अपने पूरे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने वाला ही परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति होता है (भाग दो)

ऐसा क्यों कहते हैं कि परमेश्वर के वचन लोगों को राह दिखाने वाला दीपक है? इसका कारण यह है कि परमेश्वर के वचन बस यूँ ही नहीं कहे जाते हैं, ये लोगों की असल दिक्कतों को दूर करने के लिए कहे जाते हैं। ये कोई सिद्धांत, लफ्फाजी या प्रवचन नहीं हैं। परमेश्वर के वचन तुम्हारे उपयोग और अभ्यास के लिए हैं। जब तुम्हारे सामने कोई ऐसी स्थिति आती है, जहाँ आगे बढ़ने का कोई रास्ता न हो और तुम यह नहीं जानते कि करना क्या है, तो तुम याद कर सकते हो कि परमेश्वर के वचन तुमसे कैसे कार्य करने की अपेक्षा करते हैं। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके तुम्हें रास्ता मिलता है, तुम परमेश्वर के वचनों का अर्थ समझते हो, और फिर परमेश्वर के इरादों के अनुरूप इस पर अमल करने को आगे बढ़ते हो। इस पर अमल करने के बाद तुम्हें पुष्टि मिलती है, और यह कदम उठाने के बाद तुम देखते हो कि तुम अपने मन में शांति और आनंद का अनुभव कर रहे हो, और इससे दूसरे लोग भी सीख रहे हैं। परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने के दौरान तुम प्रबोधन और अनुभव हासिल करते हो, तुम अपने अनुभवों से सीखते हो, और कुछ चीजें समझ जाते हो। तुम क्या समझ जाते हो? तुम परमेश्वर के वचनों के पीछे छिपा उद्देश्य समझ जाते हो और यह भी कि लोगों को एक खास तरीके से कार्य करने देने के पीछे उसका क्या इरादा है। जब तुम इस सब में निहित अभ्यास के सिद्धांत खोज लेते हो तो तुम्हें उसके वचनों का स्रोत और महत्व भी पता चल जाता है। यही सत्य समझना है। सत्य समझने के बाद तुम कार्य करते हुए कभी भ्रमित नहीं रहते, उतने अज्ञानी नहीं रहते, और बुजदिल भी नहीं रहते। बुजदिल न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है, कठिनाइयाँ पेश आने पर तुम सत्य खोज लेते हो, जानते हो कि कठिनाई कैसे दूर करनी है और कैसे आगे बढ़ना है। परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाते समय आगे बढ़ने का रास्ता होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि तुम उसके वचनों के अभ्यास के सिद्धांत समझते हो, तुम उन स्थितियों को समझते हो जिनका हवाला उसके वचन देते हैं, और तुम उन्हें अभ्यास में लाना जानते हो। ऐसा क्यों कहते हैं कि परमेश्वर के वचन मनुष्यों का जीवन और मार्ग हैं? ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि परमेश्वर के वचन लोगों का जीवन हो सकते हैं, और केवल उसके वचन, केवल सत्य ही लोगों को जीवन में सही मार्ग पर ले जा सकते हैं। परमेश्वर के वचन सरल और सुबोध हैं। इनका उद्देश्य यह है कि लोग सत्य आसानी से समझ और स्वीकार कर सकें। जब लोग सत्य को मान और स्वीकार लेते हैं तो वे अनजाने में ही खुद को जीवन के सही रास्ते पर पाते हैं। परमेश्वर के कुछ वचन साधारण या समझने में आसान लग सकते हैं मगर ये सभी यह निर्देश हैं कि जीना कैसे है, तमाम स्थितियाँ कैसे संभालनी हैं, और दिक्कतें कैसे दूर करनी हैं। यही सत्य है। यह तुम्हारा मार्ग बन सकता है, और परिस्थितियों का सामना करने पर तुम्हें बुद्धि, सिद्धांत और अभ्यास का मार्ग दे सकता है। अगर अपना कर्तव्य निभाने या अन्य मामलों में तुम्हारे पास कोई मार्ग है, अगर तुम सिद्धांत के साथ कार्य कर सकते हो और परमेश्वर के इरादे समझ सकते हो, तो क्या इसका यह मतलब है कि तुम सत्य समझते हो? (हाँ।) इसका मतलब है कि तुम सत्य समझते हो और परमेश्वर के वचन भी समझते हो। यह जरूरी नहीं है कि श्रमिक परमेश्वर के वचन समझें ही; उन्हें बस प्रयास करने की जरूरत पड़ती है। इसलिए श्रम करना साधारण कार्य है। कुछ लोग तो ठीक से श्रम भी नहीं कर पाते, और अपना तमाशा बनाकर रख देते हैं! अपना तमाशा बनाने का क्या मतलब है? इसका यह मतलब है कि वे श्रम का कार्य भी ठीक से नहीं कर सकते, वे अच्छे से प्रयास भी नहीं कर सकते, और वे हमेशा शरारती, विघ्नकारी, नकारात्मक और आलसी होते हैं। उनकी हमेशा मान-मनौव्वल और निगरानी करने की जरूरत पड़ती है। ऐसे लोग संतोषजनक ढंग से अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते, और मनुष्य होने के मानकों पर खरे नहीं उतरते। अब, तुम लोग कौन-सा रास्ता अपनाना चाहते हो? तुम किस प्रकार का व्यक्ति बनने की सोच रहे हो? क्या ठेठ श्रमिक बनने की कोशिश करोगे या ऐसा व्यक्ति