अपना स्वभाव बदलने के लिए अभ्यास का मार्ग (भाग दो)

क्या तुम लोगों के पास स्वभावगत बदलाव हासिल करने का कोई मार्ग है? क्या तुम लोग जानते हो कि कौन-सी चीजें बदलेंगी? क्या तुम लोग अमूमन सत्य के इस पहलू पर संगति करते हो? अभी-अभी हमने इस बारे में संगति की कि स्वभावगत बदलाव का आशय बाहरी आचार-व्यवहार या विनियमों में बदलाव लाना नहीं है, न इसका अर्थ अपने व्यक्तित्व में बदलाव लाना ही है। तो यह वास्तव में क्या है? क्या तुम लोगों ने कभी इस बारे में सोचा है? सबसे पहले, हमें यह पता लगाना और समझना होगा कि परमेश्वर हमसे कौन-से स्वभाव और कौन-सी चीजें बदलवाना चाहता है। स्वभावगत बदलाव व्यवहार या व्यक्तित्व में बदलाव नहीं है, न यह ऐसा कोई बदलाव है जिससे लोग ज्यादा ज्ञानी और विद्वान बन जाएँ; परमेश्वर अपने वचनों से हर व्यक्ति के विचार और दृष्टिकोण बदलना चाहता है, और उसे सत्य समझने लायक बनाना चाहता है, ताकि वह चीजों को देखने का अपना तरीका बदल सके। यह एक पहलू है, जबकि दूसरा पहलू उन सिद्धांतों को बदलना है जिनके आधार पर लोग आचरण करते हैं, यह जीवन के प्रति उनके नजरिए में बदलाव है; एक और पहलू लोगों में दिखने वाली गहरी शैतानी प्रकृति और स्वभाव को बदलना है। आम तौर पर स्वभावगत बदलाव के ये तीन पहलू हैं।

चलो हम शुरुआत में स्वभावगत बदलाव के पहले पहलू पर चर्चा करते हैं—चीजों को देखने का लोगों का तरीका। लोगों के विचार और दृष्टिकोण, यानी उनका हर चीज को देखने का तरीका। इंसान को शैतान इतनी गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है कि इनमें से कई विचार और दृष्टिकोण गलत और बेतुके हो गए हैं, और परमेश्वर सबसे पहले लोगों का चीजों को देखने का तरीका बदलकर उन्हें बचाता है। एक आसान-सा उदाहरण लो : ज्ञान को लेकर तुम लोगों की समझ क्या है? और विज्ञान को लेकर? क्या ज्ञान और विज्ञान सत्य हैं? क्या ये लोगों का भ्रष्ट स्वभाव दूर कर सकते हैं, और उन्हें मनुष्य जैसा जीवन जीने लायक बना सकते हैं? क्या ये लोगों को शैतान के प्रभाव से बचा सकते हैं? क्या ये लोगों को परमेश्वर को जानने और उसके प्रति समर्पण करने की ओर ले जा सकते हैं? क्या ये उद्धार और अच्छी मंजिल प्राप्त करने की ओर ले जा सकते हैं? ये ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकते। किसी व्यक्ति के जीवन में ज्ञान का क्या उपयोग है? यह उन्हें क्या दे सकता है? कुछ लोग सोचते हैं कि ज्ञान इस दुनिया की अनमोल चीज है, और उनके पास जितना अधिक ज्ञान होगा, उतना ही बड़ा उनका रुतबा होगा और वे उतने ही उच्च श्रेणी के होंगे, उतने ही अधिक प्रतिष्ठित और सुसंस्कृत होंगे, इसलिए ज्ञान के बिना उनका काम नहीं चलने वाला। कुछ लोग सोचते हैं कि अगर तुम कड़ी मेहनत से पढ़-लिखकर अपना ज्ञान बढ़ाओगे तो तुम्हारे पास सब कुछ होगा। तुम्हारे पास रुतबा, पैसा, अच्छी नौकरी और अच्छा भविष्य होगा; वे मानते हैं कि ज्ञान के बिना इस दुनिया में रहना असंभव है। अगर किसी के पास कोई ज्ञान नहीं होता तो हर कोई उसे हेय दृष्टि से देखता है। उसके साथ भेदभाव होता है और कोई भी उसके साथ जुड़ने को तैयार नहीं होता है; ज्ञान रहित लोग समाज के सबसे निचले तबके में ही जी सकते हैं। इस प्रकार वे ज्ञान की पूजा करते हैं और इसे अत्यंत उच्च और महत्वपूर्ण मानते हैं—यहाँ तक कि सत्य से भी अधिक। कोई कह सकता है : “क्या मैं ज्ञान के बिना परमेश्वर के वचन समझ सकता हूँ? क्या वह भी ज्ञान और वचनों के जरिए नहीं बोलता?” ये दो बिल्कुल अलग चीजें हैं। अभी मैं जिस ज्ञान की बात कर रहा हूँ उसका आशय मानव इतिहास, भूगोल, राजनीति, साहित्य, आधुनिक विज्ञान और तकनीक, या फिर कुछ कौशलों या विषयों वगैरह से है। लोग सोचते हैं कि यह सब मानवता की ताकत का हिस्सा है, और जिनके पास ज्ञान है उनके पास सब कुछ है और वे इस दुनिया में मजबूती से खड़े रह सकते हैं, लिहाजा हर कोई ज्ञान को असाधारण रूप से महत्वपूर्ण मानता है। संक्षेप में, तुम इसे जैसे भी देखो, यह मानवीय विचारों और दृष्टिकोणों का एक पहलू है। एक पुरानी कहावत है : “दस हजार किताबें पढ़ लोगे तो दस हजार मील यात्रा कर लोगे।” लेकिन इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि तुम जितना ज्यादा पढ़ोगे, उतने ही ज्यादा जानकार और संपन्न बनोगे। तुम्हें सभी तबकों से बहुत इज्जत मिलेगी और तुम्हारा रुतबा बढ़ेगा। इस प्रकार के विचार हर कोई अपने दिल में रखता है। अगर कोई