लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं (भाग एक)
परमेश्वर लोगों से कहता है कि वे उसे परमेश्वर के रूप में मानें क्योंकि मानवजाति बहुत गहराई तक भ्रष्ट हो चुकी है और लोग उसे परमेश्वर नहीं बल्कि व्यक्ति मानते हैं। लोगों के परमेश्वर से हमेशा माँग करते रहने में क्या समस्या है? और उनके हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पालने में क्या समस्या है? मनुष्य की प्रकृति में क्या निहित है? मैंने पाया कि लोगों के साथ चाहे कुछ भी घटित हो या वे चाहे जिस चीज से निपट रहे हों, वे हमेशा अपने हितों की सुरक्षा और अपने दैहिक सुखों की चिंता करते हैं, और वे हमेशा अपने पक्ष में तर्क और बहाने ढूंढ़ते रहते हैं। वे लेशमात्र भी सत्य खोजते और स्वीकारते नहीं हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं वह अपने दैहिक सुखों की सुरक्षा और अपने भविष्य की संभावनाओं के लिए होता है। वे सब परमेश्वर से अनुग्रह पाना चाहते हैं ताकि हर संभव लाभ उठा सकें। लोग परमेश्वर से इतनी सारी माँगें क्यों करते हैं? यह साबित करता है कि लोग अपनी प्रकृति से लालची हैं, और परमेश्वर के समक्ष उनमें कोई समझ नहीं है। लोग जो कुछ भी करते हैं—वे चाहे प्रार्थना कर रहे हों या संगति या प्रचार कर रहे हों—उनके अनुसरण, विचार और आकांक्षाएँ, ये सारी चीजें परमेश्वर से माँगें हैं और उससे चीजें पाने के प्रयास हैं, ये सब परमेश्वर से कुछ हासिल करने की उम्मीद से किए जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि “यह मानव प्रकृति है,” जो सही है! इसके अलावा, परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना और बहुत अधिक असंयत लालसाएँ रखना यह साबित करता है कि सचमुच लोगों में अंतरात्मा और विवेक की कमी है। वे सब अपने लिए चीजों की माँग और आग्रह कर रहे हैं, या अपने लिए बहस करने और बहाने ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं—वे यह सब अपने लिए करते हैं। कई मामलों में देखा जा सकता है कि लोग जो कुछ करते हैं वह पूरी तरह समझ से रहित है, जो इस बात का पूर्ण प्रमाण है कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” वाला शैतानी तर्क पहले ही मनुष्य की प्रकृति बन चुका है। परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना किस समस्या को दर्शाता है? यह दर्शाता है कि लोगों को शैतान एक निश्चित बिंदु तक भ्रष्ट कर चुका है, और परमेश्वर में अपने विश्वास में वे उसे परमेश्वर बिल्कुल नहीं मानते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “अगर हम परमेश्वर को परमेश्वर न मानते तो फिर हम उस पर विश्वास क्यों करते? अगर हम उसे परमेश्वर न मानते तो क्या हम अब तक उसका अनुसरण कर रहे होते? क्या हम यह तमाम कष्ट सह सकते थे?” ऊपरी तौर पर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, और तुम उसका अनुसरण करने में सक्षम हो, फिर भी उसके प्रति अपने रवैये में, और कई चीजों को लेकर अपने विचारों में, तुम परमेश्वर को स्रष्टा की तरह बिल्कुल भी नहीं मानते हो। अगर तुम परमेश्वर को परमेश्वर मानते हो, अगर परमेश्वर को स्रष्टा मानते हो तो तुम्हें सृजित प्राणी के रूप में खड़ा होना चाहिए, और तुम्हारे लिए परमेश्वर से कोई भी माँग करना या कोई असंयत इच्छा पालना असंभव होगा। इसके बजाय, तुम मन से सच्चा समर्पण करने में सक्षम रहोगे और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसमें विश्वास कर उसके सभी कार्यों के प्रति समर्पण करने में पूरी तरह सक्षम रहोगे।
