परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के अभ्यास के सिद्धांत (भाग दो)
चलो हम देखते हैं कि अय्यूब ने अपने बच्चों के साथ व्यवहार करते समय कैसा रवैया अपनाया था। अय्यूब यहोवा का भय मानता था, लेकिन उसके बच्चे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते थे—क्या बाहरी लोगों को नहीं लगेगा कि यह बात अय्यूब के लिए बहुत शर्मनाक थी? मनुष्य की धारणाओं के अनुसार, अय्यूब का संबंध एक महान परिवार से था और वह यहोवा परमेश्वर से डरता था, लेकिन उसके बच्चे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे, इसलिए वह सम्मानयोग्य नहीं था। क्या सम्मानयोग्य होने का यह विचार मानवीय इच्छा और मानवीय उग्र स्वभाव से नहीं निकला था? लोगों को यह लग सकता है : “यह बिल्कुल भी सम्मानजनक बात नहीं है। मुझे उन्हें परमेश्वर में विश्वास दिलाने और अपने सम्मान को पुनः प्राप्त करने के तरीके के बारे में सोचना चाहिए।” क्या यह विचार मानवीय इच्छा से उत्पन्न नहीं हुआ है? क्या अय्यूब ने यही किया था? (नहीं।) यह बात बाइबल में कैसे दर्ज है? (अय्यूब उनके लिए बलि चढ़ाता और प्रार्थना करता था।) अय्यूब उनके लिए सिर्फ बलि चढ़ाता और प्रार्थना करता था। यह किस तरह का रवैया है? क्या तुम लोग उन सिद्धांतों को देख सकते हो जिनका अय्यूब पालन कर रहा था? हम यह तो नहीं जानते कि क्या अय्यूब ने अपने बच्चों की मौज-मस्ती को रोका या इसमें बाधा डाली या नहीं, लेकिन उसने निश्चित रूप से उनके साथ भाग नहीं लिया—उसने बस उनके लिए बलि चढ़ाई। क्या उसने कभी यह कहते हुए प्रार्थना की : “हे यहोवा परमेश्वर, उन्हें प्रेरित कर, उन्हें तुझ पर विश्वास करने वाला बना, और उन्हें अपना अनुग्रह प्राप्त करने वाला बना, और उन्हें तुझसे डरने वाला और मेरी तरह बुराई से दूर रहने वाला बना।”? क्या उसने कभी इस तरह प्रार्थना की? बाइबल में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। अय्यूब का काम करने का तरीका खुद को उनसे दूर करना, उनके लिए बलि चढ़ाना और उनकी चिंता करना था, ऐसा न हो कि वे यहोवा परमेश्वर के खिलाफ पाप कर बैठें। अय्यूब ने इन बातों का अभ्यास किया। उसके अभ्यास के सिद्धांत क्या थे? उसने उनके साथ जबरदस्ती नहीं की। तो क्या अय्यूब चाहता था कि उसके बच्चे परमेश्वर में विश्वास करें या नहीं? बेशक वह ऐसा चाहता था। परमेश्वर में विश्वास रखने वाला एक पिता होकर, अपने बच्चों को परमेश्वर पर ईमानदारी से विश्वास न करके इस तरह से दुनिया के साथ चिपके हुए देखना उसके लिए बहुत दुखद रहा होगा। वह निश्चित रूप से चाहता था कि उसके बच्चे परमेश्वर के सामने आएँ, उसके समान बलि चढ़ाएँ, परमेश्वर का भय मानें और बुराई से दूर रहें और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था को स्वीकार करें। यह कोई सम्मान का मुद्दा नहीं है, यह माता-पिता की जिम्मेदारी है। लेकिन उसके बच्चों ने परमेश्वर पर विश्वास न करने का फैसला किया और एक पिता के रूप में, अय्यूब ने उन पर कोई दबाव नहीं डाला। यह उसका रवैया था। तो उसने क्या किया? क्या उसने उन्हें जबर्दस्ती घसीटा या उन्हें मनाने की कोशिश की? (नहीं।) निश्चित रूप से नहीं। ज्यादा से ज्यादा, वह कभी-कभार उन्हें कुछ उपदेश दे दिया करता था और जब उसके बच्चों ने उसकी बात नहीं मानी तो उसने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया। उसने