व्यक्ति अपनी अभागी पारिवारिक परिस्थिति के कारण कॉलेज का डिप्लोमा नहीं ले पाता तो उसे जीवन भर इस बात का पछतावा रहेगा, और वह यह दृढ़ संकल्प लेगा कि उसके बच्चे और पोते-पोतियाँ ज्यादा पढ़ाई करें, विश्वविद्यालय की डिग्री लें और यहाँ तक कि विदेश जाकर पढ़ें। यह हर किसी के ज्ञान की प्यास है और यह भी कि वे इसे कैसा मानते, देखते और सँभालते हैं। इसीलिए कई माता-पिता अपने बच्चों की परवरिश के लिए मेहनत और खर्च करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते, इस पर परिवार की दौलत भी लुटा देते हैं, और यह सब इसलिए ताकि उनके बच्चे खूब पढ़ें। और कुछ माता-पिता अपने बच्चों को अनुशासित करने के लिए किस हद तक जाते हैं? एक रात में केवल तीन घंटे सोने की इजाजत देना, लगातार जबरन पढ़ाई-लिखाई करवाना, या प्राचीन मिसालों की नकल कर और उनके बाल छत से बाँधकर उन्हें पूरी तरह नींद से वंचित करना। इस प्रकार के किस्से, ये त्रासदियाँ पुराने जमाने से लेकर अब तक हमेशा घटती रही हैं, और ये ज्ञान के लिए मानवजाति की प्यास और उसकी पूजा के दुष्परिणाम हैं। तुम लोगों को ये वचन अरुचिकर लग सकते हैं, क्योंकि तुम्हारे बीच भी शानदार ज्ञान और शैक्षणिक योग्यता वाले लोग हैं। बेशक मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम लोगों का शिक्षित होना बुरा है, लेकिन तुम्हें इस मामले से सही ढंग से पेश आना चाहिए। यानी, अब तुम लोगों के पास शैतानी चीजों से निपटने का एक सही तरीका होना ही चाहिए, और इन्हें समझने और बूझने का सही तरीका भी होना चाहिए। मैं तुम लोगों को पढ़ने-लिखने से नहीं रोक रहा हूँ, अपने बच्चों की परवरिश कर उन्हें डिग्री और अच्छी नौकरी दिलाने से रोकना तो दूर रहा। मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ। मैं तुम लोगों को रोक नहीं रहा हूँ। मैं केवल अपनी राय बता रहा हूँ, और यह उजागर कर रहा हूँ कि भ्रष्ट मानवता किस हद तक ज्ञान की पूजा करती है। तुम्हारे ज्ञान का वर्तमान स्तर चाहे जो भी हो, या तुम्हारे पास चाहे जितनी बड़ी डिग्रियाँ और शैक्षणिक योग्यताएँ हों, मैं अभी ज्ञान को लेकर मानवता के विचारों और अपने विचारों के बारे में बात कर रहा हूँ। क्या तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर ज्ञान के बारे में क्या सोचता है? कोई यह कह सकता है कि परमेश्वर चाहता है कि मानवजाति के पास उन्नत विज्ञान हो और वह वैज्ञानिक ज्ञान को अधिक समझे, क्योंकि वह नहीं चाहता कि मनुष्य निहायत पिछड़ा, अज्ञानी और बुद्धू रहे। यह सही है, लेकिन परमेश्वर इन चीजों का उपयोग सेवा करने के लिए करता है, और इन्हें स्वीकृति नहीं देता है। ये चीजें मनुष्य की नजर में चाहे कितनी ही अद्भुत हों, ये न तो सत्य हैं और न सत्य का विकल्प ही हैं, इसलिए परमेश्वर लोगों को बदलने और उनका स्वभाव बदलने के लिए सत्य व्यक्त करता है। भले ही परमेश्वर के वचन कभी-कभी कन्फ्यूशियसवाद या सामाजिक विज्ञान जैसे विचारों या ज्ञान को देखने के तरीकों को छू सकते हैं, लेकिन ये ऐसे विचारों के नमूने मात्र हैं। परमेश्वर के वचनों का निहितार्थ निकालते हुए हमें समझना चाहिए कि वह मानवीय ज्ञान से घृणा करता है। मानव ज्ञान में न केवल बुनियादी वाक्य और साधारण धर्म-सिद्धांत भरे होते हैं, बल्कि इसमें कुछ विचारों और दृष्टिकोणों के साथ ही मानवीय बेतुकापन, पूर्वाग्रह और शैतानी जहर भी शामिल होता है। कुछ ज्ञान तो लोगों को गुमराह और भ्रष्ट भी कर सकता है—यह शैतान का जहर और ट्यूमर है, और एक बार जब किसी ने इस ज्ञान को स्वीकार और समझ लिया तो शैतान का जहर उनके दिल में ट्यूमर बनकर उभर जाएगा। अगर परमेश्वर के वचनों से उन्हें चंगा न किया गया और सत्य के जरिए उन्हें ठीक न किया गया, तो यह ट्यूमर उनके पूरे शरीर में फैल जाएगा, जिससे उनकी मृत्यु तय है। इसलिए लोग जितना ज्यादा ज्ञान प्राप्त करेंगे, जितना अधिक समझ लेंगे, उनकी परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करने की संभावना उतनी ही कम हो जाएगी। बल्कि वे दरअसल उसे नकारेंगे और उसका प्रतिरोध करेंगे, क्योंकि ज्ञान ऐसी चीज है जिसे वे देख और छू सकते हैं, और यह ज्यादातर उनके जीवन की चीजों से संबंधित है। लोग स्कूल में पढ़-लिखकर बहुत सारा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन वे ज्ञान के स्रोत और आध्यात्मिक जगत के साथ इसके संबंध के प्रति अंधे हैं। लोग जो ज्ञान सीखते-समझते हैं उसमें