परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के अभ्यास के सिद्धांत (भाग एक)

आज हर कोई अय्यूब से इसलिए जलता है क्योंकि उसमें सच्ची आस्था थी। लेकिन क्या तुम लोगों ने उसके अनुभवों के विवरण और इस बारे में संगति की है कि वह वास्तव में गवाही देने में सक्षम क्यों था? उसका दैनिक जीवन कैसा था? वह अपने जीवन में परमेश्वर से कैसे जुड़ता था? उसके हर कार्य से यह कैसे देखा जा सकता है कि वह सत्य खोजता था, परमेश्वर के प्रति समर्पण करता और परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों को स्वीकार करता था? क्या इन चीजों में विस्तार शामिल नहीं है? (हाँ।) इन चीजों में सत्य के अनुसरण का विस्तार शामिल है जिसकी आजकल लोगों में कमी है। लोग सिर्फ अय्यूब द्वारा कही गई उस मशहूर कहावत को जानते हैं : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। वे सभी इस वाक्यांश को तो सुना सकते हैं, लेकिन वे स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि असल में अय्यूब यह कहने में सक्षम क्यों था। अय्यूब ने यह बात आसानी से नहीं कही थी बल्कि वह यह जीवन भर के अनुभव के बाद कह पाया। उसने अपने जीवन भर के अनुभव में कई चीजों में परमेश्वर के हाथ की व्यवस्था और आयोजन और कई चीजों में परमेश्वर के कर्म देखे और उसने यह भी देखा कि उसकी सारी दौलत परमेश्वर द्वारा दी गई है। एक दिन वे सभी चीजें गायब हो गईं और वह जानता था कि परमेश्वर ने उन्हें वापस ले लिया है। अय्यूब इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि चाहे परमेश्वर कुछ भी करे, परमेश्वर के नाम को धन्य कहना चाहिए। तो वह इस निष्कर्ष पर कैसे पहुँचा? क्या इस निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए एक प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं होती? इसमें वह मार्ग शामिल है जो आज लोग सत्य का अनुसरण करते समय लेते हैं, जो यह है कि यह परिणाम कैसे प्राप्त किया जाए और ये लाभ कैसे पाया जाए। ये लाभ केवल कुछ दिनों में या कुछ वर्षों में ही प्राप्त नहीं हो जाते; इसमें लोगों के जीवन का हर पहलू और हर विवरण शामिल होता है।

अय्यूब का परमेश्वर पर विश्वास कोई नाममात्र के लिए नहीं था; वह एक सच्चे विश्वासी का आदर्श प्रतिनिधि था। वह हर चीज में परमेश्वर से प्रार्थना करता था। जब वह अपने बच्चों की मौज-मस्ती से परेशान था तो उसने परमेश्वर से प्रार्थना की और उन्हें परमेश्वर को सौंप दिया; निश्चित रूप से वह अक्सर अपने मवेशियों के पालन-पोषण के लिए भी प्रार्थना करता था। उसने अपना सब कुछ परमेश्वर को सौंप दिया था। यदि वह एक गैर-विश्वासी की तरह होता जो हमेशा मनुष्य की इच्छा से अपने मवेशियों के पालन-पोषण की योजना बनाता और विचार करता रहता है, जो अपने बनाए हुए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए केवल अपने दिमाग और कल्पना पर भरोसा करता है और अपना दिमाग चलाता है, तब अगर उसे अनेक असफलताओं और नाकामियों का अनुभव भी करना पड़े, तो क्या वह इसमें परमेश्वर के हाथ और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को देख पाएगा? (नहीं।) यदि अय्यूब ने बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना नहीं की होती, तो उसे परमेश्वर के आशीष का अनुभव नहीं होता, वह अक्सर एक सामान्य विश्वासी की तरह नकारात्मक और कमजोर ही होता और उसकी मनःस्थिति शायद प्रतिरोधी बन जाती। “लोग हमेशा कहते हैं कि परमेश्वर का वजूद है। मैं परमेश्वर पर विश्वास करता हूँ, लेकिन