वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं? (भाग तीन)

एक अन्य प्रकार की स्थिति होती है, और वह है सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीना। अधिकांश लोग सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित किए बिना, परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में शोहरत, लाभ और ओहदे के पीछे भागना पसंद करते हैं। अगर किसी के पास थोड़ी काबिलियत और कुछ विचार होते हैं, तो उसके पास जीवन जीने के लिए शैतान के फलसफे और नियमों का एक सेट होता है। उनमें से प्रत्येक के पास इसे लेकर अपनी-अपनी “गुप्त तरकीबें” होती हैं कि खुशी से कैसे जिएँ, कैसे इस तरह जिएँ कि वे दूसरों से अलग दिखें और उनके परिवार का नाम रौशन हो, और हर किसी की प्रशंसा हासिल हो। वो कौन-सी तरकीबें होती हैं? वे सांसारिक आचरण के “सर्वोच्च” फलसफे होते हैं। कुछ लोगों को यह सुनना हास्यास्पद लग सकता है : “सर्वोच्च” और “सांसारिक आचरण के फलसफे” एक साथ नहीं होने चाहिए। उनकी जोड़ी अजीब है। तो यहाँ “सर्वोच्च” शब्द का उपयोग क्यों किया गया है? सामान्य तौर पर सांसारिक आचरण के फलसफे वाले किसी व्यक्ति का मानना होता है कि जीने के लिए उन्हें अस्तित्व के कुछ नियमों, यानी जीवित रहने के कुछ रहस्यों से लैस होना चाहिए। उन्हें लगता है कि जीवन में अपने लक्ष्य हासिल करने का यही एकमात्र तरीका है। वे अस्तित्व के इन नियमों को, जो सांसारिक आचरण के फलसफे हैं, अपने उच्चतम सिद्धांतों के रूप में रखते हैं, बिल्कुल उन आदर्श वाक्यों की तरह जिन्हें लोग अक्सर कहते रहते हैं। वे सांसारिक आचरण के अपने फलसफों पर बने रहते हैं और उस पर कायम रहते हैं मानो वह सत्य हो, यहाँ तक कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी नहीं छोड़ते और उनसे भी ऐसे ही पेश आते हैं। वे सोचते हैं, “कोई मनुष्य खुद को सांसारिक मामलों से अलग नहीं कर सकता। तुम लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हो, है न? तुम लोग सिद्धांतों का पालन करते हो, है न? तुम लोग सत्य समझते हो, है न? तो ठीक है, मेरे पास तुम लोगों से निपटने के लिए सांसारिक आचरण का एक फलसफा है। तुम लोग अतिसावधानी बरतते हो, है न? तुम सत्य सिद्धांतों पर चलते हो, है न? ठीक है, मैं सत्य सिद्धांतों को नहीं समझता, फिर भी मैं तुम लोगों को अपने प्रति तैयार कर सकता हूँ और अपने आगे-पीछे घुमाता रह सकता हूँ। मैं तुम सभी लोगों को अपने दायरे में अपने काबू में रखूँगा; तुम कहोगे कि मैं एक अच्छा इंसान हूँ और पीठ पीछे मेरे बारे में कुछ भी बुरा नहीं कहोगे। जब तुम लोग आसपास नहीं होगे, तब मैं तुम्हारे बारे में राय भी दूँगा, और तुम लोगों के साथ बुरा करूँगा, और तुम लोगों को धोखा दूँगा—फिर भी तुम लोग कुछ नहीं समझ पाओगे।” यह ऐसा व्यक्ति है जो सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीता है। सांसारिक आचरण के इन फलसफों के अंदर क्या होता है? छल, धोखा और तरकीबें, साथ ही दृष्टिकोण और तरीके। उदाहरण के लिए, जब वे किसी रुतबे वाले व्यक्ति को देखते हैं, किसी ऐसे को देखते हैं जो काम आ सकता है, तो वे बहुत विनम्र हो जाते हैं, पूरी तरह बिछ जाते हैं, झुककर अभिवादन करते हैं और उनकी प्रशंसा करने लगते हैं। जिनके बारे में उन्हें लगता है कि उनके पास देने के लिए बहुत कम है, और वे उनके जितने अच्छे नहीं हैं, वे हमेशा उन्हें नीचा दिखाते हुए बात करते हैं और उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, जिससे उन लोगों को लगता है कि वे श्रेष्ठ हैं और उन्हें हमेशा आदर की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। अपनी अंदरूनी दुनिया में उनके पास लोगों से खिलवाड़ करने और उनको अपने हाथों में नचाने की एक प्रणाली होती है और प्रत्येक प्रकार के व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका एक तरीका होता है। जब उनका किसी से सामना होता है, तो वे एक नजर में जान जाते हैं कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है, और उन्हें उनके साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए और उनके साथ कैसे जुड़ना चाहिए। उनके दिमाग में तुरंत एक फॉर्मूला आ जाता है। वे इस मामले में परिष्कृत और कुशल होते हैं। उन्हें सांसारिक आचरण के इन फलसफों को लागू करने के बारे में सोचने की जरूरत नहीं होती—उन्हें प्रारंभिक रेखाचित्रों या किसी के निर्देश की जरूरत नहीं होती। उनके अपने तरीके होते हैं। उनमें से कुछ के बारे में उन्होंने स्वयं सोचा होता है; कुछ उन्होंने दूसरों से सीखा या दूसरों में देखा होता है, या दूसरों के प्रभाव से प्राप्त किया होता है। हो सकता है कि किसी ने उन्हें उन तरीकों के बारे में न बताया हो, लेकिन वे उनके बारे में सब जान सकते हैं और इसलिए वे सांसारिक आचरण के अपने फलसफों, तकनीकों, दृष्टिकोण और विधियों, योजनाओं और गणनाओं को सीख लेते हैं। क्या जो लोग इन चीजों के अनुसार जीते हैं, उनके पास सत्य होता है? क्या वे सत्य के साथ जी सकते हैं? (नहीं।) वे नहीं जी सकते। तो उनका अन्य लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है? दूसरों को अक्सर उनसे धोखा मिलता है और वे उनकी आँखों में धूल झोंकते हैं, दूसरों को वे इस्तेमाल करते हैं और उनके साथ खिलवाड़ करते हैं, इत्यादि। सांसारिक आचरण के ये फलसफे जरूरी नहीं कि केवल बुद्धिजीवियों, या कुछ लोगों के समूह तक सीमित हों—तथ्य यह है कि वे हर किसी में मौजूद होते हैं।

शैतानी फलसफे किन दूसरे तरीकों से जाहिर होते हैं? कुछ लोग बहुत अच्छा बोलते हैं। वे मीठी बातें करके लोगों से खुशी और संतुष्टि का एहसास कराते हैं, जो उनकी बातें सुनकर संतुष्ट होते हैं, लेकिन वे कोई असल काम नहीं करते। यह किस प्रकार का व्यक्ति होता है? वह जो सुंदर शब्दों से लोगों को बहकाता है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कुछ देर काम करते हैं, फिर मन में सोचते हैं, “क्या ऊपरवाला मुझे समझता है? क्या परमेश्वर मेरे बारे में जानता है? मुझे कुछ समस्याएँ रिपोर्ट करनी चाहिए ताकि ऊपरवाले को पता चले कि मैं काम कर रहा हूँ। यदि ऊपरवाला देखता है कि जिन समस्याओं के बारे में मैं बताता हूँ वे बहुत वास्तविक और ठोस हैं, कि वे प्रमुख मुद्दे हैं, तो ऊपरवाला यह देखकर शायद मुझे सम्मान देगा कि मैं असल कार्य कर सकता हूँ।” और इसलिए वे समस्याओं का उल्लेख करने का मौका तलाश लेते हैं। उनका समस्याओं का उल्लेख करना उचित है, यह व्यावहारिक बुद्धि है और कार्य को इसकी आवश्यकता है। लेकिन यह उनके निजी इरादे से कलंकित नहीं होना चाहिए। क्या तुम लोग देख सकते हो कि इन मुद्दों की रिपोर्ट करने में इस व्यक्ति का इरादा क्या है? वास्तव में उनके इस इरादे में समस्या क्या है? यह प्रश्न विचार और विवेक की माँग करता है। यदि वे अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए मुद्दों का उल्लेख कर रहे थे, तो यह उचित होता; इसका मतलब यह होता कि वे जिम्मेदार व्यक्ति हैं, असल कार्य करते हैं। फिर भी वर्तमान में कुछ ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता हैं जो असल कार्य नहीं करते, बल्कि अवसरवादी हैं और तिकड़में भिड़ाते हैं, जो अपने वरिष्ठों से झूठ बोलते हैं और अपने नीचे वालों से बातें छिपाते हैं। फिर भी वे मृदु और चालाक बनना चाहते हैं, और सभी को संतुष्ट करना चाहते हैं। इस तरह अभ्यास करके क्या वे शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जी रहे हैं? यदि हाँ, तो समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? किस सत्य की खोज की जानी चाहिए, उसका भेद कैसे पहचाना जाना चाहिए—उनके भ्रष्ट इरादे की समस्या का समाधान होने से पहले इन चीजों को स्पष्ट किया जाना चाहिए। एक अन्य उदाहरण है। दो लोग एक कर्तव्य में सहयोग करते हैं। किसी समस्या से निपटने के लिए उन्हें दूसरे क्षेत्र की एक कलीसिया में जाना है। वहाँ रहने की स्थितियाँ अपेक्षाकृत खराब हैं, सार्वजनिक सुरक्षा अच्छी नहीं है, और यह थोड़ी जोखिम भरी जगह है। उनमें से एक कहता है, “उस कलीसिया के लोग मुझे पसंद नहीं करते। अगर मैं गया भी, तो इसकी कोई गारंटी नहीं कि मैं वहाँ समस्या का समाधान कर पाऊँगा। वैसे वे सभी तुम्हें पसंद करते हैं। समस्या का समाधान करने के लिए तुम्हारा जाना लाभदायक होगा।” दूसरे को यह बात उचित लगती है और वह चला जाता है। बाकी सब छोड़ दें तो क्या उस व्यक्ति के साथ समस्या नहीं है जिसने न जाने के कारण और बहाने ढूँढ़ लिए हैं? चाहे उसके बहाने और कारण जायज हों या नहीं, क्या वह इसमें सत्य का अभ्यास कर रहा है? क्या वह अपने भाई-बहनों के बारे में सोच रहा है? नहीं; वह झूठ बोल रहा है। वह अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए सुंदर शब्दों का प्रयोग कर रहा है। क्या ये कोई तकनीक नहीं है? यदि तुम इस तरह सोचते और कार्य करते हो, तो तुमने देह के खिलाफ विद्रोह नहीं किया है। तुम अभी भी शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे हो। लेकिन क्या होगा यदि तुम स्वयं के खिलाफ विद्रोह करो और शैतानी फलसफों के अनुसार न जियो? तुम शुरू में उस कलीसिया की समस्याओं को सँभालने के लिए वहाँ नहीं जाना चाहोगे, लेकिन तुम इस पर विचार करोगे : “यह सही नहीं है। चूँकि मैं ऐसा सोचता हूँ तो इसका मतलब है कि मैं एक बुरा व्यक्ति हूँ, कि मैं अनैतिक हूँ। मैंने जो कहा है उसे जल्दी से जल्दी वापस लेना होगा। मुझे उनसे माफी माँगनी होगी और अपने द्वारा उजागर की गई भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात करनी होगी। मुझे आज उस जगह जाना ही होगा, भले ही इसका मतलब यह हो कि मैं वहाँ मर जाऊँ।” यह वास्तव में जरूरी नहीं है कि तुम वहाँ मर जाओगे। मौत इतनी आसानी से कब आती है? जीवन और मृत्यु परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं। कुल मिलाकर ऐसे मामले में तुममें संकल्प और खुद के खिलाफ विद्रोह करने की क्षमता होनी चाहिए। केवल तभी तुम सत्य के साथ जी पाओगे। मैं तुम्हें एक और उदाहरण देता हूँ। दो लोग एक कर्तव्य में सहयोग करते