से अधिकांश परमेश्वर के वचनों के सत्य के विरुद्ध होता है, जिसमें दार्शनिक भौतिकवाद और विकासवाद खास तौर पर नास्तिकता के पाखंडों और भ्रांतियों से संबंधित है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली भ्रांतियों का बोझ है। अगर तुम इतिहास की किताबें, मशहूर लेखकों की रचनाएँ या महान लोगों की जीवनियाँ पढ़ोगे, या शायद कुछ वैज्ञानिक या तकनीकी पहलुओं का अध्ययन करोगे तो तुम्हें क्या हासिल होगा? उदाहरण के लिए, अगर तुम भौतिकी पढ़ते हो तो तुम कुछ भौतिक सिद्धांतों, न्यूटन के नियम या अन्य सिद्धांतों में महारत हासिल कर लोगे, लेकिन जब इन्हें सीखकर आत्मसात कर लोगे तो ये चीजें तुम्हारे दिमाग पर कब्जा जमाकर तुम्हारी सोच पर हावी हो जाएँगी। फिर जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ोगे तो सोचोगे : “परमेश्वर गुरुत्वाकर्षण का उल्लेख क्यों नहीं करता? बाहरी अंतरिक्ष पर चर्चा क्यों नहीं की जाती? परमेश्वर इस बारे में बात क्यों नहीं कर रहा है कि चाँद पर वायुमंडल है या नहीं, या पृथ्वी पर कितनी ऑक्सीजन है? परमेश्वर को इन चीजों का खुलासा करना चाहिए, क्योंकि ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें मानवजाति को जानने और बताने की वाकई जरूरत है।” अगर तुम अपने दिल में ऐसे विचार पालते हो तो तुम सत्य को और परमेश्वर के वचनों को दोयम मानोगे, और इसके बजाय अपने सारे ज्ञान और सिद्धांतों को सर्वोपरि रखोगे। परमेश्वर के वचनों के साथ तुम यह सलूक करोगे। इन बौद्धिक चीजों के कारण हर हाल में लोगों की गलत राय बनेगी और वे परमेश्वर के मार्ग से भटक जाएँगे। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि तुम लोग इस पर विश्वास करते हो या नहीं, या तुम इसे आज स्वीकार सकते हो या नहीं—वो दिन अवश्य आएगा जब तुम लोग इस तथ्य को मानोगे। क्या तुम लोग सचमुच समझते हो कि ज्ञान किस तरह लोगों को तबाही की ओर, नरक की ओर ले जा सकता है? कुछ ऐसे लोग हैं जो शायद इस बात को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि तुममें कुछ लोग बहुत ही पढ़े-लिखे और जानकार हैं। मैं न तो तुम लोगों की खिल्ली उड़ा रहा हूँ, न कोई तंज कस रहा हूँ, मैं तो बस तथ्य बता रहा हूँ। न मैं तुम लोगों को इसे हाथ के हाथ स्वीकारने को कह रहा हूँ, बल्कि इस पहलू को धीरे-धीरे समझने को कह रहा हूँ। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, ज्ञान हर उस चीज का विश्लेषण करने और उससे निपटने के लिए तुमसे अपने मन और बुद्धि का इस्तेमाल कराएगा। यह परमेश्वर को जानने और उसके कार्यों का अनुभव करने के मार्ग में विघ्न-बाधा बन जाएगा, और तुम लोगों को परमेश्वर से भटकाने और उसका प्रतिरोध कराने की राह पर ले जाएगा। लेकिन अब तुम्हारे पास ज्ञान है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें व्यावहारिक ज्ञान और उस ज्ञान में अंतर करना होगा जो शैतान से आता है और जो पाखंड और भ्रांति का है। अगर तुम केवल नास्तिकवादी और बेतुके ज्ञान को स्वीकारते हो तो यह परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में रुकावट डाल सकता है, उसके साथ तुम्हारे सामान्य संबंध और तुम्हारे सत्य स्वीकारने में बाधा डाल सकता है और तुम्हारे जीवन प्रवेश को रोक सकता है। तुम्हें यह जानने की जरूरत है और यह जानना सही है। तुम लोगों को यह विषय ठीक से समझना चाहिए। मैं जानता हूँ कि कुछ भाई-बहन उच्च शिक्षित हैं, और मैं न तो तुम पर प्रहार कर रहा हूँ, न तुम्हारी खिल्ली उड़ा रहा हूँ, न तुम लोगों को हाशिये पर डाल रहा हूँ। यह विषय आज अचानक उठ गया, और इन कुछ वचनों का उद्देश्य तुम लोगों को चेतावनी देना है, न कि तुममें से उच्च शैक्षिक योग्यता वाले या किसी प्रकार के ज्ञान और संस्कृति से युक्त लोगों को जानबूझकर तंग करना है। इसका उद्देश्य तुम लोगों को नकारात्मक या हताश करना तो कतई नहीं है। तो क्या तुम लोग इसे भली-भाँति समझ सकते हो? (बिल्कुल, समझ सकते हैं।) अगर तुम समझ सकते हो तो फिर मैं आश्वस्त हूँ और थोड़ी राहत की साँस ले सकूँगा।

