केवल सत्य का अनुसरण करने से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफहमियों को दूर किया जा सकता है (भाग दो)

कुछ लोग कार्य करते समय अपनी इच्छा का अनुसरण करते हैं। वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और अपनी काट-छाँट होने पर वे केवल मौखिक रूप से यह स्वीकार करते हैं कि वे अहंकारी हैं, और उन्होंने केवल इसलिए भूल की क्योंकि वे सत्य से अनभिज्ञ हैं। लेकिन अपने दिलों में वे शिकायत करते हैं, “कोई और ज़िम्मेदारी उठाने आगे नहीं आता है, बस मैं ही ऐसा करता हूँ, और अंत में, जब कुछ गलत हो जाता है, तो वे सारी जिम्मेदारी मुझ पर डाल देते हैं। क्या यह मेरी मूर्खता नहीं है? मैं अगली बार ऐसा नहीं कर सकता, इस तरह आगे नहीं आ सकता। जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है!” इस रवैये के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह पश्चात्ताप का रवैया है? (नहीं।) यह कैसा रवैया है? क्या वे अविश्वसनीय और धोखेबाज नहीं बन जाते? अपने दिलों में वे सोचते हैं, “मैं भाग्यशाली हूँ कि इस बार यह आपदा में नहीं बदला। दूसरे शब्दों में, मुसीबत में पड़ने के बाद ही अक्ल आती है। मुझे भविष्य में और अधिक सावधान रहना होगा।” वे सत्य की तलाश नहीं करते, बल्कि मामले को देखने और संभालने के लिए अपने ओछी चालों और धूर्त योजनाओं का प्रयोग करते हैं। क्या वे इस तरह सत्य हासिल कर सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि उन्होंने पश्चात्ताप नहीं किया है। पश्चात्ताप करते समय सबसे पहले की जाने वाली चीज यह समझना है कि तुमने क्या गलत किया है; यह देखना है कि तुम्हारी गलती कहाँ है, समस्या का सार क्या है, और तुमने कैसा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है; तुम्हें इन बातों पर विचार करना चाहिए और सत्य स्वीकारना चाहिए, फिर सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। सिर्फ यही पश्चात्ताप का रवैया है। दूसरी ओर, यदि तुम व्यापक रूप से शातिर तरीकों पर विचार करते हो, तुम पहले की तुलना में अधिक धूर्त बन जाते हो, तुम्हारी तरकीबें और भी अधिक चालाकी भरी और गुप्त होती हैं, और तुम्हारे पास चीजों से निपटने के और भी तरीके होते हैं, तो समस्या सिर्फ धोखेबाज होने जितनी सरल नहीं है। तुम छलपूर्ण साधनों का उपयोग कर रहे हो और तुम्हारे पास ऐसे रहस्य हैं जिन्हें तुम प्रकट नहीं कर सकते। यह दुष्टता है। न सिर्फ तुमने पश्चात्ताप नहीं किया है, बल्कि तुम और ज्यादा धूर्त और धोखेबाज बन गए हो। परमेश्वर देखता है कि तुम अत्यंत हठी और दुष्ट हो, कि सतही तौर पर तुम मानते हो कि तुम गलत थे, और अपनी काट-छाँट स्वीकारते हो, लेकिन वास्तव में तुम में पश्चात्ताप का रवैया लेशमात्र भी नहीं होता। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब यह घटना हो रही थी या उसके बाद, तुमने सत्य बिल्कुल नहीं खोजा, तुमने चिंतन करने और खुद को जानने का प्रयास नहीं किया और तुमने सत्य के अनुसार अभ्यास नहीं किया। तुम्हारा रवैया समस्या हल करने के लिए शैतान के फलसफे, तर्क और तरीकों का उपयोग करने का है। वास्तव में तुम समस्या से बचकर निकल रहे हो और उसे साफ-सुथरे पैकेज में लपेट रहे हो, ताकि दूसरे समस्या का कोई नामोनिशान न देख पाएँ, उन्हें कोई सुराग न मिले। अंत में, तुम्हें लगता है कि तुम बहुत सयाने हो। ये वे चीजें हैं जो परमेश्वर को नजर आती हैं, बजाय इसके कि तुम वास्तव में आत्म-चिंतन करो, पाप स्वीकारो और पश्चात्ताप करो, उस मामले के सामने आते ही, जो आ पड़ा है, फिर सत्य की तलाश करो और सत्य के अनुसार अभ्यास करो। तुम्हारा रवैया सत्य की तलाश या उसका अभ्यास करने का नहीं है, न ही यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने का है, बल्कि समस्या को हल करने के लिए शैतान की तरकीबों और तरीकों का उपयोग करने का है। तुम दूसरों को अपने बारे में एक गलत धारणा देते हो और परमेश्वर के हाथों अपना खुलासा होने का विरोध करते हो, और परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जिन परिस्थितियों का आयोजन किया है, उनके प्रति रक्षात्मक और टकरावपूर्ण मुद्रा में होते हो। तुम्हारा दिल पहले से ज्यादा अवरुद्ध और परमेश्वर से अलग है। इस तरह, क्या इसमें से कोई अच्छा परिणाम आ सकता है? क्या तुम अभी भी शांति और आनंद का लाभ उठाते हुए प्रकाश में रह सकते हो? नहीं रह सकते। अगर तुम सत्य और परमेश्वर से दूर हो जाते हो, तो तुम निश्चित रूप से अँधेरे में गिरोगे और रोते हुए दाँत पीसोगे। क्या ऐसी स्थिति लोगों में व्याप्त है? (हाँ।) कुछ लोग अक्सर यह कहते हुए खुद को सलाह देते हैं, “इस बार मेरी काट-छाँट की गई। अगली बार, मुझे अधिक चौकस और सावधान रहना होगा। मुझे सभी मामलों में सतर्क रहना है, ताकि मुझे नुकसान न हो; जो लोग चौकस नहीं होते, वे बेवकूफ़ होते हैं।” यदि तुम इस तरह से अपना मार्गदर्शन कर रहे हो और खुद को सलाह दे रहे हो, तो क्या तुम कभी भी अच्छे नतीजे पा सकोगे? क्या तुम सत्य को हासिल कर पाओगे? यदि कोई समस्या तुम पर आ पड़ती है, तो तुम्हें सत्य का एक पहलू खोजना और समझना चाहिए और सत्य के उस पहलू को प्राप्त करना चाहिए। सत्य को समझने से क्या हासिल हो सकता है? जब तुम सत्य के एक पहलू को समझते हो, तो तुम परमेश्वर के इरादों के एक पहलू को समझ लेते हो; तुम यह समझ लेते हो कि परमेश्वर ने तुम्हारे साथ यह चीज क्यों की, क्यों वह तुमसे ऐसी माँग करेगा, क्यों वह तुम्हें इस तरह से ताड़ना देने और अनुशासित करने के लिए परिस्थितियों का आयोजन करेगा, क्यों वह तुम्हारी काट-छाँट करने के लिए इस मामले का उपयोग करेगा, और क्यों तुम इस मामले में गिरे, असफल हुए और क्यों तुम्हारा खुलासा किया गया है। यदि तुम इन चीजों को समझते हो, तो तुम सत्य की तलाश करने में सक्षम होगे और जीवन-प्रवेश हासिल करोगे। यदि तुम इन चीजों को नहीं समझते और इन तथ्यों को स्वीकार नहीं करते, बल्कि इनका विरोध और प्रतिरोध करने, अपनी गलतियाँ छिपाने के लिए अपनी ही तरकीबों का उपयोग करने और एक झूठे चेहरे के साथ अन्य सभी का और परमेश्वर का सामना करने पर, जोर देते हो, तो तुम सत्य को हासिल करने में हमेशा असमर्थ रहोगे। यदि तुम्हारा रवैया ईमानदारी भरा, सत्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण करने वाला है, और चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हारे हृदय में कितनी भी पीड़ा हो, या तुम कितने भी अपमानित क्यों न हो, तुम हमेशा सत्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण कर