वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं? (भाग दो)
अभी मैंने मुख्य रूप से क्षमताओं और गुणों के बारे में बात की। क्या इन क्षमताओं और गुणों में ज्ञान भी शामिल है? क्या ज्ञान और क्षमताओं में कोई अंतर है? क्षमता का तात्पर्य कौशल से है। यह ऐसा क्षेत्र हो सकता है जहाँ कोई व्यक्ति दूसरों की तुलना में अधिक उत्कृष्ट है, उनकी काबिलियत का एक हिस्सा जो अधिक प्रमुख है, जिसमें वे सर्वश्रेष्ठ हैं, या वह कौशल जिसमें वे अपेक्षाकृत सक्षम और अच्छी तरह वाकिफ हैं। ये सभी क्षमताएँ और गुण कहलाते हैं। ज्ञान क्या है? ज्ञान वास्तव में किसको संदर्भित करता है? यदि किसी बुद्धिजीवी ने कई वर्षों तक अध्ययन किया है, कई क्लासिक्स पढ़े हैं, एक निश्चित पेशे या ज्ञान के क्षेत्र का बहुत गहराई से अध्ययन किया है, परिणाम प्राप्त किए हैं, और वह विशिष्ट और गहन निपुणता रखता है, तो क्या इसका क्षमताओं और गुणों से कोई लेना-देना है? क्या ज्ञान को क्षमताओं की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है? (नहीं।) यदि कोई व्यक्ति अपना काम करने के लिए क्षमताओं का उपयोग करता है, तो संभव है कि वह एक असंस्कृत और ग्रामीण व्यक्ति हो, कि उसके पास उन्नत शिक्षा का अभाव हो, उसने कोई प्रसिद्ध किताबें न पढ़ीं हों, या बाइबल भी न समझ पाए, लेकिन उनमें अभी भी थोड़ी काबिलियत हो सकती है और वे वाक्पटुता से बोलने में सक्षम हो सकते हैं। क्या यह कोई क्षमता है? (हाँ।) इस व्यक्ति के पास ऐसी क्षमता है। क्या इसका मतलब यह है कि उनके पास ज्ञान है? (नहीं।) तो ज्ञान का क्या अर्थ होता है? इसे कैसे परिभाषित किया जाता है? आओ इसे इस तरह से रखते हैं, उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति ने शिक्षा का अध्ययन किया है, तो क्या उसे इस पेशे का ज्ञान होता है? लोगों को कैसे शिक्षित किया जाए, दूसरों को ज्ञान कैसे प्रदान किया जाए, कौन-सा ज्ञान प्रदान किया जाए, इत्यादि जैसी चीजें? उन्हें इस क्षेत्र का ज्ञान है, तो क्या वे इस क्षेत्र के बुद्धिजीवी हैं? क्या उन्हें इस क्षेत्र में ज्ञान रखने वाला प्रतिभाशाली व्यक्ति कहा जा सकता है? (हाँ।) आओ इसे एक उदाहरण के रूप में उपयोग करते हैं, यदि कोई व्यक्ति शिक्षा में लगा हुआ बुद्धिजीवी है, तो ऐसा व्यक्ति काम करते हुए और कलीसिया की अगुआई करते समय आमतौर पर क्या करेगा? उनके सामान्य अभ्यास क्या हैं? क्या वे हर किसी से वैसे ही बात करते हैं जैसे एक शिक्षक छात्र से करता है? उनके बोलने का लहजा मायने नहीं रखता, मायने यह रखता है कि वे दूसरों के मन में क्या बिठाते हैं और दूसरों को क्या सिखाते हैं। वे वर्षों से इस ज्ञान के साथ जिए हैं, और यह ज्ञान मूल रूप से उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया है, इस हद तक कि उनके आचरण और संसार से निपटने के तरीके में या जीवन के हर पहलू में तुम देख सकते हो कि उनके पास यह ज्ञान है और जो ज्ञान उन्होंने अर्जित किया है, उसे वे जी रहे हैं। ये देखना बहुत ही सामान्य बात है। तो ऐसे लोग अक्सर अपना काम करने के लिए किस पर भरोसा करते हैं? उन्होंने जो ज्ञान अर्जित किया है उस पर। उदाहरण के लिए मान लो कि वे किसी को यह कहते हुए सुनते हैं, “मैं परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ सकता। मैं उन्हें वहीं रखता हूँ, लेकिन मैं बस यह नहीं जानता कि उन्हें कैसे पढ़ा जाए। यदि मैं परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ सकता, तो मुझे कैसे पता चलेगा कि सत्य क्या है? यदि मैं उसके वचनों को नहीं पढ़ सकता, तो मैं उसके इरादे कैसे समझ पाऊँगा?” वे कहते हैं, “मुझे पता है कि कैसे मेरे पास ज्ञान है, तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ। यह अध्याय चार अनुच्छेदों में विभाजित है। आमतौर पर यदि लेख एक कथा होती है, तो इसमें छह तत्व होते हैं : समय, स्थान, पात्र, घटना का कारण, विकास प्रक्रिया और निष्कर्ष। जिस समय परमेश्वर के वचन का यह अध्याय अक्टूबर 2011 के अंत में प्रकाशित हुआ था। यह पहला तत्व है। जहाँ तक पात्रों की बात है, परमेश्वर के वचन के इस अध्याय में ‘मैं’ का उल्लेख है, इसलिए पहला व्यक्ति परमेश्वर है, और फिर परमेश्वर ने ‘तुम लोगों’ का उल्लेख किया है, जो हमारे बारे में है। फिर यह कुछ लोगों की स्थितियों का विश्लेषण करता है; कुछ अवस्थाएँ विद्रोही और अहंकारी होती हैं, जिसका तात्पर्य उन लोगों से है जो अहंकारी और विद्रोही हैं, जो वास्तविक कार्य नहीं करते, जो शरारत करते हैं, भ्रष्ट और बुरे लोग हैं। चीजों का क्रम यह है कि लोग बुरे काम करते हैं। कुछ अन्य चीजें भी हैं जो विभिन्न पहलुओं से संबंधित हैं।” इस कार्य पद्धति के बारे में तुम क्या सोचते हो? यह अच्छी बात है कि वे इतने प्यार से लोगों की मदद करते हैं, पर उनके कार्यों का आधार क्या है? (ज्ञान।) मैं यह उदाहरण क्यों बता रहा हूँ? लोगों को अधिक स्पष्ट रूप से समझने में मदद करने के लिए कि ज्ञान क्या होता है। कुछ लोग परमेश्वर के वचन पढ़ना नहीं जानते, लेकिन उन्होंने शिक्षा प्राप्त की है और शायद स्कूल में मानविकी विषयों में अच्छा प्रदर्शन भी किया हो, इसलिए वे परमेश्वर के वचन का एक पृष्ठ खोल सकते हैं, पढ़कर कह सकते हैं, “परमेश्वर के वचन का यह अध्याय बहुत अच्छी तरह से व्यक्त किया गया है! पहले खंड में परमेश्वर सीधे बोलता है, और फिर दूसरे खंड में स्वर में थोड़ा प्रताप और क्रोध दिखता है। तीसरे खंड में सब कुछ विशिष्ट और स्पष्ट रूप से उजागर किया गया है। परमेश्वर का वचन ऐसा ही होना चाहिए। चौथा खंड सामान्य सारांश है, जो लोगों को अभ्यास का मार्ग देता है। परमेश्वर का वचन उत्तम है!” क्या उनका निष्कर्ष और परमेश्वर के वचन का सारांश ज्ञान से आता है? (हाँ।) हालाँकि हो सकता है कि यह उदाहरण बहुत उपयुक्त न हो, फिर भी ऐसा क्या है जो इसे कहकर मैं चाहता हूँ कि तुम लोग समझो? मैं चाहता हूँ कि तुम लोग परमेश्वर के वचन को सँभालने के लिए ज्ञान का उपयोग करने की कुरूपता को स्पष्ट रूप से देखो। यह घृणित है। ऐसे लोग परमेश्वर के वचन को पढ़ने के लिए ज्ञान पर भरोसा करते हैं, तो क्या वे काम करने के लिए सत्य पर भरोसा कर सकते हैं? (नहीं।) बिल्कुल नहीं।
जो लोग ज्ञान के आधार पर जीते हैं वे चीजें जैसे करते हैं, उसकी क्या विशेषताएँ होती हैं? सबसे पहले, उन्हें क्या लगता है कि उनके पास क्या श्रेष्ठताएँ हैं? उनका ज्ञान और सीख, यह तथ्य कि वे बुद्धिजीवी हैं, और यह तथ्य कि उन्होंने ज्ञान-आधारित उद्योगों में काम किया है। जब बुद्धिजीवी कोई काम करते हैं तो उनके पास बुद्धिजीवियों की शैली, विशेषताएँ और ढाँचे होते हैं, इसलिए वे जो काम करते हैं उसमें एक प्रकार की बौद्धिकता आ ही जाती है, जिससे अन्य लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। बुद्धिजीवी इसी तरह काम करते हैं; वे हमेशा उस बौद्धिकता के भाव पर ध्यान केंद्रित करते हैं। भले ही वे बाहर से कितने भी कमजोर और शांत क्यों न दिखाई दें, उनके अंदर की चीजें निश्चित रूप से कमजोर या शांत नहीं होतीं, और हर चीज पर उनका हमेशा अपना दृष्टिकोण होता है। हर चीज में वे हमेशा दिखावा करना चाहते हैं, अपनी क्षुद्र तिकड़मों का उपयोग करना चाहते हैं, और ज्ञान के दृष्टिकोणों, रवैयों और विचार के ढाँचों के आधार पर चीजों का विश्लेषण और प्रबंधन करना चाहते हैं। सत्य उनके लिए कुछ पराया होता है, और कुछ ऐसा होता है जिसे स्वीकार करना उनके लिए बहुत कठिन होता है। इसलिए ऐसे व्यक्ति का सत्य के प्रति पहला रवैया उसका विश्लेषण करने का होता है। उनके विश्लेषण का आधार क्या होता है? ज्ञान। