कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 36)
इस गीत के बोल “एक ईमानदार व्यक्ति होना बहुत खुशी की बात है” काफी व्यावहारिक हैं, और मैंने संगति के लिए कुछ पंक्तियाँ चुनी हैं। आइए सबसे पहले इस पंक्ति पर संगति करें, “मैं पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य पालन करता हूँ, और मुझे देह की कोई चिंता नहीं है।” यह कौन-सी स्थिति है? ये कैसे व्यक्ति हैं जो पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य पालन कर सकते हैं? क्या उनके पास अंतःकरण है? क्या उन्होंने एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी की है? क्या उन्होंने किसी भी तरह से परमेश्वर का बकाया चुकाया है? (हाँ।) अपना कर्तव्य पालन पूरे हृदय और मस्तिष्क से कर पाने का मतलब यह है कि वे इसे गंभीरता से, जिम्मेदारी से, बिना अनमने हुए, बिना चालाकी किए या ढिलाई बरते और जिम्मेदारी से भागे बिना पूरा करते हैं। उनका रवैया उचित है और उनकी स्थिति एवं मानसिकता सामान्य है। उनके पास विवेक और अंतःकरण है, वे परमेश्वर के प्रति विचारशील हैं, और वे अपने कर्तव्य के प्रति वफादार और समर्पित हैं। “देह की कोई चिंता नहीं है” का क्या अर्थ है? यहाँ भी कुछ स्थितियाँ काम कर रही हैं। इसका मुख्य अर्थ यह है कि वे अपने देह के भविष्य के बारे में चिंतित नहीं हैं और वे आगे आने वाली चीजों की योजना नहीं बनाते हैं। यानी वे यह नहीं सोचते कि बूढ़े होने पर वे क्या करेंगे, उनकी देखभाल कौन करेगा, या तब वे कैसे रहेंगे। वे इन चीजों पर विचार नहीं करते हैं, और इसके बजाय सभी चीजों में परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करते हैं। अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा करना उनका पहला और सबसे महत्वपूर्ण कार्य है—अपने कर्तव्य पर कायम रहना और परमेश्वर के आदेश को कायम रखना सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। जब लोग सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकते हैं, तो क्या उनमें कुछ मानवीय समानता नहीं है? इसमें मानवीय समानता है। लोगों को कम से कम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए, निष्ठावान होना चाहिए और अपना पूरा हृदय और मस्तिष्क उसमें लगाना चाहिए। “अपने कर्तव्य पर कायम रहने” का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि लोगों को चाहे जितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, वे हाथ नहीं खड़े करते, भगोड़े नहीं बनते या अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटते। वे वो सब करते हैं जो वे कर सकते हैं। अपने कर्तव्य पर कायम रहने का यही मतलब है। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे लिए किसी कार्य की व्यवस्था की गई है, और तुम पर नजर रखने, तुम्हारी निगरानी करने या तुमसे आग्रह करने के लिए कोई नहीं है। तुम्हारा कर्तव्य पर कायम रहना कैसा दिखेगा? (परमेश्वर की जाँच स्वीकारना और उसकी उपस्थिति में रहना।) परमेश्वर की जाँच स्वीकारना पहला कदम है; वह इसका एक हिस्सा है। दूसरा हिस्सा है पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य पूरा करना। इसे पूरे हृदय और मस्तिष्क से पूरा करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य को स्वीकार करना चाहिए और उसे अभ्यास में लाना चाहिए; अर्थात्, परमेश्वर जो भी माँग करे, उसे स्वीकार कर तुम्हें उसके प्रति समर्पित होना चाहिए; तुम्हें अपना कर्तव्य वैसे ही संभालना चाहिए जैसे तुम अपने निजी मामलों