जब देहधारण की गवाही की शुरुआत होने लगी तो सभी लोगों ने शिकायत की : “परमेश्वर तुमने देह धारण करने से पहले हमें प्रबुद्ध क्यों नहीं किया ताकि हम खुद को मानसिक रूप से तैयार कर लेते। अगर हम मानसिक रूप से तैयार होते तो फिर हम विद्रोह और प्रतिरोध करने के बजाय तुम्हें स्वीकारने में सक्षम रहते। क्या तुम सर्वशक्तिमान नहीं हो? हम तुमसे विद्रोह और तुम्हारा प्रतिरोध इसलिए करते हैं क्योंकि हमें शैतान भ्रष्ट कर चुका है और हम ऐसा किए बिना रह नहीं सकते। क्या तुम हमें प्रतिरोध से रोकने और हमारा मार्ग सुगम करने के लिए कुछ नहीं कर सकते?” क्या लोग ऐसा ही नहीं सोचते थे? अनेक लोगों ने यह कहकर शर्तें भी तय कर दीं : “हम अपनी विद्रोही और प्रतिरोधी भावना के बारे में कुछ भी नहीं कर सकते हैं। परमेश्वर का देहधारण हमारी धारणाओं के बहुत ही प्रतिकूल है। अगर परमेश्वर का देहधारण थोड़ा-सा ऊँचा होता, या असाधारण रूप-रंग होता, या ज्ञान संपन्न और वाक्पटु होता, या वह इच्छानुसार साकार हो सकता और संकेत और चमत्कार दिखा सकता, या परमेश्वर लोगों की कल्पनाओं के अधिक अनुरूप बनकर देहधारी होता और कार्य करता, तो फिर हम परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करते।” अनेक लोगों ने उस समय ये माँगें कीं, किंतु परमेश्वर ने मनुष्य की कल्पनाओं या धारणाओं के अनुसार कार्य नहीं किया। इसके विपरीत, उसने पलटवार कर मनुष्य की धारणाओं के बिल्कुल उलट कार्य किया। इससे क्या साबित हुआ? इससे साबित हुआ कि मनुष्य की धारणाएँ और माँगें अनुचित और परेशानी पैदा करने वाली हैं। कुछ लोग कलीसिया के अगुआ बन गए लेकिन कोई वास्तविक कार्य नहीं किया, और हमेशा कुछ बाहरी कार्यों में व्यस्त रहे। जब मैंने इन लोगों की काट-छाँट की, इन्हें जरा-सा धिक्कारा, तो ये मन ही मन उदास हो गए, फूट-फूट कर रोए और नकारात्मक हो गए। इन्होंने खुद से कहा : “क्या परमेश्वर दयालु और प्रेममय नहीं है? मैं इतनी अधिक पीड़ा झेल रहा हूँ, तो क्यों नहीं वह कुछ भले वचन कहकर मुझे सांत्वना देता? वह मुझे एक भी आशीर्वचन क्यों नहीं देता?” लोगों ने परमेश्वर से इस प्रकार माँगें कीं, और अपने ही औचित्यों से भरे हुए थे। कुछ लोगों को लगता था कि अनेक लोगों को सफलतापूर्वक सुसमाचार सुनाने की वजह से उनके पास पूँजी है, इसलिए कुछ गलत करने पर काट-छाँट किए जाने के बाद वे तर्क देते थे : “मैंने बिना कोई पुरस्कार पाए इतने अधिक लोगों में सफलतापूर्वक सुसमाचार का प्रचार किया, और अब मेरी इस तरह काट-छाँट की जा रही है। मैंने इतने अधिक कष्ट भोगे, फिर भी अंत में मेरी काट-छाँट की गई। परमेश्वर मेरी भावनाओं का ख्याल क्यों नहीं रखता?” क्या इस तरह सोचने वाले लोगों के दिल में सत्य होता है? क्या ये माँगें उचित हैं? अगर मैं किसी की काट-छाँट करने के बाद उसे दिलासा दूँ तो वह सोचेगा : “परमेश्वर कितना अच्छा है, मैंने कभी नहीं सोचा कि वह मुझे सांत्वना देगा।” लेकिन अगर मैंने किसी और व्यक्ति की काट-छाँट की और वह खास तौर पर परेशान हो जाए और मैं उसे सांत्वना न दूँ तो वह सोचेगा, “परमेश्वर क्यों दूसरे लोगों की काट-छाँट करने के बाद उन्हें तो सांत्वना देता है, लेकिन मुझे नहीं देता? परमेश्वर मेरे साथ निष्पक्ष नहीं है,” और उसके दिल में धारणाएँ बैठ जाएँगी। लोग अपने दिल में कई अनुचित माँगें, कल्पनाएँ और इच्छाएँ पाल लेते हैं जो किसी खास वक्त और अनुकूल माहौल मिलते ही प्रस्फुटित हो जाएँगी। क्योंकि मनुष्य द्वारा प्रकट कोई भी विचार, ख्याल या माँग परमेश्वर के अनुरूप नहीं है, और मनुष्य की प्रकृति शैतानी चीजों से भरी पड़ी है : वह हर चीज अपने लिए करता है, वह स्वार्थी और लालची है, उसकी बहुत अधिक असंयत इच्छाएँ हैं, और वह बहुत ही मलिन और बहुत ही ज्यादा भ्रष्ट है।
लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते हैं, फिर चाहे स्थिति कोई भी हो। इसमें समस्या क्या है? कुछ लोग किसी सुख-साधन का मजा लेते हुए यह कहकर प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, मेरी रक्षा कर, मुझे सदा इसी स्थिति में रहने दे।” लोग तब भी माँगें करते हैं जब वे खिन्न या उदास होते हैं : “परमेश्वर, तुम मुझ पर दया क्यों नहीं करते? तुम मुझे प्रबुद्ध क्यों नहीं करते? दूसरे लोगों के लिए स्थितियाँ इतनी अच्छी क्यों हैं, और मेरे लिए इतनी बुरी क्यों हैं?” लोग जब किसी मुसीबत में फँसते हैं, तो पुरजोर माँग करते हैं कि परमेश्वर उनके परिवेश को बदल दे; जब चीजें ठीक चल रही होती हैं, तो लोगों की माँगें और भी बढ़ जाती हैं। जब लोगों को कुछ हासिल होता है, तो उनकी लालसा और बढ़ जाती है, और जब कुछ हासिल नहीं होता, तो वे बेताब होकर इसे पाना चाहते हैं। लोग क्या हासिल करना चाहते हैं? वे अपनी पसंद की और अपने दैहिक हितों की चीजें हासिल करना चाहते हैं। इसलिए मनुष्य की कोई भी माँग उचित या औचित्यपूर्ण नहीं है। जब मैंने कुछ निर्धन परिवारों को कुछ कपड़े या चीजें इस्तेमाल करने के लिए दीं, तो यह देखकर कुछ लोग नाखुश हो गए। उन्होंने सोचा, “परमेश्वर क्यों हमेशा उनकी देखभाल करता है लेकिन मेरी नहीं? परमेश्वर निष्पक्ष नहीं है!” दूसरे लोगों ने उस समय इसे दिल पर न लेकर सोचा, “मुझ पर पहले से परमेश्वर का अनुग्रह है कि मैं उसमें विश्वास के मार्ग पर चल पा रहा हूँ और अब तक इसका निरापद रूप से अनुसरण कर रहा हूँ। मुझे उन भौतिक चीजों को पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।” लेकिन बाद में इस बारे में सोचकर वे परेशान हो गए। जब वे इस एहसास से नहीं उबर पाए तो उन्होंने प्रार्थना की और फौरी तौर पर सोचना बंद कर दिया, लेकिन ये चीजें अब भी उनके दिल में जमी हुई थीं—उन्होंने इसे चाहे जैसे आँका, उनके दिल को चैन नहीं मिला, और उन्होंने मन ही मन सोचा : “परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ है? यह मुझे क्यों नहीं दिखती? परमेश्वर इनमें से किसी भी बाहरी मामले को निष्पक्ष या तर्कसंगत रूप से नहीं संभालता है, तो उसकी धार्मिकता कहाँ प्रकट होती है?” फिर उन्होंने अपना मन बदलकर सोचा, “धार्मिकता का आशय वही नहीं है जो निष्पक्षता या तर्क-संगति का है, और इनमें घालमेल नहीं करना चाहिए,” लेकिन वे फिर भी उखड़े हुए थे और इस बात को अपने मन से निकाल नहीं पा रहे थे। लोग जरा-से भौतिक हित को लेकर इतने चिंतित होते हैं, अगर वे उतने ही चिंतित सत्य को लेकर भी हो सकें तो क्या खूब रहेगा। जो भी हो, अपने मन में सदा परमेश्वर से माँगते जाना उनकी प्रकृति का हिस्सा है, और जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे सब भौतिक लाभों से प्रेम करते हैं। संक्षेप में, लोगों की सभी माँगें और कुचक्र—परमेश्वर से यह-वह चीज माँगना, यहाँ-वहाँ कुचक्र रचना—सत्य के