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ। क्या निर्देशन की पढ़ाई कर चुके लोगों को निर्देशन का ज्ञान होता है? भले ही तुमने किताबों में व्यवस्थित रूप से निर्देशन का अध्ययन किया हो, या व्यावहारिक रूप से इसका अध्ययन किया हो और उस तरह का काम किया हो, संक्षेप में इस क्षेत्र में ज्ञान पर तुम्हारी पकड़ होती है। चाहे तुमने निर्देशन का गहराई से अध्ययन किया हो या केवल सतही तौर पर किया हो, यदि तुम गैर-विश्वासी दुनिया में निर्देशन के काम में लगे हुए थे, तो इस क्षेत्र में तुमने जो ज्ञान अर्जित किया है या निर्देशन के संबंध में तुम्हारा अनुभव बहुत उपयोगी और मूल्यवान होगा। हालाँकि, क्या इस प्रकार का ज्ञान रखने का मतलब यह है कि तुम निश्चित रूप से परमेश्वर के घर के फिल्म निर्माण कार्य में अच्छा प्रदर्शन करने में सक्षम होगे? क्या तुमने जो ज्ञान अर्जित किया है वह वास्तव में तुम्हें परमेश्वर की गवाही देने के लिए फिल्मों का उपयोग करने में मदद कर सकता है? जरूरी नहीं है। यदि पाठ्यपुस्तकों ने तुम्हें जो सिखाया है, और उद्योग के ज्ञान के नियम और अपेक्षाओं पर ही जोर देते रहते हो, तो क्या तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो? (नहीं।) क्या यहाँ विवाद या संघर्ष का कोई मुद्दा नहीं है? जब सत्य सिद्धांत ज्ञान के इस पहलू से टकराते हैं, तो तुम इसे कैसे हल करते हो? क्या तुम अपने ज्ञान को अपना मार्गदर्शक मानते हो, या सत्य के सिद्धांतों को? क्या तुम लोग गारंटी दे सकते हो कि तुम्हारे द्वारा फिल्माए गए प्रत्येक शॉट, प्रत्येक दृश्य और प्रत्येक फिल्म में कोई मिलावट नहीं है या इसमें तुम लोगों के ज्ञान की बहुत कम मिलावट है और यह पूरी तरह से परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के मानकों और सिद्धांतों के अनुरूप है? यदि यह संभव नहीं है, तो तुम्हारे द्वारा अर्जित कोई भी ज्ञान परमेश्वर के घर में काम नहीं आएगा। इस पर विचार करो कि ज्ञान का क्या उपयोग है? कौन-सा ज्ञान उपयोगी है? किस प्रकार का ज्ञान सत्य का खंडन करता है? ज्ञान लोगों के लिए क्या लाता है? जब लोग अधिक ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो क्या वे अधिक धर्मपरायण हो जाते हैं और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय अधिक होता है, या क्या वे अधिक अहंकारी और आत्म-तुष्ट हो जाते हैं? बहुत सारा ज्ञान प्राप्त करने के बाद लोग जटिल, हठधर्मी और अहंकारी हो जाते हैं। कुछ और भी घातक होता है जिसका शायद उन्हें एहसास नहीं है : जब लोग बहुत अधिक ज्ञान हासिल कर लेते हैं, तो वे अंदर से अराजक हो जाते हैं और सिद्धांतों से रहित हो जाते हैं और जितना अधिक वे ज्ञान हासिल करते हैं, उतने ही अधिक अराजक होते जाते हैं। क्या ज्ञान में इन सवालों के जवाब पाए जा सकते हैं कि लोग क्यों जीते हैं और मानव अस्तित्व का मूल्य और अर्थ क्या है? क्या यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लोग कहाँ से आते हैं और कहाँ जाते हैं? क्या ज्ञान तुम्हें बता सकता है कि तुम परमेश्वर से आए हो और परमेश्वर द्वारा बनाए गए हो? (नहीं।) तो वास्तव में वह क्या है जो ज्ञान के अध्ययन-क्षेत्र में आता है या जिसे ज्ञान लोगों के मन में बैठाता है? भौतिक चीजें, नास्तिक चीजें, जिन चीजों को लोग देख सकते हैं और मन की चीजें जिन्हें वे पहचान सकते हैं, जिनमें से कई लोगों की कल्पनाओं से उत्पन्न होती हैं और बिल्कुल व्यावहारिक नहीं हैं। ज्ञान लोगों के मन में फलसफे, विचारधाराएँ, सिद्धांत, प्राकृतिक नियम इत्यादि भी बिठाता है, फिर भी ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें वह स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकता। उदाहरण के लिए, गर्जना और बिजली कैसे बनती है, या मौसम क्यों बदलते हैं। क्या ज्ञान तुम्हें उनके सच्चे उत्तर दे सकता है? वर्तमान में क्यों जलवायु बदल रही है और असामान्य होती जा रही है? क्या ज्ञान इसे स्पष्ट रूप से समझा सकता है? क्या यह इस समस्या का समाधान कर सकता है? (नहीं।) यह तुम्हें सभी चीजों के स्रोत से संबंधित मुद्दों के बारे में नहीं बता सकता, इसलिए यह उन समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। ऐसे लोग भी हैं जो पूछते हैं, “कुछ लोग मरने के बाद फिर से जीवित क्यों हो जाते हैं?” क्या ज्ञान ने तुम्हें इसका उत्तर दिया है? (नहीं।) तो फिर वह ज्ञान तुम्हें क्या बताता है? यह लोगों को कई रीति-रिवाजों और विनियमों के बारे में बताता है। उदाहरण के लिए, यह विचार कि लोगों को बच्चों का पालन-पोषण करना चाहिए और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखानी चाहिए, मानव जीवन के बारे में एक प्रकार का ज्ञान है। यह ज्ञान कहाँ से आता है? यह पारंपरिक संस्कृति द्वारा सिखाया जाता है। तो फिर यह सारा ज्ञान लोगों के लिए क्या लेकर आता है? ज्ञान का सार क्या है? इस दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने क्लासिक्स पढ़े हैं, उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त की है, जो जानकार हैं, या जिन्होंने ज्ञान के एक विशेष क्षेत्र में महारत हासिल की है। तो क्या जीवन पथ पर ऐसे लोगों के पास सही दिशा और लक्ष्य होते हैं? क्या उनके पास स्व-आचरण के लिए कोई आधार रेखा और सिद्धांत हैं? इसके अलावा क्या वे परमेश्वर की आराधना करना जानते हैं? (वे नहीं जानते।) एक कदम आगे जाएँ, तो क्या वे सत्य के किसी तत्व को समझते हैं? (वे नहीं समझते।) तो ज्ञान क्या है? ज्ञान लोगों को क्या देता है? लोगों को शायद इसका थोड़ा बहुत अनुभव है। अतीत में जब उनके पास ज्ञान नहीं था, लोगों के आपसी संबंध सरल होते थे—क्या वे अब भी सरल हैं जब लोगों ने ज्ञान प्राप्त कर लिया है? ज्ञान लोगों को और अधिक जटिल बना देता है और वे शुद्ध नहीं रह जाते। ज्ञान के कारण लोगों में सामान्य मानवता की अधिक कमी हो जाती है और यह उन्हें जीवन के लक्ष्यों से वंचित कर देता है। लोग जितना अधिक ज्ञान अर्जित करते हैं, वे परमेश्वर से उतना ही दूर हो जाते हैं। जितना अधिक वे ज्ञान अर्जित करते हैं, उतना ही अधिक वे सत्य और परमेश्वर के वचन से इनकार करते हैं। लोगों के पास जितना अधिक ज्ञान होता है, वे उतने ही अधिक अतिवादी, जिद्दी और बेतुके हो जाते हैं। और परिणाम क्या होता है? दुनिया उत्तरोत्तर अंधकारमय और अधिकाधिक बुरी होती जाती है।
हमने अभी जिक्र किया है कि ज्ञान के अनुप्रयोग और सत्य सिद्धांतों के बीच संघर्ष या टकराव उत्पन्न होने पर उन्हें कैसे हल करना है। जब भी तुम लोग ऐसी स्थिति में होते हो तो तुम क्या करते हो? तुममें से कुछ धर्म-सिद्धांत प्रस्तुत करेंगे : “सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में क्या कठिनाई आती है? ऐसा क्या है जिसे छोड़ा नहीं जा सकता?” लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम पहले की तरह अपनी इच्छा, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के सहारे आगे बढ़ते हो, और हालाँकि ऐसे समय भी आ सकते हैं जब तुम सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहते हो, लेकिन चाहे कुछ भी हो जाए, तुम ऐसा कर नहीं पाते। हर कोई जानता है कि धर्म-सिद्धांत की नजर से सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना सही है; वे जानते हैं कि ज्ञान निश्चित रूप से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होगा और जब दोनों में संघर्ष या भीषण अंदरूनी लड़ाई होती है, तो उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना शुरू करना होगा और अपने ज्ञान को छोड़ना पड़ेगा। लेकिन क्या यह इतना सरल, तथ्यात्मक मामला है? (नहीं।) नहीं, यह इतना आसान नहीं है। तो अभ्यास करते समय क्या कठिनाइयाँ आती हैं? सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए किसी को कैसे अभ्यास करना चाहिए? ये व्यावहारिक समस्याएँ हैं, है न? उनका समाधान कैसे किया जाना चाहिए? सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण बात, व्यक्ति को समर्पण करना चाहिए। लेकिन लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है, और कभी-कभी वे खुद को समर्पण के लिए तैयार नहीं कर पाते। वे कहते हैं, “‘आप घोड़े को पानी तक ले जा सकते हैं, लेकिन आप उसे पानी पिला नहीं सकते’—मुझसे समर्पण करवाने की कोशिश करना ऐसा ही एक मामला है, है न? ज्ञान के बलबूते काम करने में