अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 93)
जिन लोगों को सत्य की समझ नहीं है, वे लोग चीजें करते समय किस बात पर भरोसा करते हैं? वे मानवीय तरीकों, मानवीय बुद्धि और कुछ हद तक मानवीय चतुरता पर भरोसा करते हैं। जब इन चीजों के प्रयोग से कार्य पूरा हो जाता है, तो लोग अहंकारी हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनके पास पूँजी है और वे अपनी वरिष्ठता की शेखी बघार सकते हैं और उसका दिखावा कर सकते हैं। इसे समझ की कमी होना कहते हैं। वास्तव में, उन्हें पता ही नहीं होता कि उन्होंने जो किया है वह वाकई परमेश्वर के इरादों के अनुसार है भी या नहीं। उन्हें यह बात समझ नहीं आती है, उनमें अंतर्दृष्टि की कमी होती है। इसलिए, जब उनके साथ कुछ होता है, तो ऐसे लोग बाल की खाल निकालने लगते हैं। अपना कर्तव्य करते समय जब वे गलतियाँ करते हैं और उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे बाहरी कारण की तलाश करते हैं और इस चीज और उस चीज को दोषी ठहराते हैं। वे खराब परिस्थितियों को दोष देते हैं, और उस समय चीजों के बारे में ठीक से न सोचने के लिए खुद को दोषी ठहराते हैं। वे सिर्फ बाहरी कारणों की तलाश करते हैं; वे यह स्वीकार नहीं करते कि उन्हें सत्य की समझ नहीं है, या वे सत्य सिद्धांतों को नहीं समझ पाए हैं। उनके निराश हो चुके दिलों में परमेश्वर के बारे में गलतफहमी भरी हुई है, और उनका मानना है कि परमेश्वर ने उनका खुलासा कर दिया है। क्या यह मामला वाकई ऐसा है? अपना कर्तव्य निभाते समय वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करते हैं। वे किसी सिद्धांत के बिना चीजें करते हैं और जो भी करते हैं उसका सत्य से कोई संबंध नहीं होता है। कितने दयनीय हैं ये लोग! ऐसे लोग समर्पण के बिना अपना कर्तव्य निभाते हैं; उनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें कोई वफादारी या भक्ति है, तो परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का तो सवाल ही नहीं उठता। वे चीजें करने के लिए लगातार मानवीय तरीकों पर भरोसा करते हैं, और सिर्फ बाहरी तौर पर कार्य और प्रयास करते हैं, लेकिन अंत में, वे फिर भी सत्य को समझने से चूक जाते हैं। क्या इन लोगों के जीवन स्वभाव में बदलाव आते हैं? क्या परमेश्वर से उनके संबंध सामान्य होते हैं? क्या परमेश्वर के प्रति उनके समर्पण और उसका भय मानने में कोई सुधार आता है? (नहीं।) उनके जीवन में कोई सुधार नहीं आता है। उनके भ्रष्ट स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आता है। बल्कि वे अधिक मक्कार और कपटी हो जाते हैं, वे अधिक धूर्त तरीकों का प्रयोग करने लगते हैं और बेहद अहंकारी हो जाते हैं। भले ही उन्हें किसी भी स्थिति का सामना क्यों न करना पड़े, वे फिर भी शैतान के फलसफे के अनुसार जीवन जीते हैं, लगातार अपने अनुभवों और सीखे हुए सबक का पुनर्विलोकन करते रहते हैं, इस बात का ध्यान रखते हैं कि वे कहाँ गिर पड़े और विफल हो गए, और दोबारा गिरने और विफल होने से बचने के लिए उन्हें कौन से सबक सीखने चाहिए। वे हमेशा बस इसी तरह से अपने अनुभवों और सबक का पुनर्विलोकन करते हैं, लेकिन सत्य की तलाश बिल्कुल नहीं करते। क्या शैतान के फलसफे के अनुसार जीवन जीते हुए कोई अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकता है? अगर ऐसे लोग अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं त्याग सकते हैं तो क्या वे उद्धार पा सकते हैं? इन बातों को समझने से चूकना खतरनाक है, जहाँ परमेश्वर में विश्वास करने के सही रास्ते पर प्रवेश करने का कोई तरीका नहीं है। कई वर्षों तक ऐसे भ्रमित तरीके से परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, क्या उन्हें सत्य की प्राप्ति हो सकती है? क्या उनकी अंतरात्मा और समझ कभी सामान्य हो सकती हैं? क्या वे सामान्य मनुष्यत्व को जी सकते हैं? (नहीं।) हो सकता है कि इस तरह से अनुभवों और सबक का पुनर्विलोकन करने और उसके अनुसार अपने व्यवहार में बदलाव लाने से गलतियाँ कम होने लगें, लेकिन क्या इसे सत्य का अभ्यास करना माना जाएगा? (नहीं।) क्या यह व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (नहीं।) क्या ऐसे व्यक्ति के दिल में परमेश्वर के लिए जगह होती है? (नहीं।) जो लोग सत्य या परमेश्वर से संबंध के बिना कार्य करते हैं, वे छद्म विश्वासी होते हैं, जो परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने में असमर्थ हैं। क्या तुम सब ऐसे लोगों को पहचान सकते हो?
