परमेश्वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्‍य है (भाग तीन)

इतने सारे वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण करके लोग क्या हासिल करते हैं? अधिकतर लोग कहेंगे कि उन्हें बहुत बढ़िया फसल हासिल हुई है। फिलहाल हम इस बारे में बात नहीं करेंगे कि जिन लोगों की काबिलियत अच्छी है और जो सत्य का अनुसरण करते हैं उन्हें कितनी बढ़िया फसल हासिल हुई; यहाँ तक कि जिनकी काबिलियत मामूली है वे भी बढ़िया फसल हासिल करते हैं। पहली बात, क्या लोगों को इस बुरे और भ्रष्ट संसार की कोई पहचान है? (बिल्कुल।) जब तुम्हें अविश्वासियों के साथ मिला दिया जाता था तो तुम कैसा महसूस किया करते थे? हर दिन तुम थके-थके, चिड़चिड़े, नाराज, व्यथित और दमित महसूस करते थे; तुमने कभी भी अपने मन का गुबार इस डर से नहीं निकलने दिया कि कहीं तुम किसी ऐसे बुरे व्यक्ति से न टकरा जाओ जो तुम पर धौंस जमाए और तुम उसे मात न दे पाओ, इसलिए तुम्हें अपमान का घूँट पीते रहना पड़ा। कहने का आशय है कि अविश्वासी दुनिया, इस बुरे संसार में रहते हुए तुम जिनके संपर्क में आए वे दानव थे; उन्होंने एक दूसरे के साथ नृशंस व्यवहार किया, इसलिए तुम्हारे मन में गहरी पीड़ा थी। यह सबसे स्पष्ट भावना है। इसलिए परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, यह स्पष्ट भावना किस चीज में बदल गई? तुम्हारे जमीर का यह अंश और तुम्हारा नैतिक बोध क्या बन गया? यह इस कुटिल युग की असली पहचान और असली ज्ञान बन गया। अनेक उत्पीड़न सहने के बाद तुम दानव राजाओं के जघन्य चेहरे देख सकते हो, और साथ ही इस युग के अँधियारे और दुष्टता को समझ सकते हो। क्या यह फसल नहीं है? अगर तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते और सत्य नहीं स्वीकारते हो तो क्या तुम ऐसी फसल पा सकते हो? पहले तुम्हें सिर्फ यह लगता था : “लोग इतने बदतर कैसे होते जा रहे हैं? यह समझ से परे है।” क्या अब भी तुम यह बात कहोगे? अब तो तुम्हें बुरे लोगों, दुष्ट और सांसारिक दानवों के बारे में कुछ अंदरूनी समझ और पहचान है। क्या तुम उनके संपर्क में आने और उनके साथ बातचीत करने को तैयार हो? (नहीं।) तुम यकीनन इसके लिए राजी नहीं होगे। अगर तुम्हें उनसे जुड़ने और घुलने-मिलने को कहा जाए तो इसके बजाय तुम चौंक कर कहोगे : “मुझे डर है। मैं उन्हें नहीं हरा सकता। वे सभी लोग शैतान के हैं, वे बहुत बुरे हैं!” तुम किस वजह से इतने बदल गए? कहीं यह परमेश्वर के वचनों का प्रभाव तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि दुष्ट लोगों को, इस दुष्ट युग को और दुष्ट प्रवृत्तियों का भेद पहचानने के बारे में हमेशा बातें करते रहने से तुम इस युग और मानवजाति को जान पा रहे हो? तुम्हें यह ज्ञान है, इसलिए तुम उनके साथ घुलने-मिलने को तैयार नहीं हो; तुम्हारे नैतिक बोध और तुम्हारे अंदर के जमीर को उनसे घिन आने लगी है और तुम्हें पहचान होने लगी है। तुम धीरे-धीरे उनके प्रकृति सार की असलियत जानने लगे हो; अपने दिल की गहराई से तुम देख सकते हो कि वे दानव हैं। उनके साथ मिलने-जुलने से तुम्हारे दिल को पीड़ा होती है और तुम इतने परेशान हो जाते हो कि तुम्हारे पास जीते रहने का कोई उपाय नहीं बचता; तुम्हारी एकमात्र इच्छा यही होती है कि उनसे फौरन अलग हो जाओ। कुछ लोग जब पहली बार कलीसिया में प्रवेश करते हैं तो भाई-बहनों के संपर्क में आकर यही सोचते हैं : “ये लोग अलग कैसे हैं? ये सारे लोग परिवार के सदस्यों की तरह अपने अंतर्मन के विचार सीधे और खुले ढंग से बताने में सक्षम हैं। ये क्यों एक दूसरे से बिल्कुल भी अपना बचाव नहीं करते? क्या ये मूर्ख हैं, या कुछ और हैं? मैं तो होशियार हूँ। मैं तो सभी से अपना बचाव करता हूँ, और मैं अपने अंतर्मन के विचार किसी को भी नहीं बताता हूँ।” समय बीतने के साथ वे थोड़ा-सा सत्य समझते हैं; उन्हें लगता है कि अगर वे ईमानदार व्यक्ति बनने की खोज शुरू नहीं करते, बल्कि हमेशा अपने आप को ढकते रहते हैं, झूठ बोलते और धोखा देते रहते हैं तो क्या तब वे कोई दानव और एक शैतान नहीं बन जाएँगे? उन्हें यकीनन हटा दिया जाएगा। “मुझे सत्य स्वीकार कर ईमानदार व्यक्ति बनना चाहिए।” फिर वे भाई-बहनों के सामने अपने दिल के द्वार खोलने का प्रयास करते हैं और अपने अंतरतम के विचार बताते हैं। जब वे कभी-कभार झूठ बोलते हैं तो परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, और झूठ को छोड़ कर ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करते हैं। वे सदा इसी तरह अभ्यास करते हैं और फिर एक दिन उन्हें महसूस होता है कि इस तरह जीना सचमुच अच्छा है; तब न वे थकते हैं, न दमित महसूस करते हैं, और न ही उन्हें कोई पीड़ा होती है। उनके हृदय मुक्त और स्वतंत्र हो जाते हैं और उन्हें वास्तव में शांति और आनंद की अनुभूति