क्या बुराई है? यदि तुम इस बात पर जोर देते हो कि मैं सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करूँ, तो मैं समर्पण नहीं करूँगा।” जब एक विद्रोही स्वभाव परेशानी पैदा करने वाला होता है, तो ऐसे समय में तुम क्या करते हो? (प्रार्थना करते हैं।) कभी-कभी प्रार्थना समस्या का समाधान नहीं कर सकती। प्रार्थना करने के बाद तुम्हारा रवैया और मानसिकता थोड़ी बेहतर हो सकती है, और तुम अपनी अवस्था का कुछ हिस्सा बदल सकते हो, लेकिन यदि तुम संबंधित सत्य सिद्धांतों को नहीं समझते या उनके बारे में तुममें स्पष्टता की कमी है, तो हो सकता है कि तुम्हारा समर्पण महज औपचारिकता से अधिक कुछ न रहे। ऐसे समय में तुम्हें सत्य समझने, संबंधित सत्य तलाशने और यह जानने में सक्षम होने का प्रयास करना चाहिए कि तुम जो कर रहे हो वह परमेश्वर के घर के काम, उसकी गवाही और उसके वचनों के प्रसार को कैसे लाभ पहुँचाता है। तुम्हें इन चीजों के बारे में दिल से स्पष्ट होना चाहिए। तुम्हारा कर्तव्य जो भी हो, तुम जो भी कर रहे हो, तुम्हें परमेश्वर के घर के काम और हितों, परमेश्वर के वचनों का प्रसार करने या कर्तव्य को पूरा करने से क्या सिद्ध होना है, इसके बारे में सोचकर शुरुआत करनी चाहिए। वह पहले आता है। इसके बारे में कभी अस्पष्टता और समझौते की गुंजाइश नहीं होती। यदि तुम ऐसे समय में समझौता करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य ईमानदारी से नहीं निभा रहे हो, और तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो—और इससे भी बुरी बात, यह कहना उचित है कि तुम अपने ही उद्यम में लगे हुए हो। तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के बजाय अपने लिए काम कर रहे हो। यदि कोई परमेश्वर के आदेश को पूरा करने वाला हो और मनुष्य के कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने वाला हो, तो उसे सबसे पहले जिस सत्य को समझना और अभ्यास करना चाहिए वह यह है कि उसे परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करना होगा। तुम्हारे पास यह दर्शन होना चाहिए। कर्तव्य पालन का मतलब अपने लिए कुछ करना या अपने उद्यम में लगना नहीं होता, खुद की गवाही देना और खुद को बढ़ावा देना तो बिल्कुल भी नहीं होता, न ही यह तुम्हारी शोहरत, फायदे और रुतबे के बारे में होता है। यह तुम्हारा लक्ष्य नहीं है। इसके बजाय यह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर की गवाही देने के बारे में होता है; यह अपनी जिम्मेदारी लेने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के बारे में होता है; यह सामान्य मानवता की अंतरात्मा और विवेक को जीने, एक इंसान की अनुरूपता के साथ जीने और परमेश्वर के समक्ष जीने के बारे में होता है। इस प्रकार की सही मानसिकता के साथ कोई भी व्यक्ति अपने ज्ञान के आधार पर जीवन जीने की बाधाओं पर आसानी से काबू पा सकता है। यदि कुछ चुनौतियाँ बनी भी रहती हैं, तो वे धीरे-धीरे इस पूरी प्रक्रिया में रूपांतरित हो जाएँगी और परिस्थितियाँ बेहतरी के लिए बदल जाएँगी। तो वर्तमान में तुम लोगों का अनुभव कैसा है? क्या यह बेहतर हो रहा है, या यह स्थिर है? यदि तुम लोग हमेशा ज्ञान और अपने मस्तिष्क से कार्य करते हो, और कभी भी सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते, तो क्या तुम जीवन में विकास कर पाओगे? क्या तुम लोग इस बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुँचे हो? ऐसा लगता है कि तुम सभी लोग अभी भी जीवन प्रवेश के मामले में काफी भ्रमित हो और तुम्हारे पास इसके लिए विशिष्ट सिद्धांत नहीं हैं, जिसका अर्थ यह है कि तुम्हारे पास सत्य के अभ्यास के सिद्धांतों और मार्ग का गहरा या अधिक सच्चा अनुभव नहीं है। कुछ लोग हमेशा अपने ज्ञान से काम लेते हैं, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए। वे साधारण मामलों में केवल कुछ सत्य सिद्धांतों को सतही तौर पर कायम रखते हैं, अपने ज्ञान को हर समय आगे रहने देते हैं, जबकि सत्य सिद्धांतों को उनके नीचे रखते हैं। वे इस प्रकार के बीच के समझौतावादी तरीके से अभ्यास करते हैं; वे स्वयं से कड़ाई के साथ पूर्ण समर्पण करने या पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने की अपेक्षा नहीं करते। क्या उनका यह करना सही है, या नहीं? इस तरह के अभ्यास में खतरा क्या है? क्या इसमें मार्ग से भटकने की संभावना नहीं है? परमेश्वर का विरोध और उसके स्वभाव को नाराज करने की संभावना नहीं है? यही वह चीज है जिसका लोगों को सबसे अधिक पता लगाना चाहिए। क्या अब तुम लोगों को यह स्पष्ट हो गया है कि परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने और नौकरी पाकर संसार में जैसे-तैसे जीवन जीने के बीच क्या अंतर होता है? क्या तुम्हारे हृदय में इसके बारे में स्पष्ट जागरूकता है? तुम लोगों को इस मुद्दे पर बार-बार सोचना और विचार करना चाहिए। दोनों के बीच सबसे बड़ा अंतर क्या है? क्या तुम जानते हो? (परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाना सत्य को प्राप्त करने और हमारे भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव लाने के बारे में होता है; दुनिया में नौकरी प्राप्त करना देह के जीवन के बारे में होता है।) काफी हद तक सही है, लेकिन एक बात है जिसका तुमने उल्लेख नहीं किया है : परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाना सत्य के अनुसार जीना होता है। सत्य के अनुसार जीने की क्या अहमियत होती है? लोगों के लिए इसकी अहमियत यह है कि उनका स्वभाव बदल सकता है, और अंत में उन्हें बचाया जा सकता है; परमेश्वर के लिए यह है कि वह तुम्हें, एक सृजित प्राणी को प्राप्त कर सकता है, और स्वीकार कर सकता है कि तुम उसकी सृष्टि हो। तो जब लोगों को दुनिया में नौकरी मिल जाती है तो वे किस आधार पर जीते हैं? (शैतान के फलसफों से।) शैतान के फलसफों से जीते हैं—सामूहिक रूप से इसका मतलब यह होता है कि वे शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं। यह वही बात है, चाहे तुम शोहरत, लाभ, और रुतबे के पीछे भागो, या दौलत के पीछे, या दिन गुजारते हुए जीवित रहने का प्रयास कर रहे हो—तुम भ्रष्ट स्वभावों के साथ जी रहे हो। जब तुम्हें दुनिया में कोई काम मिलता है, तो तुम्हें पैसा कमाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। शोहरत, लाभ और रुतबे की सीढ़ी पर चढ़ने के लिए, तुम्हें पूरी तरह से प्रतिस्पर्धा, लड़ाई, संघर्ष, निर्दयता, द्वेष और हत्या जैसी चीजों पर निर्भर रहना होता है—अपने पैरों पर खड़े रहने का यही एकमात्र तरीका होता है। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना पड़ेगा और सत्य समझना होगा। नकारात्मक चीजें जो शैतानी हैं वे बस बेकार ही नहीं हैं—उन्हें त्याग भी देना चाहिए। एक भी शैतानी चीज तर्कसंगत नहीं है। यदि कोई शैतानी चीजों के अनुसार जीता है, तो उसका न्याय करके उसे ताड़ना दी जाएगी; यदि कोई शैतानी चीजों के अनुसार जीता है और पछतावा न करने पर अड़ा है, तो उसे हटा दिया जाएगा और ठुकरा दिया जाएगा। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने और दुनिया में काम पाने के बीच यही सबसे बड़ा अंतर है।