बनने का लक्ष्य रखोगे जो अपना कर्तव्य सारे मन, प्राण और बुद्धि से पूरा करता है? (ऐसा व्यक्ति बनने का जो अपना कर्तव्य सारे मन, प्राण और बुद्धि से निभाता है।) यह अच्छी बात और सही लक्ष्य है। तुम श्रमिक नहीं बनना चाहते, तुम महज प्रयास नहीं करना चाहते। फिर तो तुम्हें सत्य की ओर बढ़ने के प्रयास करने चाहिए! सत्य के लिए प्रयास करते समय कौन-कौन से सत्य समझना सबसे महत्वपूर्ण है? यह उन कठिनाइयों पर निर्भर करता है जिनका तुम सामना कर रहे हो और सबसे पहले फौरी दिक्कतों को दूर करना सबसे अहम है। अभी अधिकतर लोग सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य पूरा करने पर ध्यान लगा रहे हैं, और अपना कर्तव्य निभाने का सत्य बेहद अहम है। अगर तुम सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य पूरा कर सकते हो, तो तुम अपने दिल में शांति और आश्वस्ति महसूस करोगे। और अगर तुम परमेश्वर के कार्य को भी जान सके, उसके कार्य का अनुभव कर सके, और अपना कुछ भ्रष्ट स्वभाव दूर कर सके, तो फिर तुम परमेश्वर के अनुसरण का मधुर स्वाद चख लोगे और पाओगे कि सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलना बड़ा सरल है। परमेश्वर का अनुसरण करने और उसके प्रति समर्पित होने में मुख्य बात है अपना कर्तव्य ठीक से निभाना। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “तुम लोग अपना कर्तव्य अपने सारे मन से, अपनी सारी बुद्धि से और अपनी सारी शक्ति से पूरा करो।” क्या यह कथन सत्य नहीं है? अगर तुम इस कथन के सत्य होने की पुष्टि करते हो, तो तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करना चाहिए। तुम अपना कर्तव्य निभाने में निहित सत्य को जितना ज्यादा समझोगे, तुम उतने ही अधिक सिद्धांत-सम्मत और प्रभावी ढंग से इसे निभाओगे। अगर तुम अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभाते हो तो तुम्हारे मन में शांति और खुशी ही नहीं, सच्ची आस्था भी होगी। परमेश्वर का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने का यही फल है। यह बिल्कुल सच है कि जैसे-जैसे तुम परमेश्वर के अनुसरण के मार्ग पर चलते जाते हो, यह उजला होता जाता है। इसलिए अपना कर्तव्य निभाना ही सबसे सार्थक कार्य है। अगर तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास करते हो, तो तुमने सही जगह से शुरुआत की है। जैसे-जैसे तुम इस दिशा में प्रयास करते जाओगे, तुम्हें धीरे-धीरे नतीजे दिखने लगेंगे और तुम मनुष्य जैसा बनने लगोगे। धीरे-धीरे, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध घनिष्ठ होता जाएगा। जब तुम परीक्षणों और कठिनाइयों का सामना करते हो और थोड़ी-सी निराशा या कमजोरी महसूस करते हो, कुछ धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा होती हैं, तो तुम इन मसलों को हल करने के लिए आसानी से सत्य खोज लोगे, और ये बड़ी समस्याएँ नहीं रह जाएँगी।

तुममें से ज्यादातर लोग लोकतांत्रिक देश में रहते हैं, मुख्यभूमि चीन की कलीसिया में रहने वाले भाई-बहनों की तरह नहीं जो कष्ट और अत्याचार सहते आए हैं। लेकिन जरूरी नहीं कि तुम लोगों के लिए आराम का जीवन अच्छी बात ही हो। सत्य का अनुसरण करने के लिए तुम लोगों को कुछ जतन करना पड़ सकता है, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए कष्ट सहना और कीमत चुकाना थोड़ा-सा चुनौतीपूर्ण हो सकता है। जो लोग किसी लोकतांत्रिक और स्वतंत्र व्यवस्था में पले-बढ़े होते हैं उनमें स्वयं को खुश रखने की प्रवृत्ति होती है। वे दूसरों से अपनी आलोचना या फटकार गवारा नहीं करते। उनकी सोच अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र और खुली होती है। वे हमेशा अपने लिए निजी दायरा और स्वतंत्रता माँगते हैं, हमेशा अपनी हर इच्छा पूरी करना चाहते हैं, और हमेशा देह के सुखों से जुड़ी तमाम तरह की चीजें माँगते हैं। अगर तुम लोग इन चीजों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो तो सत्य का अनुसरण किए बिना महज प्रयास करते रहने की दशा और स्थिति से मुक्त होना तुम्हारे लिए मुश्किल होगा। स्वायत्तता और निजी दायरे पर लगातार जोर देते रहने से परेशानी खड़ी होगी। तुम्हें सत्य के बारे में, परमेश्वर के वचनों के बारे में, और सकारात्मक क्या है और जीवन में सही मार्ग क्या है, इस बारे में बात करनी चाहिए। वैसे तो स्वतंत्रता, लोकतंत्र और स्वाधीनता अच्छी बातें हैं और प्रगतिशील सामाजिक व्यवस्थाएँ हैं, लेकिन