होती है। इस बिंदु के बाद, वे अपने सभी विचारों और ख्यालों के बारे में भाई-बहनों के साथ खुलकर संगति करने में सक्षम होते हैं। “सिर्फ परमेश्वर के घर में ही सत्य का माहौल होता है, सिर्फ यहीं परमेश्वर के वचनों का अधिकार चलता है, और सिर्फ यही शुद्ध भूमि है। परमेश्वर के घर में रहकर ही लोगों में मानव का स्वरूप आ सकता है!” अगर तुम्हारे मन में सचमुच ऐसी भावनाएँ हैं, तो फिर तुम परमेश्वर को नहीं छोड़ोगे, क्योंकि तुम देख लेते हो कि परमेश्वर प्रेम है, और तुम उसके प्रेम का सुख लेते हो। लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखते देखकर और इस तरह उसका अनुसरण करते देखकर अविश्वासियों की समझ में यह बात नहीं आती है। वे समझ नहीं पाते कि ये लोग क्या कर रहे हैं, इनकी परमेश्वर में इतनी गहरी आस्था क्यों है, या ऐसी कठिन परिस्थितियों के बावजूद ये सभाएँ क्यों करते रहते हैं—यहाँ तक कि जब उन्हें बाहर कर निष्कासित कर दिया जाता है तो भी वे परमेश्वर को नहीं छोड़ते, वे अब भी अच्छे कर्म तैयार करने के लिए सुसमाचार का प्रचार करने के श्रम में जुटे रहते हैं। उनमें कुछ ऐसे लोग होते हैं जो डर के कारण परमेश्वर को छोड़ने का साहस नहीं करते; उन्हें यह डर होता है कि परमेश्वर को छोड़ने से वे उसके दंड का पात्र बन जाएँगे। मैं तुम्हें सत्य बताता हूँ : तुम चैन से सीधे बाहर जा सकते हो, परमेश्वर तुम्हें दंड नहीं देगा। परमेश्वर लोगों को स्वतंत्रता देता है, और परमेश्वर के घर का द्वार अनंत काल तक खुला रहता है; जो भी छोड़कर जाना चाहे वह बिना किसी प्रतिबंध के कभी भी कहीं भी ऐसा कर सकता है। लेकिन अगर एक बार छोड़ने के बाद कोई दोबारा प्रवेश करना चाहता है तो यह इतना सरल नहीं है, क्योंकि यह परमेश्वर से विश्वासघात की बात बन जाती है। उन्हें कड़ी परीक्षा से गुजरना ही चाहिए; चाहे उन्होंने सच्चे मन से पश्चात्ताप किया हो या न किया हो, चाहे वे अच्छे व्यक्ति हों या न हों, उनकी जाँच-पड़ताल होनी ही चाहिए। केवल तभी उन्हें दोबारा कलीसिया में स्वीकारा जा सकता है। लेकिन जो लोग परमेश्वर को त्याग कर संसार में लौटना चाहते हैं, उनके लिए परमेश्वर के घर में कभी कोई प्रतिबंध नहीं रहे हैं। क्या कलीसिया में ऐसा कोई प्रशासनिक आदेश है कि कुछ लोगों को छोड़ने की अनुमति नहीं है? (नहीं।) ऐसे आदेश कभी नहीं रहे हैं। परमेश्वर का घर हर किसी को कलीसिया छोड़ने की अनुमति देता है; अगर कोई बुरा व्यक्ति कलीसिया छोड़ता है तो परमेश्वर का घर उसे खुशी-खुशी विदा करेगा। लेकिन कुछ ऐसे लोग होते हैं जो घर छोड़कर जाने वालों के प्रति यह कह कर हमेशा अपने अच्छे इरादे जताना चाहते हैं : “तुम नहीं छोड़ सकते हो, तुममें अब भी कुछ गुण हैं, थोड़ी काबिलियत है। कलीसिया में तुम्हारे लिए अब भी उम्मीद बची है, और भविष्य में तुम्हें ढेर सारे आशीष मिल सकते हैं।” कुछ नेक इरादों वाले लोग होते हैं जो इसे प्रेम समझ कर दूसरों को इसी तरह मनाने की कोशिश करते हैं। क्या लोगों को इस प्रकार रुकने के लिए कहने का कोई फायदा है? तुम लोगों को तो रोक लोगे लेकिन उनके दिलों को नहीं रोक सकोगे। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते वे परमेश्वर के घर में अडिग नहीं रह सकते; भले ही तुम उन्हें रुकने के लिए बाध्य कर लो, वे ऐसे लोग नहीं हैं जो सत्य का अनुसरण करें, तो वे कौन-से आशीष हासिल कर सकेंगे? अगर वे वफादार श्रमिक हैं तो फिर जीवित बचे रहने का आशीष भी कोई छोटा नहीं है; लेकिन जिन्हें सत्य से प्रेम नहीं है, उनके लिए परमेश्वर में विश्वास रखना उबाऊ है, तो क्या वे श्रम करने को तैयार हैं? इसलिए इस अच्छे इरादों वाली मान-मनौव्वल से किसी अच्छे व्यक्ति के लिए तो कुछ नतीजे निकलते हैं, लेकिन इसे किसी बुरे व्यक्ति पर आजमाना थोड़ी-सी मूर्खता है। दूसरों को प्रोत्साहित करने के भी सिद्धांत होते हैं। जो लोग पश्चात्ताप कर सकते हैं उन्हें प्रोत्साहन देने से नतीजे मिल सकते हैं, जबकि बुरे लोगों को प्रोत्साहन देना फिजूल है। तुम उन्हें जितना ज्यादा मनाने की कोशिश करोगे, वे तुमसे उतना ही ज्यादा चिढ़ते हैं और उनकी शर्मिंदगी गुस्से में बदल जाती है। यह मूर्खता का प्रदर्शन है—किसी बुरे व्यक्ति को प्रोत्साहित करना मूर्खता है। ऐसे भी लोग हैं जिन्हें भले ही परमेश्वर में विश्वास रखते हुए लंबा समय नहीं हुआ है, लेकिन अपने दिलों की गहराई में महसूस करते हैं कि विगत वर्षों में परमेश्वर के वचन पढ़ने से उन्हें कई सत्यों का अनुभवजन्य और स्पष्ट ज्ञान मिला है, और यह भी कि भले ही वे अभी पूरी तरह सत्य हासिल नहीं कर पाए हैं, लेकिन वे थोड़ा-सा बदल चुके हैं और वास्तव में परमेश्वर से काफी कुछ हासिल कर चुके हैं। हालाँकि जब तुमसे अनुभवजन्य ज्ञान और गवाही के बारे में बोलने को कहा जाता है तो भले ही तुम अभी इस बारे