जब लोग अपने ज्ञान से जीते हैं, तो वे किस प्रकार की स्थिति में रह रहे होते हैं? ऐसा क्या है जिसे वे सबसे अधिक गहराई से अनुभव करते हैं? जैसे ही तुम किसी क्षेत्र में कुछ सीखते हो, तुम्हें लगता है कि तुम सक्षम हो, कि तुम जबरदस्त हो—और परिणामस्वरूप फिर तुम अपने ही ज्ञान से बँध जाते हो। तुमने ज्ञान को अपने जीवन के रूप में ले लिया है, और जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो तुम्हारा वह ज्ञान उभरकर सामने आ जाता है, जो निर्देश देता है कि ऐसा-ऐसा करो। तुम इसे छोड़ना चाहते हो, लेकिन ऐसा कर नहीं पाते, क्योंकि यह तुम्हारे दिल में बस गया है और कोई भी चीज इसकी जगह नहीं ले सकती। “पहला प्रभाव ही अंतिम प्रभाव होता है” का यही अर्थ है। ज्ञान के कुछ निकाय ऐसे होते हैं जिनका अध्ययन न ही किया जाए तो बेहतर होगा। उन्हें सीखना एक बोझ, और एक सिरदर्द होता है। ज्ञान में कई क्षेत्र शामिल हैं : शिक्षा, कानून, साहित्य, गणित, चिकित्सा, जीव विज्ञान इत्यादि, जो सभी लोगों के व्यावहारिक अनुभव से प्राप्त होते हैं। ये व्यावहारिक ज्ञान के रूप हैं; लोग उनके बिना नहीं रह सकते, और उन्हें उनका अध्ययन करना चाहिए। लेकिन ज्ञान के कुछ रूप ऐसे हैं जो मानवजाति के लिए जहरीले हैं—वे शैतानी जहर हैं, वे शैतान की ओर से आते हैं। उदाहरण के लिए सामाजिक विज्ञान को ले लो, जिसकी शिक्षाओं में नास्तिकता, भौतिकवाद और विकासवाद, साथ ही कन्फ्यूशीवाद, साम्यवाद और सामंती अंधविश्वास जैसी चीजें शामिल हैं : ये सभी ज्ञान के नकारात्मक रूप हैं जो शैतान की ओर से आते हैं और वे जो मुख्य उद्देश्य पूरा करते हैं वह मानव विचारों को संक्रमित करने, क्षरण करने और विकृत करने, लोगों की सोच को बाँधने और नियंत्रित करने, लोगों को भ्रष्ट करने, नुकसान पहुँचाने और नष्ट करने के लिए होता है। उदाहरण के लिए परिवार के नाम को आगे बढ़ाना, और मातृ-पितृ भक्ति, और अपने परिवार का महिमामंडन करना, और यह सूत्र जो चलता है, “स्वयं को विकसित करो, अपने परिवार को व्यवस्थित करो, राष्ट्र पर शासन करो, और दुनिया में शांति लाओ”—ये सभी पारंपरिक संस्कृति की शिक्षाएँ हैं। और इनसे परे नागरिक समाज में प्रचलित बौद्ध धर्म, ताओवाद और आधुनिक धर्म के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत हैं। ये भी ज्ञान के दायरे में आते हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोगों ने पादरी या प्रचारक के रूप में कार्य किया है, या उन्होंने धर्मशास्त्र का अध्ययन किया है। ऐसा ज्ञान प्राप्त करने से क्या होता है? क्या यह आशीष है या अभिशाप? (एक अभिशाप।) यह अभिशाप कैसे बनता है? यदि ऐसे लोग बात नहीं करते तब तक ठीक रहता है—लेकिन जब वे अपना मुँह खोलते हैं, तो धार्मिक सिद्धांत ही बाहर आते हैं। वे सदैव आध्यात्मिक सिद्धांत का प्रचार करने का प्रयास करते हैं; वे लोगों को सत्य समझने देने के बजाय उनके मन में फरीसियों के पाखंडी तरीके बिठाते रहते हैं। धर्मशास्त्रीय ज्ञान मुख्य रूप से धर्मशास्त्रीय सिद्धांत के बारे में होता है। धर्मशास्त्रीय सिद्धांत की सबसे उल्लेखनीय विशेषता क्या होती है? यह लोगों के मन में ऐसी चीजें बिठाता है जिन्हें वे आध्यात्मिक मानते हैं, और एक बार जब लोग ऐसी छद्म-आध्यात्मिक चीजों को अपना लेते हैं, तो यह उनके मन में पहली और आखिरी छाप होती है। भले ही तुमने परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए वचन सुने हों, तुम उन्हें उस पल समझ नहीं पाओगे, और तुम फरीसियों के ज्ञान और सिद्धांतों से बाधित रहोगे। यह बहुत खतरनाक बात है। क्या ऐसे व्यक्ति के लिए सत्य को स्वीकार करना कठिन नहीं होगा? सार रूप में, यदि तुम सिद्धांत और ज्ञान के अनुसार जीते हो, और यदि तुम अपना कर्तव्य निभाते हो और अपने गुणों पर भरोसा करते हुए कार्य करते हो, तो तुम दूसरों की नजरों में कुछ अच्छे काम करने में सक्षम हो सकते हो। लेकिन जब तुम उस स्थिति में रह रहे होते हो, तो क्या तुम इसे जानते हो? क्या तुम पहचान सकते हो कि तुम अपने ज्ञान से जी रहे हो? क्या तुम महसूस कर सकते हो कि ज्ञान के द्वारा जीने के क्या परिणाम हो सकते हैं? क्या तुम्हारे हृदय में एक खोखली भावना, यह भावना घर नहीं कर लेती कि ऐसे जीवन का कोई महत्व नहीं है? और आखिर ऐसा क्यों है? इन सवालों का समाधान होना चाहिए। ज्ञान के मुद्दे पर हम यहीं हैं।
हमने अभी ज्ञान और गुणों के मुद्दों पर चर्चा की है। एक और मुद्दा है : बहुत-से लोग परमेश्वर में अपने प्रारंभिक विश्वास से लेकर आज तक बिना यह जाने ही आ गए हैं कि सत्य क्या है, या वे इसका अभ्यास और अनुसरण कैसे करें। वे इस पूरे समय एक दृढ़ विश्वास, या मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर जी रहे होते हैं। सीधे शब्दों में कहें, तो वे उन चीजों के अनुसार जीते हैं जिन्हें वे सही मानते हैं। वे जुनूनी ढंग से इन चीजों से चिपके रहते हैं और यहाँ तक कि उन्हें सत्य भी मान लेते हैं। वे सोचते हैं कि अगर वे अंत तक अपने अभ्यास में बने रहेंगे, वे विजेता होंगे, और वे आगे भी बचे रहेंगे। ऐसी धारणा के आधार पर वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। वे कष्ट सह सकते हैं, और अपने परिवार और करियर को छोड़ सकते हैं, और उन चीजों को छोड़ सकते हैं जिनसे उन्हें प्यार है—और वे चीजों को सार रूप में कुछ विनियमों में प्रस्तुत कर देते हैं, जिनका वे इस तरह अभ्यास करते हैं जैसे वे सत्य हों। उदाहरण के लिए जब वे देखते हैं कि किसी व्यक्ति का कठिन समय चल रहा है, या किसी का परिवार कठिन दौर से गुजर रहा है, तो वे आगे बढ़कर उनकी मदद करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेते हैं। वे उनका हालचाल पूछते हैं, उनका खयाल रखते हैं और उनकी देखभाल करते हैं। जहाँ गंदा या कठिन काम करना होता है, वे सक्रिय रूप से जाएँगे और उसे करेंगे। गंदगी और माँगों से उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। वे मीन-मेख नहीं निकालते। वे दूसरों से पेश आते हुए बहस नहीं करते, और वे हर किसी के साथ सौहार्दपूर्ण समझौते तक पहुँचने की पूरी कोशिश करते हैं। वे दूसरों के साथ झगड़ा नहीं करते, और लोगों के प्रति परोपकारी और सहनशील होना सीखते हैं, इस तरह कि जो कोई उनके साथ समय बिताता है वह कहेगा कि वे अच्छे इंसान और सच्चे विश्वासी हैं। जब परमेश्वर की बात आती है, तो वे वही करते हैं जो वह उनसे करवाता है और जहाँ भी वह उन्हें जाने के लिए कहता है वे चले जाते हैं। वे विरोध नहीं करते। वे किस आधार पर जी रहे हैं? (उत्साह।) यह केवल उत्साह का सरल रूप नहीं है—वे ऐसे विश्वास के साथ जी रहे हैं जिसे वे सही समझते हैं। ऐसे लोग वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी सत्य नहीं समझेंगे, न ही यह जानेंगे कि सत्य का अभ्यास करना क्या होता है, या परमेश्वर के प्रति समर्पण क्या होता है, या परमेश्वर को संतुष्ट करना क्या होता है, या सत्य की खोज करना क्या होता है, या सत्य सिद्धांत क्या हैं। वे ये बातें नहीं जानेंगे। उन्हें यह भी पता नहीं होगा कि एक ईमानदार व्यक्ति क्या होता है या ईमानदार व्यक्ति कैसे बनें। उनका मानना होता है, “मुझे बस इसी तरह जीना है और अनुसरण करते रहना है। परमेश्वर का घर चाहे जो भी धर्मोपदेश दे, मैं काम करने के अपने तरीकों पर दृढ़ता से कायम रहूँगा; परमेश्वर मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करे, मैं उसमें अपना विश्वास नहीं छोड़ूँगा या उसे नहीं छोड़ूँगा। मुझसे जो भी कर्तव्य कहा जाए, मैं उसे निभा सकता हूँ।” उनकी यह धारणा होती है कि इस तरह अभ्यास करने से उन्हें बचाया जा सकता है। हालाँकि कितने अफसोस की बात है कि उनके रवैये में कोई बड़ी समस्या न होने के बावजूद, इतने सालों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद भी वे कोई भी सत्य नहीं समझते। वे समर्पण का सत्य नहीं समझते या यह नहीं जानते कि इसका अभ्यास कैसे किया जाए, वे एक ईमानदार व्यक्ति होने का सत्य नहीं समझते या समर्पित रूप से अपने कर्तव्य निभाने का सत्य नहीं समझते या नहीं जानते कि अनमना होने का क्या मतलब होता है। वे नहीं जानते कि वे झूठ बोलते हैं या धोखेबाज व्यक्ति हैं। क्या ऐसे लोग दया के पात्र नहीं हैं? (वे हैं।) वे किस आधार पर जीते हैं? क्या यह कहा जा सकता है कि वे अपने खुले, बच्चों जैसे हृदय से जी रहे हैं? ऐसा क्यों कहा जा सकता है? क्योंकि जैसा कि वे मानते हैं, “मेरा हृदय खुला है ताकि ब्रह्मांड इसे देख सके। लोग इसे समझ नहीं पाते; वे इसे नहीं देख सकते—लेकिन स्वर्ग इसे जानता है।” उनका हृदय इतना “सच्चा” है : इसे कोई नहीं समझ सकता, और यह सभी की पहुँच से बाहर है। इसे खुला, बच्चों जैसा हृदय क्यों कहें? क्योंकि उनके पास एक प्रकार की मनोदशा, एक भाव होता है, और वे अपने उस व्यक्तिगत भाव या मनचाही