इतनी संगति करने के बाद तुम लोग अब समझ सकते हो कि स्वभाव बदलना कोई साधारण मामला नहीं है। यह ऐसी चीज नहीं है जिसे सिर्फ धर्म-सिद्धांत समझकर और विनियमों का पालन कर हासिल कर लिया जाए। तुम्हें पहले खुद को समझना होगा, अपने विचारों और दृष्टिकोणों पर चिंतन करने में सक्षम होना होगा, और उनमें से वे बातें गहराई से निकालनी होंगी जो तुम्हारे दिल में मौजूद हैं और परमेश्वर का इनकार करती हैं और उसका प्रतिरोध करती हैं; साथ ही वे बातें भी उजागर करनी होंगी जिनसे परमेश्वर घृणा करता है और जिन्हें वह नापसंद करता है। क्या तुम्हें वास्तव में अपनी शैतानी प्रकृति या उन तमाम शैतानी स्वभावों की समझ है जो तुम आम तौर पर प्रकट करते हो? क्या तुम सच में इनका गहन-विश्लेषण करने में सक्षम हो? सारे भ्रष्ट मनुष्यों का शैतानी स्वभाव होता है, और सबके मन में ऐसे गलत विचार और दृष्टिकोण होते हैं जिनकी जड़ें गहराई तक समाई हैं। हर कोई एक जैसा है, सबके अंदर कुछ न कुछ ऐसी भ्रष्टता होती है जो सत्य की विरोधी है और परमेश्वर का प्रतिरोध करती है। इसमें कुछ भी सत्य के अनुरूप नहीं है, और ज्यादातर लोग इसे स्वीकार सकते हैं। अभी-अभी मैंने यह चर्चा की कि मानवीय ज्ञान को कैसे समझें, और मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि इसमें से काफी कुछ बेतुका और गलत है। यह सुनकर तुममें से कुछ लोग असहज हो सकते हो, जैसे तुम्हारे घाव को कुरेद दिया गया हो, लेकिन यह कहना जरूरी था। तुम लोगों के कई गलत विचार ज्ञान से उपजे होते हैं, और यह भ्रामक ज्ञान त्रुटिपूर्ण विचार और दृष्टिकोण उत्पन्न करता है जो तुम्हारे दिल में गहरी जड़ें जमा लेते हैं। अगर तुम इन भ्रामक विचारों को दूर नहीं करते हो तो तुम लोगों के लिए सत्य स्वीकारना मुश्किल हो जाएगा, इसे अभ्यास में लाना तो दूर की बात है। इसलिए मुझे उम्मीद है कि तुम लोग परमेश्वर के वचनों को स्वीकार सकते हो और उन सारे सत्यों को भी जिन्हें वह व्यक्त करता है। भले ही तुम अनिच्छुक हो, तब भी तुम्हें सीखना चाहिए और इन्हें स्वीकारने का प्रयास करना चाहिए। इस तरीके से तुम लोगों का दिल परमेश्वर के करीब आ जाएगा, और तुम उसकी अपेक्षाओं के करीब पहुँच जाओगे। अगर तुम इस तरीके से परमेश्वर के वचनों को व्यावहारिक रूप से अनुभव नहीं करते हो, सत्य को अभ्यास में नहीं लाते हो तो फिर परमेश्वर में तुम लोगों का विश्वास हमेशा सिर्फ दिखावटी ही रहेगा, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना असंभव होगा। क्या ऐसा नहीं है? आज मैंने ज्ञान के बारे में थोड़ी बातें कीं, जिससे तुम लोगों को कुछ अजीब महसूस हुआ होगा। अगर तुम लोग असहज हो गए हो तो फिर मैं माफी चाहूँगा, लेकिन तुम्हें इन वास्तविकताओं का सामना करना होगा, क्योंकि इनसे बचा नहीं जा सकता। अगर तुम इनसे बचते हो तो फिर तुम यह कब जान सकोगे कि तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों में कौन-सी चीजें सही हैं और कौन-सी गलत हैं? तुम नहीं जान सकते। तुम्हें किसी न किसी दिन इन तथ्यों का सामना करना ही पड़ेगा; जैसा कि अविश्वासी कहते हैं : “एक कुरूप बीवी आखिरकार अपने सास-ससुर से मिलेगी।” अब जबकि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, अगर तुम उसकी ताड़ना और न्याय को स्वीकारना चाहते हो, अगर तुम जीवन प्रवेश करना, स्वभावगत बदलाव लाना और बचाए जाना चाहते हो तो तुम्हें इन तथ्यों का सामना करना होगा, सबक सीखने होंगे, और कुछ कष्ट और संताप सहना होगा। तुम दिल से प्रार्थना करना चाहते हो लेकिन तुम्हें सही शब्द नहीं मिलते, इसलिए तुम कुछ नहीं कह पाते हो, और अगली बार ऐसी स्थिति का सामना होने पर तुम दोबारा कई दिनों तक असहज रहोगे, और दोबारा कुछ नहीं कह पाओगे, लेकिन अगली बार इसका सामना होने पर तुम्हें अनजाने में ही यह पता चल जाएगा कि तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोण में कुछ ऐसी चीजें हैं जो परमेश्वर का विरोध करती हैं; तुम अपना सिर हिलाकर स्वीकार सकोगे—ईमानदारी और गंभीरता से स्वीकारोगे—कि परमेश्वर ने जो कुछ कहा है वह सत्य है, उसमें कोई झूठ नहीं है, और परमेश्वर सचमुच मानवजाति को सबसे अच्छी तरह जानता है, और हरेक के दिल में जो भी चीजें मौजूद हैं उन्हें सबसे अच्छी तरह समझता है। वो दिन तब आएगा जब तुम्हें इस स्तर का अनुभव होगा, और तब तुम परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर होगे, और अपने जीवन स्वभाव को बदलने के सही मार्ग पर होगे। उस समय, क्योंकि तुम परमेश्वर के किसी भी वचन का प्रतिरोध नहीं करोगे, तुम उन्हें सुनकर असहज महसूस नहीं करोगे, और परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए हर तथ्य को बिना अरुचि के और बिना दूर भागे स्वीकार कर सकोगे। तुम इसका सामना ठीक ढंग से करोगे, और यह साबित