हैं। दोनों इसकी जिम्मेदारी लेने से डरते हैं, इसलिए दोनों एक दूसरे से बुद्धि से जीतना चाहते हैं। एक कहता है, “तुम जाओ इसे देखो।” दूसरा कहता है, “इसे सँभालना तुम्हारे लिए बेहतर होगा। मेरी काबिलियत तुमसे कम है।” वे वास्तव में जो सोच रहे हैं, वह है : “इस काम को अच्छी तरह से करने का कोई इनाम नहीं मिलने वाला, और अगर यह खराब तरीके से हुआ, तो मेरी काट-छाँट की जाएगी। मैं नहीं जाने वाला—मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ! मैं जानता हूँ कि तुम क्या चाहते हो। मुझे जाने के लिए मजबूर करने की कोशिश करना छोड़ दो।” उनके इस ठेलम-ठेल का अंत क्या होता है? उनमें से कोई नहीं जाता और परिणामस्वरूप काम लटक जाता है। क्या यह अनैतिक नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या कार्य में देरी एक गंभीर परिणाम नहीं है? यह एक बुरा नतीजा है। तो ऐसा क्या है जिसके सहारे ये दोनों जी रहे हैं? दोनों शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे हैं; वे शैतानी फलसफों और अपनी चालबाजी से बेबस हैं और उसी से बँधे हैं। वे सत्य का अभ्यास करने में विफल रहे हैं, और इस प्रकार उनके कर्तव्य का प्रदर्शन मानक के अनुरूप नहीं है। यह अनमना होना है, और इसमें बिल्कुल भी कोई गवाही नहीं है। मान लो कि दो लोग एक कर्तव्य में सहयोग करते हैं। उनमें से एक हर चीज में प्रमुख स्थान लेने की कोशिश करता है और हमेशा अपनी मनमानी करना चाहता है और दूसरा सोच सकता है, “वे काफी जिद्दी हैं; उन्हें अगुआई करना पसंद है। खैर वे हर चीज में अगुआई कर सकते हैं और जब कुछ गलत होगा, तो उन्हीं की काट-छाँट होगी। ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है’! फिर मैं आगे नहीं रहूँगा। वैसे भी मेरी काबिलियत खराब है और मुझे चीजों से परेशान होना पसंद नहीं है। उन्हें अगुआई करना पसंद है, है न? खैर अगर कुछ करना होगा तो मैं इसे उन पर छोड़ दूँगा!” जो व्यक्ति ऐसी बातें कहता है वह खुशामदी होना और पीछे-पीछे चलना पसंद करता है। तुम उनके कर्तव्य पालन के तरीके से क्या समझते हो? वे किसके सहारे जी रहे हैं? (सांसारिक आचरण के फलसफों के सहारे।) वे कुछ और भी सोच रहे हैं। “अगर मैंने उनकी चमक चुरा ली तो क्या वे मुझ पर गुस्सा नहीं होंगे? क्या आगे चलकर हम सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने में असमर्थ नहीं होंगे? यदि इसका असर हमारे रिश्ते पर पड़ा, तो हमारे लिए साथ निभाना मुश्किल हो जाएगा। बेहतर होगा कि मैं उन्हें उनके मन की करने दूँ।” क्या यह सांसारिक आचरण का फलसफा नहीं है? उनके जीने के तरीके के कारण वे परेशानी से बच जाते हैं। यह उन्हें जिम्मेदारी लेने से बचने में समर्थ बनाता है। उन्हें जो कुछ भी करने को कहा गया है उसे वे चुपचाप करेंगे, उन्हें न आगे आना होगा, न ही गरदन आगे करनी होगी, और किसी भी समस्या के बारे में नहीं सोचना होगा। सब कुछ किसी और के द्वारा किया जा रहा है, इसलिए वे खुद को नहीं थकाएँगे। अनुयायी बनने की उनकी इच्छा यह साबित करती है कि उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं है। वे सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जी रहे हैं। वे सत्य को स्वीकार नहीं करते या सिद्धांतों पर कायम नहीं रहते। यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग नहीं है, यह एक अनुयायी बनना है, खुशामदी होना है। यह सहयोग क्यों नहीं है? क्योंकि वे किसी भी चीज में अपनी जिम्मेदारी पर खरे नहीं उतरते। वे अपने पूरे दिल या पूरे दिमाग से कार्य नहीं करते, और यह भी हो सकता है कि वे अपनी पूरी ताकत से कार्य नहीं करते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि वे सत्य के बजाय सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जी रहे हैं। एक और उदाहरण लो : कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते समय कोई बुरा काम करता है, जिससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचता है। तुम इसे देखते हो, लेकिन मन ही मन सोचते हो, “इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। इससे मेरे हितों को कोई ठेस नहीं पहुँची। इसके अलावा मैं इसके लिए जिम्मेदार भी नहीं हूँ। मैं दूसरों के फटे में टाँग क्यों अड़ाऊँ? जिसे मन हो वह जाकर इसे सँभाले। मुझे बस अपने काम की ही जिम्मेदारी लेनी है। अगर दूसरे बुरे काम करते हैं तो इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। अगर मैं इसे देखता हूँ तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता; अगर वे भटक गए हैं तो मुझे क्या लेना; और अगर कलीसिया के काम को कोई नुकसान होता है, तो इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।” क्या यह सांसारिक आचरण का फलसफा नहीं है? (हाँ है।) क्या इस व्यक्ति के इरादे अच्छे हैं? (नहीं।) वे शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे हैं। कुछ लोग कभी-कभी किसी मामले में ऐसा कर देते हैं; अन्य लोग सत्य की खोज किए बिना या स्वयं पर विचार किए बिना और अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान किए बिना अक्सर ऐसा करते हैं। ये दोनों प्रकार के लोग अलग-अलग स्थितियों में हैं। चाहे यह अलग-अलग मामलों में किया गया हो या सभी मामलों में, यह भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को छूता है। यह किसी के तौर-तरीकों से जुड़ा कोई साधारण मुद्दा नहीं है—यह शैतानी फलसफों के अनुसार अपना जीवन जीना है। आमतौर पर सांसारिक आचरण के कौन-से दूसरे फलसफे दिखाई देते हैं जिनके संपर्क में लोग आते हैं? (दूसरों को छोटे-मोटे एहसानों की रिश्वत देना, दूसरों की प्राथमिकताओं को पूरा करना, लोगों की प्रशंसा करना और उनकी खुशामद करना।) दूसरों की प्राथमिकताओं को पूरा करना एक तकनीक, सांसारिक आचरण का एक प्रकार का फलसफा है। और इसके अलावा क्या? (किसी को सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाला कार्य करते देखने के बाद उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाने के डर से सीधे नहीं बोलना।) बातचीत में सीधे न बोलना, हमेशा मुद्दे को घुमाते रहना, हमेशा सुखद शब्द चुनना जिसमें सिद्धांत या आवश्यक समस्या शामिल न हो—यह सांसारिक आचरण का दूसरे प्रकार का फलसफा है। और कोई? (किसी रुतबे वाले व्यक्ति की चापलूसी और खुशामद करना।) यह चापलूसी करना है, और यह सांसारिक आचरण का एक प्रकार का फलसफा भी है। ऐसे लोग होते हैं जिनकी प्रकृति हमेशा दूसरों से काम निकालने के लिए तिकड़में भिड़ाने और उनका फायदा उठाने की होती है। वे विशेष रूप से कपटी होते हैं। ऐसे लोग होते हैं जो जहाँ जाएँ, चिकने-चुपड़े बने रहते हैं। वे क्या कहते हैं यह इस पर निर्भर करता है कि वे इसे किससे कह रहे हैं। उनका दिमाग तेजी से प्रतिक्रिया देता है : पहली बार नजर मिलाते ही वे जान जाते हैं कि किसी व्यक्ति को कैसे सँभालना है। ऐसे लोग बहुत धूर्त होते हैं; वे सत्य के अनुसार नहीं जी सकते। सांसारिक आचरण के फलसफे किन अन्य तरीकों से जाहिर होते हैं? (किसी समस्या को देखने के बाद इस डर से बोलने की हिम्मत न करना कि अगर इसमें गलती हुई तो दोष अपने सिर लेना होगा, यह देखना कि दूसरे क्या कह और कर रहे हैं, और तब तक कोई विचार व्यक्त न करना जब तक ज्यादातर पहले बोल न दें।) लोग यह सोचकर धारा के साथ बहते रहते हैं कि जब हर कोई अपराधी है, तो कानून लागू नहीं किया जा सकता। यह किस प्रकार की समस्या है? किस प्रकार का स्वभाव? क्या यह कपटी स्वभाव नहीं है? सत्य सिद्धांतों को बनाए रखने की हिम्मत नहीं क्योंकि तुम हमेशा खुशामदी बने रहना चाहते हो और नाराज करने से डरते हो, साथ ही इससे भी डरते हो कि सत्य का अभ्यास न करने के कारण तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटा दिया जाएगा—यह काफी बड़ी दुविधा है! यह खुशामदी करने वालों की दयनीय दुर्दशा है। जब लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो वे ऐसी कुरूप परिस्थितियों को जीते हैं; वे सभी शैतान की राक्षसी छवि धारण कर लेते हैं। इनमें से कुछ लोग धूर्त होते हैं, कुछ विश्वासघाती होते हैं, कुछ घृणित होते हैं, कुछ अधम होते हैं, कुछ नीच और बाकी दयनीय हैं। क्या तुम लोग शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे हो? जो अगुआ है उसकी चापलूसी करना, जबकि उन अगुआओं की अनदेखी करना, जिन्हें बर्खास्त कर दिया गया है और हटा दिया गया है; अगुआ के रूप में चुने गए किसी भी व्यक्ति के प्रति खुशामदी बनना, चाहे वे कोई भी हों; सभी प्रकार की घिनौनी बातें कहना, “ओह, तुम सुंदर हो और तुम्हारा शारीरिक सौष्ठव बहुत अच्छा है—तुम सुंदरता की प्रतिमूर्ति हो। तुम्हारी आवाज समाचार पढ़ने वाले के जैसी और कोयल की तरह सुरीली है,” उनकी स्वीकृति पाने के तरीके तलाशना; जब मौका मिले उनकी चापलूसी करना; छोटे-मोटे एहसान की रिश्वत देना; वे क्या करते और कहते हैं इस पर नजर रखना, और जब तुम देखते हो कि उन्हें कोई चीज पसंद है तो उन्हें संतुष्ट करने के तरीकों के बारे में सोचना। क्या तुम लोगों के पास ये युक्तियाँ हैं? (हाँ। कभी-कभी मैं देखता हूँ कि किसी अगुआ या कार्यकर्ता में कुछ समस्याएँ या कमियाँ हैं, फिर भी मैं कुछ कहने की हिम्मत नहीं करता, इस डर से कि वे मेरे बारे में नकारात्मक राय बना लेंगे और मेरे प्रति बुरा व्यवहार करेंगे।) यह सिद्धांतों की कमी होना है। तो क्या तुम जानते हो कि तुमने उन समस्याओं की सही पहचान की है और क्या उनके बारे में बोलने से कलीसिया के काम को फायदा होगा? (थोड़ा-सा।) तुम थोड़ा जानते हो—तो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि तुम आश्वस्त हो कि तुम्हें समस्या पता चल गई है, और तुम अपने दिल में समझते हो कि उसका समाधान होना चाहिए, अन्यथा इससे काम में देरी होगी, फिर भी तुम सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम नहीं हो, और तुम दूसरे लोगों को नाराज करने से डरते हो, तो यह समस्या क्या है? तुम सिद्धांतों का पालन करने से क्यों डरोगे? यह एक गंभीर प्रकृति का मुद्दा है, जो यह बताता है कि