सोच का उपयोग यह व्याख्या करने के लिए करते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले को क्या करना चाहिए और कर्तव्य क्या होता है। वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर भी ऐसे भाव लागू करते हैं। उनका मानना होता है, “परमेश्वर वास्तव में यह अपेक्षा नहीं रखता कि लोग कुछ करें, न ही यह कि उनके पास अधिक कौशल हो या वे अधिक सत्य समझें। किसी के लिए खुला, बच्चों जैसा हृदय होना ही काफी है। परमेश्वर में विश्वास करना बहुत सरल है—तुम्हें बस खुले, बच्चों जैसे हृदय की क्षमता के मुताबिक कार्य करते रहना है।” फिर भी न उनका झूठ रुकता है, न उनका प्रतिरोध, न उनका विद्रोहीपन, न उनकी धारणाएँ, न उनका विश्वासघात। वे जो कुछ भी करते हैं, उन्हें नहीं लगता कि यह मायने रखता है, बल्कि सोचते हैं, “मेरा हृदय परमेश्वर-प्रेमी है। कोई भी परमेश्वर के साथ मेरे रिश्ते को नहीं तोड़ सकता, कोई भी परमेश्वर के प्रति मेरे प्रेम को दबा नहीं सकता और कोई भी परमेश्वर के प्रति मेरी निष्ठा पर हावी नहीं हो सकता।” यह कैसी मानसिकता है? बेतुकी, है ना? यह बेतुकी है और यह दया के योग्य है। ऐसे व्यक्ति की आत्मा की एक अवस्था होती है—प्यासी, दरिद्र और दयनीय। “प्यासी” क्यों? क्योंकि जब उनका सामना किसी साधारण-सी चीज से होता है—उन्होंने झूठ बोला होता है, मान लो—वे इसे नहीं जानते या उन्हें इसका एहसास नहीं होता। उन्हें कोई आत्मग्लानि महसूस नहीं होती; उनमें किसी भी प्रकार की कोई भावना नहीं होती। वे अब तक अपने किसी भी काम में माप के लिए कठोर मानदंडों के बिना परमेश्वर का अनुसरण करते रहे हैं। वे नहीं जानते कि वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं, न ही वे जानते हैं कि वे धोखेबाज व्यक्ति हैं या क्या वे वास्तव में एक ईमानदार व्यक्ति बनने में सक्षम हैं, या क्या वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम हैं। वे इनमें से कुछ भी नहीं जानते। वे उतने ही दयनीय हैं, और उनकी आत्मा प्यासी है। ऐसा क्यों कहते हैं कि उनकी आत्मा प्यासी है? क्योंकि वे नहीं जानते कि परमेश्वर उनसे क्या अपेक्षा रखता है, या वे परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हैं, या उन्हें किस प्रकार का व्यक्ति बनने का प्रयास करना चाहिए। वे नहीं जानते कि कौन-से कार्यों में समझ का अभाव है, या कौन-से कार्य सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। वे नहीं जानते कि बुरे लोगों के साथ क्या रवैया अपनाना है और अच्छे लोगों के साथ क्या रवैया अपनाना है; वे नहीं जानते कि उन्हें किसके साथ बातचीत करनी चाहिए या किसके करीब आना चाहिए। जब वे नकारात्मक होते हैं, तो उन्हें यह भी पता नहीं चलता कि वे किस दशा में पड़ गए हैं। आत्मा से प्यासा होना यही होता है। क्या तुम लोग ऐसे ही हो? (हाँ।) तुम लोगों को यह कहते हुए सुनना मुझे पसंद नहीं है, लेकिन तुम लोग इसी तरह की दशा में हो। तुम हमेशा भावुक रहते हो, और कोई नहीं जानता कि यह कब बदलेगा।
भावुक होना क्या होता है? हम एक उदाहरण से देखेंगे। कुछ लोगों को लगता है कि वे परमेश्वर से बहुत प्यार करते हैं। विशेष रूप से वे अंत के दिनों में जन्म लेने, परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकार करने, और उसके वचनों को अपने कानों से सुनने और व्यक्तिगत रूप से उसके कार्य का अनुभव करने में सक्षम होने के कारण बहुत सम्मानित और दोगुना धन्य महसूस करते हैं। परिणामस्वरूप वे सोचते हैं कि उन्हें अपने खुले, बच्चों जैसे हृदय को व्यक्त करने का कोई तरीका खोजना चाहिए। और वे ऐसा कैसे करते हैं? उनकी भावनाएँ सतह पर आ जाती हैं, उनका उत्साह फूटने को होता है, वे थोड़े तर्कहीन हो जाते हैं और उनकी भावनाएँ असामान्य हो जाती हैं। और इससे कुरूपता उत्पन्न होती है। मुख्य भूमि चीन में वे परमेश्वर में विश्वास के लिहाज से घृणित वातावरण में थे, और वे उत्पीड़न का जीवन जीते थे। तब उनमें उत्साह था और वे चिल्लाना चाहते थे, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मैं तुमसे प्यार करता हूँ!” लेकिन ऐसा करने की कोई जगह नहीं थी—गिरफ्तार होने के डर से वे ऐसा नहीं कर सकते थे। अब वे विदेश में हैं और विश्वास करने के लिए स्वतंत्र हैं; आखिरकार उन्हें अपने खुले, बच्चों जैसे हृदय को अभिव्यक्त करने के लिए जगह मिल गई है। उन्हें यह व्यक्त करना है कि वे परमेश्वर से कितना प्रेम करते हैं। इसलिए वे सड़कों पर निकल जाते हैं और एक ऐसी जगह ढूँढ़ते हैं, जहाँ आसपास ज्यादा लोग न हों, जहाँ वे अपनी इच्छानुसार चिल्ला सकें। हालाँकि ऐसा करने से पहले उन्हें लगता है मानो उनमें आगे बढ़ने का आत्मविश्वास नहीं है। वे अपने आसपास के दृश्य को देखते हैं और उनके गले से चीख नहीं निकलती। उनके दिमाग में क्या चल रहा होता है? “यह नहीं चलेगा। केवल खुला, बच्चों जैसा हृदय होना ही पर्याप्त नहीं है। मेरे पास अभी तक परमेश्वर-प्रेमी हृदय नहीं है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मेरे पास चिल्लाकर बोलने के लिए कुछ नहीं है।” और इसलिए दुख और दर्द में वे घर जाते हैं और आँसुओं के साथ परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, जब मैं एक ऐसे हालात में था जहाँ इसकी अनुमति नहीं थी, तब मैंने ‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ’ चिल्लाने की हिम्मत नहीं की थी। अब मैं ऐसे हालात में हूँ जहाँ इसकी अनुमति है, लेकिन मुझमें अभी भी आत्मविश्वास नहीं है। मैं चिल्ला नहीं पा रहा। ऐसा लगता है कि मेरा आध्यात्मिक कद और आत्मविश्वास बहुत ही तुच्छ है। मेरे पास जीवन नहीं है।” तब से वे इस मुद्दे के बारे में प्रार्थना करते हैं, और तैयारी करते हैं, और स्वयं को इसमें लगाते हैं। वे अक्सर परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं और द्रवित होकर उनके आँसू बहने लगते हैं और उनकी भावनाएँ और उत्साह उनके हृदय में पनपते और जमा होते रहते हैं। यह तब तक चलता रहता है जब तक कि एक दिन वे इतनी भावनाओं से नहीं भर जाते कि हजारों लोगों की क्षमता वाले सार्वजनिक चौराहे पर जाकर भीड़ के सामने चिल्लाकर कह सकें “मैं तुमसे प्यार करता हूँ सर्वशक्तिमान परमेश्वर”—फिर भी जब वे सार्वजनिक स्थल पर जाते हैं और वहाँ सभी लोगों को देखते हैं, उनकी आवाज नहीं निकलती। हो सकता है कि उन्होंने अभी भी इसे चिल्लाकर नहीं कहा हो। लेकिन वे चिल्ला पाए हों या न चिल्ला पाए हों, इसका क्या मतलब होगा? क्या इस तरह चिल्लाना सत्य का अभ्यास है? क्या यह परमेश्वर की गवाही है? (नहीं।) तो वे इस तरह चिल्लाने पर आमादा क्यों हैं? उनका मानना है कि उनकी वह चिल्लाहट परमेश्वर के वचनों का प्रसार करने और परमेश्वर की गवाही देने के किसी भी अन्य तरीके से अधिक मजबूत और प्रभावी होगी। खुले, बच्चों जैसे हृदय वाला व्यक्ति होने का यही अर्थ होता है। क्या किसी व्यक्ति में ऐसी भावनाएँ होना अच्छी बात है या बुरी? क्या यह सामान्य है या असामान्य? क्या इसे सामान्य मानवता के दायरे में रखा जा सकता है? (नहीं।) क्यों नहीं? लोगों से कर्तव्य पालन करवाने और सत्य को समझने और उसका अभ्यास कराने में परमेश्वर का लक्ष्य क्या होता है? क्या यह लोगों के मन में उसके प्रति प्रेम की भावना को बढ़ाने के लिए होता है या अपना कर्तव्य निभाने में उनकी भावना बढ़ाने के लिए होता है? (नहीं।) क्या तुम लोगों में कभी-कभी या शायद अक्सर ऐसी भावनाएँ आती हैं? (हाँ।) जब ऐसा होता है, तो क्या तुम्हें लगता है कि वे अचानक और असामान्य रूप से आती हैं, या उन्हें दबाना मुश्किल होता है? तुम्हें उन पर लगाम लगानी होगी, उन्हें दबाना चाहे जितना कठिन हो। बाकी सब छोड़ो, ये महज भावनाएँ ही हैं, न कि वे उपलब्धियाँ, जो लोगों द्वारा सत्य को समझने और उसका अभ्यास करने के बाद या परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के बाद आती हैं। वे असामान्य दशा हैं। तो क्या इस असामान्य स्थिति को जुनूनी जिद के तहत रखा जा सकता है? यह मामले