को संभालते हो, किसी और को तुम पर निगाह रखने, तुम्हारी निगरानी करने, जाँच करने की जरूरत नहीं है, और यह सुनिश्चित करने के लिए कि तुम इसे सही कर रहे हो, तुम पर नजर रखने, तुम जो कर रहे हो उसका पर्यवेक्षण करने, या यहाँ तक कि काट-छाँट करने की भी जरूरत नहीं है। तुम्हें मन ही मन सोचना चाहिए, “यह कर्तव्य निभाना मेरी जिम्मेदारी है। यह मेरा हिस्सा है, और चूँकि यह मुझे करने के लिए दिया गया है, और मुझे इसके सिद्धांत बताए गए हैं और मैंने उन्हें समझ लिया है, मैं इसे एकाग्रचित्त होकर करता रहूँगा। मैं इसे अच्छी तरह संपन्न होते देखने के लिए हर संभव प्रयास करूँगा।” तुम्हें इस कर्तव्य को निभाने में दृढ़ रहना चाहिए, और किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज के कारण बाध्य नहीं होना चाहिए। अपने पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपने कर्तव्य को पूरा करने का यही मतलब है, और यही वह समानता है जो लोगों में होनी चाहिए। तो, लोगों को पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपने कर्तव्य पर कायम रहने के लिए किस चीज से लैस होना चाहिए? सबसे पहले उनके पास वह अंतःकरण होना चाहिए, जो सृजित प्राणियों के पास होना जरूरी है। यह न्यूनतम शर्त है। इसके अलावा उन्हें निष्ठावान भी होना चाहिए। एक मनुष्य के तौर पर परमेश्वर का आदेश स्वीकारने के लिए व्यक्ति को निष्ठावान होना चाहिए। उसे पूरी तरह सिर्फ परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए और वह अनमना या जिम्मेदारी लेने में विफल नहीं हो सकता; अपनी रुचि या मनोदशा के आधार पर काम करना गलत है, यह निष्ठावान होना नहीं है। निष्ठावान होने से क्या आशय है? इसका आशय यह है कि अपने कर्तव्य निभाते समय, तुम अपनी मनोदशा, वातावरण, लोगों, घटनाओं और चीजों से प्रभावित और विवश नहीं होते हो। तुम्हें मन में सोचना चाहिए, “मैंने यह आदेश परमेश्वर से स्वीकारा है; उसने यह मुझे सौंपा है। मुझसे यही अपेक्षित है। अतः मैं इसे अपना ही मामला मानकर जिस भी तरीके से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं उस तरह इस काम को करूँगा, परमेश्वर को संतुष्ट करने पर जोर दूँगा।” जब तुम इस मनोदशा में होते हो, तो तुम न केवल अपने अंतःकरण से नियंत्रित होते हो, बल्कि इसमें निष्ठा भी शामिल होती है। यदि तुम काम में दक्षता या परिणाम पाने की आशा किए बिना इसे बस यों ही पूरा कर देने में संतुष्ट हो और ऐसा महसूस करते हो कि कुछ प्रयास कर लेना ही पर्याप्त है, तो यह केवल लोगों के अंतःकरण का मानक पूरा करना है और इसे निष्ठा नहीं माना जा सकता है। परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना अंतःकरण के मानक से ऊँची अपेक्षा और मानक है। यह केवल अपने सारे प्रयास झोंकना नहीं होता; तुम्हें इसमें अपना सम्पूर्ण हृदय भी लगाना चाहिए। तुम्हें दिल से अपने कर्तव्य को हमेशा अपना काम मानना चाहिए, इस काम के लिए भार उठाना चाहिए, कोई छोटी-सी ग़लती करने पर या असावधान होने की दशा में फटकार सहनी चाहिए, ऐसा महसूस करना चाहिए कि तुम ऐसा आचरण नहीं कर सकते क्योंकि इससे तुम परमेश्वर के बहुत बड़े ऋणी बन जाते हो। जिन लोगों के पास सच्चे अर्थों में अंतःकरण और विवेक होता है, वे अपने कर्तव्य इस तरह निभाते हैं मानो वे उनके अपने ही काम हों, और इस बात की परवाह नहीं करते कि कोई उनकी चौकसी या निगरानी कर रहा है या नहीं। परमेश्वर उनसे प्रसन्न हो या नहीं या वो उनके साथ चाहे जैसा भी व्यवहार करे, वे अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के सौंपे हुए आदेश पूरा करने की खुद से कठोर अपेक्षा करते हैं। इसे निष्ठा कहते हैं। क्या यह अंतःकरण के मानक स्तर से अधिक ऊँचा मानक नहीं है? अंतःकरण के मानक के अनुसार कार्य करते समय लोग अक्सर बाहरी चीजों से प्रभावित होते हैं, या सोचते हैं कि अपने कर्तव्य के लिए सारे प्रयास लगा देना ही पर्याप्त है; शुद्धता का स्तर उतना ऊँचा नहीं है। लेकिन, अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाने में सक्षम होने और निष्ठावान होने की बात की जाए, तो पवित्रता का स्तर इससे ऊँचा होता है। यह मतलब केवल प्रयास करना भर नहीं है; इसके लिए तुम्हें अपना पूरा हृदय, मस्तिष्क और शरीर अपने कर्तव्य के लिए लगाना होगा। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए, तुम्हें कभी-कभी थोड़ी शारीरिक कठिनाई भी सहनी पड़ेगी। तुम्हें कीमत चुकानी ही होगी, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने सारे विचार समर्पित करने होंगे। चाहे तुम किसी भी परिस्थिति का सामना करो, उनके कारण तुम्हारे कर्तव्य पर असर नहीं पड़ेगा या तुम्हारा कर्तव्य निभाने में देर नहीं होगी, और तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम रहोगे। ऐसा करने के लिए, तुम्हें कीमत चुकाने में सक्षम होना चाहिए। तुम्हें अपना दैहिक परिवार, व्यक्तिगत मामले और स्वार्थ त्याग देना चाहिए। तुम्हें घमंड, अभिमान, भावनाओं, भौतिक सुखों, और यहाँ तक कि अपने यौवन के सर्वोत्तम वर्षों, अपनी शादी, अपने भविष्य और भाग्य जैसी चीजों से भी मुक्त होकर इन्हें त्याग देना चाहिए, और तुम्हें स्वेच्छा से अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। तब, तुम्हें निष्ठा प्राप्त हो जाएगी, और इस तरह जीवन जीने से तुम्हें मानवीय समानता प्राप्त होगी। इस तरह के लोगों के पास न केवल अंतःकरण होता है, बल्कि वे अंतःकरण के मानक का उपयोग एक नींव के रूप में करते हैं जिससे वे अपने आप से उस निष्ठा की अपेक्षा कर सकें जिसकी अपेक्षा परमेश्वर मनुष्य से करता है, और इस निष्ठा का उपयोग अपने मूल्यांकन के साधन के रूप में करते हैं। वे इस लक्ष्य के लिए लगन से प्रयास करते हैं। ऐसे लोग पृथ्वी पर दुर्लभ हैं। परमेश्वर के चुने हुए हजारों लोगों में ऐसा केवल एक ही होता है। क्या ऐसे लोग मूल्यवान जीवन जीते हैं? क्या ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर संजोता है? निःसंदेह वे मूल्यवान जीवन जीते हैं और ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर संजोता है।
इस गीत की अगली पंक्ति कहती है, “भले ही मेरी क्षमता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।” ये शब्द बहुत वास्तविक लगते हैं, और उस अपेक्षा के बारे में बताते हैं जो परमेश्वर लोगों से चाहता है। कैसी अपेक्षा? यही कि यदि लोगों में क्षमता की कमी है, तो यह दुनिया का अंत नहीं है, लेकिन उनके पास ईमानदार हृदय होना चाहिए, और यदि उनके पास यह है, तो वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम होंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी स्थिति या पृष्ठभूमि क्या है, तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए, ईमानदारी से कार्य करना चाहिए, पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होना चाहिए, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, कन्नी काटने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, धूर्त या कपटी व्यक्ति मत बनो, झूठ मत बोलो, धोखा मत