प्रतिकूल हैं, और परमेश्वर की अपेक्षाओं और इरादों के विपरीत हैं। परमेश्वर उनमें से किसी से भी प्रेम नहीं करता, वह उन सबसे घृणा कर उनका तिरस्कार करता है। लोग परमेश्वर से जो माँगें करते हैं, जो कुछ वे पाना चाहते हैं, और वे जिन रास्तों पर चलते हैं, उनका सत्य से कोई वास्ता नहीं होता। कुछ लोग सोचते हैं, “मैं इतने साल से कलीसिया के लिए काम कर रहा हूँ—अगर मैं बीमार पड़ा तो परमेश्वर को मुझे स्वस्थ कर आशीष देना चाहिए।” खासकर जो लोग लंबे अरसे से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, वे उससे और भी अधिक माँग करते हैं; जिन लोगों ने थोड़े-से समय विश्वास किया है वे खुद को पात्र नहीं मानते, लेकिन थोड़ी देर बाद ही वे खुद को इसका हकदार मानने लगते हैं। लोग बिल्कुल ऐसे ही होते हैं; यह मनुष्य की प्रकृति है, और कोई भी व्यक्ति इससे अछूता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने कभी भी परमेश्वर से अत्यधिक माँग नहीं की है क्योंकि मैं सृजित प्राणी हूँ, और मैं उससे कुछ भी माँगने लायक नहीं हूँ।” यह कहने में उतावली न करो, समय सब कुछ बता देगा। आखिरकार एक दिन लोगों की प्रकृति और इरादे उजागर होकर फूट पड़ेंगे। लोग परमेश्वर से माँगें इसलिए नहीं करते कि उन्हें लगता है कि यह जरूरी है या यह सही समय है या कि वे पहले भी परमेश्वर से बहुत सारी माँगें कर चुके हैं, बल्कि बात यह है कि उन्हें यह एहसास ही नहीं होता कि यह एक माँग है। संक्षेप में, लोगों की इस प्रकार की प्रकृति होती है, इसलिए हो ही नहीं सकता कि वे इसे प्रकट न करें। अनुकूल परिस्थिति या अवसर आते ही यह स्वाभाविक रूप से प्रकट होकर रहेगी। इस पर संगति आज क्यों की जा रही है? इसका उद्देश्य लोगों को यह समझाना है कि उनकी अपनी प्रकृति में क्या है। यह मत सोचो कि कुछ साल परमेश्वर में विश्वास करने या कुछ दिन कलीसिया के लिए काम करने का यह अर्थ है कि तुम उसके लिए काफी खप चुके हो, समर्पित रह चुके हो या कष्ट सह चुके हो और कुछ चीजें पाने के हकदार बन चुके हो, जैसे भौतिक चीजों का आनंद, शारीरिक पोषण, या दूसरों की नजरों में अधिक सम्मान और अहमियत पाना, या परमेश्वर तुमसे सौम्यता से बात करे या तुम्हारा ज्यादा ख्याल रखकर अक्सर पूछे कि क्या तुम ठीक से खा-पहन रहे हो, तुम शारीरिक रूप से कैसे हो, इत्यादि। ये चीजें लोगों के मन में अनजाने में ही तब उपजती हैं जब वे परमेश्वर के लिए लंबे समय तक खप चुके होते हैं और सोचने लगते हैं कि वे उससे कुछ भी माँगने के हकदार हैं। जब वे थोड़े समय से ही परमेश्वर के लिए खप रहे होते हैं तो वे खुद को हकदार न मानकर परमेश्वर से माँग करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। लेकिन समय के साथ, वे सोचेंगे कि उनके पास पूँजी है और उनकी माँगें सामने आने लगेंगी, और उनकी प्रकृति के ये पहलू उजागर हो जाएँगे। क्या लोग ऐसे ही नहीं हैं? लोग इस बारे में क्यों नहीं सोचते कि क्या परमेश्वर से इस तरह माँगना सही है? क्या तुम इन चीजों के हकदार हो? क्या परमेश्वर ने तुमसे इनका वादा किया था? अगर कोई चीज तुम्हारी नहीं है, फिर भी तुम हठपूर्वक इसे माँगते हो, तो यह सत्य के विपरीत है, और पूरी तरह से तुम्हारी शैतानी प्रकृति की उपज है। शुरुआत में महादूत ने कैसा व्यवहार किया था? उसे बड़ा ही ऊँचा स्थान दिया गया, बहुत अधिक दिया गया, इसलिए उसने सोचा कि वह जो कुछ भी चाहता है और उसे जो कुछ भी