करेगा कि तुम परमेश्वर के वचनों में पहले ही प्रवेश कर चुके हो। हम लोगों ने आज एक छोटी-सी शुरुआत की है, एक छोटा-सा प्रयोग किया है। तुम लोग शायद थोड़े-से असहज हुए होगे, तुम्हें थोड़ा-सा अजीब लगा होगा, लेकिन यह मायने नहीं रखता। मुझे बुरा नहीं लगता, और उम्मीद है कि तुम लोगों को भी बुरा नहीं लगेगा, क्योंकि परमेश्वर के न्याय के वचन इससे भी कहीं ज्यादा कठोर हैं। अगर परमेश्वर वास्तव में तुम लोगों का न्याय करना चाहता है तो उसके वचन कहीं ज्यादा कड़े होंगे। क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर ऐसी भ्रष्ट मानवजाति को देखकर उदारता से बोलेगा जिसमें सामान्य मानवता और विवेक न हो, जो आँखें खुली होने पर भी परमेश्वर को नकारे, उसकी निंदा करे और उसका विरोध करे? क्या मनुष्य को उजागर करते हुए परमेश्वर का रवैया अच्छा हो सकता है? बिल्कुल भी नहीं। यकीनन परमेश्वर के वचन खासे कड़े, गहन और सटीक होंगे! अगर तुम लोग कुछ उन तथ्यों को स्वीकार सको जिन पर आज हमने संगति की है, तो फिर यह साबित करता है कि तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों और उसकी ताड़ना और न्याय को स्वीकारने के लिए अच्छी शुरुआत की है। इस पहले पहलू के बारे में हम लोगों ने ज्ञान के विषय पर नजर डालकर उस छोटे-से उदाहरण के जरिए, जिसे तुम सब जानते हो, विचार और दृष्टिकोण की समस्या पर चर्चा की। मैंने इस विषय पर इस डर से बहुत ज्यादा संगति नहीं की कि इससे कुछ लोग असहज हो जाएँगे, इसलिए मैंने उनकी भावनाओं का ख्याल करते हुए सिर्फ थोड़ी-सी बात की, मगर अपूर्ण और संक्षिप्त ढंग से। मुझे उम्मीद है कि तुम लोग इसे अपने अनुभवों के जरिए धीरे-धीरे समझने की कोशिश करोगे, इस क्षेत्र में धीरे-धीरे सत्य को तलाशोगे और यह अनुभव करोगे कि ज्ञान लोगों को क्या कुछ दे सकता है। हम शायद इस विषय पर आगे और ज्यादा संगति करेंगे, और मुझे उम्मीद है कि तब तुम लोग असहज नहीं होगे और यह नहीं सोचोगे, “क्या यह मेरे खिलाफ है? क्या इसके निशाने पर मैं हूँ?” ऐसे कोई भी विचार या ख्याल नहीं आएँगे। लेकिन फिलहाल हम इस पहले पहलू पर अपनी संगति यहीं खत्म करते हैं।

अब हम स्वभावगत बदलाव के दूसरे पहलू पर संगति करेंगे—जीवन के बारे में नजरिया। तुम लोगों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण क्या है? तुम लोग किन सिद्धांतों के अनुसार जीते हो? क्या तुम लोगों को कोई समझ है? क्या कोई सिद्धांत भी हैं? क्या तुम्हारा कोई विचार है? यानी तुम कैसा इंसान बनना चाहते हो? जीवन के बारे में तुम्हारा नजरिया क्या है, तुम्हारे जीवन की दिशा क्या है? (ऐसा व्यक्ति बनना जिसे परमेश्वर पसंद करे।) (अपने जीवन भर अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना।) (परमेश्वर को जानना।) (अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागना और परमेश्वर द्वारा बचा लिया जाना।) तुम लोगों की सारी बातें शानदार हैं, और ये साबित करती हैं कि सत्य की खोज में तुम दिल से कड़ी मेहनत करने में लगे हो और तुम लोग सत्य प्राप्त करने की खातिर परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हो, और तुम्हारे पास अपने स्व-आचरण के लिए सही लक्ष्य और दिशा है, जो यह दिखाता है कि परमेश्वर में तुम लोगों के विश्वास में तुम्हारा दिल खाली नहीं है और तुम निरा वक्त बर्बाद नहीं कर रहे हो। तुम लोगों ने इस दौरान कुछ प्रगति की है, और यह बदलाव है; कम से कम तुम लोग अविश्वासियों की तरह यह नहीं कहोगे, “जीवन सिर्फ खाने और कपड़े पहनने के बारे में है।” अगर तुम लोग किसी को ऐसी बातें करते सुनोगे तो तुम उन्हें पसंद नहीं करोगे, उनका तिरस्कार करोगे। तुम लोगों ने चाहे जितनी दूर तक सत्य में प्रवेश किया हो, तुममें संकल्प होना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर का अनुसरण अच्छे ढंग से करना चाहिए। तुम लोगों को दिल से जानना चाहिए, “चूँकि परमेश्वर हमारे सामने अपनी प्रबंधन योजना के लक्ष्य और रहस्य, और मानवजाति को बचाने के अपने इरादे प्रकट कर चुका है, और चूँकि हम उसके वादे और आशीष देख चुके हैं, अगर तब भी हम परमेश्वर के इरादों के प्रति निष्क्रिय और विचारहीन बने रहे तो हम उसे सचमुच निराश कर रहे होंगे और हम उसके बहुत ही ऋणी होंगे!” इस प्रकार का हृदय होना यह साबित करता है कि तुम लोगों की आत्माएँ पहले ही जाग चुकी हैं और बदलने लगी हैं। कुछ भी हो, अपना कर्तव्य निभाने