परमेश्वर मुझे मेरी योजनाओं के अनुसार आशीष नहीं देता! मैं परमेश्वर की उपासना करता हूँ और हर दिन बलिदान देता हूँ। यदि परमेश्वर है, तो मेरे लिए उसका आशीष मेरी प्रार्थना और कल्पना से अधिक होना चाहिए। ऐसा कैसे है कि मैंने अभी तक उस लक्ष्य को हासिल नहीं किया है? यह कहना मुश्किल है कि परमेश्वर वास्तव में है भी या नहीं।” उसने परमेश्वर के अस्तित्व पर एक प्रश्न चिह्न लगा दिया होता, जो कि एक नकारात्मक प्रभाव है। एक बात तो यह हुई कि वह परमेश्वर का हाथ या उसकी संप्रभुता और व्यवस्था नहीं देख पाता। इसके अलावा, उसने परमेश्वर के बारे में शिकायत की होती, और उसके मन में परमेश्वर के खिलाफ गलतफहमी, शत्रुता और विद्रोह की भावना पैदा हो गई होती। यदि परमेश्वर को मानने वाले लोग अपने ही रास्ते पर चलते हैं, हमेशा आशीष के पीछे भागते हैं, तो क्या वे अय्यूब की तरह यह कह पाएँगे : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है”? क्या उन्हें इस तरह का अनुभवात्मक ज्ञान मिल सकता है? (नहीं।) निश्चित रूप से नहीं। क्यों नहीं? इस समस्या का असली कारण क्या है? (वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं करते, न ही परमेश्वर से खोजते हैं; बल्कि वे मानवीय तरीकों से समस्याओं को हल करते हैं।) लोग अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करने की जगह मानव तरीकों का उपयोग करके अपना दिमाग क्यों मथते रहते हैं? जब वे कोई योजना बनाते हैं, तो क्या वे परमेश्वर की आकांक्षाएँ खोजते हैं? क्या उनका रवैया आज्ञाकारी होता है और वह यह कहते हैं, “मुझे नहीं पता कि परमेश्वर क्या करने जा रहा है। पहले मैं यह योजना बना लेता हूँ और सारा आकलन कर लेता हूँ, लेकिन मुझे यह नहीं पता कि मैंने जो लक्ष्य बनाया है उसे मैं हासिल कर पाऊँगा या नहीं; यह बस एक योजना ही है। यदि अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया, तो यह परमेश्वर का आशीष होगा। यदि नहीं किया, तो इसका कारण मेरा अपना अंधापन होगा; मेरी योजना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं थी”? क्या उनका रवैया ऐसा है? (नहीं।) तो ऐसे काम करने का तरीका कैसे शुरू होता है? ये सब मानवीय कल्पनाएँ और धारणाएँ, मानवीय इच्छाएँ, परमेश्वर से मनुष्यों की अनुचित अपेक्षाएँ हैं; ये सब भ्रष्ट स्वभावों से उत्पन्न होती हैं। यह तो इसका एक पहलू है। इसके अतिरिक्त, क्या ऐसे लोगों के पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल है? (नहीं।) तुम्हें कैसे पता चलता है कि उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल नहीं है? (एक बार योजना बना लेने पर उन्हें पूरा करने के लिए वे दृढ़निश्चयी हैं।) यह कैसा स्वभाव है? यह घमंड और विद्रोह है। उनका मानना है कि परमेश्वर उन्हें आशीष देता है, लेकिन जब उनकी अपनी इच्छाएँ और आकलन होते हैं, तो वे परमेश्वर को एक तरफ कर देते हैं, यह एक घमंडी स्वभाव है। जब वे परमेश्वर को एक तरफ कर देते हैं तो क्या वे समर्पण कर रहे होते हैं? वे नहीं कर रहे होते और परमेश्वर उनके दिल में नहीं होता। वे यह नहीं सोचते कि परमेश्वर कैसे चीजों पर संप्रभुता रखता है और उनकी व्यवस्था करता है और यह तो बिल्कुल भी नहीं सोचते कि वह कैसे काम करना चाहता है। वे इन मामलों के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचते। इससे क्या समझा जा सकता है? वे कोई खोज नहीं करते, न ही वे समर्पण करते हैं, न ही उनके पास परमेश्वर से डरने वाला दिल है। वे पहले अपनी योजनाएँ बनाते हैं, फिर इसके बाद, वे परमेश्वर के इरादों के बारे में सोचे बिना, मानवीय तरीकों, कल्पनाओं और धारणाओं पर भरोसा करते हुए, अपनी योजनाओं के अनुसार कार्य करते हैं और बहुत मेहनत करते हैं। जब मवेशियों की बात आती है, तो लोगों को कम से कम अपने दिल में यह जान लेना चाहिए कि “मनुष्य को अपना काम करने और स्वर्ग की इच्छा के प्रति समर्पण करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए,” अर्थात : “मैं अपने मवेशियों को खिलाने की अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करूँगा, मैं उनमें पोषण की कमी नहीं होने दूँगा, या ठंड नहीं लगने दूँगा, या भूखा नहीं रहने दूँगा, या बीमार नहीं पड़ने दूँगा। यह परमेश्वर के हाथ में है कि अगले वर्ष उनकी कितनी संतानें होंगी; मुझे यह नहीं पता, मैं इसकी माँग नहीं करता और मैं इसके लिए कोई योजनाएँ नहीं बनाऊँगा। ये सभी मामले परमेश्वर के हाथों में हैं।” यदि वे अपने कार्यों के लिए मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करने पर जोर देते हैं, तो क्या परमेश्वर के प्रति उनका रवैया आज्ञाकारी है? (नहीं।) इन दोनों काम करने के तरीकों में से कौन-सा मानव की मर्जी पर आधारित है, और कौन-सा परमेश्वर के प्रति समर्पित है? (पहला तरीका मनुष्य की मर्जी पर आधारित है और यह छद्म-विश्वासियों के काम करने का तरीका है; काम करने का दूसरा तरीका उन लोगों का है जो पूरी निष्ठा से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और सत्य की खोज करते हैं।) वे सभी परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और वे सभी एक ही काम करते हैं, लेकिन उनके कार्यों का मकसद, स्रोत और लक्ष्य, साथ ही उनके सिद्धांत अलग-अलग हैं। इस प्रकार, लोग जिस रास्ते पर हैं उसे देखा जा सकता है। क्या कोई अंतर नहीं है? छद्म-विश्वासियों का सार गैर-विश्वासियों वाला है। उनके कार्यों का स्रोत और लक्ष्य क्या है? उनके कार्य उनके अपने लाभों के लिए होते हैं, उनके दिमाग में केवल अपना लाभ ही होता है, इसलिए अपने कार्यों में वे पूरी तरह से अपनी इच्छा पर भरोसा करते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि वे अपनी इच्छा पर भरोसा करते हैं? वे पूरी तरह से सावधानीपूर्वक सोच विचार करने के बाद अपनी योजनाएँ बनाते हैं। वे जल्दबाजी में या आँखें बंद करके कार्य नहीं करते; बल्कि उनके निश्चित इरादे और उद्देश्य होते हैं। वे परमेश्वर के इरादों पर विचार नहीं करते बल्कि वे केवल अपने संकल्प के मुताबिक कार्य करते हैं। कोई और उनके लिए योजना नहीं बनाता, न ही कोई और उन्हें इस तरह से कार्य करने के लिए मजबूर करता है। वे अपनी मर्जी से अपनी योजनाओं के अनुसार कार्य करने पर अड़े रहते हैं, इसलिए वे अपनी इच्छा पर भरोसा कर रहे हैं। फिर, अपनी खुद की योजनाओं के अनुसार, वे अपनी इच्छाओं को पूरा करने और उन योजनाओं के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अपना दिमाग चलाते हैं और कार्य करते हैं, चाहे इसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े। अपना कार्य करते हुए उनके मन में यह धुंधला-सा विचार भी होता है : “मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए वह निश्चित रूप से मुझे आशीष देगा।” क्या यह शर्मनाक बात नहीं है? परमेश्वर तुम्हें किस बात के लिए आशीष देगा? तुम्हें कैसे पता है कि परमेश्वर तुम्हें आशीष देगा? क्या परमेश्वर केवल तुम्हारे दृढ़ संकल्पों के कारण इन चीजों को होने देगा? क्या यह एक अविवेकपूर्ण