में स्पष्ट रूप से नहीं बोल पाते हो, लेकिन तुम्हें केवल इतना महसूस होता है कि तुम किसी अच्छी और सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहे हो, और तुम किसी बुरी या नकारात्मक दिशा में पीछे की तरफ नहीं जा रहे हो—और तुम खुद से निरंतर कह रहे हो, “मुझे अच्छा इंसान बनने की जरूरत है, मुझे ईमानदार व्यक्ति होने की जरूरत है। मैं कपटी इंसान बिल्कुल भी नहीं हो सकता, अहंकारी दुष्ट व्यक्ति होना तो बहुत दूर की बात है, जिससे परमेश्वर घृणा करता है। मुझे ऐसा व्यक्ति बनने की जरूरत है जो परमेश्वर को प्रसन्न करे।” तुम अक्सर खुद को इस तरह समझाते और अपने ऊपर संयम रखते हो, और कुछ साल बाद, आखिरकार तुम्हें लगता है कि तुम थोड़ा-सा मनुष्य के समान जीने में समर्थ हो। लोगों की सबसे सच्ची भावनाओं और अनुभवों की दृष्टि से कहें तो परमेश्वर जब मानवजाति को बचाता है तो उसके कार्य का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्य ही है। अब तक परमेश्वर में विश्वास रख कर तुम लोगों से कौन-सी चीजें छूट गई हैं? मैं तुम्हारे लिए इसे स्पष्ट करता हूँ। तुम लोगों का असंयम छूटा है, जो मन में आए वो करना छूटा है, लापरवाही से जीना छूटा है, रात्रि क्लबों और मयखानों में जाकर नाच-गाना और पार्टी करना छूटा है, और दुष्टता के ज्वार में मूर्खतापूर्ण ढंग से खाने-पीने के अवसर छूटे हैं। तुम्हारे पास ये दिन नहीं रहे। लेकिन इससे भी बढ़कर, तुमने हासिल क्या किया है? लोगों को अक्सर लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने से वे अत्यंत प्रसन्न और निश्चिंत रहते हैं। पूरा जीवन इस तरह जीना बहुत अच्छा रहेगा। तुम जो अधिकांश हासिल करते हो वह खुशी, आनंद और शांति है। क्या ये वास्तविक लाभ नहीं हैं? (जरूर हैं।) कुछ लोग कह सकते हैं : “पिछले दो साल से कर्तव्य निभाते हुए मैं भले ही थोड़ा थक चुका हूँ, फिर भी मुझे सुकून महसूस होता है।” यह सुकून और शांति पैसे से नहीं खरीदी जा सकती है, न यह रुतबे, ख्याति, लाभ या अकादमिक उपाधि के बदले मिल सकती है।

परमेश्वर में विश्वास रखने वाले किसी व्यक्ति के लिए सत्य हासिल करना ही जीवन हासिल करना है और जीवन हासिल करना ही वास्तविक लाभ हासिल करना है। जिस समय यह व्यक्ति वास्तविक लाभ हासिल करता है, उस समय परमेश्वर उससे क्या प्राप्त करता है? मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं? परमेश्वर को मनुष्य से क्या पाने की जरूरत है? क्या परमेश्वर किसी लेन-देन में शामिल होता है? (नहीं।) परमेश्वर ने अपने वचनों या कार्यकलापों में क्या कभी यह कहा है, “मैंने ये वचन कहे हैं, इसलिए तुम लोगों को मुझे इतना पैसा देना पड़ेगा”? क्या परमेश्वर ने तुम लोगों से कभी एक भी पैसा माँगा है? (नहीं।) कुछ शंकालु लोग कभी नहीं मानते कि परमेश्वर इतने निःस्वार्थ और मुक्त भाव से इतने ज्यादा सत्य प्रदान करेगा जो मानवजाति के लिए मनुष्य का जीवन हो सकते हैं; वे इस तथ्य पर यकीन नहीं करते हैं। उन्हें लगता है कि धरती पर सारे मामले लेन-देन वाले होते हैं, कि मुफ्त की दावत जैसी कोई चीज नहीं होती है, इसलिए वे नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन और कर्म मानवजाति को मुक्त रूप से और मुफ्त में प्रदान किए जाते हैं। उन्हें लगता है कि अगर ऐसा है भी तो यह निस्संदेह कोई जाल है। उनका इस तरह परमेश्वर पर संदेह जताना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि वे नहीं जानते कि परमेश्वर किसे बचाता और पूर्ण बनाता है, यह जानना तो दूर रहा कि सत्य किसे प्रदान किया जाता है। लेकिन परमेश्वर जो करता है वह सचमुच मुफ्त होता है। वह लोगों से चाहे जो कुछ करने की अपेक्षा रखे, अगर वे इसे करते हैं, तो वह प्रसन्न रहता है, और लोग उसकी स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम रहते हैं। अगर लोग परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों को स्वीकार पाते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जी पाते हैं, तो परमेश्वर इसी नतीजे की अपेक्षा करता है, और यही वह चीज है जो वह लोगों को बचाते समय चाहता है। परमेश्वर सिर्फ इतना थोड़ा चाहता है, लेकिन क्या लोग उसे यह दे सकते हैं? ऐसे कितने लोग हैं जो परमेश्वर की इस अपेक्षा को उसे चुकाई जाने वाली सबसे मूल्यवान चीज मान सकते हैं? परमेश्वर के दिल को कौन समझ सकता है? कोई नहीं, और लोग इस बात से अनजान हैं कि वे सबसे मूल्यवान चीज हासिल कर चुके हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि वे सबसे मूल्यवान चीज हासिल कर चुके हैं? परमेश्वर अपना जीवन, जो वह है और जो उसके पास है वह सब कुछ मनुष्य को प्रदान कर चुका है ताकि मनुष्य इसे जी सके, ताकि मनुष्य वह सब कुछ ले सके जो परमेश्वर है और जो उसके पास है, और वो सत्य भी ले