ये सत्य नहीं हैं। ये इस अँधियारे और दुष्ट संसार में सिर्फ प्रगतिशील विचार और व्यवस्थाएँ हैं। ये ऐसी व्यवस्थाएँ हैं जो मनुष्य के अस्तित्व के लिए अपेक्षाकृत उपयुक्त हैं और मानव अधिकारों को कायम रखती हैं। लेकिन, वे सत्य बिल्कुल भी नहीं हैं, और तुम लोगों को यह बात स्पष्ट रूप से समझनी चाहिए। यह मत सोचो, “मैं ऐसी सामाजिक व्यवस्था में पैदा हुआ हूँ, इसलिए ये मेरे अधिकार हैं। मैं जो चाहूँ वह सोच, कह और कर सकता हूँ, और कोई इसमें टाँग नहीं अड़ा सकता यह मेरा मानव अधिकार है, ऐसा अधिकार जो मुझे समाज और मेरे देश ने दिया है।” अगर तुम इसे सर्वोच्च सत्य मानते हो, तो यह परेशानी पैदा करेगा। क्या ये विचार यह दिखा सकते हैं कि तुममें सत्य है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? ये मनुष्यों से आती हैं और भ्रष्ट मानवता से उपजती हैं। ये परमेश्वर के वचन नहीं हैं, और ये ऐसा सत्य तो बिल्कुल भी नहीं हैं जिसके लोगों के पास होने की अपेक्षा परमेश्वर करता है। अगर तुम लोकतंत्र और स्वतंत्रता के विचार को सत्य मानते हो, और परमेश्वर के घर में तुम सिर्फ स्वतंत्रता के पीछे भागने पर ध्यान केंद्रित करते हो और नियंत्रण में रहने से इनकार करते हो, अपना कर्तव्य निभाते हुए लापरवाही से काम करते हो, तो फिर तुम मुसीबत में पड़ जाओगे। अगर तुम्हारे ऐसे विचार हैं तो क्या तुम सत्य ग्रहण कर पाओगे? क्या तुम आसानी से सत्य का अभ्यास कर लोगे? क्या तुम अब भी सचमुच परमेश्वर का अनुसरण कर सकोगे? परमेश्वर के अनुसरण के लिए सत्य समझने की जरूरत होती है, समर्पण कैसे करें, यह समझने और सत्य के नियंत्रण में होने की जरूरत पड़ती है। तुम मनमाने ढंग से पेश नहीं आ सकते। अगर तुम लोकतंत्र और स्वतंत्रता की तलाश में रहते हो तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते। तुम परमेश्वर के अनुयायी नहीं बनोगे, न खुद को मसीह का अनुयायी मान सकते हो। इससे तुम पर मुसीबत आएगी, और यही कठिनाई है जो तुम लोगों के सामने है। लोगों की कुछ खास धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं, कुछ खास पारंपरिक सांस्कृतिक दृष्टिकोण और समाज में प्रचलित विचार होते हैं। ये सामाजिक पृष्ठभूमि और परिवेश से गढ़े हुए होते हैं। अगर तुम लोग इन मसलों का सार और गंभीरता समझने में नाकाम रहते हो और अपने कर्तव्य निर्वाह, परमेश्वर पर विश्वास, और परमेश्वर से मिले आदेश को मानव अधिकारों और स्वतंत्रता के चश्मे से देखते हो तो तुम कभी भी सही मार्ग पर नहीं चलोगे और परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश नहीं करोगे। मुख्यभूमि चीन में लोग अब अधिनायकवादी शासन के अँधेरे साये में रहते हैं और उनमें श्रेष्ठता का कोई बोध नहीं है। वे कष्ट सहने और बैल की तरह जुटकर काम करने की आदत के साथ पैदा होते हैं, और इस तरह की सामाजिक पृष्ठभूमि और परिवेश से उनके जीवन की आदतें या आचरण के सिद्धांत आकार पाते हैं। दूसरी ओर लोकतांत्रिक और स्वतंत्र देशों में रहने वाले लोगों के विचार ऐसे नहीं होते हैं। वे बँधे नहीं रहना चाहते, उन्हें यह अत्याचार लगता है और वे किसी भी पाबंदी या नियम से मुक्त रहना चाहते हैं। जब वे परमेश्वर के घर आते हैं तो वे कलीसिया की प्रशासनिक प्रणालियों, कार्य व्यवस्थाओं और नियमों से भी मुक्त रहना चाहते हैं। वे बंधन में नहीं बंधना चाहते। उन्हें किसी के भी हाथों काट-छाँट किया जाना मंजूर नहीं होता और वे अपनी हर आलोचना खारिज कर देते हैं। उन्हें काम में थोड़ा-सा भी व्यस्त रहना या थोड़ी-सी भी थकान बर्दाश्त करना गवारा नहीं होता। इससे तो मुसीबत आ जाएगी! किसी ईसाई का आचरण ऐसा नहीं होना चाहिए, न यह मसीह के अच्छे सिपाही का आचरण है। अनुग्रह के युग में संतों की शालीनता की हमेशा चर्चा होती थी। क्या यह बात अब भी लागू होती है? बिल्कुल! यह अच्छी चीज है जो हर जगह और हर समय लागू होती है। चलो पहले यह बात ही न करें कि सृजित मानवजाति कैसी होनी चाहिए, जिसे हासिल करना मनुष्य से परमेश्वर की सबसे बुनियादी अपेक्षा है। बस इतना सोचो, क्या एक ईसाई के नाते तुममें एक ईसाई की शालीनता नहीं होनी चाहिए? अगर नहीं है तो तुम परमेश्वर के अनुयायी होने लायक नहीं हो, और परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करता। अगर तुम परमेश्वर का अनुसरण करना चाहते हो तो तुम चाहे सृजित प्राणी बनने की इच्छा रखो या सिर्फ एक सामान्य व्यक्ति बनने की, तुम्हें जीना इंसान के रूप में