क्या तुम सत्य से प्रेम करते हो और क्या तुममें न्याय की भावना है। तुम्हें अपनी राय बतानी चाहिए, भले ही तुम न जानते हो कि वह सही है या नहीं। अगर तुम्हारी कोई राय या विचार है, तो तुम्हें उसे कह देना चाहिए और दूसरों को उसका आकलन करने देना चाहिए। ऐसा करने से तुम्हें लाभ होगा और यह समस्या हल करने में मददगार होगा। अगर तुम अपने मन में सोचते हो, “मैं इसमें नहीं पड़ूँगा। अगर मैंने सही कहा, तो मुझे श्रेय नहीं मिलेगा और अगर गलत कहा, तो मेरी काट-छाँट की जाएगी। यह इस लायक नहीं है,” तो क्या यह स्वार्थी और घृणित होना नहीं है? लोग हमेशा अपने हितों पर विचार करते हैं और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ रहते हैं। लोगों के बारे में यही सबसे कठिन बात है। क्या तुम सभी लोगों के भीतर सांसारिक आचरण से जुड़े ऐसे कई फलसफे और योजनाएँ नहीं हैं? प्रत्येक व्यक्ति में शैतान के फलसफों की काफी चीजें हैं और वे लंबे समय से उनसे प्रभावित हैं। तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि लोग सत्य समझे बिना वर्षों तक प्रवचन सुनते हैं, और सत्य वास्तविकता में उनका प्रवेश धीमा है, और उनका आध्यात्मिक कद हमेशा बहुत छोटा रहता है। कारण यह है कि ऐसी भ्रष्ट चीजें उन्हें बाधित और परेशान करती हैं। जब लोगों के लिए सत्य का अभ्यास करना जरूरी होता है, तो वे किसके अनुसार जीते हैं? वह इन भ्रष्ट स्वभावों, धारणाओं, कल्पनाओं, सांसारिक आचरण के फलसफों और गुणों के अनुसार जीते हैं। इन चीजों के अनुसार जीते हुए लोगों के लिए परमेश्वर के सामने आना बहुत कठिन है। ऐसा क्यों होता है? उनका भार बहुत अधिक और जुआ बहुत भारी होता है। मनुष्य का इन चीजों के अनुसार जीना सत्य से बहुत अलग है। ये चीजें तुम्हें सत्य समझने और उसका अभ्यास करने से रोकती हैं। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो क्या परमेश्वर में तुम्हारी आस्था बढ़ेगी? (नहीं।) परमेश्वर में तुम्हारी आस्था निश्चित ही नहीं बढ़ेगी। उसके बारे में तुम्हारा ज्ञान बढ़ने की तो बात ही छोड़ दो। यह बहुत ही शोचनीय और भयानक बात है।

लोग जिसके अनुसार जीते हैं उसका संबंध चीजों के बारे में उनके विचारों के साथ-साथ उनके स्वभावों से होता है। कुछ लोग हमेशा अपने सपने और इच्छाएँ पूरी करने के लिए प्रयासरत रहते हैं। वे सपने देखने वाले लोग हैं। कुछ हमेशा अपनी इच्छाओं से जीते हैं। उनकी इच्छाओं में क्या शामिल होता है? उनमें काम करके स्वयं को प्रसिद्ध करने की इच्छा होती है, और स्वयं को दिखाने की इच्छा होती है। मिसाल के तौर पर ऐसे लोग हैं जिन्हें रुतबा पसंद होता है। बिना रुतबे के वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करेंगे; बिना रुतबे के उनका कुछ भी करने का मन नहीं होता और परमेश्वर में विश्वास करना भी उनके लिए उबाऊ होता है। वे रुतबा हासिल करने की अपनी इच्छा के अनुसार जीते हैं, और रोजाना अपने दिन इसी इच्छा के वशीभूत होकर गुजारते हैं। उनका रुतबा चाहे जो भी हो, वह उनके लिए काफी मूल्यवान होता है। वे जो कुछ करते हैं वह रुतबे के अलावा किसी और चीज के लिए नहीं होता : अपना रुतबा बनाए रखना, अपने रुतबे को मजबूत करना, अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाना—वे जो कुछ करते हैं, हर तरह से अपनी इसी इच्छा के लिए करते हैं। वे इच्छा के अनुसार जी रहे हैं। संसार में ऐसे भी लोग हैं जो दयनीय जीवन जीते हैं। वे निष्कपट लोग हैं जिन्हें हमेशा सताया जाता है, जो बुरे घरों से आते हैं, गरीब सामाजिक परिवेश से आते हैं, जिनके पास निर्भर करने को कोई नहीं है। वे तब तक अकेले और उपेक्षित होते हैं, जब तक परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, उस बिंदु पर आकर उन्हें लगता है कि आखिर उन्हें एक सहारा मिल गया है। उनमें एक आकांक्षा होती है, और वे परमेश्वर में अपने विश्वास से प्रेरित होते हैं। उनकी आकांक्षा कभी नहीं बदली है, यहाँ तक कि आज तक भी नहीं। वे सोचते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करके मैं गरिमा और चरित्र की ताकत के साथ जीता हूँ; परमेश्वर में विश्वास करके मैं दूसरों से ऊपर उठ सकता हूँ और ऐसा जीवन जी सकता हूँ जो दूसरों से बेहतर हो। जब मैं स्वर्ग जाऊँगा, तो तुम सभी लोगों को मेरा सम्मान करना होगा। फिर मुझे कोई भी हेय दृष्टि से नहीं देखेगा।” उनकी यह इच्छा, यह आशा बहुत खोखली और अस्पष्ट होती है। उन्हें लगता है कि वे अपने परिवार की परिस्थितियों या किसी अन्य कारण से दुनिया में इतना दयनीय जीवन जी रहे थे। परमेश्वर के घर में रहते हुए उनके पास भरोसा करने के लिए कुछ है। भाई-बहन उन पर धौंस नहीं जमाते। वे अब दयनीय नहीं रहे; उनके पास एक आधार-स्तंभ है। इसके अलावा उनकी सबसे बड़ी आशा यह होती है कि मरने के बाद या इस जीवन में उन्हें अपने लिए एक अद्भुत मंजिल मिल सकती है, जहाँ वे अपना सिर ऊँचा रख पाएँगे। यही उनका लक्ष्य होता है। वे इसी आकांक्षा के साथ जीते हैं, और हर जगह सभी चीजों में वे इसी विचार, इसी इच्छा को अपनी प्रेरणा के रूप में उपयोग करते हैं। उनके लिए सत्य के अनुसार जीना काफी कठिन होता है। ऐसे लोग दयनीय जीवन जीते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें दिखावा करने या अपनी पहचान बनाने की इच्छा होती है। इस वजह से वे एक समूह के भीतर रहना और विभिन्न काम करना बहुत पसंद करते हैं, ताकि समूह के दूसरे लोग उनके बारे में ऊँचा सोचें, जिससे उनका घमंड संतुष्ट होता है। वे मानते हैं, “भले ही मैं अगुआ न होऊँ, लेकिन अगर मैं समूह के लिए अपनी खूबियाँ प्रदर्शित कर सकूँ और आकर्षण से चमकता हुआ लगूँ, मेरे चारों ओर प्रभामंडल हो तो मेरे लिए परमेश्वर में विश्वास करना उचित है। मैं इसी के लिए जीता हूँ; कम से कम यह दुनिया में रहने से कहीं अच्छा है।” तो तब से वे इसी के लिए जीते हैं। वे अपने मूल इरादे को बदले बिना अपने सभी दिन और वर्ष ऐसे ही गुजारते हैं। क्या यह सत्य के अनुसार जीना है? हरगिज नहीं। वे गैर-विश्वासियों की तरह ही सपनों और इच्छाओं के सहारे जी रहे हैं। यह ऐसी समस्या है जिसका संबंध व्यक्ति के चीजों को देखने के साथ-साथ भ्रष्ट स्वभावों से भी होता है। यदि यह समस्या अनसुलझी रह जाती है, तो सत्य को समझने या उसका अभ्यास करने का कोई रास्ता नहीं बचता, और तब सत्य के साथ जीना काफी कठिन हो जाता है।

कुछ ऐसी महिलाएँ भी होती हैं जो अपनी शक्ल-सूरत के सहारे जीती हैं, जो हमेशा खुद को सुंदर समझती हैं, सोचती हैं कि वे जहाँ भी जाती हैं, हर कोई उन्हें पसंद करता है, उनका बहुत सम्मान करता है और उनका अनुमोदन करता है। वे जहाँ भी जाती हैं, वे लोगों से अपने लिए प्रशंसा की भाषा सुनती हैं और लोगों के मुस्कराते चेहरों को अपनी ओर देखती हैं। वे इस तरह जीते हुए खुद से काफी खुश और आश्वस्त रहती हैं। इसलिए उनका मानना होता है कि जिस तरह वे जीती हैं, वैसे जीने से उन्हें एक पूँजी मिल जाती है, उनके जीने का बहुत महत्व है—कम से कम बहुत-से लोग उनकी सराहना तो करते ही हैं। क्या ऐसे पुरुष भी नहीं हैं जो अपनी शक्ल-सूरत के आधार पर जीने में लगे हैं? मान लो कि तुम सुंदर हो और अपनी बहनों के साथ बातचीत में हाजिर-जवाब, आकर्षक और रूमानी हो। तुम अपने आप से काफी खुश हो, क्योंकि हर कोई तुम्हारे बारे में बहुत अच्छा सोचता और तुम्हारे इर्द-गिर्द नाचता है। “ऐसा नहीं है कि मैं किसी को डेट करने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं बस ऐसे ही जी रहा हूँ, और यह प्यारी चीज है! सत्य का अभ्यास—कितना नीरस है!” कुछ अन्य लोग भी हैं जो किसी प्रकार की पूँजी के सहारे जीवन जीते हैं, और यह पूँजी होने के लिए उनके पास निश्चित रूप से कोई वास्तविक चीज होनी चाहिए। वे कौन-सी वास्तविक चीजें हो सकती हैं? उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को लगता है कि वे गर्भ से ही परमेश्वर में विश्वास करते हुए आए हैं। वे पचास वर्षों या उससे अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और यही उनकी पूँजी है। जब वे किसी भाई या बहन को देखते हैं, तो वे पूछते हैं, “तुम्हारा परमेश्वर में कितने वर्षों से विश्वास है?” वह कहता है “पाँच साल।” उन्होंने इस व्यक्ति की तुलना में दस गुना अधिक समय तक परमेश्वर में विश्वास किया है, और यह देखकर वे मन में सोचते हैं, “क्या तुम लोगों का मेरे जितने वर्षों तक ही परमेश्वर में विश्वास है? तुम्हारी उम्र बहुत कम है। बेहतर होगा कि तुम कायदे में रहो—तुम्हें अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है!” यह वे हैं जो अपनी पूँजी के सहारे जी रहे हैं। पूँजी के अन्य प्रकार क्या होते हैं? कुछ लोगों ने सभी स्तरों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में कार्य किया है। वे लंबे समय से कार्यशील रहे हैं, काम करते रहे हैं, इधर-उधर भाग-दौड़ करते और कलीसियाओं में जाते रहे हैं, और उनके पास बहुत अनुभव है। वे ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं के साथ-साथ कलीसिया में विभिन्न प्रकार के लोगों और कार्य के क्षेत्रों से अच्छी तरह परिचित हैं। इसलिए उनका मानना होता है, “मैं खासी पूँजी वाला अनुभवी अगुआ हूँ। मैं लंबे समय से काम कर रहा हूँ और मेरे पास अनुभव है। तुम लोग क्या जानते हो? तुम बच्चे हो। तुमने कितने दिन काम किया है? तुम लोग बहुत कच्चे हो। तुम्हें कुछ भी पता नहीं। हाँ, तुम लोग मेरी बात सुनो, यही सही है!” और इसलिए वे पूरे दिन उपदेश देते रहते हैं, इसमें कुछ भी व्यावहारिक नहीं है—ये सभी वचन और धर्म-सिद्धांत होते हैं। यद्यपि वे बहाने बनाएँगे : “आज मेरा मूड खराब है। वहाँ एक मसीह-विरोधी है जो गड़बड़ी और बाधा पैदा कर रहा है, और इससे मैं परेशान हो गया हूँ। मैं अगली बार ठीक से उपदेश दूँगा।” इससे उनके असली रंग दिख जाते हैं, है न? वे अपने बुजुर्गों के अनुभव की पूँजी पर जी रहे हैं और बेहद आत्म-संतुष्ट हैं। सचमुच कितना घृणित, कितना कुत्सित है यह! यह एक प्रकार की पूँजी है। ऐसे कुछ अन्य लोग हैं जिन्हें परमेश्वर में विश्वास के कारण जेल में डाल दिया गया था, या जिनके पास