लेते हो, और तुम यह कहते हुए अभी भी परमेश्वर से प्रार्थना करने में सक्षम होते हो कि “परमेश्वर जो भी करता है, वह सही होता है, और मैं उसे स्वीकार करूँगा,” तो यह एक समर्पित रवैया है। हालाँकि स्वीकार की प्रक्रिया में तुम्हें लगातार आत्म-चिंतन करते रहना चाहिए, इस पर विचार करना चाहिए कि तुम्हारे कार्यों और व्यवहार में खामियाँ कहाँ हैं, और तुमने सत्य के किन पहलुओं का उल्लंघन किया है। तुम्हें अपने इरादों का भी गहन-विश्लेषण करना चाहिए, ताकि तुम अपनी वास्तविक स्थिति और आध्यात्मिक कद को साफ-साफ देख सको। यदि तुम सत्य को खोजते हो, तो तुम्हें पता चलेगा कि सत्य का अभ्यास सिद्धांतों के अनुसार कैसे किया जाए। यदि तुम इस तरह से अभ्यास करते और अनुभव करते हो, तो तुम्हें पता चलने से पहले ही तुम प्रगति कर चुके होगे। सत्य तुम्हारे भीतर जड़ें जमा लेगा; वह फूल-फलकर तुम्हारा जीवन बन जाएगा। तुम्हारी भ्रष्टता प्रकट होने की सभी समस्याएँ धीरे-धीरे हल हो जाएँगी। जब चीजें घटित होंगी तो तुम्हारा रवैया, विचार और स्थितियाँ ये सब अधिकाधिक सकारात्मकता की ओर झुकेंगे। क्या तुम तब भी परमेश्वर से दूर रहोगे? शायद तुम तब भी उससे दूर होगे, पर पहले से कम होगे, और परमेश्वर के लिए तुम जो संदेह, अटकलें, गलतफहमियाँ, शिकायतें, विद्रोह और प्रतिरोध पालते हो, वो भी घट जाएँगे। उनके घट होने पर जब चीजें घटित होंगी तो तुम्हारे लिए स्वयं को परमेश्वर के समक्ष शांत करना, उससे प्रार्थना करना, सत्य खोजना और अभ्यास का मार्ग खोजना आसान हो जाएगा। यदि चीजें तुम पर आ पड़ने के बाद भी तुम उन्हें नहीं समझ पाते, इसके बजाय यदि तुम पूरी तरह भ्रमित होते हो, और तब भी सत्य नहीं खोजते, तो फिर समस्या होगी। तुम मानवीय तरीकों से मामले सँभालने को लेकर निश्चिंत रहोगे और सांसारिक आचरण के तुम्हारे फलसफे, धूर्त तौर-तरीके और चालाकी भरी चालबाजियाँ सब सामने आ जाएँगी। इसी तरह लोग चीजों को लेकर अपने हृदय में सबसे पहले प्रतिक्रिया देते हैं। चीजें होने पर कुछ लोग कभी भी खुद को सत्य के लिए झोंकने की मेहनत नहीं करते, और इसके बजाय हमेशा उन चीजों को इंसानी तरीकों से सँभालने की सोचते रहते हैं। नतीजतन, वे लंबे समय तक इधर-उधर भटकते रहते हैं, वे स्वयं को तब तक पीड़ा देते रहते हैं जब तक कि उनके चेहरे थकान से क्लांत नहीं हो जाते, मगर वे फिर भी सत्य को अभ्यास में नहीं लाते। देख लो, सत्य का अनुसरण न करने वाले कितने दयनीय होते हैं। भले ही अब तुम अपना कर्तव्य स्वेच्छा से निभाते हो, चीजों को त्याग सकते हो और अपनी इच्छा से स्वयं को खपा सकते हो, यदि तुम में अभी भी परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ, अटकलें, संदेह या शिकायतें हैं, यहाँ तक कि अभी भी उसके प्रति विद्रोह और प्रतिरोध है, या तुम उसका विरोध करते हो और अपने ऊपर उसकी संप्रभुता को ठुकराते हो—यदि तुम इन चीजों का समाधान नहीं करते—तो सत्य के लिए तुम्हारे व्यक्तित्व का स्वामी होना तकरीबन असंभव हो जाएगा, और तुम्हारा जीवन थकाऊ हो जाएगा। लोग अक्सर इन नकारात्मक स्थितियों में संघर्ष करते और पीड़ा पाते रहते हैं, मानो वे किसी दलदल में फँसे हों, और वे हमेशा सही-गलत के विचार से जूझते रहते हैं। वे सत्य का पता लगाकर उसे कैसे समझ सकते हैं? सत्य को खोजने के लिए पहले उनको समर्पण करना होगा। तब अनुभव की एक अवधि के बाद वे कुछ प्रबोधन प्राप्त कर पाएँगे, जिस बिंदु पर आकर सत्य को समझना आसान होता है। यदि कोई हमेशा सही-गलत क्या है, इसे ही सुलझाने का प्रयास कर रहा होता है, और सच-झूठ में फँस जाता है, तो उनके पास सत्य का पता लगाने या उसे समझने का कोई रास्ता नहीं होता। और जब कोई कभी भी सत्य को नहीं समझ पाएगा तो इसका क्या नतीजा होगा? सत्य को न समझ पाने से परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा होती हैं; जब किसी के मन में परमेश्वर को लेकर गलतफहमियाँ होती हैं, तो संभव है कि वे उसके बारे में शिकायतें करें। जब ये शिकायतें फूटती हैं तो विरोध बन जाती हैं; परमेश्वर का विरोध उसका प्रतिरोध करना है, और यह एक गंभीर अपराध है। यदि किसी ने कई अपराध किए हैं, तो उन्होंने कई गुना बुराइयाँ की हैं, और उन्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह उस प्रकार की चीज है जो सत्य को कभी भी न समझ पाने की वजह से आती है। तो सत्य का अनुसरण केवल अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाने के लिए, आज्ञाकारी होने, नियमानुसार व्यवहार करने, धर्मनिष्ठ होने या संतों की तरह शिष्टाचार निभाने के लिए नहीं है। इसका उद्देश्य सिर्फ ये चीजें हासिल करना नहीं है; सैद्धांतिक तौर पर यह परमेश्वर को लेकर तुम्हारे कई गलत दृष्टिकोणों के समाधान के लिए है। सत्य को समझने का उद्देश्य लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को हल करना है; जब वे भ्रष्ट स्वभाव हल हो जाएँगे, तो लोगों के मन में परमेश्वर को लेकर गलतफहमियाँ नहीं होंगी। ये दोनों चीजें आपस में जुड़ी हैं। इसी के साथ जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करते हैं, उनके और परमेश्वर के बीच धीरे-धीरे संबंध सुधरकर सामान्य होते जाएँगे। एक बार अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान होने पर लोगों की परमेश्वर के बारे में शंकाएँ, संदेह, परीक्षाएँ, गलतफहमियाँ, प्रश्न और शिकायतें और यहाँ तक कि उनका प्रतिरोध भी धीरे-धीरे करके हल हो जाएगा। जब किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो जाता है तो कौन सी तात्कालिक अभिव्यक्ति पैदा होती है? परमेश्वर के लिए उनका रवैया बदल जाता है। वे परमेश्वर के लिए समर्पणकारी हृदय के साथ किसी भी चीज का सामना कर सकते हैं, और तब उसके साथ उनका रिश्ता सुधर जाएगा। यदि वे सत्य को समझते हैं तो उसे अभ्यास में लाने में सक्षम होंगे। उनका हृदय परमेश्वर के लिए समर्पित है, इसलिए वे अपने कर्तव्य निर्वहन में अनमने नहीं होंगे, परमेश्वर को धोखा देने की तो बात ही छोड़ दें। इस तरह उनके मन में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ कम से कम होंगी, उसके साथ उनका संबंध अधिक से अधिक सामान्य होता जाएगा, और वे अपने कर्तव्य निभाते हुए पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो जाएँगे। यदि वे अपने भ्रष्ट स्वभावों की समस्या का समाधान नहीं करते, वे कभी भी परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध हासिल नहीं कर पाएँगे, और कभी भी उनका हृदय उसके प्रति समर्पित नहीं होगा। अविश्वासियों की तरह वे बहुत विद्रोही