के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है। अलग-अलग स्तर होते हैं; कुछ को कट्टरपंथी हठ के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है, और कुछ बेतुकेपन के स्तर तक चले जाते हैं। व्यक्ति का कभी-कभार इस मनोदशा को प्रकट करना सामान्य बात है। तो फिर इसकी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ असामान्य होती हैं? अदम्य भावना से कुछ करना। जब कोई अपना हर दिन जीते हुए उस चीज के लिए इधर-उधर चक्कर लगाता है, परमेश्वर के वचन पढ़ता है और उसी के लिए सुसमाचार का प्रसार करता है, और हर कर्तव्य उसी के लिए निभाता है—जब सब कुछ उस चीज के ही इर्द-गिर्द घूमता है, और यही उसके अस्तित्व और जीवन का मूल्य और अर्थ बन जाता है—तो यह परेशानी की बात है। उस व्यक्ति का लक्ष्य और दिशा विकृत हो जाते हैं। उन लोगों के लिए यह एक कुरूपता है जो अपने खुले, बच्चों जैसे हृदय के साथ जीते हैं। उनमें कुछ जिद्दीपन होता है और उनमें असामान्य भावनाएँ होती हैं। यदि कोई इन चीजों के अनुसार जीता है और अक्सर ऐसी स्थिति में रहता है, तो क्या वह सत्य समझ सकता है? (नहीं।) यदि वह सत्य नहीं समझ सकता, तो धर्मोपदेश सुनते समय उसकी मानसिकता क्या होती है? परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में उसका क्या इरादा होता है? क्या कोई व्यक्ति जो हमेशा खुले, बच्चों जैसे हृदय और धार्मिक समारोह के साथ परमेश्वर में विश्वास करता है, वह सत्य समझ सकता है और उसे प्राप्त कर सकता है? (नहीं।) क्यों नहीं? वह जो कुछ भी करता है वह सत्य पर आधारित नहीं होता, बल्कि धार्मिक सिद्धांत, धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित होता है। यह सत्य का अनुसरण करने और उसका अभ्यास करने के बारे में भी नहीं है। उसे इसकी बिल्कुल भी परवाह नहीं कि वास्तव में सत्य क्या है या परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं। उसे इसकी कोई परवाह नहीं होती, जैसे परमेश्वर में विश्वास करने के लिए सभी को बस एक खुला, बच्चों जैसा हृदय चाहिए, जैसे उसे बस चीजों को सँभालना है और कलीसिया में प्रयास करते रहना है। यह उसके लिए इतना आसान होता है। उसे यह नहीं पता कि सत्य समझना और उसका अभ्यास करना क्या होता है, न ही यह कि बचाए जाने के लिए वह किसका अनुसरण करे। ऐसे लोग कभी-कभी इन चीजों के बारे में सोच पाते हैं, लेकिन वे उन्हें हल नहीं कर पाते। पूरे समय वे यही सोचते रहते हैं, “अगर मुझमें उत्साह हो, मैं भावनाओं के ऊँचे स्तर तक पहुँच जाऊँ और अंत तक डटा रहूँ, तो शायद मैं बचा लिया जाऊँ,” और परिणामस्वरूप अपनी उफनती हुई भावनाओं में बहकर वे मूर्खतापूर्ण बातों के अलावा कुछ नहीं करते, ऐसी चीजें करते हैं जो सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध जाती हैं। अंत में उनका खुलासा हो जाता है और वे हटा दिए जाते हैं। ऐसा लगता है कि आखिरकार उफनती हुई भावनाएँ इतनी अच्छी चीज नहीं हैं।
खुले, बच्चों जैसे हृदय से जीने में एक और बहुत ही गंभीर स्थिति पैदा होती है, और वह यह है कि कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने के लिए हमेशा उत्साह पर भरोसा करते हैं। उनके दिलों की आग कभी नहीं बुझती; वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए उन्हें केवल बस एक खुला, बच्चों जैसा हृदय चाहिए। “मुझे सत्य समझने की आवश्यकता नहीं है, मुझे खुद की जाँच करने की जरूरत नहीं है, और मुझे अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आने की आवश्यकता नहीं है—और मुझे निश्चित रूप से किसी भी न्याय, ताड़ना, काट-छाँट को स्वीकार करने या किसी की निंदा और आलोचना की आवश्यकता नहीं है,” वे सोचते हैं, “मुझे उन चीजों की जरूरत नहीं है। मुझे बस एक खुला, बच्चों जैसा हृदय चाहिए।” यह परमेश्वर में उनके विश्वास का सिद्धांत होता है। वे सोचते हैं, “मुझे न्याय और ताड़ना स्वीकार करने की जरूरत नहीं है। मेरे लिए सिर्फ अपने बारे में अच्छा महसूस करना ही काफी है। मेरा मानना है कि मेरे ऐसा करने से परमेश्वर निश्चित रूप से खुश होगा। अगर मैं खुश हूँ, तो परमेश्वर खुश है—बस इतनी-सी ही बात है। अगर मैं परमेश्वर पर इसी तरह विश्वास करूँ तो मैं बचा लिया जाऊँगा।” क्या यह सोचने का बेहद भोला-भाला तरीका नहीं है? तुम लोग भी ऐसी ही स्थिति में हुआ करते थे, है न? (हाँ।) यदि तुम लोग अंत तक ऐसी ही स्थिति में रहते हो, कोई रूपांतरण करने में असमर्थ रहते हो, तो यह कहना उचित होगा कि तुम सत्य का थोड़ा-सा भी अंश नहीं समझते। सत्य से तुम लोगों का कोई लेना-देना नहीं होता। तुम लोग परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार के लक्ष्य या महत्व को नहीं जानते, और तुम यह नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास क्या है। परमेश्वर में आस्था और धर्म में विश्वास के बीच क्या अंतर है? हर कोई धर्म में विश्वास करने की कल्पना इसलिए करता है क्योंकि उस व्यक्ति के पास आजीविका का अभाव होता है, कि उन्हें घर में कठिनाइयाँ हो सकती हैं। अन्यथा ऐसा होता है कि वे आध्यात्मिक अवलंबन पाने के लिए किसी चीज का सहारा लेना चाहते हैं। धर्म में विश्वास अक्सर लोगों को अच्छा, परोपकारी, दूसरों की मदद करने, दूसरों के साथ दयालु रहने, पुण्य संचय करने के लिए अधिक अच्छी चीजें करने, हत्या या आगजनी न करने, कानून तोड़ने या अपराध न करने, बुरे काम न करने, लोगों को न मारने या उन्हें बुरा-भला न कहने, चोरी-डकैती न करने, और धोखा या ठगी न करने के अलावा कुछ नहीं है। यह “धर्म में विश्वास” की अवधारणा है जो हर किसी के मन में होती है। तुम लोगों के दिलों में धर्म में विश्वास की कितनी अवधारणा मौजूद है? क्या वे बातें जो धर्म में विश्वास से जुड़ी हैं, सत्य के अनुरूप होती हैं? आखिर वे आती कहाँ से हैं? क्या तुम लोग जानते हो? यदि तुम धर्म में विश्वास रखने वाले हृदय से परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो परिणाम क्या होगा? क्या यह परमेश्वर में विश्वास रखने का सही तरीका है? क्या धर्म में विश्वास रखने की अवस्था और परमेश्वर में आस्था रखने की अवस्था में कोई अंतर है? धर्म में विश्वास और परमेश्वर में आस्था में क्या अंतर है? जब तुमने पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया, तो हो सकता है तुम्हें लगा हो कि धर्म में विश्वास रखना और परमेश्वर में आस्था रखना एक ही बात है। लेकिन आज कई साल तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद तुम्हें क्या लगता है कि वास्तव में आस्था रखना क्या होता है? क्या यह धर्म में विश्वास रखने से अलग है? धर्म में विश्वास रखने का अर्थ है किसी की आत्मा को प्रसन्नता और सुख देने के लिए कुछ विशेष प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करना। यह इन प्रश्नों से संबंधित नहीं है कि लोग किस मार्ग पर चलें, या वे जीवन कैसे जिएँ। तुम्हारे आंतरिक जगत में कोई बदलाव नहीं आता; तुम तुम ही रहते हो, और तुम्हारा प्रकृति सार वही रहता है। तुमने परमेश्वर से आने वाले सत्यों को स्वीकार कर उन्हें अपना जीवन नहीं बनाया है, बल्कि तुमने मात्र कुछ अच्छी चीजें की हैं या रस्मों और विनियमों का पालन किया है। तुम मात्र धर्म में विश्वास से संबंधित कुछ गतिविधियों में लिप्त रहे हो—बस, इतना ही किया है। तो परमेश्वर में आस्था रखने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम जैसे जीते हो उसमें बदलाव आना, इसका मतलब है कि तुम्हारे अस्तित्व के मूल्य और जीवन के लक्ष्यों में पहले से ही बदलाव आ चुका है। तुम पहले अपने पूर्वजों का सम्मान करने, भीड़ से अलग दिखने, अच्छा जीवन जीने, प्रसिद्धि और लाभ के लिए प्रयास करने जैसी चीजों के लिए जीते थे। आज तुमने उन चीजों को छोड़ दिया है। अब तुम शैतान का अनुसरण नहीं करते, बल्कि तुम इसका त्याग करना चाहते हो, इस दुष्ट प्रवृत्ति का त्याग करना चाहते हो। तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो, तुम सत्य स्वीकार करते