उन्हें कहा कि वे अपनी सीमा न लाँघें और फिर एक स्पष्ट रेखा खींचकर उनसे अलग हो गया और प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन जीने लगा। अय्यूब उनके लिए इसलिए बलि चढ़ाता था क्योंकि उसे डर था कि वे यहोवा परमेश्वर को नाराज कर देंगे; उसने उनके स्थान पर बलि नहीं चढ़ाई, उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उसका दिल परमेश्वर का भय मानता था। अय्यूब ने उन पर कोई दबाव नहीं डाला, न ही उन्हें जबर्दस्ती घसीटा, न ही उसने यह कहा : “ये मेरे बच्चे हैं और मुझे उन्हें परमेश्वर में विश्वास करने वाला बनाना होगा, ताकि परमेश्वर कुछ और लोग प्राप्त कर सके।” उसने ऐसा नहीं कहा, न ही उसने ऐसी कोई योजना बनाई या आकलन किया, न ही उसने इस तरह से कार्य किया। वह जानता था कि इस तरह कार्य करना मानवीय इच्छा के कारण है और परमेश्वर इसे पसंद नहीं करता। अय्यूब ने बस अपने बच्चों को प्रोत्साहित किया और उनके लिए प्रार्थना की लेकिन उसने उन्हें मजबूर नहीं किया या उन्हें जबर्दस्ती नहीं घसीटा और उसने अपने और उनके बीच एक स्पष्ट रेखा तक खींच दी। यह था अय्यूब का विवेक और उसके अभ्यास का सिद्धांत भी : मानवीय इच्छा या अच्छे इरादों पर भरोसा करके परमेश्वर को नाराज करने वाला कोई काम न करो। इसके अतिरिक्त, वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते थे और परमेश्वर ने उन्हें प्रेरित नहीं किया। अय्यूब ने परमेश्वर के इरादे को समझ लिया था जो यह थी : “परमेश्वर ने उन पर कार्य नहीं किया है, इसलिए मैं उनके लिए प्रार्थना नहीं करूंगा। मैं परमेश्वर से कुछ नहीं मांगूंगा और मैं इस मामले में परमेश्वर को नाराज नहीं करना चाहता।” उसने अपने बच्चों के लिए बिल्कुल भी रोते हुए प्रार्थना नहीं की या उपवास नहीं रखा कि परमेश्वर उसके बच्चों को बचाए और वे यहोवा परमेश्वर के समक्ष आएँ और आशीष पाएँ। उसने बिल्कुल भी ऐसा नहीं किया; वह जानता था कि इस तरह से कार्य करने से परमेश्वर नाराज होगा और परमेश्वर को यह पसंद नहीं आएगा। तुम इन विस्तृत बातों से क्या देख सकते हो? क्या अय्यूब ने ईमानदारी से समर्पण किया था? (हाँ।) क्या औसत व्यक्ति इस प्रकार का समर्पण प्राप्त कर सकता है? नहीं, औसत व्यक्ति यह नहीं कर सकता। बच्चे अपने माता-पिता के लिए सबसे अनमोल खजाना होते हैं, इसलिए जब वे उन्हें इस तरह से मौज मस्तियाँ करते देखते हैं, और यह भी देखते हैं कि वे बुरी प्रवृत्तियों का पालन कर रहे हैं, परमेश्वर के समक्ष नहीं आ रहे और परमेश्वर में विश्वास करने और बचाए जाने का अवसर खो रहे हैं और संभवतः नरक में डूबकर बरबाद होने वाले हैं, तो एक औसत व्यक्ति के लिए इस आजमाइश को पार करना भावनात्मक रूप से बहुत कठिन होता है। लेकिन अय्यूब ने ऐसा कर दिखाया। उसने केवल एक ही काम किया, उसने उनके लिए बलि चढ़ाई और अपने दिल में चिंतित हुआ। उसने बस इतना ही किया। उसके बच्चे उसके सबसे प्यारे थे लेकिन उसने उनके लिए अतिरिक्त कुछ नहीं किया जिससे परमेश्वर को ठेस पहुँचे। तुम अय्यूब के अभ्यास के इस सिद्धांत के बारे में क्या सोचते हो? इससे पता चलता है कि उसका दिल परमेश्वर का भय मानने वाला था और वह सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पित था। जब उसके बच्चों के भविष्य से जुड़े मामलों की बात आई, तो उसने बिल्कुल भी