की तुम्हारी कोशिशें देखते हुए तुम सब उस दिशा और उन लक्ष्यों की ओर बढ़ रहे हो जिनकी परमेश्वर अपेक्षा करता है, और यह सही है। तुम लोगों के अनुसरणों के पीछे के परिप्रेक्ष्य में चाहे जो भी मतभेद हों, ये सभी काफी व्यावहारिक हैं और काल्पनिक या खोखले नहीं हैं। क्या तुम लोग यह मानते हो कि हमें ऐसा व्यक्ति बनने का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करे और उसकी आराधना करे? क्या हमें जीवन के प्रति ऐसा नजरिया नहीं अपनाना चाहिए जिसमें हम कभी परमेश्वर का विरोध न करें, उसे कभी भी हमसे नफरत या गुस्सा न करने दें, लगातार क्रोधित न होने दें, बल्कि जिसमें परमेश्वर के दिल को सुकून मिले और हम अब्राहम की तरह सच्चे उपासक बन जाएँ? जीवन के प्रति लोगों का यही नजरिया होना चाहिए। जब तुम्हारे दिल में जीवन के प्रति ऐसा नजरिया और ऐसे विचार जड़ें जमा लेंगे, और तुम इस दिशा में आगे बढ़ने लगोगे तो क्या सांसारिक धन-दौलत, रुतबा, शोहरत और लाभ के लोभ-लालच मिटने नहीं लगेंगे? जब तुम इस दिशा में कड़ी मेहनत और अभ्यास करते हो और अनुभव प्राप्त करते हो, तो तुम्हें एहसास भी नहीं होगा और परमेश्वर के वचन तुम्हारे दिल में जीवन के आदर्श वाक्य और तुम्हारे अस्तित्व की नींव बन जाएँगे; इससे पहले कि तुम यह जान सको, परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन जाएँगे, अंतर्मन में तुम्हारा जीवन पथ बन जाएँगे। तब क्या दुनिया की हर चीज तुम्हारे लिए महत्वहीन नहीं हो जाएगी? इसलिए यह भी महत्वपूर्ण है कि जीवन के बारे में तुम्हारा नजरिया क्या है। परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर तुम किस दिशा में अनुसरण कर रहे हो? क्या यह सही दिशा है? क्या यह सही मार्ग है? तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं से कितनी दूर हो? अगर तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अनुसरण करते हो तो तुम सही दिशा में जा रहे हो। अगर तुम थोड़ा-सा भटक भी गए या थोड़े-से कमजोर पड़ गए या तुम्हें कुछ नाकामियाँ मिल गईं तो भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; परमेश्वर इन्हें याद नहीं रखेगा, और जब तक तुम्हारा जीवन विकसित नहीं हो जाता तब तक सदा तुम्हें सहारा देगा। तुम्हें क्या लगता है, परमेश्वर किस तरह के लोगों को पसंद करता है? परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो दृढ़ निश्चयी और ईमानदार हैं। वह तुम्हारी अज्ञानता, तुम्हारी कमजोरी या तुममें बुद्धि की कमी से परेशान नहीं होता; लेकिन वह इनसे तब घृणा करने लगता है जब तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, या अगर तुम सत्य को समझते हो लेकिन उसे अभ्यास में नहीं लाते, या आत्माहीन जानवरों की तरह, अपने जीवन में बगैर लक्ष्य या दिशा के, उसके वचन पढ़े बिना जीते हो—अगर तुम्हारा उसमें विश्वास करने को लेकर यह रवैया है तो परमेश्वर इससे घृणा करता है। इसलिए परमेश्वर में विश्वास के जरिए स्वभावगत बदलाव हासिल करने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया किस तरह का है। कुछ लोग कहते हैं, “जीवन में मेरा लक्ष्य परमेश्वर के लिए बहुत उपयोगी व्यक्ति बनना है, ऐसा व्यक्ति जो उसकी सेवा कर सके।” क्या यह अच्छा लक्ष्य है? यह शायद अच्छा हो, लेकिन इंसान का आध्यात्मिक कद सीमित होता है और लोगों की अलग-अलग काबिलियत और परिस्थितियाँ होती हैं, इसलिए तुम्हारा इस लक्ष्य का पीछा करना सही है, लेकिन यह शायद तुम्हारे लिए ठीक न हो। जीवन के प्रति लोगों का नजरिया यह होना चाहिए कि वे ऐसा इंसान बनें जो सत्य, मानवता, अंतरात्मा और विवेक से युक्त हो और परमेश्वर की आराधना करता हो—यानी असली इंसान बनना। यह सबसे उचित लक्ष्य है। कोई कह सकता है : “क्या हम अभी असली लोग नहीं हैं?” तुम बाहरी तौर पर तो इंसान हो, क्योंकि तुम्हारी आँख-नाक हैं, और इंसान का आकार-प्रकार है, लेकिन अपने सार के आधार पर तुम अभी असली इंसान नहीं बन पाए हो। तुममें अभी भी सत्य का बहुत ही अधिक अभाव है और तुम बहुत ही कम सत्य समझते हो। असली इंसान बनने के लिए, एक ऐसा इंसान जिसके पास सत्य और मानवता हो, जो परमेश्वर का भय मानता हो और बुराई से दूर रहता हो, जो उसकी इच्छा का अनुसरण करता हो और उसकी आराधना करता हो, तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए और इसे हासिल करना चाहिए। यह व्यक्तिगत अभ्यास का मामला है।