सके जो उसने मनुष्य को प्रदान किए हैं, और इन्हें वह अपने जीवन-दिशा और लक्ष्य में बदल सके ताकि वह उसके वचनों के अनुसार जी सके और उसके वचनों को अपना जीवन बना सके। इस तरह से क्या यह नहीं कहा जा सकता कि परमेश्वर ने अपना जीवन मुक्त भाव से मनुष्य को प्रदान किया है ताकि परमेश्वर का जीवन उनका जीवन बन सके? (कहा जा सकता है।) तो फिर वह क्या है जो लोग परमेश्वर से हासिल करते हैं? उसकी अपेक्षाएँ? उसके वादे? या कुछ और? लोगों को परमेश्वर से जो मिलता है वह कोई खोखला वचन नहीं है, वह परमेश्वर का जीवन है! परमेश्वर जब लोगों को जीवन प्रदान करता है तो उसकी एकमात्र अपेक्षा यही होती है कि वे उसका जीवन अपना बना लें और उसे जिएँ। जब परमेश्वर तुम्हें यह जीवन जीते देखता है तो वह संतुष्ट होता है; यही उसकी एकमात्र अपेक्षा है। इसलिए, लोग परमेश्वर से जो हासिल करते हैं वह कोई अनमोल चीज है, लेकिन जब वह उन्हें सबसे अनमोल चीज देता है तो उस वक्त उसे कुछ नहीं मिलता है। सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्य है; मनुष्य ही सर्वाधिक फसल हासिल करता है, और मनुष्य ही सबसे बड़ा लाभार्थी है। जिस वक्त लोग परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकारते हैं, तो वे सत्य को समझते हैं और उन्हें अपने आचरण के लिए सिद्धांत और नींव प्राप्त होते हैं, इसलिए उन्हें अपने जीवन मार्ग के लिए दिशा मिल जाती है। वे फिर कभी शैतान से गुमराह नहीं होते या उसके बंधन में नहीं रहते, न फिर कभी वे बुरे लोगों के हाथों गुमराह होते हैं न ही इस्तेमाल किए जाते हैं; वे फिर कभी बुरी प्रवृत्तियों से दूषित नहीं होते या ललचाते नहीं हैं। वे स्वर्ग और पृथ्वी के बीच मुक्त और स्वतंत्र होकर जीते हैं, और परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन सचमुच जीने में सक्षम रहते हैं, और फिर कभी किसी बुरी या अंधकारपूर्ण शक्ति के नृशंस व्यवहार का शिकार नहीं होते हैं। कहने का आशय यह है कि जब कोई व्यक्ति इस प्रकार का जीवन जीता है तो वह फिर कभी पीड़ा नहीं सहता, और उसे कोई कठिनाइयाँ नहीं होती हैं; वह खुशी से, स्वतंत्रता और सुख से रहता है। परमेश्वर से उसका सामान्य संबंध होता है; वह उसके खिलाफ विद्रोह नहीं करता, न उसका प्रतिरोध करता है। वास्तव में उसकी संप्रभुता के अधीन रहते हुए, वह अंदर-बाहर से इस तरीके से जीता है जो बिल्कुल उचित होता है; उसके पास सत्य और मानवता होती है, और वह मानवजाति के नाम के योग्य बन जाता है। इतना बड़ा लाभ प्राप्त करने की तुलना परमेश्वर के उन वादों से करो जो मनुष्य की कल्पना में परमेश्वर ने उससे किए हैं या उन आशीषों से करो जिन्हें मनुष्य प्राप्त करना चाहता है—इनमें बेहतर क्या है? लोगों को इनमें से किसकी सर्वाधिक आवश्यकता है? इनमें से क्या लोगों को ऐसा बना सकता है कि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करें और उसकी आराधना करें, और परमेश्वर के हाथों नष्ट या दंडित हुए बिना सदा जी सकें? क्या तुम्हारी आशीष पाने की लालसा महत्वपूर्ण है या परमेश्वर ने तुम्हें जो जीवन दिया है उसे सच्चे मन से जीना महत्वपूर्ण है? परमेश्वर के समक्ष आने में अधिक सहायक क्या हो सकता है, जिससे वह तुमसे घृणा न करे, तुम्हें त्यागे या दंडित न करे? तुम्हारे जीवन को क्या बचा सकता है? केवल परमेश्वर से आने वाले सत्य को स्वीकार करके ही तुम यह चिरस्थायी जीवन हासिल कर सकते हो। एक बार तुम्हें यह जीवन मिल गया तो तुम्हारे जीवन की कोई समय सीमा नहीं होगी—यह शाश्वत जीवन है। तात्पर्य यह है कि अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर से मिला जीवन हासिल नहीं करता तो उसे मरना ही होगा; मनुष्य का जीवन समय सीमा से बँधा है। क्या समय सीमा से बँधा जीवन अभी भी शाश्वत जीवन है? नहीं है। क्या आशीष पाने की तुम्हारी इच्छा परमेश्वर से शाश्वत जीवन पाने की जगह ले सकती है? क्या किसी की आशीष पाने की लालसा उसे मृत्यु से दूर रख सकती है? नहीं, निश्चित रूप से ऐसा नहीं हो सकता है।

परमेश्वर इतने अधिक सत्य व्यक्त करने आया है। लोग परमेश्वर से जीवन प्राप्त करते हैं और वे उससे मिलने वाला चिरस्थायी जीवन पाते हैं, ऐसा जीवन जो अनंत है। क्या परमेश्वर बदल गया है? (नहीं।) सैद्धांतिक रूप से बात करें तो परमेश्वर की मानवजाति को बचाने की महान परियोजना के कारण लोग अंततः बिना मरे हमेशा जीने योग्य बन गए हैं; इस स्तर पर परमेश्वर अपनी कामनाएँ पूरी कर चुका है, अपनी छह-हजार वर्ष की प्रबंधन योजना पूरी कर चुका है—जो मानवजाति को बचाने का कार्य है। परमेश्वर का महान कार्य पूरा हो चुका है, और ऐसा लगता है जैसे कि परमेश्वर को इससे कुछ लाभ मिला है, लेकिन हकीकत में, वह कौन है जो हमेशा जिएगा? वह कौन है जिसे सर्वाधिक आशीष मिल रहे हैं? (मनुष्य।) वह मानवजाति ही