प्रार्थना नहीं की, न ही उसने मानवीय इच्छा के आधार पर कोई काम किया; उसने बस अपने नौकरों से कुछ काम कराए, खुद नहीं किए। इस मौज-मस्ती में उसने इसलिए भाग नहीं लिया क्योंकि वह इन चीजों से दूषित नहीं होना चाहता था, इसके अतिरिक्त, वह उनमें घुलना-मिलना भी नहीं चाहता था। उनमें घुल मिलकर वह परमेश्वर को नाराज कर देता, इसलिए उसने खुद को दुष्ट स्थानों से दूर कर लिया। क्या अय्यूब के अभ्यास के बारे में कोई विशेष जानकारी थी? सबसे पहले, आओ देखते हैं कि उसने अपने बच्चों के साथ कैसा बर्ताव किया। उसका उद्देश्य हर मामले में परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण करना था; उसने उन चीजों को जबरदस्ती करने की कोशिश नहीं की जो परमेश्वर ने नहीं कीं, उसने कोई आकलन नहीं किया, न ही योजनाएँ बनाईं। उसने बात ध्यान से सुनी और हर मामले में परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों का इंतजार किया। यह एक सामान्य सिद्धांत था। लेकिन उसके अभ्यास की बारीकियाँ क्या थीं? (जब उसके बच्चे मौज-मस्तियाँ कर रहे थे तो वह उनके साथ शामिल नहीं हुआ। उसने खुद को उनसे दूर कर लिया और उनके लिए आग में बलि दी, लेकिन उसने इस बात पर जोर नहीं दिया कि वे परमेश्वर में विश्वास करें, न ही उसने जबर्दस्ती घसीटा, और उसने अपने और उनके बीच एक स्पष्ट सीमा रेखा खींची।) यह अभ्यास का सिद्धांत है। जब आम आदमी इस प्रकार की किसी चीज का सामना करते हैं तो वे अभ्यास कैसे करते हैं? (वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उनके बच्चे उस पर विश्वास करने वाले बनें।) वे और क्या करते हैं? यदि परमेश्वर ऐसा नहीं करता, तो वे अपने बच्चों को कलीसिया में खींचकर ले जाते हैं, ताकि बच्चों को आशीष मिले। वे देखते हैं कि उन्होंने स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का महान वरदान पा लिया है लेकिन उनके बच्चों को यह वरदान नहीं मिला है और इसलिए उनके दिल में दुख और पछतावा होता है। वे नहीं चाहते कि उनके बच्चे इस वरदान से वंचित रहें, इसलिए वे अपने बच्चों को कलीसिया में लाने के लिए अपना दिमाग चलाते हैं और सोचते हैं कि बस इतना करना माँ-बाप की जिम्मेदारियों को पूरा करने के बराबर है। उन्हें असल में इस बात की परवाह नहीं है कि उनके बच्चे सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हैं या नहीं। अय्यूब ने यह काम नहीं किया, लेकिन आम आदमी यह न करने में सक्षम नहीं है। क्यों नहीं? (लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है। वे अपनी भावनाओं के मुताबिक कार्य करते हैं।) ज्यादातर लोग इस बात पर ध्यान ही नहीं देते कि इस तरह से कार्य करने से परमेश्वर नाराज तो नहीं होता। उनकी प्राथमिकता होती है खुद को संतुष्ट करना, अपनी भावनाओं का ख्याल रखना और अपनी इच्छाओं को पूरा करना। वे इस बात पर कोई ध्यान नहीं देते कि परमेश्वर कैसे चीजों पर संप्रभुता रखता है या कैसे उनकी व्यवस्था करता है, परमेश्वर क्या करता है या उसके इरादे क्या हैं। वे केवल अपनी इच्छाओं, अपनी भावनाओं, अपने इरादों और अपने लाभों पर ध्यान देते हैं। अय्यूब ने अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार किया? एक पिता के नाते उसने बस अपना दायित्व पूरा किया, उनके साथ सुसमाचार साझा किया और सत्य पर संगति की। उन्होंने चाहे अय्यूब की बात