जब कोई कुछ करता है, चाहे वह अपना कर्तव्य निभा रहा हो या व्यक्तिगत मामलों का ध्यान रख रहा हो, तो इस बात पर ध्यान दो कि वह किस दिशा में ध्यान केंद्रित कर रहा है। अगर वह सांसारिक आचरण के फलसफों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, तो यह दर्शाता है कि वह सत्य से प्रेम नहीं करता या उसका अनुसरण नहीं करता। अगर व्यक्ति के साथ चाहे जो हो जाए, वह सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास करता है, अगर वह यह सोचते हुए अपने चिंतन में हमेशा सत्य की ओर बढ़ता है : “क्या ऐसा करना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होगा? परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं? क्या ऐसा करना परमेश्वर को नाराज करना है? क्या यह उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाएगा? क्या इससे परमेश्वर को ठेस पहुँचेगी? क्या परमेश्वर इससे घृणा करेगा? क्या ऐसा करने में समझदारी है? क्या इससे कलीसिया के काम में बाधा या रुकावट आएगी? क्या इससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचेगा? क्या यह परमेश्वर के नाम को लज्जित करेगा? क्या यह सत्य का अभ्यास करना है? क्या यह बुराई करना है? परमेश्वर इसके बारे में क्या सोचेगा?” अगर वह हमेशा इन प्रश्नों पर विचार करता रहता है, तो यह किस बात का संकेत है? (यह इसका संकेत है कि वह सत्य की खोज और उसका अनुसरण कर रहा है।) यह सही है। यह इस बात का संकेत है कि वह सत्य की खोज कर रहा है और उसके हृदय में परमेश्वर है। जिन लोगों के दिलों में परमेश्वर नहीं है, वे अपने साथ होने वाली चीजों से कैसे निपटते हैं? (वे अपनी बुद्धि और देन के आधार पर कार्य करते हैं, जिसका परमेश्वर से कोई संबंध नहीं होता, और उनके क्रियाकलापों में उनके अपने इरादे खास तौर पर मिले हुए होते हैं।) वे न सिर्फ अपने इरादे मिलाते हैं, बल्कि अपने इरादों के अनुसार कार्य करते समय वे अपनी जांच या आत्म-चिंतन बिल्कुल नहीं करते हैं। वे हठपूर्वक अपने तरीकों पर कायम रहते हैं और उसमें कोई रियायत नहीं देते। वे अपनी मर्जी से चीजें करते हैं, परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हैं और सत्य की तलाश नहीं करते हैं। परमेश्वर से उनका कोई वास्ता नहीं होता है। क्या ऐसे लोगों के लिए गलत कार्य करना और परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाना आसान नहीं है? क्या यह बेहद खतरनाक नहीं है? सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग जैसा आचरण करते हैं और जैसा स्वभाव प्रकट करते हैं, उनके संबंध में अपने दैनिक जीवन में कौन से लक्षण दर्शाते हैं? (वे उतावलेपन और असंयमित तरीके से कार्य करते हैं, दूसरों को नीची नजर से देखते हैं, वे खास तौर पर अहंकारी और बेलगाम हो जाते हैं, और एकतरफा फैसले लेते हैं।) उनमें मुख्य तौर पर ये चीजें होती हैं : वे अहंकारी, दंभी, हठधर्मी, बेलगाम और असंयमित होते हैं; वे विवेक के बगैर कार्य करते हैं, चीजों को जैसे चाहें वैसे करते हैं और हमेशा वहशी और नीच बने रहते हैं। काट-छाँट किए बिना वे अपने तेवर दिखाने लगते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे निराश, प्रतिरोधी, अवज्ञाकारी और विद्रोही बन जाते हैं, और उनकी दानवी प्रकृति पूरी तरह उजागर हो जाती है। सत्य का अनुसरण न करने वाले ये