मिला है, वह उसका हकदार है, आखिरकार वह इस हद तक पहुँच गया कि बोल पड़ा, “मैं परमेश्वर के बराबर होना चाहता हूँ!” इसी कारण लोग बहुत अधिक माँगों, बहुत बड़ी इच्छाओं के साथ परमेश्वर में विश्वास करते हैं। अगर वे अपनी ही जाँच नहीं करते और समस्या की गंभीरता समझने में विफल रहते हैं, तो एक दिन कह देंगे, “परमेश्वर, हट जाओ। मैं कमोबेश खुद परमेश्वर हो सकता हूँ” या “हे परमेश्वर, मैं वही पहनूँगा जो तुम पहनते हो, वही खाऊँगा जो तुम खाते हो।” जो लोग इस स्तर तक पहुँच चुके हैं कि वे पहले ही परमेश्वर को मानव के रूप में मान रहे हैं। यद्यपि लोग मुँह-जुबानी मानते हैं कि देहधारी परमेश्वर ही स्वयं परमेश्वर है, लेकिन ये सब सिर्फ सतही शब्द हैं। वास्तव में, उनके दिल में परमेश्वर के प्रति थोड़ा-सा भी समर्पण या भय नहीं है। कुछ लोग तो परमेश्वर बनना चाहते हैं, और अगर उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ इस हद तक बढ़ जाएँ तो मुसीबत होगी। संभावना है कि उन पर कोई विपत्ति आ पड़ेगी, और भले ही वे कलीसिया से निकाल दिए जाएँ, फिर भी उन्हें परमेश्वर दंडित करेगा।
परमेश्वर में विश्वास करने वालों को परमेश्वर को परमेश्वर के रूप में मानना चाहिए, और ऐसा करके ही वे सचमुच परमेश्वर में विश्वास करते हैं। उन्हें सिर्फ परमेश्वर के दर्जे को नहीं स्वीकारना चाहिए, बल्कि उनमें परमेश्वर के सार और स्वभाव के प्रति सच्ची समझ और भय भी होना चाहिए, और उन्हें पूर्ण समर्पित होना चाहिए। इसका अभ्यास करने के कुछ तरीके इस प्रकार हैं : पहला, परमेश्वर के साथ बातचीत करते समय अपने अंदर धर्मपरायण और ईमानदार रवैया रखो, इसमें कोई धारणा या कल्पना न हो, और दिल समर्पणकारी बना रहे। दूसरा, तुम जो कुछ भी कहते हो, जो भी प्रश्न पूछते हो और जो कुछ भी करते हो, उसके पीछे के इरादों को जाँच के लिए परमेश्वर के सामने लाओ और प्रार्थना करो। सत्य सिद्धांतों के अनुसार और परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास कैसे किया जाए, केवल यह जानकर ही तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। अगर तुम सत्य की खोज नहीं करते तो सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में तो असमर्थ रहोगे ही, तुम अधिकाधिक धारणाएँ भी बटोर लोगे और इससे मुसीबत आएगी। जब तुम परमेश्वर को व्यक्ति मानते हो तो तुम जिस परमेश्वर में विश्वास करते हो वह स्वर्ग में एक अस्पष्ट परमेश्वर है; तुम देहधारण को पूरी तरह नकार चुके होगे, और तुम फिर कभी अपने दिल में व्यावहारिक परमेश्वर को स्वीकार नहीं करोगे। इस समय, तुम मसीह-विरोधी बनकर अंधकार में गिर जाओगे। तुम जितने अधिक औचित्य दोगे, परमेश्वर से उतनी ही अधिक माँगें करोगे, और उसके बारे में तुम्हारी उतनी ही अधिक धारणाएँ होंगी, जो तुम्हें ज्यादा से ज्यादा खतरे में डाल देंगी। तुम परमेश्वर से जितनी अधिक माँगें करते हो, उससे उतना ही ज्यादा साबित होता है कि तुम परमेश्वर को साफ-साफ परमेश्वर नहीं मानते। अगर तुम सदा अपने दिल में परमेश्वर से माँगें करते रहे तो समय के साथ-साथ संभावना है कि तुम खुद को परमेश्वर मानने लगोगे और कलीसिया में काम करते समय अपने लिए गवाही दोगे, यहाँ तक कहने लगोगे, “क्या परमेश्वर खुद अपनी गवाही नहीं देता? तो मैं क्यों नहीं दे सकता?” चूँकि तुम परमेश्वर के कार्य को नहीं समझते, इसलिए तुम्हारे मन में उसके बारे में धारणाएँ होंगी, और तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होगा। तुम्हारा लहजा बदल जाएगा, तुम्हारा स्वभाव अहंकारी हो जाएगा, और अंत में तुम धीरे-धीरे अपनी बड़ाई करने और अपने लिए गवाही देने लगोगे। इंसान के पतन की प्रक्रिया यही होती है, और ऐसा पूरी तरह सत्य का अनुसरण न करने के कारण होता है। मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वाला हर व्यक्ति अपनी बड़ाई करता है और अपने लिए गवाही देता है, खुद को बढ़ावा देता है और हर मोड़ पर अपना दिखावा करता है, और बिल्कुल भी परमेश्वर की परवाह नहीं करता है। मैं जिन चीजों के बारे में बता रहा हूँ, क्या तुमने इनका अनुभव किया है? कई लोग लगातार अपने लिए गवाही देते हैं, बताते फिरते हैं कि उन्होंने कैसे ये-वो कष्ट सहे, वे कैसे काम करते हैं, परमेश्वर कैसे उन्हें महत्व देता है और ऐसे कुछ काम सौंपता है, और वे किस किस्म के हैं, वे जानबूझकर खास स्वर में बोलते हैं, और कुछ खास शिष्टाचार दिखाते हैं, जब तक कि आखिरकार कुछ लोग यह न सोचने लगें कि शायद वे परमेश्वर हैं। जो लोग इस स्तर तक पहुँच चुके हैं, पवित्र आत्मा बहुत पहले ही उन्हें त्याग चुका है और हालाँकि उन्हें अभी तक हटाया या निष्कासित नहीं किया गया है, बल्कि उन्हें सेवा करने के लिए रख छोड़ा गया है, उनका भाग्य पहले ही सील-बंद हो चुका है और वे अपनी सजा का इंतजार भर कर रहे हैं। कुछ स्थानों पर ऐसा हो भी चुका है। एक नए विश्वासी ने देखा कि एक बहन विशेष रूप से काफी गरिमामयी दिखती और बोलती है, और वह उसे गलती से परमेश्वर समझ बैठा। जब जाने का समय हुआ, तो यह नया विश्वासी उसके पैरों से चिपककर चिल्लाया, “हे परमेश्वर! मत जाओ! हे परमेश्वर! मुझे तुम्हारी याद आएगी!” वह स्पष्ट जानती थी कि वह परमेश्वर नहीं है, लेकिन उसने इसका न तो खंडन किया, न ही स्थिति स्पष्ट की। क्या ऐसे व्यक्ति के पास कोई विवेक है? (नहीं है।) उसके पास कोई विवेक नहीं है और वह निश्चित रूप से निकम्मी है! कुछ लोग भ्रमित और अज्ञानी होते हैं, और ऐसे किसी व्यक्ति को परमेश्वर मान बैठते हैं—यह वाकई भयंकर बात है! और रोते हुए उसके पैरों से चिपकना तो इतनी बड़ी अज्ञानता है कि इसे सुधारा भी नहीं जा सकता है! यदि तुम एक भ्रष्ट मानव को जो शैतान है, परमेश्वर मान सकते हो तो तुम किस तरह परमेश्वर में विश्वास कर रहे हो? क्या यह शैतान में विश्वास करना नहीं है? कोई कितना भ्रमित होगा कि किसी व्यक्ति को परमेश्वर मान ले? अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो लेकिन सत्य को स्वीकारने या उसका अनुसरण करने में असमर्थ हो तो संभावना है कि तुम दूसरों से गुमराह हो जाओगे और तुम्हारे मूर्खतापूर्ण कार्य करने और भटकने की भी संभावना है। मूर्ख और अज्ञानी लोग वास्तव में खतरे में हैं, वे हर प्रकार की मूर्खतापूर्ण चीज करने में सक्षम हैं।
लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते हैं, अपनी धारणाओं के अनुसार उससे ये या वो काम करने को कहते हैं। तुम परमेश्वर से कहते हो कि वह तुम्हें बचाए, तुम पर दया करे, तुमसे प्रेम करे, तुम पर अनुग्रह दिखाए—यह सब कुछ तुम्हारे ख्यालों के अनुसार है। ऐसा करके तुम परमेश्वर से माँगें करने और अपनी आज्ञा मनवाने के लिए अपने ही ख्यालों और तरीकों का इस्तेमाल करते हो। इसमें क्या समस्या है? क्या यह परमेश्वर में विश्वास करना है? यह तो तुम्हारा अपने पर ही विश्वास करना है। न तो तुम्हारे दिल