होगा। तुम्हारा दिल परमेश्वर को अर्पित किया जाना चाहिए। तुम कह सकते हो, “हे परमेश्वर, मैं इसी तरह तुम्हारा अनुसरण करना चाहता हूँ। यह मेरा संकल्प है और लक्ष्य भी। क्या यह तेरे इरादे के अनुरूप है?” या शायद तुम इसे सीधे परमेश्वर से न कहो मगर परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर चुपचाप अपना संकल्प तय कर सकते हो, जिससे परमेश्वर यह देख सके कि तुम आगे क्या करते हो। तुम्हारा जन्म चाहे किसी भी देश या सामाजिक पृष्ठभूमि में हुआ हो, अब जब तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो तो तुम उस देश या उन लोगों के नहीं रह गए। तुम परमेश्वर के अनुयायी हो, परमेश्वर के विश्वासी हो, परमेश्वर के घर के सदस्य हो। तुम्हें हमेशा और हर तरह खुद को परमेश्वर के घर का व्यक्ति, परमेश्वर का अनुयायी मानना चाहिए। तुम्हें खुद को संतों के मानकों पर कसते हुए, मसीह का अच्छा सिपाही बनने का जतन करना चाहिए। अगर तुम यही कहते रहे, “मैं कोरियाई हूँ,” “मैं ताइवानी हूँ,” “मैं अमेरिकी हूँ,” “हम सबके जीने के अपने तरीके हैं,” तो क्या तुम अब भी परमेश्वर के अनुयायी हो? तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है; यह स्पष्ट रूप से अविश्वासियों का दृष्टिकोण है। ये छद्म-विश्वासी हैं! अगर तुम छद्म-विश्वासी हो तो परमेश्वर के घर में क्यों नाहक घूम रहे हो? क्या तुम ईसाई होने का ढोंग कर रहे हो? यहाँ कोई ढोंग नहीं चलेगा। घुलने-मिलने की यह कोशिश बिल्कुल फिजूल है। अगर तुम ईसाई हो तो सत्य स्वीकारो और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाओ। परमेश्वर का अनुसरण इसे ही कहते हैं। अगर तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकते तो तुम चाहे जिस किसी देश के हो, परमेश्वर तुम्हें स्वीकारेगा नहीं। किसी व्यक्ति की राष्ट्रीयता चाहे कुछ भी हो, जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं उन्हें अपना कर्तव्य ठीक से निभाना होगा और सत्य स्वीकारना होगा। परमेश्वर का अनुसरण करने का यही अर्थ है। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास का दावा करते हो मगर सत्य नहीं स्वीकारते या अपना कर्तव्य नहीं निभाते, तो तुम एक छद्म-विश्वासी हो, बिल्कुल अविश्वासियों की तरह हो। तुम न ये हो, न वो। ऐसे लोग परमेश्वर के घर से फौरन निकाल दिए जाने चाहिए, वे परमेश्वर के घर में अवांछित हैं। अगर तुम खुद को परमेश्वर के राज्य का व्यक्ति मानते हो तो फिर तुम्हें राज्य के लोगों के मानकों के हिसाब से चलना होगा। अगर तुम ये कहते हो, “राज्य के कैसे लोग? मैं तो लोकतांत्रिक देश का नागरिक हूँ, मेरे पास गरिमा और मानव अधिकार हैं। तुम्हें मुझसे लोकतांत्रिक देश के मानकों के अनुसार अपेक्षाएँ रखनी होंगी। वरना कोई चर्चा नहीं हो सकती!” माफ करना, मगर यह परमेश्वर का राज्य है, शैतान का राज्य नहीं। परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों को, अपने राज्य के लोगों को चाहता है। क्या तुम कुछ समझे? (हाँ, समझ रहा हूँ।) अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास कर उसका अनुसरण करते हो, तो तुम्हें उसके वचन जरूर सुनने चाहिए। अगर तुम यह कहते हो, “मैं परमेश्वर का अनुसरण तो कर सकता हूँ, लेकिन मुझे चुनने की स्वतंत्रता चाहिए। मुझे लोगों की बातें सुनना पसंद है, जो मुझे पसंद है उसे सुनना, और जिन्हें मैं पसंद करता हूँ उनका अनुसरण करना चाहता हूँ। मेरे साथ दखलंदाजी मत करो। मैं अपने देश की नीतियों और नियमों का पालन करने को प्राथमिकता देता हूँ; यह सबसे अहम बात है। मैं परमेश्वर के वचनों, सत्य के प्रति समर्पण को प्राथमिकता नहीं दे सकता। मेरे लिए मेरा देश और मेरी राष्ट्रीयता पहले है, और सत्य का स्थान दूसरा-तीसरा है। मैं इसे स्वीकार या नकार सकता हूँ,” तो फिर ऐसे व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है? खैर, माफ करो, तुम्हें परमेश्वर का घर छोड़ देना चाहिए! परमेश्वर के घर को तुम जैसे किसी इंसान की दरकार नहीं है। तुम परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर रहे हो; तुम स्वर्ग के राज्य के व्यक्ति नहीं हो। तुम इस विश्व के नागरिक हो, और परमेश्वर तुम जैसे लोगों से बात नहीं करता, न वह तुम जैसे लोगों को बचाता है। ऐसे व्यक्ति सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते हैं। तुम्हें जल्द से जल्द चले जाना चाहिए, जितना जल्दी हो सके, उतना ही अच्छा है!