सुनी या नहीं, उसकी आज्ञा मानी या नहीं, लेकिन उसने उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए कभी मजबूर नहीं किया—उसने उनके साथ कभी मारपीट, चीख-पुकार नहीं की या उनके जीवन में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। उनके विचार और राय अय्यूब के विचारों से भिन्न थे, तो वे जो कुछ भी करते उसमें उसने कभी हस्तक्षेप नहीं किया, वे किस मार्ग पर जा रहे हैं, इस मामले में उसने कभी हस्तक्षेप नहीं किया। क्या अय्यूब अपने बच्चों से परमेश्वर में विश्वास रखने को लेकर कभी-कभार ही बात करता था? निश्चय ही, वह इस विषय में उनसे काफी बातें करता था, लेकिन वे उसकी बात न सुनते थे और न ही स्वीकारते थे। इस चीज के प्रति अय्यूब का क्या रवैया था? “मैंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी; जहां तक बात है कि वे कौन-सा मार्ग अपनाते हैं, यह उन्हीं पर निर्भर करता है, यह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं पर निर्भर करता है। यदि परमेश्वर उन पर कार्य नहीं करता है या उन्हें प्रेरित नहीं करता है, तो मैं उन्हें बाध्य करने का प्रयास नहीं करूँगा।” इसलिए अय्यूब ने परमेश्वर से उनके लिए प्रार्थना नहीं की, उनके लिए पीड़ा के आंसू नहीं बहाए, उनके लिए उपवास नहीं रखा या किसी भी तरह कष्ट नहीं उठाए। उसने ये सब नहीं किया। अय्यूब ने यह सब क्यों नहीं किया? क्योंकि इनमें से कुछ भी करना परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना नहीं था; वे सब बातें मानवीय विचारों से उपजी थीं, यह अपने तरीके को जबरदस्ती किसी पर थोपने के तरीके थे। जब अय्यूब के बच्चों ने उसका रास्ता नहीं अपनाया तो उसका यह रवैया था; तो जब उसके बच्चे मरे, तब उसका रवैया कैसा था? वह रोया या नहीं? क्या उसने अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त किया? क्या उसे दुख महसूस हुआ? बाइबल में इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। जब अय्यूब ने अपने बच्चों को मरते देखा, तो क्या उसका दिल टूटा या उसे दुख हुआ? (हाँ, हुआ था।) अगर हम बच्चों के प्रति उसके प्रेम के बारे में बात करें, तो निश्चित रूप से उसे थोड़ा दुख महसूस जरूर हुआ था, लेकिन फिर भी उसने परमेश्वर के प्रति समर्पण किया। उसने अपना समर्पण कैसे व्यक्त किया? उसने कहा : “ये बच्चे मुझे परमेश्वर ने दिए थे। चाहे वे परमेश्वर में विश्वास करें या न करें, उनका जीवन परमेश्वर के हाथ में है। यदि उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास किया होता, और परमेश्वर उन्हें ले लेना चाहता, तब भी वह उन्हें ले ही लेता; यदि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तब भी यदि परमेश्वर ने कहा होता कि उन्हें ले लिया जाएगा तो उन्हें ले लिया गया होता। यह सब परमेश्वर के हाथ में है; नहीं तो लोगों की जान कौन ले सकता है?” संक्षेप में, इसका क्या मतलब है? “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। उसने अपने बच्चों के मामले में भी यही रवैया अपनाए रखा। चाहे वे जिंदा हों या मृत, उसने यही रवैया अपनाए रखा। उसका अभ्यास का तरीका सही था; अपने अभ्यास के हर तरीके में, और जिस दृष्टिकोण, रवैये और दशा से उसने भी चीजों को संभाला उसमें वह हमेशा समर्पण, प्रतीक्षा, खोज और फिर ज्ञान प्राप्त करने की स्थिति में था। यह रवैया बहुत महत्वपूर्ण है। यदि लोग अपने किसी भी काम में इस तरह का रवैया न अपनाएँ और उनके व्यक्तिगत विचार विशेष रूप से प्रबल हों और व्यक्तिगत इरादों और लाभ को बाकी हर चीज से पहले रखें, तो क्या वे वास्तव में समर्पण कर रहे हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में वास्तविक समर्पण नहीं देखा जा सकता; वे वास्तविक समर्पण प्राप्त करने में असमर्थ हैं।
कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य सिद्धांतों को तलाश करने पर ध्यान नहीं देते बल्कि कार्य करने के लिए अपनी इच्छा पर भरोसा करते हैं। ऐसे व्यक्ति में सबसे आम अभिव्यक्ति क्या देखी जाती है जिसके विशेष रूप से प्रबल व्यक्तिगत विचार हों? चाहे उनके साथ कुछ भी हो, वे पहले अपने दिमाग में चीजों को जोड़ते-घटाते हैं, हर संभव चीज के बारे में सोचते हैं और एक विस्तृत योजना बनाते हैं। जब उन्हें लगता है कि इसमें कोई कमी नहीं है, तो वे पूरी तरह से अपनी इच्छा के अनुसार अभ्यास करते हैं, इसका नतीजा यह होता है कि उनकी योजना परिवर्तन के साथ तालमेल नहीं रख पाती इसलिए कभी-कभी गड़बड़ हो जाती है। आखिर समस्या क्या है? अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने पर अक्सर गड़बड़ हो जाती है। इसलिए, चाहे कुछ भी हो जाए, सभी को एक साथ बैठकर सत्य की तलाश करनी चाहिए, परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उसका मार्गदर्शन माँगना चाहिए। परमेश्वर की प्रबुद्धता द्वारा, उनकी संगति से जो चीजें सामने आती हैं वे रोशनी से भरी होती हैं, और आगे बढ़ने का रास्ता बताती हैं। इसके अतिरिक्त, मामलों को परमेश्वर के हाथों में सौंपकर, उससे उम्मीद लगा कर, उस पर भरोसा कर के, उसके मार्गदर्शन में चलते हुए और उसकी देखभाल और सुरक्षा में रह कर—इस तरह से अभ्यास करते हुए—तुम अपने लिए अधिक आश्वासन प्राप्त करोगे और तुम्हें किसी बड़ी समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। क्या लोग जो बातें अपने दिमाग में सोचते हैं वे पूरी तरह से तथ्यों के अनुरूप हो सकती हैं? क्या वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो सकती हैं? यह असंभव है। अगर तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर पर निर्भर नहीं रहते और उसकी तरफ नहीं देखते, और केवल जैसा चाहते हो वैसा करते हो, तो तुम कितने भी चतुर क्यों न हो, कभी न कभी तुम असफल हो जाओगे। जो लोग अहंकारी और आत्म-तुष्ट होते हैं वे अपने विचारों का पालन करने के लिए तत्पर रहते हैं, तो क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है? जिन लोगों के व्यक्तिगत विचार मजबूत होते हैं, जब कार्य करने का समय आता है तो वे परमेश्वर को भूल जाते हैं, वे उसके प्रति समर्पण को भूल जाते हैं; केवल तभी जब वे किसी दीवार से टकरा गए हों और वे कुछ भी करने में असफल रहते हैं, तभी उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं किया है, और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं की है। ये कौन सी समस्या है? यह दिल में परमेश्वर का न होना है। उनके कार्य दिखाते हैं कि परमेश्वर उनके दिलों से अनुपस्थित है, और वे केवल स्वयं पर भरोसा करते हैं। और इसलिए, चाहे तुम कलीसिया का काम कर रहे हो, कोई कर्तव्य निभा रहे हो, कुछ बाहरी मामले सँभाल रहे हो, या अपने निजी जीवन में मामलों से