कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 39)

कर्तव्यों की जब बात आती है तो कुछ लोग कभी भी उचित व्यवहार नहीं करते हैं। इसके बजाय, वे खुद को अलग दिखाने के लिए लगातार नई-नई चीजें खोजते रहते हैं और बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। क्या यह अच्छी बात है? क्या ऐसे लोग दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण सहयोग कर सकते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते।) यदि कोई बड़ी-बड़ी बातें करता है, तो यह किस प्रकार का स्वभाव हुआ? (अहंकार और दंभ का स्वभाव।) यह अहंकार और दंभ है। ऐसे लोगों के कार्यों की प्रकृति कैसी होती है? (वे अपनी स्वायत्तता प्राप्त करना चाहते हैं, सबसे अलग होना चाहते हैं और अपना गुट बनाना चाहते हैं।) अपना गुट बनाने का मतलब है दूसरे लोगों को अपनी बात मानने के लिए मजबूर करना और मामलों को सत्य सिद्धांतों के अनुसार न संभालना। उनका इरादा और लक्ष्य अपनी स्वायत्तता प्राप्त करना है, सबसे अलग होना चाहते हैं, इसलिए ऐसे लोगों के कामों में चीज़ों के क्रम को बिगाड़ने की एक भावना होती है। चीज़ों का क्रम बिगाड़ने का मतलब क्या है? इसका अर्थ है विनाश करना और इसमें चीजों में विघ्न और बाधा पैदा करने का स्वभाव होता है। आमतौर पर, अधिकांश समस्याओं को सामूहिक संगति और आपसी चर्चा के जरिये हल किया जा सकता है, जिसमें अधिकांश निर्णय सत्य सिद्धांतों का पालन करते हुए लिए जाते हैं, जो उचित और सही होते हैं। हालाँकि कुछ लोग इस तरह की आम सहमति का लगातार विरोध करते हैं; वे न केवल सत्य खोजने से बचते हैं, बल्कि परमेश्वर के घर के हितों को भी अनदेखा करते हैं। वे औरों से अलग दिखने और दूसरों का सम्मान पाने के लिए अजीबोगरीब सिद्धांतों की बात करते हैं। वे लिए गए सभी सही निर्णयों का खंडन और दूसरों के चुनावों का विरोध करना चाहते हैं। इसी को चीजों के क्रम को बिगाड़ना और विनाश, व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करना कहते हैं। ऊँची-ऊँची बातें करने का सार यही है। अब सवाल यह उठता है कि इस तरह के व्यवहार में समस्या क्या है? पहली बात यह है कि ऐसे लोग भ्रष्ट स्वभाव और समर्पण की पूरी तरह से कमी को दर्शाते हैं। इसके अलावा ये स्वेच्छाचारी लोग हमेशा औरों से अलग दिखना चाहते हैं और दूसरों से सम्मान पाना चाहते हैं, नतीजतन वे कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं और परेशान करते हैं। बिना सत्य के वे चीजों की सच्चाई को नहीं भांप पाते, लेकिन फिर भी, वे दिखावा करने के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने में लगे रहते हैं, और जरा भी सत्य नहीं तलाशते। क्या यह मनमाना बर्ताव और लापरवाही नहीं है? अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने के लिए सबके साथ सहयोग करना सीखना जरूरी होता है। जब दो लोग किसी बात पर चर्चा करते हैं तो वह हमेशा ही एक व्यक्ति के दृष्टिकोण के मुकाबले में अधिक व्यापक और सटीक परिप्रेक्ष्य पैदा करती है। अगर कोई व्यक्ति दूसरों से अपना अनुसरण कराने के लिए हमेशा दूसरों से अलग दिखना चाहता है और आदतन बड़ी-बड़ी बातें करना चाहता है, तो यह एक खतरनाक बात है, यह अपनी ही लीक पर चलना है। व्यक्ति को अपने हर काम पर दूसरों के साथ चर्चा करनी चाहिए। उचित यह है कि पहले सुन लिया जाए कि औरों का इस बारे में क्या कहना है। यदि बहुमत का दृष्टिकोण सही और सत्य के अनुरूप हो, तो तुम्हें उसे स्वीकार करना और उसका पालन करना चाहिए। चाहे तुम जो भी करो, लेकिन बड़ी-बड़ी बातें न करो। किसी भी समूह में ऐसा करना कभी भी अच्छी बात नहीं होती है। जब तुम किसी ऐसे विचार का उपदेश देते हो जो सुनने में उच्च लगता है तो अगर यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो और इसे बहुमत की स्वीकृति प्राप्त हो, तो इसे स्वीकार्य माना जा सकता है। हालाँकि, यदि यह सत्य सिद्धांतों