कुछ लोग नामी-गिरामी और प्रख्यात हस्तियों को पूजते हैं। वे हमेशा यह संदेह करते हैं कि क्या परमेश्वर के वचन वास्तव में लोगों को बचा सकते हैं या नहीं, और वे हमेशा यही विश्वास करते हैं कि केवल नामी-गिरामी और प्रख्यात हस्तियों की बातों में वजन और करिश्मा होता है। वे हमेशा मन ही मन सोचते हैं, “देखो, हमारा राष्ट्र प्रमुख कितना प्रभावशाली है! हमारी राष्ट्रीय विधानसभाओं की शान-शौकत और भव्यता तो देखो! क्या परमेश्वर का घर इसके सामने कहीं ठहरता भी है?” ऐसी बातें जुबान पर लाना ही दिखा देता है कि तुम एक अविश्वासी हो। तुम राजनीति की बुराई स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, न किसी राष्ट्र की कालिमा या मानवता की भ्रष्टता को देख सकते हो। तुम नहीं देख पाते के परमेश्वर के घर में सत्य का प्रभुत्व है, तुम यह भी नहीं देखते-समझते कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अनुभवजन्य गवाहियाँ क्या दर्शाती हैं। परमेश्वर के घर में सत्य और इतनी सारी गवाहियाँ होती हैं, और परमेश्वर के चुने हुए सारे लोग जाग रहे हैं और बदल भी रहे हैं, वे सभी परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने लगे हैं। क्या तुम वो आने वाला नजारा देख सकते हो जिसमें परमेश्वर के लोग समर्पित होकर उसकी आराधना करते हैं? यह तुम्हारी कल्पना से परे है। परमेश्वर के घर में जो कुछ भी है वह दुनिया से सौ गुना, हजार गुना बेहतर है, और भविष्य में भी परमेश्वर के घर में जो कुछ भी है वह और बेहतर, अधिक नियमित, और अधिक पूर्ण होता जाएगा। ये सभी चीजें धीरे-धीरे हासिल की जाती हैं, और इन्हें परमेश्वर के वचन पूरा करेंगे। परमेश्वर ने अपने सभी चुने हुए लोगों को खुद चुना है और ये सभी पूर्वनियत हैं, इसलिए वे दुनिया के लोगों की तुलना में यकीनन बहुत बेहतर हैं। अगर कोई इन तथ्यों को नहीं देख सकता, तो क्या वह अंधा नहीं है? कुछ लोगों को हमेशा यही लगता है कि यह संसार शानदार है, और वे मन ही मन दुनिया के नामी-गिरामी और प्रख्यात लोगों को पूजते हैं। तो क्या वे दानवों और शैतानों को नहीं पूज रहे हैं? क्या ये नामी-गिरामी और प्रख्यात लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं? क्या ये लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं? क्या इनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? क्या वे सत्य स्वीकारते हैं? वे सभी ऐसे राक्षस हैं जो परमेश्वर का विरोध करते हैं—क्या तुम लोग वास्तव में इसे देख नहीं सकते? यह देखते हुए कि तुम दुनिया के नामी-गिरामी और प्रख्यात लोगों को पूजते हो, तुम परमेश्वर पर विश्वास क्यों करते हो? तुम परमेश्वर के व्यक्त सारे वचनों को वास्तव में किस प्रकार देखते हो? तुम सब चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता को किस प्रकार देखते हो? कुछ लोग परमेश्वर का भय तो नहीं ही मानते हैं—उनके मन में उसके प्रति लेशमात्र सम्मान भी नहीं होता है। क्या वे छद्म-विश्वासी नहीं हैं? क्या ऐसे लोगों को फौरन दफा हो जाने को नहीं कहना चाहिए? (कहना चाहिए।) और अगर वे दफा नहीं होते तो क्या किया जाना चाहिए? उन्हें भगा देना चाहिए, बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए। छद्म-विश्वासी गंदी मक्खियों की तरह हैं, जिन्हें देखकर भी घिन आती है। परमेश्वर के घर में सत्य और उसके वचनों का शासन चलता है, और यह सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। ऐसे लोगों को हटा देना चाहिए। वे कहते तो हैं कि वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन मन ही मन परमेश्वर के घर को हीन समझते हैं और परमेश्वर का तिरस्कार करते हैं। क्या तुम लोग ऐसे छद्म-विश्वासियों को अपने साथ घुलने-मिलने दोगे? (नहीं।) इसीलिए उन्हें तुरंत हटा देना चाहिए। वे चाहे कितने ही पढ़े-लिखे या काबिल क्यों न हों, उन्हें हटा देना चाहिए। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या यह प्रेमहीन होना नहीं है?” नहीं, यह सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना है। इससे मेरा क्या आशय है? यही कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद चाहे जितना बड़ा हो, तुम्हारी सत्य के अनुसरण की इच्छा कितनी ही हो या तुम्हारा परमेश्वर पर विश्वास हो या न हो, एक चीज तय है : मसीह ही सत्य है, मार्ग है, और जीवन है। यह कभी नहीं बदलता है। यही तुम्हारी चट्टान होनी चाहिए, परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास की सबसे ठोस आधारशिला होनी चाहिए; तुम्हारे मन में इस बारे में यकीन होना चाहिए, इसे लेकर कोई शंका नहीं रहनी चाहिए। अगर तुम इस पर भी शंका करते हो तो तुम परमेश्वर के घर में रहने लायक नहीं हो। कुछ लोग कहते हैं, “हमारा देश महान है, हमारी नस्ल श्रेष्ठ है; हमारे रीति-रिवाज और संस्कृति महान और अतुलनीय हैं। हमें सत्य स्वीकारने की जरूरत नहीं है।” क्या यह छद्म-विश्वासियों का स्वर नहीं है? यह छद्म-विश्वासियों का ही स्वर है, और ऐसे छद्म-विश्वासियों को बाहर कर देना चाहिए। कुछ लोग अक्सर भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, और कभी-कभी, उनका स्वभाव अनियंत्रित और असंयमित होता है, फिर भी परमेश्वर पर उनका विश्वास सच्चा होता है, और वे सत्य स्वीकार सकते हैं। अगर उनकी काट-छाँट की जाए तो वे पश्चात्ताप कर पाते हैं। ऐसे लोगों को मौका दिया जाना चाहिए। लोग थोड़े-से मूर्ख होते हैं, या वे चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हैं, या वे गुमराह हो जाते हैं, या किसी मूर्खतापूर्ण घड़ी में वे कुछ भ्रामक बात कह सकते हैं या भ्रमित ढंग से व्यवहार कर सकते हैं क्योंकि वे सत्य नहीं समझते। इसका कारण भ्रष्ट स्वभाव है; इसका कारण मूर्खता, अज्ञानता है और सत्य की समझ की कमी है। लेकिन, ऐसे लोग छद्म-विश्वासियों के समान नहीं होते। यहाँ इन समस्याओं को दूर करने के लिए सत्य पर संगति करने की जरूरत है। कुछ लोग बरसों से परमेश्वर पर विश्वास करते रहे हैं लेकिन वे सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते और वे बिल्कुल भी नहीं बदले हैं। वे छद्म-विश्वासी हैं। वे परमेश्वर के घर के लोग नहीं हैं, और परमेश्वर उन्हें नहीं स्वीकारता है। जब मैं ये बातें कहता हूँ तो इनका क्या अर्थ निकलता है? इनका यह अर्थ है कि मैं तुम लोगों को पूरी कर्मठता से सत्य का अनुसरण करने को कह रहा हूँ। कोशिश भर करके मत बैठ जाओ। परमेश्वर अपने वचनों के जरिये, सत्य के जरिये लोगों को बचाता है। सबसे सीधा रास्ता तो यही है कि तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य को समझो और व्यावहारिक समस्याएँ हल करो। इससे तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो। इस तरीके से परमेश्वर संतुष्ट होगा, और उसके दिल को सुकून पहुँचेगा। परमेश्वर को क्या देखना सबसे नापसंद है? परमेश्वर ने तुम लोगों के लिए कई वचन कहे, कई सत्य व्यक्त किए, बड़ी मेहनत की और भारी कीमत चुकाई है। अंत में, उसे कुछ हासिल होता है तो वह है ऐसे लोगों का समूह जो सिर्फ कोशिश करके बैठ जाता है, और सिर्फ श्रम करने वालों का समूह ही बच जाता है। ये लोग सत्य नहीं समझते, परमेश्वर के इरादे नहीं समझते, बस कोशिश भर करते हैं। ऐसे लोग भले ही बने रह सकते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हैं। उन्हें सच्चा सृजित प्राणी नहीं माना जा सकता है। यही वह चीज है जिसे देखना परमेश्वर को सबसे ज्यादा नागवार है, और यह मानवता को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना की मूल मंशा में नहीं है।

तुम लोगों को पूरे मन से सत्य स्वीकारना चाहिए, दुनिया के चलनों के पीछे नहीं भागना चाहिए या शैतान के फलसफे के अनुसार नहीं जीना चाहिए। परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपना कर्तव्य निभाना जरूरी है, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए सत्य स्वीकारना जरूरी है। यह बेहद अहम है। बहुत से लोग परमेश्वर पर विश्वास में सत्य की उपेक्षा करते हैं। बरसों से विश्वास करने के बावजूद वे सत्य को अभ्यास में नहीं लाते और पूरी तरह बेफिक्री दिखाते हैं। ये लोग छद्म-विश्वासी हैं और देर-सबेर हटा दिए जाएँगे। कुछ लोग केवल देह के लिए, व्यक्तिगत लाभ के लिए जीते हैं, और पारस्परिक संबंधों में खुद को थका देते हैं, अपने कर्तव्य छोड़ देते हैं, उन्हें गंभीरता से नहीं लेते और देह के सुखों के पीछे भागते हैं। क्या यह बहुत ही स्वार्थी और घिनौना नहीं है? ऐसे व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करते; वे केवल निजी लाभ पाना और घमंड में रहना पसंद करते हैं। वे तुच्छ फायदों के लिए लाल-पीले और उत्तेजित हो जाते हैं, अपनी ईमानदारी और मानवीय गरिमा खो बैठते हैं। क्या वे अज्ञानी और मूर्ख नहीं हैं? जो लोग वाकई सत्य से प्रेम करते हैं, उन्हें चाहे किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, सबसे पहले परमेश्वर की उपस्थिति