निपट रहे हो, तुम्हारे दिल में सिद्धांत होने चाहिए, एक आध्यात्मिक स्थिति होनी चाहिए। कौन-सी स्थिति? “चाहे कुछ भी हो, मेरे साथ कुछ भी होने से पहले मुझे प्रार्थना करनी चाहिए, मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए, मुझे उसकी संप्रभुता के प्रति समर्पण करना चाहिए, सब-कुछ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किया जाता है, और जब कुछ हो, तब मुझे परमेश्वर के इरादे खोजने चाहिए, मेरी यही मानसिकता होनी चाहिए, मुझे अपनी योजनाएँ नहीं बनानी चाहिए।” कुछ समय तक इस प्रकार अनुभव करने के बाद, लोग बिना इसका एहसास किए कई चीजों में परमेश्वर की संप्रभुता देखना शुरू कर देंगे। अगर तुम्हारी हमेशा अपनी योजनाएँ, विचार, कामनाएँ, स्वार्थी उद्देश्य और इच्छाएँ होंगी, तो तुम्हारा हृदय अनजाने ही परमेश्वर से भटक जाएगा, तुम यह देखने में असमर्थ हो जाओगे कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है, और अधिकांश समय परमेश्वर तुमसे छिपा रहेगा। क्या तुम अपने विचारों के अनुसार कार्य करना पसंद नहीं करते? क्या तुम अपनी योजनाएँ नहीं बनाते? तुम्हें लगता है तुम्हारे पास दिमाग है, तुम शिक्षित हो, जानकार हो, तुम्हारे पास चीजें करने की क्षमता और कार्यपद्धति है, तुम उन्हें अपने दम पर कर सकते हो, तुम अच्छे हो, तुम्हें परमेश्वर की जरूरत नहीं है, और इसलिए परमेश्वर कहता है, “तो जाओ और इसे अपने दम पर करो, और इसके ठीक से होने न होने की जिम्मेदारी लो, मुझे परवाह नहीं है।” परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देता। जब लोग परमेश्वर में अपनी आस्था में इस तरह से अपनी इच्छा के पीछे चलते हैं और जिस तरह चाहते हैं, वैसे विश्वास करते हैं, तो परिणाम क्या होता है? वे कभी भी परमेश्वर के प्रभुत्व का अनुभव करने में सक्षम नहीं होते, वे कभी भी परमेश्वर का हाथ नहीं देख पाते, कभी भी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी महसूस नहीं कर पाते, वे परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस नहीं कर पाते। और समय बीतने के साथ क्या होगा? उनके हृदय परमेश्वर से और भी दूर हो जाएँगे, और इसके अप्रत्यक्ष प्रभाव होंगे। कौन-से प्रभाव? (परमेश्वर पर संदेह करना और उसे नकारना।) यह केवल परमेश्वर पर संदेह करने और उसे नकारने का मामला नहीं है; जब लोगों के दिलों में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता, और वे लंबे समय तक जैसा चाहते हैं वैसा करते हैं, तो एक आदत बन जाएगी : जब उनके साथ कुछ होगा तो पहले वे अपने समाधान की सोचेंगे, अपने इरादों और योजनाओं के अनुसार काम करेंगे; वे पहले यह सोचेंगे कि यह उनके लिए लाभकारी है या नहीं; अगर हाँ, तो वे उसे करेंगे, और अगर नहीं, तो वे नहीं करेंगे; सीधे इस रास्ते पर चलना, उनकी आदत बन जाएगी। और अगर वे बिना पश्चात्ताप के इसी तरह करते रहे, तो परमेश्वर ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करेगा? परमेश्वर उन पर कोई ध्यान नहीं देगा, और उन्हें एक ओर कर देगा। एक ओर किए जाने का क्या मतलब है? परमेश्वर न तो उन्हें अनुशासित करेगा और न ही उन्हें फटकारेगा; वे अधिकाधिक अनियंत्रित होते जाएंगे, बिना न्याय, ताड़ना, अनुशासन या फटकार के, उन्हें प्रबोधन, प्रकाशन या मार्गदर्शन मिलना तो दूर की बात है। एक ओर किए जाने का यही मतलब