विचार नहीं है? यदि तुम्हें विश्वास है कि परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें आशीष देगा, तो क्या यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने के बराबर है? (नहीं।) लेकिन कई लोग इसे आपस में मिला देते हैं। वे कहते हैं : “मुझे विश्वास है कि परमेश्वर मुझे आशीष देगा, मुझे विश्वास है कि वह मेरी हर चीज की रक्षा करेगा, और मुझे विश्वास है कि वह मेरी इच्छा पूरी करेगा!” वे सोचते हैं कि यह परमेश्वर के प्रति एक आज्ञाकारी रवैया है। क्या यह एक गलती नहीं है? यह न केवल एक गलती है, बल्कि यह परमेश्वर के प्रति विद्रोह और निंदा भी है। यदि तुम यह मानते हो कि परमेश्वर तुम्हें आशीष देगा तो इसका यह मतलब नहीं है कि तुम परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो—ये दो अलग-अलग चीजें हैं। यदि तुम ऐसा कहते हो, तो तुम पूरी तरह से अपनी घमंडी प्रकृति के नियंत्रण में हो और ऐसा कहना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है।

परमेश्वर के प्रति जिस विद्रोही आचरण के बारे में मैंने अभी संगति की है, उसका सार क्या है? इस मामले की जड़ का विश्लेषण करो। क्या इसमें सत्य का अभ्यास है? कोई समर्पण है? क्या उनके दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह है? क्या उनके पास परमेश्वर से डरने वाला दिल है? (नहीं।) तुम लोगों का उत्तर है नहीं, तो विशेष रूप से, वे कौन से तरीके हैं जिनसे ये चीजें प्रकट होती हैं? तुम्हें इसकी तुलना खुद से करनी चाहिए और जानना चाहिए कि इसका विश्लेषण कैसे करना है। यदि तुम्हें पता होगा कि इसका विश्लेषण कैसे करना है, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि अपने भीतर की दशा का आकलन कैसे करना है और तुम यह भी जान लोगे कि इस बात का आकलन कैसे करना है कि तुम्हारे सारे अभ्यास सिद्धांतों के अनुरूप हैं या नहीं, और तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो या नहीं। सबसे पहले यदि लोग सत्य की खोज किए बिना पहले अपनी योजनाएँ बनाएँगे तो क्या इसे समर्पण करना कह सकते हैं? (नहीं।) यह देखते हुए कि तुममें कोई समर्पण नहीं है, तुम्हें समर्पित बनने के लिए कैसे कार्य करना चाहिए? (सबसे पहले परमेश्वर की आकांक्षाएँ खोजनी चाहिए।) परमेश्वर कई मामलों में तुम्हें स्पष्ट रूप से अपनी आकांक्षाएँ नहीं दिखाता, तो तुम कैसे सुनिश्चित हो सकते हो कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? (हमें निश्चित होने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने पर भरोसा करना चाहिए।) यदि तुम कुछ दफा प्रार्थना करते हो और फिर भी तुम परमेश्वर की आकांक्षाएँ नहीं समझ पाते, तो फिर तुम क्या करोगे? आँख बंद करके काम न करो। सबसे पहले, देखो कि क्या इस तरह से कार्य करना आवश्यक है, क्या ये कार्य परमेश्वर की व्यवस्था का हिस्सा हैं, इस तरह से कार्य करने की शर्तें पूरी हो रही हैं या नहीं, और तुम अपनी योजना को प्राप्त कर सकते हो या नहीं। यदि तुम नहीं कर सकते, लेकिन फिर भी तुम इस योजना से चिपके रहते हो, तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि यह काम करने का एक अविवेकपूर्ण तरीका है? तुम्हारी योजनाएँ और विचार वास्तविक हैं या नहीं, यह महत्वपूर्ण है। तुम अपने दिल में सोचते हो : “मैं पहले यह योजना बनाऊंगा, और अगर परमेश्वर मुझे आशीष देगा तो शायद मुझे इससे भी अधिक लाभ मिलेगा!” तुम्हारी भाग्य पर विश्वास रखने वाली मानसिकता है और फिर तुम अपनी इच्छा पर भरोसा