स्वभावगत बदलाव का तीसरा पहलू व्यक्ति की शैतानी प्रकृति है। इसे हमें सबसे ज्यादा समझना-बूझना चाहिए, क्योंकि यह स्वभावगत बदलाव से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। शैतानी प्रकृति मानवता का भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार है, और इस विषय के बारे में परमेश्वर के खूब सारे वचन हैं जो इस पहलू को सर्वाधिक उजागर करते हैं। इस पहलू को लेकर परमेश्वर के वचन सर्वाधिक कठोर भी हैं, और इनकी अनेक अलग-अलग शैलियाँ हैं : कुछ हमें सीधे तौर पर उजागर करते और हमारा न्याय करते हैं, जबकि कुछ अन्य नरमी से कहे गए वाक्यांश होते हैं ताकि लोग उन्हें स्वीकार कर सकें। लेकिन इन्हें चाहे जैसे कहा गया हो, या इन्हें चाहे जिस अंदाज या लहजे में कहा गया हो, यह सच है कि परमेश्वर जो उजागर करता है वह इंसान का सार है। परमेश्वर शैतानी प्रकृति के सबसे ठेठ पहलू को दो अध्यायों में उजागर करता है। शैतानी प्रकृति का ठेठ सार क्या है? क्या तुम लोग जानते हो? (विश्वासघाती प्रकृति।) परमेश्वर के वचनों, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (1) और एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2) में जिस विश्वासघाती प्रकृति को उजागर किया गया है, वह शैतानी प्रकृति का ठेठ निरूपण है। दूसरे पहलुओं, जैसे मनुष्य की आत्म-तुष्टता, अहंकार, कपटीपन या मानवजाति की दुष्टता और प्रतिरोध—इन सबका थोड़ा-बहुत उल्लेख हर अध्याय में है, लेकिन ऐसा एक भी अध्याय नहीं है जिसमें इन पहलुओं के सत्य को खास विस्तार से समझाया गया हो। सिर्फ “विश्वासघात” के विषय पर परमेश्वर ने पूरे के पूरे दो अध्याय कहे हैं। इससे हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर की नजरों में मानव का विश्वासघात अत्यंत गंभीर है, और यह सीधे तौर पर उसके स्वभाव को नाराज करता है, इससे वह सर्वाधिक घृणा करता है, और इसे कोसता है। परमेश्वर किस प्रकार मनुष्य के विश्वासघात का गहन-विश्लेषण करता है और इससे निपटता है? निस्संदेह, परमेश्वर मनुष्य के विश्वासघात को नापसंद करता है। वह इससे घृणा और घिन करता है, और जो उसे धोखा देते हैं उनसे भी घिन करता है। विश्वासघात शैतानी प्रकृति का ठेठ पहलू है। मनुष्य की विश्वासघाती प्रकृति के मूल कारण का स्रोत क्या है? इसका स्रोत शैतान है। इसलिए हमें स्वभाव के इस पहलू को समझना होगा। विश्वासघात का मूल कारण शैतान है, विश्वासघात शैतान की प्रकृति है, और लोग अपने कार्यों से जो स्वभाव प्रकट करते हैं उसे परमेश्वर विश्वासघात के रूप में देखता है। परमेश्वर इस मामले में इतने विस्तार से चर्चा क्यों करता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि इंसान लगातार विश्वासघात करता है, और चाहे कोई भी जगह या समय हो, चाहे कोई कैसा भी व्यवहार करता हो, मानव प्रकृति में गहरी जड़ें जमा चुकी कोई चीज परमेश्वर का विरोध करती है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं परमेश्वर का विरोध या प्रतिकार नहीं करना चाहता!” लेकिन तुम ऐसा करोगे, क्योंकि तुम्हारे भीतर विश्वासघाती प्रकृति है, जिसका यह अर्थ है कि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, अंत तक उसका अनुसरण नहीं कर सकते और परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में पूरी तरह नहीं स्वीकार सकते हो। तुम्हें विश्वासघात की समस्या को कैसे समझना चाहिए? तुम चाहे कितने ही लंबे अरसे से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हो, चाहे उसके कितने ही वचन खा-पी चुके हो, चाहे तुम्हारे पास उसके बारे में कितनी ही समझ हो—जब तक तुम्हारी प्रकृति परमेश्वर से विश्वासघात करती है, और तुमने उसके वचनों को अपने जीवन के रूप में नहीं स्वीकारा है, और तुमने बिल्कुल भी उसके वचनों के सत्य में प्रवेश नहीं किया है, तो तुम्हारा सार परमेश्वर के साथ हमेशा विश्वासघात करता रहेगा। अर्थात्, अगर तुम्हारा स्वभाव नहीं बदला है, तो तुम ऐसे इंसान हो जो परमेश्वर को धोखा देता है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं परमेश्वर के वचनों को समझ-बूझ सकता हूँ, वह जो कुछ भी कहता है उसे समझता हूँ। मैं इन्हें स्वीकारने के लिए भी तैयार हूँ, तो फिर मुझे परमेश्वर से विश्वासघात करने वाला कैसे कह सकते हैं?” सिर्फ इस कारण से कि तुम परमेश्वर के वचन स्वीकारने को तैयार हो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम इन्हें जीने