है। जब परमेश्वर किसी को एक तरफ कर देता है तो उन्हें कैसा महसूस होता है? उनकी आत्मा अंधकारमय महसूस करती है, परमेश्वर उनके साथ नहीं होता, वे अपने दर्शन को लेकर स्पष्ट नहीं होते, उनके पास कार्य करने का कोई रास्ता नहीं होता, और वे केवल मूर्खतापूर्ण मामलों में उलझे रहते हैं। जैसे-जैसे इस तरह समय गुजरता जाता है, वे सोचने लगते हैं कि जीवन का कोई अर्थ नहीं है, और उनकी आत्माएँ खोखली हैं, इसलिए वे गैर-विश्वासियों के समान बन जाते हैं और उनका तेजी से पतन होने लगता है। यह एक ऐसा व्यक्ति है जिसे परमेश्वर ठुकरा देता है। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे हमेशा ऐसा क्यों लगने लगा है कि मेरा कर्तव्य निभाना व्यर्थ होता चला जा रहा है और मेरी ऊर्जा कम से कमतर होती चली जा रही है? ऐसा कैसे है कि मेरे पास कोई प्रेरणा नहीं है? मेरी प्रेरणा कहाँ चली गई?” कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं : “ऐसा कैसे है कि मैं जितना अधिक समय तक विश्वास करता हूँ, उतना ही अधिक मैं सोचता हूँ कि मेरे अंदर उतनी आस्था नहीं रही जितनी शुरुआत में थी? जब मैंने विश्वास करना शुरू किया था, तो मुझे विशेष रूप से परमेश्वर के आमने-सामने होने में आनंद आता था, तो ऐसा कैसे है कि अब मैं वह आनंद महसूस नहीं कर पाता?” वह भावना कहाँ गई? परमेश्वर तुमसे छिप गया है, इसलिए तुम उसे महसूस नहीं कर सकते; इस प्रकार तुम दयनीय बन जाते हो और मुरझा जाते हो। तुम किस हद तक मुरझा जाते हो? तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में अस्पष्ट हो जाते हो, तुम्हारे दिल में कुछ नहीं होता और तुम्हारा तुच्छ, दयनीय स्वरूप सामने आ जाता है। क्या यह अच्छी बात है या बुरी? (बुरी।) जब परमेश्वर किसी व्यक्ति को छोड़ता है, तो वह इतने मूर्ख और बेवकूफ बन जाता है और उसके पास कुछ भी नहीं होता। यह उन लोगों का दयनीय हाल है जो परमेश्वर को छोड़ देते हैं! इस मुकाम पर वे यह भी नहीं सोचते कि परमेश्वर पर विश्वास करना अच्छा है। चाहे वे इस बारे में कैसे भी सोचें, उन्हें नहीं लगता कि परमेश्वर पर विश्वास करना सही रास्ता है। उनके अनुसार, यह रास्ता कहीं नहीं जाता, और वे उस पर नहीं चलेंगे चाहे कोई भी उन्हें सलाह दे। वे विश्वास करना जारी नहीं रख पाते, इसलिए उन्हें दुनिया की तरफ भागना पड़ता है; उनके लिए पैसा कमाना और धन प्राप्त करना ही एकमात्र विकल्प है और सबसे वास्तविक रास्ता है। वे तरक्की और धन, खुशी और संतुष्टि, अपने पूर्वजों का नाम ऊँचा करने और करियर में तेजी से उन्नति करने के पीछे भागते हैं; उनके दिल इन सब चीजों से भरे होते हैं, तो क्या वे अभी भी अपना कर्तव्य निभा सकते हैं? वे नहीं निभा सकते। यदि किसी के दिल में केवल इस तरह के विचार ही हों, लेकिन फिर भी उसमें थोड़ा-सा सच्चा विश्वास बाकी हो और वे इसे जारी रखना चाहते हों, तो उनके लिए परमेश्वर के घर का रवैया कैसा होगा? जब तक वे श्रम कर सकते हैं, तब तक परमेश्वर का घर उन्हें अवसर देता रहेगा; हर एक व्यक्ति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ ज्यादा भी नहीं हैं। ऐसा क्यों है? लोग शून्य में नहीं रहते और कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो भ्रष्ट न हो। ऐसा कौन है जिसके मन में परमेश्वर का विरोध करने का विचार न आया हो? ऐसा कौन है जिसने परमेश्वर