कोई अन्य असाधारण अनुभव है, या जिन्होंने असाधारण कर्तव्य निभाए हैं। उन्होंने कष्ट सहा है, और वह भी उनके लिए एक प्रकार की पूँजी के रूप में कार्य करता है। लोग हमेशा अपनी पूँजी पर ही क्यों जीवन बिता रहे हैं? इसमें एक समस्या है : उनका मानना है कि यह पूँजी ही उनका जीवन है। जब तक वे अपनी पूँजी पर जी रहे होते हैं, वे अक्सर स्वयं की प्रशंसा करते और मस्त रहते हैं, और उस पूँजी का उपयोग दूसरों को निर्देश देने और प्रभावित करने के लिए करते हैं, जो उनकी प्रशंसा जीतने में उपयोगी होती है। उनका मानना होता है कि अपनी पूँजी को नींव के रूप में रखकर अगर वे थोड़े सत्य का अनुसरण करते हैं, या अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हैं और उनके पास कुछ अच्छे कर्म हैं, तो हो सकता है कि पौलुस की तरह उनके लिए धार्मिकता का ताज सुरक्षित हो। निश्चित रूप से वे जीवित रहेंगे; निश्चित रूप से वे एक अच्छी मंजिल पर पहुँचेंगे। अपनी पूँजी के सहारे जीते हुए वे अक्सर आत्ममुग्ध, बेहद आत्म-संतुष्ट, संतोषपूर्वक बेपरवाह स्थिति में रहते हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर उनकी पूँजी को स्वीकारता है, कि वह उनसे प्रसन्न है, कि वह उन्हें अंत तक बने रहने देगा। क्या यह पूँजी पर निर्भर रहकर जीना नहीं है? वे हर मोड़ पर ऐसी मानसिकता उजागर करते हैं। जो चीजें वे उजागर करते हैं, जिन चीजों के सहारे वे रहते हैं, और जिन चीजों का वे हर मौके पर दूसरों को उपदेश देते हैं, उनमें उनके दिमाग में जो कुछ है वह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें परमेश्वर से विशेष अनुग्रह या देखभाल मिली है, जो किसी और को नहीं—केवल उन्हें मिली है। तो वे सोचते हैं कि वे विशेष हैं, कि वे बाकियों से अलग हैं। वे कहते हैं, “परमेश्वर में तुम लोगों का विश्वास मुझसे अलग है। परमेश्वर तुम लोगों को ढेर सारी कृपा देकर तुम्हारा मार्गदर्शन करने से शुरुआत करता है। फिर एक बार जब तुम लोग धीरे-धीरे कुछ सत्य समझने लगते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी काट-छाँट करता है, तुम्हारा न्याय करता है और तुम्हें ताड़ना देता है। तुम सभी लोगों के लिए ऐसा ही है। यह मेरे लिए अलग है : परमेश्वर की मुझ पर विशेष कृपा रहती है। वह मेरे साथ खास अनुग्रह से पेश आता है, और वह खास अनुग्रह मेरी पूँजी है—यह राज्य के लिए मेरी सनद और टिकट है।” जब तुम उन्हें ये बातें कहते हुए सुनते हो तो तुम्हें कैसा महसूस होता है? क्या उन्हें परमेश्वर के कार्य का ज्ञान है? क्या उन्हें अपने बारे में ज्ञान है? बिल्कुल भी नहीं। यह कहना उचित है कि वे सत्य नहीं समझते, और उनका मानना है कि सत्य का अनुसरण किए बिना या सत्य की खोज किए बिना या न्याय और ताड़ना स्वीकार किए बिना उन्हें बचाया जा सकता है। वे कौन-से लोग हैं जिनकी ऐसी दशाएँ हैं? वे कुछ लोग हैं जिन्होंने कुछ दर्शन देखे हैं, जिन्हें कुछ विशेष सुरक्षा मिली है और वे विपत्ति से बच गए हैं। या वे मरकर जीवित हो गए हैं, और उनके पास कुछ विशेष गवाही या अनुभव है। वे इन चीजों को अपने जीवन के रूप में, अपने जीवनयापन के आधार के रूप में लेते हैं, और सत्य का अभ्यास करने के विकल्प के रूप में उनका उपयोग करते हैं। इसके अलावा वे इन चीजों को उद्धार के संकेत और मानक मानते हैं। यह होती है पूँजी। क्या तुम लोगों के पास ऐसी चीजें हैं? हो सकता है कि तुम लोगों के पास इस प्रकार का विशेष अनुभव न हो, लेकिन यदि तुम लोगों ने लंबे समय तक कोई विशेष कर्तव्य निभाया है और परिणाम प्राप्त किए हैं, तो तुम मान लोगे कि तुम्हारे पास पूँजी है। मान लो कि तुमने लंबे समय तक निर्देशक का कर्तव्य निभाया है, और कई अच्छे काम अंजाम दिए हैं। वह तुम्हारे लिए पूँजी का आकार ले लेता है। हो सकता है कि तुम्हारे पास अभी तक यह न हो क्योंकि तुमने कोई ऐसा काम नहीं किया है। या हो सकता है कि तुमने दो ऐसी फिल्में बनाई हों जो तुम्हें ठीक-ठाक लगती हैं, फिर भी तुम उन्हें अपनी पूँजी मानने की हिम्मत नहीं कर पाते। तुम्हें उन पर विश्वास नहीं है; तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास अभी तक पर्याप्त अनुभव या पूँजी नहीं है, तो तुम सतर्क, संकोची और शांत बने रहते हो। तुम कामचोरी करने की हिम्मत नहीं करते हो, अहंकारी होने और दिखावा करने की तो बात ही दूर है। फिर भी तुम अपने आप से अत्यधिक प्रसन्न रहते हो और हर समय अपनी प्रशंसा करते रहते हो, और यही वो चीजें हैं जिनके अनुसार तुम जीते हो। क्या यह भ्रष्ट मानवजाति की दयनीय दुर्दशा नहीं है?

कुछ लोग देखने में बेहद भयंकर लगते हैं। वे बड़े, हृष्ट-पुष्ट और मजबूत होते हैं, और वे हमेशा दूसरों पर धौंस जमाने की फिराक में रहते हैं। बोल-चाल में वे काफी दबंग और अभिमानी होते हैं; वे किसी के आगे नहीं झुकते, चाहे वे कोई भी हों। इसलिए लोग उन्हें देखकर थोड़ा डर जाते हैं, और उनके साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करते हैं, उनकी खुशामद करने की कोशिश करते हैं। इससे उन्हें बेहद गर्व महसूस होता है। उन्हें लगता है कि जीवन आसान है, और मानते हैं कि यह सब उनकी प्रतिभा है—वे सोचते हैं कि जैसे वे रहते हैं, उसके चलते कोई उन्हें सताने की हिम्मत नहीं करेगा। यदि तुम भीड़ में मजबूती से खड़े रहना चाहते हो, तो तुम्हें आत्मनिर्भर, आत्म-सशक्त, और मजबूत और कठोर बनना होगा—यही उनके जीवन का सिद्धांत होता है। दूसरों के बीच मजबूती से खड़े रहने के लिए, ताकि कोई उन्हें सताने या उनसे खिलवाड़ करने की हिम्मत न करे, न ही उन्हें धोखा देने और उनका शोषण करने की हिम्मत करे, वे चीजों को इस सिद्धांत तक सीमित कर देते हैं : “अगर मैं अच्छी तरह जीना चाहता हूँ तो मुझे मजबूत और सख्त होना होगा—मैं जितना उग्र होऊँगा, उतना अच्छा है। इस तरह कहीं भी कोई मुझ पर धौंस जमाने की सोचेगा भी नहीं।” इसलिए वे कुछ वर्षों तक ऐसे ही रहते हैं, और वास्तव में वैसा होता है, कोई उन्हें सताने की हिम्मत नहीं करता। आखिर उन्होंने अपना लक्ष्य पूरा कर लिया है। चाहे वे किसी भी समूह में हों, वे एक गंभीर अभिव्यक्ति, भावविहीन चेहरा, अपनी गंभीरता दिखाते हुए और अवमानना के तेवर बनाए रखते हैं। कोई भी उनके आसपास बोलने की हिम्मत नहीं करता; बच्चे उन्हें देखकर रोने लगते हैं। पुनर्जीवित राक्षस—यही हैं वे! घूँसा तानकर जीना—यह कौन-सा स्वभाव है? यह दुष्टता का स्वभाव है। वे जहाँ भी जाते हैं, सबसे पहली चीज जो वे करते हैं, वह यह सीखते हैं कि लोगों के साथ चालबाजी और उनका शोषण कैसे किया जाए। वे लोगों को नियंत्रित कर उन्हें अपने वश में भी करना चाहते हैं। वे ऐसे तरीकों के बारे में सोचते हैं कि उनका अनादर करने वाले से उसका बदला कैसे लिया जाए, और वे ऐसे मौके तलाशते हैं कि जो कोई भी उनसे अभद्रता से बात करे, उसे चुभते हुए शब्दों से सताया जाए। क्या इन चीजों के सहारे जीना दुर्भावनापूर्ण नहीं है? जैसे वे घूँसे के सहारे चीजों को सँभालते हैं, वैसा करने के कुछ प्रभाव होते हैं : बहुत-से लोग उनसे डरने लगते हैं, जिससे उनके लिए रास्ता साफ हो जाता है। लेकिन क्या ऐसे लोग सत्य स्वीकार कर सकते हैं, यह देखते हुए कि वे क्रोधी और दुर्भावनापूर्ण स्वभाव से जीते हैं? क्या वे सचमुच पश्चात्ताप कर सकते हैं? यह असंभव होगा क्योंकि वे शैतानी फलसफों और बल प्रयोग के समर्थक हैं। वे केवल शैतानी फलसफों और बल के प्रयोग से जीते हैं; वे हर किसी से अपनी बात मनवाते हैं और उन्हें डराते हैं, ताकि वे स्वेच्छा से उन्मत्त होकर जो चाहे कर सकें। उन्हें खराब प्रतिष्ठा की चिंता नहीं होती, बल्कि इसकी चिंता होती है कि उनकी प्रतिष्ठा दुष्टतापूर्ण नहीं है। यही उनका सिद्धांत है। एक बार जब वे इस तरह अपना लक्ष्य पूरा कर लेते हैं, तो वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर के घर में और इन समूहों के बीच मजबूती से खड़ा रहने में कामयाब रहा हूँ। सब मुझसे डरते हैं; कोई मेरे साथ उलझने की हिम्मत नहीं करेगा। वे सभी मेरे प्रति आदर भाव रखते हैं।” उनका मानना होता है कि वे जीत गए हैं। क्या सचमुच ऐसा है कि कोई भी उनके साथ उलझने की हिम्मत नहीं करेगा? उनसे उलझने की हिम्मत न करना बाहरी बात है। हर कोई अपने हृदय की गहराई से ऐसे लोगों को कैसे देखता है? इसमें कोई संदेह नहीं है : वे उनसे तंग आ चुके होते हैं, घृणा करते हैं, नफरत करते हैं, उनसे दूर छिटकते और बचकर रहते हैं। क्या तुम लोग ऐसे व्यक्ति के साथ कोई संबंध रखने के इच्छुक होगे? (नहीं।) क्यों नहीं? वे हमेशा तुम्हें पीड़ा देने के तरीकों के बारे में सोचते रहेंगे। क्या तुम इसे बर्दाश्त कर पाओगे? कभी-कभी बलपूर्वक धमकी देने के बजाय वे तुम्हें भ्रमित करने के लिए कुछ तरकीबें इस्तेमाल करेंगे और फिर धमकाएँगे। कुछ लोग धमकी का सामना नहीं कर पाते, इसलिए वे दया की भीख माँगते हैं और शैतान के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं। दुष्ट लोग जिस तरह से ठीक लगे वैसे बोलते और कार्य करते हैं। डरपोक और भयभीत लोग उनके सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं, फिर वाणी और कार्य में उनका अनुसरण करते हैं। वे बुरे व्यक्ति के जुर्म में साथी हैं, है न? जब तुम लोग ऐसे बुरे व्यक्ति को देखोगे तो क्या करोगे? सबसे पहले, डरो मत। तुम्हें उनसे निपटने और उन्हें बेनकाब करने का तरीका खोजना होगा। तुम उन भाई-बहनों के साथ भी टीम बना सकते हो जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उस व्यक्ति की रिपोर्ट कर सकते हो। डर बेकार है—जितना अधिक तुम उनसे डरोगे, उतना अधिक वे तुम्हें प्रताड़ित और परेशान करेंगे। बुरे व्यक्ति की रिपोर्ट करने के लिए टीम बनाना ही उन्हें भयभीत और शर्मिंदा करने का एकमात्र तरीका है। यदि तुम बहुत डरपोक हो और तुम्हारे पास बुद्धि की कमी है, तो तुम निश्चित रूप से उस बुरे व्यक्ति की निर्दयता का शिकार होगे। लोगों की आस्था कितनी छोटी होती है—कितनी दयनीय होती है! वास्तव में बुरे लोग चाहे जितने बुरे हो जाएँ तो भी वे लोगों के साथ क्या कर सकते हैं? क्या वह यूँ मुक्का घुमाकर किसी को पीटकर जान से मारने का साहस कर पाएगा? अब हम कानून वाले समाज में रहते हैं। वह ऐसी हिमाकत नहीं करेगा। इसके अलावा शैतानी रूप से क्रूर लोगों का वर्ग छोटा, अलग-थलग अल्पसंख्यक है। यदि किसी में लोगों पर दबंगई करने और कलीसिया पर अत्याचार करने का दुस्साहस है, तो बस उसे रिपोर्ट करने और उसका खुलासा करने के लिए दो-तीन लोगों की टीम बनानी होगी। इससे उसका मामला निपट जाएगा। क्या ऐसा नहीं है? यदि परमेश्वर के चुने हुए बस कुछ ही लोग एक मन और हृदय के हों, तो वे आसानी से एक बुरे व्यक्ति से निपट सकते हैं। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर एक धार्मिक, सर्वशक्तिमान परमेश्वर है, कि वह बुरे लोगों से अत्यधिक घृणा करता है, और वह अपने चुने हुए लोगों का सहारा बनेगा। अगर किसी में आस्था है, तो उसे किसी बुरे व्यक्ति से डरना नहीं चाहिए—और थोड़ी बुद्धि और रणनीति के साथ यदि वे दूसरों के साथ मिलकर काम कर सकें, तो बुरा व्यक्ति स्वाभाविक रूप से नरम पड़ जाएगा। यदि तुम वास्तव में परमेश्वर में आस्था नहीं रखते, लेकिन बुरे लोगों से डरते हो और मानते हो कि वे तुम्हें अपने चंगुल में ले सकते हैं और तुम्हारा भाग्य तय कर सकते हैं, तो तुम्हारा काम तो हो गया। तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होगी, देने के लिए कुछ भी नहीं होगा, और तुम एक कायर, घटिया जीवन जियोगे। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए? कुछ लोग हमेशा अपनी तुच्छ चालाकी से जीते हैं, और सोचते हैं, “मुझे नहीं पता कि परमेश्वर कहाँ है, और मैं यकीन से नहीं कह सकता कि ऊपर वाले को इस मामले के बारे में पता भी है या नहीं। यदि मैं रिपोर्ट करूँ और बुरे व्यक्ति को पता चल गया, तो क्या वह इसके लिए मुझे और अधिक नहीं सताएगा?” जितना अधिक वे इसके बारे में सोचते हैं, उतना ही अधिक डर जाते हैं, और मेज के नीचे छिप जाना चाहते हैं। क्या ऐसा करने वाला कोई व्यक्ति अभी भी सत्य का अभ्यास कर सकता है और सिद्धांतों को कायम रख सकता है? (नहीं।) वे छोटे कायर लोग हैं, क्या ऐसा नहीं है? तुम लोगों में से अधिकांश लोग ऐसे ही हैं। कुछ समय पहले एक मसीह-विरोधी ने कुछ लोगों को सताया। उन लोगों की कायरता ही उनके कष्ट का कारण थी। क्या सताया जाना अच्छी बात है या बुरी? मनुष्य के दृष्टिकोण से यह बुरी बात है : इसका अर्थ है अन्याय सहना, पीड़ा पहुँचाया जाना। लेकिन कोई इससे सबक ले सकता है और इससे लाभ उठा सकता है, और यह कोई बुरी बात नहीं है—यह अच्छी बात है। हालाँकि कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनमें बुद्धि की कमी होती है और वे रीढ़विहीन होते हैं। जब कोई उन्हें परेशान करता है और सताता है, तो वे विरोध नहीं करते, भले ही वे सही हों। वे जानते हैं कि वह व्यक्ति एक झूठा अगुआ, मसीह-विरोधी है, लेकिन वे उसकी रिपोर्ट नहीं करते, न ही वे उसका खंडन कर उसे उजागर करने का साहस करते हैं। डरपोक कचरे! अगर कोई ऐसी चीजों के कारण बाधित होता है, तो इससे पता चलता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और वह आस्था में दयनीय है : वह परमेश्वर पर भरोसा करना नहीं जानता, न ही वह कलीसिया के काम को संरक्षित करने के बारे में सोचता है। वह परमेश्वर के इरादे नहीं समझता। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों के विरुद्ध खड़े होने का अधिकार है। ऐसा करना परमेश्वर द्वारा स्वीकृत है और इसे उसका आशीष मिलता है। क्या यह दयनीय नहीं है कि तुम शैतान के खिलाफ युद्ध नहीं छेड़ते और उस पर विजय नहीं पाते? वह व्यक्ति स्पष्टतः एक कुकर्मी है, एक नकारात्मक शक्ति है; वह शैतान है, एक दानव है, गंदी, बुरी आत्मा है—फिर भी तुम उसके द्वारा पीड़ा पा रहे हो। और यह सिर्फ तुम नहीं हो—ऐसे कई अन्य लोग भी हैं जिन्हें पीड़ा झेलनी पड़ रही है। क्या यह कायरता नहीं है? तुम लोग उसके खिलाफ लड़ाई में हाथ क्यों नहीं मिला सकते? तुममें बुद्धि और विवेक की कितनी कमी है। उस व्यक्ति के व्यवहार का गहन-विश्लेषण करने के लिए कुछ समझदार लोगों को खोजो जो सत्य समझते हों। ऐसा करो, और परमेश्वर के अधिकांश चुने हुए लोग चीजों को वैसे ही देख पाएँगे जैसे वे हैं और ऊपर उठ सकेंगे। क्या तब समस्या का समाधान आसान नहीं होगा? जब अगली बार तुम लोगों का सामना ऐसी किसी चीज से होगा, तो क्या तुम उठ पाओगे और मसीह-विरोधियों से युद्ध कर पाओगे? (हाँ।) मैं देखना चाहता हूँ कि तुम कितने मसीह-विरोधियों को सँभालने और उनसे निपटने में सक्षम हो। यह विजेताओं की गवाही है। तुम लोग कहते हो कि तुम अब सक्षम हो, लेकिन क्या तुम लोग सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम होगे, जब यह वास्तव में होगा? तुम फिर से इतने डर सकते हो कि तुम्हें मेज के नीचे छिपना पड़ेगा। वे लोग जो अपने ऊपर मुसीबत आने पर सत्य नहीं समझते, उनकी जैसी दयनीय, शोचनीय छवि बनती है—उसे देखना दर्दनाक है! यह बहुत दयनीय होता है! जब उन्हें पीड़ा दी जाती है तो वे कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं करते, और बाद में उनमें डर बैठा रहता है। वे बुरी तरह डरे हुए हैं। कितने छोटे आध्यात्मिक कद का इंसान होगा जो किसी बुरे इंसान को देखकर पहचान भी नहीं सकता। वे सत्य बिल्कुल नहीं समझते। क्या वे दयनीय नहीं हैं? बुरे लोग घूँसों के सहारे जीते हैं; वे लोगों पर अत्याचार करके, अच्छे लोगों को सताकर और दूसरों की कीमत पर लाभ उठाकर जीते हैं; वे अपनी द्वेषपूर्ण प्रकृति और दुष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं, दूसरे उनसे भयभीत रहते हैं, उनकी चापलूसी करते हैं और उन्हें भेंट देते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह जीना बहुत अच्छी बात है। क्या वे गुंडों के सरदार नहीं हैं? क्या वे लुटेरे और डाकू नहीं हैं? तुम लोग बुरे लोग नहीं हो, लेकिन क्या तुम लोगों की ऐसी स्थितियाँ होती हैं? क्या तुम भी ऐसी चीजों के अनुसार नहीं जीते? जब तुममें से कुछ लोग किसी के साथ सहयोग करते हैं और देखते हैं कि वे युवा हैं, तो तुम सोचते हो, “तुम कुछ नहीं समझते। मैं तुम्हें सता सकता हूँ, और तुम इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते। मैं तुमसे अधिक मजबूत हूँ और फायदे में हूँ; मैं तुमसे बड़ा हूँ और मेरे मुक्के में ताकत है—इसलिए मैं तुम्हें सता सकता हूँ।” वह किस सहारे जी रहा है? यह मुक्के के सहारे जीना है; यह एक दुष्ट स्वभाव द्वारा जीना और कार्य करना है। जब वे किसी निष्कपट मनुष्य को देखते हैं, तो उस पर धौंस जमाते हैं, और जब किसी ताकतवर व्यक्ति को देखते हैं, तो छिप जाते हैं। वे कमजोरों को शिकार बनाते हैं और ताकतवरों से डरते हैं। कुछ बुरे लोग जब देखते हैं कि लोग उनसे दूर जा रहे हैं तो उन्हें अकेलेपन का डर सताता है, इसलिए वे कुछ भोले-भाले, डरपोक लोगों को अपने साथ जुड़ने और दोस्ती करने के लिए चुन लेते हैं। इस प्रकार वे अपनी शक्ति बढ़ाते हैं, फिर उन भोले-भाले, डरपोक लोगों का उपयोग अच्छे लोगों को पीड़ा देने, सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों पर हमला करने और उन सभी को पीड़ा देने के लिए करते हैं जो उनसे असंतुष्ट हैं या उनकी नहीं सुनते। इससे यह स्पष्ट है कि एक बुरे व्यक्ति की मंशा और उद्देश्य कुछ निष्कपट लोगों से मित्रता करना होता है। संक्षेप में, यदि तुम सत्य स्वीकार नहीं कर सकते या अपने व्यवहार और कार्यों में इस पर विचार नहीं कर सकते कि तुम बुरा कर रहे हो या अच्छा कर रहे हो, तो भले ही तुम एक अच्छे व्यक्ति हो या बुरे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, और भले ही तुमने कितने ही वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, तुम सच्चा पश्चात्ताप करने में सक्षम नहीं होगे। शायद तुम क्रूर स्वभाव वाले व्यक्ति नहीं हो—तुम केवल शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे हो। हो सकता है कि तुमने कोई बुराई न की हो, या शायद तुम्हारे कुछ कर्म अच्छे हों, लेकिन फिर भी तुम सत्य के अनुसार नहीं जी रहे हो। तुम उन चीजों के सहारे जी रहे हो जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। संक्षेप में, जब तक तुममें भ्रष्ट शैतानी स्वभाव है, तब तक भले ही तुमने कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया हो, तुम उन चीजों के सहारे जी रहे होगे जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। ये चीजें मूर्त हो सकती हैं, या वे अमूर्त हो सकती हैं; हो सकता है कि तुम उनके बारे में जानते हो, या हो सकता है कि तुम उनके बारे में बिल्कुल भी नहीं जानते हो; वे बाहर से आ सकती हैं, या वे ऐसी चीजें हो सकती हैं जिनकी तुम्हारे स्वभाव में गहरी, ठोस जड़ें हों—किसी भी स्थिति में, इनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है। वे सभी भ्रष्ट मानवजाति से ही उत्पन्न होती हैं—या सटीक रूप से कहें तो उनकी उत्पत्ति शैतान से होती है। तो जब लोग इन शैतानी चीजों के अनुसार जीते हैं, तो वे वास्तव में किस प्रकार की राह पर होते हैं? क्या वे परमेश्वर के मार्ग पर चल रहे हैं? हरगिज नहीं। यदि कोई अपने कार्यों और व्यवहारों में सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा है, तो साफ कहें तो वह एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभा रहा है। हो सकता है कि वे बाहर से कोई कर्तव्य निभा रहे हों, लेकिन कर्तव्य निभाने के मानक और उसके बीच कुछ दूरी होती है, मुख्य रूप से इसमें उनकी मंशाओं और लेन-देन की मिलावट होती है। हो सकता है कि वे कर्तव्य निभा रहे हों, लेकिन वे समर्पित या सिद्धांतवादी नहीं हैं, और उनके ऐसा करने से निश्चित रूप से व्यावहारिक परिणाम नहीं मिल रहे हैं। इससे यह साबित होता है कि अपने कर्तव्य-निर्वहन में वे वास्तव में बहुत-सी ऐसी चीजें कर रहे हैं, जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। इनमें से कोई भी चीज सत्य सिद्धांतों को नहीं छूती; वे सभी चीजें उस व्यक्ति की अपनी कल्पनाओं और प्राथमिकताओं के अनुसार की जाती हैं। इस तरह कर्तव्य निभाने से परमेश्वर की स्वीकृति कैसे मिल सकती है?