करते हो और अपनी योजना पर टिके रहने की कोशिश करते हो; तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ बहुत बड़ी हैं और तुम घमंडी और बर्बर दोनों हो। लोगों की योजनाओं और संकल्पों में हमेशा भटकाव होते हैं और वे अभ्यास करने लायक चीजें नहीं हैं। यदि लोग सत्य या परमेश्वर के इरादे नहीं समझते तो क्या उनकी योजनाएँ और दृढ़ संकल्प सही हो सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो सकते हैं? यह कोई निश्चित बात नहीं है, क्योंकि ऐसे कई मामले हैं जिन्हें लोग समझ नहीं सकते, जिनके बारे में वे निर्णय नहीं ले सकते; लोगों के संकल्प और योजनाएँ केवल मानवीय कल्पनाएँ, उनके अंदाजे और फैसले होते हैं। जो लोग सत्य नहीं समझते वे यह नहीं देख सकते कि सभी चीजें परमेश्वर के हाथों में हैं, और वे उसके द्वारा आयोजित और व्यवस्थित होती हैं। तुम्हें यह देखना चाहिए कि परमेश्वर के हाथ क्या कर रहे हैं, उसके इरादे क्या हैं, और वह वर्तमान में लोगों पर क्या कार्य कर रहा है। यदि तुम्हारी योजनाएँ और फैसले परमेश्वर जो करना चाहता है, उसके विरुद्ध जाते हैं, या यह परमेश्वर की आकांक्षाओं के विपरीत हैं, तो इनका परिणाम क्या निकलेगा? तब तो तुम्हारी योजनाएँ जरूर विफल होंगी। इससे तुम्हें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि लोगों को योजना नहीं बनानी चाहिए—योजना बनाना अपने आप में एक गलती है। तो लोगों को सही तरीके से कैसे अभ्यास करना चाहिए? चीजें जिस तरह सामने आती हैं, उन्हें वैसे ही स्वीकार करना सीखना चाहिए, उन्हें उन चीजों पर आँख बंद करके कार्य नहीं करना चाहिए या उनके बारे में योजना नहीं बनानी चाहिए जिन्हें वे समझ नहीं सकते। ऐसे कई मामले हैं जिन्हें तुम समझ नहीं सकते और तुम नहीं जानते कि बीच में कौन-सी समस्याएँ आ सकती हैं। क्या ये लोगों द्वारा बनाई गई योजनाओं में आने वाली अनपेक्षित परिस्थितियाँ हैं? निश्चित रूप से नहीं, इसलिए लोगों की योजनाएँ केवल मानवीय कल्पनाएँ, खोखली चीजें और अव्यवहारिकताएँ होती हैं। तो लोगों को क्या करना चाहिए? पहली बात तो यह है कि, उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल होना चाहिए और उन्हें अपनी कोई भी योजना नहीं बनानी चाहिए; दूसरी बात यह कि उन्हें बिना लापरवाही के अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को भी पूरा करना चाहिए। जिन चीजों की तुम योजना बनाते हो और जिन्हें निर्धारित करते हो, उन्हें तुम पूरा कर पाते हो या नहीं, यह परमेश्वर के हाथों में है। हो सकता है कि तुमने केवल थोड़ी-सी योजना बनाई हो, लेकिन परमेश्वर तुम्हें बहुत दे देता है और यह भी हो सकता है कि तुम बहुत योजनाएँ बनाओ, लेकिन तुम्हें उतना प्राप्त ही नहीं होता। इससे मिलते जुलते कई अनुभवों से गुजरने के बाद, तुम जान लोगे कि मनुष्य की इच्छा या योजनाओं के आधार पर कुछ भी नहीं बदलता। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर ने किस प्रकार से मामलों की व्यवस्था की है और किस प्रकार उन पर संप्रभुता रखता है; सभी चीजें उसके हाथ में हैं। इस तरह से लगातार अनुभव प्राप्त करने के बाद लोग यह जान लेते हैं कि परमेश्वर वास्तव में सभी पर राज करता है। यदि तुमने अपने दिल में इस बात को सत्यापित कर लिया कि परमेश्वर सभी पर राज करता है, तो तुमने वह सत्य प्राप्त कर लिया, जो अनुभव से प्राप्त होता है। कभी-कभार ऐसा हो सकता है कि तुम्हारी योजनाएँ बहुत अच्छी हों, लेकिन किसी भी क्षण अनपेक्षित चीजें घटित हो सकती