के विरोध में अपराध न किया हो? ऐसा कौन है जिसके मन में परमेश्वर के प्रति विद्रोह की अवस्थाएँ और व्यवहार न हो? यदि हम इसे एक कदम आगे ले जाएँ, तो ऐसा कौन है जिसके मन में परमेश्वर के बारे में कोई विचार, सोच या अविश्वास की अवस्थाएँ, संदेह, गलतफहमी या अनुमान न हो? हर किसी के साथ ऐसा होता है। तो परमेश्वर लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है? क्या वह इन बातों का बतंगड़ बनाता है? वह ऐसा कभी नहीं करता। तो परमेश्वर क्या करता है? कुछ लोगों के मन में हमेशा परमेश्वर के कार्य के बारे में नकारात्मक धारणाएँ होती हैं। वे सोचते हैं, “अगर कोई परमेश्वर में विश्वास रखता है, तो वह हमेशा उन्हें उजागर करेगा, उनका न्याय करेगा, उन्हें ताड़ना देगा और उनकी काट-छाँट करेगा। वह लोगों को नहीं छोड़ता और वह उन्हें अपनी मर्जी से चुनने की आजादी नहीं देता।” क्या ऐसा ही है? (नहीं।) जो लोग परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं और उसके घर में आते हैं वे सभी आजादी से ऐसा करते हैं; उनमें से किसी को भी मजबूर नहीं किया जाता। कुछ लोगों ने अपनी आस्था खो दी है; वे सांसारिक चीजों में डूब गए हैं और उन्हें कोई भी नहीं रोकता या कोई भी उन्हें जाने देने के खिलाफ नहीं है। परमेश्वर में विश्वास रखने और विश्वास न रखने, दोनों ही बातों में वे स्वतंत्र हैं। इसके अतिरिक्त परमेश्वर किसी के भी साथ जबरदस्ती नहीं करता। चाहे लोगों से उसकी जैसी भी अपेक्षाएँ हों, वह उन्हें उस रास्ते को चुनने की अनुमति देता है जिस पर वे चलना चाहते हैं और वह किसी को भी मजबूर नहीं करता। चाहे पवित्रात्मा जैसे भी कार्य करता है, या वह जैसे भी लोगों का मार्गदर्शन करता है और लोगों को परमेश्वर के वचनों को पढ़ने की राह दिखाता है, परमेश्वर ने कभी किसी के साथ जबरदस्ती नहीं की है। वह हमेशा मनुष्य को प्रावधान देने और उसकी चरवाही करने के लिए सत्य व्यक्त करता है, समस्याओं को हल करने के लिए हमेशा सत्य पर संगति करता है, और लोगों को सत्य समझने देता है। लोगों को सत्य को समझने देने के पीछे उसका क्या उद्देश्य है? (ताकि वे सत्य को स्वीकार कर सकें।) यदि तुम सत्य को स्वीकार करते हो और परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करते हो, तो तुम लोगों के पास इन विद्रोही और भ्रष्ट स्वभावों, छद्म-विश्वासियों के विचारों और हर तरह की गलत दशाओं का सामना करने वाला आध्यात्मिक कद होगा; जब तुम इन दशाओं का भेद पहचानने में सक्षम हो जाओगे, तो तुम गुमराह नहीं होगे। जब कोई व्यक्ति सभी प्रकार के सत्य समझ लेता है तो वह परमेश्वर को गलत नहीं समझता और वह उसके इरादे समझता है। एक तो यह कि, वह एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा कर सकता है; इसके अतिरिक्त, वह एक इंसान की तरह रहता है, और जीवन के सही रास्ते पर चल पाता है। जब कोई व्यक्ति जीवन के सही रास्ते पर चलता है और वह गवाही देता है जो एक सृजित प्राणी को देनी चाहिए, आखिरकार शैतान को हरा पाता है, स्वभाव में बदलाव का अनुभव करता है, परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण और भय रखता है और एक स्वीकार्य सृजित प्राणी बन जाता है, तो ऐसे व्यक्ति ने उद्धार पा लिया है, जो कि अंतिम उद्देश्य है।
29 सितंबर 2017
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