है। अगर परमेश्वर इन लोगों को हासिल न करे तो क्या उसका दर्जा बदल जाएगा? (नहीं।) परमेश्वर का दर्जा नहीं बदलेगा, न उसका सार बदलेगा, न कुछ और बदलेगा। इसके विपरीत, मनुष्य की नियति उल्लेखनीय रूप से बदल जाएगी; यह कोई छोटा-मोटा अंतर नहीं होगा, बल्कि जमीन और आसमान का अंतर होगा! एक का अर्थ अनंत रूप से मरना है, दूसरे का अनंत रूप से जीना। लोगों को किसे चुनना चाहिए? (अनंत रूप से जीना।) परमेश्वर क्या देखने की कामना करता है? मानवजाति से उसकी सबसे बड़ी अपेक्षा क्या है? वह इतना बड़ा मूल्य क्यों चुकाएगा? परमेश्वर ने मनुष्य को अपना जीवन मुक्त हस्त से दिया है, बिना किसी माँग या लेन-देन के, और बिना किसी अतिरिक्त अपेक्षा के। वह लोगों से सिर्फ यही अपेक्षा करता है कि वे उसके वचन मन से स्वीकारें और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार मानव के समान जिएँ, और फिर उसके कार्य के नतीजे निकलेंगे, और उसकी कामनाएँ संतुष्ट होंगी। लेकिन इंसानों की सोच संकीर्ण है; वे सोचते हैं कि ये सारे वचन व्यक्त करके और लोगों को इन्हें खिला-पिलाकर और इनमें प्रवेश कराकर, लोगों से चीजों का त्याग करवा कर, खुद को खपवा कर, खुद को एक ओर रखकर, खुद के विरुद्ध विद्रोह करवा कर और निरंतर आराधना करवा कर, शायद परमेश्वर को कोई बहुत बड़ा लाभ मिल रहा है। क्या वास्तव में यही बात है? (नहीं, परमेश्वर निःस्वार्थ है। वह लोगों को मुक्त रूप से सत्य प्रदान करता है, न कोई माँग करता है, न ही प्रतिदान करने की अपेक्षा करता है।) इन चीजों के मद्देनजर क्या यह वाक्यांश “परमेश्वर निःस्वार्थ है” सच है? (बिल्कुल।) परमेश्वर निःस्वार्थ है। परमेश्वर जो भी चीजें करता है उनमें से किसी में भी उसका स्वार्थ नहीं होता है। क्या परमेश्वर ने कभी कुछ ऐसा किया है जो सिर्फ उसके लिए हो और मनुष्य के लिए न हो? उसने ऐसा कभी नहीं किया। आज तक परमेश्वर ने ऐसी कोई चीज नहीं की है, और लोग इसे अपने अनुभवों से जान सकते हैं। परमेश्वर जब लोगों को सत्य समझने और उससे मिलने वाले जीवन को प्राप्त करने का मौका देता है, तभी वह कई परिस्थितियों, लोगों, घटनाओं और चीजों का आयोजन करता है, और लोगों को अपने कर्तव्य निभाने के लिए उचित अवसर देता है; ताकि उनके पास उपयुक्त परिस्थितियाँ और हालात हों जिनमें उसके वचनों की सत्यता और उनमें निहित सत्यों का पर्याप्त रूप से अनुभव लिया जा सके और इन्हें गहराई से समझा जा सके। वह काट-छाँट, अनुशासन, परीक्षण, शोधन, स्मरण और प्रोत्साहन के साथ ही कलीसियाई जीवन और आपसी संगति, समर्थन और भाई-बहनों की मदद करने जैसे तमाम तरीके अपनाता है जिससे लोग उसके इरादे समझ सकें, उसके दिल को गलत न समझें और वे सही मार्ग पर कदम बढ़ा सकें। जब परमेश्वर यह सब करता है तो क्या तब वह लोगों से कोई अतिरिक्त अपेक्षा रखता है, क्या उनसे अपने लिए विशेष चीजें करने की अपेक्षा रखता है? (नहीं।) संक्षेप में, जिस दौरान परमेश्वर लोगों को बचाता है, वह उन्हें पर्याप्त अवसर और पर्याप्त स्थान देता है, और प्रत्येक व्यक्ति का निर्माण करने के लिए विभिन्न लाभ और सुविधाजनक स्थितियाँ और परिस्थितियाँ उपलब्ध कराता है। साथ ही वह हर व्यक्ति को शुद्ध भी करता है, और अंत में, जिन्हें पूर्ण बनाया जा सकता है उन्हें पूर्ण बनाता है; वह उन्हें पूर्ण बनाता है जो सत्य से प्रेम करते हैं, इसका अनुसरण करते हैं। संक्षेप में, परमेश्वर यह जो कुछ करता है, वह चाहे लोगों को कहे गए वचन हों, चाहे वह काम हो जो वह करता है या वह मूल्य हो जो वह चुकाता है, यह सब मुक्त रूप से किया जाता है।

दरअसल, परमेश्वर चाहे जितने भी वर्ष कार्य करे, चाहे परमेश्वर के जितने भी वचन लोग समझ सकें, चाहे वे कितना भी सत्य अभ्यास में ला सकें, या उन्हें परमेश्वर से चाहे जितना भी जीवन पोषण मिले, क्या मानवजाति में से कोई भी वास्तव में परमेश्वर से बात कर सकता है? फिलहाल बातचीत को एक तरफ छोड़ो—तुम लोगों से यह अपेक्षा रखना अभी थोड़ा ज्यादा है—क्या कोई ऐसा है जो वास्तव में परमेश्वर के दिल को समझ सके? उसे संतुष्ट करने की बात भी छोड़ो—क्या तुम उसके दिल को समझ सकते हो? कोई नहीं समझ सकता। कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर इतना महान है, और हम इंसान इतने तुच्छ हैं। परमेश्वर स्वर्ग में है, और हम धरती पर हैं। हमारे लिए परमेश्वर का एक ही विचार बरसों तक चिंतन-मनन के लिए काफी है—हम उसे कैसे समझ सकते हैं? इसे हासिल करना आसान नहीं है, और उसके साथ बातचीत करना तो और भी दुष्कर है।” तो क्या यह हासिल करना कठिन है? क्या कठिनाई का कोई स्तर है? यह कठिनाई कहाँ से आती है? परमेश्वर के विचार उसके सारे वचनों में हैं, उसके द्वारा व्यक्त किए गए सत्य में हैं, और उसके स्वभाव में हैं। अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता है, सत्य को समझ नहीं सकता है, न उस सत्य और जीवन को हासिल कर सकता है जो परमेश्वर से मिलता है, तो फिर वह कभी भी उसे बूझ नहीं सकता। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर को बूझ नहीं पाता तो फिर वह बातचीत के लिए कभी भी उसके समक्ष नहीं आ सकता है, न ही वह ऐसा करने के काबिल होगा। बातचीत करने से मेरा आशय क्या है? इसका अर्थ है अपने हृदय को खोलकर रख देना, दिल से अपनी बात कहना। क्या तुम लोगों को यह करना आता है? तुम्हें अपने माता-पिता, भाई-बहनों और अंतरंग मित्रों के साथ तो दिल से बात करना आता है मगर तुम यह कभी नहीं जानते कि परमेश्वर के साथ दिल से बात कैसे की जाती है। तो समस्या कहाँ से आती है? (परमेश्वर के हृदय को न समझने-बूझने से।) तुम परमेश्वर के हृदय को क्यों नहीं बूझ पाते हो? (मनुष्य को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है।) यह एक प्रमुख कारण है। लोग परमेश्वर के हृदय को नहीं समझते-बूझते हैं; वे उसके हृदय को नहीं जानते हैं, न वे यह जानते हैं कि परमेश्वर क्या सोच रहा है, किस चीज से प्रेम करता है, किस चीज से घृणा करता है, वह खिन्न क्यों है या वह उदास क्यों है। तुम इन चीजों का अनुभव नहीं कर सकते जिससे साबित होता है कि तुमने परमेश्वर के वचनों में निहित सत्य या जीवन हासिल नहीं किया है, और तुम्हारा हृदय अभी भी परमेश्वर से दूर है। जब किसी का हृदय परमेश्वर से दूर हो तो इसका अर्थ क्या होता है? अव्वल तो इसका अर्थ यह है कि लोगों के दिलों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है; वे अभी भी अपने मालिक खुद होना चाहते हैं। इस तरह चलते रहने के कारण वे हर जगह और हर समय परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने और उसका प्रतिरोध करने की ओर बढ़ते हैं; यहाँ तक कि वे परमेश्वर को त्याग देते हैं, और उसे छोड़ देते हैं। कुछ लोगों का सामना आपदा और तबाही से होता है और वे परमेश्वर को गलत समझ बैठते हैं, और उसके खिलाफ शिकायतें करते हैं; वे ऐसी बातें करते हैं जो परमेश्वर की आलोचना करती हैं और उसे नकारती हैं। ऐसे लोग पहले से ही परमेश्वर का प्रतिरोध और उससे विश्वासघात कर रहे हैं। यही सत्य वस्तुस्थिति है। अगर लोग ऐसी दशा में जिएँ तो क्या यह परमेश्वर के लिए अच्छा है या खराब? (खराब।) यह खराब क्यों है? (यह वह चीज नहीं है जो परमेश्वर चाहता है, न वह इसे देखने की उम्मीद करता है।) यह एक पहलू है, और परमेश्वर ऐसी चीजें देखने की उम्मीद नहीं करता है। तो फिर परमेश्वर के अंतर्मन को कैसा महसूस होगा? (अफसोस से भरा और आहत।) पहले तो उसे ठेस लगेगी। अगर तुम्हारे दिल में किसी से भरपूर अपेक्षाएँ थीं, और तुम्हें उम्मीद थी कि वह तुम्हारे लिए अपना दिल खोलकर रख देगा, लेकिन इसके बजाय वह तुमसे दूर हो जाए और तुम्हें गलत समझे, तुमसे हमेशा छिपता और बचता रहे, तो तुम क्या सोचोगे? भले ही उसने तुम्हारे सामने अपना दिल खोलकर तुमसे बातचीत की हो, लेकिन तुम जो सुनना चाहते हो उसने वह न कहा हो, तो तुम क्या सोचोगे? क्या तुम अकेलापन महसूस नहीं करोगे? (बिल्कुल।) पहले तुम अकेलापन और अलग-थलग महसूस करोगे, मानो तुम्हारा कोई प्रियजन न हो, कोई विश्वासपात्र न हो, कोई ऐसा न हो जिससे दिल की बात कह सको, कोई ऐसा न हो जिस पर विश्वास या भरोसा कर सको; तुम्हारा दिल अकेला होगा। जब तुम अकेलापन महसूस कर रहे होगे उस वक्त तुम क्या सोच रहे होगे? तुम्हें कैसा लगेगा? क्या तुम्हारे दिल को ठेस नहीं लगेगी? (बिल्कुल लगेगी।) इसे ठेस लगेगी। क्या इस पीड़ा को मिटाना आसान है? किस प्रकार की चीजें इस पीड़ा को कम कर सकती हैं? तुम इस स्थिति को कैसे बदल सकते हो? क्या इस लालसा को छोड़ने और इस तथ्य को न देख पाने का स्वाँग रचकर ऐसा हो सकता है? (नहीं।) तो फिर अंत में तुम्हें क्या करना पड़ेगा? अंतिम विकल्प क्या होना चाहिए? ऐसी स्थिति कैसे बदली जा सकती है? परमेश्वर दो चीजें कर सकता है। मनुष्य के पास अन्य तरीके हो सकते हैं, लेकिन भ्रष्ट मानवजाति के विकल्प निश्चित रूप से परमेश्वर की कार्यप्रणालियों से अलग होते हैं। मनुष्य यह विकल्प चुनेगा, “अगर तुम मेरी इच्छा के अनुरूप नहीं चलोगे तो मैं तुम पर कोई ध्यान नहीं दूँगा। अगर यह व्यक्ति काम नहीं आएगा तो मैं उस व्यक्ति को चुनूँगा। अगर पहला खराब है तो मैं दूसरे को चुनूँगा।” क्या परमेश्वर इस तरह कार्य करेगा? बिल्कुल भी नहीं। परमेश्वर जो चीजें करना चाहता है उन्हें छोड़ता नहीं है। तो परमेश्वर क्या करेगा? यह ऐसा मामला है जिसमें परमेश्वर का निःस्वार्थ सार सन्निहित है। पहली बात, परमेश्वर मनुष्य की जरूरतों, उसके जीवन और आत्मा की जरूरतों के साथ ही साथ उसकी परिस्थितियों की जरूरतों और अन्य विभिन्न जरूरतों की मुक्त रूप से पूर्ति करता रहेगा। इसके अलावा, परमेश्वर दूसरी चीज भी