लोग जब कुछ कहते या करते नहीं हैं, तो वे सामान्य लोगों जैसे दिखते हैं। लेकिन जैसे ही वे कुछ करते हैं, उनका भ्रष्ट स्वभाव सामने आ जाता है और वह स्वभाव बर्बर और पाशविक होता है। परमेश्वर के वचनों में ऐसे लोगों को कैसे वर्णित किया गया है? (“तुम लोगों में जो प्रकट होता है, वह अपने माता-पिता से भटके बच्चों का शरारतीपन नहीं है, बल्कि अपने स्वामियों के कोड़ों की पहुँच से बाहर हो जाने वाले जानवरों से फूटकर बाहर आने वाला जंगलीपन है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ क्या है?)।) ऐसे लोगों के प्रकट किए गए स्वभाव को पाशविक कहा जा सकता है, और उनमें सामान्य मानवता की कमी होती है। अगर भीड़ में ऐसे लोग मौजूद हों, तो क्या तुम लोग उन्हें अलग से पहचान सकोगे? (थोड़ा सा।) सत्य की तलाश करने और न करने वालों के व्यवहार और प्रकटन में जमीन-आसमान का फर्क होता है। समझ की कमी, अंतरात्मा की आवाज की कमी और सत्य सिद्धांतों की उपेक्षा करते हुए कार्य करना सत्य की तलाश न करने वालों की स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं। वे मनमाने और लापरवाह तरीके से कार्य करते हैं और अत्यंत दबंग होते हैं। सत्य का अनुसरण नहीं करने वाले लोग दयनीय और घिनौने दोनों होते हैं। वे स्वयं को मूर्ख बनाते हैं जिससे दूसरे लोगों का कोई फायदा नहीं होता है। अगर वे दूसरों को लाभान्वित नहीं करते हैं, तो क्या परमेश्वर उनसे घृणा नहीं करेगा? (हाँ।) क्या उन्हें खुद इस चीज का कोई ज्ञान है? (नहीं।) मैं उन्हें दयनीय क्यों कह रहा हूँ? ऐसा इसलिए क्योंकि वे ऐसे ही हैं, लेकिन उन्हें खुद इस बात का एहसास नहीं है। उनमें मानव सदृशता की कोई झलक नहीं है, लेकिन फिर भी उन्हें लगता है कि वे ठीक हैं, और फिर भी वे आवेशपूर्ण लापरवाही से कार्य करने की जुर्रत करते हैं। क्या यह दयनीय नहीं है? लोगों को पहचानने में देखने योग्य मुख्य चीज यह है कि क्या वे सत्य का अभ्यास करते हैं, सत्य की तलाश करते हैं और सत्य को स्वीकार करते हैं या नहीं। उन्हें पहचानने का और लोगों की सभी श्रेणियों को साफ-साफ देखने का यही सटीक तरीका है।
क्या तुम लोग सत्य का अनुसरण करने वालों में से हो? (हमने पहले इसका अनुसरण नहीं किया, लेकिन अब हम इसके लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं।) पिछले कुछ वर्षों में जब तुम लोगों ने सत्य का अनुसरण नहीं किया, तब क्या तुम लोगों ने वे ही व्यवहार प्रदर्शित किए जिनके बारे में मैंने अभी-अभी बात की? (हाँ, हमने किए।) जब तुम लोगों ने वे व्यवहार प्रदर्शित किए, तो क्या उस अवस्था में रहते हुए तुम्हारे दिल को दर्द नहीं हुआ? (हाँ, हमें कष्ट हो रहा था, लेकिन हमें इसका एहसास नहीं था।) इसका एहसास न होना कितना दयनीय है! जब व्यक्ति को सत्य की समझ नहीं होती और उसमें सत्य वास्तविकता नहीं होती, तो वह सबसे दयनीय और शोचनीय बात है। इन सत्यों को पकड़कर रखना, अक्सर उपदेश सुनना, लेकिन फिर भी कुछ हासिल न करना और तब भी शैतान की बेड़ियों में रहकर जीवन जीना, तार्किकता के बिना कार्य करना और बोलना, स्पष्टतः मानवता से विहीन है—कितना दयनीय है यह! इसलिए, सत्य का अनुसरण करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है! अब तुम लोगों को इसका एहसास है, है ना? (हाँ, हमें एहसास है।) यह अच्छी बात है कि तुम्हें इसका एहसास