दो, और घुमा-फिरा कर बात मत करो। तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो सत्य का अनुसरण करे। बहुत से लोग सोचते हैं कि उनकी क्षमता कम है और वे कभी भी अपना कर्तव्य अच्छी तरह से या मानक के अनुरूप नहीं निभाते हैं। वे जो करते हैं उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं, लेकिन वे सिद्धांतों को कभी नहीं समझ सकते और अब भी बहुत अच्छे परिणाम नहीं दे सकते हैं। अंततः वे बस यह शिकायत कर सकते हैं कि उनकी काबिलियत बहुत कम है, और वे नकारात्मक हो जाते हैं। तो, क्या जब किसी व्यक्ति की क्षमता कम हो तो आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है? कम क्षमता होना कोई घातक बीमारी नहीं है, और परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि वह कम क्षमता वाले लोगों को नहीं बचाता। जैसा कि परमेश्वर ने पहले कहा था, वह उन लोगों से दुखी होता है जो ईमानदार लेकिन अज्ञानी हैं। अज्ञानी होने का क्या मतलब है? कई मामलों में अज्ञानता कम क्षमता के कारण आती है। जब लोगों में क्षमता कम होती है तो उन्हें सत्य की सतही समझ होती है। यह विशिष्ट या पर्याप्त व्यावहारिक नहीं होती, और अक्सर सतही स्तर या शाब्दिक समझ तक ही सीमित होती है—यह धर्म-सिद्धांतों और विनियमों तक ही सीमित होती है। इसीलिए वे कई समस्याओं को समझ नहीं पाते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी सिद्धांतों को नहीं समझ पाते हैं, या अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाते हैं। तो क्या परमेश्वर कम क्षमता वाले लोगों को नहीं चाहता? (वह चाहता है।) परमेश्वर लोगों को कैसा मार्ग और दिशा दिखाता है? (एक ईमानदार व्यक्ति बनने का मार्ग और दिशा।) क्या ऐसा कहने मात्र से तुम एक ईमानदार व्यक्ति बन सकते हो? (नहीं, तुममें एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए।) एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ क्या हैं? सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के बारे में कोई संदेह नहीं होना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाओं में से एक है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, “भले ही मेरी क्षमता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।” फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिये बहाने बनाते हो या फिर सुझाते कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिये साजिश न करना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए। अगर तुम वह नहीं करते जो तुम जानते और समझते हो, अगर तुम अपने प्रयास का 50-60 प्रतिशत ही देते हो, तो तुम इसमें अपना पूरा दिल और अपनी सारी शक्ति नहीं लगा रहे हो। बल्कि तुम धूर्त और काहिल हो। क्या इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने वाले लोग ईमानदार होते हैं? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर के पास ऐसे धूर्त और धोखेबाज लोगों का कोई उपयोग नहीं है; उन्हें निकाल देना चाहिए। परमेश्वर कर्तव्य निभाने के लिए सिर्फ ईमानदार लोगों का उपयोग करता है। यहाँ तक कि निष्ठावान मजदूर भी ईमानदार होने चाहिए। जो लोग हमेशा अनमने और धूर्त होते हैं और ढिलाई के तरीके तलाशते रहते हैं—वे सभी लोग धोखेबाज हैं, वे सभी राक्षस हैं। उनमें से कोई भी वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता और वे सभी निकाल दिए जाएँगे। कुछ लोग सोचते हैं, “ईमानदार व्यक्ति होने का मतलब बस सच बोलना और झूठ न बोलना