होंगे, हमेशा अपने हृदय में परमेश्वर को नकार रहे होंगे और उसका प्रतिरोध कर रहे होंगे, और उनके लिए अपना कर्तव्य ठीक से निभाना असंभव होगा। इसीलिए सत्य का अनुसरण और अभ्यास इतना अहम है! तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते लेकिन तब भी परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं, गलतफहमियों और शिकायतों का समाधान चाहते हो—क्या तुम यह हासिल कर पाओगे? निश्चित रूप से नहीं। कुछ लोग कहते हैं : “मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ, मेरे अंदर धारणाएँ, गलतफहमियाँ या शिकायतों जैसी कोई चीज नहीं है। मैं इन चीजों के बारे में नहीं सोचता।” यदि तुम इस बारे में नहीं सोचते तो क्या तुम गारंटी देते हो कि तुम्हारे अंदर कोई धारणा नहीं है? क्या तुम इस बारे में न सोचकर अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने से बच सकते हो? चाहे कोई कैसी भी भ्रष्टता प्रकट करे, यह हमेशा प्रकृति से तय होता है। सभी लोग अपनी शैतानी प्रकृति के अनुसार जीते हैं; उनके शैतानी स्वभाव उनके भीतर गहराई से जड़ें जमाए हुए हैं, और उनका प्रकृति सार बन गए हैं। लोगों के पास अपने शैतानी स्वभाव मिटाने के कोई तरीके नहीं हैं, केवल सत्य और परमेश्वर के वचनों का प्रयोग करके ही वे धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभावों के सभी मुद्दों का समाधान कर सकते हैं।

परमेश्वर के साथ किसी इंसान के रिश्ते में सुधार या उसकी कमी कहाँ जाहिर होती है? यह लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते समय तुम्हारे दृष्टिकोण और विचारों में जाहिर होती है। यदि तुम्हारा रवैया और तुम्हारे विचार सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों से या ज्ञान या सिद्धांतों से आते हैं, और तुम इन्हें अपने जीवन का फलसफा और ध्येय मानते हो, तब क्या तुम वह व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है? क्या तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है? (नहीं।) यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो; शायद तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग पर हो, लेकिन कम से कम इससे यह पता चलता है कि तुमने सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं किया है। यदि किसी ऐसी चीज का सामना करने पर जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाती, तुम तुरंत नाराज हो जाते हो, मेज पीटने लगते हो और लोगों पर चिल्लाते हो, इसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हो, और समर्पण नहीं करते, तो यहाँ समस्या क्या है? क्या यह एक ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर के समक्ष जीता है? तुम सत्य खोजने में असमर्थ क्यों होते हो? यह दिखाता है कि सत्य ने अभी तक तुम्हारे हृदय में घर नहीं किया है! यदि तुम इतनी तुच्छ बात पर भी आपा नहीं बनाए रख सकते और इतनी मामूली बात से तुम्हारी बदसूरत स्थिति उजागर हो जाती है, तो इससे साबित होता है कि तुम समस्याओं के समाधान के लिए सत्य का प्रयोग करने में अच्छे नहीं हो और अपना आपा खोने पर सत्य खोजना छोड़ देते हो। अगर ऐसा मामला है तो तुम जीवन प्रवेश कैसे पा सकते हो? कुछ लोगों का कई साल से परमेश्वर में विश्वास है, पर चाहे जो भी हो वे अविश्वासियों की तरह व्यवहार करते हैं, शैतानी फलसफों के मुताबिक जीते हैं और कभी भी सत्य नहीं खोजते या दूसरों से संवाद करने और मामले सँभालने को लेकर अपना दृष्टिकोण नहीं बदलते। भले ही उन्होंने स्पष्ट रूप से कोई बुरा कार्य नहीं किया है या कोई बड़ी भूल नहीं की है, और वे अच्छे लोग प्रतीत होते हैं, उन्होंने परमेश्वर में सालों विश्वास किया है लेकिन उनके पास जीवन प्रवेश नहीं होता है और उन्होंने कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया है। क्या ऐसे लोग परमेश्वर का उद्धार पा सकते हैं? मुझे डर है कि उनके लिए इसे पाना मुश्किल होगा। कुछ लोगों का वर्षों से परमेश्वर में विश्वास है और चाहे जो हो, वे हमेशा कहते हैं, “मेरे विचार में ऐसा-ऐसा...,” “मेरी योजना यह-यह है...,” और “मुझे लगता है कि यह या वह...,” या वे कहते हैं, “यहाँ वह पुरानी कहावत ठीक बैठती है...,” और “यह वैसा ही है जैसे उस प्रसिद्ध व्यक्ति ने कहा था...।” जो लोग हमेशा इसी तरह बात करते हैं, उसमें समस्या है, क्योंकि इससे साबित होता है कि वे शैतान के लोग हैं, ऐसे लोग जिनके हृदय में लेशमात्र भी सत्य नहीं है। जब कुछ होता है, तब अगर तुम हमेशा यही कहते हो, “मुझे याद है कि परमेश्वर के वचन कहते हैं...,” “परमेश्वर ने एक बार कहा था...,” या “परमेश्वर के घर के एक उपदेश में यह कहा गया था...,” “परमेश्वर के वचनों के भजन में एक पंक्ति है, जो कहती है...,” यदि तुम हमेशा समस्याओं के बारे में सोचते हो और इसी तरह बात करते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम वह व्यक्ति हो जिसे सत्य से प्रेम है, और जिसमें कुछ सत्य वास्तविकता है। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले को चाहे जो हो जाए, सबसे पहले यह समझना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों में क्या कहा गया है, हर चीज की परमेश्वर के वचनों से तुलना करनी चाहिए, और परमेश्वर के वचनों को अपनी नींव, आधार, और शुरुआती बिंदु की तरह प्रयोग करना चाहिए। क्या सत्य के अभ्यास का अनुसरण करते समय उन्हें यही रवैया नहीं रखना चाहिए? यह न्यूनतम चीज है। आजकल हालाँकि लोग धर्मोपदेश सुनते हैं, और परमेश्वर के वचनों को रोज पढ़ते हैं, जब चीजें होती हैं तो वे अभी भी कहते हैं, “मेरी माँ ने कहा था...,” “पुरानी कहावत है...,” “फलाँ-फलाँ मशहूर व्यक्ति ने कहा था...,” “एक कहावत है...,” और “जैसा कि आम कहावत है...।” उन्होंने परमेश्वर के जो वचन खाए-पिए थे, वे कहाँ गए? इन लोगों के रवैये और प्रतिक्रियाओं से तुम देख सकते हो कि उन्होंने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है, या सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं किया है, और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं है और वे हमेशा अविश्वासियों के लहजे में बात करते हैं। ऐसे लोग जड़ और मंदबुद्धि होते हैं। इसकी वजह क्या है? (सत्य का अनुसरण न करने से ऐसा होता है।) लोग बाहर से जड़ और मंदबुद्धि दिख सकते हैं, पर वे अंदर से कैसे हैं? वे अंदर से मुरझाए हुए हैं, दूसरे शब्दों में वे अभी भी सत्य से सिंचित और पोषित नहीं हैं। वे अभी भी भूखे हैं, और