में परमेश्वर है, न ही कहने के लिए कोई सत्य है। कोई व्यक्ति दयालुता में मेरे लिए एक जोड़ी जूते लाया, लेकिन वे उपयुक्त नहीं थे, इसलिए मैं इन्हें लौटा देना चाहता था। लेकिन तभी मैंने सोचा कि अगर मैं इन्हें लौटाता हूँ तो उसे गलतफहमी हो जाएगी, इसलिए मैंने ये एक अन्य व्यक्ति को पहनने के लिए दे दिए। जब उसे पता चला तो वह इसे स्वीकार नहीं पाया और बोला : “तुम्हें पता है कि मैंने इन्हें खरीदने के लिए कितने प्रयास किए और कितने पैसे खर्चे हैं, और कितनी दूर तक घूमा हूँ? तुमने ये इतनी आसानी से किसी और को दे दिए, क्या तुम्हें लगता है कि यह पैसा कमाना मेरे लिए इतना आसान था? अगर तुम इन्हें नहीं पहनना चाहते हो तो मुझे लौटा दो—तुम इन्हें किसी और को कैसे दे सकते हो?” मैंने कहा : “मैंने तो तुम्हें जूते खरीदने के लिए नहीं कहा था। तुमने खुद खरीदे और मुझे दिए, लेकिन ये मेरे पाँवों में नहीं अटे, इसलिए मैंने ये दूसरी बहन को दे दिए। क्या इसमें कोई समस्या है? अगर मैं इनको तुम्हें लौटा देता तो क्या तुम निराश और अशक्त नहीं हो जाते, और मुझे गलत नहीं समझ बैठते? क्या मैं उचित व्यवस्था नहीं कर सकता हूँ?” क्या लोगों का मेरे साथ इस तरह व्यवहार करना उचित है? ऐसा लगता है कि परमेश्वर को कुछ भेंट करते हुए भी लोगों के मन में इरादे और माँगें होती हैं। क्या ऐसा कोई व्यक्ति सत्य को समझता है? जब तुम कोई चीज परमेश्वर को भेंट करते हो, तो फिर यह तुम्हारी नहीं रह जाती है, यह उसकी हो जाती है। परमेश्वर इसका जो चाहे वो कर सकता है, और वह इसे जैसे भी संभाले, यह उसका काम है। लोगों में थोड़ी-सी समझ होनी चाहिए, उन्हें समर्पण करना सीखना चाहिए, और हरदम परमेश्वर के कार्यों में दखल नहीं देना चाहिए। क्या परमेश्वर के साथ निरंतर बहस करने में कोई समझदारी है? मेरे लिए चीजें खरीदते समय लोग परमेश्वर के प्रति बहुत दया और प्रेम के भाव से भरे हुए लगते हैं, लेकिन बाद में वे यह माँग करते हैं कि मुझे वे चीजें पसंद आनी ही चाहिए, और अगर मैं ऐसा न कर सकूँ तो वे शिकायत करते हैं। इतना ही नहीं, अगर मैं उनका उपयोग नहीं करता तो यह ठीक नहीं है, लोग यह पाबंदी थोपते हैं कि मैं उन्हें किसे दे सकता हूँ, और वे मुझे मन से कुछ नहीं करने देना चाहते हैं। लोग दिन भर इसी तरह परमेश्वर को जाँचते और उस पर चिंतन कर सोचते हैं, “परमेश्वर मनुष्य की इच्छाओं को पूरा क्यों नहीं कर सकता?” लोगों में पूरी तरह समझ की कमी है, वे बहुत विवेकहीन हैं! मैंने पाया कि सभी लोग कहते हैं, “मुझे परमेश्वर से ठीक से प्रेम करना चाहिए और उसके प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए,” लेकिन उनमें यह लेशमात्र समझ नहीं है कि परमेश्वर से प्रेम का क्या अर्थ है। लोगों के दिल भ्रष्ट स्वभाव से भरे पड़े हैं तो इनमें प्रेम कैसे हो सकता है? अगर लोग इतने भ्रष्ट हैं कि उनमें एक सामान्य व्यक्ति जैसी समझ भी नहीं है तो क्या परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रति समर्पण करने की बात कोरे शब्द नहीं हैं? लोगों के भीतर अगर कुछ है तो वे हैं धारणाएँ और कल्पनाएँ, आक्रोश, असंयत इच्छाएँ और उनकी अनुचित माँगें। उनके भीतर कोई प्रेम या समर्पण है ही नहीं। लोगों के लिए प्रेम, पीछा करने के लिए एक लक्ष्य भर है, परमेश्वर द्वारा की गई एक अपेक्षा मात्र है। उनमें से कितने इसे हासिल करते हैं? कितने लोगों के पास वास्तविक अनुभव की गवाही है?