करेगा, जो वह पिछले कई हजार साल से करता चला आ रहा है। क्या तुम लोग सोच सकते हो कि यह क्या है? (इंतजार।) और कुछ? (परमेश्वर इंतजार करता रहेगा और मनुष्य का मार्गदर्शन करता रहेगा।) लगता है कि तुम लोगों के पास कुछ प्रत्यक्ष अनुभव है, कि तुम्हारी यह मानसिकता है। बिल्कुल सही, वह इंतजार करेगा। परमेश्वर कोई दूसरा तरीका नहीं चुनेगा, फिर चाहे वह पलायन का हो, प्रयास करना छोड़ने का हो या अपना दुख कम करने का हो। जब वह मानवजाति को मुक्त रूप से जीवन पोषण मुहैया कर रहा होता है, तब वह मुक्त रूप से इंतजार भी कर रहा होता है। वह यही करता है। वह इसे कितनी खूबी से करता है? मनुष्य के शब्दों में कहें तो क्या परमेश्वर अपेक्षा से कहीं अधिक नहीं करता है? (परमेश्वर वह सब कुछ करता है जो कर सकता है और जो उसे करना चाहिए।) परमेश्वर यह सब मुक्त रूप से करता है, ताकि लोग अनंत जीवन हासिल कर सकें। उसकी कोई और अपेक्षा नहीं है; कम-से-कम, यह तो कह ही सकते हैं कि वह मनुष्य से कोई अनुचित अपेक्षा नहीं रखता है। जब परमेश्वर मनुष्य को यह सब प्रदान कर रहा होता है, तभी वह मुक्त रूप से और थोड़ा-थोड़ा करके मनुष्य को अपनी सबसे अनमोल और मूल्यवान चीज भी प्रदान करता है, यह वह चीज है जिसे मनुष्य को सर्वाधिक महत्व देना और सँजोना चाहिए। इन सब चीजों को प्राप्त करते समय लोग खुशी, शांति, जीवित रहने और स्व-आचरण के लिए एक नींव, और सबसे बड़े संभव लाभ प्राप्त करते हैं। लेकिन उसी समय इनमें से किसी ने भी परमेश्वर के बारे में सोचा है? क्या उन्होंने सोचा कि परमेश्वर क्या कर रहा है और क्या सोच रहा है? उन्होंने इस बारे में नहीं सोचा, है ना? जब लोग यह सब हासिल करते हैं तो क्या उनमें से कोई खुद से पूछता है : “परमेश्वर ने हमें जो कुछ प्रदान किया है, उसके बदले में हमने उसे क्या दिया है? परमेश्वर को हमसे क्या मिलता है? जब हमें आनंद और खुशी मिलती है तो क्या परमेश्वर खुश होता है?” लोग शायद इस बारे में पूछते या सोचते न हों। जब लोग परमेश्वर के वचनों के बारे में आपस में संगति करते हैं, और खुशी और आमोद-प्रमोद में डूबे रहते हैं, तब क्या उनमें से कोई परमेश्वर के बारे में सोचता है? वे नहीं सोचते; उन्होंने कभी नहीं सोचा है, और वे नहीं जानते कि सोचना कैसे है। ऐसी चीजें उनके मन में नहीं होती हैं। जब लोग ये सब परमेश्वर से प्राप्त करते हैं तभी वे सोचते हैं : “मैं कितना भाग्यवान हूँ! यह सब पाना शानदार है, मैं बहुत धन्य हूँ! कोई भी मुझ जैसा धन्य नहीं है। सचमुच परमेश्वर का धन्यवाद है!” लोग बस धन्यवाद का एक शब्द कहते हैं; वे केवल एक तरह की कृतज्ञता की मनःस्थिति में होते हैं। वे चाहे जितने ईमानदार हों, या उनके दिल में चाहे जितना उत्साह हो, या वे चाहे जितना सोचें कि वे कितना बड़ा बोझ उठा सकते हैं, और वे चाहे जितना सोचें कि वे पहले ही कितना अधिक सत्य समझ चुके हैं, या वे परमेश्वर के लिए क्या-क्या कर सकते हैं, यहाँ तक कि जब परमेश्वर मनुष्य के साथ होता है तब भी वह तनहा होता है! मैं यह क्यों कहता हूँ कि वह तनहा होता है? क्योंकि शुरू से अंत तक परमेश्वर मनुष्यों को चाहे कुछ भी प्रदान कर दे, वह उनके लिए चाहे कुछ भी कर दे, वह चाहे जिस किसी रूप में उनके सामने प्रकट हो, या वह चाहे जिस ढंग से उन पर कार्य करे, वे परमेश्वर को अलग-थलग ही रखते हैं। क्या यही बात नहीं है? (यही है।) तो फिर यह स्थिति किस बिंदु पर बदलेगी, ताकि परमेश्वर को आगे कभी इंतजार करने की जरूरत न पड़े, और वह आगे कभी अकेलापन महसूस न करे? इस स्थिति को बदलने के लिए लोगों को कौन-सी चीजें करने की जरूरत है और उनके आध्यात्मिक कद का कौन-सा स्तर होना जरूरी है? यह किस चीज पर निर्भर है? (यह लोगों के अनुसरण पर निर्भर करता है।) यह मामला अंततः अब भी मनुष्य पर निर्भर करता है, परमेश्वर पर नहीं। जैसा मैंने कहा है, जब मनुष्य परमेश्वर के समक्ष आकर दिल से बोलने में सक्षम होता है, और जब उसके दिल में अलगाव नहीं होता है, जब वह परमेश्वर के साथ वार्तालाप करने और उसके मन को बूझने में सक्षम होता है, जब वह जानता है कि वह क्या सोच रहा है और वह क्या करना चाहता है, वह किसे पसंद करता है और किससे घृणा करता है, वह खिन्न क्यों होता है और वह प्रसन्न क्यों होता है, तब परमेश्वर को अकेलापन महसूस नहीं होगा। अगर लोग ऐसा करने में सक्षम हैं तो फिर वे सचमुच परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाएँगे। यही वह सच्चा संबंध है जिसे परमेश्वर अपने और मनुष्य के बीच देखना चाहता है। क्या तुम समझ रहे हो? (थोड़ा-बहुत।) क्या परमेश्वर के दिल को गहराई से समझना आसान है? जब तुम परमेश्वर के वचन गंभीरता से पढ़ोगे और उसके द्वारा व्यक्त हर वचन और हर सत्य पर परिश्रमपूर्वक विचार कर उसे समझोगे और अनुभव करोगे, तब तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के हृदय में प्रवेश करोगे और इसे समझने लगोगे। जब तुम परमेश्वर के हृदय को बूझोगे तभी तुम जान लोगे कि उसके हृदय को कैसे संतुष्ट करना है। अगर कोई परमेश्वर के हृदय को नहीं बूझ सकता तो फिर वह उसे संतुष्ट कैसे करेगा? यह असंभव है। परमेश्वर को संतुष्ट करने की पूर्व शर्त क्या है? (समझना-बूझना।) समझना और बूझना सर्वोपरि है, उसके बाद तुम संतुष्टि की बात कर सकते हो। क्या तुम लोगों के लिए यह काम कठिन है? (प्रयास करके और मेहनत से सोचने-समझने से यह कठिन नहीं रह जाता है।) यह काम वास्तव में कठिन नहीं है। परमेश्वर जो वचन व्यक्त करता है, उन्हें लोग सुन सकते हैं और वह जो कार्य करता है, उसे लोग देख सकते हैं; वे उसके वचनों और कार्यों को अपने दिल में स्वीकार करते हैं और कोई उन्हें नकारता नहीं। यह लोगों के दिल पर निर्भर करता है; जब तक इसके लिए उनका दिल करता रहेगा, इसे हासिल करना आसान होगा। अगर तुम असंवेदनशील हो तो यह कष्टकर है। फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें कितने वचन बताए गए हैं—वे सब व्यर्थ हैं।

मैंने अभी-अभी इस बारे में संगति की कि किस प्रकार मनुष्य परमेश्वर की संपूर्ण प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी है। क्या यह तथ्य नहीं है? क्या तुम लोगों ने यह तथ्य देखा है? (देखा है।) कुछ लोग सुन और समझ चुके हैं और अब इस सोच-विचार में डूबे हैं, “तो मुझे वास्तविक लाभ प्राप्त हो सकते हैं। यह महज बच्चों की कहानी नहीं है, मैं सचमुच अनंत जीवन पा सकता हूँ!” तुम अनंत जीवन कैसे पा सकते हो? (परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करके।) तुम्हारे विचार से परमेश्वर ने ये जो सत्य व्यक्त किए हैं उनकी सर्वाधिक जरूरत किसे है? क्या इनकी जरूरत परमेश्वर को है? (इनकी जरूरत परमेश्वर को नहीं, मनुष्य को है।) यह मनुष्य ही है जिसे इनकी सर्वाधिक जरूरत है; परमेश्वर को इनकी जरूरत नहीं है। मनुष्य को जिन चीजों की जरूरत है, परमेश्वर ने वे उसे प्रदान कर दी हैं। क्या वह सर्वाधिक धन्य नहीं है? (अवश्य है।) इस समय अगर तुम्हें पूरी दुनिया और अनंत जीवन में से किसी एक को चुनने को कहा जाए तो तुम किसे चुनोगे? कुछ मूर्ख लोग कहेंगे : “मुझे अनंत जीवन नहीं चाहिए, क्योंकि मैं न तो इसे देख सकता हूँ, न ही महसूस कर सकता हूँ। इसका अनुसरण बहुत ही थका देने वाला लगता है। मुझे पैसा चाहिए, बंगला चाहिए, शानदार कार चाहिए—ये ठोस लाभ हैं!” क्या ऐसे लोग होते हैं? तुम यह नहीं कह सकते कि ऐसे लोग नहीं होते हैं, यहाँ तमाम तरह के मूर्ख होते हैं। मैं जिस तरह से भी कहूँ वे नहीं समझते हैं इसलिए उन्हें जाने दो। उनके पास यह आशीष नहीं है। यह उनका अपना चुनाव है। अंत में तुम्हें वही मिलेगा जो तुमने चुना है; अपने चुने हुए विकल्प की जिम्मेदारी तुम्हें ही उठानी पड़ेगी। तुम्हें अपने विकल्पों की कीमत चुकानी होगी; जीवन मिलेगा या मरण, यह तुम्हारे चुने हुए मार्ग पर निर्भर करेगा। अगर तुम अंत तक परमेश्वर का प्रतिरोध करना चाहते हो, तो फिर तुम मृत्यु के मार्ग पर हो। अगर तुम यह कहते हो कि “मैं उस मार्ग का अनुसरण करूँगा जो मुझे परमेश्वर ने दिखाया है” तो फिर तुम सदा जी सकोगे—यह साकार होकर रहेगा। परमेश्वर का हर वचन पूर्ण और साकार होगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। कुछ लोग कहते हैं : “ऐसा क्यों है कि मैं इस मामले को नहीं जानता हूँ?” अगर तुम नहीं जानते और मैं तुम्हें बताऊँ, तो क्या तुम इसे नहीं जानते हो? कुछ अन्य लोग कहते हैं : “भले ही मैंने इसके बारे में सुना हो, मैंने इसे अपनी आँखों से नहीं देखा है, इसलिए मुझे अब भी लगता है कि यह वास्तविक नहीं है।” तब तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है। अगर किसी व्यक्ति में कोई आस्था न हो, तो चाहे वह अपनी आँखों से क्यों न देख ले, फिर भी विश्वास नहीं करेगा। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं है, वे अगर देख भी लें तो जानेंगे नहीं, या अगर वे सुन भी लें तो समझेंगे नहीं। जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ है और जो सत्य को समझते हैं, सिर्फ वही लोग परमेश्वर के वचनों को हर दिन सिद्ध और पूरा होते देख सकते हैं। अगर तुम यह मानते हो कि परमेश्वर के वचन सब कुछ पूरा कर देते हैं, परमेश्वर सर्वशक्तिशाली है, उसके सारे वचन पूरे होंगे, तो फिर तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए। अगर तुम यह देखो कि परमेश्वर के वचन तुम्हारे अंदर पूरे और सिद्ध हो रहे हैं तो फिर तुम उसमें आस्था रखोगे। निश्चिंत रहो, तुम परमेश्वर से जितने वादे या आशीष माँग या सोच सकते थे, तुम्हें उससे ज्यादा ही हासिल होंगे!

11 दिसंबर 2016

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