अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 94)
परमेश्वर में अभी-अभी विश्वास शुरू करने वाले कुछ लोग अक्सर नकारात्मक और कमजोर होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य नहीं समझते, उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और उनमें परमेश्वर में आस्था से संबंधित विभिन्न सत्यों की कोई समझ नहीं होती। इसलिए वे मानते हैं कि उनकी क्षमता कमजोर है, वे आगे बढ़ने में अक्षम हैं, उन्हें बहुत सारी कठिनाइयाँ हैं—जिसके कारण नकारात्मकता जन्म लेती है और वे हार तक मान लेते हैं : वे कोशिशें छोड़ देने, सत्य का अनुसरण बंद करने का फैसला करते हैं। वे खुद को खुद ही निकाल देते हैं। वे यही सोचते हैं, “कुछ भी हो, परमेश्वर उसमें मेरे विश्वास को स्वीकार नहीं करेगा। परमेश्वर मुझे पसंद भी नहीं करता। और मेरे पास सभाओं में जाने के लिए ज्यादा समय नहीं है। मेरा पारिवारिक जीवन कठिन है और मुझे पैसे कमाने की जरूरत है,” वगैरह-वगैरह। इन्हीं सब कारणों से वे सभाओं में नहीं जाते। अगर तुम जल्दी से नहीं पता लगाते कि क्या चल रहा है तो शायद तुम उन्हें सत्य से प्रेम नहीं करने वाला, और परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं रखने वाला व्यक्ति समझ लोगे या उन्हें देह के सुखों का लालची, दुनिया का अनुसरण करने वाला और सांसारिक चीजों को न छोड़ पाने वाला समझ लोगे—और इसकी वजह से तुम उन्हें त्याग दोगे। क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या ये कारण वास्तव में उनकी प्रकृति सार दर्शाते हैं? असल में, वे अपनी कठिनाइयों और उलझनों के कारण निराश हो जाते हैं; अगर तुम इन समस्याओं का हल निकाल सकते हो, तो वे इतने नकारात्मक नहीं रहेंगे और परमेश्वर का अनुसरण कर सकेंगे। जब वे कमजोर और नकारात्मक होते हैं, तो उन्हें लोगों के सहारे की जरूरत होती है। अगर तुम उनकी सहायता करोगे, तो वे फिर अपने पैरों पर खड़े हो सकेंगे। लेकिन अगर तुम उन्हें नजरअंदाज करते हो, तब उनके लिए नकारात्मकता के कारण हार मानना आसान हो जाएगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि जो लोग कलीसिया के कार्य करते हैं उनमें प्रेम है या नहीं, या वे इस बोझ को उठाते हैं या नहीं। कुछ लोग अक्सर सभाओं में नहीं आते, इसका मतलब यह नहीं है कि वे परमेश्वर में सचमुच विश्वास नहीं रखते, यह सत्य को नापसंद करने के बराबर नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे देह के सुखों के लिए लालायित हैं, और अपने परिवारों और कार्यों को दरकिनार करने में सक्षम नहीं हैं—उन्हें अत्यधिक भावुक या पैसों का लालची तो और भी कम समझा जाना चाहिए। बात इतनी भर है कि इन मामलों में लोगों का आध्यात्मिक कद और आकांक्षाएँ अलग-अलग होती हैं। कुछ लोग सत्य से प्रेम करते हैं, और सत्य के अनुसरण में सक्षम होते हैं; वे इन चीजों को छोड़ने की तकलीफ सहने के लिए तैयार होते हैं। कुछ लोगों में कम आस्था होती है, और जब असली कठिनाइयों से सामना होता है तो वे कमजोर पड़ जाते हैं और उससे पार नहीं पा सकते। अगर कोई उनकी मदद या सहयोग नहीं करता है तो वे हाथ खड़े कर देंगे और खुद ही हार मान लेंगे; ऐसे समय में, उन्हें लोगों के समर्थन, देखरेख और सहायता की जरूरत होती है। ऐसा तब होता है जब तक वे छद्म-विश्वासी न हों, सत्य के प्रति प्रेम रहित न हों और बुरे व्यक्ति न हों—ऐसे मामलों में उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है। अगर वे कोई ऐसे व्यक्ति हैं, जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और अक्सर कुछ वास्तविक कठिनाइयों के चलते सभाओं में नहीं जाते, तो उन्हें छोड़ा नहीं जाना चाहिए, बल्कि प्रेम के साथ सहयोग और मदद दी जानी चाहिए। अगर वे अच्छे व्यक्ति हैं, और समझने की योग्यता रखते हैं, अच्छे क्षमतावान हैं, तो वे और अधिक मदद और सहयोग पाने के योग्य हैं।
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