध और उससे विश्वासघात कर रहे हो या जब यह कहता है कि तुम बिल्कुल भी नहीं बदले हो, तो तुम उसका विरोध करते हो और उसकी आलोचना करने लगते हो। तुम उसे गलत बताकर उसके वचनों से मुकरने लगते हो। यह कैसी समस्या है? जब परमेश्वर तुम्हें अच्छा बताकर तुम्हें स्वीकृति देता है, तो तुम स्वीकार कर लेते हो। लेकिन जब परमेश्वर यह उजागर करता है कि तुम उसके खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध कर रहे हो तो तुम इसे नकार कर खारिज कर देते हो और उसके आड़े आकर उसकी आलोचना करते हो। यह कैसा स्वभाव है? यह सिद्ध हो चुका है कि लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं। आम तौर पर ऐसा लगता है कि लोग परमेश्वर के वचनों को सत्य मानते हैं और लोग खुद को परमेश्वर के प्रति समर्पित मानते हैं, लेकिन जब परमेश्वर उनका न्याय कर उनके भ्रष्ट स्वभाव उजागर करता है तो उनमें से कोई भी उसके वचनों पर ध्यान नहीं देता, और उनमें से कोई भी हर बार कुछ करते हुए अपने क्रियाकलापों को उसके वचनों की कसौटी पर नहीं कसता। बल्कि वे सिर्फ बोल-वचन से छुट्टी पा लेते हैं या सभाओं में परमेश्वर के वचनों की कुछ पंक्तियाँ सुना देते हैं, उन पर थोड़ी बहुत संगति कर लेते हैं, और फिर इससे छुट्टी पा लेते हैं। हकीकत में जब तुम चीजें करते हो तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार बिल्कुल भी अभ्यास नहीं करते। तो फिर तुम्हारे लिए परमेश्वर के वचन पढ़ने और इन पर संगति करने की तुक ही क्या है? जब तुम्हारे साथ कुछ होता है तो तुम परमेश्वर के वचनों पर अमल नहीं करते और न ही तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीते हो, तो फिर परमेश्वर के वचन पढ़ते ही क्यों हो? क्या यह सिर्फ औपचारिकता नहीं है? क्या तुम इस तरह सत्य समझ सकते हो? क्या तुम सत्य हासिल कर सकते हो? परमेश्वर पर इस तरह से विश्वास करना निरर्थक है। बहुत-से लोग परमेश्वर के वचन थोड़ा-सा पढ़ भर लेते हैं, इनका शाब्दिक अर्थ समझ लेते हैं, और सोचते हैं कि चंद शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाकर वे सत्य को समझ चुके हैं और सत्य वास्तविकता पा चुके हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैं परमेश्वर के वचनों पर संगति कर रहा हूँ तो यह शब्द और धर्म-सिद्धांत मात्र कैसे हो सकता है?” तुम परमेश्वर के वचनों का सार नहीं जानते, तुम उसके वचनों को अभ्यास में नहीं लाते और तुम्हें यकीनन इनका अनुभवात्मक ज्ञान नहीं है, इसलिए जब तुम संगति करते हो तो शब्द और धर्म-सिद्धांत ही सुनाते हो। परमेश्वर के वचन बेशक सत्य हैं लेकिन तुम वास्तव में इन्हें समझते नहीं हो या इन्हें अभ्यास में नहीं लाते हो, इसलिए तुम जो समझते हो वह सिर्फ सिद्धांत है। क्या तुम लोग इसे समझते हो? क्या तुम लोगों को लगता है कि इन शब्दों ने किसी दुखती जगह को छू लिया है? क्या तुम कहोगे, “अगर मैं अपने माता-पिता का सम्मान न करूँ तो क्या यह घोर अपराध नहीं है? क्या लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ उनकी भावनाओं के प्रति अविचारशील नहीं हैं?” तुम्हीं बताओ कि क्या परमेश्वर इंसान से जिन मानकों की अपेक्षाएँ रखता है, वे ऊँचे हैं? दरअसल वे ऊँचे नहीं हैं—इंसान की अंतरात्मा और विवेक के आधार पर कहें तो लोग इन सभी मानकों को पूरा कर सकते हैं। यह मानवीय स्नेह का असर है और चूँकि परंपरागत संस्कृति लोगों के दिल में ठोस और पक्की जड़ें जमा चुकी है, इसलिए उन्हें लगता है कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत ऊँची हैं और उनकी पहुँच से वाकई परे हैं। ऐसा सत्य की समझ की कमी के कारण होता है। अगर तुम वास्तव में सत्य को समझते हो और इस मामले की सच्ची प्रकृति जानते हो, तो तुम इस समस्या से सही तरीके से पेश आओगे और उसे सँभाल लोगे। हजारों साल तक लोग परंपरागत संस्कृति से प्रभावित होते आए हैं। स्व-आचरण को लेकर शैतान के फलसफे और नियम पहले ही लोगों के दिल में जड़ें जमा चुके हैं। तुम ऐसे विचारों के अनुसार जीते हो, तो वास्तव में तुमने क्या जिया है? क्या तुमने सामान्य मानवता को जिया है? क्या तुमने वास्तविक जीवन जिया है? इस मसले को जानना और इसका गहन-विश्लेषण करना तुम्हारे लिए उचित रहेगा। तुम्हें यह चिंतन करने की जरूरत है कि परंपरागत संस्कृति और शैतान के फलसफों और दृष्टिकोणों से तुम्हें क्या हासिल हुआ, कि क्या ये चीजें वास्तव में सत्य हैं, और वे तुम्हें क्या प्रदान करते हैं। फिर तुम्हें इन मसलों पर संगति कर परमेश्वर के वचनों के आधार पर इनका गहन-विश्लेषण करना चाहिए। अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम्हारे लिए सत्य खोजना आसान हो जाएगा। एक बार तुम सत्य को समझ लेते हो और परमेश्वर के इरादे जान लेते हो तो तुम समझ जाओगे कि लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ बिल्कुल ऐसी चीजें हैं जिन्हें मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक पूरा कर सकते हैं। स्वाभाविक रूप से तब तुम कभी यह शिकायत नहीं करोगे कि परमेश्वर मनुष्य से बहुत अधिक माँग करता है। इसके बजाय तुम कहोगे, “हम सिद्धांत समझते हैं; हमारे पास अभ्यास का मार्ग है और हम समझते हैं कि इन चीजों को कैसे सँभालना है।” इस तरीके से धीरे-धीरे तुम परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करोगे। यह सत्य को समझने की प्रक्रिया है।
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