है। ईमानदार व्यक्ति बनना तो वास्तव में आसान है।” तुम इस भावना के बारे में क्या सोचते हो? क्या ईमानदार व्यक्ति होने का दायरा इतना सीमित है? बिल्कुल नहीं। तुम्हें अपना हृदय प्रकट करना होगा और इसे परमेश्वर को सौंपना होगा, यही वह रवैया है जो एक ईमानदार व्यक्ति में होना चाहिए। इसलिए एक ईमानदार हृदय अनमोल है। इसका तात्पर्य क्या है? इसका तात्पर्य है कि एक ईमानदार हृदय तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित कर सकता है और तुम्हारी मनोदशा बदल सकता है। यह तुम्हें सही विकल्प चुनने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसकी स्वीकृति प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकता है। ऐसा हृदय सचमुच अनमोल है। यदि तुम्हारे पास इस तरह का ईमानदार हृदय है, तो तुम्हें इसी स्थिति में रहना चाहिए, तुम्हें इसी तरह व्यवहार करना चाहिए, और इसी तरह तुम्हें खुद को समर्पित करना चाहिए। तुम्हें इन गीतों पर गहन चिंतन करना चाहिए। कोई भी वाक्य अपने शाब्दिक अर्थ जितना सरल नहीं है, और यदि तुम वास्तव में इस पर विचार करने के बाद इसे समझते हो तो तुम्हें अवश्य कुछ हासिल होगा।
आइए गीत की एक और पंक्ति देखें : “अपनी पूरी निष्ठा से सभी चीजों में परमेश्वर के इरादों को पूरा करो।” इन शब्दों में अभ्यास का मार्ग है। कुछ लोग अपना कर्तव्य करते समय जब कठिनाइयों का सामना करते हैं तो वे नकारात्मक हो जाते हैं, और इससे वे अपना कर्तव्य पालन करने के अनिच्छुक हो जाते हैं। इन लोगों के साथ कुछ गड़बड़ है। क्या वे ईमानदारी से स्वयं को परमेश्वर के लिए खपा भी रहे हैं? उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि कठिनाइयों का सामना करने पर वे नकारात्मक क्यों हो जाते हैं, और वे समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की तलाश क्यों नहीं कर पाते हैं। यदि वे आत्म-चिंतन कर सत्य खोज सकें, तो वे अपनी समस्याओं को समझ लेंगे। दरअसल, लोगों के लिए सबसे बड़ी कठिनाई मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभाव की समस्या है। यदि तुम सत्य की खोज कर सकते हो, तो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करना आसान होगा। जैसे ही तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक कर लोगे, तुम परमेश्वर के इरादे पूरा करने के लिए सभी चीजों में अपनी पूरी निष्ठा देने में सक्षम हो जाओगे। “सभी चीजों” का अर्थ है कि चाहे वह कुछ भी हो, चाहे वह कुछ ऐसा हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया हो, कुछ ऐसा हो जिसकी व्यवस्था किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने तुम्हारे लिए की हो, या कुछ ऐसा हो जिसका सामना तुम्हें संयोगवश करना पड़ा हो, जब तक कि यह वही है जो तुम्हारे करने के लिए है और तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकते हो, तुम इसे अपनी पूरी निष्ठा देते हो, और जो जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य तुम्हें निभाने चाहिए उन्हें पूरा करते हो, और परमेश्वर के इरादों को पूरा करना ही अपना सिद्धांत मानते हो। यह सिद्धांत थोड़ा भव्य लगता है और लोगों को इसका पालन करना थोड़ा कठिन लगता है। अधिक व्यावहारिक शब्दों में कहें तो इसका अर्थ है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना। अपने कर्तव्य पर कायम रहना और उसे अच्छी तरह से पूरा करना आसान काम नहीं है। चाहे तुम अगुआ हो या कार्यकर्ता, या कोई अन्य कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हें