हम इन स्थितियों पर उनके सभी पहलुओं में सहभागिता करते रहे हैं। क्या अब तुम लोग माप सकते हो कि तुम किसके अनुसार जी रहे हो? चाहे अपना कर्तव्य निभाते हुए या अपने दैनिक जीवन में, क्या तुम लोग अधिकांश समय सत्य के अनुसार जीते हो? (नहीं।) मैं हमेशा हमारी संगति में तुम लोगों को तुम्हारे मूल तक उजागर कर रहा हूँ, और तुम्हें महसूस हो रहा है कि तुम लज्जाजनक जीवन जी रहे हो। तुमने अपना आत्मविश्वास खो दिया है; अब तुम इतने आकर्षक नहीं रहे। और ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिनके बारे में बात करने में तुम्हें शर्मिंदगी होती है—अब तुम्हें आशीष पाना या भविष्य में किसी अच्छे गंतव्य पर जाना उतना न्यायसंगत महसूस नहीं होता। उसके बारे में क्या किया जाना चाहिए? क्या तुम जैसे हो वैसे तुम्हें बेनकाब करना अच्छी बात है? (हाँ।) तो फिर तुम्हें मूल तक उजागर करने का उद्देश्य क्या है? लोगों को इस बात की स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए कि वे किस प्रकार की स्थितियों में जी रहे हैं, वे किन स्थितियों में जी रहे हैं; उन्हें इस बात का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए कि वे किस रास्ते पर चल रहे हैं, उनके जीवन जीने का तरीका क्या है, उनके कौन-से व्यवहार असामान्य हैं, वे कौन-से अनुचित काम करते हैं, क्या उसी तरह जीते हुए वे सत्य प्राप्त कर सकते हैं और परमेश्वर के सामने आ सकते हैं। ये सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं। तुम कह सकते हो, “मैं कैसे जी रहा हूँ, इसके बारे में मेरी अंतरात्मा स्पष्ट है। मैंने इसके बारे में कभी भी अशांत या दुखी महसूस नहीं किया है, और मैंने कभी खोखला महसूस नहीं किया है।” पर इसका क्या परिणाम होता है? परमेश्वर की नाराजगी। तुम उसके मार्ग का अनुसरण नहीं कर रहे हो। तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह मानव जीवन का सच्चा मार्ग नहीं है, वह मार्ग जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए इंगित किया है—इसके बजाय तुम अपने खयाली पुलाव में उस मार्ग पर चल रहे हो जिसे तुमने अपनी कल्पनाओं में पाया है। हालाँकि तुम बहुत खुशी में मस्त हो और काफी भाग-दौड़ करते रहे हो, आखिर अंत में तुम्हारा परिणाम क्या होगा? तुम्हारे इरादे और इच्छाएँ और जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो, वही तुम्हें नुकसान पहुँचाएँगे और तुम्हें बर्बादी की ओर ले जाएँगे—परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास विफल होने के लिए अभिशप्त है। परमेश्वर में किसी का विश्वास विफल होने का क्या अर्थ होता है? (कि उनका कोई परिणाम नहीं होगा।) इसे अभी देखें तो यह तुम्हारे द्वारा सत्य प्राप्त न कर पाने का परिणाम होगा। तुमने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया होगा, लेकिन सत्य प्राप्त करने पर ध्यान लगाए बिना किया होगा, और इसलिए वह दिन आएगा जब किसी न किसी कारण से तुम्हें प्रकट कर हटा दिया जाएगा। और फिर पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। तुम कहते हो, “यह मेरे लिए जीने का उचित तरीका है! मुझे इसी तरह जीने में आत्मविश्वास महसूस होता है, और मैं संतुष्ट और दिल से अमीर हूँ।” तो क्या इससे मदद मिलेगी? तुम परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर जिस तरीके से चलते हो और जिस तरीके से जीते हो, उसका औचित्य और तुम जिन चीजों के अनुसार जीते हो वे सही हैं या नहीं, यह परिणामों पर निर्भर करता है। यानी, वे इस बात पर निर्भर करती हैं कि तुम अंत में सत्य प्राप्त करते हो या नहीं, क्या तुम्हारे पास सच्ची गवाही है, क्या तुम्हारा जीवन स्वभाव बदल जाता है, और क्या तुमने मूल्यों वाला जीवन जिया है। यदि तुमने ये सभी परिणाम प्राप्त कर लिए हैं, तो तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सराहना मिलेगी, जो साबित करता है कि तुम सही रास्ते पर हो। यदि तुमने ये सकारात्मक परिणाम प्राप्त नहीं किए हैं, और तुम्हारे पास न कोई सच्ची अनुभवात्मक गवाही है और न तुम्हारे जीवन स्वभाव में कोई सच्चा परिवर्तन है, तो इससे साबित होता है कि तुम सही रास्ते पर नहीं हो। ऐसे कहें तो क्या इसे समझना आसान है? संक्षेप में, तुम चाहे जैसे भी जियो, तुम जीवन में कितने भी आराम से रहो और चाहे तुम दूसरों से जो भी अनुमोदन प्राप्त करो, यह मामले की जड़ नहीं है। तुम कहते हो, “मैं जिस तरह रहता और अभ्यास करता हूँ उसमें आनंद लेने के लिए कितना कुछ है। मैं बहुत अच्छा, और सम्मानित महसूस करता हूँ, और इसकी पुष्टि भी होती है।” क्या तुम स्वयं को मूर्ख नहीं बना रहे हो? मान लो कोई तुमसे पूछता है, “क्या तुमने एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास किया है? उस अभ्यास में तुम्हारे लिए क्या चुनौतीपूर्ण रहा है? कौन-सी परिस्थितियाँ तुम्हें ईमानदार व्यक्ति बनना कठिन बनाती हैं? यदि तुम्हारे पास इसका अनुभव है तो इसके बारे में थोड़ी बात करो। क्या तुम्हारे पास परमेश्वर से प्रेम की गवाही है? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रति समर्पित होने का अनुभव है? क्या तुम्हें न्याय, ताड़ना, काट-छाँट स्वीकार करने के बाद अपने स्वभाव में बदलाव का अनुभव है? जीवन में विकास के पथ पर तुमने किन खास चीजों का अनुभव किया है, जिससे तुम्हारा जीवन लगातार बदलता रहा है, और परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो लक्ष्य निर्धारित किया है, उसके करीब बढ़ता रहा है, जिसे वह तुमसे पाने की अपेक्षा रखता है?” यदि तुम्हारे पास इन चीजों का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है, यदि तुम नहीं जानते, तो इससे यह साबित होता है कि तुम सही रास्ते पर नहीं हो। वह दिन के समान स्पष्ट है।

उपरोक्त संगति के वचन केवल साधारण कथन हैं। कुछ छोटे बिंदु हैं, जिन पर विस्तृत विवरण की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिए, लोग अपनी दृढ़ता से, या अपने दिल की अच्छाई से या कष्ट सहने के अपने संकल्प से या अपनी धारणाओं और कल्पनाओं इत्यादि से कार्य करते हैं—तो इनमें से कुछ भी सत्य के अनुसार जीना नहीं है। ये सभी उदाहरण अपने खयाली पुलाव, अपने भ्रष्ट स्वभावों, अपनी मानवीय अच्छाई और शैतान के फलसफे के अनुसार जीने वाले लोगों के हैं। ये सभी चीजें मनुष्य के मस्तिष्क से आती हैं, और भी आगे ले जाएँ तो शैतान से आती हैं। इन चीजों के अनुसार जीना परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकता। वह उन्हें नहीं चाहता, चाहे वे कितनी भी अच्छी क्यों न हों, क्योंकि यह सत्य का अभ्यास नहीं है। इन चीजों के अनुसार जीना शैतान के फलसफों और भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीना है। यह परमेश्वर का निरादर करना है। यह सच्ची गवाही नहीं है। यदि तुम कहते हो कि “मुझे पता है कि ये कार्य केवल दयालुता हैं, जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं; मुझे इस तरह अभ्यास नहीं करना चाहिए” और साथ ही तुम्हारे दिल में इसकी सही समझ हो, यह भावना हो कि इस तरह कार्य करना गलत है तो तुम्हें ज्ञान होगा। तुम्हारा परिप्रेक्ष्य बदल जाएगा। परमेश्वर यही परिणाम चाहता है। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारी विकृतियाँ कहाँ हैं। अपना परिप्रेक्ष्य बदलो और अपनी धारणाओं को त्याग दो, और सत्य और परमेश्वर के इरादों को समझो। एक बार जब तुम ऐसा कर लेते हो, तो उस दिशा में धीरे-धीरे अभ्यास करते रहो, और सही रास्ते पर आ जाओ। परमेश्वर ने तुमको जो लक्ष्य दिया है उसे प्राप्त करने की यही तुम्हारी एकमात्र आशा है। यदि तुम अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मार्ग पर प्रवेश नहीं करते, लेकिन कहते हो, “मैं यही करूँगा। ऐसा नहीं है कि मैं खाली बैठा हूँ : मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा हूँ। मुझे यकीन है कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, और मैंने अपने सृष्टिकर्ता को स्वीकार कर लिया है,” क्या यह मददगार होगा? नहीं, मददगार नहीं होगा। अड़ियल व्यक्ति, तुम परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहे हो! अब जीवन में मार्ग चुनने का समय आ गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि उस मार्ग का अनुसरण करने के लिए तुम्हें क्या करना है जिस पर चलने की अपेक्षा परमेश्वर तुमसे करता है। सबसे पहले, मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से काम न लो; दूसरा, मानवीय आकांक्षा से काम मत लो; तीसरा, मानवीय प्राथमिकताओं से काम न लो; और चौथा, मानवीय भावनात्मकता से काम न लो। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रष्ट स्वभाव से काम न लो। तुम्हें बिना समय गँवाए इन चीजों को त्याग देना चाहिए। परमेश्वर के लिए तुम्हारे पास जो भी पूँजी है, वह सारी की सारी बेकार सामान है, सस्ता कबाड़ है, वास्तविकता के बिल्कुल भी करीब तक नहीं है। तुम्हें उन चीजों को एक-एक करके फेंक देना चाहिए और उन सभी से छुटकारा पा लेना चाहिए और तुम अधिक से अधिक यह समझ सकोगे कि केवल वही चीज मूल्यवान है जो सत्य के अभ्यास पर भरोसा करके हासिल की जाती है और जो मनुष्य से परमेश्वर की माँगों के मानक के अनुरूप होती है। मनुष्य से जो कुछ भी आता है वह मूल्यहीन है—अंत में बेकार हो जाता है, चाहे तुम इसे जितना भी सीख लो। यह सब सस्ता कबाड़, कचरा है; केवल वह सत्य जो परमेश्वर मनुष्य को प्रदान करता है, वही खजाना और जीवन है। उसका मूल्य शाश्वत है। तुम हमेशा अपनी चीजों को थामे हुए सोचते हो, “मुझे अपना हुनर हासिल करने के लिए वर्षों कठिन अध्ययन करना पड़ा। मेरे माता-पिता ने मेरी ओर से ऐसे प्रयास किए, इतना पैसा खर्च किया और अपने हृदय के इतने अधिक रक्त को खपाया—मैं ऐसे ही उसका गहन-विश्लेषण और उसकी निंदा कैसे कर सकता हूँ? यह बहुत बड़ी बात है, जीवन और मृत्यु का मामला है! मैं उन चीजों के बिना किसके सहारे जियूँगा?” तुम कितने मूर्ख हो। उन चीजों के अनुसार जियोगे तो तुम्हारा नरक जाना तय है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना चाहिए। अपने जीने का तरीका बदलो; परमेश्वर के वचनों को अंदर आने दो और अपनी उन पुरानी चीजों को हटा दो। तुम्हें उनका गहन-विश्लेषण करके उन्हें जानना चाहिए, सभी को दिखाने के लिए उन्हें खोलना चाहिए, ताकि समूह भेद की पहचान कर सके। अनजाने ही तुम उन चीजों से घृणा करने लगोगे, उन चीजों से जिन्हें तुम कभी पसंद करते थे, उन चीजों से जिन पर तुम कभी जीवित रहने के लिए निर्भर थे, उन चीजों से जिन्हें तुम कभी अपना जीवन मानते थे, उन चीजों से जिन्हें तुमने सबसे अधिक सँजो कर रखा था। यह उन चीजों को अपने आप से पूरी तरह से अलग करने और काटने का तरीका है, सत्य की सच्ची समझ का मार्ग है, और सत्य का अभ्यास करने का मार्ग है। बेशक यह एक जटिल और कठिन प्रक्रिया है, और दर्दनाक भी है। लेकिन यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे मनुष्य को गुजरना ही होगा। न गुजरने से काम नहीं चलेगा। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना ऐसा है मानो किसी बीमारी का इलाज किया जा रहा हो : यदि तुम्हें ट्यूमर है, तो इससे निपटने का एकमात्र तरीका ऑपरेटिंग टेबल पर है। यदि तुम उस मेज पर नहीं जाते और उस चाकू के सामने समर्पण नहीं करते जो ट्यूमर का गहन-विश्लेषण करता है और उसे दूर करता है, तो तुम्हारी बीमारी ठीक नहीं होगी और तुम बेहतर नहीं होगे।