उन्होंने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है। इसलिए वे जड़ और थकी हुई जिंदगी जीते हैं, वे प्रतिक्रिया देने में सुस्त होते हैं, जब कुछ होता है तो वे विशेष रूप से असहाय हो जाते हैं, और समय-समय पर कहते हैं, “परमेश्वर, मुझे नहीं पता कि मैं क्या करूँ!” “मैं भ्रमित हूँ!” या “मेरे सामने कोई मार्ग नहीं है!” ये वचन हमेशा उनकी जबान पर रहते हैं। क्या ये शब्द अच्छे हैं? (नहीं, ये अच्छे नहीं हैं।) तो फिर क्यों कुछ लोग इन्हें हमेशा सीख जाते हैं? यहाँ तक कि ये लोकप्रिय शब्द बन चुके हैं। ये शब्द मुझे अजीब से क्यों लगते हैं? वे अच्छे शब्द नहीं हैं, और उन्हें सीखने की कोई जरूरत नहीं है। लोकप्रिय चीजों पर ध्यान मत दो, इसके बजाय सत्य पर और अपनी व्यावहारिक समस्याओं के समाधान पर ध्यान दो। तुम्हें इस पर चिंतन जरूर करना चाहिए कि जब चीजें घटित होती हैं, तो तुम्हारे विचार, रवैया, इरादा और शुरुआती बिंदु क्या किसी भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करते हैं? तुम्हें इस पर विचार करना चाहिए। चाहे जो भी घटित हो, क्या तुम इसके समाधान के लिए शैतानी फलसफे पर भरोसा कर इंसानी तरीके इस्तेमाल करते हो या तुम सत्य खोजते हो और इसे परमेश्वर के वचनों के मुताबिक हल करते हो या तुम समझौते वाला मध्यमार्गी रवैया अपनाते हो? तुम्हारा चुना हुआ विकल्प यह उजागर करता है कि क्या तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम कर इसका अनुसरण करता है। यदि तुम समस्याओं के हल के लिए हमेशा शैतानी फलसफे और इंसानी तरीकों पर भरोसे का विकल्प चुनते हो तो इसका दुष्परिणाम यह होगा कि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे, न तुम्हें प्रबोधन और रोशनी मिलेगी और न ही पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन मिलेगा। यही नहीं, तुम्हारे भीतर परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा हो जाएँगी, और आखिरकार परमेश्वर तुमसे तिरस्कार कर तुम्हें निकाल देगा। लेकिन अगर तुम सभी चीजों में सत्य खोज सके और परमेश्वर के वचनों के अनुसार उन्हें हल कर सके, तब तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन, रोशनी और मार्गदर्शन प्राप्त कर लोगे। सत्य की तुम्हारी समझ पहले से अधिक स्पष्ट हो जाएगी, और तुम परमेश्वर को अधिक से अधिक जान पाओगे; और इस तरह तुम सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसे प्रेम कर पाओगे। इस प्रकार से कुछ समय तक अभ्यास और अनुभव करके तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव पहले से अधिक स्वच्छ हो जाएँगे, और कम ही मौके होंगे जब तुम परमेश्वर से विद्रोह करोगे, और अंततः तुम परमेश्वर के साथ पूर्ण अनुरूपता हासिल कर लोगे। यदि तुम हमेशा समझौता करने वाला मध्यमार्गी रवैया अपनाते हो तो तुम वास्तव में समस्याओं के हल के लिए अभी भी शैतानी फलसफे पर भरोसा कर रहे हो। इस तरह जीने से तुम्हें कभी भी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी, केवल यही होगा कि खुलासा कर तुम्हें निकाल दिया जाएगा। यदि तुमने परमेश्वर में विश्वास का गलत मार्ग चुना है, धर्म-संबंधी तरीका चुना है, तो तुम्हें जल्दी से अपना रास्ता बदलना पड़ेगा, कगार से पहले ही पीछे हटना होगा और सही मार्ग अपनाना होगा। तब तुम्हारे उद्धार प्राप्त करने की आशा बनी रहेगी। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करने का सही मार्ग प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें इसके लिए खोजना होगा और स्वयं ही टटोलना होगा। जिस व्यक्ति के पास आध्यात्मिक समझ होती है, उसे अनुभव की एक अवधि के बाद सही रास्ता मिल जाएगा।

तो हमने अभी-अभी किस बारे में संगति की? (हमने यह संगति की कि सत्य के अनुसरण से मुख्य रूप से किन चीजों का समाधान होता है, यानी परमेश्वर के बारे में लोगों के तमाम गलत विचारों और लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान। हमने इस पर भी संगति की कि जब लोगों के साथ चीजें घटित होती हैं तो उनके विचार, रवैये और इरादे क्या होते हैं, और क्या वे इन चीजों का समाधान शैतानी फलसफों, इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं की मदद लेकर करते हैं या उन्हें सत्य की खोज के जरिए हल करते हैं।) ये वचन याद रखना आसान हैं, मगर महत्वपूर्ण यह है कि कुछ घटित होने पर क्या तुम उसे परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कस पाते हो और अभ्यास के सिद्धांत ढूँढ़ने में सक्षम रहते हो। यदि तुम सिद्धांत को अमल में ला सको तो फिर तुम सत्य को अभ्यास में ला पाओगे, और यदि तुम सत्य को अभ्यास में ला सकोगे तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकताएँ होंगी। सत्य को समझने का अर्थ यह नहीं है कि तुमने सत्य हासिल कर लिया है। जब तुम सत्य को अभ्यास में ला पाओगे, केवल तभी उसे सचमुच समझ सकोगे। यदि तुम अक्सर सत्य को अभ्यास में लाते हो, और ऐसा पूरी तरह से सिद्धांतों के अनुसार करते हो, तो इसे सत्य हासिल करना कहते हैं। सिर्फ वचनों और सिद्धांतों के बारे में बात करने में सक्षम होने को अच्छी काबिलियत नहीं माना जा सकता। यदि संकट आने पर तुम समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोज सको, तभी तुम में समझने-बूझने की क्षमता होगी। सबसे अहम बात है व्यावहारिक समस्याएँ हल कर पाना। उदाहरण के लिए, अगर किसी भाई-बहन के साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं और वे अपनी गड़बड़ियाँ तुमसे पूछें तो तुम्हें ये कैसे बतानी चाहिए? इसका संबंध इस बात से है कि तुम इस मामले में क्या दृष्टिकोण अपनाते हो। क्या तुम्हारा दृष्टिकोण सत्य सिद्धांतों पर आधारित है, या तुम सांसारिक आचरण के फलसफों का उपयोग करते हो? अगर तुम स्पष्ट रूप से देख लेते हो कि उनमें समस्या है, लेकिन अपना संबंध खराब होने से बचने के लिए तुम उसे सीधे न बताकर यह बहाने बनाते हो, “अभी मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और मैं तुम्हारी समस्याएँ पूरी तरह से नहीं समझता। जब मैं समझ लूँगा तो तुम्हें जरूर बताऊँगा,” तो फिर मसला क्या है? इसमें सांसारिक आचरण का एक फलसफा शामिल है। क्या यह दूसरों को बेवकूफ बनाने की कोशिश नहीं है? तुम्हें उतना बोलना चाहिए जितना तुम स्पष्ट रूप से देख सकते हो; और अगर कोई चीज तुम्हें स्पष्ट पता न हो, तो ऐसा ही कह डालो। यह अपने दिल की बात कहना है। अगर तुम्हारे मन में कुछ विचार हैं और तुम्हें कुछ चीजें स्पष्ट पता हैं, लेकिन तुम उन्हें ठेस पहुँचाने से डरते हो, उनकी भावनाएँ आहत करने