में भी सक्षम हो, यह सोचना तो छोड़ ही दो कि ये तुम्हें पहले ही पूर्ण बना चुके हैं। मानवजाति की विश्वासघाती प्रकृति का सत्य बहुत गहरा है, और अगर तुम सत्य के इस पहलू को समझना चाहते हो तो फिर तुम्हें एक अवधि के अनुभव की जरूरत पड़ सकती है। परमेश्वर की नजरों में, परमेश्वर में विश्वास करने वाला हर व्यक्ति जो कुछ भी करता है, वह हर चीज सत्य विरोधी, परमेश्वर के वचनों के प्रतिकूल और उसके विरोध में है। तुम लोग शायद इसे भी स्वीकार न सको और यह कहने लगो : “हम परमेश्वर की सेवा करते हैं, परमेश्वर की आराधना करते हैं, परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हैं। हम इतना सब कुछ कर चुके हैं, वह भी परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार, और कार्य व्यवस्थाओं के अनुरूप किया है। यह कैसे कहा जा सकता है कि हम परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात करते हैं? तुम हमारे उत्साह को हमेशा ठंडा क्यों कर देते हो? हमने बमुश्किल अपने परिवार और करियर छोड़े, परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए दृढ़ निश्चयी रहे, तो तुम हमारे बारे में इस तरह कैसे बोल सकते हो?” इस तरह बोलने का उद्देश्य यह है कि हरेक व्यक्ति इसे अच्छे से समझे : बात यह नहीं है कि कोई व्यक्ति अगर काफी अच्छा व्यवहार करता है, या कुछ त्याग करता है, या थोड़ा कष्ट सहता है, तो उसकी विश्वासघाती प्रकृति बदल जाएगी। कतई नहीं! कष्ट भोगना जरूरी है, तो अपना कर्तव्य निभाना भी जरूरी है, लेकिन सिर्फ इसलिए कि तुम कष्ट भोग सकते हो, अपना कर्तव्य निभा सकते हो, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अब मिट चुका है। इसका कारण यह है कि किसी के भीतरी जीवन स्वभाव में कोई वास्तविक बदलाव नहीं आया है, और हर कोई परमेश्वर के इरादों को पूरा करने और उसकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने से अभी कोसों दूर है। लोगों के परमेश्वर में विश्वास में बहुत ही मिलावट है, उनका बहुत ज्यादा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है। भले ही बहुत सारे अगुआ या कार्यकर्ता परमेश्वर की सेवा करते हैं, लेकिन वे उसका विरोध भी करते हैं। इसका क्या अर्थ है? इसका यह अर्थ है कि वे जानबूझकर परमेश्वर के वचनों के विरुद्ध चलते हैं और उसकी इच्छाओं के अनुसार अभ्यास नहीं करते हैं। वे जानबूझकर सत्य का उल्लंघन करते हैं, मनमाने ढंग से कार्य करने पर जोर देते हैं, ताकि अपने इरादे और लक्ष्य पूरे कर सकें, परमेश्वर को धोखा देकर अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर सकें, जहाँ जो वे कहें बस वही हो। परमेश्वर की सेवा करने लेकिन उसका विरोध भी करने का यही अर्थ है। क्या तुम अब समझे?

“विश्वासघात” के विषय पर अब हम और संगति नहीं करेंगे। अभी भी एक महत्वपूर्ण समस्या है, अहंकार और दंभ की समस्या, जो शैतानी प्रकृति का लक्षण है। मानवजाति का अहंकार सर्वत्र प्रकट और प्रदर्शित होता है, और अगर लोग चाहें भी तो इसे रोका नहीं जा सकता है। यह समय-समय पर प्रकट होता है और फूटता है, और लोग इस मामले में असहाय रहते हैं। जब यह फूट पड़ता है तो वे पछताते हैं, और पछताने के बाद वे संकल्प लेते हैं कि ऐसा दोबारा कभी नहीं होने देंगे, कभी इसे प्रकट नहीं करेंगे, लेकिन इसके बावजूद वे इसे रोकने में सक्षम नहीं हो पाते। ऐसा क्यों है? इसका कारण यह है कि लोगों का स्वभाव नहीं बदला है, और उनका भ्रष्ट स्वभाव अभी बरकरार है। यह उनके अंदर से कभी भी अपने आप नहीं मिटने वाला है, और जब कुछ घटित होगा तो उनका भ्रष्ट स्वभाव सहज रूप से प्रकट हो जाएगा। यह सब मानवजाति के अहंकारी और दंभी स्वभाव के कारण होता है। जब तुम सत्य को और अधिक समझते हो, इसे अभ्यास में ला सकते हो और सत्य सिद्धांतों को आत्मसात करते हो, और जब तुम्हारी सत्य की समझ ज्यादा से ज्यादा व्यावहारिक हो जाती है, और तुम परमेश्वर का ज्ञान पाकर उसकी अपेक्षाओं के और करीब पहुँच जाते हो, जब चीजों को लेकर तुम्हारे विचार बदल चुके होते हैं—तब तुम्हारा अहंकारी स्वभाव धीरे-धीरे कम होगा, धीरे-धीरे मिटने लगेगा, और तुम्हारा जीवन स्वभाव बदलने लगेगा। उस समय, यह माना जा सकता है कि तुम्हारे विश्वासघात की समस्या पूरी तरह दूर हो चुकी है, और केवल तभी तुम ऐसे व्यक्ति बनोगे जिसे सचमुच बचा लिया गया है।

शरद ऋतु 2007

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