के विपरीत है और कलीसिया के कार्य के लिए हानिकारक है, तो तुम्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी ही चाहिए और अपने किए के नतीजे भुगतने चाहिए। इसके अतिरिक्त, सुनने में ऊँचे लगने वाले विचार व्यक्त करना एक स्वभावगत मुद्दा है। इससे साबित होता है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है और इसके बजाय तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर जी रहे हो। जब तुम सुनने में ऊँचे लगने वाले विचार व्यक्त करते हो, तो तुम दूसरों की अगुआई करने और उनकी कमान संभालने की कोशिश कर रहे होते हो, और तुम अपनी कामयाबी पाने और अपना खुद का अधिकार क्षेत्र स्थापित करने की कोशिश भी कर रहे होते हो; तुम चाहते हो कि परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग तुम्हारी बात सुनें, तुम्हारे पीछे चलें और तुम्हारी आज्ञा मानें। यह एक मसीह विरोधी के मार्ग पर चलना है। क्या तुम्हें यकीन है कि तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों का मार्गदर्शन कर उन्हें सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करा सकते हो? क्या तुम उन्हें परमेश्वर के राज्य तक ले जा सकते हो? तुम्हारे पास तो खुद सत्य की कमी है और तुम परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा देने में सक्षम हो—यदि तुम अभी भी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इस मार्ग पर ले जाना चाहते हो, तो क्या तुम एक प्रमुख पापी नहीं बन गए हो? पौलुस एक प्रमुख पापी बन गया था और अभी भी परमेश्वर से दण्ड पा रहा है। यदि तुम एक मसीह विरोधी के मार्ग पर चलते हो, तो तुम पौलुस के मार्ग पर चल रहे हो, और तुम्हारा अंतिम परिणाम और अंत भी उससे अलग नहीं होगा। इसलिए जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, उन्हें सुनने में ऊँचे लगने वाले विचार व्यक्त नहीं करने चाहिए। बल्कि, उन्हें सत्य की खोज करना, उसे स्वीकार करना और सत्य और परमेश्वर दोनों के प्रति समर्पित होना सीखना चाहिए। केवल ऐसा करने से ही वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे अपने ही रास्ते पर न चलें और वे किसी अन्य दिशा में भटके बिना परमेश्वर का अनुसरण करें। परमेश्वर का घर लोगों से अपेक्षा करता है कि वे अपने कर्तव्यों को निभाने में एक दूसरे के साथ सद्भाव से सहयोग करें। यह सार्थक है और अभ्यास का सही रास्ता भी है। कलीसिया में यह संभव है कि पवित्रात्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन उन लोगों में से किसी को भी मिल सकता है जो सत्य समझते हैं और जिनमें समझने की क्षमता है। तुम्हें पवित्रात्मा की प्रबुद्धता और रोशनी को थाम लेना चाहिए और करीब से इसका अनुसरण करना चाहिए और इस पर गहनता से काम करना चाहिए। ऐसा करने से तुम सबसे ज्यादा सही रास्ते पर चल रहे होगे; यह पवित्र आत्मा द्वारा निर्देशित मार्ग है। इस बात पर विशेष ध्यान दो कि पवित्र आत्मा जिन पर कार्य करता है, उनमें वह किस प्रकार कार्य करता है और कैसे उनका मार्गदर्शन करता है। तुम्हें अक्सर दूसरों के साथ संगति करनी चाहिए, अपने सुझाव देने चाहिए और अपने विचार व्यक्त करने चाहिए—यह तुम्हारा कर्तव्य भी है और तुम्हारी स्वतंत्रता भी है। लेकिन अंत में, जब कोई निर्णय लेने का समय आए और तुम अकेले ही अंतिम निर्णय लेते हो, सब को तुम्हारा कहा मानने को और तुम्हारी मर्जी के अनुसार चलने को मजबूर करते हो तो फिर तुम सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हो। तुम्हें इस आधार पर सही चुनाव करना चाहिए कि अधिकांश लोग क्या सोचते हैं और फिर निर्णय लेना चाहिए। यदि अधिकांश लोगों के सुझाव सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं, तो तुम्हें सत्य को कायम रखना चाहिए। केवल यही सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। यदि तुम हमेशा सुनने में ऊँचे लगने वाले विचार व्यक्त