कुछ सत्य समझ लेने चाहिए। क्या तुम सत्य को समझे बिना अपना कर्तव्य अच्छी तरह से पूरा कर सकते हो? क्या तुम सत्य सिद्धांतों का पालन किये बिना इसे अच्छी तरह से पूरा कर सकते हो? यदि तुम सत्य के सभी पहलुओं को समझते हो और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर सकते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से पूरा कर लोगे, अपने कर्तव्य पर कायम रहोगे, सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लोगे और परमेश्वर के इरादे पूरे कर सकोगे। यही अभ्यास का मार्ग है। क्या यह करना आसान है? तुम जो कर्तव्य निभाते हो, अगर तुम उसमें कुशल हो और इसे पसंद करते हो, तो तुम्हें लगता है कि यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है, और इसे करना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है। तुम हर्ष, उल्लास, और सहज महसूस करते हो। तुम इसे करने के लिए तैयार हो, इसे अपनी सारी निष्ठा दे सकते हो, और तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो। लेकिन जब एक दिन तुम्हें किसी ऐसे कर्तव्य का सामना करना पड़ता है जो तुम्हें पसंद नहीं है या जिसे तुमने पहले कभी नहीं किया है, तो क्या तुम उसमें अपनी पूरी निष्ठा दे पाओगे? इससे यह परीक्षा हो जाएगी कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो या नहीं। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा कर्तव्य भजन मंडली में है, और तुम्हें गाना आता है और इसमें तुम्हें आनंद भी आता है, तो तुम यह कर्तव्य निभाने के लिए तैयार रहोगे। यदि तुम्हें कोई अन्य कर्तव्य दिया जाए, तुम्हें सुसमाचार फैलाने के लिए कहा जाए और काम थोड़ा कठिन हो, तो क्या तुम आज्ञा मान सकोगे? तुम इस पर विचार करते हो और कहते हो, “मुझे गाना पसंद है।” इसका अर्थ क्या है? इसका मतलब है कि तुम सुसमाचार फैलाना नहीं चाहते। इसका साफ-साफ मतलब यही है। तुम बस यही कहते रहते हो कि “मुझे गाना पसंद है।” यदि कोई अगुआ या कार्यकर्ता तुम्हें समझाने की कोशिश करता है, “तुम सुसमाचार फैलाने का प्रशिक्षण क्यों नहीं लेते और खुद को और अधिक सत्यों से सुसज्जित क्यों नहीं करते? यह तुम्हारे जीवन में विकास के लिए अधिक फायदेमंद होगा,” तुम अभी भी अपनी ही बात पर अड़े हो और कहते हो “मुझे गाना पसंद है, और मुझे नृत्य पसंद है।” चाहे वे कुछ भी कहें, तुम सुसमाचार फैलाने नहीं जाना चाहते। तुम जाना क्यों नहीं चाहते? (रुचि की कमी के कारण।) तुम्हारी रुचि नहीं है इसलिए तुम जाना नहीं चाहते—यहाँ समस्या क्या है? समस्या यह है कि तुम अपनी प्राथमिकताओं और व्यक्तिगत रुचि के अनुसार अपना कर्तव्य चुनते हो और समर्पण नहीं करते हो। तुममें समर्पण नहीं है, और यही समस्या है। यदि तुम इस समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज नहीं करते हो, तो तुम वास्तव में सच्चा समर्पण नहीं दिखा रहे हो। इस स्थिति में सच्चा समर्पण दिखाने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए क्या कर सकते हो? यही वह समय है जब तुम्हें सत्य के इस पहलू पर चिंतन और संगति करने की आवश्यकता है। यदि तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए सभी चीजों में अपनी सारी निष्ठा देना चाहते हो, तो तुम इसे केवल एक कर्तव्य निभाकर नहीं कर सकते हो; तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए हर आदेश को स्वीकार करना चाहिए। चाहे वह तुम्हारी पसंद के अनुसार हो और तुम्हारी रुचियों से मेल खाता हो, या कुछ ऐसा हो जो तुम्हें