में सत्य खोजना चाहिए। उन्हें दूसरों के साथ विवादों में उलझने या जुबानी जंग में पड़ने से बचना चाहिए। ऐसा व्यवहार अपरिपक्व है और इसमें अंतर्दृष्टि की कमी है। जब बहुत सारे लोग एक साथ इकट्ठा होते हैं, तो तमाम तरह के लोग होने के कारण वहाँ अनेक मसले उठेंगे ही और सही-गलत के झगड़े तो कभी खत्म होते ही नहीं हैं। भ्रष्ट मानवता बिल्कुल ऐसी ही होती है। अविश्वासियों के बीच स्थिति और भी गंभीर है। हर दिन बैर-भाव और बढ़ते तनाव से भरा होता है। संसार बिल्कुल ऐसा ही कपटी है। परमेश्वर के घर में हर कोई परमेश्वर पर विश्वास करता है, इसलिए बुरे लोग कम होते हैं और लोगों का फायदा उठाने वाली घटनाएँ भी कम होती हैं। विवाद और झगड़े काफी कम होते हैं। अगर तुम सत्य नहीं समझते और लगातार इन्हीं मामलों पर सोचते रहते हो, तो तुम्हारा दिल इन्हीं में उलझकर फँसा रहेगा, और तुम परमेश्वर के सामने नहीं आ पाओगे। तुम लोगों को ऐसी दशाओं से मुक्त होना चाहिए, ऐसा व्यवहार अपरिपक्व आध्यात्मिक कद दिखाता है। अपरिपक्व आध्यात्मिक कद वाले लोगों का ध्यान अक्सर देह के मामलों, अपनी प्राथमिकताओं और अपनी स्वार्थी इच्छाओं की पूर्ति करने में लगा रहता है। लिहाजा, वे अपने कर्तव्य निभाने की असल जिम्मेदारियों की अनदेखी करते हैं। ऐसे लोग चीजों को उचित ढंग से सँभालने लायक नहीं होते और बच्चों जैसा कच्चापन दिखाते हुए अक्सर गलतियाँ करते हैं। तुम लोगों को जीवन में परिपक्वता लाने का प्रयास करना चाहिए। परिपक्वता से मेरा क्या आशय है? मेरा आशय है सत्य को समझना, किसी वयस्क जैसा आध्यात्मिक कद होना, और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने और उसके द्वारा सौंपे गए कार्य पूरे करने लायक होना। इसका मतलब है इंसान का कर्तव्य निभाने के काबिल होना और सामान्य कर्तव्यों को निभा सकने लायक होना, दूसरों के समान अच्छे ढंग से कर्तव्यों का पालन कर सकना और वह हासिल करना जो दूसरे हासिल कर सकते हैं, उन लोगों का अनुकरण करना जो परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, वह कार्य करना जो लोगों को करना चाहिए और उन कर्तव्यों का पालन करना जो लोगों को करने चाहिए, सत्य के अनुसरण के मार्ग की खोज करना और इसकी ओर बढ़ने का प्रयास करना। किसी व्यक्ति के जीवन में विकास की यही प्रक्रिया है। तुम लोगों को कोशिश करके यह जानना चाहिए कि सामान्य लोग कैसे कार्य करते हैं, और जो लोग अपने उचित कर्तव्यों का पालन करते हैं वे कैसे कार्य करते हैं, साथ ही इस तरह के लोग काम करते समय किन शैलियों, दृष्टिकोणों और सिद्धांतों को अपनाते हैं। वयस्कों को अपनी जिम्मेदारियाँ ठीक से निभानी चाहिए। चाहे कुछ भी हो जाए, भले ही आसमान टूट पड़े, उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए और अपने उचित कार्यों में देरी नहीं होने देनी चाहिए। दूसरी ओर, बच्चे अपने आस-पास घटने वाली चीजों के बारे में जानने को बहुत उत्सुक रहते हैं। वे बाहर जाकर देखना चाहते हैं कि क्या हो रहा है। कोई भी घटना उन्हें प्रभावित कर सकती है और सही काम करने से उन्हें भटका सकती है। क्या यह उनमें जिम्मेदारियों के प्रति प्रतिबद्धता की कमी नहीं है? थोड़ी-सी भी दिक्कत उन्हें अस्त-व्यस्त कर सकती है। किसी भी व्यक्ति की अकेली टिप्पणी उनके दिलों को परेशान कर सकती है या एक मजाक गलतफहमी और भावनात्मक विस्फोट का कारण बन सकता है जिसके कारण वे दो-तीन दिन तक नकारात्मक व्यवहार कर सकते हैं, जिससे उनके कर्तव्य-पालन में देरी हो सकती है। वे छोड़कर जाने का विचार भी मन में ला सकते हैं और अगुआ और कार्यकर्ताओं को उन्हें लगातार समझाना-बुझाना चाहिए, उनके साथ सत्य पर संगति करनी चाहिए और तार्किक बात करनी चाहिए। क्या यह छोटा आध्यात्मिक कद और अपरिपक्व होने की निशानी नहीं है? लोग कभी परिपक्व होते नहीं लगते, बच्चों की तरह अपरिपक्व बने रहते हैं—अज्ञानी और हास्यास्पद। उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है, उनमें गरिमा और सत्यनिष्ठा का अभाव होता है, और परमेश्वर उनसे प्रसन्न नहीं रहता है।