से भयभीत रहते हो और इसलिए कुछ नहीं बोलना चाहते, तो इसे सांसारिक आचरण के फलसफे के अनुसार जीना कहते हैं। अगर तुम जान लेते हो कि किसी को कोई समस्या है या वह भटक गया है, तो भले ही तुम प्यार से उसकी मदद न कर पाओ, लेकिन तुम्हें कम-से-कम समस्या तो बता ही देनी चाहिए, ताकि वह उस पर विचार कर सके। अगर तुम इसे अनदेखा करते हो, तो क्या यह उसे नुकसान पहुँचाना नहीं है? यदि तुम उनकी एक बार मदद करते हो और यह जान लेते हो कि वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, कि वे अविवेकपूर्ण हैं, उनका शातिर स्वभाव है, और मूल रूप से वे सत्य से प्रेम नहीं करते, तब तुम्हारे लिए बुद्धिमानी होगी कि तुम उन्हें उनकी समस्याओं के बारे में इंगित न करो। लेकिन अगर तुम उस व्यक्ति को भी समस्याएँ इंगित नहीं करते जो सत्य स्वीकार कर सकता है, तो तुममें प्रेम नहीं है। यदि तुम अपने भाई-बहनों से इसी प्रकार संवाद करते हो, तो तुम सिर्फ खेल खेल रहे हो, चतुर शब्दों से लोगों को बरगला रहे हो, और हमेशा दूसरे लोगों पर हँसना चाहते हो। जो लोग इस प्रकार का व्यवहार करते हैं, वे अच्छे लोग नहीं हैं, और इसमें एक स्वभाव शामिल है। ऐसे लोग पूरी तरह से शैतानी दर्शनों के अनुसार जी रहे हैं, वे सामान्य मानवता की सूझ-बूझ से बोल और कार्य नहीं कर रहे हैं, न ही वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार कर रहे हैं। तो फिर, सत्य सिद्धांतों के अनुसार, तुम्हें इस मामले के प्रति कैसा रवैया रखना चाहिए? सत्य के साथ कौन-सी कार्रवाई मेल खाती है? इसमें कितने प्रासंगिक सिद्धांत हैं? पहले, कम से कम, दूसरों के लिए ठोकर का कारण न बनो। तुम्हें पहले दूसरे की कमजोरियों पर, और इस बात पर विचार करना चाहिए कि उनके साथ किस तरह बात करने से वे ठोकर नहीं खाएँगे। कम-से-कम इस बात का ध्यान रखना तो जरूरी है। इसके बाद, अगर तुम जानते हो कि वे ऐसे व्यक्ति हैं जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य स्वीकार सकते हैं, तो जब तुम देखो कि उन्हें कोई समस्या है, तो तुम्हें उनकी मदद करने की पहल करनी चाहिए। अगर तुम कुछ नहीं करते और उन पर हँसते हो, तो यह उन्हें चोट और नुकसान पहुँचाना है। जो ऐसा करता है, उसमें जमीर या विवेक नहीं होता, और उसमें दूसरों के लिए प्रेम नहीं होता। जिनमें जरा-सा भी जमीर और विवेक होता है, वे अपने भाई-बहनों पर हँस नहीं सकते। उन्हें उनकी समस्या हल करने में मदद करने के लिए विभिन्न तरीकों के बारे में सोचना चाहिए। उन्हें यह समझाना चाहिए कि बात क्या हुई है और उनकी गलती कहाँ है। वे पश्चात्ताप कर सकते हैं या नहीं, यह उनका अपना मामला है; हम अपनी जिम्मेदारी निभा चुके होंगे। भले ही वे अभी पश्चात्ताप न करें, देर-सवेर एक दिन आएगा जब वे होश में आएँगे, और वे तुम्हारे बारे में शिकायत नहीं करेंगे या तुम पर आरोप नहीं लगाएँगे। कम से कम, तुम अपने भाई-बहनों के साथ जैसा व्यवहार करते हो, वह जमीर और विवेक के मानकों से नीचे नहीं हो सकता। खुद को दूसरों का ऋणी मत बनाओ; जिस हद तक उनकी मदद कर सको, करो। लोगों को यही करना चाहिए। जो लोग अपने भाई-बहनों के साथ प्रेम से और सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार कर सकते हैं, वे उत्तम प्रकार के लोग होते हैं। वे परम दयालु भी होते हैं। निस्संदेह, सच्चे भाई-बहन वे लोग होते हैं, जो सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति केवल भरपेट खाने या आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करता है, लेकिन सत्य नहीं स्वीकारता, तो वह भाई या बहन नहीं है। तुम्हें सच्चे भाई-बहनों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। चाहे वे जैसे भी परमेश्वर पर विश्वास करते हों या वे जिस भी रास्ते पर हों, तुम्हें प्रेम की भावना से उनकी मदद करनी चाहिए। व्यक्ति को न्यूनतम क्या प्रभाव प्राप्त करना चाहिए? पहला, वह उनके ठोकर खाने का कारण न बने और उन्हें नकारात्मक न बनने दे; दूसरा, वह उनकी मदद करता हो और उन्हें गलत मार्ग से वापस लौटा लाए; और तीसरा, वह उन्हें सत्य समझाए और उनसे सही मार्ग चुनवाए। ये तीन प्रकार के प्रभाव केवल उन्हें प्रेम की भावना से मदद करके ही प्राप्त किए जा सकते हैं। अगर तुममें सच्चा प्रेम नहीं है, तो तुम ये तीन प्रकार के प्रभाव प्राप्त नहीं कर सकते, ज्यादा से ज्यादा एक या दो प्रकार के प्रभाव ही प्राप्त कर सकते हो। ये तीन प्रकार के प्रभाव दूसरों की मदद करने के तीन सिद्धांत भी हैं। तुम ये तीन सिद्धांत जानते हो और इन्हें अच्छी तरह समझते हो, लेकिन इन्हें वास्तव में कैसे लागू किया जाता है? क्या तुम वास्तव में दूसरे की कठिनाई को समझते हो? क्या यह एक अलग समस्या नहीं है? तुम्हें यह भी सोचना चाहिए : “उसकी कठिनाई का मूल क्या है? क्या मैं उसकी मदद करने में सक्षम हूँ? अगर मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और मैं समस्या हल नहीं कर सकता और लापरवाही से बोलता हूँ, तो मैं उन्हें गलत रास्ते पर ले जा सकता हूँ। इसके अतिरिक्त, इस व्यक्ति की समझने की क्षमता कैसी है, और उसकी काबिलियत क्या है? क्या वह दुराग्रही है? क्या उसे आध्यात्मिक समझ होती है? क्या वह सत्य को स्वीकार कर सकता है? क्या वह सत्य की तलाश करता है? अगर वह देखता है कि मैं उससे ज्यादा सक्षम हूँ, और मैं उसके साथ संगति करता हूँ, तो क्या उसमें ईर्ष्या या नकारात्मकता पैदा होगी?” इन सभी प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए। इन प्रश्नों पर विचार कर इन पर स्पष्टता प्राप्त कर लेने के बाद उस व्यक्ति के साथ संगति करो, परमेश्वर के वचनों के कई अंश पढ़ो जो उसकी समस्या पर लागू होते हों, और उसे परमेश्वर के वचनों में सत्य समझने और अभ्यास का मार्ग खोजने में सक्षम बनाओ। तब समस्या का समाधान होगा और वे अपनी कठिनाई से बाहर निकल पाएँगे। क्या यह सरल मामला है? यह सरल मामला नहीं है। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम चाहे जितना भी बोलो, वह किसी काम का नहीं होगा। अगर तुम सत्य समझते हो, तो उन्हें बस कुछ ही वाक्यों से प्रबुद्ध कर लाभ पहुँचा सकते हो। प्रेम के साथ लोगों की मदद करने की कुंजी समस्या के बारे में परमेश्वर के वचनों के कुछ अंशों पर संगति करना है, और यह तरीका सबसे अधिक प्रभावी है। यदि तुम परमेश्वर के वचनों पर संगति नहीं करते, और सिर्फ इंसान के वचनों का प्रयोग करने का प्रयास करते हो, तो तुम कभी भी कोई व्यावहारिक समस्या हल नहीं कर पाओगे, फिर चाहे तुम कितने ही वचन बोलो। कुछ लोग दूसरों को केवल प्रोत्साहित कर सकते हैं, चाहे लोग जैसी समस्याओं से जूझ रहे हों, वे कहेंगे, “परमेश्वर के वचन ज्यादा पढ़ो और उनमें सत्य खोजो, तब समस्या का समाधान करना आसान हो जाएगा।” या “तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए, और इतना काफी है। तुम कभी निराश नहीं होगे, क्योंकि परमेश्वर को प्रेम करने से तुम्हारी सभी समस्याएँ हल हो जाएँगी।” यह इतना आसान भी नहीं है। क्या परमेश्वर से प्रेम करने की बात कहते ही इसका अभ्यास किया जा सकता है? यदि लोग सत्य को नहीं समझते तो परमेश्वर से प्रेम कैसे करेंगे? अगर लोग परमेश्वर के कार्य को नहीं जानेंगे तो उससे प्रेम कैसे करेंगे? यदि लोग सचमुच परमेश्वर से प्रेम करते हैं, तो वे कभी निराश नहीं होंगे, और उन्हें कोई समस्या नहीं होगी। परमेश्वर से प्रेम करना कोई साधारण बात नहीं है, और क्या यह सिर्फ कुछ धर्म-सिद्धांतों को बोलने या कुछ नारे लगा देने से पूरा हो जाता है? परमेश्वर के प्रति समर्पण करना तो और भी आसान नहीं है, और ऐसा नहीं है कि प्रोत्साहन के कुछ शब्द बोल देने से कोई परमेश्वर के प्रति समर्पण करने लगेगा। भले ही परमेश्वर के वचनों पर संगति से तत्काल लोगों को थोड़ा लाभ हो जाए, पर ऐसा नहीं है कि सत्य पर बस एक बार संगति करके तुम उनके विद्रोह की समस्या हल कर सकते हो और उन्हें परमेश्वर के समक्ष समर्पण के लिए ला सकते हो, और ऐसा नहीं है कि तुम स्पष्टता के साथ सत्य पर संगति करोगे तो लोग तुरंत परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो जाएँगे। नतीजे हासिल करने के लिए लोगों को न्याय, ताड़ना और काट-छाँट का अनुभव करना पड़ेगा। जो लोग दूसरों को प्रोत्साहित करने के लिए हमेशा शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलते रहते हैं, वे सबसे उथले होते हैं। उनके पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं होतीं, वे हमेशा लोगों की मदद के लिए शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर बोलने के भरोसे रहते हैं, और उन्हें कोई नतीजा हासिल नहीं होता। इसे अनमना होना कहते हैं, और यह लोगों से व्यवहार करने का ईमानदार तरीका नहीं है; यह बेहद फर्जी तरीका है, यह सहृदय नहीं है। कुल मिलाकर इस प्रकार का व्यक्ति ढोंगी होता है। यदि तुम्हारे पास लोगों के लिए सहानुभूति और प्रेम वाला दिल नहीं है, तो तुम लोगों की मदद कैसे करोगे? किसी समस्या को हल करना सचमुच आसान नहीं होता। तुम्हें सत्य को समझना होगा, समस्या की असलियत जाननी होगी और फिर सत्य सिद्धांतों के अनुसार दूसरों के साथ स्पष्ट रूप से संगति करनी होगी, और अभ्यास के मार्ग पर इस तरह संगति करने में सक्षम होना पड़ेगा जिसे दूसरे समझ लें। इस प्रकार लोग न केवल सत्य को समझेंगे बल्कि उनके पास उसे अभ्यास में लाने का मार्ग भी होगा, केवल तभी समस्या को हल हुआ माना जा सकेगा। तुम्हें इन चीजों से गुजरना होगा; समझ तुम्हारे व्यावहारिक, प्रत्यक्ष अनुभव से आएगी। तुम सत्य पर जितनी संगति करोगे, उतना ही अधिक यह स्पष्ट होता जाएगा, उतना ही तुम्हारा हृदय आश्वस्त होता जाएगा, और उतना ही तुम्हारे पास आगे बढ़ने का मार्ग होगा। जब तुम वास्तव में सत्य को समझोगे, तो तुम्हें पता चलेगा कि उसे अभ्यास में कैसे लाना है। परमेश्वर में विश्वास करने वालों को इसी तरह से अनुभव करना चाहिए, उन्हें अपनी समस्याएँ एक-एक करके हल करनी चाहिए, और हर बार जब वे एक समस्या का समाधान करते हैं, उन्हें एक प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना पड़ता है। जब वे कई समस्याओं का समाधान कर लेंगे, तो उनके भ्रष्ट स्वभाव भी कमोबेश हल हो चुके होंगे। इस प्रकार जितना ही अधिक वे समस्याओं को हल करेंगे, उतने कम भ्रष्ट स्वभाव उनमें होंगे और उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पण की उतनी ही अधिक वास्तविकताएँ होंगी। इस तरह से लोग बिना जाने ही सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कर जाएँगे। लोग जितनी ज्यादा समस्याएँ हल करेंगे और जितने ज्यादा सत्यों को समझेंगे, सत्य के अभ्यास के उतने ही ज्यादा मार्ग उनके पास होंगे; वे जितनी ज्यादा समस्याएँ हल करेंगे, उतना ही वे भ्रष्ट स्वभावों को स्वच्छ करेंगे, उतना ही वे सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करेंगे। परमेश्वर में विश्वास करने की यही प्रक्रिया है : तुम निरंतर समस्याओं का पता लगाते हो और उन्हें हल करते हो—एक बार जब तुम एक समस्या हल कर लेते हो, तो तुम्हें दूसरी का पता चलता है और तुम उसे हल करते हो और अंत में तुम कई समस्याएँ हल कर लेते हो, तुम सत्य को समझने लगते हो, और अगर समस्या फिर से सामने आई, तो तुम स्वयं ही उसे तुरंत हल कर लोगे। इस तरह धीरे-धीरे तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ता है। समस्याओं और कठिनाइयों के कम होते रहने से तुम निश्चित ही कम भ्रष्टता प्रकट करोगे, परमेश्वर के प्रति और भी अधिक समर्पण करोगे, और तुम्हारे पास अधिक अनुभवजन्य गवाही होगी। इस तरह बिना एहसास किए तुम्हारा जीवन स्वभाव बदल जाएगा, और तुम आखिर में परमेश्वर के साथ अनुरूपता हासिल कर लोगे। तुममें कोई विद्रोहीपन नहीं होगा, और तुम सत्य को अभ्यास में ला पाओगे और किसी भी मामले में परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाओगे। इसका मतलब है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ चुका होगा और तुम पूरी तरह उद्धार प्राप्त कर चुके होगे।

सत्य को अभ्यास में लाना आसान है, लेकिन अगर तुम में समझने की पर्याप्त क्षमता नहीं है या तुम्हारा दिल इसमें नहीं है, और तुम हमेशा ढीले या अनमने रहते हो, तो तुम कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं कर पाओगे। तो फिर कोई सत्य को कैसे प्राप्त कर सकता है? क्या यह संदिग्ध चालों से या बलपूर्वक संभव है? नहीं। यह धीरे-धीरे प्राप्त किया जाता है, जैसे-जैसे तुम वास्तविक जीवन से गुजरते जाते हो, थोड़ा-थोड़ा, संचय के माध्यम से, खोजते हुए, प्रत्यक्ष अनुभव के जरिए और टटोलते हुए इसे पाते हो। यही वह तरीका भी है, जिससे पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन करता है, कभी-कभी तुम्हें बस कुछ वचन दे देता है, जिन्हें तुम उस समय समझ नहीं पाते, पर कुछ दिन बाद सत्य को खोजकर तुम इन्हें समझ लेते हो और तब तुम्हारा हृदय चमक उठता है, और तुम्हें एक मार्ग मिल जाता है। तुम लाभ प्राप्त करते हो पर दूसरे नहीं कर पाते, और तुम सत्य के इस पहलू में विकसित हो जाते हो। तुम पर मेहरबानी हो रही है। सत्य के कुछ विवरण महसूस और अनुभव