बहुत-से लोग ईमानदार लोगों को मूर्ख समझते हैं, सोचते हैं, “परमेश्वर जो भी कहता है वे उसका पालन करते हैं। वह कहता है कि ईमानदार व्यक्ति बनो, और वे वास्तव में ऐसा करते हैं; वे एक भी झूठा शब्द बोले बिना सच बोलते हैं। वे मूर्ख हैं, है न? तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो सकते हो, पर केवल तभी तक जब तक इससे तुम्हें कोई नुकसान या क्षति न हो। तुम सब कुछ यूँ ही नहीं कह सकते! सब कुछ जाहिर कर देना—यह मूर्खता है, है न?” वे सोचते हैं कि ईमानदार व्यक्ति होना मूर्खता है। क्या ऐसा है? ऐसा व्यक्ति सबसे चतुर होता है, क्योंकि उसका मानना है, “परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और ईमानदार व्यक्ति होना सत्य है, इसलिए परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए, लोगों को ईमानदार होना चाहिए। इसलिए जो कुछ परमेश्वर कहता है, मैं करता हूँ; जहाँ तक वह मुझे जाने देगा, मैं वहाँ तक जाऊँगा। परमेश्वर चाहता है कि मैं समर्पण करूँ, इसलिए मैं समर्पण करता हूँ, और मैं हमेशा समर्पण करता रहूँगा। अगर कोई कहता है कि मैं मूर्ख हूँ तो मुझे इसकी परवाह नहीं है—परमेश्वर की अनुमति ही मेरे लिए काफी है।” क्या ऐसा व्यक्ति सबसे चतुर नहीं है? उन्होंने सटीक रूप से देख लिया है कि क्या महत्वपूर्ण है और क्या नहीं। कुछ छिपे हुए एजेंडा वाले लोग होते हैं, जो सोचते हैं, “हर चीज के लिए समर्पण करना मूर्खता होगी, है न? ऐसा करना स्वायत्तता की कमी है, है न? जो खुद का न हो क्या उसके पास गरिमा होगी? निश्चित रूप से हमें अपने लिए थोड़ी गरिमा बनाए रखने की इजाजत मिलती है, है न? हम पूरी तरह से समर्पण नहीं कर सकते, है ना?” और इसलिए वे बहुत ही कम स्तरों पर समर्पण का अभ्यास करते हैं। क्या वह सत्य का अभ्यास करने के मानकों पर खरा उतर सकता है? नहीं—वह उससे कोसों दूर होता है! यदि तुम सिद्धांतों के अनुसार सत्य का अभ्यास नहीं करते, हमेशा समझौते के रास्ते चुनते हो, जो न तो सत्य की ओर जाते हैं और न शैतान की ओर, बल्कि बीच के रास्ते पर चलते हैं, तो क्या तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? यह शैतान का फलसफा है, वह चीज जिससे परमेश्वर सबसे अधिक घृणा करता है। परमेश्वर सत्य के प्रति मनुष्य के इस रवैये से घृणा करता है; वह इस बात से घृणा करता है कि लोगों को सत्य और उसके वचनों के बारे में हमेशा संदेह रहता है, कि वे हमेशा उसके वचनों के प्रति अविश्वास रखते हैं, या हमेशा भेदभावपूर्ण, तिरस्कारपूर्ण, अशिष्ट रवैया अपनाते हैं। जैसे ही तुम परमेश्वर के प्रति यह रवैया अपनाते हो, उस पर संदेह करते हो, अविश्वास करते हो, सवाल करते हो, विश्लेषण करते हो और उसे गलत समझते हो, हमेशा उसका अध्ययन करते हो और उसे अपने दिमाग से तौलने की कोशिश करते हो, तब परमेश्वर तुमसे छिपा रहेगा। और अगर परमेश्वर तुमसे छिपा रहे तो क्या तुम तब भी सत्य प्राप्त कर सकते हो? तुम कहते हो, “मैं प्राप्त कर सकता हूँ! मैं हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़ता हूँ, हर समय सभाओं में रहता हूँ, और हर हफ्ते धर्मोपदेश सुनता हूँ, और उन पर विचार करता हूँ और उसके बाद हर दिन नोट्स लेता हूँ। मैं भजन गाता हूँ और प्रार्थना भी करता हूँ। मुझे लगता है कि पवित्र आत्मा मुझमें काम कर रहा है।” क्या यह चलेगा? परमेश्वर में विश्वास करने के वो तरीके ठीक हैं, लेकिन वे महत्वपूर्ण नहीं हैं; महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम सही प्रकार के व्यक्ति हो, और तुम्हारा दिल सही है—केवल तभी परमेश्वर तुमसे अपना चेहरा नहीं छिपाएगा। परमेश्वर अपना चेहरा तुमसे न छिपाकर हर समय तुम्हें प्रबुद्ध कर मार्गदर्शन दे रहा है, और तुम्हें अपने इरादों और सभी चीजों में सत्य को समझने दे रहा है, ताकि तुम अंततः सत्य प्राप्त कर सको, और तुम्हें बड़े आशीष मिलें। लेकिन अगर तुम्हारा दिल सही नहीं है, और तुम हमेशा परमेश्वर पर संदेह करते हो, उसके खिलाफ रक्षात्मक होते हो, उसकी परीक्षा लेते हो, और अपनी तुच्छ चतुराई और राय, या अपनी सीख और शैतानी फलसफों से उसे गलत समझते हो, तो तुम मुसीबत में हो। कुछ लोग रक्षात्मकता, परीक्षण, संदेह और परमेश्वर के लिए गलतफहमी से भी आगे जाकर उसके खिलाफ प्रतिरोध और उसके साथ प्रतिद्वंद्विता तक पहुँच जाते हैं। वे शैतान बन गए हैं; वे बदतर मुसीबत में हैं। तुम केवल वचनों के शाब्दिक अर्थ और सरल धर्म-सिद्धांत को समझकर सत्य नहीं समझ पाओगे। सत्य को समझना कोई साधारण बात नहीं है। अधिकांश लोग इसी गलतफहमी के तहत श्रम करते हैं और बार-बार इस पर जोर देने के बाद भी वे इससे उबर नहीं पाते। वे सोचते हैं, “हर दिन मैं परमेश्वर के वचन पढ़ता हूँ और धर्मोपदेश और संगति सुनता हूँ, और मैं साल-दर-साल अपना कर्तव्य निभाता हूँ। मैं खेत में बीज की तरह हूँ—भले ही तुम इसे पानी या खाद न दो, यह बारिश के साथ धीरे-धीरे अपने आप बढ़ेगा, और शरद ऋतु में फल देगा।” यह ऐसे काम नहीं करता। किसी व्यक्ति का सहयोग करने वाला घटक, उनके सहयोग करने का तरीका, उनका हृदय और सत्य और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया अहम होते हैं। यही चीजें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। क्या ये चीजें इस बात से भी संबंधित नहीं हैं कि एक व्यक्ति किसके अनुसार जीता है? (वे संबंधित हैं।) यदि तुम हमेशा मानवीय प्राथमिकताओं और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो, हमेशा खुद को परमेश्वर से बचाते हो और उसके वचनों को सत्य के रूप में नहीं लेते, तो परमेश्वर अब तुम्हें लेकर परेशान नहीं होगा। और तब तुम क्या हासिल कर पाओगे, जब परमेश्वर को तुम्हारी चिंता नहीं होगी? यदि सृष्टिकर्ता तुम्हारी उपेक्षा करता है, तो तुम अब उसके सृजित प्राणी नहीं हो। यदि वह तुम्हें दानव और शैतान मानता है, तो क्या तुम तब भी परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होगे? क्या तुम तब भी उसके उद्धार का पात्र होगे? क्या तुम्हारे पास अब भी बचाए जाने की आशा होगी? यह असंभव होगा। इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा घरेलू जीवन कैसा है, या तुम्हारे पास किस प्रकार की काबिलियत है, या तुम्हारे गुण कितने महान हैं, न ही इससे फर्क पड़ता है कि तुम कलीसिया में क्या काम करते हो, क्या कर्तव्य निभाते हो, या तुम्हारी भूमिका क्या है। चाहे तुमने अतीत में किसी भी प्रकार के अपराध किए हों, या तुम वर्तमान में किसी भी प्रकार की स्थिति में हो, या तुम जीवन में किसी भी हद तक विकसित हुए हो, या तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना भी ऊँचा हो। इनमें से कोई भी सबसे महत्वपूर्ण नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता कैसा है, क्या तुम लगातार उस पर संदेह कर रहे हो और उसे गलत समझ रहे हो या हमेशा उसके बारे में अध्ययन कर रहे हो, क्या तुम्हारा हृदय सही है। ये बातें अहम हैं। लोग इन महत्वपूर्ण चीजों के बारे में कैसे जान सकते हैं? ऐसा करने के लिए उन्हें हमेशा खुद की जाँच करनी चाहिए, उन्हें गैर-विश्वासियों की तरह भ्रम में नहीं रहना चाहिए, और अविश्वासी दुनिया के वीडियो देखना, खेलना और जब करने को कुछ न हो तो फालतू के काम नहीं करने चाहिए। यदि किसी का हृदय परमेश्वर के सामने नहीं आ सकता तो वह अपना कर्तव्य कैसे निभाएगा? यदि तुम परमेश्वर के सामने आने का प्रयास नहीं करते, तो वह तुम्हें मजबूर नहीं करेगा क्योंकि परमेश्वर लोगों को काम करने के लिए मजबूर नहीं करता। परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है ताकि लोग उसे समझ सकें और स्वीकार कर सकें। यदि लोग परमेश्वर के समक्ष नहीं आते, तो वे सत्य को कैसे स्वीकार करेंगे? यदि लोग हमेशा निष्क्रिय रहते हैं, यदि वे परमेश्वर को नहीं खोजते या उनके हृदय में उसकी आवश्यकता नहीं है, तो पवित्र आत्मा उनमें कैसे कार्य करेगा? तो यह देखते हुए कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, क्या यह अहम नहीं है कि तुम्हें सक्रिय रूप से उसे खोजना चाहिए और उसके साथ सहयोग करना चाहिए? यह तुम्हारा काम है! यदि परमेश्वर में विश्वास तुम्हारे लिए केवल एक अतिरिक्त काम है, गैर-जरूरी शौक है, तो तुम मुसीबत में हो! ऐसे लोग हैं जो अब भी विश्वासी बने हुए हैं और उन्होंने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना धर्म में विश्वास करना है, कि यह उनके खाली समय का शौक है। वे परमेश्वर में आस्था को कितना तुच्छ मानते हैं! अब इस स्तर पर वे अभी भी यही दृष्टिकोण रखते हैं। परमेश्वर में अपने विश्वास में, वे बस उसके साथ सामान्य संबंध स्थापित करने में ही असफल नहीं हुए हैं—उनका उसके साथ कोई रिश्ता भी नहीं है। यदि परमेश्वर तुम्हें अपने अनुयायी के रूप में नहीं मानता, तो क्या तुम्हारे पास अभी भी बचाए जाने की आशा है? नहीं है। इसीलिए परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना महत्वपूर्ण है! तो फिर वह सामान्य संबंध किस आधार पर स्थापित होता है? लोगों को सहयोग करना होगा। तो लोगों को किस प्रकार का रुख या दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? उनकी मनोदशा क्या होनी चाहिए? उनके पास किस प्रकार का संकल्प होना चाहिए? तुम हृदय में सत्य के साथ कैसा व्यवहार करते हो? संदेह के साथ? अध्ययन के साथ? अविश्वास के साथ? अस्वीकृति के साथ? यदि तुम्हारे पास ये चीजें हैं तो क्या तुम दिल से सही हो? (नहीं।) यदि तुम दिल से सही होना चाहते हो, तो तुम्हारा रवैया किस प्रकार का होना चाहिए? तुम्हारे पास समर्पण वाला हृदय होना चाहिए। परमेश्वर जो भी कहता है, वह जो भी अपेक्षा रखता है, तुम्हें बिना किसी संदेह और बिना किसी औचित्य के, उसके प्रति समर्पण का इरादा रखना चाहिए। यही सही रवैया है। तुम्हें बिना किसी मोल-तोल के विश्वास करना, स्वीकार करना और समर्पण करना चाहिए। क्या छूट न लेना तुरंत संभव नहीं है? नहीं—लेकिन तुम्हें इसमें प्रवेश करने का प्रयास करना चाहिए। कल्पना करो यदि परमेश्वर तुमसे कहे, “तुम बीमार हो,” और तुम कहो, “नहीं, मैं बीमार नहीं हूँ।” वह कोई समस्या नहीं होगी; शायद तुम इस पर विश्वास न करो। लेकिन फिर परमेश्वर कहता है, “तुम काफी बीमार हो। कुछ दवाएँ ले लो,” और तुम कहते हो, “मैं बीमार नहीं हूँ, लेकिन तुम कह रहे हो तो मैं कुछ दवाएँ ले ही लेता हूँ। कुछ भी हो मुझे इससे कोई नुकसान नहीं होगा और अगर मैं बीमार हूँ, तो यह शायद बेहतरी के लिए ही होगा। मैं कुछ दवा ले लूँगा।” तुम इसे लेते हो, और तुम शारीरिक रूप से अलग महसूस करते हो; तुम इसे निर्धारित खुराक में लेते रहते हो, और थोड़ी देर बाद तुम खुद को शारीरिक रूप से बेहतर से बेहतर महसूस करते हो। फिर तुम्हें विश्वास होता है कि परमेश्वर ने जिस बीमारी के बारे में बात की थी वह असल में वास्तविक थी। इस प्रकार के अभ्यास से क्या परिणाम मिलता है? तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाती है क्योंकि तुमने विश्वास किया और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण किया। हालाँकि पहली बार तुमने उतनी दवाएँ नहीं लीं जितनी परमेश्वर ने तुमसे लेने को कहा था, बल्कि इसके बजाय तुमने अपने लिए कुछ छूट ले ली, और थोड़ा अविश्वास किया था, और थोड़े अनिच्छुक और विमुख थे, अंत में जैसा परमेश्वर ने तुमसे कहा था तुमने दवा ले ली, और बाद में इसके लाभों को महसूस किया। तो तुम इसे लेते गए, और जितना अधिक तुमने इसे लिया, तुम्हारी आस्था उतनी ही बढ़ती गई, और तुम्हें यह और भी महसूस होने लगा कि परमेश्वर के वचन सही थे और तुम गलत थे, और तुम्हें उसके वचनों पर संदेह नहीं करना चाहिए। और अंत में जब तुमने वे सभी दवाएँ ले लीं जो परमेश्वर ने तुमसे लेने की अपेक्षा की थी, तो तुम्हारी सेहत ठीक हो गई। उस समय क्या परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और भी अधिक सच्ची नहीं हो जाएगी? तुम जान लोगे कि परमेश्वर के वचन सही हैं, कि तुम्हें बिना कोई छूट लिए उसके प्रति समर्पण करना चाहिए और बिना छूट के उसके वचनों का अभ्यास करना चाहिए। इस उदाहरण का क्या मतलब है? इसमें तुम्हारी बीमारी का अर्थ मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है, और दवा लेना परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने को दर्शाता है। इसका मुख्य संदेश यह है कि यदि लोग परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर सकते हैं, तो उनकी भ्रष्टता शुद्ध हो सकती है और वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने से यही हासिल होता है। क्या तुम असफल होने से डरते हो? तुम कह सकते हो, “मुझे पूर्णता की खोज करनी है। परमेश्वर ने कहा कि मुझे बिना किसी छूट के पूर्ण समर्पण करना होगा। इसलिए पहली बार उनका अभ्यास करते हुए मुझे उसके वचनों के आगे पूर्ण समर्पण करना है। यदि मैं इस बार इसे हासिल नहीं कर पाया, तो मैं अगले अवसर की प्रतीक्षा करूँगा, और मैं इस बार समर्पण का अभ्यास नहीं करूँगा।” क्या यह अच्छा तरीका है? (नहीं।) परमेश्वर के लिहाज से लोगों द्वारा सत्य का अभ्यास करने की एक प्रक्रिया होती है। वह लोगों को मौके देता है। जब किसी की स्थिति भ्रष्ट होती है, तो परमेश्वर उसे उजागर करेगा और कहेगा, “तुमने छूट ली हैं, तुम समर्पित नहीं हो, तुम विद्रोही हो।” तो इसे उजागर करने में परमेश्वर का लक्ष्य क्या होता है? इसका मतलब यह है कि तुम कम से कम छूट लो, और अधिक से अधिक समर्पण का अभ्यास करो, और अपनी समझ को अधिक शुद्ध करो और सत्य के करीब लाओ, ताकि तुम सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सको। जब परमेश्वर तुम्हें उजागर कर रहा था तो क्या उसने तुम्हें दंडित किया था? जब वह तुम्हारी काट-छाँट करता है और तुम्हें परीक्षणों से गुजारता है, तो वह तुम्हें बस अनुशासित कर ताड़ना दे रहा होता है। तुम थोड़े उजागर किए जाते हो, तुम्हारी थोड़ी भर्त्सना की जाती है और थोड़ा दर्द महसूस कराया जाता है—लेकिन क्या परमेश्वर ने तुमसे तुम्हारा जीवन छीना? (नहीं।) उसने तुम्हारी जान नहीं ली, और उसने तुम्हें शैतान को नहीं सौंपा। इसमें उसका इरादा देखा जा सकता है। और उसका इरादा क्या है? वह तुम्हें बचाएगा। कभी-कभी थोड़ी कठिनाई के बाद लोग अनिच्छुक हो जाते हैं और सोचते हैं, “परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता। मेरे लिए कोई उम्मीद नहीं है।” यदि तुम हमेशा इसी तरह परमेश्वर को गलत समझते रहते हो तो तुम मुसीबत में हो। यह जीवन के तुम्हारे विकास में देरी है। तो चाहे जो भी समय हो, चाहे तुम कमजोर हो या मजबूत, चाहे तुम्हारी स्थिति अच्छी हो या खराब, जीवन में तुम्हारे विकास की सीमा कुछ भी हो—अब इन चीजों के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। केवल उन वचनों का अभ्यास करने की चिंता करो जो परमेश्वर ने कहे हैं, भले ही तुम उनका अभ्यास करने का केवल प्रयास कर रहे हो। वह भी ठीक है। सहयोग करने का भरपूर प्रयास करो और वह करो जो तुम करने में सक्षम हो; परमेश्वर के वचनों में बताई गई स्थिति में प्रवेश करो; देखो कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों का अभ्यास करना तुम्हारे लिए कैसा है, और क्या तुम्हें इससे फायदा हुआ है, और क्या तुम्हारे पास जीवन प्रवेश है। तुम्हें सत्य की ओर प्रयास करना सीखना चाहिए। लोग जीवन में विकास की प्रक्रिया नहीं समझते। वे हमेशा एक दिन में ताजमहल खड़ा करने की उम्मीद करते हैं, सोचते हैं, “अगर मैं पूर्ण समर्पण हासिल नहीं कर सकता, तो मैं समर्पण ही नहीं करूँगा। मैं केवल तभी समर्पण करूँगा जब मैं इसे पूरी तरह से कर पाऊँगा। मैं इसके बारे में बेशर्म नहीं बनूँगा। इससे पता चलता है कि मुझमें कितनी दृढ़ता, सत्यनिष्ठा और गरिमा है!” यह किस प्रकार की “दृढ़ता” है? यह विद्रोहीपन और दुराग्रह है!

अभी हमने जो संगति की है उस पर अच्छी तरह सोचो। हमने इस प्रश्न के चार उप-शीर्षकों पर अपनी संगति समाप्त की है कि “परमेश्वर में विश्वास के अपने वर्षों के दौरान लोग किसके सहारे जिए हैं?” वे जीने के लिए अपने गुणों पर भरोसा करते हैं; अपने ज्ञान पर; अपने खुले, बच्चों जैसे हृदयों पर; और शैतान के फलसफों पर। तुम लोगों ने इन चार स्थितियों के बारे में जो सुना है, क्या उसे समझते हो? क्या तुम देख सकते हो कि उनका क्या-क्या तुम्हारे भीतर है? क्या तुम इसे समझने में सक्षम हो? क्या हमने पहले इन चीजों के बारे में संगति की है? हो सकता है कि तुम्हारी कुछ स्थितियों पर पकड़ हो और तुम उनके बारे में कुछ जानते हो, लेकिन उस तरह से नहीं जो सत्य का अभ्यास करने या आज हमारी संगति के विषय से संबंधित हो। आज हमने “परमेश्वर में विश्वास के अपने वर्षों के दौरान लोग किसके सहारे जिए हैं?” के विषय और दृष्टिकोण से इन स्थितियों के बारे में संगति की है। यह सत्य का अभ्यास करने और उसके अनुसार जीने के थोड़ा करीब है। मेरा एक और सवाल है। इसे नोट कर लो। यह है : वे कौन-सी चीजें हैं जो तुम्हें सबसे अधिक पसंद हैं? जिन चीजों से तुम सबसे ज्यादा प्रेम करते हो, उनके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है? हम भविष्य में इस प्रश्न पर संगति के लिए समय निकालेंगे। आज हमने मुख्य रूप से कई नकारात्मक स्थितियों को उजागर किया है जिनका स्रोत यह है कि लोग किन चीजों के सहारे जीते हैं; हमने उन नकारात्मक स्थितियों के खास संदर्भ में सत्य का अभ्यास कैसे करें, इस पर संगति नहीं की। इस बारे में सहभागिता न करने के बावजूद क्या तुम लोग जानते हो कि इन स्थितियों में त्रुटियाँ कहाँ हैं? समस्याएँ कहाँ से उत्पन्न होती हैं? वे किस स्वभाव का हिस्सा हैं? सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए? जब ऐसी चीजें सामने आती हैं, जब तुम्हारी ऐसी स्थितियाँ और तुम्हारे ऐसे तरीके होते हैं, तो क्या तुम जानते हो कि तुम्हें उन्हें प्रतिस्थापित करने के लिए सत्य का उपयोग कैसे करना चाहिए? तुम्हें किन सत्यों का अभ्यास करना चाहिए? अब तुम्हें जो अहम, शुरुआती कार्य करना चाहिए वह इन स्थितियों को समझने और स्वयं का विश्लेषण करने से शुरू करना है। जब तुम इन स्थितियों में रहते हो, तो तुम्हें कम से कम अपने दिल में यह जानना चाहिए कि वे गलत हैं। यह जानने के बाद कि वे गलत हैं, अगला कदम उन्हें उलटना होता है। यदि तुम नहीं जानते कि वे सही हैं या गलत, न ही यह कि उनकी त्रुटियाँ कहाँ हैं, तो तुम उन्हें कैसे बदल सकते हो? तो सबसे पहला कदम तुम्हारे लिए यह भेद पहचानने में सक्षम होना है कि ये स्थितियाँ सही हैं या गलत। उसके बाद ही तुम जान सकते हो कि अगले कदम का अभ्यास कैसे किया जाए। हम आज मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट स्थितियों में से कुछ के मुद्दे पर ही संगति कर रहे हैं और कहने के लिए बहुत कुछ है। तो जहाँ तक उन विशिष्टताओं की बात है कि वास्तव में तुम लोग सत्य के अनुसार कैसे जी सकते हो, तो इस मुद्दे पर तुम लोग खुद और विचार करो। तुम परिणाम हासिल करने में सक्षम होगे।

5 सितंबर 2017

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