पसंद नहीं है, पहले कभी नहीं किया हो, या कठिन हो, फिर भी तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए। तुम्हें न केवल इसे स्वीकार करना चाहिए, बल्कि तुम्हें सक्रिय रूप से सहयोग भी करना चाहिए, और अनुभव और प्रवेश करते समय इसके बारे में सीखना चाहिए। भले ही तुम्हें कष्ट झेलना पड़े, भले ही तुम थके-माँदे हो, अपमानित हो, या बहिष्कृत कर दिए गए हो, फिर भी तुम्हें अपनी पूरी निष्ठा लगा देनी चाहिए। केवल इस तरह से अभ्यास करके ही तुम सभी चीजों में अपनी पूरी निष्ठा दे पाओगे और परमेश्वर के इरादे पूरे कर पाओगे। तुम्हें इसे अपना व्यक्तिगत कामकाज नहीं, बल्कि कर्तव्य मानना चाहिए जिसे निभाना ही है। लोगों को कर्तव्यों को कैसे समझना चाहिए? उन्हें इसे सृष्टिकर्ता—परमेश्वर—द्वारा किसी व्यक्ति को करने के लिए दी गई चीज समझना चाहिए; लोगों के कर्तव्य ऐसे ही आरंभ होते हैं। परमेश्वर जो आदेश तुम्हें देता है, वह तुम्हारा कर्तव्य होता है, और यह पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है कि तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाओ। अगर तुम्हें यह स्पष्ट है कि यह कर्तव्य परमेश्वर का आदेश है, कि यह तुम पर परमेश्वर के प्रेम और आशीष की वर्षा है, तो तुम परमेश्वर से प्रेम करने वाले हृदय के साथ अपना कर्तव्य स्वीकार कर सकोगे, और तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहोगे और तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सभी मुश्किलों से उबरने में सफल रहोगे। जो लोग खुद को सचमुच परमेश्वर के लिए खपाते हैं, वे परमेश्वर के आदेश को कभी नहीं ठुकराते, वे कभी कोई कर्तव्य नहीं ठुकरा सकते। परमेश्वर तुम्हें चाहे जो भी कर्तव्य सौंपे, उसमें चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न हों, तुम्हें मना करने के बजाय उसे स्वीकार करना चाहिए। यह अभ्यास का रास्ता है, जिसका अर्थ है सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सभी चीजों में संपूर्ण निष्ठा देना। यहाँ केन्द्र बिन्दु कहाँ है? यह “सभी चीजों में” है। “सभी चीजों” का मतलब जरूरी नहीं कि वे चीजें हों जो तुम्हें पसंद हों या जिनमें तुम अच्छे हो, ये वे चीजें तो बिल्कुल भी नहीं हैं जिनसे तुम वाकिफ हो। कभी-कभी वे ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम कुशल नहीं हो, ऐसी चीजें होंगी जिन्हें तुम्हें सीखने की जरूरत है, ऐसी चीजें जो कठिन हैं, या ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम्हें कष्ट सहना होगा। लेकिन चाहे कोई भी चीज हो, जब तक परमेश्वर ने यह तुम्हें सौंपी है, तुम्हें उससे यह स्वीकारनी चाहिए; तुम्हें इसे स्वीकार कर पूरी निष्ठा के साथ अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए और परमेश्वर के इरादे पूरे करने चाहिए। यही अभ्यास का मार्ग है। चाहे जो हो जाए, तुम्हें हमेशा सत्य खोजना चाहिए और एक बार जब तुम निश्चित हो जाते हो कि किस प्रकार का अभ्यास परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है तो तुम्हें इसी प्रकार अभ्यास करना चाहिए। केवल ऐसा करके ही तुम सत्य का अभ्यास कर रहे होते हो, और केवल इसी तरह से तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो।