किए जाने चाहिए, और जैसे-जैसे तुम्हारा अनुभव गहरा और अधिक विस्तृत होता जाएगा, तुम्हें अपना मार्ग अधिक सटीकता से महसूस होने लगेगा। तुम उसे जाने बिना भी इस मार्ग पर सत्य की खोज और उसका अभ्यास करने के लिए चल पड़ोगे। तुम्हें सत्य की अपनी समझ के आधार पर और भी अधिक प्रबोधन प्राप्त होगा, और तुम सत्य के और भी अधिक विवरण और सत्य वास्तविकताएँ समझोगे। यही सत्य के अनुसरण का मार्ग है। यदि तुम इसका अनुभव और अभ्यास कर सकते हो, तो तुम्हें महसूस होगा कि सत्य को अभ्यास में लाना मुश्किल नहीं है, लेकिन अगर तुम इस तरह से अभ्यास नहीं करते, तब तुम्हें हमेशा महसूस होगा कि यह अमूर्त और कठिन है, यूनिवर्सिटी में पढ़ने से या उन्नत तकनीकी पर शोध करने से कहीं ज्यादा कठिन है। मगर वास्तव में यह सिर्फ अपने हृदय को उपयोग में लाने का मामला है। किसी पेशेवर ज्ञान या सिद्धांत को सीखना स्मृति, मानसिक विश्लेषण और शोध पर निर्भर होता है, मगर केवल सत्य ही है जिसे पाने के लिए हृदय को उपयोग में लाना होता है। तुम्हें इसे अनुभव करने और इसे चखने के लिए अपने हृदय का उपयोग करना पड़ेगा, और उसका अनुभव कैसे हो, इसे सोचने के लिए प्रयास करने पड़ेंगे। धीरे-धीरे तुम सत्य को अभ्यास में लाने के लिए सही मार्ग ढूँढ़कर उसे प्राप्त कर लोगे। तब तुम्हें एक खजाना प्राप्त हो चुका होगा। सत्य को प्राप्त करने का रहस्य क्या है? पहली बात, अपने आसपास घटित होने वाली चीजों से निपटने के लिए शैतानी सोच, तर्क, सांसारिक आचरण के फलसफे या तरकीबों का इस्तेमाल न करो। इनसे कामयाबी मिलने की संभावना नहीं है, क्योंकि अगर तुम शैतानी फलसफों के सहारे जीते हो तो कभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे। चीजों के घटित होते समय अगर तुम्हारी पहली प्रतिक्रिया इन्हें इंसानी तरीकों और तकनीकों का इस्तेमाल करके सँभालने और हल करने की होती है, और तुम हमेशा अपने निजी हितों और छवि का बचाव करना चाहते हो, तो यह बंद रास्ते की ओर ले जाएगा। यदि तुम समस्या का सामना करते हुए सत्य खोज सकते हो, अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर उसके इरादे खोज सकते हो, और जान पाते हो कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं में तुम्हें कौन से सबक सीखने चाहिए और किन सत्यों को समझना चाहिए, तो यह सही है। इसलिए सत्य का अनुसरण न करने वालों के साथ चाहे जो भी हो, वे हमेशा जड़, बेढंगे, दुविधाग्रस्त, असहाय और मार्गहीन होते हैं। असल में परमेश्वर लोगों को सत्य प्राप्त करने के बहुत से अवसर देता है, लेकिन सत्य से प्रेम न करने के कारण वे गलत मार्ग चुनते हैं और इसे पाने से चूक जाते हैं।

जो लोग भ्रष्ट स्वभावों के बीच जीते हैं, वे रुतबे, दिखावे, लाभ और इच्छा के लिए जीते हैं। सारी भ्रष्ट मानवता वास्तव में कुछ मामूली अंतर के साथ ऐसी ही है। चाहे किसी व्यक्ति में जितने भी भ्रष्ट स्वभाव हों, परमेश्वर में विश्वास करने के बाद वे सभी जो सत्य से प्रेम करते हैं, परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और उनका अनुभव कर अपने भ्रष्ट स्वभावों की समझ हासिल कर सकते हैं, और उनके कई भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे हल हो जाएँगे, और वे कम से कम भ्रष्टता प्रकट करेंगे। वे अविश्वासियों की तुलना में पूरी तरह अलग होते हैं, ये दो अलग-अलग तरह के लोग होते हैं, और क्या यह बदलाव सत्य के अनुसरण से हासिल नहीं हुआ है? ये लोग अविश्वासी शैतान से ऐसे वास्तविक लोगों में रूपांतरित हो जाते हैं जिन्होंने परमेश्वर में विश्वास करने के बाद सत्य प्राप्त कर लिया है और जो मनुष्य के समान जीते हैं; यह परमेश्वर में विश्वास की प्राप्ति और फल है। मगर जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं करते, वर्षों के विश्वास के बावजूद बिल्कुल नहीं बदलते, और अभी भी अविश्वासियों के समान हैं—इस प्रकार के व्यक्ति निकाल दिए जाएँगे। परमेश्वर में समान रूप से विश्वास करने वाले और अपने कर्तव्य निभाने वाले लोगों के बीच इतना बड़ा अंतर क्यों हैं? महत्वपूर्ण बात यह है कि सत्य के प्रति उनके रवैये भिन्न हैं। जो सत्य को प्रेम करते हैं, वे जितना अधिक परमेश्वर के वचन पढ़ेंगे, उनके हृदय उतने ही रोशन होते जाएँगे, और जितना वे धर्मोपदेश सुनेंगे, उतना ही उन्हें समझेंगे—वे हमेशा प्रगति करते रहेंगे। मगर जिन्हें सत्य से प्रेम नहीं है, उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने में आनंद नहीं आता, न ही वे सत्य को अभ्यास में लाने के लिए प्रयास करते हैं, इसलिए उनके भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं किया जा सकता या उन्हें त्यागा नहीं जा सकता। अगर वे कोशिश करें तो भी अपने भ्रष्ट स्वभावों को छिपा नहीं सकते या चाहें भी तो इन्हें ढक नहीं सकते। ऐसा इसलिए है कि सभी भ्रष्ट इंसान शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हैं, फिर चाहे वे अविश्वासी हों या परमेश्वर में विश्वास करने वाले हों, उनके भ्रष्ट शैतानी स्वभावों का सार वास्तव में एक जैसा होता है, और वे सभी रुतबे, छवि, लाभ और इच्छा के लिए जीते हैं। लोग किस बात के लिए बहस करते हैं? किस बात के लिए वे एक दूसरे को बुरी तरह पीटते हैं? यह सब इन्हीं चीजों के लिए है, और कोई भी तरीका हो, तकनीक हो या स्वरूप हो, लक्ष्य असल में वही होता है। शैतान को बीच हवा में ही क्यों गिरा दिया गया? (क्योंकि उसने परमेश्वर के साथ रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा की थी।) यह शैतान का असली चेहरा है। आजकल शैतान के “आनुवंशिक गुण” भ्रष्ट मानवजाति में चले गए हैं, उसे भ्रष्ट कर रहे हैं, इसलिए लोग शैतान के समान बन गए हैं, उन्होंने शैतान का रूप धारण कर लिया है और वे शैतान की तरह ही जीते हैं। यदि तुम शैतान के प्रकृति सार में मौजूद भ्रष्ट स्वभावों की पहचान कर सकते हो, और फिर एक-एक करके उन्हें हल कर सकते हो, तो तुम्हें बचा लिया जाएगा और तुम शैतान के प्रभाव से मुक्त हो सकते हो। क्या भ्रष्ट स्वभावों की समस्या को हल करना कठिन है? (यह उनके लिए कठिन नहीं है जो सत्य का अनुसरण करते हैं, लेकिन ज्यादातर समय हम सत्य को अभ्यास में लाने को तैयार नहीं होते, और बस अपनी इच्छा के अनुसार काम करते हैं। जब हमारी काट-छाँट होती है तो हम कुछ समय के लिए निराश और परेशान हो जाते हैं, और उसके बाद ही अनिच्छा से सत्य के अनुसार अभ्यास करते हैं।) सत्य से प्रेम न करने वाले सभी लोग इसी प्रकार के होते हैं, और सत्य को थोड़ा-सा भी अभ्यास में लाने के लिए दूसरों को