तुम लोगों को सत्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए—तभी तुम जीवन प्रवेश कर सकते हो, और जीवन प्रवेश करने के बाद ही तुम दूसरों का पोषण और अगुआई कर सकते हो। अगर यह पता चले कि दूसरों के कार्य सत्य के विपरीत हैं, तो हमें प्रेम से सत्य के लिए प्रयास करने में उनकी मदद करनी चाहिए। अगर दूसरे लोग सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हों, और उनके काम करने के तरीके में सिद्धांत हों, तो हमें उनसे सीखने और उनका अनुकरण करने का प्रयास करना चाहिए। यही पारस्परिक प्रेम है। कलीसिया के अंदर तुम्हें इस तरह का परिवेश रखना चाहिए—हर कोई सत्य पर ध्यान केंद्रित करे और उसे पाने का प्रयास करे। इससे फर्क नहीं पड़ता कि लोग कितने बूढ़े अथवा युवा हैं या वे पुराने विश्वासी हैं या नहीं। न ही इस बात से फर्क पड़ता है कि उनकी काबिलियत ज्यादा है या कम है। इन चीजों से फर्क नहीं पड़ता। सत्य के सामने सभी बराबर हैं। तुम्हें यह देखना चाहिए कि सही और सत्य के अनुरूप कौन बोल रहा है, परमेश्वर के घर के हितों की कौन सोच रहा है, कौन सबसे अधिक परमेश्वर के घर का कार्यभार उठा रहा है, सत्य की अधिक स्पष्ट समझ किसे है, न्याय की भावना को कौन साझा कर रहा है और कौन कीमत चुकाने को तैयार है। ऐसे लोगों का उनके भाई-बहनों द्वारा समर्थन और सराहना की जानी चाहिए। ईमानदारी का यह परिवेश, जो सत्य का अनुसरण करने से आता है, कलीसिया के अंदर व्याप्त होना चाहिए; इस तरह से, तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य होगा, और परमेश्वर तुम्हें आशीष और मार्गदर्शन प्रदान करेगा। अगर कलीसिया के अंदर कहानियाँ सुनाने, एक-दूसरे के साथ उपद्रव करने, एक-दूसरे से द्वेष रखने, एक-दूसरे से ईर्ष्या करने और एक-दूसरे से बहस करने का परिवेश होगा, तो पवित्र आत्मा निश्चित रूप से तुम लोगों के अंदर काम नहीं करेगा। एक-दूसरे के विरुद्ध संघर्ष करना और गुप्त रूप से लड़ना, धोखा देना, चकमा देना और साजिश करना—यह बुराई का परिवेश है! अगर कलीसिया के अंदर ऐसा परिवेश होगा, तो पवित्र आत्मा निश्चित रूप से अपना कार्य नहीं करेगा। बाइबल में प्रभु यीशु ने कहा है : “यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिए एक मन होकर उसे माँगें, तो वह मेरे पिता की ओर से जो स्वर्ग में है, उनके लिए हो जाएगी। क्योंकि जहाँ दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठा होते हैं, वहाँ मैं उनके बीच में होता हूँ” (मत्ती 18:19-20)। यह परमेश्वर का वचन है, यह सत्य है। परमेश्वर जो कहता है, वह होता है। अगर तुम परमेश्वर के इरादे के विरुद्ध चलते हो और उसके वचनों का पालन नहीं करते तो परमेश्वर तुमसे दूरी बना लेगा। अगर तुम परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते, प्रकाशन, न्याय, या उसके वचनों के जरिये अपनी काट-छाँट नहीं स्वीकारते, और अपने भाई-बहनों की मदद ठुकराते हो, लगातार दूसरों की कमियों और दिक्कतों पर ध्यान देते हो जबकि खुद को उतना खराब नहीं मानते, खुद को दूसरों से श्रेष्ठ मानते हो, तो फिर तुम मुसीबत में हो। पहली बात, पवित्र आत्मा तुममें कार्य नहीं करेगा, और तुम परमेश्वर के आशीष से चूक जाओगे। दूसरी बात, तुम्हारे भाई-बहन भी तुमसे दूरी बना लेंगे, जिससे तुम्हारी मदद करने वाला कोई नहीं रहेगा और तुम्हारे लिए उनके सहयोग का लाभ पाना मुश्किल हो जाएगा। परमेश्वर के कार्य और आशीष के बिना, अपने भाई-बहनों के सहयोग और लाभ के बिना तुम्हारी दुर्दशा हो जाएगी और प्रगति नहीं कर पाओगे। क्या तुम कलीसिया का कार्य केवल मनुष्य की योग्यता और कौशल पर निर्भर रहकर असरदार ढंग से कर सकते हो? यह व्यर्थ रहेगा और सारी मेहनत बेकार जाएगी। क्या इस मुकाम पर पहुँचना खतरनाक नहीं है? तुम्हारे मन को कितनी वेदना होगी? परमेश्वर का आशीष और भाई-बहनों की मदद पाने के लिए तुम्हें हर हाल में सही मार्ग पर, सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलना होगा। अपने मार्ग पर चलकर तुम कहीं नहीं पहुँच सकते, और जो सत्य का अनुसरण नहीं करते वे आखिरकार हटा दिए जाएँगे। तुम लोग समय के साथ जैसे-जैसे इसे अनुभव करोगे इसे समझने लगोगे। अपने सारे उद्यम में तुम्हें तब तक सत्य सिद्धांतों को खोजना चाहिए जब तक कि मन और बुद्धि से एक नहीं हो जाते, तभी तुम समरसता के साथ मिल-जुल कर काम कर सकते हो, ठीक वैसे ही जैसे किसी रस्सी के सारे धागे आपस में गुथे हों। जब समरसता भरा सहयोग होगा, तभी तुम अपने कर्तव्य ठीक से निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट कर सकोगे।

19 सितंबर 2017

The Bible verses found in this audio are from Hindi OV and the copyright to the Bible verses belongs to the Bible Society of India. With due legal permission, they are used in this production.

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