अब जबकि तुम सभी लोग सत्य का अनुसरण करने और अपने स्वभाव बदलने के लिए प्रयास करने के इच्छुक हो तो परमेश्वर से माँगें करते हुए तुम्हें किस प्रकार आत्म-चिंतन करना चाहिए? क्या तुम्हारी माँगें सत्य के अनुरूप हैं? परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए? क्या तुमने कभी इन प्रश्नों पर चिंतन किया है? कुछ लोग कुछ कलीसियाओं की अगुआई करने के बाद अहंकारी बन जाते हैं, सोचने लगते हैं कि उनके बिना परमेश्वर का घर नहीं चल सकता और वे विशेष व्यवहार के हकदार हैं। लोगों की शैतानी प्रकृति होती है और जिसका पद जितना ऊँचा होता है, उसकी परमेश्वर से उतनी ही बड़ी माँगें होती हैं; जो सिद्धांतों को जितना ज्यादा समझता है, उसकी माँगें उतनी ही अधिक गुप्त और धूर्त होती जाती हैं। शायद वह इन्हें उतने मुखर होकर न कहे, लेकिन ये उसके दिल में छिपी हुई होती हैं। दूसरे लोग इन्हें आसानी से नहीं ताड़ पाते लेकिन न जाने कब किसी के अंदर की शिकायतों और प्रतिरोध का गुबार फूट पड़े? इसका मतलब तो और भी ज्यादा मुसीबत होगी, और इससे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचने की संभावना है। ऐसा क्यों है कि कोई व्यक्ति धार्मिक संसार में जितना बड़ा अगुआ या हस्ती है, उसकी ऐसे मसीह-विरोधी होने की उतनी ही अधिक संभावना है जो खतरे में है? किसी व्यक्ति का पद जितना ऊँचा होता है, उसकी महत्वाकांक्षाएँ उतनी ही बढ़ जाती हैं; जो सिद्धांतों को जितना अधिक समझता है, उसका स्वभाव उतना ही अधिक अहंकारी हो जाता है। इसलिए परमेश्वर में विश्वास तो करना लेकिन सत्य के बजाय रुतबे के पीछे भागना खतरनाक है। परमेश्वर ने इतने अधिक सत्य व्यक्त किए हैं, और जो सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, उन्हें खुलासा कर अपने घर से हटा दिया है, जो धार्मिक मंडलियों में हैं, उनकी तो बात ही छोड़ो। क्या तुम लोगों को यह आवश्यक लगता है कि परमेश्वर लोगों का न्याय करे और उन्हें ताड़ना दे? जब लोग वाकई सत्य को समझेंगे और जीवन-प्रवेश करेंगे तो वे अपनी भ्रष्टता की वास्तविकता को देख लेंगे और यह महसूस करेंगे कि उनके लिए सत्य का अनुसरण न करना खतरनाक रहेगा। अभी तो लोग अपनी प्रकृति बिल्कुल नहीं समझते हैं, और भले ही उन्हें थोड़ी-सी सतही समझ जरूर होती है, यह सिर्फ सिद्धांतों की समझ है, और उन्होंने सत्य हासिल नहीं किया है। इसलिए उन्हें नहीं लगता कि वे खतरे में हैं, न वे डरना जानते हैं, न अपनी चिंता करना जानते हैं। कुछ नए विश्वासी कुछ भी कहने और करने की हिम्मत दिखाते हैं लेकिन जिन्होंने न्याय और ताड़ना का अनुभव कर लिया है वे अलग होते हैं। उनके पास थोड़ा-सा परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है और भले ही वे कुछ धारणाएँ पालते हों, वे इन्हें कहने का साहस नहीं करते और जल्दी से प्रार्थना करना जानते हैं : “हे परमेश्वर, मैंने तुम्हें नाराज कर दिया है...।” कुछ नए विश्वासी बिना सोचे-समझे परमेश्वर की निंदा का दुस्साहस करते हुए कहते हैं, “परमेश्वर दुःख भोगता है? क्या दुःख भोगता है? अच्छा खाना-पहनना, हर जगह लोगों का आतिथ्य सत्कार पाना—यह तो दुःख भोगना नहीं है! लेकिन मेरी बला से। मैं तो परमेश्वर के आत्मा में विश्वास करता हूँ, किसी व्यक्ति में नहीं।” वे देहधारण को नकारने की हिम्मत करते हैं। इन लोगों का ऐसा कलेजा है। उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं है, वे किसी भी चीज से नहीं डरते, वे कुछ भी कह सकते हैं, और वे सब शैतानी और पाशविक प्रवृत्तियाँ पालते हैं। अगर ऊपरवाले के मन में किसी व्यक्ति के बाबत कुछ अच्छी छाप या राय है तो कुछ लोग कहते हैं, “यह कलीसिया में लोकप्रिय और कृपापात्र व्यक्ति है, जिसकी परमेश्वर के घर में खूब आवभगत होती है।” क्या इस प्रकार का व्यक्ति सत्य समझता है? लेशमात्र भी नहीं। वह चीजों को जिस तरीके से देखता है, उससे यह पूरी तरह उजागर हो चुका है कि उसके मन में अब भी हर चीज इसी संसार की है। यह पूर्ण रूप से सांसारिक दृष्टिकोण और अनुभूति है। क्या परमेश्वर पर विश्वास करने और उसके वचन पढ़ने का इन लोगों पर कोई प्रभाव पड़ता है? वे सत्य बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते, और चीजों को देखने का उनका तरीका बिल्कुल गैर-विश्वासियों के समान होता है। वे वास्तव में छद्म-विश्वासी हैं।
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