हैं; तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि कितनी अनोखी चीजें घटित हो सकती हैं जो हर तरह से तुम्हारी कल्पनाओं और तुम्हारी योजनाओं से बढ़कर हैं। तुम्हें कई मामलों में ऐसा महसूस हो सकता है कि तुम बिल्कुल भी तैयार नहीं थे और तुम इस बात से अनजान हो कि तुम्हारी योजनाओं में कहाँ खामियां रह गई हैं, क्या ये सफल होंगी या विफल होंगी और लोग क्या कर सकते हैं और क्या नहीं। अनजाने ही तुम्हें यह महसूस होने लगेगा कि ऐसी कई चीजें हैं जिनकी मानव भविष्यवाणी नहीं कर सकते, जो उनकी योजनाओं और कल्पनाओं की सीमाओं से बाहर हैं। ऐसे समय में, तुम किस निष्कर्ष पर पहुँचते हो? (यह कि परमेश्वर सभी पर राज करता है।) परमेश्वर के संप्रभु होने में एक बात यह भी है कि यदि परमेश्वर तुम्हें कोई चीज नहीं देता है तो चाहे तुम कितना भी दौड़ो भागो और संघर्ष करो, इसका कोई फायदा नहीं है। यदि परमेश्वर तुम पर कृपा करता है तो सब कुछ बिना किसी रुकावट के सुचारु रूप से होता है और कोई भी तुम्हें रोक नहीं सकता। तुम्हें एहसास होगा कि इस मामले में अंतिम निर्णय परमेश्वर का होता है, परमेश्वर तुम्हारी सभी योजनाओं को बहुत स्पष्ट रूप से देख सकता है और यह मामला पूरी तरह से उसके हाथों में होता है। इस अनुभव के साथ तुम्हारा दिल अनजाने ही परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में सही अंतर्दृष्टि और ज्ञान प्राप्त करना शुरू कर देगा। कौन-सी अंतर्दृष्टि और ज्ञान? परमेश्वर ही वह है जो तुम्हें यह सब प्रदान कर रहा है। यदि परमेश्वर इसे छीनना चाहे तो फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम परमेश्वर के प्रति कितना समर्पण करते हो या तुम परमेश्वर को कितना जानते हो—यदि उसे छीनना होगा तो वह छीन ही लेगा। सब कुछ उसके हाथों में है, सब कुछ उसके द्वारा पूर्वनिर्धारित है और उसने सारी व्यवस्था की हुई है। तुम्हें खुद से चुनाव नहीं करना चाहिए। तो फिर ऐसे में क्या अब भी तुम्हारे दिल में तुम्हारी योजनाओं, आकलनों और व्यक्तिगत लक्ष्यों के लिए एक प्रमुख स्थान होगा? नहीं। ये मानवीय योजनाएँ और आकलन अनजाने ही कम से कमतर होते जाएँगे और तुम उन्हें छोड़ दोगे। इन चीजों को कैसे बदला जाता है? तुम्हारे लिए परमेश्वर की संप्रभुता का अनुभव करना उसकी संप्रभुता को देखने के बराबर है। हालाँकि परमेश्वर यह नहीं बताता कि उसने ये चीजें तुम लोगों से क्यों छीन ली हैं, लेकिन फिर भी तुम अपने दिल ही दिल में समझ जाओगे। जब परमेश्वर तुम्हें किसी एक प्रकार की चीज से नवाजता है, तुम्हें बहुत-सी दौलत से नवाजता है तो वह तुम्हें यह नहीं बताता कि उसने ऐसा क्यों किया है; परन्तु तुम्हें दिल ही दिल में एहसास होता है और तुम जानते हो कि यह परमेश्वर का आशीष है, कोई ऐसी चीज नहीं जिसे कोई व्यक्ति कमा सके। एक दिन, कुछ चीजें तुम से छीन ली जाएँगी और तुम अपने दिल ही दिल में स्पष्ट रूप से जान जाओगे कि यह परमेश्वर की इच्छा से है। जब तुम इन बातों को स्पष्ट रूप से समझ जाओगे तो क्या तुम्हें यह महसूस नहीं होगा कि परमेश्वर तुम्हारे हर कदम, तुम्हारे जीवन के हर दिन और हर गुजरते साल में तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है? जब परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा होगा तो तुम दिल ही दिल में महसूस करोगे कि तुम उसके सामने आ गए हो, कि तुम हर दिन उसके साथ बातचीत करते हो, कि हर दिन तुम्हारे पास नया ज्ञान होता है और हर साल तुम्हारे पास एक अच्छी फसल होती है। परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के बारे में तुम्हारी समझ अनजाने ही और भी गहरी होती जाएगी। जब तुम्हारे पास इस स्तर पर अनुभव होगा तो क्या तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए जगह नहीं होगी? यदि तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए स्थान होगा तो तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होगा, तो क्या फिर दूसरी चीजें, विचार या सिद्धांत तुम्हें गुमराह कर सकते हैं, भ्रमित कर सकते हैं और तुम्हें परमेश्वर को छोड़ने के लिए मना सकते हैं? यह असंभव है। यदि तुम परमेश्वर के बारे में सच्चा ज्ञान रखते हो, यदि सत्य ने तुम्हारे हृदय में जड़ें जमा ली हों, केवल तभी परमेश्वर तुम्हारे दिल में हमेशा के लिए निवास कर सकता है। यदि सत्य ने तुम्हारे दिल में जड़ें नहीं जमाईं तो फिर क्या परमेश्वर लंबे समय तक तुम्हारे दिल में रह सकता है? निश्चित रूप से नहीं रह सकता, क्योंकि फिर तुम्हारा दिल परमेश्वर से दूर हो सकता है और किसी भी क्षण उसे धोखा दे सकता है। यदि लोग अपने जीवन को निर्देशित करने के लिए हमेशा अपनी कल्पनाओं, धारणाओं, योजनाओं, आकलनों और इच्छाओं का उपयोग करेंगे, तो क्या वे परमेश्वर का ऐसा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं? (नहीं।) इसलिए, अय्यूब की तरह परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए, तुम्हारा अनुभव और अभ्यास करने का रास्ता सही होना चाहिए। यदि तुम्हारे अभ्यास के रास्ते में भटकाव होंगे तो फिर चाहे तुम्हारी आस्था या इच्छा कितनी भी महान क्यों न हो, इसका कोई फायदा नहीं होगा; चाहे तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ कितनी भी ऊँची क्यों न हों, इसका कोई फायदा नहीं होगा। जीवन के कई मामलों में, लोगों के अभ्यास करने के तरीके में भटकाव होते हैं। लोगों को बाहर से देखने से तो ऐसा लगता है कि जैसे वे बहुत कष्ट सहने और बड़ी कीमत चुकाने में सक्षम हैं, जैसे उनके संकल्प बहुत ऊँचे हैं और जैसे उनके दिल आग से भरे हुए हैं; लेकिन ऐसा क्यों है कि बहुत से अनुभवों के बाद, आखिर में उन्हें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का अनुभव से प्राप्त होने वाला ज्ञान नहीं मिलता? ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके अभ्यास करने के तरीके में भटकाव हैं और उनकी व्यक्तिपरक जागरूकता, उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ हमेशा आगे रहती हैं। ये चीजें आगे रहती हैं इसलिए परमेश्वर खुद को उनसे छिपा लेता है। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “मैं पवित्र राज्य के लिए प्रकट होता हूँ, और अपने आपको मलिनता की भूमि से छिपा लेता हूँ।” “मलिनता की भूमि” का मतलब क्या है? इसका अभिप्राय लोगों की विभिन्न इच्छाओं, योजनाओं और दृढ़ संकल्प से है—यहाँ तक कि उनके अच्छे इरादे और वे इरादे भी इसमें शामिल हैं जिन्हें वे सही मानते हैं। ये चीजें परमेश्वर को तुम पर कार्य करने से रोकती हैं और वे तुम्हारे चेहरे के सामने एक दीवार की तरह हैं जो तुम्हें पूरी तरह से बंद कर देती हैं ताकि तुम कभी भी परमेश्वर की संप्रभुता को देख न पाओ या उसका अनुभव न कर सको। यदि तुम परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं देख सकते या अनुभव नहीं कर सकते तो क्या तुम उसकी संप्रभुता को जान सकते हो? (नहीं।) तुम परमेश्वर की संप्रभुता को कभी भी जान नहीं पाओगे।

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