करते हो, दूसरों को प्रभावित करने के लिए कुछ गहन सिद्धांतों को समझाने की कोशिश करते हो और वास्तव में तुम्हें दिल में एहसास होता है कि तुम गलत कर रहे हो, तो खुद को जबरदस्ती लोकप्रिय बनाने की कोशिश न करो। क्या यह तुम्हारा कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए? तुम्हारा कर्तव्य क्या है? (मुझे जो कर्तव्य दिया गया है उसे निभाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देना और केवल वही बात करना जिसे मैं समझती हूँ। यदि मेरी अपनी कोई राय नहीं है, तो मुझे दूसरों के सुझावों को और अधिक सुनना और समझदारी से पहचानना सीखना चाहिए और मुझे उस मुकाम पर पहुँचना चाहिए जहाँ मैं सबके साथ मिलजुलकर सहयोग कर सकूँ।) यदि तुम्हें कुछ भी स्पष्ट नहीं है और तुम्हारी अपनी कोई राय नहीं है, तो सुनना और पालन करना और सत्य की तलाश करना सीखो। यह वह कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए; यह एक ईमानदार रवैया है। यदि तुम्हारी अपनी कोई राय नहीं है और तुम्हें हमेशा इस बात का डर होता है कि तुम मूर्ख दिखोगे और खुद को दूसरों से अलग साबित नहीं कर सकोगे और तुम्हें अपमानित होना पड़ेगा—यदि तुम्हें दूसरों के द्वारा तिरस्कृत किए जाने और उनके दिलों में अपने लिए कोई जगह न होने का डर है और इसलिए तुम हमेशा खुद को सुर्खियों में रखने की कोशिश करते हो और हमेशा सुनने में ऊँचे लगने वाले विचार व्यक्त करना चाहते हो, ऐसे बेतुके दावे करते हो जिनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता और तुम चाहते हो कि दूसरे उन्हें स्वीकार करें—तो क्या तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो? (नहीं।) यह तुम क्या कर रहे हो? तुम विनाशकारी बन रहे हो। जब तुम लोग किसी को लगातार इस तरह का व्यवहार करते हुए देखो तो तुम लोगों को उसकी सीमाएँ निर्धारित करनी चाहिए। और यह सीमाएँ कैसे निर्धारित की जानी चाहिए? तुम्हें उन्हें पूरी तरह से चुप कराने और उन्हें बोलने का अवसर न देने की आवश्यकता नहीं है। तुम उन्हें संगति करने दे सकते हो और उन्हें अलग नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन उनके आस-पास सभी को विवेक का प्रयोग करना चाहिए। यही सिद्धांत है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति एक गलत दृष्टिकोण व्यक्त करता है जो पूरी तरह से मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप है और अधिकांश लोग उस व्यक्ति का समर्थन करते हैं और उससे सहमत होते हैं, लेकिन कुछ लोग जिनके पास अभी भी थोड़ी सी भेद पहचानने की क्षमता है, उन्हें पता चल जाता है कि उसके इस दृष्टिकोण में उसकी मर्जी, उसकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की मिलावट है, तो फिर इन लोगों को उस व्यक्ति को बेनकाब करना चाहिए और उन्हें आत्मचिंतन करने और खुद को जानने के लिए प्रेरित करना चाहिए। यह सही तरीका है। यदि कोई भी अपने भेद पहचानने की क्षमता का प्रयोग नहीं करेगा या अपनी राय व्यक्त नहीं करेगा और हर कोई केवल लोगों को खुश करने वालों की तरह व्यवहार करेगा तो निश्चित रूप से ऐसे लोग भी होंगे जो उस व्यक्ति के तलवे चाटेंगे, उसका समर्थन करेंगे और उसकी मदद करेंगे और इस प्रकार उस व्यक्ति की महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को बढ़ावा मिलेगा। फिर वह व्यक्ति कलीसिया के भीतर शक्तिशाली होने लगेगा। जब ऐसा होता है तो स्थिति खतरनाक बन जाती है क्योंकि वह उन लोगों के साथ गठजोड़ कर सकता है जो उसका समर्थन करते हैं और अपनी अलग सेना बना सकता है और बुराई करके कलीसिया के कार्य में बाधा डाल सकता है। इस तरह वह मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चल पड़ेगा। जैसे ही वह कलीसिया पर नियंत्रण पा लेगा तो वह मसीह-विरोधी बन जाएगा और अपना स्वयं का स्वतंत्र राज्य स्थापित करना शुरू कर देगा।

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