हो, तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो। तुम्हारे जीवन की दिशा पूरी तरह से बदल चुकी है। परमेश्वर में विश्वास के बाद तुम्हारा जीवन के लिए रवैया अलग है, तुम्हारी अलग तरह की जीवन-शैली है, सृष्टिकर्ता का अनुसरण करना है, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना और उनके प्रति समर्पित होना है, सृष्टिकर्ता के उद्धार को स्वीकार करना है, और अंततः एक सच्चा सृजित प्राणी बनना है। क्या यह तुम्हारी जीवन-शैली को बदलना नहीं है? यह तुम्हारे पिछले अनुसरण, जीवन-शैली और तुम्हारे सभी कामों के पीछे की प्रेरणाओं और महत्व के बिल्कुल विपरीत है—ये पूरी तरह से उनसे अलग है, यहाँ तक कि उनके आस-पास भी नहीं है। हम परमेश्वर में विश्वास और धर्म में विश्वास के बीच अंतर पर अपनी बात यहीं समाप्त करेंगे। क्या तुम लोग अपने आप में उस “खुले, बच्चों जैसे हृदय” की स्थिति देख पाते हो जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं? (हाँ।) तो क्या तुम लोग अधिकांश समय खुले, बच्चों जैसे हृदय के साथ जी रहे हो, या कभी-कभार ही तुम्हारी ऐसी स्थिति होती है? यदि यह कभी-कभार होता है, तो इससे साबित होता है कि तुमने पहले ही उस स्थिति को त्याग दिया है और सत्य का अनुसरण करना शुरू कर दिया है, कि तुम उस स्थिति से उबरना शुरू कर चुके हो; यदि तुम अभी भी अधिकांश समय खुले, बच्चों जैसे हृदय के साथ जी रहे हो और यह नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार कैसे जीना है, सत्य के अनुसार कैसे जीना है, न ही खुले, बच्चों जैसे हृदय के बंधनों को कैसे छोड़ना है और उस स्थिति से कैसे बाहर निकलना है, तो यह साबित करता है कि तुम परमेश्वर के सामने नहीं जी रहे हो, कि तुम अभी तक नहीं जानते कि सत्य क्या है या इसे कैसे खोजना है। क्या यह बड़ा अंतर है? (हाँ।) यदि तुम सत्य जरा भी समझे बिना इसी तरह जीवन जीते रहते हो, तो तुम खतरे में हो—देर-सबेर तुम्हें हटा दिया जाएगा। वह खुला, बच्चों जैसा हृदय कैसे अस्तित्व में आता है, इसके लिए तुम्हें सत्य खोजना होगा, स्थिति का गहन-विश्लेषण करना होगा और उस स्थिति को बदलना होगा। किसी के पास वह खुला, बच्चों जैसा हृदय क्यों होगा; परमेश्वर में विश्वास करने के उत्साह पर निर्भर रहने के क्या परिणाम होंगे; क्या तुम इस प्रकार परमेश्वर पर विश्वास करके सत्य प्राप्त कर सकते हो; क्या यह परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास को मजबूत करेगा—तुम्हें इन सवालों पर दिल में स्पष्ट होना चाहिए। इसके लिए तुम्हें स्वयं को तुलना व आत्म-चिंतन करने और समाधान तलाशने के लिए तैयार रखना होगा।
एक प्रकार के लोग परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर हृदय से उत्साही होते हैं। उनके लिए कोई भी कर्तव्य ठीक होता है, और थोड़ी कठिनाई भी चलती है, लेकिन उनका स्वभाव अस्थिर होता है—वे भावुक और मनमौजी, असंगत होते हैं। वे केवल अपनी मनोदशा के अनुसार कार्य करते हैं। जब वे खुश होते हैं, तो उन्हें जो काम सौंपा जाता है उसे अच्छी तरह से करते हैं, और वे जिनके साथ सहयोग करते हैं और जिनके साथ जुड़ते हैं, उनके साथ उनकी अच्छी पटती है। वे और भी अधिक कर्तव्य निभाने को तैयार होते हैं—वे जो भी कर्तव्य निभा रहे होते हैं, उसके प्रति उनमें जिम्मेदारी की भावना होती है। जब वे अच्छी स्थिति में होते हैं, तो वे इसी तरह व्यवहार करते हैं। कारण यह हो सकता है कि वे अच्छी स्थिति में हैं : हो सकता है कि अपने कर्तव्य को अच्छी तरह करने के कारण उनकी प्रशंसा की गई हो, और उन्हें समूह का सम्मान और अनुमोदन मिला हो। या हो सकता है कि बहुत-से लोग उनके किए गए काम की सराहना करते हों, इसलिए वे गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं जो प्रशंसा की हर फूँक के साथ और भी फूलता जाता है। और इसलिए वे हर दिन एक ही कर्तव्य निभाते जाते हैं, फिर भी वे कभी भी परमेश्वर के इरादे नहीं समझते या सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते। वे सदैव अपने अनुभव के बल पर कार्य करते रहते हैं। क्या अनुभव सत्य होता है? क्या अनुभव के आधार पर कार्य करना विश्वसनीय है? क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? अनुभव के आधार पर कार्य करना सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होता; ऐसा समय अवश्य आएगा जब वह नाकाम हो जाएगा। तो एक दिन ऐसा आता है जब वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभाते। कई चीजें गलत हो जाती हैं, और उनकी काट-छाँट की जाती है। समूह उनसे असंतुष्ट हो जाता है। तब वे निराश हो जाते हैं : “मैं अब यह कर्तव्य नहीं निभाऊँगा। मैं इसे बुरी तरह से करता हूँ। तुम सभी लोग मुझसे बेहतर हो। मैं ही अच्छा नहीं कर पाता। जो कोई भी इसे करने को इच्छुक है, कर ले!” कोई उनके साथ सत्य के बारे में संगति करता है, परंतु वह उनके दिमाग में नहीं घुसती, और वे नहीं समझते, कहते हैं : “इसमें संगति करने की क्या बात है? मुझे इसकी परवाह नहीं है कि यह सत्य है या नहीं—मैं अपना कर्तव्य तब निभाऊँगा जब मैं खुश हूँ और जब मैं खुश नहीं होऊँगा तो नहीं निभाऊँगा। इसे इतना जटिल क्यों बनाते हो? मैं इसे अभी नहीं कर रहा हूँ; मैं उस दिन का इंतजार करूँगा जब मैं खुश होऊँगा।” वे लगातार ऐसे ही बने रहते हैं। चाहे अपना कर्तव्य निभा रहे हों; परमेश्वर के वचनों को पढ़ रहे हों, या धर्मोपदेश सुनते और सभाओं में भाग लेते हों; या दूसरों के साथ बातचीत कर रहे हों—हर उस चीज में जो उनके जीवन के किसी भी पहलू को प्रभावित करती है, वे जो कुछ भी प्रकट करते हैं वह पल में तोला और पल में माशा, एक पल में खुश तो अगले ही पल निराश, एक पल में ठंडे और अगले ही पल में गर्म, एक पल में नकारात्मक तो अगले पल में सकारात्मक हो जाते हैं। संक्षेप में, उनकी स्थिति अच्छी हो या बुरी, हमेशा साफ पता चलती है। तुम इसे एक नजर में देख सकते हो। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें असंगत रहते हैं, बस स्वयं को अपने मिजाज के अधीन कर देते हैं। जब वे खुश होते हैं, तो बेहतर काम करते हैं, और जब खुश नहीं होते हैं, तो घटिया काम करते हैं—वे काम करना बंद भी कर सकते हैं और उसे छोड़ भी सकते हैं। वे जो भी कर रहे हैं, उन्हें उसे अपनी मनोदशा, वातावरण और अपनी माँगों के अनुसार करना होगा। उनमें मुश्किलें सहने का बिल्कुल भी संकल्प नहीं होता; वे लाड़-प्यार वाले और बिगड़ैल होते हैं, उन्मादी होते हैं, उन पर तर्क का कोई असर नहीं होता, और वे इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते। किसी को भी उन्हें नाराज करने की अनुमति नहीं होती; जो ऐसा करता है, वह उनके गुस्से का निशाना बनता है, जो तूफान की तरह आता है—और उसके गुजर जाने के तुरंत बाद वे निराश और भावनात्मक रूप से खिन्न हो जाते हैं। इसके अलावा वे हर काम अपनी पसंद के आधार पर करते हैं। “अगर मुझे यह काम पसंद है, तो मैं इसे करूँगा; यदि मुझे पसंद नहीं, तो मैं नहीं करूँगा और कभी नहीं करूँगा। तुम लोगों में से जो इच्छुक हो वह कर सकता है। उसका मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है।” यह कैसा व्यक्ति है? जब वे खुश होते हैं और उनकी स्थिति अच्छी होती है, तो वे दिल से भावुक हो जाते हैं और कहते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं। वे इतने उत्तेजित होते हैं कि वे रोने लगते हैं, उनके चेहरे पर गर्म आँसू बहने लगते हैं, वे जोर-जोर से सिसकते हैं। क्या उनका हृदय वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करता है? हृदय से परमेश्वर को प्रेम करने की स्थिति सामान्य होती है, लेकिन उनके स्वभाव, व्यवहार और जो वे प्रकट करते हैं, उसे देखकर तुम सोचने लगोगे कि वे लगभग दस साल के बच्चे हैं। उनका यह स्वभाव, उनका रहन-सहन, मनमौजीपन होता है। वे जो भी करते हैं उसमें असंगत, गैर-समर्पित, गैर-जिम्मेदार और निरुत्साही होते हैं। वे कभी भी कठिनाई से नहीं गुजरते और जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते। जब