है। फिक्र की बात तब होती है जब लोग सुन्न और मंदबुद्धि होते हैं, और इस बात का एहसास करने में सक्षम नहीं होते। अगर कोई सत्य का अनुसरण नहीं करता है और उसे इसका एहसास नहीं है, तो यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। सबसे अधिक फिक्र की बात तब होती है जब व्यक्ति को इसका एहसास तो होता है, लेकिन फिर भी वह सत्य का अनुसरण नहीं करता, और पूरी तरह से पश्चात्तापहीन होता है। यह जानबूझकर किया जाने वाला अपराध है। जो लोग जानबूझकर अपराध करते हैं और सत्य को स्वीकार करने से पूरी तरह इनकार कर देते हैं, वे अपने दिल में दुराग्रही और दुर्भावनापूर्ण होते हैं और सत्य से तंग आ चुके होते हैं। क्या दुराग्रही लोग परमेश्वर का भय मानने वाले हो सकते हैं? अगर वे परमेश्वर का भय नहीं मानते हैं, तो क्या वे परमेश्वर के साथ अनुकूलता प्राप्त कर सकते हैं? (नहीं।) दुराग्रही लोगों का परमेश्वर के प्रति कैसा रवैया होता है? वे प्रतिरोधी, विद्रोही और पश्चात्तापहीन होते हैं, और वे यह बिल्कुल नहीं मानते कि परमेश्वर ही सत्य है। वे सत्य को स्वीकार नहीं करते और अंत तक परमेश्वर का विरोध करते हैं! ऐसे लोगों का क्या परिणाम होता है? (परमेश्वर उन्हें दंडित करेगा और तबाह कर देगा।) परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता है। क्या बाइबिल में बताए गए 250 अगुआ दुराग्रही और विद्रोही थे? अंत में उनका क्या हाल हुआ? (धरती उन्हें निगल गई।) यही परिणाम होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग कितने समय तक परमेश्वर में विश्वास करते हैं, अगर उन्हें सत्य का अनुसरण करने का महत्व नहीं मालूम है, अगर वे सत्य से तंग आने के घिनौनेपन और दुष्परिणामों को नहीं समझते हैं तो उनका परिणाम क्या होगा? उन्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा। नए विश्वासी लोग बेवकूफ और अज्ञानी होते हैं, उन्हें अभी तक यह नहीं पता है कि उचित कार्य कैसे किए जाते हैं या चलने का सही रास्ता क्या है। यही लोगों का दयनीय पहलू है। अगर तुमने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है और तुम अपना कर्त्तव्य निभा सकते हो, और फिर भी तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो, तो यह सिर्फ मजदूरी करना है। अगर तुम वफादारी से अपना कर्त्तव्य निभा सकते हो, खुशी से मजदूरी कर सकते हो, कोई बुरा कार्य नहीं करते हो, और किसी भी तरह के विघ्न या बाधाएँ नहीं डालते हो, तो भले ही तुमने अभी तक सत्य का अनुसरण न किया हो, परमेश्वर फिर भी तुम्हारी निंदा नहीं करेगा क्योंकि तुम अपना कर्त्तव्य वफादारी से निभा सकते हो। लेकिन अगर लोगों को सत्य के कुछ हिस्से की समझ है और वे सत्य के अनुसरण के महत्व को समझते हैं, और फिर भी सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, तो उनके लिए उद्धार प्राप्त करना आसान नहीं होगा। ज्यादा से ज्यादा वे वफादार मजदूर बनकर ही रह सकते हैं। जहाँ तक उन लोगों का प्रश्न है जो मजदूरी नहीं करना चाहते, सत्ता और लाभ के लिए मुकाबला करते हैं और कलीसिया के जीवन और कार्य में बाधा डालते हैं, उनका परिणाम तय हो चुका है। वे पहले से ही आपदा में पड़ चुके हैं और मृत्यु का इंतजार कर रहे हैं। उन्हें आने वाले परिणाम के लिए तैयार हो जाना चाहिए!
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