उनसे आग्रह करना पड़ता है, उन्हें धकेलना और खींचना पड़ता है। सत्य को अभ्यास में लाने के लिए सबसे बड़ी कठिनाई क्या है? अब कुछ लोग साफ-साफ देख पाते हैं कि सबसे बड़ी कठिनाई प्रमुख रूप से वे बाधाएँ हैं, जो भ्रष्ट स्वभावों के कारण आती हैं। इनका कारण प्रसिद्धि, लाभ, रुतबे, दिखावे और छवि से लोगों का प्रेम है। लोगों के बीच बातचीत, विवाद और बहसें सभी ये देखने वाली प्रतियोगिताएँ हैं कि उनमें कौन श्रेष्ठ है—जो भी दूसरे को कायल कर लेता है, वही अच्छा दिखता है। ये सभी प्रतियोगिताएँ इस बारे में हैं कि किसके पास अंतर्दृष्टि, योग्यता या अधिकार है, और आखिरी निर्णय किसका होता है। इन चीजों को लेकर होड़ का कोई अंत नहीं, और इन सब के पीछे शैतान का स्वभाव छिपा होता है, जो प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए जीता है। यह असलियत जान लो और समस्या आसानी से हल की जा सकती है। कम-से-कम पहले उन सतही स्तर की चीजों का समाधान करो, जो आसानी से हल की जा सकती हैं, और फिर धीरे-धीरे परमेश्वर के प्रति गलतफहमियों, अटकलों, संदेहों और शिकायतों को हल करो जो तुम्हारे अंतरतम हृदय में हैं, साथ ही विरोध, परीक्षाओं और प्रतिस्पर्धा को भी हल करो जो वहाँ छिपे बैठे हैं। एक बार इनके पूरी तरह हल हो जाने पर तुम अय्यूब की तरह हो जाओगे, जो परमेश्वर की नजर में पूर्ण व्यक्ति था। परमेश्वर ने ऐसा क्यों कहा कि अय्यूब एक पूर्ण व्यक्ति था? परमेश्वर द्वारा उसके परीक्षण के दौरान हम देख सकते हैं कि जब परमेश्वर की बात आई तो उसने कोई विरोध या परीक्षण नहीं किया। अपने जीवन में और उस दौरान जब उसने सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता का अनुभव किया, उसके विद्रोहीपन और प्रतिरोध जैसी सभी चीजों की काट-छाँट और समाधान कर दिया गया। जब एक बार इन नकारात्मक चीजों का समाधान हो गया तो परमेश्वर के परीक्षणों का सामना करते समय उसका व्यवहार समस्त भ्रष्ट मानवजाति के मुकाबले पूरी तरह अलग था। अपने परीक्षणों के दौरान उसका यह कथन, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” क्या एक धर्म-सिद्धांत है? निश्चित रूप से नहीं। इन शब्दों में वजन है और इन्हें पहले कभी किसी ने नहीं कहा था; इन्हें पहली बार अय्यूब ने कहा था, जो उसके निजी अनुभवों से पैदा हुए थे।

जब तुम लोग स्वयं को रोजाना इतना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते देखते हो, और बिना किसी बदलाव के हमेशा शैतानी स्वभाव के बीच जी रहे होते हो, तो क्या तुम चिंतित होते हो? (हाँ। मुझे चिंता होती है और कभी-कभी मुझे पीड़ा महसूस होती है।) चिंता करने की तरह पीड़ा महसूस करना सामान्य है। मगर चाहे तुम जितना भी चिंतित हो लो या पीड़ा महसूस करो, तुम्हें शांत होकर यह खोजना होगा कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों को कैसे हल करोगे। यही सही मनःस्थिति है। अगर तुम कई वर्ष से पीड़ा महसूस कर रहे हो और अभी तक तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं हुआ है, तो यह नहीं चलेगा और पीड़ा की यह भावना निरर्थक है। तुम्हें विचार करना चाहिए, “मेरी कौन सी समस्याएँ हल हो चुकी हैं? किन भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो चुका है? किन मामलों में मैं अब परमेश्वर से शिकायत नहीं करता?” तुम्हें हमेशा स्वयं से यह पूछना चाहिए। यदि तुम कहते हो, “मैं हमेशा ऐसी चीज के सामने आने पर शिकायत किया करता था और बड़बड़ाता रहता था, परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ पालता था, लेकिन अब फिर से ऐसा होने पर मैं शिकायत नहीं करता और परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ नहीं पालता,” तो इससे पता चलता है कि तुमने अपना समय खराब नहीं किया है। एक बार जब तुम सत्य को समझकर उसे प्राप्त कर लेते हो तो परमेश्वर को लेकर तुम्हारा अलग ही रवैया होगा और स्वाभाविक तौर पर तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होगा और समर्पण करने वाली मनःस्थिति होगी। यह कोई साधारण श्रद्धा या दूर से आदर जताना, लालसा, प्रेम, लगाव या निर्भरता नहीं है; यह बस ये चीजें नहीं हैं, यह वास्तविक भय है। आज की भ्रष्ट मानवजाति के लिए परमेश्वर का भय मानने की बात करना अभी भी बहुत जल्दी और बहुत दूर की बात है। इसलिए तुम लोगों को पहले किस चीज का अनुसरण करना चाहिए? चाहे जो हो जाए, परमेश्वर को लेकर संदेह मत करो। तुम संदेह करने से कैसे बच सकते हो? पहली बात, तुम्हें जानना होगा कि परमेश्वर के इरादे क्या हैं, और सत्य क्या है। दूसरी बात, जब चीजें तुम्हारी धारणाओं के अनुसार नहीं होतीं, तो परमेश्वर से शिकायत न करो या उसे लेकर गलतफहमियाँ न पालो। गलतफहमियाँ पालने से कैसे बच सकते हो? तुम्हें सत्य को समझना चाहिए और तब धीरे-धीरे परमेश्वर को लेकर अपनी धारणाओं और गलतफहमियों को एक-एक करके तोड़ना और हल करना चाहिए। वो दिन आएगा जब तुम्हें चाहे जितने बड़े परीक्षण या क्लेश का सामना करना पड़े, तुम प्रतिरोध नहीं करोगे, इसके बजाय तुम्हारे भीतर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होगा, और चाहे वह तुम्हारी जितनी परीक्षा ले, तुम समर्पण करने में सक्षम रहोगे। तब तुम सफलता पा चुके होगे। तुम लोग अभी किस स्तर पर हो? जब चीजें होती हैं, तुम विचार करते हो, “क्या यह परमेश्वर कर रहा है? क्या उसका ऐसा करना सही है?” या कभी यह भी सोचते हो, “परमेश्वर कहाँ है? क्या परमेश्वर है भी? मैं उसे महसूस क्यों नहीं कर पाता?” ऐसे कई विचार और दशाएँ होती हैं, और यह सही नहीं है, क्योंकि तुम अभी भी पूर्ण बनाए जाने के मार्ग से दूर हो। तुम्हें अपने अनुसरण में कड़ा परिश्रम करना चाहिए, क्योंकि फिलहाल तुम्हारा आध्यात्मिक कद अभी बहुत छोटा है, सत्य वास्तविकताओं को रखने के मानक से नीचे है। यह मत सोचो कि तुम सही हो और तुम्हारे पास कुछ वास्तविकताएँ हैं, इसलिए तुम स्वर्ग जाकर देवदूत बन सकते हो। तुम्हारी कुछ वास्तविकताएँ अभी भी काफी कम हैं; यहाँ तक कि अगर तुम्हें पंख भी लगा दिए जाएँ तब भी तुम कोई देवदूत नहीं बन जाओगे। अपने बारे में बहुत अच्छा या बहुत ऊँचा मत सोचो, तुम्हारे भीतर थोड़ा आत्मबोध होना चाहिए। क्या तुम परमेश्वर की गवाही दे सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के उपयोग के लिए उपयुक्त हो? इस आधार पर आँकें तो तुम अभी भी परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत पीछे हो और तुम्हें अभी कई वर्ष का अनुभव चाहिए।

11 मार्च 2018

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