वे खुश होते हैं, तो उन्हें कुछ भी करने में कोई दिक्कत नहीं होती; थोड़ी कठिनाई भी चल जाती है, और यदि उनके हितों को चोट लगती है, तो वह भी चल जाती है। लेकिन अगर वे नाखुश हैं, तो वे कुछ नहीं करते। वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं? क्या ऐसी स्थिति सामान्य है? (नहीं।) यह मुद्दा एक असामान्य स्थिति से भी आगे निकल जाता है—यह अत्यधिक मनमौजीपन, अत्यधिक मूर्खता और अज्ञानता, अत्यधिक बचकानेपन की अभिव्यक्ति होता है। मनमौजीपन से क्या समस्या है? कुछ लोग कहेंगे, “यह मनोभाव का अस्थिर होना है। वे बहुत कम उम्र के हैं और उन्होंने बहुत कम कठिनाइयाँ झेली हैं और उनका व्यक्तित्व अभी तक नहीं बना है, इसलिए उनके व्यवहार में अक्सर मनमौजीपन होता है।” सच तो यह है कि मनमौजीपन उम्र की परवाह नहीं करता : चालीस साल के लोग और सत्तर साल के लोग भी कभी-कभी मनमौजी होते हैं। इसे कैसे समझाया जाए? मनमौजीपन वास्तव में व्यक्ति के स्वभाव की समस्या है और यह अत्यंत गंभीर समस्या है! यदि वे कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य निभा रहे हैं, तो इससे उस कर्तव्य और कार्य की प्रगति में देरी हो सकती है, जिससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँच सकता है; और सामान्य कर्तव्यों के मामले में भी यह कभी-कभी उन कर्तव्यों को प्रभावित करता है, और चीजों में बाधा डालता है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं होता जिससे दूसरों को, स्वयं को या कलीसिया के काम को फायदा पहुँचता हो। वे जो छोटे-छोटे काम करते हैं और जो कीमत चुकाते हैं, उससे उन्हें शुद्ध घाटा होता है। विशेष रूप से मनमौजी लोग परमेश्वर के घर में कर्तव्यों का पालन करने के लिए अयोग्य होते हैं, और ऐसे कई लोग हैं। मनमौजीपन भ्रष्ट स्वभावों में सबसे आम अभिव्यक्ति होती है। व्यावहारिक रूप से हर व्यक्ति का स्वभाव ऐसा ही होता है। और वह स्वभाव क्या होता है? स्वाभाविक रूप से प्रत्येक भ्रष्ट स्वभाव शैतान के स्वभावों की एक किस्म होती है, और मनमौजीपन एक भ्रष्ट स्वभाव है। हल्के शब्दों में कहें तो यह सत्य से प्रेम करना या उसे स्वीकार करना नहीं है; गंभीर शब्दों में कहें तो यह सत्य से विमुख होना और उससे नफरत करना है। क्या मनमौजी लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं? हरगिज नहीं। जब वे खुश होते हैं और लाभ कमा रहे होते हैं, तो क्षणिक रूप से ऐसा कर सकते हैं, लेकिन जब वे दुखी होते हैं और लाभ नहीं कमा पाते, तो वे तैश में आकर परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा देने का साहस करते हैं। वे खुद से कहेंगे, “मुझे इसकी परवाह नहीं कि यह सत्य है या नहीं—महत्वपूर्ण बात यह है कि मैं खुश हूँ, कि मैं संतुष्ट हूँ। अगर मैं नाखुश हूँ, तो किसी के कुछ भी कहने का कोई फायदा नहीं! सत्य का क्या महत्व है? परमेश्वर का क्या महत्व है? मैं मालिक हूँ!” यह किस प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव है? (सत्य से नफरत करने का।) यह एक ऐसा स्वभाव है जो सत्य से नफरत करता है, ऐसा स्वभाव है जो सत्य से विमुख है। क्या इसमें अहंकार और दंभ का कोई तत्व मौजूद है? हठधर्मिता का कोई तत्व है? (हाँ।) यहाँ एक और बेहद खराब स्थिति है। जब वे अच्छी मनोदशा में होते हैं, तो वे सभी के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं और अपना कर्तव्य निभाने में जिम्मेदार होते हैं; लोग सोचते हैं कि वे अच्छे, समर्पण करने वाले व्यक्ति हैं, जो कीमत चुकाने को तैयार हैं, जो वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं। लेकिन जैसे ही वे नकारात्मक होते हैं, वे कर्तव्य त्याग देते हैं, शिकायत करने लगते हैं और यहाँ तक कि तर्क का भी उन पर असर नहीं होता। यहाँ उनका क्रूर पक्ष सामने आता है। किसी को भी उन पर दोषारोपण करने की अनुमति नहीं होती। वे यहाँ तक कहेंगे, “मैं सारे सत्य समझता हूँ, बस इसका अभ्यास नहीं करता। मेरे लिए बस इतना ही काफी है कि मैं स्वयं के साथ सहज रहूँ!” यह कौन-सा स्वभाव है? (क्रूरता।) ये बुरे लोग अपनी काट-छाँट करने वाले व्यक्ति से सिर्फ लड़ने का ही साहस नहीं करते, बल्कि वे दुष्ट राक्षस की तरह उन्हें चोट और नुकसान भी पहुँचा सकते हैं। कोई भी उनको परेशान करने की हिम्मत नहीं करेगा। क्या यह उनका अत्यधिक मनमौजी और क्रूर होना नहीं है? क्या यह युवावस्था से जुड़ी समस्या है? यदि वे अधिक उम्र के होते तो क्या वे मनमौजी नहीं होते? यदि वे अधिक उम्र के होते तो क्या वे अधिक विचारशील और विवेकपूर्ण होते? नहीं, यह उनके व्यक्तित्व या उनकी उम्र का मामला नहीं है। उनके भीतर भ्रष्ट स्वभाव गहरी जड़ें जमाए हुए छिपा है। भ्रष्ट स्वभाव उन्हें चलाता है, और भ्रष्ट स्वभाव से ही वे जीते हैं। क्या भ्रष्ट स्वभाव में रहने वाले किसी व्यक्ति में समर्पण होता है? क्या वे सत्य की तलाश कर सकते हैं? क्या उनमें से कोई ऐसा हिस्सा है जो सत्य से प्रेम करता है? (नहीं।) नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। क्या तुम सभी लोगों की दशा मनमौजी रही है? (हाँ।) अगर हम इस बारे में संगति नहीं करते, तो क्या तुम लोगों को लगता कि यह समस्या है? (हमें नहीं लगता।) अब इसके बारे में संगति करने के बाद क्या तुम लोगों को लगता है कि यह काफी गंभीर समस्या है? (हाँ।) कभी-कभार कुछ मनमौजीपन वस्तुनिष्ठ कारणों से पैदा होता है। यह कोई स्वभावगत समस्या नहीं होती। सभी स्वभाव संबंधी समस्याओं, और किसी के कार्यों में भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा होने से नकारात्मक परिणाम ही मिलता है। वस्तुनिष्ठ कारण का एक उदाहरण यह है : मान लो कि आज किसी के पेट में भयानक दर्द है। वह इतने दर्द में है कि उसमें बोलने की भी ताकत नहीं है। वह बस थोड़ी देर लेट जाना चाहता है। तभी कोई आता है और उससे कुछ बातें करने लगता है, और जवाब देते हुए उसका लहजा थोड़ा कठोर हो जाता है। क्या यह उसके स्वभाव की समस्या है? नहीं, ऐसा नहीं है। वह ऐसा केवल इसलिए है क्योंकि वह बीमार है और दर्द में है। यदि वह सामान्य समय में भी उस तरह का व्यक्ति होता, उसी तरह से बोलता, तो यह स्वभावगत समस्या होती। इस मामले में उसके स्वर बिगड़ जाते हैं क्योंकि उसका दर्द एक हद से ऊपर जा चुका होता है। ऐसा होना एक सामान्य बात है। यदि कोई वस्तुनिष्ठ कारण है, और हर कोई मानता है कि परिस्थितियाँ देखते हुए इस तरह बोलना या कार्य करना क्षमा योग्य और उचित है, और यह सिर्फ इंसानी प्रकृति है, तो यह सामान्य मानवता का व्यवहार और खुलासा है। किसी ऐसे व्यक्ति का उदाहरण ले लो जिसने अपने किसी रिश्तेदार को खोया है और वह दुख में रोने लगता है। यह बिल्कुल सामान्य है। फिर भी ऐसे लोग हैं, जो उसकी आलोचना करते हुए कहेंगे, “यह व्यक्ति भावुक है। वह इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखता रहा है लेकिन फिर भी अपने परिवार के प्रति अपना स्नेह नहीं छोड़ पाया। वह अपने किसी रिश्तेदार के मरने पर भी रोता है। कितनी बेवकूफी है!” फिर ऐसा होता है कि यह सब बोलने वाले की माँ की मृत्यु हो जाती है, तो वे सबसे अधिक जोर से रोते हैं। इसे कैसे देखना चाहिए? तुम आँख मूँदकर विनियम लागू नहीं कर सकते या इसका सामान्यीकरण नहीं कर सकते—कुछ चीजों के वस्तुनिष्ठ कारण होते हैं, और वे सामान्य मानवता के व्यवहार और खुलासे हैं। सामान्य मानवता के व्यवहार और खुलासे क्या होते हैं और क्या नहीं होते—यह परिस्थितियों के साथ बदलता है। जब इस बारे में जिक्र किया जाता है कि व्यक्ति किस प्रकार जीवन जीता है, क्या कहा जा रहा है, तो यह जिस बारे में होता है वह एक तरह से लोगों के स्वभाव की समस्याओं से जुड़ा है और दूसरी तरह से यह लोगों के दृष्टिकोण, उनके अनुसरण के तरीकों और उनके अनुसरण के मार्गों में समस्याओं के बारे में होता है। यह बिल्कुल भी उनकी प्रकृति या व्यक्तित्व या काम करने के उनके बाहरी तरीकों से जुड़ा नहीं होता।
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