गीत की एक और पंक्ति इस प्रकार है, “मैं खुले दिल वाला और खरा हूँ, निष्कपट हूँ, प्रकाश में रहता हूँ।” मनुष्य को यह मार्ग कौन देता है? (परमेश्वर।) यदि कोई खुले दिल वाला और खरा है, तो वह एक ईमानदार व्यक्ति है। उसने अपना दिल और आत्मा पूरी तरह से परमेश्वर के लिए खोल दिए हैं, उसके पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है, न किसी चीज से छिपने की जरूरत है। वह अपना दिल परमेश्वर को सौंप चुका है, उसे दिखा चुका है, यानी उसने अपना सर्वस्व उसे दे दिया है। तो क्या वह अब भी परमेश्वर से दूर रह सकता है? नहीं, वह नहीं रह सकता, और इसलिए उसके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाता है। यदि परमेश्वर कहता है कि वह कपटी है, तो वह मान लेता है। यदि परमेश्वर कहता है कि वह अहंकारी और आत्मतुष्ट है, तो वह इसे भी मान लेता है, और वह बस इन चीजों को मानकर यहीं पर नहीं छोड़ देता—बल्कि वह पश्चात्ताप कर सकता है, और यह एहसास होने पर कि वह गलत है तो सत्य सिद्धांत हासिल करने का प्रयास कर अपनी त्रुटियों को दूर कर सकता है। उसे पता भी नहीं चलेगा कि उसने अपने कई गलत तौर-तरीके कब सुधार लिए, उसका छल-कपट, और अनमनापन कम होते चले जाएँगे। वह इस तरह जितने लंबे समय तक जीवन जिएगा, उतना ही खुलता जाएगा, सम्माननीय होता जाएगा और एक ईमानदार व्यक्ति बनने के लक्ष्य के उतने ही करीब पहुँच जाएगा। प्रकाश में रहने का यही अर्थ है। यह सारी महिमा परमेश्वर की है! अगर लोग प्रकाश में रहते हैं तो यह परमेश्वर का कार्य है—यह उनके शेखी बघारने का विषय नहीं है। जब लोग प्रकाश में रहते हैं, तो वे हर सत्य समझने लगते हैं, उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, उनके सामने जो भी मसला आता है, वे उसमें सत्य खोजना और उसका अभ्यास करना जानते हैं, वह अंतरात्मा और विवेक के साथ जीते हैं। भले ही उन्हें धार्मिक व्यक्ति नहीं कहा जा सकता, फिर भी परमेश्वर की दृष्टि में उनमें थोड़ी-बहुत मानवीय समानता होती है, कम से कम वे अपनी कथनी-करनी में परमेश्वर से होड़ नहीं लेते, जब कोई मुसीबत आती है तो वे सत्य खोजते हैं और उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला दिल होता है। इसलिए वे अपेक्षाकृत सुरक्षित होते हैं और संभव है कि वे परमेश्वर के साथ विश्वासघात न करें। भले ही उनमें सत्य की बहुत गहरी समझ नहीं होती, फिर भी वे परमेश्वर का आज्ञापालन करने और उसके आगे समर्पण करने में सक्षम होते हैं, उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है और वे बुराई से दूर रह सकते हैं। जब उन्हें कोई कार्य या कर्तव्य सौंपा जाता है, तो वे उसका निर्वहन पूरे मन-मस्तिष्क और अपनी पूरी काबिलियत से करते हैं। ऐसे व्यक्ति भरोसे के काबिल होते हैं और परमेश्वर को उन पर विश्वास होता है—ऐसे लोग रोशनी में जीते हैं। क्या प्रकाश में रहने वाले लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर पाते हैं? क्या वे अब भी परमेश्वर से अपना हृदय छिपाते हैं? क्या उनके पास अभी भी ऐसे राज होते हैं जिन्हें वे परमेश्वर को नहीं बता सकते? क्या उनमें अभी भी कोई छल-कपट, चालाकियाँ होती हैं? नहीं होतीं। वे पूरी तरह से परमेश्वर के लिए अपना हृदय खोल चुके होते हैं और ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वे छिपाते हों या नजर से चुराकर रखते हों। वे खुलकर परमेश्वर को अपने दिल के राज बता सकते हैं, किसी भी चीज पर उसके साथ संगति कर सकते हैं, वह जो कुछ भी जानना चाहे, उसे बता सकते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं होता जो वे परमेश्वर को नहीं बता सकते या नहीं दिखा सकते। जब लोग इस मानक को हासिल कर लेते हैं, तो उनका जीवन सहज, स्वतंत्र और मुक्त हो जाता है।
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।